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मोक्षशास्त्र छेदोपस्थापना चारित्र है। यह चारित्र छ8 से नवमें गुणस्थान तक होता है।
(३) परिहार विशुद्धि-जो जीव जन्मसे ३० वर्ष तक सुखी रहकर फिर दीक्षा ग्रहण करे और श्री तीर्थंकर भगवानके पादमूलमें आठ वर्ष तक प्रत्याख्यान नामक नवमें पूर्वका अध्ययन करे, उसके यह संयम होता है । जो जीवोंकी उत्पत्ति-मरणके स्थान, कालकी मर्यादा, जन्म योनिके भेद, द्रव्य-क्षेत्रका स्वभाव, विधान तथा विधि इन सभीका जाननेवाला हो और प्रमाद रहित महावीर्यवान हो, उनके शुद्धताके बलसे कर्मकी बहुत (-प्रचुर ) निर्जरा होती है । अत्यन्त कठिन आचरण करनेवाले मुनियोके यह सयम होता है। जिनके यह संयम होता है उनके शरीरसे जीवोंकी विराधना नहीं होती। यह चारित्र ऊपर बतलाये गये साधुके छठे और सातवे गुणस्थानमें होता है।
(४) सूक्ष्मसांपराय-जब अति सूक्ष्म लोभकषायका उदय हो तब जो चारित्र होता है वह सूक्ष्म सांपराय है । यह चारित्र दशवें गुरणस्थानमें होता है।
(५) यथाख्यात-सम्पूर्ण मोहनीय कर्मके क्षय अथवा उपशमसे आत्माके शुद्धस्वरूपमें स्थिर होना सो यथाख्यात चारित्र है। यह चारित्र ग्यारहवेंसे चौदहवे गुणस्थान तक होता है।
२. शुद्धभावसे सवर होता है किन्तु शुभभावसे नही होता, इसलिये इन पांचों प्रकारमें जितना शुद्धभाव है उतना चारित्र है ऐसा समझना ।
३. छठे गुणस्थानकी दशा सातवे गुणस्थानसे तो निर्विकल्प दशा होती है। छ8 गुणस्थानमें मुनिके जव आहार विहारादिका विकल्प होता है तभी भी उनके [ तीन जातिके कषाय न होनेसे ] संवरपूर्वक निर्जरा होती है और शुभभावका अल्प वध होता है; जो विकल्प उठता है उस विकल्पके स्वामित्वका उनके नकार वर्तता है, अकपायदृष्टि और चारित्रसे जितने दरजेमें राग दूर होता है उतने दरजेमे संवर-निर्जरा है, तथा जितना शुभभाव है उतना बंधन है । विशेष यह है कि पंचम गुणस्थानवाला उपवासादि वा प्रायश्चित्तादि तप करे उसी कालमें भी उसे निर्जरा अल्प और छ? गुणस्थानवाला आहार