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अध्याय ६ सूत्र ३-४
उचर- - इस सूत्र में कही हुई तत्त्वदृष्टिसे देखने पर यह मान्यता भूल भरी है । शुभभावसे पुण्यका बन्ध होता है, बन्ध संसारका कारण है, और जो संवर पूर्वक निर्जरा है सो धर्म है । यदि शुभभावसे पापकी निर्जरा मानें तो वह ( शुभभाव ) धर्मं हुआ और धर्मसे बन्ध कैसे होगा ? इसलिये यह मान्यता ठीक नहीं कि शुभभावसे पुराने पाप कर्मकी निर्जरा होती है (- आत्म प्रदेश से पापकर्म खिर जाता है ); निर्जरा शुद्धभावसे ही होती है। अर्थात् तत्त्वदृष्टिके बिना संवर पूर्वक निर्जरा नही होती । विशेष समाधान के लिये देखो श्र० ७ सू० १ की टीकामे शाखाधार । ८- तीसरे सूत्रका सिद्धान्त
शुभभाव और अशुभभाव दोना कषाय है, इसीलिये वे संसारके ही कारण हैं । शुभभाव बढते २ उससे शुद्धभाव नही हो सकता । जव शुद्धके अभेद आलम्बनसे शुभको दूर करे तब शुद्धता हो । जितने अंशमे शुद्धता प्रगट होती है उतने श्रशमे धर्म है । ऐसा मानना ठीक है कि शुभ या अशुभ मै धर्मका अंश भी नही है । ऐसी मान्यता किये बिना सम्यग्दर्शन कभी नही होता । कितनेक ऐसा मानते हैं कि — जो शुभयोग है सो सवर है; यह यथार्थ नही है, — ऐसा बतानेके लिये इस सूत्र में स्पष्टरूपसे दोनों योगोको आस्रव कहा है ||३||
अब इसका खुलासा करते हैं कि आस्रव सर्व संसारियों के समान फलका कारण होता है या इसमें विशेषता है सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ॥ ४ ॥
अर्थ.. - [ सकषायस्य साम्परायिकस्य ] कषाय सहित जीवके संसारके कारण रूप कर्मका प्रस्रव होता है और [श्रकषायस्य ईर्यापथस्य ] कषायरहित जीवके स्थितिरहित कर्मका आस्रव होता है ।
टीका
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१ - कषायका अर्थ मिथ्यादर्शन — क्रोधादि होता है । सम्यग्दृष्टि जीवोके मिथ्यादर्शनरूप वषाय नही होती अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीवोके लागू होनेवाला कषायका अर्थ 'चारित्रमें अपनी कमजोरीसे होनेवाले क्रोध-मान
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