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मोक्षशास्त्र
(९) अनुक्त-- ( अकथित ) जिस वस्तुका वर्णन नहीं किया उसे जानना । जिसका वर्णन नही सुना है फिर भी उस पदार्थका ज्ञानगोचर होना ।
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(१०) उक्त—कथित पदार्थका ज्ञान होना, वर्णन सुननेके बाद पदार्थका ज्ञानगोचर होना ।
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(११) ध्रुव - बहुत समय तक ज्ञान जैसाका तैसा बना रहना, अर्थात् दृढ़तावाला ज्ञान ।
(१२) अध्रुव - प्रतिक्षण हीनाधिक होनेवाला ज्ञान अर्थात् अस्थिरज्ञान |
यह सब भेद सम्यक् मतिज्ञानके है । जिसे सम्यक्ज्ञान हो जाता है वह जानता है कि- श्रात्मा वास्तव में अपने ज्ञानकी पर्यायोंको जानता है, और पर तो उस ज्ञानका निमित्त मात्र है । 'परको जाना ऐसा कहना सो व्यवहार है, यदि परमार्थ दृष्टिसे कहा जाय कि आत्मा परको जानता है' सो मिथ्या है, क्योकि ऐसा होनेपर श्रात्मा और पर ( ज्ञान और ज्ञेय ) दोनों एक हो जायेगे, क्योंकि 'जिसका जो होता है वह वही होता है' इसलिये वास्तवमे यदि यह कहा जाय कि 'पुद्गलका ज्ञान' है, तो ज्ञान पुद्गलरूप — ज्ञेयरूप हो जायगा, इसलिये यह समझना चाहिये कि निमित्त सम्बन्धी अपने ज्ञानकी पर्यायको आत्मा जानता है । ( देखो श्री समयसार गाथा ३५६ से ३६५ की टीका )
प्रश्न -- अनुक्त विषय श्रोत्रज्ञानका विषय कैसे सभव है ?
उत्तर- श्रोत्रज्ञानमे 'अनुक्त' का अर्थ 'ईषत् (थोड़ा) अनुक्त' करना चाहिये; और 'उक्त' का अर्थ 'विस्तारसे लक्षणादिके द्वारा वर्णन किया है' ऐसा करना चाहिये, जिससे नाममात्रके सुनते ही जीवको विशद ( विस्तार रूप) ज्ञान हो जाय तो उस जीवको अनुक्त ज्ञान ही हुआ है ऐसा कहना चाहिये । इसीप्रकार अन्य इन्द्रियोके द्वारा अनुक्तका ज्ञान होता है ऐसा समझना चाहिये ।