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अध्याय ६ सूत्र ११
६६१ सार गाथा ६७ टीका तथा कलश ४०); उसी प्रकार 'जिनेन्द्रदेवके ग्यारह परीषह हैं। यह व्यवहार-नय कथन है, इसका अर्थ इस प्रकार है कि 'जिन अनन्त पुरुषार्थ रूप है, परीषहके दुःखरूप नही; मात्र निमित्तरूप परद्रव्यकी उपस्थितिका ज्ञान करानेके लिये ऐसा कथन किया है कि 'परीषह हैं परंतु इस कथनसे ऐसा नही समझना कि वीतरागके दुःख या वेदना है। यदि उस कथनका ऐसा अर्थ माना जावे कि वीतरागके दुःख या वेदना है तो व्यवहार नयके कथनका अर्थ निश्चय नयके कथनके अनुसार ही किया, और ऐसा अर्थ करना बड़ी भूल है-अज्ञान है।
(देखो समयसार गाथा ३२४ से ३२७ टीका) प्रश्न-इस शास्त्रमे, इस सूत्रमे जो ऐसा कथन किया कि जिन भगवानके ग्यारह परीषह हैं, सो व्यवहार नयके कथन निमित्त बतानेके लिये है, ऐसा कहा, तो इस सम्बन्धी निश्चय नयका कथन किस शास्त्रमे है ?
उत्तर--श्री नियमसारजी गाथा ६ मे कहा है कि वीतराग भगवान तेरहवे गुणस्थानमे हो तब उनके अठारह महादोष नहीं होते। वे दोष इस प्रकार हैं-१ क्षुधा, २-तृषा, ३-भय, ४-क्रोध, ५-राग, ६-मोह, ७चिता, ८-जरा, ६-रोग, १०-मृत्यु, ११-पसीना, १२-खेद, १३-मद, १४-रति, १५-आश्चर्य, १६-निद्रा, १७-जन्म, और १८-आकुलता।
यह निश्चयनयका कथन है और यह यथार्थ स्वरूप है । ४. केवली भगवानके आहार नहीं होता, इस सम्बन्धी कुछ स्पष्टीकरण
(१) यदि ऐसा माना जाय कि इस सूत्रमे कही गई परीषहोकी वेदना वास्तवमें भगवानके होती है तो बहुत दोष आते हैं। यदि क्षुधादिक दोष हों तो आकुलता हो और यदि आकुलता हो तो फिर भगवानके अनत सुख कैसे हो सकता है ? हाँ यदि कोई ऐसा कहे कि शरीरमे भूख लगती है इसीलिये आहार लेता है किन्तु आत्मा तदुरूप नही होता। इसका स्पष्टीकररण इस प्रकार है-यदि मात्मा तद्रूप नहीं होता तो फिर ऐसा क्यों कहते हो कि क्षुधादिक दूर करनेके उपायरूप आहारादिकका ग्रहण किया? क्षुधादिकके द्वारा पीड़ित होनेवाला ही आहार ग्रहण करता है। पुनश्च