________________
६५२
मोक्षशास्त्र
(२) श्री समयसार गाथा २०६ में निर्जराका स्वरूप निम्न प्रकार
बताया है |
'एदरिदो रिच्चं संतुट्ठो होहि रिपच्चमेदह्नि । एदे होहिं तित्तो होहदि तुह उत्तमं सोक्खं ॥ २०६ ॥
अर्थ - हे भव्य प्राणी ! तू इसमें ( ज्ञानमें ) नित्य रत अर्थात् प्रीतिवाला हो, इसी में नित्य सन्तुष्ट हो और इससे तृप्त हो, ऐसा करने से तुझे उत्तम सुख होगा ।
इस गाथा में यह बतलाया है कि निर्जरा होने पर आत्माकी शुद्ध पर्याय कैसी होती है |
(३) संवरके साथ अविनाभावरूपसे निर्जरा होती है । निर्जराके आठ आचार ( अङ्ग, लक्षरण ) है; इसमें उपबृंहण और प्रभावना ये दो आचार शुद्धिकी वृद्धि बतलाते है । इस सम्बन्ध में श्री समयसार गाथा २३३ की टीकामें निम्नप्रकार बतलाया है ।
"क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभावमयपनेके कारण समस्त श्रात्मशक्तियोंकी वृद्धि करनेवाला होनेके कारण, उपवृ हक अर्थात् मात्मशक्तिका बढ़ानेवाला है, इसीलिये उसके जीवकी शक्तिकी दुर्बलतासे ( अर्थात् मंदतासे ) होनेवाला बन्ध नही होता परन्तु निर्जरा ही है ।" ( ४ ) और फिर गाथा २३६ की टीका तथा भावार्थ में कहा हैटीका क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभावमयपनेको लेकर ज्ञानकी समस्त शक्तिको प्रगट करनेसे - विकसित करनेसे, फैलानेसे प्रभाव उत्पन्न करता है अतः प्रभावना करनेवाला है इसीलिये इसके ज्ञानकी प्रभावनाके अप्रकर्षसे ( अर्थात् ज्ञानकी प्रभावनाको वृद्धि न होनेसे ) होनेवाला बन्ध नही होता परन्तु निर्जरा ही है ।
भावार्थ- प्रभावनाका अर्थ है प्रगट करना, उद्योत करना आदि; इसलिए जो निरन्तर अभ्याससे अपने ज्ञानको प्रगट करता है— बढ़ाता है उसके प्रभावना अङ्ग होता है । और उसके अप्रभावना कृत कर्मोंका बंधन नही है, कर्म रस देकर खिर जाता है-झड़ जाता है इसीलिये निर्जरा ही है ।