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अध्याय २ सूत्र ४६
२०१ भगवान् अथवा श्रुतकेवली भगवान्के पास जाते ही स्वयं निर्णय करके अंतर्मुहर्त में वापिस आकर सयमो मुनिके शरीरमें प्रवेश करता है।
३-जिससमय भरत-ऐरावत क्षेत्रोमें तीर्थंकर भगवान्की, केवली की, या श्रुतकेवलोकी उपस्थिति नही होती और उनके बिना मुनिका समाधान नही हो पाता तब महाविदेह क्षेत्रमें जहाँ तीर्थंकर भगवान इत्यादि विराजमान होते है वहाँ उन (भरत या ऐरावत क्षेत्रके) मुनिका आहारक शरीर जाता है और भरत-ऐरावत क्षेत्रमें तीर्थंकरादि होते हैं तब वह निकट के क्षेत्र में जाता है । महा विदेहमें तीर्थंकर त्रिकाल होते हैं इसलिये वहाँके मुनिके ऐसा प्रसंग आये तो उनका आहारक शरीर उस क्षेत्रके तीर्थंकरादिके पास जाता है।
४-(१) देव अनेक वैक्रियिक शरीर कर सकते हैं, मूलशरीर सहित देव स्वर्गलोकमें विद्यमान रहते है और विक्रियाके द्वारा अनेक शरीर करके दूसरे क्षेत्रमें जाते हैं जैसे कोई सामर्थ्यका धारक देव अपना एक हजार रूप किये परन्तु उन हजारों शरीरोंमे उस देवकी आत्माके प्रदेश होते है। मूल वैक्रियिक शरीर जघन्य दश हजार वर्ष तक रहता है अर्थात् अधिक जितनी आयु होती है उतने समय तक रहता है। उत्तर वैक्रियिक शरीरका काल जघन्य तथा उत्कृष्ट अंतर्मुहुर्त ही है। तीर्थकर भगवानके जन्मके समय और नंदीश्वरादिके जिनमदिरोंकी पूजाके लिये देव' जाते हैं तब बारंबार विक्रिया करते हैं।
(२) प्रमत्तसंयत मुनिका आहारक शरीर दूरक्षेत्र-विदेहादिमेजाता है। (३) तेजसशरीर १२ योजन ( ४८ कोस ) तक जाता है ।
(४) आत्मा अखंड है उसके खण्ड नहीं होते। प्रात्माके असंख्यात प्रदेश हैं वे कार्मण शरीरके साथ निकलते हैं मूलशरीर ज्योका त्यो वना रहता है, और उसमें भी प्रत्येक स्थलमें प्रात्माके प्रदेश अखण्ड रहते हैं ।
(५)-जैसे अन्नको प्राण कहना उपचार है उसीप्रकार इस सूत्रमे .माहारक शरीरको उपचारसे ही 'शुभ' कहा है। दोनों स्थानोमे कारण,