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अध्याय ६ सूत्र २४-२५
७१७ २-इन प्रत्येककी सेवा सुश्रूषा करना सो वैयावृत्य है । यह वैयावृत्य शुभभावरूप है, इसीलिये व्यवहार है। वैयावृत्यका अर्थ सेवा है। स्वके अकषाय भावकी जो सेवा है सो निश्चय वैयावृत्य है।
३-संघके चार भेद बतलाये, अब उनका अर्थ लिखते हैंऋषि-ऋद्धिधारी साधुको ऋषि कहते हैं ।
यति-इन्द्रियोंको वशमें करनेवाले साधु अथवा उपशम या क्षपकश्रेणी मांडनेवाले साधु यति कहलाते है।
मुनि-अवधिज्ञानी या मनःपर्ययज्ञानी साधु मुनि कहे जाते है । अनगार-सामान्य साधु अनगार कहलाते हैं।
पुनश्च ऋषिके भी चार भेद हैं--(१) राजर्षि विक्रिया, अक्षीण ऋद्धि प्राप्त मुनि राजर्षि कहलाते हैं। (२) ब्रह्मर्षि बुद्धि, सर्वोषधि आदि ऋद्धि प्राप्त साधु ब्रह्मर्षि कहलाते है । (३) देवर्षि आकाशगमन ऋद्धि प्राप्त साधु देवर्षि कहे जाते हैं। (४) परमर्षि-केवलज्ञानीको परमर्षि कहते हैं।
सम्यक् स्वाध्याय तपके ५ भेद वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाऽऽम्नायधर्मोपदेशाः ॥२५॥
अर्थ-[वाचनापुच्छनानुप्रेक्षाम्नाय धर्मोपदेशाः] वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ये स्वाध्यायके ५ भेद है।
टीका वाचना-निर्दोष ग्रन्थ, उसका अर्थ तथा दोनोका भव्य जीवोंको श्रवण कराना सो वाचना है।
पृच्छना-संशयको दूर करनेके लिये अथवा निश्चयको दृढ़ करनेके लिए प्रश्न पूछना सो पृच्छना है ।
अपना उच्चपन प्रगट करनेके लिये, किसीको ठगनेके लिये, किसीको