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" मोक्षशास्त्र इतना पुण्यका संयोग होता ही है कि जिससे उसे उपदेशादिक योग्य निमित्त (सामग्री) स्वयं मिलती ही है । उपादानकी पर्यायका और निमित्त की पर्यायका ऐसा ही सहज निमित्त नैमित्तिक संबंध है । यदि ऐसा न हो तो जगतमें कोई जीव धर्म प्राप्त कर ही न सकेगे। अर्थात् समस्त जीव द्रव्यदृष्टि से पूर्ण हैं तथापि अपनी शुद्ध पर्याय कभी प्रगट कर नहीं सकते। ऐसा होनेपर जीवोंका दुःख कभी दूर नहीं होगा और वे सुखस्वरूप कभी नहीं हो सकेंगे।
३-जगतमें यदि कोई जीव धर्म प्राप्त नहीं कर सकता तो तीर्थकर, सिद्ध, अरिहंत, आचार्य, उपाध्याय, साधु, श्रावक, सम्यग्दृष्टि और सम्यग्दृष्टि की भूमिकामें रहनेवाले उपदेशक इत्यादि पद भी जगत्में न रहेगे, जीवकी साधक और सिद्धदशा भी न रहेगी, सम्यग्दृष्टिकी भूमिका ही प्रगट न होगी, तथा उस भूमिकामें होनेवाला धर्मप्रभावनादिका रागपुण्यानुबंधी पुण्य, सम्यग्दृष्टिके योग्य देवगति-देवक्षेत्र इत्यादि व्यवस्थाका भी नाश हो जायगा।
(३) इस परसे यह समझना कि जीवके उपादानके प्रत्येक समय की पर्यायको जिसप्रकारकी योग्यता हो तदनुसार उस जीवके उस समयके योग्य निमित्त का संयोग स्वयं मिलता ही है-ऐसा निमित्त नैमित्तिक संबंध तेरहवें गुणस्थानका अस्तित्व सिद्ध करता है; एक दूसरेके कर्तारूप में कोई है ही नहीं। तथा ऐसा भी नहीं कि उपादानकी पर्यायमें जिस समय योग्यता हो उस समय उसे निमित्तकी ही राह देखनी पड़े; दोनोंका सहजरूपसे ऐसा ही मेल होता ही है और यही निमित्त नैमित्तिक भाव है। तथापि दोनों द्रव्य स्वतत्र हैं । निमित्त परद्रव्य है उसे जीव मिला नहीं सकता । उसीप्रकार वह निमित्त जीवमें कुछ कर नही सकता; क्योंकि कोई द्रव्य परद्रव्यकी पर्यायका कर्ता, हर्ता नही है ॥ १॥
___ अव मोक्षके कारण और उसका लक्षण कहते हैंवंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ॥२॥
अर्थ-[ बंघहेत्वभाव निर्जराभ्यां ] बंधके कारणों ( मिथ्यात्व,