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अध्याय १० सूत्र ८-६
टीका
१-इस सूत्रका कथन निमित्तकी मुख्यतासे है। गमन करते हुये द्रव्योंको धर्मास्तिकाय द्रव्य निमित्तरूप है, यह द्रव्य लोकाकाशके बराबर है। वह यह बतलाता है कि जीव और पुलकी गति ही स्वभावसे इतनी है कि वह लोकके अंततक ही गमन करता है। यदि ऐसा न हो तो अकेले आकाशमे 'लोकाकाश' और 'अलोकाकाश' ऐसे दो भेद ही न रहे। लोक छह द्रव्योंका समुदाय है और अलोकाकाशमें एकाकी आकाशद्रव्य ही है। जीव और पुद्गल इन दो ही द्रव्योमें गमन शक्ति है; उनकी गति शक्ति ही स्वभावसे ऐसी है कि वह लोकमें ही रहते है। गमनका कारण जो धर्मास्तिकाय द्रव्य है उसका अलोकाकाशमे अभाव है, वह यह बतलाता है कि गमन करनेवाले द्रव्योंकी उपादान शक्ति ही लोकके अग्रभाग तक गमन करनेकी है। अर्थात् वास्तवमें जीवकी अपनी योग्यता ही अलोकमें जानेकी नहीं है, अतएव वह अलोकमे नही जाता, धर्मास्तिकायका अभाव तो इसमें निमित्तमात्र है।
२-वृहद्रव्यसंग्रहमें सिद्धके अगुरुलघु गुणका वर्णन करते हुये बतलाते हैं कि-यदि सिद्धस्वरूप सर्वथा गुरु हो (भारी हो) तो लोहेके गोलेकी तरह उसका सदा अधःपतन होता रहेगा अर्थात् वह नीचे ही पड़ा रहेगा । और यदि वह सर्वथा लघु (-हलका ) हो तो जैसे वायुके झकोरेसे आकके वृक्षकी रूई उड़ जाया करती है उसीप्रकार सिद्धस्वरूपका भी निरतर भ्रमण होता ही रहेगा, परन्तु सिद्धस्वरूप ऐसा नहीं है, इसीलिये उसमें अगुरुलघुगुण कहा गया है।
(बृहद्रव्यसंग्रह पृष्ठ ३८ ) ___ इस अगुरुलघुगुणके कारण सिद्ध जीव सदा लोकाग्रमें स्थित रहते हैं, वहांसे न तो आगे जाते और न नीचे आते ॥८॥
मुक्त जीवों में व्यवहारनयकी अपेक्षासे भेद बतलाते हैं क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ॥६॥