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मोक्षशास्त्र
खराब हो तो धर्म नहीं कर सकता, इत्यादि प्रकारसे अजीवतत्त्व सम्बन्धी विपरीत श्रद्धा किया करता है। वह भूल भी अस्ति-नास्ति भंगके यथार्थज्ञानसे दूर होती है।
जीव जीवसे अस्तिरूपसे है और परसे अस्तिरूपसे नहीं है किन्तु नास्तिरूपसे है, इसप्रकार जब यथार्थतया ज्ञानमें निश्चय करता है तब प्रत्येक तत्त्व यथार्थतया भासित होता हैइसीप्रकार जीव परद्रव्योंके प्रति संपूर्णतया अकिंचित्कर है तथा परद्रव्य जीवके प्रति संपूर्णतया अकिंचित्कर है, क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूपसे नास्ति है, ऐसा विश्वास होता है और इससे जीव पराश्रयी-परावलंबित्वको मिटा कर स्वाश्रयो-स्वावलम्बी हो जाता है, यही धर्मका प्रारम्भ है।
__जीवका परके साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध कैसा है इसका ज्ञान इन दो भंगोसे किया जा सकता है। निमित्त परद्रव्य है इसलिये वह नैमित्तिक जीवका कुछ नही कर सकता, वह मात्र आकाश प्रदेशमें एक क्षेत्रावगाहरूपसे या संयोग-अवस्थारूपसे उपस्थित होता है; किन्तु नैमित्तिक-निमित्तसे पर है और निमित्त-नैमित्तिकसे पर है इसलिये एक दूसरेका कुछ नही कर सकता । निमित्त तो परज्ञेयरूपसे ज्ञान में ज्ञात होता है, इतना मात्र व्यवहार सम्बन्ध है । दूसरेसे चौथे अध्याय तक यह अस्ति-नास्ति स्वरूप कहाँ कहाँ .
बताया है उसका वर्णन अध्याय २ सूत्र १ से ७-जीवके पांचभाव अपने अस्तिरूपसे हैं और परसे नास्तिरूप हैं ऐसा बताया है।
अ० २ सूत्र ८-६ जीवका लक्षण अस्तिरूपसे क्या है यह बताया है। उपयोग जीवका लक्षण है ऐसा कहनेसे दूसरा कोई लक्षण जीवका नही है ऐसा प्रतिपादित हुअा। जीव अपने लक्षणसे अस्तिरूप है और इसीलिये उसमे परकी नास्ति आगई-ऐसा बताया है ।
अ० २ सू० १०-जीवकी विकारी तथा शुद्ध पर्याय जोवसे अस्ति रूपसे है और परसे नास्तिरूपसे अर्थात परसे नही है ऐसा बताया है ।