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मोक्षशास्त्र सारांश यह है कि-कषाय तो सम्यग्दृष्टिके भी शेष रहती है किंतु मिथ्यात्वका नाश होनेसे अति मंद हो जाती है। और उससे सम्यग्दृष्टि जीव कुछ अंशोंमें प्रबंध रहता है और निर्जरा करता है; इससे मिथ्यात्व और कषाय का कुछ अविनाभाव अवश्य है।
अव शंकाकी बात यह रह जाती है कि-मिथ्यात्वके नाशके साथ ही कषायका पूर्ण नाश क्यों नही होता? इसका समाधान यह है किमिथ्यात्व और कषाय सर्वथा एक वस्तु तो नही है । सामान्य स्वभाव दोनों का एक है किंतु विशेषकी अपेक्षासे कुछ भेद भी है। विशेष-सामान्यको अपेक्षासे भेद-अभेद दोनोंको यहाँ मानना चाहिए । यह भाव दिखानेके लिए ही शास्त्रकारने सम्यक्त्व और आत्मशांतिके घातका निमित्त मूल प्रकृति एक 'मोह' रखी है और उत्तर प्रकृतिमें दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय-दो भेद किये हैं। [इस स्पष्टीकरणमें पहिली और दूसरी शंकाका समाधान हो जाता है] जब कि उत्तर प्रकृतिमें भेद है तब उसके नाशका पूर्ण अविनाभाव कैसे हो सकता है ? [-नही हो सकता] हाँ, मूल कारणके न रहनेपर चारित्रमोहनीय की स्थिरता भी अधिक नही रहती। दर्शनमोहनीयके साथ न सही, तो भी थोड़े ही समयमे चारित्रमोहनीय भी नष्ट हो जाता है।
__ अथवा सम्यक्त्वके हो जाने पर भी ज्ञान सदा स्वानुभूतिमें ही तो नहीं रहता, जव ज्ञानका बाह्य लक्ष हो जाता है तव स्वानुभूतिसे हट जानेके कारण सम्यग्दृष्टि भी विपयोमे अल्पतन्मय हो जाता है। किंतु यह छद्मस्थज्ञानकी चंचलताका दोप है और उसका कारण भी कपाय ही है । उस ज्ञानकी केवल कपाय-नैमित्तिक चंचलता कुछ समय तक ही रह सकती है, और वह भी तीव्र वधका कारण नहीं होती।
भावार्थ:-यद्यपि सम्यक्त्वकी उत्पत्तिसे संसारको जड़ कट जाती है किन्तु दूसरे कर्मोका उसी क्षण सर्व नाश नही हो जाता । कर्म अपनी अपनी योग्यतानुसार बंधते है और उदयमे पाते हैं। जैसे-मिथ्यात्वके साथी पारिप्रमोहनीयको उत्रप्ट स्थिति चालीस कोड़ाकोड़ी सागरकी होती है। गरी यह निश्चय हुप्रा कि मिय्यात्व ही समस्त दोपोंमें अधिक बलवान