________________
प्रथम अध्याय का परिशिष्ट
[१] सम्यग्दर्शनके सम्बन्धमें कुछ ज्ञातव्य
सम्यग्दर्शनकी आवश्यकता प्रश्न-ज्ञानी जब कहते है कि सम्यग्दर्शनसे धर्मका प्रारम्भ होता है, तब फिर सम्यग्दर्शन रहित ज्ञान और चारित्र कैसे होते हैं ?
उचर-पदि सम्यग्दर्शन न हो तो ग्यारह अंगका ज्ञाता भी मिथ्याज्ञानी है; और उसका चारित्र भी मिथ्याचारित्र है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शनके बिना व्रत, जप, तप, भक्ति, प्रत्याख्यान आदि जितने भी आचरण हैं वे सब मिथ्याचारित्र है, इसलिये यह जानना आवश्यक है कि सम्यग्दर्शन क्या है और वह कैसे प्राप्त हो सकता है।
(२)
सम्यग्दर्शन क्या है ? प्रश्न-सम्यग्दर्शन क्या है ? वह द्रव्य है, गुण है या पर्याय ?
उत्तर-सम्यग्दर्शन जीव द्रव्यके श्रद्धागुणकी एक निर्मल पर्याय है । इस जगतमे छह द्रव्य हैं उनमेंसे एक चैतन्यद्रव्य ( जीव ) है, और पाँच अचेतन-जड़ द्रव्य-पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल हैं । जीव द्रव्य अर्थात् आत्मवस्तुमे अनन्त गुण हैं, उनमेसे एक गुरण श्रद्धा (मान्यता विश्वास-प्रतीति ) है, उस गुणकी अवस्था अनादिकालसे उल्टी है इसलिये जीवको अपने स्वरूपका भ्रम बना हुआ है, उस अवस्थाको मिथ्यादर्शन कहते है। उस श्रद्धागुणकी सुलटी [-शुद्ध ] अवस्था सम्यग्दर्शन है। इसप्रकार आत्माके श्रद्धागुणकी शुद्ध पर्याय सम्यग्दर्शन है।