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मोक्षशास्त्र है। सम्यग्दर्शन कारण है और सम्यग्ज्ञान कार्य, ऐसा समझना चाहिये। यह जो सम्यक्मति और श्र तज्ञानके भेदे दिये गये हैं वे ज्ञान विशेप निर्म लता होनेके लिये दिये गये है; उन भेदोंमे अटककर रागमें लगे रहनेके लिये नहीं दिये गये हैं। इसलिये उन भेदोंका स्वरूप जानकर जीवको अपने त्रैकालिक अखंड अभेद चैतन्य स्वभावकी ओर उन्मुख होकर निर्विकल्प होनेकी आवश्यकता है ॥ २० ॥
अवधिज्ञानका वर्णन भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम् ॥ २१॥
अर्थ:-[ भवप्रत्यया ] भवप्रत्यय नामक [ अवधिः ]-अवधिज्ञान [देवनारकांणाम् '] 'देव और नारकियोके होता है ।।
टीका (१) अवधिज्ञानके दो भेद हैं (१) भवप्रत्यय, (२)गुण प्रत्यय । प्रत्यय, कारण और निमित्त तीनों एकार्थ वाचक शब्द हैं । यहाँ 'भवप्रत्यय' शब्द बाह्य निमित्तकी अपेक्षासे कहा है, अंतरंग निमित्त तो प्रत्येक प्रकारके अवधिज्ञानमें अवधिज्ञानावरणीय कर्मका. क्षयोपशम होता है।
(२) देव और नारक पर्यायके धारण करनेपर जीव को जो अवधिर ज्ञान उत्पन्न होता हैं वह भवप्रत्यय'कहलाता है। जैसे पक्षियोमें जन्मका होनी ही आकाशमे गमनका निमित्त होता है, न कि शिक्षा, उपदेश, जपतप इत्योंदि; इसीप्रकार नारकी और देवकी पर्यायमें उत्पत्ति मात्रसे अवविज्ञान प्राप्त होता है। यहाँ सम्यग्ज्ञानका विषय है फिर भी सम्यक् यां मिथ्यांका भेद किये बिना सामान्य अवधिज्ञानके लिये भवप्रत्यय शब्द दिया गया है।]
(३) भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव नारकी तथा तीर्थकरोके (गृहस्थदशामे), होता है, वह नियमसे देशावधि होता है, वह समस्तप्रदेशसे. उत्पन्न होता है।
(४) 'गुणप्रत्यय'-किसी विशेष पर्याय (भव) की अपेक्षा न करके जीवके पुरुषार्थ द्वारा जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है वह गुणप्रत्यय अथवा क्षयोपशमनिमित्तक कहलाता है ।। २१ ।।