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जैन शास्त्रोंकी कथन पद्धति समझकर तत्त्वार्थों की सच्ची श्रद्धा-करने को रीति
(मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३६६ से ३७३)
"व्यवहारनयका श्रद्धान छोड़ि निश्चयनयका श्रद्धान करना योग्य है।" "व्यवहारनय-स्व-द्रव्य परद्रव्यको वा तिनके भावनिको वा कारण कार्यादिकको काहूको काहविर्षे मिलाय निरूपण कर है। सो ऐसे ही श्रद्धानतें मिथ्यात्व है। तातै याका त्याग करना । बहुरि निश्चयनय तिनही को यथावत् निरूप है, काहूको काहूविष न मिला है। ऐसे ही श्रद्धानले सम्यक्त हो है। ताते याका श्रद्धान करना । यहाँ प्रश्न-जो ऐसे है, तो जिनमार्ग विष-दोऊ नयनिका ग्रहण करना कहा है, सो कैसे !
ताका समाधान-जिनमार्ग विषे कही तो निश्चयनयकी मुख्यता लिए व्याख्यान है ताकी तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है' ऐसा जानना । बहुरि कही व्यवहारनयकी मुख्यता लिए व्याख्यान है, ताको 'ऐसे है नाही निमित्तादि अपेक्षा उपचार किया है' ऐसा जानना । इसप्रकार जाननेका नाम ही दोऊ नयनिका ग्रहण है । बहुरि दोऊ नयनिके व्याख्यानकौं समान सत्यार्थ जानि ऐसे भी है ऐसे भी है, ऐसा भ्रमरूप प्रवर्चनेकरि तो दोऊ नयनिका ग्रहण करना कह्या है नाहीं।
बहुरि प्रश्न-जो व्यवहारनय असत्यार्थ है, तो ताका उपदेश जिनमार्ग विर्षे काहे को दिया-एक निश्चयनय ही का निरूपरण करना था ? ताका समाधान-ऐसा ही तर्क समयसार गा० ८ विष किया है। तहाँ यह उत्तर दिया है-याका अर्थ-जैसे अनार्य जो म्लेच्छ सो ताहि म्लेच्छभाषा बिना अर्थ ग्रहण करावनेको समर्थ न हूजे । तैसे व्यवहार विना परमार्थका उपदेश अशक्य है । तातै व्यवहारका उपदेश है। बहुरि इसहो सूत्रकी व्याख्याविषै ऐसा कह्या है-'व्यवहारनयो नानुसतव्यः' । याका मर्थ-यहु निश्चयके अंगीकार करावने को व्यवहारकरि उपदेश दीजिए