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अध्याय ६ भूमिका
४८७ अपना जो निर्मल स्वभाव है उसे वह नहीं छोड़ती। इसी प्रकार जीवका स्वभाव भी शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे तो सहज शुद्ध चिदानन्द एकरूप है, परंतु स्वयं अनादि कर्मबन्धरूप पर्यायके वशीभूत होनेसे वह रागादि परद्रव्य उपाधि पर्यायको ग्रहण करता है । यद्यपि जीव पर्यायमें परपर्यायरूपसे ( पर द्रव्यके आलंबनसे हुई अशुद्ध पर्यायरूपसे ) परिणमता है तथापि निश्चय नयसे शुद्ध स्वरूपको नहीं छोड़ता। ऐसा ही पुद्गल द्रव्यका भी होता है । इस कारणसे जीव-अजीवका परस्पर सापेक्ष परिणमन होना वही 'कथंचित् परिणामित्व' शब्दका अर्थ है।
(२) इसप्रकार 'कथंचित् परिणामित्व' सिद्ध होने पर जीव और पुद्गलके संयोगकी परिणति (-परिणाम) से बने हुये बाकीके प्रास्रवादि पांच तत्त्व सिद्ध होते है । जीवमे आस्रवादि पांच तत्त्वोंके परिणमनके समय पुद्गलकर्मरूप निमित्तका सद्भाव या अभाव होता है और पुद्गलमें प्रास्त्रवादि पांच तत्त्वोके परिणमनमें जीवके भावरूप निमित्तका सद्भाव या अभाव होता है । इसीसे ही सात तत्त्वोंको 'जीव और पुद्गलके संयोगकी परिणतिसे रचित' कहा जाता है। परन्तु ऐसा नही समझना चाहिये कि जीव और पुद्गलकी एकत्रित परिणति होकर बाकीके पाँच तत्त्व होते है।
पूर्वोक्त जीव और अजीव द्रव्योंको इन पाँच तत्त्वोमें मिलाने पर कुल सात तत्त्व होते हैं, और उसमें पुण्य-पापको यदि अलग गिना जावे तो नव पदार्थ होते हैं । पुण्य और पाप नामके दो पदार्थोका अंतर्भाव ( समावेश ) अभेद नयसे यदि जीव आस्रव-बंध पदार्थमें किया जावे तो सात तत्त्व कहे जाते हैं।
३-सात तत्त्वोंका प्रयोजन (वृहत् द्रव्यसग्रह पृष्ठ ७२-७३ के आधार से )
शिष्य फिर प्रश्न करता है कि हे भगवन् ! यद्यपि जीव-अजीवके कथंचित् परिणामित्व मानने पर भेद प्रधान पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे सात तत्त्व सिद्ध होगये, तथापि उनसे जीवका क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ ? क्योंकि जैसे अभेद नयसे पुण्य-पाप इन दो पदार्थोंका पहले सात तत्त्वोंमें