________________
अध्याय १ सूत्र ५
२५
दुःखका नाश हो उस कार्यका नाम प्रयोजन है । जीव और श्रजीवके विशेष (भेद ) वहुतसे है । उनमेसे जो विशेषोके साथ जीव-प्रजीवका यथार्थ श्रद्धान करनेपर स्व-परका श्रद्धान हो और उससे सुख उत्पन्न हो; और जिसका अयथार्थ श्रद्धान करनेपर स्व-परका श्रद्धान न हो, रागादिकको दूर करनेका श्रद्धान न हो और उससे दुःख उत्पन्न हो; इन विशेषोंसे युक्त जीव- अजीव पदार्थ प्रयोजनभूत समझने चाहिये । आस्रव और बघ दुःखके कारण हैं, तथा संवर, निर्जरा और मोक्ष सुखके कारण है; इसलिये जीवादि सात तत्त्वोंका श्रद्धान करना आवश्यक है । इन सात तत्त्वोंकी श्रद्धाके बिना शुद्धभाव प्रगट नही हो सकता | 'सम्यग्दर्शन' जीवके श्रद्धागुणकी शुद्ध अवस्था है, इसलिये उस शुद्ध भावको प्रगट करनेके लिये सात तत्त्वोका श्रद्धान- ज्ञान अनिवार्य है | जो जीव इन सात तत्त्वोंकी श्रद्धा करता है वही अपने जीव अर्थात् शुद्धात्माको जानकर उस ओर अपना पुरुषार्थ लगाकर सम्यग्दर्शन प्रगट कर सकता है । इन सात (पुण्य-पाप सहित नौ) तत्त्वोके अतिरिक्त अन्य कोई 'तत्त्व' नही है, - ऐसा समझना चाहिये ॥ ४ ॥
निश्चय सम्यग्दर्शनादि शब्दों के अर्थ समझनेकी रीति
नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ॥ ५ ॥
श्रथं - [नामस्थापनाद्रव्यभावतः -] नाम, स्थापना, द्रव्य, और भावसे [ तत्न्यासः ] उन सात तत्त्वो तथा सम्यग्दर्शनादिका लोकव्यवहार होता है ।
टीका
( १ ) वक्ता मुखसे निकले हुये शब्दके, अपेक्षाको लेकर भिन्न २ अर्थ होते है; उन अर्थोमे व्यभिचार (दोष) न आये और सच्चा अर्थ कैसे हो यह बताने के लिए यह सूत्र कहा है ।
4
( २ ) इन अर्थोके सामान्य प्रकार चार किये गये है । पदार्थोके भेद को न्यास अथवा निक्षेप कहा जाता है । [ प्रसारण और नयके अनुसार प्रच
४