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अध्याय ३ भूमिका
२६६. भेद बतलाये हैं; और यह बतलाया है कि पांच भावोंके साथ परद्रव्योंकाइन्द्रिय इत्यादिका कैसा सम्बन्ध होता है ।
जीवको औदयिकभाव ही संसार है । शुभभावका फल देवत्व है, अशुभभावकी तीव्रताका फल नारकीपन है, शुभाशुभभावोकी मिश्रताका फल मनुष्यत्व है, और मायाका फल तिर्यंचपना है, जीव अनादिकालसे अज्ञानी है इसलिये अशुद्धभावोके कारण उसका भ्रमण हुआ करता है वह भ्रमण कैसा होता है यह तीसरे और चौथे अध्यायमे बतलाया है । उस भ्रमणमें ( भवोंमे) शरीरके साथ तथा क्षेत्रके साथ जीवका किस प्रकारका संयोग होता है वह यहां बताया जा रहा है । मांस, शराब, इत्यादिके खान-पानके भाव, कठोर झूठ, चोरी, कुशील, तथा लोभ इत्यादिके तीन अशुभभावके कारण जीव नरकगतिको प्राप्त करता है उसका इस अध्यायमें पहिले वर्णन किया है और तत्पश्चात् मनुष्य तथा तिर्यंचोके क्षेत्रका वर्णन किया है।
चौथे अध्यायमे देवगतिसे सम्बन्ध रखनेवाले विवरण बताये गये हैं।
इन दो अध्यायोंका सार यह है कि-जीवके शुभाशुभ विकारीभावों के कारण जीवका अनादिकालसे परिभ्रमण हो रहा है उसका, मूलकारण मिथ्यादर्शन है, इसलिये भव्यजीवोंको मिथ्यादर्शन दूर करके सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिये । सम्यग्दर्शनका बल ऐसा है कि उससे क्रमशः सम्यग्वारित्र बढ़ता जाता है और चारित्रकी पूर्णता करके परम यथाख्यातचारित्रकी पूर्णता करके, जीव सिद्ध गतिको प्राप्त करता है । अपनी भूलके कारण जीवकी कैसी कैसी गति हुई तथा उसने कैसे कैसे दुःख पाये और बाह्य संयोग कैसे तथा कितने समय तक रहे यह बतानेके लिये अध्याय २३-४ कहे गये हैं। और उस भूलको दूर करनेका उपाय पहिले अध्यायके पहिले सूत्रमे बतलाया गया है ।