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श्रध्याय १ परिशिष्ट ३
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इसप्रकार प्रथम ही निर्णय यह हुआ कि कोई पूर्ण पुरुष सम्पूर्ण सुखी है और सम्पूर्ण ज्ञाता है, वही पुरुष पूर्ण सुखका पूर्ण सत्यमार्ग कह सकता है, स्वयं उसे समझकर अपना पूर्ण सुख प्रगट कर सकता है और स्वयं जब समझता है तब सच्चे देव गुरु शास्त्र ही निमित्तरूप होते है । जिसे स्त्री पुत्र पैसा इत्यादिकी अर्थात् संसारके निमित्तोंके श्रोरकी तीव्र रुचि होगी उसे धर्मके निमित्तभूत देव शास्त्र गुरुके प्रति रुचि नही होगी अर्थात् उसे श्रुतज्ञानका अवलम्बन नही रहेगा और श्रुतज्ञानके अवलम्बनके बिना आत्माका निर्णय नही होगा । क्योकि आत्माके निर्णय में सत् निमित्त ही होते हैं, कुगुरु-कुदेव- कुशास्त्र इत्यादि कोई भी आत्माके निर्णयमे निमित्तरूप नही हो सकते । जो कुदेवादिको मानता है उसे आत्म निर्णय हो ही नही
सकतः ।
जिज्ञासुकी यह मान्यता तो हो ही नही सकती कि दूसरेको सेवा करेंगे तो धर्म होगा । किन्तु वह यथार्थ धर्मं कैसे होता है इसके लिये पहिले पूर्णज्ञानी भगवान और उनके कथित शास्त्रोके अवलम्बनसे ज्ञानस्वभाव आत्माका निर्णय करनेके लिये उद्यमी होगा । श्रनन्तभवमें जीवने धर्मके नामपर मोह किया किन्तु धर्मको कलाको समझा ही नही है । यदि धर्मकी एक कला ही सीख ले तो उसका मोक्ष हुए बिना न रहेगा । जिज्ञासु जीव पहिले कुदेवादिका और सुदेवादिका निर्णय करके कुदेवादिको छोड़ता है और फिर उसे सच्चे देव गुरुकी ऐसी लगन लग जाती है कि उसका एक मात्र यही लक्ष हो जाता है कि सत्पुरुष क्या कहते हैं उसे समझा जाय, अर्थात् वह अशुभसे तो अलग हो हो जाता है । यदि कोई सांसारिक रुचिसे पीछे न हटे तो वह श्रुतावलम्बनमे टिक नहीं सकेगा । धर्म कहाँ है और वह कैसे होता है ?
बहुत से जिज्ञासुओं को यही प्रश्न होता है कि धर्मके लिये पहिले क्या चाहिए, या सेवा-पूजा-ध्यान करते उनकी कृपा प्राप्त करनी चाहिए उत्तर यह है कि इसमे कही भी
करना चाहिए ? क्या पर्वत पर चढ़ना रहना चाहिए, या गुरुकी भक्ति करके अथवा दान देना चाहिए ? इन सबका