Book Title: Tattvarthvrutti
Author(s): Jinmati Mata
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अनुक्रम २. सम्पादकीय ३. प्रस्तावमा तरम और तवाभिगम के उपाय मक्खल गोशालका मत पूरण कश्यप का मत कात्यायनका मन संजय बेट्टित्तका मत वृद्धमत निग्मन्यनाचपुत तत्वनिरूपण सरथ आदिकी व्याख्या आत्मा का स्वरूप आत्मदृष्टि ही बन्पोच्छेदिका आत्माके तीन प्रकार बन्धका स्वरूप चहेतु आव कषाय आसव के दो भेद मोक्षतत्त्वनिरूपण मोजके कारण संबर मोक्ष के साधन सम्यग्दनका सम्यग्दर्शन अनुक्रम ७८ ९-१०२ ९-१० १० शास्त्रका सम्यग्दर्शन तस्याधिगम के उपाय मार्गदर्शक बुद्धका दृष्टिकोण नियम्यनाथ जीव महावीर १५१६ १६ जीवको अनादिवद्ध माननेका कारण १७-२० | १० १० ११ १२ १२-१४ । १४ | १४ । १५ । २०-२१ २१-२४ २४ २५ २६ | २७ २८-३० | ३१ ३२-३४ ३२ | ३४ । 1 ३५-३९ ! निक्षेप प्रमाण, नय और स्वाद नयनरूपण ● स्वाहाद प्रो० बलदेव उपाध्यायके मत की समीक्षा आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज ६९-७१ डा० देवराज मतकी आलोचना ७१ महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के मतका विचार बुद्ध और संजय सप्तभंगी श्री सम्पूर्णानन्दके पती समालोचना अनेकान्त दर्शनका कर्ण और भूगोल वैदिक परम्परा योगदर्शन ७८-८३ सांस्कृतिक आभार डॉ० सर राधाकृष्णनके मनकी समीक्षा] ८०-८१ सदावि अनुयोग ८२ ८४-८६ ग्रन्थका वाह्य स्वरूप ८६-१३ व्यासभाध्यके आधार से वैदिक परम्परा श्रीमद्भागवत के ६२-६४ ૪ ६५-६७ ६७ प्रस्तुत वृत्ति भाषा और ऐली प्रन्थकार बुतावरमूरि ४- विषयसूची ५- मूलग्रन्थ ६-या लिहिन्दीसार ७वार्थसूणामकारादिका: ९८-९९ ९९-१०० १०३-१०८ १-३२५ ३२७-५११ ५१३-५१० ३९-४१ ८-तस्यार्थसूत्रस्यानामहारानुमः ५१८-५३१ ४१-४४९ तस्यार्थवृत्ती समासानामुतवाक्यानाम परम्पराका सम्यग्दर्शन प्राचीन नवीन या समीचीन संस्कृतिका सम्यग्दर्शनअध्यात्म और नियतिवादका सम्यग्दर्शन ४४-५४ निश्वय और व्यवहारका सम्यग्दर्शन ५४-५७ १०-तत्वार्थवृत्तिगताः केचिद् विशिष्ट: कारानुक्रमः परदोकका सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शन ७१-७२ ७२-७६ ७६-७७ ७७ आधार से ९०-५२ परम्पराज के आधार ९२-९३ ९३-९७ ९७ ८८-९० ५७-५९ शब्दाः ५९-६२ ११-तत्वार्थवृत्तिगता ग्रन्था ग्रन्थकाराच ६२-६३ १२- विवरण ६३ ५२२.५२० ५३८ ४६ *૩ ५४८ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदसाम्पादकीष श्री सुविधिसागर जी महाराज शानपीठ मुनिदवी जैन ग्रन्थमालाम अकल ट्वीय वाङ्मय सम्पादन संशोधन के साथ ही दूसरा कार्य चालू है-तत्त्वार्थमूत्रकी अमुद्रिन टीकाओंका प्रकाशन । इसी कार्यक्रम में श्रुतसागररि विवित तत्त्वार्थवत्ति योगदेवविरचित नत्वार्थसृखबाधवृत्ति और प्रमाचन्द्रकृत तत्त्वावत्तिटिप्पणका संपादन-सशोधन हो चुका है। तत्त्वार्थवातिकका तीन ताडपत्रीय तथा तीन कागजकी प्रतियोंके आधारमे सम्पादन हो रहा है। बड़े बडे ग्रन्थीका अक्षरानुवाद जितना समय और भक्ति लेता है, उसनी उसकी उपयोगिता सिद्ध नहीं होती । कारण, संस्कृताम्यगी तो मलग्रन्थमे ही पदार्थ बांध कर लेते है और भाषाभ्यासी के लिए अक्षणनुवादका कोई विशिष्ट उपयोग नहीं. अत: बंद ग्रन्थमा प्रकवार हिन्दी सालिखा जाना व्यवहार्य समझकर तत्त्वावृति ग्रन्थका, जो परिमाणमें ... दलाल संक्षेपमं हिन्दी शान दिखा। इमाम नत्वामसूत्र पर अतसागरिका जी विवनन हैं बह गूग संगी। दिगम्बर' बामपर्व शुद्ध संपाश्नमें नाड़त्रीय प्रतियां बहुमूल्य मिद हुई है। न्याय भुवचन्द्र और न्यायविनिश्नन विवरण के सम्पादनमें ताइपयीय प्रतियां ही पागद्ध और मंगोधनता मुख्य गाधन रही है। इसी तरह तत्त्वार्थवामिने. अद्धिपन्न मरकरणका नम्पादन भी दक्षिणकी नानीय प्रतियोमही हो सका है। इस तत्त्वार्थति मगादनग बनारस, आग और दिल्लीको प्राचीन बागजी प्रतियोला उपयोग तो किया ही गया है पर जो विशिष्ट प्रति हमें मिली और जिसके आधार पर सरकाराणशद्ध मम्पादित हुआ, वह है मुनिद्रीकी ताडपत्रीय प्रति। आरा जन सिद्धान्त भवन मे प्राप्त हई प्रनिती आ. संज्ञा है । प्राय: अशुद्ध है। बनारस स्यागाद विद्यालयले प्राप्त हाई प्रतिकी व संज्ञा है। यह भी अशुद्ध है। दिल्ली की प्रनि श्री गन्नालालजी अग्रवालकी कृपारा प्राप्त हुई है । इराकी नजाद है । यह अपक्षाकृत शुद्ध है। जैन मन्दिर बनारमको प्रतिकी मंजा ज है। यह प्राचीन और शड़ है। गडबिद्री जन ग.की ताडपत्रीय प्रतिको पंजा ताई। यह कलही लिपि में लिखी हर है और पद्ध है। इस तरह पांच प्रनियों के आधार इमका मम्पादन किया गया है। ग्रन्थान्तरोंसे उद्धत बात्रयांका मन्नस्थल निर्देश ] हम फिटम कर दिया है। कुछ अर्थबोधक टिप्पण मम्पादक दाग लिएई। नाडापत्रीय निम भी कहीं कहीं मिल उन्हें 'ता. टिके माथ छपाया है। इस ग्रन्थमं निम्नलिखित परिशिष्ट लगाए गए है-१ तन्त्रार्थमनोंका अबाराद्यन ऋम, २ नावागत. शब्दोंकी भूची, तत्त्वार्थवत्तिक जनधन पाक्योंकी मुनी. या तिन्त अन्न और सन्यवर ५ तत्त्वार्थबृत्तिके विशेष शब्द, ६ ग्रन्थसंकेत विवरण ।। प्रस्तावनाम तस्व, तत्त्वाधिगगके उपाय और सम्यग्दन शीर्षकम जन आवाका गर जनदष्टिग देखनका प्रयत्न किया है। आशा है दमरी मांऋनिक पदार्थोके निरपण लिए नीनमागं गिर राकेगा। तस्वाधिगम के जगाय' प्रकरणमें स्यावाद और मनगंगीक गंबंध श्री रामलजी, मर राधा रणन. बलदेवजी उपाध्याय आदि वर्तमान दर्शनलेवकानी चान्न नान्गायकी आलोचना भी की गई। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानवीर सार शान्ति प्रसादजी और उनकी समम्पा वर्मपत्नी सी० रमाजी जैन ने भारतीय ज्ञानको अमूल्य निधियंकि अन्यषण संशोधन और प्रकाशन निमिन भारतीय ज्ञानपीठकी स्थापना की है । इमीक अन्तर्गत जैन ग्रन्थों के अनुग़न्धान और प्रकाशनके लिए रव मातेश्वरी मूर्तिदेवीके स्मरणार्थ जानपीठ मृतिदेवी जैन ग्रन्थमाला प्राकृत संस्कृत अपनग आदि भाषाओं में प्रकाशित की गई है। यह ग्रन्थ उसी ग्रन्थमालाका जनु पृण है। हर भद्र दम्पनिकी यह मौलिव मातानिका चि अनुकरणीय और अभिनन्दनीय है। सुप्रसिद्ध माहित्यमेवी श्रीमान पं. नाथ गमजी प्रमी द्वारा लिग्नित 'धनमागम्यूरि' लेख अन्धकार विभाग में उदधन है। थी पं० गजमारजी शास्त्री साहित्यावायनं इसके सा अन्यायके प्रारम्भिव पाठान्तर लिए थे। पं. देवकुमारजी शास्त्री ने कनप्रतिका वाचन किया नया पं. महादेवजी चतुर्वेदी व्याकरणानाने प्रफर्मपोधनम सहयोग दिया है। ज्ञानपीठने सम्पादनशिक्षणनिमिन दो विशेपनियाँ प्रारम्भ की थीं। उनमें एक बृत्ति उदयचन्द्रं सर्वदर्शनाचार्य बी.ए. को दी गई थी। प्रिय शिष्य श्री उदयचन्द्रजीनं इस ग्रन्थवे कूछ पाठान्तर रियं और हिन्दीसार लिखा है। मुझे यह लिखते हुए प्रसन्नता होती है कि ये आगे चलकर अच्छे साहिस्यसेवी मिशानदशक पं० एमजी मालीवाणोका मालस्थल खोजवार भेजे हैं। उनके द्वारा लिखित 'ब्रह्माश्रुनरागरका समय और साहित्य' शीमेत लेखी पाण्डुलिपि भ मुहां प्राप्त हुई थी। श्री बाबु पन्नालाल जो अग्रवाल दिल्ली, पं. भजनली शारत्री मचिद्री और पं. नेमिचन्द्र जी ज्योतिषाचार्य ने अपने यहांके की प्रतिमा भिजवाई। मैं इन मव विद्वानोका आभारी हैं। अन्तमें मैं पुनः वही बान दुहराना हूँ कि-'सामग्री निका कार्यरय नेक कारणम्-अर्थात् सामग्री कार्यको उत्पन्न करती है, एका काम नहीं। में सामग्रीका मारा क अंग ही है। भारतीय ज्ञानपीठ, काशी माघ शुक्ल ५, वीर सं० २४.७५ — महेन्द्रकुमार जैन (प्रथम संस्करण, 1949 से) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १.