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________________ ध्याय ५ उपसंहार ४५३ हैं उतने ही जीवके प्रदेश हैं । एक जीवके, धर्मद्रव्यके और अधर्मद्रव्यके प्रदेशोंकी संख्या समान है ( सूत्र ८ ); परन्तु जीवके अवगाह और धर्म द्रव्य तथा अधर्म द्रव्यके अवगाहमें अंतर है । 'धर्म-अधर्म द्रव्य समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं जबकि जीवके प्रदेश संकोच और विस्तारको प्राप्त होते हैं । ( सूत्र १३, १६ ) (२) जीवको विकारी अवस्था में, सुख-दुख तथा जीवन-मरणमें पुद्गल द्रव्य निमित्त है; जीव द्रव्य भी परस्पर उन कार्यों में निमित्त होता है । संसारी जीवके संयोग रूपसे कार्मणादि शरीर, वचन मन और श्वासोच्छ्वास होता है ( सूत्र १६, २०, २१ ) । (३) जीव क्रियावान है, उसकी क्रियावती शक्तिकी पर्याय कभी गतिरूप और कभी स्थितिरूप होती है; जब गतिरूप होती है तब धर्मद्रव्य और जब स्थितिरूप होती है; तब अधर्मद्रव्य निमित्त है । (सूत्र १७ ) (४) जीव द्रव्यसे नित्य है, उसकी संख्या एक सदृश रहनेवाली है और वह रूपी है ( सूत्र ४ ) नोटः- छहों द्रव्योंका जो स्वरूप ऊपर नं० (१) में चार पहलुसे बतलाया है वही स्वरूप प्रत्येक जीवद्रव्य के लागू होता है । प्र० सूत्र ८ में जीवका लक्षण उपयोग कहा जा चुका है । (४) अजीवका स्वरूप जिनमे ज्ञान नही है ऐसे अजीव द्रव्य पाँच हैं—- १ - एक धर्म, २एक अधर्मं, ३ - एक आकाश, ४–अनेक पुद्गल तथा ५ - प्रसंख्यात काला ( सूत्र १, ३९ ) । अब पाँच उपविभागों द्वारा उन पाँचों द्रव्योका स्वरूप कहा जाता है । ( अ ) धर्मद्रव्य धर्मद्रव्य एक, अजीव, बहुप्रदेशी है । (सूत्र १, २, ६) वह नित्य, अवस्थित, अरूपी और हलन चलन रहित है ( सूत्र ४, ७) । इसके लोकाकाश जितने असख्य प्रदेश हैं और वह समस्त लोकाकाशमें व्याप्त है (सूत्र ८, १३) वह स्वयं हलन चलन करनेवाले जीव तथा पुद्गलोंको गति
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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