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अध्याय १ सूत्र २४ __ अर्थ-मनमे स्थित पेचीदा वस्तुओंका पेचीदगी सहित प्रत्यक्षज्ञान, जैसे एक मनुष्य वर्तमानमे क्या विचार कर रहा है, उसके साथ भूतकालमे उसने क्या विचार किया है और भविष्य में क्या विचार करेगा, इस ज्ञानका मनोगत विकल्प मनःपर्ययज्ञानका विपय है। (बाह्य वस्तुकी अपेक्षा मनोगतभाव एक अति सूक्ष्म और विजातीय वस्तु है ) ॥ २३ ॥
ऋजुमति और विपुलमतिमें अन्तर विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥२४॥
अर्थ:-[ विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां ] परिणामोंकी विशुद्धि और अप्रतिपात अर्थात् केवलज्ञान होनेसे पूर्व न छूटना [ तद्विशेषः ] इन दो वातोंसे ऋजुमति और विपुलमति ज्ञानमै विशेषता ( अन्तर ) है।
टीका ऋजुमति और विपुलमति यह दो मनःपर्ययज्ञानके भेद सूत्र २३ की टीकामें दिये गये हैं । इस सूत्रमे स्पष्ट बताया गया है कि विपुलमति विशुद्ध शुद्ध है और वह कभी नही छूट सकता, किन्तु वह केवलज्ञान होने तक बना रहता है। ऋजुमति ज्ञान होकर छूट भी जाता है यह भेद चारित्रकी तीव्रताके भेदके कारण होते हैं। सयम परिणामका घटना-उसकी हानि होना प्रतिपात है, जो कि किसी ऋजुमति वालेके होता है ॥ २४ ।।।
अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें विशेषता विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्यययोः ॥२५॥
अर्थ:-[ अवधिमनःपर्यययोः ] अवधि और मनःपर्ययज्ञानमें [विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्यः ] विशुद्धता, क्षेत्र, स्वामी और विषयकी अपेक्षासे विशेषता होती है।
टीका मनःपर्ययज्ञान उत्तम ऋद्धिधारी भाव-मुनियोके ही होता है; और अवधिज्ञान चारों गतियोके सैनी जीवोके होता है, यह स्वामीकी अपेक्षासे भेद है।