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मोक्षशास्त्र कार्य का उपचार (व्यवहार) किया गया है । जैसे अन्नका फल प्राण है उसीप्रकार शुभका फल आहारक शरीर है, इसलिये यह उपचार है ॥४६॥
लिंग अर्थात् वैदके स्वामी नारकसम्मूछिनो नपुंसकानि ॥ ५० ॥
अर्थ-[ नारकसम्मूच्छिनो ] नारकी और सम्मूर्छन जन्मवाले [ नपुंसकानि ] नपुंसक होते है ।
टीका १-लिंग अर्थात् वेद दो प्रकारके हैं-(१) द्रव्यलिंग-पुरुष स्त्री या नपुसकत्व बतानेवाला शरीरका चिह्न और (२) भावलिङ्ग-स्त्री, पुरुष अथवा स्त्री पुरुष दोनोंके भोगनेकी अभिलाषारूप आत्माके विकारी परिणाम । नारकी और सम्मूर्छन जीवोंके द्रव्यलिंग और भावलिंग दोनों नपुंसक होते हैं।
२-नारकी और सम्मूर्छन जीव नपुंसक ही होते हैं, क्योंकि उन जीवोंके स्त्री-पुरुष संबंधी मनोग्य शब्दका सुनना, मनोग्यगंधका सूचना, मनोग्यरूपका देखना, मनोग्यरसका चखना, या मनोग्यस्पर्शका स्पर्शन करना इत्यादि कुछ नही होता इसलिये थोड़ासा कल्पित सुख भी उन जीवोंके नहीं होता, अतः निश्चय किया जाता है कि वे जीव नपुसक ही हैं ॥ ५० ॥
देवोंके लिंग
न देवाः ॥ ५.१ ॥ अर्थ-[ देवाः ] देव [ न ] नपुंसक नही होते अर्थात् देवोंके पुरुपलिंग और देवियोंके स्त्रीलिंग होता है।
टीका १-देवगतिमे द्रव्यलिंग तथा भावलिग एकसे होते हैं। २-भोगभूमि म्लेच्छखण्डके मनुष्य स्त्रीवेद और पुरुपवेद दोनोंको धारण करते हैं, वहाँ नपुंसक उत्पन्न नहीं होते ॥ ५१ ॥