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अध्याय १ परिशिष्ट ५
२०५ 'है उसका नाम कृत है। पांचों इन्द्रियोंके द्वारा तीनों ही कालोंमें जो सेवित • होता है उसका नाम प्रतिसेवित है । श्राद्यकर्मका नाम आदिकर्म है । अर्थ'पर्याय और व्यंजन पर्यायरूपसे सब द्रव्योंकी आदिको जानता है, यह उक्त 'कथनका तात्पर्य है । रहस् शब्दका अर्थ अंतर और अरहस् शब्दका अर्थ 'अनन्तर है । रहस् ऐसा जो कर्म वह अरहःकर्म कहलाता है । उनको जानते हैं । शुद्ध द्रव्यार्थिक नयके विषयरूपसे सब द्रव्योकी अनादिताको जानते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सम्पूर्ण लोकमें सब जीवों ओर सब भावों को जानते है ।
शंका- यहाँ 'सर्वजीव' पदको ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि, बद्ध और मुक्त पदके द्वारा उसके अर्थका ज्ञान हो जाता है ।
समाधान- नही, क्योकि एक सख्या विशिष्ट बद्ध और मुक्तका ग्रहण वहाँ पर न होवे, इसलिए इसका प्रतिषेध करनेके लिए 'सर्वजीव' पदका निर्देश किया है ।
जीव दो प्रकारके हैं-संसारी और मुक्त । इनमें मुक्त जीव प्रतंत प्रकारके है, क्योकि, सिद्धलोकका आदि और अन्त नही पाया जाता । शंका- सिद्ध लोकके आदि और अन्तका अभाव कैसे है ?
समाधान ——— क्योकि, उसकी प्रवाह स्वरूपसे अनुवृत्ति है, तथा 'सब 'सिद्ध जीव सिद्धिकी अपेक्षा सादि है और संतानकी अपेक्षा अनादि है, ' ऐसा सूत्र वचन भी है ।
[ सब जीवोंको जानते हैं !]
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संसारी जीव दो प्रकारके हैं- त्रस और स्थावर । त्रस जीव चारप्रकार के हैं - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । पंचेन्द्रियजीव दो प्रकारके है— संज्ञी और असंज्ञी । ये सब जीव त्रस पर्याप्त और अपर्याप्तके भेद से दो प्रकारके | अपर्याप्त जीव लब्ध्यपर्याप्त और निवृत्यपर्याप्त मेदसे दो प्रकार हैं । स्थावर जीव पांच प्रकारके हैं- पृथ्वीकायिक, 'जलकायिक, safaif, वायुकायिक र वनस्पतिकायिक । इन पांचों ही स्थावर'कायिक जीवोमें प्रत्येक दो प्रकारके हैं- बादर और सूक्ष्म | इनमे बादर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके हि-प्रत्येक शरीर और साधारण शरीर ।