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अध्याय ७ सूत्र १४
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क्षेत्र -स्वके जिस प्रदेशमें द्रव्य स्थित हो वह उसका क्षेत्र है । काल- जिस पर्यायरूपसे द्रव्य परिरणमे वह उसका काल है । भाव - द्रव्यकी जो निजशक्ति-गुरण है सो उसका भाव है । इन चार प्रकारसे द्रव्य जिस तरह है उस तरह न मानकर श्रन्यथा मानना अर्थात् जीव स्वयं शरीर इत्यादि परद्रव्यरूप हो जाता है, अपनी अवस्था कर्म या शरीर इत्यादि परद्रव्य कराता है कर सकता है और अपने गुरण दूसरेसे हो सकते हैं, अथवा वे देव - गुरु-शास्त्र अवलम्बनसे प्रगट हो सकते हैं; इत्यादि प्रकारसे मानना तथा उस मान्यताके अनुसार बोलना सो असत्य वचन है । स्वके द्रव्य - क्षेत्र - काल - भावमे परवस्तुयें नास्तिरूप हैं; यह भूलकर उनका स्वयं कुछ कर सकता है ऐसी मान्यता पूर्वक बोलना सो भी असत्य है ।
( ५ ) ऐसा कहना कि श्रात्मा कोई स्वतंत्र पदार्थ नही है अथवा परलोक नही है सो असत्य है; ये दोनों पदार्थ आगमसे, युक्तिसे तथा अनुभवसे सिद्ध हो सकते हैं तथापि उनका अस्तित्व न मानना सो असत्य है; और आत्माका स्वरूप जैसा न हो उसे वैसा कहना सो भी असत्य वचन है । ३. प्रश्न — वचन तो पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है, उसे जीव नही कर सकता तथापि असत्य वचनसे जीवको पाप क्यों लगता है ?
उचर- - वास्तव में पाप या बन्धन असत्य वचनसे नही होता किन्तु 'प्रमत्त योगात्' अर्थात् प्रमादभावसे ही पाप लगता है और बन्धन होता है । असत्यवचन जड़ है वह तो मात्र निमित्त है । जब जीव असत्य बोलनेका भाव करता है तब यदि पुद्गल परमाणु वचनरूपसे परिरणमनेके योग्य हों तो ही असत्य वचनरूपसे परिणमते हैं । जीव तो मात्र असत्य बोलनेका भाव करता है तथापि वहाँ भाषा वर्गणा वचनरूप नही भी परिणमती; ऐसा होनेपर भी जीवका विकारीभाव ही पाप है और वह बंघका कारण है । आठवें अध्यायके पहले सूत्र में यह कहेंगे कि प्रमाद बन्धका कारण है ।