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मोक्षशास्त्र
अनुभव करता है - आत्म साक्षात्कार अर्थात् सम्यग्दर्शन करता है । वह किस प्रकार ? उनकी रीति यह है कि - "बादमें प्रात्माकी प्रगट प्रसिद्धि के लिये पर पदार्थ की प्रसिद्धि के कारणभूत जो इन्द्रिय श्रौर मनके द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियोंको मर्यादामें लाकर जिसे मतिज्ञान-तत्त्वको ( मतिज्ञानके - स्वरूपको ) आत्मसन्मुख किया है । ऐसा... ......" श्रप्रगटरूप निर्णय हुए थे वह अब प्रगटरूप कार्य में लाता है जो निर्णय किया था उनका फल प्रगट होता है ।
इस निर्णयको जगतके सब संज्ञी आत्मा कर सकते हैं, सभी आत्मा परिपूर्ण भगवान ही हैं इसलिये सब अपने ज्ञान स्वभावका निर्णय कर सकनेमें समर्थ हैं । जो श्रात्महित करना चाहता है उसे वह हो सकता है, किंतु अनादिकालसे अपनी चिता नही की है । अरे भाई ! तू कौन वस्तु है, यह जाने बिना तू ं क्या करेगा ? पहिले इस ज्ञानस्वभाव आत्माका निर्णय करना चाहिये । इसके निर्णय होने पर श्रव्यक्तरूपसे आत्माका लक्ष हो जाता है; और फिर परके लक्षसे तथा विकल्पसे हटकर स्वका लक्ष-पूर्ण स्वरूपकी प्रतीति अनुभवरूपसे प्रगट करना चाहिये ।
आत्माकी प्रगट प्रसिद्धि के लिये इद्रिय और मनसे जो पर-लक्ष जाता है उसे बदलकर उस मतिज्ञानको निजमें एकाग्र करने पर श्रात्माका लक्ष होता है अर्थात् श्रात्माकी प्रगटरूपसे प्रसिद्धि होती है शुद्ध आत्माका प्रगटरूप अनुभव होना ही सम्यग्दर्शन है और सम्यक्दर्शन ही धर्म है ।
धर्मके लिये पहिले क्या करना चाहिये १
कोई लोग कहा करते हैं कि यदि श्रात्माके संबंध में कुछ समझमें न श्राये तो पुण्यके शुभ भाव करना चाहिये या नहीं ? इसका उत्तर यह है कि- पहिले आत्मस्वभावको समझना ही धर्म है । धर्मसे ही संसारका अन्त आता है । शुभभावसे धर्मं नही होता और धर्मके बिना ससारका अंत नही होता, धर्म तो अपना स्वभाव है इसलिये पहिले स्वभाव ही समझना चाहिये ।
प्रश्न – यदि स्वभाव समझमें न आये तो क्या करना चाहिए ?