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जातै परद्रव्यका ग्रहण त्याग आत्माकै होय, तो आत्मा परद्रव्यका कर्ता हर्ता होय सो कोई द्रव्य कोई द्रव्य के आधीन है नाहीं । तातै आत्मा अपने भाव रागादिक हैं, तिनको छोडि वीतरागी हो है । सो निश्चयकरि वीतराग भाव ही मोक्षमार्ग है । वीतराग भावनिके अर व्रतादिकनिक कदाचित् कार्य कारणपनो है । परमार्थने बाह्य क्रिया मोक्षमार्ग नाही, ऐसा ही श्रद्धान करना । ऐसे ही अन्यत्र भी व्यवहारनयका अंगीकार करना जान लेना।
यहां प्रश्न-जो व्यवहारनय परकों उपदेशविर्ष ही कार्यकारी है कि अपना भी प्रयोजन साध है ?
ताका समाधान-आप भी यावत् निश्चयनयकरि प्ररूपित वस्तुको न पहिचान, तावत् व्यवहार मार्गकरि वस्तुका निश्चय करे । तातै निचली दशाविणे आपकी भी व्यवहारनय कार्यकारी है। परन्तु व्यवहारको उपचारमात्र मानि वाक द्वार वस्तुका श्रद्धान ठीक करे, तो कार्यकारी होय । बहुरि जो निश्चयवत् व्यवहार भी सत्यभूत मानि 'वस्तु ऐसे ही है, ऐसा श्रद्धान करै, तो उलटा अकार्यकारी होय जाय सो ही पुरुषार्थ सिद्धि उपाय शास्त्रमे कह्या है
अबुधस्य वोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ।।६।। मारणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य । व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ॥७॥
इनका अर्थ-मुनिराज अज्ञानीके समझावनेकौ असत्यार्थ जो व्यवहारनय ताकौ उपदेश है। जो केवल व्यवहारही को जाने है, ताको उपदेश ही देना योग्य नाही है । बहुरि जैसे जो सांचा सिंह को न जाने, ताकै बिलाव ही सिंह है, तैसै जो निश्चय को न जान, ताकै व्यवहार ही निश्चयपणाको प्राप्त हो है। (मो० मा० प्र० पृ० ३६९ से ३७३ )