________________
अध्याय ५ उपसंहार
४५७ अस्तिकाय हैं ( सूत्र १, २, ३ ); और काल अस्ति है (सूत्र २, ३९) किंतु काय-बहुप्रदेशी नही है ( सूत्र १)
(७) जीव और पुद्गल द्रव्यकी सिद्धि १-२
(१) 'जोव' एक पद है और इसीलिये वह जगत् की किसी वस्तु को-पदार्थको बतलाता है, इसलिये अपने को यह विचार करना है कि वह क्या है । इसके विचारनेमें अपने को एक मनुष्यका उदाहरण लेना चाहिये जिससे विचार करने मे सुगमता हो।
(२) हमने एक मनुष्यको देखा, वहाँ सर्व प्रथम हमारी दृष्टि उसके शरीर पर पड़ेगी तथा यह भी ज्ञात होगा कि वह मनुष्य ज्ञान सहित पदार्थ भी है । ऐसा जो निश्चित् किया कि शरीर है वह इन्द्रियोसे निश्चित किया किंतु उस मनुष्यके ज्ञान है ऐसा जो निश्चय किया वह इन्द्रियोंसे निश्चित नहीं किया, क्योंकि अरूपी ज्ञान इंद्रियगम्य नहीं है, किन्तु उस मनुष्य के वचन, या शरीरकी चेष्टा परसे निश्चय किया गया है। उनमें से इन्द्रियों द्वारा शरीरका निश्चय किया, इस ज्ञानको अपन इन्द्रियजन्य कहते है और उस मनुष्यमें ज्ञान होने का जो निश्चय किया सो अनुमानजन्य ज्ञान है।
(३) इसप्रकार मनुष्यमें हमें दो भेद मालूम हुए-१-इन्द्रियजन्य ज्ञानसे शरीर, २-अनुमान जन्य ज्ञानसे ज्ञान । फिर चाहे किसी मनुष्य के ज्ञान अल्पमात्रमे प्रगट हो या किसी के ज्यादा-विशेष ज्ञान प्रगट हो। हमें यह निश्चय करना चाहिये कि उन दोनों बातों के जानने पर वे दोनों एक ही पदार्थ के गुण हैं या भिन्न २ पदार्थो के वे गुण हैं ?
(४) जिस मनुष्यको हमने देखा उसके सम्बन्धमे निम्न प्रकार से दृष्टांत दिया जाता है।
(१) उस मनुष्यके हाथमे कुछ लगा और शरीरमें से खून निकलने लगा।
(२) उस मनुष्य ने रक्त निकलता हुआ जाना और वह रक्त तुरंत ही बन्द हो जाय तो ठीक, ऐसी तीन भावना भाई।