________________
अध्याय ७ सूत्र १०-११
५६७ के कैसा शुभास्रव होता है । सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वरूप महापाप तो होता ही नहीं इसीलिये इस संबंधी वर्णन इस अध्यायमें नहीं, इस अध्यायमै सम्यग्दर्शनके बाद होनेवाले व्रत संबंधी वर्णन हैं। जिसने मिथ्यात्व छोडा हो वही असंयत सम्यग्दृष्टि देशविरति और सर्वविरति हो सकता है-यह सिद्धांत इस अध्यायके १८ वे सूत्रमे कहा है ।
मिथ्यादर्शन महापाप है उसे छोड़नेको पहले छ8 अध्यायके १३ वें सूत्र में कहा है तथा अब फिर आठवें अध्यायके पहले सूत्र में कहेगे ॥१०॥
व्रतधारी सम्यग्दृष्टिकी भावना मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यांनि च सत्वगुणाधिक
क्लिश्यमाना विनयेषु ॥ ११ ॥
अर्थ-[सत्त्वेषु मैत्री] प्राणीमात्रके प्रति निर्वैर बुद्धि [ गुणाधिकेषु प्रमोदं ] अधिक गुणवालोके प्रति प्रमोद (हर्ष) [ क्लिश्यमानेषुकारण्यं ] दुःखी रोगी जीवोंके प्रति करुणा और [ अविनयेषु माध्यस्थं ] हठाग्रही मिथ्यादृष्टि जीवोके प्रति माध्यस्थ भावना-ये चार भावना अहिंसादि पाच व्रतोंकी स्थिरताके लिये बारबार चितवन करना योग्य है।
टीका सम्यग्दृष्टि जीवोंके यह चार भावनायें शुभभावरूपसे होती हैं। ये भावना मिथ्यादृष्टिके नहीं होती क्योंकि उसे वस्तुस्वरूपका विवेक नहीं।
मैत्री-जो दूसरेको दुःख न देनेकी भावना है सो मैत्री है।
प्रमोद-अधिक गुणोके धारक जीवोके प्रति प्रसन्नता आदिसे अतरंग भक्ति प्रगट होना सो प्रमोद है।
कारुण्य-दुखी जीवोंको देखकर उनके प्रति करुणाभाव होना सो कारुण्य है।
माध्यस्थ--जो जीव तत्त्वार्थ श्रद्धासे रहित और तत्त्वका उपदेश देनेसे उलटा चिढ़ता है, उसके प्रति उपेक्षा रखना सो माध्यस्थपन है।