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मोक्षशास्त्र
निर्वाणमार्गमधितिष्ठति निष्प्रकम्पः । संसारबन्धमवधूय स धृतमोह-चैतन्यरूपममलं शिवतत्त्वमेति ।। २२ । अर्थ - बुद्धिमान और संसारसे उपेक्षित हुये जो जीव इस ग्रंथको अथवा तत्त्वार्थके सारको ऊपर कहे गये भाव अनुसार समझ कर निश्चलता पूर्वक मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होगा वह जीव मोहका नाश कर संसार बन्धनको दूर करके निश्चय चैतन्यस्वरूपी मोक्षतत्त्वको ( शिवतत्त्वको ) प्राप्त कर सकता है |
इस ग्रंथ कर्चा पुद्गल हैं आचार्य नहीं
वर्णाः पदानां कर्तारो वाक्यानां तु पदावलिः ।
वाक्यानि चास्य शास्त्रस्य कर्तृणि न पुनर्वयम् ॥ २३ ॥ अर्थ - वर्णं ( श्रर्थात् श्रनादि सिद्ध अक्षरोंका समूह ) इन पदोंके कर्त्ता हैं, पदावलि वाक्योंकी कर्त्ता है और वाक्योंने यह शास्त्र किया है । कोई यह न समझे कि यह शास्त्र मैंने ( आचार्यने ) बनाया है ।
( देखो तत्त्वार्थसार पृष्ठ ४२१ से ४२८ ) नोट- - ( १ ) एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कर्त्ता नहीं हो सकतायह सिद्धांत सिद्ध करके यहां आचार्य भगवानने स्पष्टरूपसे बतलाया है कि जीव जड़शाखको नहीं बना सकता ।
( २ ) श्री समयसारकी टीका, श्री प्रवचनसारकी टीका, श्री पंचास्तिकायको टीका और श्री पुरुषार्थं सिद्धि उपाय शास्त्र के कर्तृत्व सम्बन्धमें भी आचार्य भगवान श्री अमृतचन्द्रजी सूरिने बतलाया है किइस शास्त्रका अथवा टीकाका कर्ता पुद्गल द्रव्य है, मैं ( आचार्य ) नहीं । यह बात तत्त्वजिज्ञासुओंको खास ध्यानमें रखने की जरूरत है अतः आचार्य भगवानने तत्त्वार्थं सार पूर्ण करने पर भी यह स्पष्टरूपसे बतलाया है । इसलिये पहले भेद विज्ञान प्राप्त कर यह निश्चय करना कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ भी नहीं कर सकता; यह निश्चय करने पर जीवके स्व की ओर ही झुकाव रहता है । अब स्व की तरफ झुकाने में दो पहलू