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अध्याय ५ उपसंहार
४६१ और रजकण स्वतंत्र वस्तु है अर्थात् असंयोगी पदार्थ है । और स्वयं परिणमनशील है।
(११) जीव और रजकण असंयोगी हैं अतः यह सिद्ध हुआ कि वे अनादि अनन्त है; क्योकि जो पदार्थ किसी संयोगसे उत्पन्न न हुआ हो उसका कदापि नाश भी नही होता।
(१२) शरीर एक स्वतत्र पदार्थ नहीं है किन्तु अनेक पदार्थोकी संयोगी अवस्था है। अवस्था हमेशा प्रारम्भ सहित ही होती है इसलिये शरीर शुरुआत-प्रारम्भ सहित है। वह संयोगी होनेसे वियोगी भी है।
६-जीव अनेक और अनादि अनन्त है तथा रजकरण अनेक और अनादि अनन्त है । एक जीव किसी दूसरे जीवके साथ पिंडरूप नही हो सकता; परन्तु स्पर्शके कारण रजकण पिंडरूप होता है। अतः यह सिद्ध हुआ कि द्रव्यका लक्षण सत्, अनेक द्रव्य, रजकरण, उसके स्कंध, उत्पादव्यय-ध्रौव्य इत्यादि विषय इस अध्यायमें कहे गये है।
७--इस तरह जीव और पुद्गलका पृथक्त्व तथा मनादि अनन्तत्व सिद्ध होने पर निम्न लौकिक मान्यतायें असत्य ठहरती है:
(१) अनेक रजकणोके एकमेक रूप होनेपर उनमेसे नया जीव उत्पन्न होता है यह मान्यता असत्य है क्योंकि रजकरण सदा ज्ञान रहित जड़ है इसीलिये ज्ञान रहित कितने भी पदार्थोका संयोग हो तो भी जीव उत्पन्न नहीं होता । जैसे अनेक अधकारोंके एकत्रित करने पर उनमेंसे प्रकाश नहीं होता उसी तरह अजीवमेसे जीवकी उत्पत्ति नहीं होती।
(२) ऐसी मान्यता असत्य है कि जीवका स्वरूप क्या है वह अपने को मालुम नहीं होता; क्योकि ज्ञान क्या नहीं जानता ? ज्ञानको रुचि बढ़ानेपर आत्माका स्वरूप बराबर जाना जा सकता है । इसलिये यह विचारसे गम्य है ( Reasoning-दलीलगम्य ) है ऐसा ऊपर सिद्ध किया है।
(३) कोई ऐसा मानते हैं कि जीव और शरीर ईश्वरने बनाये, किन्तु यह मान्यता असत्य है, क्योकि दोनों पदार्थ अनादि अनंत है, अनादि अनन्त पदार्थोंका कोई कर्ता हो ही नही सकता।