ग्रन्थविभाग [तश्व और तत्त्वाधिगम के उपाय ] आममे २५०५-२६०० वर्ष पूर्व इस मारतभूमिके बिहार प्रदेशमें दो महान् नक्षत्रोंका उदय हुआ था. जिनकी प्रभासे न केवल भारत ही आलोकित हआ था किन्तु सुदूर एशियाके बीन,जापान,तिब्बत आदि देश भी प्रकाशित हुए थे । आज भी विश्वमें जिनके कारण भारतका मस्तकं गर्वोन्नत है, वे निग्गंठनायपुन वर्धमान और शौढोदनि-गौतम युद्ध । इनके उदयके २५० वर्ष पहले तीर्थकर पार्श्वनाथने काशी देशमें जन्म लिया था और श्रमणपरंपरा के पातुर्याम संवरका जगतको उपदेश दिया था। बुद्धने बोधिलाभके पहिले पार्श्वनाथकी परंपराके केशलंच आदि उग्रतपों को तपा था, पर वे इस मार्गमें सफल न हो सके मार्गदर्शक :- आचार्य श्री मचिमिसामनीलाहारसंगठनाथपुत्त साधनोंकी पवित्रता और कठोर आत्मानुशासनके पक्ष पानी थे। वे नग्न रहते थे, किसी भी प्रकारके परिग्रहका संग्रह उन्हें हिंसाका कारण मालूम होता था । मात्र लोकसंग्रहके लिए आवारके नियमोंको मृदु करना उन्हें इष्ट नहीं था। संक्षेपमें बुद्ध मातृहृदय दयाभूमि और निग्गठनाथपुस पितचेतस्क साधनामय संशोधक योगी में । बडके पास जब उनके शिष्य आकर कहते थे--भन्ते, जन्साघर की अनुज्ञा दीजिए, या तीन चीवरकी अनुज्ञा दीजिए ' तो दयालु बुद्ध शिष्यसंग्रह के लिए उनकी सुविधाओंका ध्यान रखकर आचारको मुदु कर उन्हें अनुशा देते थे । महावीरकी जीवनचर्या इननी अनुशासित थी कि उनके संघके शिष्योंके मनमें मह कल्पना ही नहीं आती थी कि आसारके नियमोंको मुटु करानेका प्रस्ताव भी महाबीरमे किया जा सकता है। इस तरह महावीरकी संघपरंपरामें चुने हुए अनुशासित दी तपस्वी थे, जब कि बुद्धका संघ मद् मध्यम सुकूमार सभी प्रकारके भिक्षुओंका संग्राहक था। यद्यपि महावीरकी तपस्याके नियम अत्यंत अहिंसक अनुशासनबद्ध और स्वावलंबी थे फिर भी उस समय उनका संघ काफी बड़ा था। उसकी आचारनिष्ठा दीर्घ तपस्या और अनुशासन की साक्षी पाली साहित्य में पग पग पर मिलती है। महावीर कालमें प्रमुख संघनायकों की चर्चा पिटक साहित्य और आगम साहित्यमें आती है । बौद्धों के पाली ग्रंथों में उनकी जो चर्चा है उस आधारसे उनका वर्गीकरण इस प्रकार कर सकते हैं (१) अजितकेशकम्बलि--भौतिकवादी, उच्छेदवादी। (२) मक्खलिगोशाल....नियतिवादी, संसारद्धिवादी । (2) पूरण कश्यप--अक्रियावादी । (४) प्रक्रुध कात्यायन--शाश्वतार्थवादी, अन्योन्यवादी 1 (५) संजयवेलठिपुत्त—संशयदाची, अनिश्चयवादी या विक्षेपवादी। (६) बुद्ध-अव्याकृतवादी, चतुरार्मसत्यवादी, अभौतिक क्षणिक अनात्मवादी। (9) निग्गठनाथपुस्त--स्याद्वादी, चातुर्याममंवरवादी। (१) अजितकेशकम्बलिका कहना था कि-"दान यज्ञ तथा होम सब कुछ नहीं है। भले बुरे कर्मों का फल नहीं मिलता। न इहलोक है, न परलोक है, न माता है, न पिता है, न अयोनिज ( औपपातिक देव ) सत्व है, और न इहलोक में वैसे ज्ञानी और समर्थश्रमण या साह्मण हैं जो इस लोक और परलोकको स्वयं जानकर और साक्षात्कारकर कहेंगे । मनुष्य पाँच महाभूतोंसे मिलकर बना है। मनुष्य जब मरता है तब पृथ्वी देखो दीवनिकाय मकसनुस ।२ । हिन्दी अनुवाद । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवत्ति माग नीम, जाट जलाम', नेज सेज में, थाय वायुमें और इंडिया आवागमं लीन हो जाती है। लोग मरे । मन्थ्यका वाटपर रखकर जाते है, उसकी निन्दा प्रशंमा करले। हटियां उजली हो त्रिखा जहली ही गय कुछ भस्म हो जाना है। मख लोगजी दान देने हैं, उनका कोई फल नहीं होता । आस्तिकपाद ज्ञठा हूँ । मर्ख और पनि सभी गरीरके नष्ट होते ही उच्छरको प्राप्त हो जाने हैं। मरने के बाद कोई नहीं रहता।" ET च्छद या गो-FITNI था । १२; मातलिगोशाला मन--"मत्त्वांक ऋलेशा कोई हल नहीं है.प्रत्यय नहीं है। बिना हनने और बिना प्रत्ययके ही मानलेश पाते हैं। सत्ता की गायिका कोई वेतु नहीं है. कोई प्रत्यय नहीं है । बिना इनके और विना प्रत्ययक पस्य शुद्ध होते हैं। अपने कुछ नहीं कर सकते हैं. गगये भी कुछ नहीं कर मकने ई, (कोई) पुरुष भी कुछ नहीं कर सकता है , बल नहीं है, वीर्य नहीं है. पृथ्ष का कोई पराक्रम नहीं है। सभी सत्व, सभी प्राणी, सभी भुत और सभी जीव अपने नाम नहीं है, निबंल, निर्वीय, भाग्य और संयोगके फेरसे छ जातियों में उत्पन्न हो मुनागदेशिनमोओवये प्रामुख्नुधिचिसागहवामहाखिजाम मौ हैं। पांच मी पाच कर्म, तीन अर्ब कर्म ( केवल मनमे शरीरमे नहीं ), बासठ प्रतिपदाएं ( मार्ग ) वासट अन्तरकल्प, अभिजामियाँ, आठ पुरुषभूमियां. उन्नीस सौ आजीनकउनवास मी परित्राजक. म. भास मी नाग-नावास. वीस ही इंद्रियां, नीयमीन हुनौम राधातु, यात संजी ( होशवाले) गर्भ मान असंजी गर्भ, सान निर्गन्ध गर्भ, साद देव, सात मनत्र, सान पिशाच, सात स्वर. सान मो माल गाँट, सात सीमात प्रगात, सात मी सान स्वान, और अस्सी लास टबई कल्प है. जिन्हें पूर्व और पंडित जानकर ओर अनुगमन कर दुःखाका अन कर सकते हैं। वहीं यह नही है-इस शील या त या तप, ब्रह्मचर्यसे में अपरिपक्व कर्मको परिपक्व करूंगा। परिणक्य कर्मको भोगकर अन्त करूंगा। मुख दुःख द्रोण (नाम) से तुले हर है, गंसारमें घटना-बढ़ना उत्कर्ष, अपकर्ष नहीं होता। जैसे कि मूनकी गोली फेंकनेपर उछलती हुई गिरती है, बसे ही मूर्ख और पंडित दौड़कर-आवागमनमें पड़कर, दुखवा अन्त करगे ।" गोशालक पूर्ण भाग्यवादी था । स्वर्ग नरक आदि मानकर भी उनकी प्राप्ति नियत समझता था, के लिए पुरुषार्थ कोई आवश्यक या कार्यकारी मही धा । मनुष्य अपने नियत कार्यक्रमके अनुसार सभी योनियोंम पहुँच जाता है । यह गत पूर्ण नियतिवादका प्रचारक था। (३) पूरण कश्यप--"करते कराते, छंदन करने, छेदन कराले. पकाने पक्वाने, गोव करते, परेशान होत, परेमान करान. वलन चलाते, प्राण मारते, बिना दिये लेल, रोंघ काटते, गांत्र लुटते, चोरी करते, बटमारी करते, परस्त्रीगमन करते, अमोलने भी. पाप नहीं किया जाना । छरे मे तेज चक्र द्वारा जो इस पृथ्वीवे प्राणियोंका (कोई) एक मांसका खलियान, एक मांसका पुज बना दे; तो इसके कारण उसको पाप नहीं, पापका आगम नहीं होगा। यदि घात करते कराते, काटते, कटाते, पकात पकवाते, गंगाके दक्षिण तीरपर भी जाये; तो भी इसके कारण उमको पाप नहीं, पाएका आगम नहीं होगा । दान देते. दान दिलाते, यज्ञ करते, यज्ञ कराते, यदि गंगाके उत्तर तीर भी जाये, तो इसके कारण उसको पुण्य नहीं, पूण्यका आगम नहीं होगा। दान दम संयमसे, सत्य बोलनेसे न पूण्य है,न पुण्यका आगम है।" पूरण कश्यप परलोकम जिनका फल मिलता है ऐसे किमी भी कर्मको गुण्य या पापा नहीं रामझता था। इस तरह पूरण कश्यप पूर्ण अक्रियावादी था। . (४) प्रक्रुध कात्यायनका मत था--'यह मात काय ( समूह ) अकृत-अकृतत्रिय-अनिर्मिन -निर्माणरहित, अबध्य-कूटस्थ स्तम्भवत् (अन्चल) है। यह चल नहीं होते, बिकारको प्राप्त नहीं होते : न एक दूसरेको हानि पहुँचाते हैं न एक दुसरेके सुख, दुख या सुख-दुस्नके लिए पर्याप्त है। कौनमे सात ? Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना मार्गदर्शक :- अविवि श्री सुविधिसागर जी महाराज गुन पृथिवी काय, आप काय, तेज काय, बाथु काय, गुल, तुम और जीवन यह मामला दुस्खके योग्य नहीं है। यहां न हन्ता (भारनेवाला) है. न घातयिता (-हवन करनेवाला) न मुन वाला न सुनानेवाला न जाता न जायेीभीको किसीको प्राणस नहीं मारता मानी काय अलग साली जगह में गन्न | 7 22 यह मत अन्योन्यवाद या शास्वाद कहलाता था। यदि आप पूछे दि (५) संजय वेत्तिका मत था परलोक है, तो आपको बतलाऊँ कि परलोक हैं । में ऐसा भी नहीं रहना, बेसा की नहीं कहना मेरी तरहसे भी नहीं कहना में यह भी नहीं कहता कि 'यह नहीं है में यह भी नहीं कहता कि वह नहीं नहीं है। परलोक नहीं है । परलोक है भी और नहीं भी ० परलोक न हैं और न नहीं है। अयोनिद (-ऑप. पातिक) प्राणी है। आयोनिज प्राणी नहीं है, है भी और नहीं भी, न है और नहीं भरे काम केफ है, नहीं है, और न नहीं हैं। तथागत बने हैं। यदि मुझे ऐसा पूछें और में ऐसा ममता दिन रहते है और नहीं तो मैं ऐसा आपको कहूँ। मैं ऐसा भी नहीं कहता में वैसा भी नहीं कहना।' संजय स्पष्टतः संशयालु क्या घोर अनिश्चयवादी या आज्ञानिक था उसे तत्त्वकी प्रचलित चतुष्कोटियों से एकका भी निर्णय नहीं था। पालीपिठक में इसे 'अमराविशेपवाद' नाम दिया है। भले ही हमलोगों की समझ में मह विक्षेपवादी ही हो पर संजय अपने अनिश्चयमें निश्चित था । १ (६) बुद्ध अष्याकृतवादी थे। उनने इन दस वालोंको अव्याकृत बतलाया है। (१) लोक है ? (२) लोक अशाश्वत है ? (३) लोक अन्तवान् हं ? ( ४ ) लोक अनन्त है ? (५) वही जीव ही शरीर है ? (६) जोव अन्य और दारी र अन्म है १(७) मरनेके बाद तथागत रहते हैं ? (८) मरने के बाद नथागत नहीं रहते ? (९) मरने के बाद तथागत होते भी हैं नहीं भी होते ? (१०) मरनेके बाद तथागत नहीं होते, नहीं नहीं होते ? इन प्रश्नोंमें लोक आत्मा और परलोक या निर्वाण इन तीन मुख्य विवादग्रस्त पदार्थोंको बुद्धले अन्याकूल कहा। दीघनिकाय के पोट्वादसुन में इन्हीं प्रश्नको अव्याकृत कहकर 'अमेकांशिक कहा है। जो व्याकरणीय है उन्हें 'ऐकाशिक' अर्थात् एक सुनिश्चित रूपमें जिनका उत्तर हो सकता है. कहा है। जैसे दुख आर्यसत्य है ही? उसका उत्तर हो 'है ही' इस एक अंगरूपमें दिया जा सकता है। पर लोक आत्मा और निर्माणगंबंधी प्रश्न अनेकांशिक अर्थात् इनका उतरान इनमें किमी एकके द्वारा नहीं दिया जा सकता। कारण बुद्धने स्वयं बताया है कि यदि वही जीव दही शरीर कहते हैं तो उच्छेदवाद अर्थात् भौतिकवादका प्रसंग आता है जो बुद्धको इष्ट नहीं और यदि अन्य जीव और अन्य शरीर कहते हैं तो निरय आत्मवादका प्रसंग आता है जो मी बुद्धको इष्ट नहीं था। बुद्ध ने अश्नव्याकरण चार प्रकार का बताया है- (१) एकांश (है या नहीं एकमं) व्याकरण, प्रतिपृच्छाव्याकरणीय प्रश्न विभज्य व्याकरणीय प्रश्न और स्थापनीय प्रश् जिन प्रश्नोंको बुद्धवं अव्याकृत कहा है उन्हें अनेकाशिक भी कहा है अर्थात् उनका उत्तर एक है या नहीं में १"सरसतो खोको इतिपि, असस्तो छोको इतिपि जन्तवा लोको किंपि अनन्तवा लोकी इतिपि तं जीवंत सरीरं इतिषि, अजीव अम सरीर इतिथि होति तथागतो परम्परा इतिप होति न च होति च तथागत पम्मरणा इतिषि, होत न हो तो "ममिनि० चूत कतमे से पोप बना अनेकसिया मा देखिता पन्ना सरसतो ओको ति वा पोहबाद नया अ सिम्मो देखितो पातो तो लोको वि यो पोर मया अनेक "दीपनि पोर I Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ स्वार्थवृत्ति नहीं दिया जा सकता। फिर इन प्रश्नोंके बारेमें कुछ कहना सार्थक नहीं, भिक्षुके लिए उपयोगी नहीं और न निर्वेद, निरोध, शांति, परमज्ञान वा निर्वाणके लिए आवश्यक है। 7 इस तरह बुद्ध जब आत्मा, लोक, और निर्वाणके सम्बन्धमें कुछ भी कहनेको अनुपयोगी बताते हैं तो उसका सीधा अर्थ वही जात होता है कि वे इन तत्त्वांक सम्बन्धमें अपना निश्चित मत नहीं बना सके थे। शिष्योंके तत्वज्ञान के झगड़े में न डालने की बात तो इसलिए समझ नहीं आती कि जब उस समयका प्रत्येक मतप्रचारक इनके विषयमें अपने मतका प्रतिपादन करता था उसका समर्थन करता था, जगह जगह इन्होके विषय में बाद रोपे जाते थे, तब उस हवासे शिष्योंकी बुद्धिको अचलित रखना दुःशक ही नहीं, अशक्य ही था । बल्कि इस अव्याकृत कोटिकी सृष्टि ही उन्हें बौद्धिक हीनताका कारण बनती होगी । बुद्धका इन्हें अनेकांशिक कहना भी अर्थपूर्ण हो सकता है। अर्थात् वे एकान्स न मानकर अनेकांश मानते तो थे पर चूंकि निग्गंठनाथपुत मे इस अनेकशिताका प्रतिपादन सियावाद अर्थात् स्पायसे करना कर दिया था, अतः विलक्षणस्थापनके लिए उनने इन्हें अव्याकृत कह दिया हो। अन्यथा अनेकांशिक और अनेकान्तबादमें कोई खास अन्तर नहीं मालूम होता। यद्यपि संजयवेलठित बुद्ध और निम्मंठनायपुल इन तीनोंका गत अनेकांशको लिए हुए है. पर संजय उन अनेक अंशोंके सम्बन्धमें स्पष्ट अनिश्चयवादी है । वह गाफ साफ कहता है कि यदि में जान हैं यह अव्याकृत है। इस अव्याकृति और संजय को अनिश्चितिमें क्या सूक्ष्म अन्तर है सो तो बुद्धही जानें, पर व्यवहारतः शिष्यों के पल्ले न तो संजय हो कुछ दे सके और न बुद्ध ही। बल्कि संजयके शिष्य अपना यह मत बना भी सके होंगे कि इन आत्मा आदि अतीयि पदार्थका निश्चय नहीं हो सकता, किन्तु बुद्धशिष्योंका इन पदार्थों के विषय बुद्धिभेद आज तक बना हुआ है। आज श्री राहुल सांकृत्यायन बुद्धके भतको अभौतिक अनात्मवाद जैसा उभयप्रतिषेषी नाम देते हैं। इधर आत्मा शब्द नित्यावका डर है उपर भौतिक कहने मे उच्छेदवादका भय है। किंतु यदि निर्वाणदशामें दीपनिर्वाणको तरह चित्तसन्ततिका विरोध हो जाता है तो भौतिकवादसे क्या विशेषता रह जाती है? जावक हर एक जन्ममें आत्माकी भूतोसे उत्पत्ति मानकर उनका चार्वाक भुतविलय का मान लेता है। बुद्धने इस चिन्ततिको पंचस्वरूप मानकर उसका विलय हर एक मरणके समय न मानकर संसार के अन्तमं माना। जिस प्रकार रूप एक मौलिक तत्त्व अनादि अनन्त धारारूप है उस प्रकार चितपास न रही अर्थात् चार्वाकका भौतिकत्व एक जगाका है जब कि बुद्धका भौतिकव एक संसारका इस प्रकार वृद्ध तत्त्वज्ञानकी दिशा संजय यां भौतिकवादी अजितके विभामंही बोलान्दो लित रहे और अपनी इस दशामें भिक्षुओंको न डालनेकी शुभेच्छासे उनने इनका अव्याकृत रूपसे उपदेश दिया। उनने शिष्योंको समझा दिया कि इस बाद-प्रतिवाद निर्माण नहीं मिलेगा, निर्वाणके लिए चार आर्यत्योंका ज्ञान ही आवश्यक बुद्धने कहा कि दुःख, दुःखके कारण दुःखनिरोप और दुःखनिरोधका मार्ग इन चार आर्यसत्यों को जानो । इनके यथार्थ ज्ञानसे दुःखनिरोध होकर मुक्ति हो जायगी । अन्य किसी ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है । J निगंठनाथपुत्त-निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र महावीर स्याद्वादी और सप्ततत्त्वप्रतिपादक थे। उनके विषय में यह प्रवाद था कि निम्मंठनाथपूत सर्व सर्वदर्शी है, उन्हें सोते जागते हर समय ज्ञानदर्शन उपस्थित रहता है। ज्ञानपुत्र वर्धमानने उस समयके प्रत्येक तीर्थंकरकी अपेक्षा वस्तुतत्त्वका सर्वागीण साक्षात्कार किया था। वेन संजयकी तरह निश्वयवादी थे और न बुद्धकी तरह अव्याकृतवादी और न योशालक आविकी तरह भूतवादी ही उनने प्रत्येक वस्तुको परिणामनित्य बताया। आजतक उस समय के प्रचलित मतवादियोंके तत्त्वोंका स्पष्ट पता नहीं मिलता। बुद्धने स्वयं कितने तत्त्व या पदार्थ माने थे वह आजभी विवादग्रस्त है पर महावीरके तत्व आजतक निविवाद चले आए है। महावीरने वस्तुतत्वका एक स्पष्ट दर्शन प्रस्तुत किया उनने कहा कि इस जगत् कोई द्रव्य या सत् नया उत्पन्न नहीं होता और जो द्रव्य या सत् विद्यमान है उनमें प्रतिक्षण परिवर्तन Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना होनेपर भी उनका अत्यंत विनाश नहीं हो सकता। पर कोई भी पदार्थ दो अपनः एक पर्याय में नहीं रहता, प्रतिक्षण नूतन पर्याय उत्पन्न होती है पूर्व पर्याय विनष्ट होती है पर उस मौलिक तत्वका आत्यन्तिक इच्छेद नहीं होता, उसकी धारा प्रवाहित रहती है। चित्तसन्तति निर्वाणावस्थामें शुद्ध हो जाती है पर