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अध्याय ७ सूत्र ८-९-१०
-~-५६५ ' थोंका विषय कहा जाता है। वास्तवमें वह विषय ( ज्ञेय पदार्थ.) स्वयं
इष्ट या अनिष्ट नही किन्तु जिस समय जीव राग-द्वेष करता है तब उपचारसे उन पदार्थोंको इष्टानिष्ट कहा जाता है । इस सूत्रमें उन पदार्थोंकी ओर राग-द्वेष छोड़नेकी भावना करना बताया है।
रागका अर्थ प्रीति, लोलुपता और द्वेषका अर्थ नाराजो, तिरस्कार है ॥८॥
हिंसा आदिसे विरक्त होने की भावना हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥६॥
- अर्थ-[ हिंसादिषु ] हिंसा प्रादि पांच पापोंसे [इह अमुत्र] इस लोकमें तथा परलोकमे [ अपायावद्यदर्शनम् ] नाशकी ( दुःख, आपत्ति, भय तथा निंद्यगतिकी ) प्राप्ति होती है-ऐसा बारम्बार चिन्तवन करना चाहिये।
: टीका अपाय-अभ्युदय और मोक्षमार्गको जीवकी क्रियाको नाश करने ~ वाला जो उपाय है सो अपाय है । अवद्य-निंद्य, निंदाके योग्य । . हिसा आदि पापों की व्याख्या सूत्र १३ से १७ तक में की जायगी ।।
दुःखमेव वा ॥१०॥ अर्थ-[वा ] अथवा ये हिंसादिक पांच पाप [ दुःखमेव ] .. -दुःखरूप ही हैं -ऐसा विचारना ।
टीका
१. यहाँ कारणमे कार्यका उपचार समझना, क्योकि हिंसादि तो दुःखके कारण हैं किन्तु उसे ही कार्य अर्थात् दुःखरूप बतलाया है।
२. प्रश्न-हम ऐसा देखते हैं कि विषय रमणतासे तथा भोग- विलाससे रति सुख उत्पन्न होता है तथापि उसे दुःखरूप क्यों कहा ?
उत्तर-इन विषयादिमे सुख नही, अज्ञानी लोग भ्रांतिसे उसे