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अध्याय ६ सूत्र ४६
२ परमार्थनिर्ग्रन्थ और व्यवहार निर्ग्रथ
बारहवे, तेरहवें और चौदहवे गुणस्थानमे विराजनेवाले जीव परमार्थ निर्ग्रन्थ हैं, क्योकि उनके समस्त मोहका नाश हो गया है, इन्हें निश्चयनिग्रंथ कहते हैं । अन्य साधु यद्यपि सम्यग्दर्शन और निष्परिग्रहत्व को लेकर निग्रंथ है अर्थात् वे मिथ्यादर्शन और अविरति रहित है तथा वस्त्र, आभरण, हथियार, कटक, धन, धान्य आदि परिग्रहसे रहित होनेसे निग्रंथ है तथापि उनके मोहनीय कर्मका श्राशिक सद्भाव है, इसीलिये वे व्यवहार निग्रंथ हैं |
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कुछ स्पष्टीकरण
(१) प्रश्न - यद्यपि पुलाक मुनिके क्षेत्र कालके वश किसी समय किसी एक व्रतका भंग होता है तथापि उसे निग्रंथ कहा, तो क्या श्रावक के भी निर्ग्रथत्व कहने का प्रसंग प्रावेगा ?
उत्तर - पुलाक मुनि सम्यग्दृष्टि है और परवशसे या जबरदस्तीसे व्रत में क्षणिक दोष हो जाता है, किन्तु यथाजातरूप है, इसीलिये नैगमनयसे वह निग्रंथ है; श्रावकके यथाजातरूप ( नग्नता ) नही है, इसीलिये उसके निग्रंथत्व नही कहलाता । [ उद्दे शिक और अधःकर्मके आहार जल को जानते हुए भी लेते हैं उसकी गणना पुलाकादि कोई मेद मे नही है |],
(२) प्रश्न -- पुलाक मुनिको यदि यथाजात रूपको लेकर ही निग्रंथ कहोगे तो अनेक मिथ्यादृष्टि भी नग्न रहते है उनको भी निग्रंथ कहने का प्रसंग आवेगा ।
उत्तर—— उनके सम्यग्दर्शन नही है । मात्र नग्नत्व तो पागलके, बालक के साथ तिर्यंचोके भी होता है, परन्तु इसीलिये उन्हे निग्रंथ नही कहते । किन्तु जो निश्चय सम्यग्दर्शन -ज्ञानपूर्वक संसार और देह, भोगसे विरक्त होकर नग्नत्व धारण करता है चारित्र मोहकी तीन जातिके कषायका अभाव किये है उसे निग्रंथ कहा जाता है, दूसरेको नही ॥४६॥