________________
अध्याय १ सूत्र २
१३
अर्थ — श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव कहते हैं कि-बहुत कहने से क्या साध्य है ? जो नरप्रधान भूतकालमें सिद्ध हुये और भविष्य में सिद्ध होंगे वह सब सम्यक्त्वका ही माहात्म्य जानो ।
भावार्थ -- सम्यक्त्वकी ऐसी महिमा है कि भूतकालमें जो श्रेष्ठ पुरुष आठ कर्मोंका नाश करके मुक्तिको प्राप्त हुये हैं तथा भविष्य में होंगे, वे इसी सम्यक्त्वसे हुये है और होगे । इसलिए श्राचार्यदेव कहते है कि विशेष क्या कहा जाय ? संक्षेपमे समझना चाहिये कि मुक्तिका प्रधान कारण यह सम्यक्त्व ही है । ऐसा नही सोचना चाहिये कि गृहस्थों के क्या धर्म होता है ? यह सम्यक्त्व धर्म ऐसा है कि जो सर्व धर्मके अंगको सफल करता है । अब यह कहते है कि जो निरंतर सम्यक्त्व का पालन करते है वे धन्य है
ते घण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया । सम्म सिद्धियर सिविणे विण महलियं जेहिं ॥ ( - मोक्षपाहुड़, गाथा ८ ) अर्थ - जिस पुरुष के मुक्ति को प्राप्त करनेवाला सम्यक्त्व है, और उस सम्यक्त्वको स्वप्नमे भी मलिन नही किया-प्रतिचार नही लगाया वह पुरुष धन्य है, वही कृतार्थ है, वही शूरवीर है, वही पंडित है, वही मनुष्य है ।
भावार्थ - लोक में जो कुछ दानादि करता है उसे धन्य कहा जाता है, तथा जो विवाह, यज्ञादि करता है उसे कृतार्थ कहा जाता है, जो युद्ध से पीछे नही हटता उसे शूरवीर कहते है, और जो बहुतसे शास्त्र पढ़ लेता है उसे पंडित कहते है; किंतु यह सव कथन मात्र है । वास्तवमे तो-जो मोक्षके काररणभूत सम्यक्त्व को मलिन नही करता, - उसे निरतिचार पालता है वही धन्य है, वही कृतार्थ है, वही शूरवीर है, वही पंडित है, वही मनुष्य है; उसके विना ( सम्यक्त्वके बिना ) मनुष्य पशु समान है । सम्यक्त्वकी ऐसी महिमा कही गई है ।