दीपककी नरहवाकर अस्तित्वविहीन नहीं होती । रूपान्तर तो हो सकता पदाला नहीं और न अपदार्थ ही या पदार्थविलय ही। इस गंसारमें अनन्त चेनन आत्माएं अगन्न पुद्गर परमाणु. एक आकाश द्रव्य, एम धर्मद्रब्ब, एक अधर्मद्रव्य और असंख्य कालपरमाण इतने मालिब यहै। इनका सयाम कमी नही मानी और नगक भी नुतन द्रव्य उत्पन्न होकर इनकी गंण्याम एककी भी यदि सकता है। प्रतिक्षण परिवर्तन प्रत्येक द्रव्यत्रा होता रहता है इसे कोई नहीं रोक राकगा, यह उसका स्वभाव है। महानोरकी जो मालकात्रिपदी समन्स द्वादशांगका आधार बनी, वह यह है-"उत्पन्न वा विगमेन का घवेहवा' अर्थात प्रत्येक पदार्थ उत्पन्न होता है विनष्ट होता है, और ध्र व है । उत्पाद और विनाशमे पदार्थ रूपान्तरको प्राप्त होता है पर भुवस अपना मौलिक अस्तित्व नहीं खाता। जगन्मे किसी भी 'सत्' का समूल विनाश नहीं होता। इतनीधी ध्रुवता हैं। इसमें न कुटनित्यत्व जैसे शास्त्रतवादका प्रमंग है और न सर्वथा उन्छदवादका ही। मलन: प्रत्येक पदार्थ उत्पाद व्या और धीच्यरूप है। उसमें यही अनेकांना या अनकान्नता या अनेकधर्मात्मकता है। इसके प्रतिपादनकलिए महावीन्न एक खास प्रकारको भाराशैली बनाई थी। उस भाषाशैलीका नाम स्यावाद है। अर्थात अमत्र निश्चित अपेशास वरत भ्रूव है और अमत्र निश्चित अपेक्षामे उल्गादत्ययवाली । अपने मालिक मत्त्तरो न्युन न होनेके कारण उने प्रव नाहते हैं नया प्रतिक्षण रूपान्तर होने के कारण उत्पादध्ययनाली वा अध्रप कहते हैं। श्रवकहने समय अनव अंगाका लोप नही जाय और अन्नव कहते समय ध्रुव अंदा का उच्छेद न समझा जाय इसलिए "मिया या 'म्यात् शब्दका प्रयोग नारना नाहिए । अर्थात् 'स्मन् ध्रुव है इसका अर्थ है कि अपने मौलिक अस्तित्वकी अपेक्षा बस्तु प्रय है, पर प्रवरात्री नहीं है इसमपत्रके iगवायाबाहक भी इसका नाइलाहारका जादका प्रयोग आवश्यक । इसी तरह रूपान्तरकी दृष्टि से यस्तु में अध्रुवत्त्व ही है पर यम्त अध्रुवमात्र ही नही उसमें अध्रुवत्वके गिवाय अन्य धर्म भी विद्यमान है इसकी सूचना 'स्यान्' पद देना है। नात्पर्य यह कि स्यात् शब्द बस्तुम विद्यमान अविवक्षित शेष धमों की नुमना देनाईबद्ध जिस भाषा सहजप्रकारको नहीं पा सके या प्रयोगमं नहीं लाये और जिसके कारण उन्हें अनेकाशिक प्रश्नों को अव्याकृत कहना पड़ा उस भाषाके सहजै प्रकारको महावीरने दृढताके साथ व्यवहार लिया । पाली साहित्यम 'स्यात् निया शब्दका प्रयोग इसौं निश्चित प्रकारकी सुचनाके लिए हुआ है। यथा मज्झिमनिकायके महाराहुलोबादमुत्तमं आपोधानुका वर्णन करते हुए लिखा है कि- "कतमा च राहुल आपोवानु? अपोयातु सिया अससिका सिया बाहिरा।" अर्यात आपोत्रातु जिनन प्रकारकी है। एक आभ्यन्तर और दूसरी बाय । यहां आभ्यन्तर धातुके साथ 'सिया'-याद् शब्दका प्रयोग आपाधादुर याभ्यन्तरके गिवाय द्वितीय प्रनारकी सुचनाके लिए है । इमी तरह नाम के साथ 'सिया'शब्दका प्रयोग बाह्य के सिवाय आभ्यन्तर भेदकी सूचना देता है। तात्पर्य यह कि न तो तेजोधात बाह्यरूप ही है और न आभ्यन्तर हाही। इस उभयरूपताकी सूचना "शिया-स्यात्' शब्द देता है। यहाँ न तो स्मात् शब्दका वायद अर्थ में औरन संभवतःऔर न कदाचित् ही, क्योंकि तेजोधालु शायद आभ्यन्तर और शायद बाघ नही हैं और न संभवतः आभ्यन्तर और बाह्य और न कदाचित आभ्यन्तर और कदाचित् बाह्य, किन्तु मुनिदिचत रूपस आभ्यन्तर और बाह्य उभय अंग्रवाली है। इसी तरह महावीरने प्रत्येक धर्मके साथ 'सिया-स्यात् दाब्द जोड़कर अविबक्षित शेष बाँकी सूचना दी है । 'स्याम' शब्दको शायद संभव या कदाचितका पर्यायवाची कहना नितान्त भ्रमपूर्ण है। महावीरने वस्तुतत्त्वको अनन्तधात्मक देखा और जाना। प्रत्येक पदार्थ अनन्त ही मण पर्यायोंका अखण्ड आधार है। उसका विराट रूप पूर्णतया शानका विषय हो भी जाय पर शब्दोंके वारा तो नहीं ही कहा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज नरवात जोमवता कामा नहीं जा उसके पूर्ण रूपको स्पर्श कर सके । गाब्द एक निश्चित दृष्टिकोण से प्रसक्न जीर वस्तूक पर ही धमका कथन करत में हम नन्द जय गन्द स्वभावतः दिनक्षानुसार अमुक धर्मका जनादन नग्न विलिन पनि मना लिा मरा मा अवश्यही रखना चाहिए जो वक्ता शं श्रोताको भासने न दे1 रयान् ब्यका यही कार्य पर शोना वस्तृवे अनेकानन्यरूप का द्योतन करा कसा है। यद्यपि द्धनेस अर्भकांशिक गत्य प्रसाधनकी स्याहावाणीको न अपनावर उन्हें अत्र्यात बॉटिमें डाला है, पर उनका चित तस्तुको अशांगिकताको स्वीकार अवश्य करता था। तस्वनिरूपण विश्वव्यवस्थाका निरूपण और नत्त्वनिभपण जदा जदा प्रयोजन है। विश्वव्यवस्थाका ज्ञान न हानगर भी तत्त्जानगे मुविनसाधनापथमं पहुंचा जा सकता है। नत्त्वज्ञान न होने पर विश्वव्यवस्थाका समग्र जान निन्धर और अनर्थक हो सकता। ममक्षके लिए अवश्य जातन्य प्रदार्थ तत्त्वघेणीम लिये जाते हैं। नाधारणतया भानीय मरा देय उपादेय और उनके कारणभूत पदार्थ इस चतुत्र्यहना जान आवश्यक भाननी रही। आय वेदशाम्बभेग रोगनिदान गनिनि और निकिमान चार भागोम विभक्त है।रोगीके लिए मनायम आवश्यक है कि वह अपनेको रोगी समझ : जननर उमअपने गेगा भान नहीं होना नजनक वह चिकित्साके लिए प्रवन ही नहीं हो मकना । योगका मान होने के बाद रोगांनी यह विध्याग भी आवश्यक उराका यह रोग हट सकता है। रोगी; माध्यतामा ज्ञान ही उम तिकिल्लामें प्रवर्तका होता है। रोगको यह जानना भी आवश्यक है कि यह गोग अमक कागणमि उत्पन्न हुआ है। जिससे वह भाबसमें उन अपश्च आहार विहारों में दना रहबर अपनेको नीलोग रम सके । जब वह भविष्यम रोगके कारणोंसे दूर रहता है दश मौज्दा रोग का औषधोपचारसे समल उच्छेद कर देता है तभी वह अपने स्वरूपभुत स्थिर-आरोग्यको पा सकता है । अत: जैसे रोगक्तिके लिए रोग रोगनिदान आरोग्य और निकित्सा इस चतुयूहका ज्ञान अत्याअश्यक है उसीतरह भयरोगकी निवृत्तिके लिए संसार संसारके कारण मोक्ष और उसके कारण इन चार मूलतस्वांचा यथार्थजान नितान्न अपेक्षणीय है । बछुने कर्तव्यमान लिए चिकित्साशासनकी तन्ह चार आर्यसत्यों का उपदेश दिया। ये कभी भी आत्मा क्या है ? परलोक क्या है ? आदिके दादानिक विवादमं न तो स्वयं गये और न शिष्योंकोही जाने दिया। उनने इस संबंध में एक बहुत उपयुक्त उदाहरण दिया है कि जैसे किसी व्यक्तिको विषसे वसा हुआ तीर लगा हो । बन्धुजन जव उसके तीरका निकालने के लिए विषवद्यको बुलाते हो, उम समय रोगीको यह मीमांसा कि 'यह तीर फिरा लोहसे बना है? किसने इसे बनाया ? कब बनाया? यह कच. नक स्थिर रहेगा ? या जो यह वैद्य आया है वह निम गोयकार? आदि' निरर्थक है उसीतरह आरमा आदि तत्त्वाकारापचिनन ग्रह्मचर्य साधनके लिए उपयोगी है न निर्वाणके लिए न शान्तिके लिए और न बौधि प्राग्नि आदिके लिए ही। उनने ममक्षके लिए चार आर्यसत्योंका उपदेश दिया-दुःख, दुःलसमुदय, दुःखनिरोध, और दुःयनिरोधमा । दुःखसत्यकी व्याख्या बद्धने इस प्रकार की जन्म भी दुःम है, जरा भी दुःख है, मरण भी दुःख है, शोक, परिवेदन, मनकी विकलना भी दस है, इष्ट वियोग, अनिष्टसंयोग, इष्टाप्राप्ति मभी दुःख है । संक्षेपमें पांचों उपादान म्वन्व ही दुखरूप है। दु:समुदय--कामकी तृष्णा, भवकी तृष्णा और विभवकी तष्णा दुःखका कारण है । जितने इंद्रियोंके प्रिय विषम है प्रिय रूपादि है वे मदा बने रहे उनका वियोग न हो इस तरह उनके संयोगके लिए चित्तकी अभिनन्दिनी वृत्तिको तष्णा कहते हैं और यही तृष्णा समस्त दुःखोंका कारण है। दु:खनिरोध-इस तृष्णाकै अत्यंन निरोध या विनाशको निरोध आर्यसत्य कहते हैं। - - - दीर्घनिः महाससिपान सुत । