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अध्याय १ परिशिष्ट ४
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करता है उस समय उसे सात तत्त्वों का विचार ही नहीं होता तब फिर वहाँ श्रद्धान कैसे सम्भव है ? और सम्यक्त्व तो उसे रहता ही है; इसलिए इस लक्षणमे अव्याप्ति दोष आता है |
उत्तर -- विचार तो उपयोगाधीन होता है, जहाँ उपयोग जुड़ता है उसीका विचार होता है, किन्तु श्रद्धान तो निरन्तर शुद्ध प्रतीतिरूप है । इसलिए अन्य ज्ञेयका विचार होने पर शयनादि क्रिया होने पर यद्यपि तत्त्वोका विचार नही होता तथापि उसकी प्रतीति तो सदा स्थिर बनी ही रहती है, नष्ट नही होती; इसलिये उसके सम्यक्त्वका सद्भाव है । जैसे किसी रोगी पुरुषको यह प्रतीति है कि- 'मैं मनुष्य हूँ तिथंच नही, मुझे अमुक कारणसे रोग हुआ है, और अब मुझे यह कारण मिटाकर रोगको कम करके निरोग होना चाहिए'। वही मनुष्य जब अन्य विचारादिरूप प्रवृत्ति करता है तब उसे ऐसा विचार नही होता, किंतु श्रद्धान तो ऐसा ही बना रहता है, इसीप्रकार इस आत्माको ऐसी प्रतीति तो है कि- 'मैं आत्मा है - पुद्गलादि नही । मुझे आश्रवसे बंध हुआ है किंतु अब मुझे संवरके द्वारा निर्जरा करके मोक्षरूप होता है,' अब वही आत्मा जब अन्य विचारादिरूप प्रवृत्ति करता है तब उसे वैसा विचार नही होता किन्तु श्रद्धान तो ऐसा ही रहा करता है ।
प्रश्न- यदि उसे ऐसा श्रद्धान रहता है तो फिर वह बध होने के कारणोमे क्यों प्रवृत्त होता है ?
उत्तर - जैसे कोई मनुष्य किसी कारणसे रोग बढनेके कारणों में भी प्रवृत्त होता है; व्यापारादि कार्य या क्रोधादि कार्य करता है फिर भी उसके उस श्रद्धानका नाश नही होता, इसीप्रकार यह आत्मा पुरुषार्थकी
शक्तिके वशीभूत होनेसे बंध होनेके कारणोमे भी प्रवृत्त होता है, विषय सेवनादि तथा क्रोधादि कार्य करता है तथापि उसके उस श्रद्धानका नाश नही होता । इसप्रकार सात तत्त्वोंका विचार न होने पर भी उनमे श्रद्धान का सद्भाव है, इसलिये वहाँ अव्याप्ति दोष नही आता ।
(३) प्रश्न - जहाँ उच्च दशामे निर्विकल्प आत्मानुभव होता है वहाँ सात तत्त्वादिके विकल्पका भी निषेध किया है । तव सम्यक्त्वके लक्षण