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मध्याय ७ सूत्र १
५-५१ चित विरुद्ध कार्य करनेवाला है ऐसे चारित्रसे युक्त होनेमे, जैसे अग्निसे गर्म किया गया घी किसी मनुष्यपर डाल दिया जाये तो वह उसकी जलनसे दुखी होता है, उसीप्रकार वह स्वर्गके सुखके बन्धको प्राप्त होता है, इसलिये शुद्धोपयोग उपादेय है और शुभोपयोग हेय है ।
( प्र० सार गाथा ११ की टीका ) मिध्यादृष्टि को या सम्यग्दृष्टि को भी, राग तो बन्धका ही कारण है; शुद्धस्वरूप परिणमन मात्र से ही मोक्ष है ।
३ - समयसार के पुण्य-पाप अधिकारके ११० वे कलश में श्री प्राचार्य देव कहते हैं कि:
यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यड् न सा कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षतिः । किंत्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्मवंधाय तन् मोक्षायस्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्त स्वतः ॥ ११०॥
अर्थ- - जब तक ज्ञानकी कर्म विरति बराबर परिपूर्णताको प्राप्त नहीं होती तब तक कर्म और ज्ञानका एकत्वपना शास्त्र मे कहा है; उनके एक साथ रहनेमे कोई भी क्षति श्रर्थात् विरोध नहीं है । परन्तु यहाँ इतना विशेष जानना कि आत्मा मे अवशरूपसे जो कर्म प्रगट होते हैं अर्थात् उदय होता है वह तो बंधका कारण होता है, और मोक्षका कारण तो, जो एक परम ज्ञान ही है वह एक ही होता है कि जो ज्ञान स्वतः विमुक्त है ( अर्थात् त्रिकाल परद्रव्यभावों से भिन्न है । )
भावार्थ:: --- जब तक यथाख्यात चारित्र नही होता, तब तक सम्यग्दृष्टि को दो धाराएं रहती हैं- शुभाशुभ कर्मधारा और ज्ञानधारा । वे दोनो साथ रहनेमें कुछ भी विरोध नही है । ( जिस प्रकार मिथ्याज्ञान को और सम्यग्ज्ञानको परस्पर विरोध है, उसी प्रकार कर्म सामान्य को और ज्ञानको विरोध नही है । ) उस स्थिति में कर्म अपना कार्य करता है और ज्ञान अपना कार्य करता है । जितने अंश में शुभाशुभ कर्म