________________
परिशिष्ट-३
साधक जीवकी दृष्टि की सतत कथा (-स्तर)
अध्यात्म शास्त्रोंमें ऐसा नहीं कहा कि 'जो निश्चय है सो मुख्य है" यदि निश्चयका ऐसा अर्थ करें कि जो निश्चयनय है सो मुख्य है, तो किसी समय निश्चयनय मुख्य हो और किसी समय व्यवहारनय मुख्य हो; अर्थात् किसी समय 'द्रव्य' मुख्य हो और किसी समय 'गुरण-पर्यायके भेद' मुख्य हों, लेकिन द्रव्यके साथ अभेद हुई पर्यायको भी निश्चय कहा जाता है इसलिये निश्चय सो मुख्य न मानकर मुख्य सो निश्चय मानना चाहिये । और आगमशास्त्रोंमें किसी समय व्यवहारनयको मुख्य और निश्चयनयको गौण करके कथन किया जाता है । अध्यात्म शास्त्रोंमें तो हमेशा 'जो मुख्य है सो निश्चयनय' है और उसीके आश्रयसे धर्म होता है-ऐसा समझाया जाता है और उसमें सदा निश्चयनय मुख्य ही रहता है। पुरुषार्थ के द्वारा स्व में शुद्ध पर्याय प्रगट करने अर्थात् विकारी पर्याय दूर करनेके लिये हमेशा निश्चयनय ही आदरणीय है, उस समय दोनों नयों का ज्ञान होता है किन्तु धर्म प्रगट करने के लिये दोनों नय कभी आदरणीय नहीं। व्यवहारनयके आश्रयसे कभी आंशिक धर्म भी नहीं होता परन्तु उसके आश्रयसे तो राग-द्वेषके विकल्प उठते ही हैं।
छहों द्रव्य, उनके गुण और उनकी पर्यायोंके स्वरूपका ज्ञान करानेके लिये किसी समय निश्चयनय की मुख्यता और व्यवहारनयकी गौणता रखकर कथन किया जाता है और किसी समय व्यवहारनयको मुख्य करके तथा निश्चयनयको गौरण करके कथन किया जाता है। स्वयं विचार करने में भी किसी समय निश्चयनयको मुख्यता और किसी समय व्यवहारनयकी मुख्यता की जाती है । अध्यात्म-शास्त्रमें भी जीव विकारी पर्याय स्वयं करता है इसीलिये होती है । और उस जीवके अनन्य परि