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना दुःस्वनिरोधका मार्ग है, आष्टागिव-मागे-सम्यक् दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्बग्वचन, नायक बने. सम्यक् आजीविका, सम्यक् प्रयत्न, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि । नैरात्म्यभावना मुम्य रूपा मार्ग है। बुद्धने आत्मदृष्टि या सत्यदृष्टिको ही मिथ्यादर्शन कहा है । उनका कहना है एक आत्माको शाश्वत या स्थायी समझकर ही व्यक्ति उसे स्व और अन्यका पर समझता है। स्व-पर विभागमे परिग्रह और देष हात है और ये रागद्वेष ही समस्त संसार परम्पराके मूलस्रोत है। अतः इस सर्वानर्थमूलिका आत्मष्ट्रिको नाशकर नैरात्म्यभावनासे दुःखनिरोध होता है। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज नजका बुष्टिकोण-उपनिषद्का' तन्वज्ञान जहाँ आत्मदर्शनपर जोर देता था और आत्मदर्शनषा ही तत्त्वज्ञान और मोक्षका परमसाधन मानता था और मुमुक्षुके लिए आत्मज्ञानको ही जीवनवा मच्चिमाध्य सममता था वहाँ बुद्धने इस आत्मदर्शनको ही मनिमल माना । आत्मदृष्टि या सत्त्वप्टिका ही वृद्धने मिथ्यादृष्टि कहा और नैरात्म्यदर्शनको दुःखनिरोधका प्रधान न बतारा । यह औपनिषद तत्वज्ञानको ओट में जा याझिक क्रियाकाण्डको प्रश्रय दिया जा रहा था उसीकी प्रतिक्रिया थी जो बद्धका आत्म शब्दसह चिढ़ होन: थी। स्मिात्मवादको उनने राग और प्रेषका कारण समझा, जव कि औपनिषदवादी आत्मदर्शनको विरागका कारण मानने थे। बुद्ध और औपनिषददादो दोनों ही गगवेष और मोहका प्रभाकर बीत गमला और दामनानिक्तिको ही अपना लण्य मानते थे पर साधन दोनोंके जुदा जुदा थे और इतनं ज'दे कि एक जिन मश: कारण मानता था दूसरा उसे संसारका मूल कारण । इसका एक कारण और भी था और वह था उद्धका दार्शनिक मानस न होना । मज ऐगे गोलगोल शब्दोंको बिलकुल हटा देना चाहते थे जिनका निर्णय न हो सके या जिनकी ओट में भ्रान्त धारणाओंकी मण्टि होनी हो । 'आन्मा उन्हें ऐसा ही माल महा । पर दवादियोंका तो यही मल आधार था । बुद्ध की नराम्यभावनाका उद्देश्य बोधिचर्यादनाग्म इस प्रकार बनाया है "प्रतस्ततो वाऽस्त भयं या नाम किञ्चन । अहमेव यदा न स्यां कुसो भौतिभविष्यति ॥' अर्थात-यदि 'मैं' नामका कोई पदार्थ होता तो उसे इससे या उसमे भय हो सकता था पर टब में ही नहीं है तब भय किसे होगा? बुद्ध जिस प्रकार भौतिकवादरूपी एक अन्तको खतरा समझते थे तो इस शाश्वत आत्मवाद भयो दुसरे अन्तको भी उमी नाह खतरा मानने थे और इसलिए उनने इस आत्मवादको अव्याकृत अथान अनेकांशिक प्रश्न कहा । तथा भिक्षुओंको स्पष्टरूपसे कह दिया कि इस अात्मवादकै विषयमं कुछ भो बहना का सुनना न बोधिके लिए न ब्रह्मचर्यके लिए और न निबाणके लिए ही उपयोगी है। निग्गठमाथपुत्त महावीर भी वैदिक प्रियाकाण्डको उतना ही निरर्थक और श्रेयःप्रतिरोधी मानते थे जितना कि खुश, और आचार अर्थात् चरित्रको ही वे मोक्षका अन्तिम साधन मानने थे । पर उनने यह माक्षर अनुभव किया कि जबतक विश्वव्यवस्था और खासकर उस आत्माक स्वरूपके संबंध शिष्य निश्चित दिनार नहीं बना लेता है जिस आत्माको दुःख होता है और जिसे दुःखको निवृति करकं निर्वाण पाना है तबतक वह मानसविचिकित्सासे मक्त होकर साधना कर ही नहीं सकता। जब बाह्यजगत के प्रत्येक झोंकेमें यह आवाज गंज रही हो कि "आत्मा देहरूपमा देहमे भिन्न? परलोक प्रया है : निर्वाण मा है ?" और अन्यतीर्धिक अपना मत प्रचारित कर रहे हों, इमीको लेकर वाद रोपे जाने हो उस समय सियोंको यह कहकर तत्काल चुप तो किया जा सकता है कि क्या रखा है इस विवादमे कि आत्मा क्या है, हम तो दुःख निवृनिके लिए प्रयास करना चाहिए' परन्तु उनकी मानसशल्य और बुद्धिविचिकिल्मा नहीं निकाल सकती और वे इस बौदिकहीनता और विचारदीनताके हीननर भावोंसे अपने वित्तकी रक्षा नहीं कर सकते । संघमें इन्हीं अन्यतीथिका शिष्य और खासकर वैदिक ब्राह्मण भी दीक्षित होते थे। जब ये सब पंचमेल व्यक्ति जो मूल आत्माके विषयम "त्मा वा मरे द्रश्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो विदध्वासितभ्यः ।" पदा० ४३५।६। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ तत्त्वार्थवृत्ति विमित रखते हों और वर्षा भी करते हों, तो मानस अहिंसक कैसे रह सकते हैं? जबतक उनका समाधान वस्तुस्थिति मूलक न हो जाय तबतक वे कैसे परस्पर समता और अहिंसाका वातावरण बना सकते होंगे ? महावीरने तत्वका साक्षात्कार किया और उनने की सीधी परिभाषा बताई जस्तुका स्वरूपस्थित होना "वस्तुस्वभावी धम्मो" जिस वस्तुका जो स्वरूप है उसका उस पूर्णस्वरूपमें स्थिर होना ही धर्म है। अग्नि यदि अपनी उष्णताको लिए हुए है तो वह धर्मस्थित है। यदि वह शयुके झोंकोंसे स्पन्दित हो रही है कहना होगा कि वह चंचल है अतः अपने निश्चलस्वरूप से च्युत होने के कारण उतने अंश धर्मस्थित नहीं है जल जबतक अपने स्वाभाविक शीतस्पर्शमें है तबतक वहुपस्थित है। यदि वह अग्नि संसर्गसे स्वरूपच्युत हो जाता है तो वह अमरूप हो जाता है और इस परसंयोगजन्य विभागपरिणतिको हटा देनाही जलकी मुक्ति है उसकी धर्मप्राप्ति है । रोगीके यदि अपने आरोग्यस्वरूपका मान न कराया जाय तो वह रोगको विकार क्यों मानेगा और क्यों उसकी निवृतिकेलिए चिकित्सा प्रवृत्ति करेगा ? जब उसे यह ज्ञात हो जाता है कि मेरा तो स्वरूप आरोग्य है । इस अपथ्य आदिले मेरा स्वाभाविक आरोग्य विकृत हो गया है, तभी वह उस बा रोम्य प्राप्तिके लिए चिकित्सा कराता है। भारतकी राष्ट्रीय कांग्रेसने प्रत्येक भारतवासीको जब यह स्वरूपबोध कराया कि तुम्हें भी अपने देशमें स्वतंत्र रहनेका अधिकार है इन परदेशियोंने तुम्हारी स्वतंत्रता विकृत कर दी है तुम्हारा इस प्रकार योग करके पददलित कर रहे हैं। भारत सन्तानो, उठो, अपने स्वातंत्र्य स्वरूपका भान करो" तभी भारतने अंगड़ाई ली और परतंत्रताका बंधन तोड़ स्वातंत्र्य प्राप्त किया। स्वा यस्वरुप भागमा सील तोड़नेकेलिए यह उत्साह और सत्ता नहीं आ सकती थी अतः उस आधारभूत आत्माके मूलस्वरूपका ज्ञान प्रत्येक मुमुखको सर्वप्रथम होना ही चाहिए जिसे वन्यनमुक्त होन है । भगवान् महावीरने सुमुखकेलिए . वर्षात् अन्य दुःखके कारण अर्थात् मिथ्यात्व आदि आसव, मोस अर्थात् दुःखनिवृतिस्वरूपप्राप्ति और मोक्षके कारण संबर अर्थात् नूतन अन्यके कारणोंका अभाव और निर्जग अर्थात् पूर्वसंतिदुःखकारणों क्रमश: विभाग इस तरह बुद्धके चतुराय सत्यकी तरह बन्ध, मोक्ष, आसव नंबर और निजेस इन पांच तत्वों के ज्ञानके साथ ही साथ जिस जीवको यह सब बन्त्र मोक्ष होता है उस जीवका ज्ञान भी आवश्यक बताया। शुद्ध जीवको न्ध नहीं हो सकता । बन्ध दो में होता है। अतः जिस कर्मयह जो बंधता है उस अजीव तत्त्व को भी जानना चाहिए जिससे उसमें रागद्वेष आदिको वारा आगे न बने । अतः मुमुक्षकेलिए जीव अजीव आसन पर निवेश और मोक्ष इन सात तत्वोंका ज्ञान आपदक है। जोआना स्वतंत्र प्र है। कर्मफलक भोक्ता है। लोक पहुँच जाता है। हैन अमूर्त है। चैतन्यशक्तिवाला है। ज्ञानादि पर्यायका स्वयंप्रभु है। अपने शरीर के आकारवाला है। मुक्त होते ही अगगन कर भारतीय दर्शनों प्रत्येक ने कोई न कोई पदार्थ अनादि माने हैं । परम नास्तिक चार्वाक भी पृथ्वी आदि महाभूतों को अनादि मानता हूँ। ऐसे किसी क्षणकी कल्पना नहीं बाती जिसके पहले कोई क्षण न रहा हो । समय से प्रारंभ हुआ इसका निर्देश असंभव है। इसी तरह समय कब तक रहेगा यह उसरावधि बताना भी असंभव है जिन प्रकारका आनादि अनन्त है उसकी पूर्वधि और उत्तरावधि निश्चित नहीं की जा कती उसी तरह आकाश की कोई क्षेत्रकृत मर्यादा नहीं बताई जा सकती। 