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श्रध्याय १ सूत्र २०
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(१०) प्रमाणके दो प्रकार
प्रमाण दो प्रकारका है - ( १ ) स्वार्थप्रमाण, ( २ ) परार्थं प्रमाण | स्वार्थप्रमारण ज्ञानस्वरूप हैं और परार्थ प्रमाण वचनरूप है । श्रुतके अतिरिक्त चार ज्ञान स्वार्थप्रमाण हैं । श्रुतप्रमाण स्वार्थ- परार्थ- दोनों रूप है; इसलिये वह ज्ञानरूप और वचनरूप है । श्रुत उपादान है और वचन उसका निमित्त है । [ विकल्पका समावेश वचनमें हो जाता है । ] श्रुतप्रमाणका अंश 'नय' है ।
[ देखो पंचाध्यायी भाग १ पृष्ठ ३४४ पं० देवकीनन्दनजी कृत और जैन सिद्धान्त दर्पण पृष्ठ - २२, राजवार्तिक पृष्ठ १५३, सर्वार्थसिद्धि अध्याय एक सूत्र ६ पृष्ठ ५६ ] . (११) 'श्रुत' का अर्थ
श्रुतका अर्थ होता है 'सुना हुआ विषय' अथवा 'शब्द' । यद्यपि श्रुतज्ञान मतिज्ञानके बाद होता है तथापि उसमें वर्णनीय तथा शिक्षा योग्य सभी विषय आते हैं; और वह सुनकर जाना जा सकता है; इसप्रकार श्रुतज्ञानमे श्रुतका ( शब्दका ) सम्बन्ध मुख्यतासे है, इसलिये श्रुतज्ञानको शास्त्रज्ञान ( भावशास्त्रज्ञान ) भी कहा जाता है । (शब्दोंको सुनकर जो श्रुतज्ञान होता है उसके अतिरिक्त अन्य प्रकारका भी श्रुतज्ञान होता है ।) सम्यग्ज्ञानी पुरुषका उपदेश सुननेसे पात्र जीवोको श्रात्माका यथार्थ ज्ञान हो सकता है, इस अपेक्षासे उसे श्र ुतज्ञान कहा जाता है ।
(१२) रूढ़िके बलसे भी मतिपूर्वक होनेवाले इस विशेष ज्ञानको 'श्रुतज्ञान' कहा जाता है ।
(१३) श्रुतज्ञानको वितर्क भी कहते हैं । [ अध्याय १ सूत्र ३६] (१४) अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य
अंगप्रविष्टके बारह भेद हैं- (१) आचारांग (२) सूत्रकृतांग (३) स्थानांग (४) समवायांग ( ५ ) व्याख्याप्रज्ञप्ति अग (६) ज्ञातृधर्म कथाग (७) उपासकाध्ययनाग (८) अंतःकृतदशांग ( ६ ) अनुत्तरौपपादिकाग (१०) प्रश्नव्याकरणांग (११) विपाकसूत्रांग और (१२) दृष्टिप्रवादाग