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अध्याय १ परिशिष्ट ३
१७५ सम्यग्दर्शन होनेसे पूर्व......... आत्मानंद प्रगट करनेके लिये पात्रताका स्वरूप क्या है ? तुझे तो धर्म करना है न! तो तू अपनेको पहिचान । सर्व प्रथम सच्चा निर्णय करने की बात है । अरे तू है कौन ? क्या क्षणिक पुण्य पापका करनेवाला तू ही है ? नहीं, नही । तू तो ज्ञानका करनेवाला ज्ञानस्वभाव है तूपरको ग्रहण करने वाला या छोडनेवाला नहीं है, तो केवलज्ञान जाननेवाला ही है। ऐसा निर्णय ही धर्मके प्रारंभका (सम्यग्दर्शनका) उपाय है। प्रारंभमें अर्थात् सम्यग्दर्शनसे पूर्व यदि ऐसा निर्णय न करे तो वह पात्रतामें भी नहीं है। मेरा सहज स्वभाव जाननेका है, ऐसा श्रुतके अवलंबनसे जो निर्णय करता है वह पात्र जीव है। जिसे पात्रता प्रगट हुई है उसे प्रांतरिक अनुभव अवश्य होगा। सम्यग्दर्शन होनेसे पूर्व जिज्ञासु जीव-धर्म संमुख हुआ जीव सत्समागममे आया हुआ जीव-श्र तज्ञानके अवलंबनसे ज्ञानस्वभाव आत्मा का निर्णय करता है।
मैं ज्ञानस्वभाव जाननेवाला हूँ, मेरा ज्ञानस्वभाव ऐसा नहीं है कि ज्ञेयमें कही राग-द्वेष करके अटक जाय; पर पदार्थ चाहे जैसा हो, मैं तो उसका मात्र ज्ञाता हूँ, मेरा ज्ञाता स्वभाव परका कुछ करनेवाला नही है, मैं जैसा ज्ञान स्वभाव है उसी प्रकार जगतके सभी आत्मा ज्ञानस्वभाव हैं, वे स्वयं अपने ज्ञानस्वभावका निर्णय (करना) चूक गये है इसलिये दुःखी है। यदि वे स्वयं निर्णय करें तो उनका दुःख दूर हो, मैं किसीको बदलने में समर्थ नही हूँ। मैं पर जीवोंका दुःख दूर नहीं कर सकता, क्योकि उन्होने दुःख अपनी भूलसे किया है यदि वे अपनी भूलको दूर करें तो उनका दुःख दूर हो।
पहिले श्रुतका अवलंबन बताया है, उसमें पात्रता हुई है, अर्थात् श्र तावलंबनसे आत्माका अव्यक्त निर्णय हुआ है, तत्पश्चात् प्रगट अनुभव कैसे होता है यह नीचे कहा जा रहा है
सम्यग्दर्शनके पूर्व श्र तज्ञानका अवलंबनके बलसे प्रात्माके ज्ञान स्वभावको-अव्यक्तरूपसे लक्षमे लिया है। अब प्रगटरूप लक्षमे लेता है