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अध्याय १ सूत्र २३
(२) द्रव्यापेक्षा से मन:पर्ययज्ञानका विषय - जघन्य रूपसे एक समयमें होनेवाले औदारिक शरीरके निर्जरारूप द्रव्यतक जान सकता है, उत्कृष्टरूपसे आठ कर्मोके एक समय में बँधे हुए समयप्रवद्धरूप द्रव्यके अनन्त भागों में से एक भाग तक जान सकता है ।
क्षेत्रापेक्षा से इस ज्ञानका विषय - जघन्यरूपसे दो, तीन कोसतकके क्षेत्रको जानता है; और उत्कृष्टरूपसे मनुष्यक्षेत्र के भीतर जान सकता है । [ यहाँ विष्कंभरूप मनुष्यक्षेत्र समझना चाहिए ]
कालापेक्षा से इस ज्ञानका विषय — जघन्यरूपसे दो तीन भवोंका ग्रहण करता है, उत्कृष्टरूपसे असख्यात भवोका ग्रहण करता है ।
भावापेक्षा से इस ज्ञानका विषय - द्रव्यप्रमारगमे कहे गये द्रव्योंकी शक्तिको ( भावको ) जानता है । [ श्री घवला पुस्तक १ पृष्ठ ६४ ]
इस ज्ञानके होने में मन अपेक्षामात्र ( निमित्तमात्र ) कारण है, वह उत्पत्तिका कारण नही है । इस ज्ञानकी उत्पत्ति आत्माकी शुद्धिसे होती है । इस ज्ञानके द्वारा स्व तथा पर दोनोके मनमे स्थित रूपी पदार्थ जाने जा सकते है । [ श्री सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ ४४८-४५१-४५२ ]
दूसरेके मनमें स्थित पदार्थको भी मन कहते हैं, उनकी पर्यायो ( विशेषो ) को मन:पर्यय कहते हैं, उसे जो ज्ञान जानता है सो मन:पर्ययज्ञान है । मन:पर्ययज्ञानके ऋजुमति और विपुलमति - ऐसे दो भेद हैं ।
ऋजुमति – मनमे चिंतित पदार्थको जानता है, अचिंतित पदार्थको नहीं; और वह भी सरलरूपसे चिंतित पदार्थको जानता है । [ देखो सूत्र २८ की टीका ]
विपुलमति - चितित और श्रचितित पदार्थको तथा वक्रचितित और अवक्रचितित पदार्थको भी जानता है । [ देखो सूत्र २८ की टोका ]
* समयप्रवद्ध - एक समयमे जितने कर्म परमाणु और नो कर्म परमाणु बँधते हैं उन सबको समयप्रवद्ध कहते हैं ।