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अध्याय ५ उपसंहार होते। यदि वे देवदत्तरूप से हो जायें तो प्रतिकूल हो जायें और ऐसा होने पर दोनोंका ( देवदत्त और परका ) नाश हो जाए।
इसतरह दो सिद्धात निश्चित हुए-(१) प्रत्येक द्रव्य-गुण-पर्याय की जो स्वसे अस्ति है सो उपादानकारण है और परद्रव्य-गुण-पर्यायको जो उसमें नास्ति है सो निमित्तकारण है, निमित्तकारण तो मात्र प्रारोपित कारण है, यथार्थ कारण नहीं है तथा वह उपादानकारणको कुछ भी नहीं करता। जीवके उपादानमें जिस जातिका भाव हो उस भावको अनुकूलरूप होनेका निमिसमे आरोप किया जाता है। सामने सत् निमित्त हो तथापि कोई जीव यदि विपरीत भाव करे तो उस जीवके विरुद्धभावमे भी उपस्थित वस्तुको अनुकूल निमित्त बनाया-ऐसा कहा जाता है। जैसे कोई जीव तीर्थङ्कर भगवानके समवशरणमें गया और दिव्यध्वनिमे वस्तुका जो यथार्थस्वरूप कहा गया वह सुना, परन्तु उस जीवके गलेमे बात नही उतरी अर्थात् स्वयं समझा नही इसलिये वह विमुख हो गया तो कहा जाता है कि उस जीवने अपने विपरीत भावके लिये भगवानकी दिव्यध्वनिको अनुकूल निमित्त बनाया।.. ' (९) उपरोक्त सिद्धांतके आधारसे जीव, पुद्गलके अतिरिक्त
. .. चार' द्रव्योंकी सिद्धि __ दृष्टिगोचर होनेवाले पदार्थो में चार बातें देखने में आती है, (१) ऐसा देखा जाता है कि वहापदार्थ ऊपर, नीचे, यहाँ, वहाँ है । (२) वही पदार्थ अभी, फिर, जब, तब, तभीसे अभीतक-इसतरह देखा जाता है (३) वही-पवार्थ स्थिर, स्तब्धा, निश्चल इस तरहसे देखा जाता है और (४) वही पदार्थ हिलता-डुलता, चंचल, अस्थिर देखा जाता है। यह चार बोतें पदार्थों को देखनेपर स्पष्ट समझमे आती है, तो भी इन विषयों द्वारा पदार्थोकी किंचित् आकृति नहीं बदलती। उन उन कार्योंका उपादान कारण तो वह प्रत्येक द्रव्य है, किंतु उन चारों प्रकारकी क्रिया भिन्न भिन्न प्रकार को होनेसे उस क्रियाके सूचक निमित्त कारण पृथक् ही होते हैं । . . इस सम्बन्धमे यह ध्यान रखना कि किसी पदार्थमे पहली, दूसरी