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मोक्षशास्त्र
सप्तभंगी [स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति ] 'जीव है' यह कहते ही जीव जीवस्वरूपसे है और जीव जड़स्वरूप से ( अजीवस्वरूपसे) नहीं है-यदि यह समझा जा सके तो ही जीवको जाना कहलाता है; अर्थात् 'जीव है, यह कहते ही यह निश्चित् हुआ कि 'जीव जीवस्वरूपसे है और उसमें यह गभित होगया कि 'जीव परस्वरूप से नहीं है । वस्तु के इस धर्मको 'स्यात् अस्ति' कहा जाता है उसमें 'स्यात्' का अर्थ किसी 'एक अपेक्षासे' है; और अस्तिका अर्थ है' होता है । इसप्रकार 'स्यात् अस्ति' का अर्थ 'अपनी अपेक्षासे है' यह होता है, उसमें 'स्यात् नास्ति' अर्थात् 'परकी अपेक्षासे नहीं है। ऐसा गभितरूपसे आ जाता है। जो इसप्रकार जानता है वही जीवका 'स्यात् अस्ति' भंग अर्थात् 'जीव है' इसप्रकार यथार्थ जानता है, किन्तु यदि 'परकी अपेक्षासे नहीं है ऐसा उसके लक्षमें गभितरूपसे न आये तो जीवका 'स्यात् अस्ति' स्वरूपको भी वह जीव भलीभाँति नहीं समझा है और इसलिये वह अन्य छह भगोंको भी नहीं समझा है; इसलिये उसने जीवका यथार्थ स्वरूप नहीं समझा है। यह ध्यान रखना चाहिये कि-'हर समय बोलनेमें 'स्यात्' शब्द बोलना ही चाहिये' ऐसी आवश्यकता नही है। किन्तु 'जीव है' ऐसा कहनेवालेके 'स्यात्' पदके भावका यथार्थ ख्याल होना चाहिये, यदि ऐसा न हो तो 'जीव है' इस पदका यथार्थ ज्ञान उस जीवके है ही नहीं।
'जीवका अस्तित्व पर स्वरूपसे नहीं है' यह पहले 'स्यात् अस्ति' भंगमें गभित था; वह दूसरे 'स्यात् नास्ति' भगमें प्रगटरूपसे बतलाया जाता है । स्यात् नास्तिका अर्थ ऐसा है कि पर अपेक्षासे जीव नहीं है। 'स्यात्' अर्थात् किसी अपेक्षासे और 'नास्ति' अर्थात् न होना । जीवका पर अपेक्षासे नास्तित्व है अर्थात् जीव परके स्वरूपसे नहीं है इसलिये परअपेक्षासे जीवका नास्तित्व है अर्थात् जीव और पर एक दूसरेके प्रति अवस्तु है-ऐसा 'स्यात् नास्ति' भंगका अर्थ समझना चाहिये।
इससे यह समझना चाहिये कि-जैसे 'जीव' शब्द कहनेसे जीवका अस्तित्व ( जीवकी सत्ता ) भासित होता है वह जीवका स्वरूप