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...मोक्षशास्त्र
टीका
( १ ) यहाँ 'जीवाः' शब्द बहुवचन है; वह यह बतलाता है कि जीव अनेक हैं । जीवका व्याख्यान पहले ( पहले चार अध्यायों में) हो चुका है; इसके अतिरिक्त ३६ वें सूत्रमें 'काल' द्रव्य बतलाया है, अत: सब मिलकर छह द्रव्य हुए ।
३.६२
( २ ) जीव बहुत से हैं और प्रत्येक जीव 'द्रव्य' है ऐसा इस सूत्र में प्रतिपादन किया है इसका क्या अर्थ है; यह विचार करते हैं । जीव अपने ही गुरण पर्यायको प्राप्त होता है इसलिये उसे भी द्रव्य कहा जाता है । शरीर तो जीव द्रव्यकी पर्याय नहीं; किन्तु पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है, क्योंकि उसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण पाया जाता है और चेतन नहीं । कोई द्रव्यं दूसरे द्रव्य के गुरण पर्यायको प्राप्त ही नहीं होता, इसलिये पुद्गल द्रव्य या उसकी शरीरादि पर्याय चेतन रूपको ( जीवत्त्वको या जीवके किसी गुरण पर्यायको ) कभी भी प्राप्त नहीं होता । इस नियमके अनुसार जीव वास्तवमें शरीरको प्राप्त होता है यह बनता ही नहीं । जीव प्रत्येक समय अपनी पर्यायको प्राप्त होता है और शरीरको प्राप्त नहीं होता ! इसलिये जीव शरीरका कुछ कर नहीं सकता, यह त्रिकाल प्रबाधित सिद्धान्त है । इस सिद्धान्तको समझे बिना जीव- अजीव तत्वुको अनादिसे चली आई भूल कैभी दूर नहीं हो सकती ।
( ३ ) जीवका शरीर के साथ जो सम्बन्ध दूसरे, तीसरे और चौथे अध्यायोंमें बताया है वह एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध मात्र बताया है, तादात्म्य सम्बन्ध नही बताया, अतः यह व्यवहार कथन है । जो व्यवहारा के वचनोंको वास्तव में निश्चयके वचन मानते हैं वे 'घी का घड़ा' ऐसा कहनेसे घड़ेको वास्तवमें घी का बना हुआ मानते हैं, मिट्टी या धातुका बना हुआ नही मानते, इसलिये वे लौकिक मिथ्यादृष्टि हैं । शास्त्रोंमें ऐसे जीवोंको 'व्यवहार विमूढ' कहा है । जिज्ञासुओंके अतिरिक्त जीव इस व्यवहार मूढताको नहीं छोड़ेंगे और व्यवहार, विमूढ़ जीवोंकी संख्या त्रिकाल बहुत ज्यादा रहेगी । इसलिए धर्मप्रेमी जीव ( दुःखको दूर करनेवाले