'सर्वतो धनन्तं तत्' सभी ओरसे वह अनन्त है आका और कालकी तरह हम प्रत्येक स विषयमें यह कह सकते हैं कि उसका न किसी खास क्षण में नूतन उत्पाद हुआ है और न किसी समय उसका समूल विनाश ही होगा । "नासतो विद्यते भावः माभावो विद्यते सतः" अर्थात् किसी असतुका सद्रूपने उत्पाद नहीं होता और न किसी सत्का समूल विनास ही हो सकता है। जितने गिने हुए सत् हैं उनकी संख्या वृद्धि नहीं हो सकती और न उनकी संख्या में से किसी एककी Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 I तत्वनिरूपण ૬ भी हानि ही हो सकती है। रूपान्तर प्रत्येकका होता रहता है। यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है । इस विज्ञानके अनुसार आत्मा एक स्वतंय गत् है तथा वुद्गपरमाणु स्वतंत्र सत् । अनादिसे यह आत्मा पुद्गलसे सम्बद्ध ही मिलता भाया है। अमाविषद्ध माननेका कारण आज आत्मा स्थूल शरीर और सूक्ष्म कर्मशरीरसे बद्ध मिलता है । आज इसका ज्ञान और सुख यहां तक कि जीवन भी सरीराधीन है। शरीरमें विकार होनेसे तन्तुओं भीगना आते ही स्मृतिभ्रंश आदि देखे ही जाते हैं। अतः आज संसारी आत्मा शरीरबद्ध होकर ही अपनी गतिविधि करता है। यदि आत्मा शुद्धता तो शरीरसम्बन्धका कोई हेतु ही नहीं था । शरीरसम्बन्ध या पुनर्जन्मके कारण राय, द्वेष, मोह और कषायादिभाव शुद्ध आत्मा में ये विभावभाव हो ही नहीं सकते । चूंकि आज ये विभाव और उनका फल शरीरसम्बन्ध प्रत्यक्ष अनुभव आ रहा है अतः मानना होगा कि · आजतक इनकी अशुद्ध परंपरा चली आई है। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ? भारतीय देशना यह एक ऐसी प्रश्न है जिसका उत्तर विधिमुखसे नहीं दिया जा सकता । ब्रामें अविद्याका कत्र उत्पन्न हुई? प्रकृति और पुरुषका संयोग कब हुआ ? आत्माले शरीरसम्बन्ध कब हुआ इनका एकमात्र उत्तर है-अनादिसे दूसरा प्रकार हूं कि यदि ये शुद्ध होते तो इनका संयोगहो ही नहीं सकता था। शुद्ध होनेके बाद कोई ऐसा हेतु नहीं रह जाता जो प्रकृतिसंसगं या अविद्योत्पत्ति होने दे। उसी तरह आम्मा यदि शुद्ध हो जाता है तो कोई कारण उसके अशुद्ध होनेका मा पुद्गलसंयोगका नही रह जाती । जब दो स्वतंत्र सत्ता द्रव्य है तब उनका संयोग चाहे जितना भी पुराना क्यों न हो नष्ट किया जा सकता है और नको पृथक् पृथक किया जा सकता है। उदाहरणार्थ खानिखे सर्वप्रथम निकाले गये सोनेमें कीट असंख्य लगी होगी पर प्रयोग चूंकि वह पृथक् की जाती है, अतः यह निश्चय किया जाता है कि सुवर्ण अपने शुद्धरूप में इस प्रकार है तथा कीट प्रकार सारांश यह कि जीव और पुद्गलका बंद अनादि है। इस चूंकि वह दो क्योंका ग्रन्थ है अतः स्वरूपबोध हो जानेपर वह पृथक किया जा सकता है। । आज जोवका ज्ञान, दर्शन, सुख, राग, द्वेष आदि सभी भाव बहुत कुछ इस जीवनपर्यायके अधीन हैं एक नव जीवन भर अपने ज्ञानका उपयोग विज्ञान या धर्मक अध्ययन में लगाता है। जवानीमें उसके मस्तिष्क में भौतिक उपादान अच्छे थे, प्रचुर मात्रा में थे, तो वे ज्ञानतन्तु चैतन्यको जगाए रखते थे । बुद्धमा आने पर उसका मस्तिष्क शिथिल पड़ जाता है। विचारशक्ति लुप्त होने लगती है। स्मरण नहीं रहता । वही व्यक्ति अपनी जधानीमें लिखे गये को में पढ़ता है तो उसे स्वयं आश्चर्य होता है वह विश्वास नहीं करता कि यह उहोगा। मन्तिष्कको यदि कोई भौतिक ग्रन्थि निगद जाती है तो मनुष्य पागल हो जाता है। दिमाग का यदि कोई पंच कस गया या होला होगया तो उन्माद, सन्देह आदि अनेक प्रकारकी धाराएं जीवन को ही बदल देती है। मुझे एक ऐसे योगीका प्रत्यक्ष अनुभव है जिसे शरीरको नमोंका विशिष्ट ज्ञान था। वह मस्तिष्क की एक किसी व्यास नसको दबाता था तो मनुष्यको हिंसा और क्रोधके भाव उत्पन्न हो जाते थे। दूसरे ही क्षण दूसरी केही अत्यन्त दया और करुणाके भाव होते थे और वह रोने लगता था एक तीसरी के द मका ती उदय होता था और यह इच्छा होती थी कि चोरी कर लें। एक नसके दबाते ही परमात्मभक्तिकी ओर मनकी गति होने लगती थी। इन सब घटनाओंसे एक इस निश्चित परिणामपर तो पहुँच ही सकते हैं कि हमारी सारी शक्तियां जिनमें ज्ञान दर्शन तुम गग द्वेष नयाय आदि है. इस शरीर पर्यायके अधीन है। शरीरके नष्ट होते ही जीवन भरमं उपासित ज्ञान आदि पर्यायशक्तियां बहुत कुछ नष्ट हो जाती हैं। परलोक तक इन्हके कुछ सूक्ष्म संस्कार जाते हैं। आज इस अशुद्ध आत्माकी दशा अर्धभौतिक जैसी हो रही है। इन्द्रियां यदि न हों तो ज्ञानकी शक्ति बनी रहने पर भी ज्ञान नहीं हो सकता । आत्मामें सुननेकी और देखनेकी शक्ति मौजूद है पर यदि आंखें फूट जाये और फाफट क्रिसी रह जायगी और बेलना सुनना नही हो सकेगा। विचारात Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ तत्त्वार्यवृत्ति-प्रस्तावना विद्यमान है पर मन यदि ठीक नहीं है तो विचार नहीं किये जा सकते । पश्शायात यदि हो जाय तो अनेर देखने में कैसा ही मालूम होता है पर सब शून्य । निष्कर्ष यह कि अशठ आत्माकी दशा और इसका सारा बिकाम गल के अधीन हो रहा है । जीवननिमित्तभी खान पान ग्वामोच्छ्वास आदि सभी साधन भौतिकवी अनि होते हैं। हम मानकजीव गोचीमा समपाक्षसोणता बीजमराजया पिया करना है उमबारक जातिका संस्कार आत्मापर पड़ता है और उस संस्थाकी प्रतीक एक भौतिक रवा मस्तिष्कम विच जाती है । दुमरे तीसरे चौथे जो भी विचार या क्रियाएँ होती हैं उन सबके संस्कागेको यह आत्मा धारण करना है और उनकी प्रतीक टेकी सीधी गहरी उधली छोटी बड़ी नाना प्रकारकी रेखाएँ ममिक्रम भरेगा मभावन जैसे भौतिक पदार्थ पर खिचती चली जाती। जो रेखा जितनी गहरी होगी वह उनने ही अधिक दिनोंवर उस विचार या क्रियाकी स्मनि करा देती है । तात्पर्य यह कि आजका ज्ञान शक्ति और सुख आदि सभी पर्यायशक्तियां हैं जो इस दारीर-पर्याय तक ही "हती है। व्यवहारनयसे जीवको मूनिक माननेका अर्थ यही है कि अनादिस यह जीव शरीरसम्बड़ ही मिलना आया है। स्थूल शरीर छोड़नेगर भी सूक्ष्म कम शरीर सदा इसके माथाहता है । इसी सूक्ष्म कर्म गर्गरके नागको ही मुक्ति कहते हैं। जीव पुद्गल दो द्रक्ष्य ही एन : जिनमं क्रिया होती है नथा विभाव या अगद्ध परिणमन होता है । पुद्गलका अशुद्ध परिणमन पुद्गल आर जीव दाना के निमित्त होता है जबकि जीवका अराद्ध परिणमन यदि होगा तो पृद्गलके झी निमित्त । शुद्ध जीवम अशुद्ध परिणमन न त जीवक निमित्त हो सकता है और न पुद्गल के निमित्तसे । अशुद्ध जीवक अशद परिणमनकी धागमें प्रगल या पृगलगम्बद्ध जीव निमिन होता है । जैन सिद्धान्तने जीवका देहप्रमाण माना है। यह अनुभवसिद्ध भी है। शरीर बाहर उस आत्मा अस्तित्व माननेका कोई खास प्रयोजन नहीं रह जाना और न यह नकंगम्य ही है। जीवक जानदर्शन आदि गण उसके शरीरमें ही उपलब्ध होने है शरीरके बाहर नहीं। छरेट ब्रहें शरीक अनमगर अमंध्यारपदी आत्मा संकोच-विकीन करता रहता है। चार्वाकका देहात्मवाद नो देहको ही आत्मा मानना है तथा देहकी परिस्थितिके साथ आत्माका भी बिनाश आदि न्वीकार करता है। जनका दंगपरिमाण-आत्मयाद पूदगद हम आत्मनध्यकी अपनी स्वतंत्र सना स्वीकार करता है। न त देहकी उत्पत्तिने आत्माकी उत्पन्न होती है और न देहके विनाशग आत्मविनाश । जब कर्मगरीरकी शंखलामे यह आत्मा भवन हो जाता है नव अपनी गइ चैतन्य दशाम अनन्तकाल लक स्थिररहता है । प्रन्क द्रव्यम एक जनरूलघु गुण होता है जिसके कारण उसमें प्रतिक्षण परिणमन होते रहने पर भी न तो उसम गुरुत्व ही आता है और न लश्व