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मोक्षशास्त्र
दधिद्वपदिक्कुमाराः ॥ १० ॥
अर्थ — भवनवासी देवोंके दश भेद हैं—१—असुरकुमार, २नागकुमार, ३ - विद्युत्कुमार, ४- — सुपर्णकुमार, ५ —अग्निकुमार, ६– वातकुमार, ७ —– स्तनितकुमार, FI - उदधिकुमार, 8 —— द्वीपकुमार और
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१० दिक्कुमार ।
टीका
१. २० वर्षके नीचेके युवकके जैसा जीवन और आदत होती है वैसा ही जीवन और श्रादत इन देवोंके भी होती है इसलिये उन्हें कुमार कहते हैं ।
२. उनके रहनेका स्थान निम्नप्रकार है
प्रथम पृथ्वी- रत्नप्रभामें तीन भूमियाँ ( Stages) हैं उसमें पहिली भूमिको 'खरभाग' कहते हैं उसमें असुरकुमारको छोड़कर नवप्रकारके भवनवासी देव रहते हैं ।
जिस भूमिमें असुरकुमार रहते हैं उस भागको 'पंकभाग' कहते हैं, उसमें राक्षस भी रहते हैं । 'पंकभाग' रत्नप्रभा पृथ्वीका दूसरा भाग है । रत्नप्रभाका तीसरा ( सबसे नीचा ) भाग 'अब्बहुल' कहलाता है वह पहिला नरक है ।
३. भवनवासी देवोंकी यह असुरकुमारादि दश प्रकारकी संज्ञा उन उन प्रकारके नामकर्मके उदयसे होती है ऐसा जानना चाहिये । 'जो देव युद्ध करें, प्रहार करें वे असुर हैं, ऐसा कहना ठीक नही है अर्थात् वह देवोंका प्रवर्णवाद है और उससे मिथ्यात्वका बन्ध होता है ।
४. दश जातिके भवनवासी देवोंके सात करोड़ बहत्तर लाख भवन हैं; ये भवन महासुगन्धित, अत्यंत रमणीक, श्रौर अत्यंत उद्योतरूप हैं; और उतनी ही संख्या ( ७,७२,००,००० ) जिन चंत्यालयोंकी है । दशप्रकारके चैत्यवृक्ष जिनप्रतिमासे विराजित होते हैं ।