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अध्याय १ परिशिष्ट ३
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जीवन ? और मरण समय स्वरूपका भान रहित असाध्य होकर ऐसा दयनीय मररण ? इसप्रकार संसार संबंधी त्रास उत्पन्न होने पर स्वरूपको समझनेकी रुचि उत्पन्न होती है । वस्तुको समझनेके लिये जो काल व्यतीत होता है वह भी ज्ञानको क्रिया है, सत् का मार्ग है ।
जिज्ञासुओंको पहिले ज्ञान स्वभाव श्रात्माका निर्णय करना चाहिए कि "मैं सदा एक ज्ञाता हूँ, मेरा स्वरूप ज्ञान है, वह जाननेवाला है, पुण्यपापके भाव, या स्वर्ग-नरक आदि कोई मेरा स्वभाव नहीं है, " - इस प्रकार श्रुतज्ञानके द्वारा आत्माका प्रथम निर्णय करना ही प्रथम उपाय है । उपादान - निमित्त और कारण कार्य
१~~सच्चे श्र ुतज्ञानके अवलंबनके बिना और २-श्र तज्ञानसे ज्ञानस्वभाव आत्माका निर्णय किये बिना आत्मा अनुभवमें नही आता । इसमें आत्माका अनुभव करना कार्य है, आत्माका निर्णय करना उपादान कारण है और श्र ुतका अवलंबन निमित्त कारण है । श्रुतके अवलंबनसे ज्ञान स्वभावका जो निर्णय किया उसका फल उस निर्णयके अनुसार आचरण अर्थात् अनुभव करना है । आत्माका निर्णय कारण और आत्माका अनुभव कार्य है, - इसप्रकार यहाँ लिया गया है अर्थात् जो निर्णय करता है उसे अनुभव होता ही है, -ऐसी बात कही है ।
अंतरंग अनुभवका उपाय अर्थात् ज्ञानकी क्रिया
अव यह बतलाते हैं कि आत्माका निर्णय करनेके बाद उसका प्रगट अनुभव कैसे करना चाहिये । निर्णयानुसार श्रद्धाका आचरण अनुभव है । प्रगट अनुभवमें शांतिका वेदन लानेके लिए अर्थात् आत्माकी प्रगट प्रसिद्धिके लिए परपदार्थ की प्रसिद्धिके कारणोंको छोड़ देना चाहिये । पहिले 'मै ज्ञानानंद स्वरूप आत्मा हूँ' ऐसा निश्चय करनेके बाद आत्माके आनन्दका प्रगट भोग करनेके लिये [वेदन या अनुभव करनेके लिये ], परपदार्थको प्रसिद्धि के कारण, -जो इद्रिय और मनके द्वारा पराश्रय में प्रवर्तमान ज्ञान है उसे स्व की ओर लाना, देव गुरु-शास्त्र इत्यादि परपदार्थों की ओरका लक्ष तया मनके अवलंबनसे प्रवर्तमान बुद्धि अर्थात् मतिज्ञानको संकुचित करके-मर्यादा