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अध्याय १ सूत्र २७-२८ उस मतिज्ञान पूर्वक श्रुतज्ञान सर्व द्रव्योंको जानता है; और अपनी अपनी योग्य पर्यायोंको जानता है ।
इन दोनों ज्ञानोंके द्वारा जीवको भी यथार्थतया जाना जा सकता है ॥२६॥
अवधिज्ञानका विषय
रूपिष्ववधेः ॥ २७ ॥ अर्थ:-[अवधेः] अवधिज्ञानका विषय-सम्बन्ध [रूपिषु] रूपी द्रव्योंमें है अर्थात् अवधिज्ञान रूपी पदार्थोको जानता है।
टीका जिसके रूप, रस, गंध, स्पर्श होता है वह पुद्गल द्रव्य है। पुद्गलद्रव्यसे सम्बन्ध रखनेवाले संसारी जीवको भी इस ज्ञानके हेतुके लिये रूपी कहा जाता है, [ देखो सूत्र २८ की टीका ]
जीवके पाँच भावोंमेसे औदयिक, नोपशमिक और क्षायोपामिक,यह तीन भाव:(परिणाम) ही अवधिज्ञानके विषय हैं, और जीवके शेषक्षायिक तथा-परिणामिकभाव-और धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, तथा कालद्रव्य, अरूपी पदार्थ हैं, वे अवधिज्ञानके विषयभूत नही होते।
यह.ज्ञान-सर्व रूपी पदार्थों और उसकी कुछ पर्यायोंको जानता है।॥२७॥
-मनापर्ययज्ञानका विषयतदनन्तभागे मनःपर्ययस्य ॥२८॥ मर्थः-[तत् अनंतभांगे ] सर्वावधिज्ञानके विषयभूत रूपी द्रव्यके अनंतवें भागमे [-मनःपर्ययस्य.] मनःपर्ययज्ञानका विषय सम्बन्ध है।
'टीका परमावधिज्ञानके विषयभूत जो पुद्गलस्कंध है उनका अनंतवां भाग
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