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मोक्षशास्त्र चारित्र अपेक्षा आठवें गुणस्थान पर्यंत भय होता है इसीलिये यहाँ श्रावकको तथा मुनिको भय छोड़नेकी भावना करनेको कहा है।
२. प्रत्याख्यान दो प्रकारका होता है-(१) निश्चयप्रत्याख्यान और (२) व्यवहार प्रत्याख्यान । निश्चयप्रत्याख्यान निर्विकल्पदशारूप है, इसमें बुद्धिपूर्वक होनेवाले शुभाशुभ भाव छूटते हैं, व्यवहारप्रत्याख्यान शुभभावरूप है; इसमें सम्यग्दृष्टिके अशुभ भाव छूटकर-दूर होकर शुभभाव रह जाते हैं । आत्मस्वरूपके अज्ञानीको-( वर्तमानमें प्रात्मस्वरूपका निश्चय ज्ञान करनेकी मना करनेवालेको )-अर्थात् आत्मस्वरूपके ज्ञानका उपदेश वर्तमानमें मिलानेके प्रति जिसे अरुचि हो उसे शुभभावरूप व्यवहारप्रत्याख्यान भी नही होता; मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगो मुनि पाँच महाव्रत निरतिचार पालते हैं उनके भी इस भावनामे बताये हुये प्रत्याख्यान नही होते । क्योंकि ये भावनायें पांचवें और छ8 गुणस्थानमे सम्यग्दृष्टिके ही होती हैं, मिथ्यादृष्टिके नही होती।
३. अनुवीचिभाषण-यह भावना भी सम्यग्दृष्टि हो कर सकता है, क्योकि उसे ही शास्त्रके मर्मकी खबर है इसीलिये वह सत् शास्त्रके अनुसार निर्दोष वचन बोलनेका भाव करता है । इस भावनाका रहस्य यह है कि सच्चे सुखकी खोज करनेवालेको जो सत् शास्त्रोंके रहस्यका ज्ञाता हो और अध्यात्म रस द्वारा अपने स्वरूपका अनुभव जिसे भया हो ऐसे आत्मज्ञानीकी संगतिपूर्वक शास्रका अभ्यास करके उसका मर्म समझना चाहिये। शास्त्रोंके भिन्न भिन्न स्थानों पर प्रयोजन साधनेके लिये अनेक प्रकारका उपदेश दिया है, उसे यदि सम्यग्ज्ञानके द्वारा यथार्थ प्रयोजन पूर्वक पहिचाने तो जीवके हित-अहितका निश्चय हो। इसलिये 'स्यात्' पदकी सापेक्षता सहित जो जीव सम्यग्ज्ञान द्वारा ही प्रीति सहित जिन वचनमें रमता है वह जीव थोड़े ही समयमें स्वानुभूतिसे शुद्धआत्मस्वरूपको प्राप्त करता है । मोक्षमार्गका प्रथम उपाय आगम ज्ञान कहा है, इसलिये सच्चा आगम क्या है इसकी परीक्षा करके आगमज्ञान प्राप्त करना चाहिये । आगमज्ञानके विना धर्मका यथार्थ साधन नहीं हो सकता । इसलिये प्रत्येक मुमुक्षु जीव