ही। प्रव्य अपने ग्यम्पम मदा परिवर्तन करत रहने भी अपनी अखण्ड मौलिकताको भी नहीं खाता। __ आजका विज्ञान भी हम बताता है कि जीव जो भी विचार करता है उसकी रेडी सीधी उथली गहरी रेखाएँ मस्तिष्कम भरे हुए मक्खन जैमे श्वेत पदार्थ स्विचती जाती हैं, और उन्द्रीक अनुमार म्मति तथा वागन उदबद्ध होती हैं। जैन कर्म सिद्धान्त भी यही है कि-गगद्वेष प्रथनिके कारण केवल संस्कार ही आत्मापर नहीं पड़ता कितु उम संस्कारको यथासमय उवुद्ध कराने वाले कर्मद्रकाका गंबंध भी होता जाता है। मह कर्मद्रव्य पुद्गल इत्यही है । मन वचन कायकी प्रत्येक क्रिया के अनुसार शक्ल या कृष्ण कर्म पुद्गल आत्मास सम्बन्धको प्राप्त हो जाने हैं। वे विशेष प्रकारके कर्मपदगल बहुत कुछ तो म्थूल शरीरके भीतर ही पड़े रहते हैं जो मनोभावाके अनुसार आत्माके मूल्य कर्मशरग्म शामिल होने जाते हैं, कुछ बाहिरमे भी आते हैं। जम नपे हा लोहे के गोभको पानीमे भरे हए वर्तनमें छोड़िये मो वह गोला जलके भरे हा बरम परमाणुओंको जिस नरह अपने भीतर सोग्य सेना में उमी तरह अपनी गरमी और भापत्ते बाहिरके परमाणऑको भी स्वींचना है । लोहका गोला जब तक गरम रहता है पानीमें उथल पृथक पैदा करता रहता है, कुछ परमाणुओंको लगा कुछ को निकालंगा कुछको भाप बनाएगा, एक अजीबपी परिस्थिति समस्त वातावरणाम उपस्थित कर देना । उनी तरह जब यह आत्मा गगषादिसे उत्तात होता है. नत्र शरीरमें एक अद्भुत हलनचलन उपस्थित करता है । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वनिरूपण क्रोध आते ही आंखें लाल हो जाती है, खनकी गति व जाती है, मंद मूखने लगता है, नथने फहकने लगते हैं। काम वासनाका उदय होते ही सारे शरीरम एक विलक्षण प्रकारका मन्थन शुरू होता है। और जब तक वह कषाय या वासना शांन नही हो लती यह चहल-पहल मन्थन आदि नहीं रुकता । आत्माके विचारोंके अनसार पूदगल द्रव्योम परिणमन होता है और विचारोंत. उत्तेजक पदगर द्रव्य जात्माके वासनामय मूग कर्मगरीरम शामिल होते जाते हैं। जब जव उन कर्मपूदगलोर दबाव पड़ता है नत्र तब वे कर्भपुद्गल फिर उन्ही रागादि भावोंको आमाम उत्पन्न कर देते हैं । इगी नन्द गदि भावासे नए कभपुद्गल धर्मशरीरमें शामिल होने हैं तथा उन कर्म पुद्गलोंके परिपाकके अनुसार नुलन रागादि भावकी मष्टि होती है। फिर नए कर्मपुद्गल बंधते हैं फिर उनके परिपाक ममय रागादिभाव होते है। इस तरह गमादिभात्र और कर्म पुद्गलबन्धका नबराबर चलता रहता है जबतक कि चरित्रके द्वारा रागादि भावोंकी रोक नहीं दिया. जाना। हम बन्ध परम्पराका वर्णन आचार्य अमतचन्द्र मूरि ने पुरुषार्थसिदध्यगायम हम प्रकार किया "जीयकृतं परिणाम निमित्रमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । माईबाईक परिणामकार्य फुलविलादिमिरोबार कर महाराज परिणममानस्य वितश्चिदात्मकः स्वयमपि स्वर्भावः। भवति हि निमित्तमात्र पौगलिक कर्म तस्यापि ॥ १३ ॥" अर्थात् जीवके द्वारा किये गए राग द्वेष मोह आदि परिणामोंको निर्मिन पाकर प्रद्गल परमाण स्वनः हो कर्मरूपो परिणत हो जाते है । आत्मा अपने चिदात्मक भावों रा स्वयं परिणत होता है, इद्गल वाम तो उसमें निमिनमात्र है। जीव और पुद्गल एक दुसरेके परिण मनमें परस्पर निमित्त होते हैं। सारांश यह कि जोक्की वासनाओं राग द्वेष माह आदि की और पूगल कर्मबन्धकी धारा बीजवश्वसन्तति की नर अनादिसे नालू है । पूर्ववद्ध कर्मवे उदयसे इस ममय गग इंष आदि उत्पन्न हुए है, इनमें जो जीवकी आमाकत और लगन होती है वह न्तन कर्मबन्ध करती है। जम बसवमवे पतिाक समय फिर राग द्वेष होते है. फिर उनमें आसक्ति और मोह होनेगे नया कम बंधता है। वहाँ इम शंकाको कोई स्थान नहीं है कि--'जन्न पूर्व कर्ममे रागद्वेगापि नचा राग द्वेषादिस मतग कर्मबन्ध होता है व इस चनका उच्छेद ही नहीं हो सकता, क्योंकि हर एक कम रागद्वेष आदि उत्पन्न करेगा और हर एक रागदृप मबन्धन कीं। कारण वह कि पूर्ववर्मय उदय होनेवाले कर्मफलभत रागद्धेष वामना आदिका भांगना कर्मबन्धक नहीं होता निन्त भांगवाल गजानन गग देषरूप अध्यवमान भाव होते हैं ये बन्धक होते हैं। यही कारण है कि सम्यग्दष्टिका कर्मभोग निजंगाका कारण होता है और मिथ्याइटिका बन्धका बारण। मभ्याटित जीव पूर्व कर्मके उदयकालम होनेवाले समय आदिको विवेकपूर्वक दान तो करता. पर उनम नतन अध्यबग़ान नहीं करना, अतः गगने कर्म तो अपना फल देकर निर्जी हो जाते हैं और ननन आरास्ति न होने के कारण नवीन वन्य होना नहीं अनः मम्यान तो दोनों तरफ हलका हो चलना है. जन्न कि भिध्यादष्टि कर्मफलः समय होनेवाले गय द्वेष वासना आदिव समय उनमें की गई नित नई आगक्नि और लगनके परिणाम ननन कर्मोगो और भी बढ़ाये यांत्रता है. और इस तरह मिथ्याष्टि का कर्मच और भी तंजीम दाल रहता है। जिम मार हपारे भौनिक मस्तिष्कपर अनुभवको असंख्य सीधी टेडी गहरी उथली रेखाएँ पड़ती रहती हैं. एक अनन्य रेखा आई तो उसनं पहिलेकी निबंर रेखाको साफ कर दिया और अपना गह। पनाद कायम कर दिया, दुसरी बा पहिलेकी रेखाको या तो गहरा कर देती है या साफ कर देती है और इस तरह अन्लमें कुछ ही अनुभव रेवा" अपना अस्तित्व कायम बनी हैं. उमी तरह आज कुछ राग देपादि जन्य संस्कार उत्पन्न ह। कर्मवन्धन हुआ, पर दूसरे ही भण शील अत संयम और श्रुत आदिकी पूत भावनाओंका निमित मिला तो पुराने सरकार चल जायगं या क्षीण होलाऐंग, यदि दुवाग और भी तीन रागादि भाव हा नो प्रथमदद कर्म 'टगलमें और भी तीन Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवृत्ति प्रस्तावना तरह r फलदायी अनुभागशक्ति पड़ जायगी । इस तरह जीवन के अन्तमें कर्मोका बन्ध निर्जरा उत्कर्षण अपकपंग आदि होते होते जो रोकड़ बाकी रहती है वही सूक्ष्म कर्मशरीरकं रूपमें परलोक तक जाती है। जैसे तेज अग्निपर उबलती हुई बटलोईमें दाल चावल खाक जो भी डालिए उसका ऊपर नीचे जाकर उकान लेकर मायाकार्य श्री शादी ने अच्छे मा बुरे कर्मों में शुभभावो शुभकमोंमें रसप्रकर्ष और स्थितिवृद्धि होकर अशुभकमों में रसवर्ष और स्थितिहानि होकर अनेक प्रकारके कंचनीय परिवर्तन होते होते अन्तमें एक जातिका पाहयोग्य स्कन्भ बन जाता है, जिसके मोय राजादि सुखदुःखादि भाव उत्पन्न होते हैं । अथवा, जैसे उदरमं जाकर आहारकर मल मूत्र स्वेद आदि रूपसे कुछ भाग बाहर निकल जाता है कुछ वहीं हजम होकर रक्तादि धातु रूपसे परिणत होता है और आगे जाकर वीर्यादि बन जाता है बीचमें चूरन पटनी आदि मानसे लघुपाक दीपेश आदि अवस्थाएँ भी होती हैं पर अन्तमें होनेवाले परिपाकके अनुसार ही भोजन में सुपाकी दुष्पाकी आदि व्यवहार होता है, उसी तरह कर्मका भी प्रतिसमय होनेवाले शुभ अशुभ विचारोंके अनुसार तीव्र मन्द मध्यम मुदुमदुतर आदि रूपसे परिवर्तन बराबर होता रहता है। कुछ कर्म संस्कार ऐसे हैं जिनमें परिवर्तन नहीं होता और उनका फल भोगना ही पड़ता है, पर ऐ से कम बहुत कम है जिनमें किसी जातिका परिवर्तन न हो। अधिकांश कर्मोंमें अच्छे बुरे विचारों के अनुसार उत्कर्षण ( स्थिति और अनुभागकी वृद्धि ) अपकर्षण ( स्थिति और अनुभागकी हानि ) संक्रमण (एफका दूसरे रूपमें परिवर्तन) उदीरणा (नियत समय से पहिले उद जाना) आदि होते रहते है और अन्तमें क्षेष कर्मबन्धका एक नियत परिपाकम बनता है। उसमें भी प्रतिसमय परिवर्तनादि होते हैं। तात्पर्य यह कि यह आत्मा अपने भले बुरे विचारों और आचारोंसे स्वयं सम्पन पड़ता है और ऐसे संस्कारोंको अपनेमें डाल लेता है जिनमे छुटकारा पाना सहज नहीं होता। जैन सिद्धान्त उन विचारोंके प्रतिनिधिभुत कर्मद्रव्यकर इस आत्मासे बंभ माना है जिससे उस कर्मद्रव्यपर भार पड़ते ही या उसका उदय आते ही वे भाव आत्मामें उदित होते हैं । २० जगत् भौतिक है । वह पुद्गल और आत्मा दोनोंसे प्रभावित होता है। जब कर्मका एक भौतिक विण्ड, जो विशिष्ट शक्तिका केन्द्र है, आत्मासे सम्बद्ध हो गया तब उसकी सूक्ष्म पर तीव्र शक्ति के अनुसार बरा पदार्थ भी प्रभावित होते हैं। बाह्य पदार्थोके समवधानके अनुसार कमौका यथासंभव प्रदेशोदय या फलोदय रुपये परिपाक होता रहता है । उदयकाल होनेवाले तीव्र मन्द मध्यम शुभ अशुभ भावोंक अनुसार आगे उदय आनेवाले कमोंके रसदानमें अन्तर पड़ जाता है । सात्पर्य यह कि बहुत कुछ कर्मोंका फल देना या अन्य रूपमें देना मान देना हमारे पुरुषार्थके ऊपर निर्भर है। माना गया है और वह प्रयोगसे शुद्ध हो सकता इस तरह जैन दर्शनमें यह आत्मा अनादिसे अंशुद्ध शुद्ध होनेके बाद फिर कोई कारण अशुद्ध होने का नहीं रह जाता। आत्माके प्रदेशोंमें संकोच विस्तार भी मेकेनिमित्तसे ही होता है। अतः कर्मनिमिनके हट जाने जाता है और ऊर्ध्व लोकमे लोकाप्रभागमें स्थिर हो अपने अनन्त चैतन्य अपने अन्तिम आकारमें रह प्रतिष्ठित हो जाता है। इस आत्माका स्वरूप उपयोग है। आत्माकी चैतन्यशक्तिको उपयोग कहते हैं। यह चिति वक्ति बाह्य अभ्यन्तर कारणोंसे यथासंभव ज्ञानाकार पर्यायको और दर्शनाकार पमयको धारण करती है। जिस समय यह चैतन्यशक्ति जयको जानती है उस समय साकार होकर मान कहलाती है तथा जिस समय मात्र चैतन्याकार रहकर निराकार रहती है तब दर्शन कहलाती है। कान और दर्शन क्रमसे होनेवाली पर्या हं । निरावरण दशमं चैतन्य अपने शुद्ध चैतन्य रूपमं लीन रहता है। इस अनिर्वचनीय स्वरूपमात्र प्रतिटिव आत्ममात्र दशा ही निर्वाण कहते हैं। निर्वाण अर्थात् वासनाओंका निर्माण स्वरूपसे अमूर्तिक प्रोफर भी यह आत्मा अनादि कर्म होनेके कारण मुर्तिक हो रहा है और कर्मबन्धन हटते ही फिर अपनी शुद्ध अमृतिकदशामें पहुँच जाता है। यह आत्मा अपनी शुभ अशुभ परिणतियोंका कर्ता है। I Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तन्वनिरूपण और उनके फरलोंका भोक्ता है। उममें स्वयं परिणमन होता है। उपादान रूपये पनी आत्मा राग ऐप मोह अज्ञान कोष आदि विकार परिणामोंको धारण करता है और उसके फलोंको भोगता है। मंसार दगामें कमंके अनुसार नानाविध योनियों में शरीरोंवा धारण करना है गर मुक्त होते ही स्वभावतः गमन करना है और लोफानभागम सिद्धलोकमं स्त्ररूपप्रतिष्टित हो जाता है। अन: महावीग्ने बन्ध मोक्ष और उसके कारणमन नस्योंके सिवाय इस आत्मा का भी ज्ञान आवश्यक बनाया जिमे शुद्ध होना है तथा जो अशुद्ध हो रहा है। आत्माकी अगुह दशा स्वरूपप्रच्युनिरूप में और यह स्वस्वरूपको भलकर पदार्थोम ममगार और अहंकार करनेके कारण हुई है। अतः इम अशुद्ध दशाका अन्त भी म्वरूपज्ञानमें ही हो सकता है। जब इम आत्माको यह तस्यज्ञान होता है कि-- "मेरा स्वरूप तो अनन्त चतन्यमय वीतराग निह निष्वषाय शान्त निश्चल अप्रमत जानरूप है । इस स्वरुपको भन्दकार पर पदार्थोमं ममकार तथा शरीरको अपना पानने के कारण गग इंप माह कपार प्रभाद मिथ्यात्व आदि विकाररूप मेरा परिणभन हो गया है और उन षायोंकी ज्वालाम मंग Fप ममल और चंचल प्रो रहा है। यदि पदामि ममकार और गगादिभावोस अहंकार हट गय था आत्मपरविवेक हो जाय तो यह अद्ध दशा वासनाएँ अपने आप क्षीण हो जायगी। तो यह विकागं को क्षीण करना हुआ नििित्रका चनन्यसा होता जाता हैं। इसी द्धिवरण को मोक्ष कहतं । यह मोक्ष जबतक शुद्ध आत्मम्वरूपका पाशिके वनाधाको सुविद्यासागर जी महाराज बद्धक तत्त्वज्ञानका प्रारम्भ दाखसे होता है और उसकी सगाप्तियनिवनि में होती है । पर महा. वीर बन्ध और मोक्षके आधार भूत आत्माको ही मूलत: तत्त्वज्ञानका आधार बनाते हैं । इदको आत्मा दान हो चिढ़ है। वे समझते हैं कि आत्मा अर्थात उपनिषद्वादियोंका नित्य आत्मा । और नित्य माम स्नेह होने के कारण स्वबुद्धि और दूसरे पदार्थोंम पर बुद्धि होने लगती है। स्त्र-पर विभागसे रगड़प और गग द्वेषसे यह संसार बन जाता है। अतः सनियंभट यह आन्मदष्टि । पर वे इस ओर ध्यान नहीं देने कि 'आत्मा' की नियना या अनित्यता गग ऑर विगगका कारण नहीं है। गग और बिग़ग तो स्वरूपानवबोध और व्यरूपबोच मे होने हैं। रागका कारण पर पदार्थों में ममकार माना है। जब इस आत्माका संमनाया जायना वि "मर्च तेग रवम.प नो निर्विकार अन्नष्ट है। गइन म्पी पुत्र गरीदि में ममत्व करना विभाव है स्वभाव नहीं । नत्र याद राहही अपने निविदा महज स्वभावकी ओर द. ष्टि डालेगा और इसी विवेक दृष्टि या सम्यग्दर्शन पर पदाभि रागदप हटाकर स्वपमें लीन होने लगेगा। इनीके कारण आम्रव स्कने और चिन्न निरावध होता ! आत्मवृष्टि हो बन्धोक विका–विश्वना प्रत्येक द्रव्य अपने गण और पर्याय का स्वामी है। जिस तुम्ह अनन्त चतन अपना पृथक् अस्तित्व रखते है उसी गाई अनन्त पुदगल परमाणु एक धर्म द्रव्य (गनि नहायक। एक अधर्म द्रव्य (स्थिति सहकारी) एक आकाशद्रव्य (क्षेत्र) अगम्य वाला अपना पृथक अभिनय रखते हैं । प्रत्येक द्रव्य प्रति समय परिवर्तित होता है। रिवर्तनका अयं विलक्षण परिणमन ही नहीं होता। धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य आकाश और कालद्रव्य इनवा त्रिभाव परिण मन नहीं होना, ये मदा मदश परिमन ही मनं हैं। प्रतिक्षण परिवर्तन होनेपर भी एक जमे बन रहते हैं। इनका जड़ परिणमन ही रहता है। मप4 गन्ध और मार्शवाले पुद्गल परमाणु प्रतिक्षण शुद्ध पगिगमन भी करते हैं। इनका अनुद्ध परिणमन है वन्य बनना । जिस समय ये शुद्ध परमाणु की दशागं रहल है उस समय उनका शुद्ध परिणमन होना है और जब ये दो या अधिक मिलकर स्कन्ध वन जाने है तब अशुद्ध परिणमनना है । जीव जवनक गमार दयाम है और अनेकविध सूक्ष्म कमशरीरमे बाद शनि के कारण अनेक पल शरीरोंको धारण करता है तबतक इमका निभाव वा विकारी पणिमन है। जब वध्य-बोध के दाग पर पदाोय मोह हटाक" स्वरूपमात्र. मग्न होता है तन स्थल दारीग्वं साथ ही मुख्य कामगरका भी उच्छेद होनेगा निविकार वाद चैतन्य माग Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ प्रस्तावना जाता है । अनन्त कालक अपनी शुद्ध विमा दशामें बना रहता है। फिर इसका विमान या अशुद्ध परिणमन नहीं होता क्योकि विभाव परिणमन की उपादानभूत रागादि सन्तति उच्छिन्न हो चुकी इस प्रकार है जो पर्याय प्रथम है वह दूसरे क्षण में नही रहती है। कोई भी पर्याय दीक्षण करनेवाली नहीं हैं। प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायका उपादान है। दूसरा द्रव्य चाहे वह सजातीय वाय निर्मित ही हो सकता है. उपादान नहीं में अपनी योग्यता ऐसी है जो दूसरे परमाणुसे सम्बन्ध करके स्वभावतः अशुद्ध बन जाना है पर आत्मा स्वभाव से अशुद्ध नहीं बनना । एक बार शुद्ध होने पर वह कभी भी फिर अशुद्ध नहीं होगा । मेरा इस तरह इस प्रतिक्षण परिवर्तन अनलयम लोकमे में एक आत्मा है। किसी दूसरे आत्मा या पुद्गल आदि द्रव्योंमें कोई सम्बन्ध नहीं है। में अपने चैतन्यका स्वामी हैं, मात्र चैतन्यरूप हूँ। यह शरीर अनन्त पुद्गल परमाणुओं का एक पिण्ड है, हमका में स्वामी नहीं हैं। यह सब पर द्रव्य है । इसके लिए पर पदार्थोंमें दृष्ट अनिष्ट बुद्धि करना ही संसार है। मं एक व्यक्ति पर पापको अपने अनुकूल परिणमत करानेकी अधिकार बेष्टा की मेने यह भी अनधिकार चेष्टा की कि हर अधिक अधिक पदार्थ मेरे अधीन हो, जैसा में चाहे वैसा परिणमन करें। उनकी वृत्ति मेरे अनुकुल हो पर मूर्ख, तू तो एक व्यक्ति है। अपने पणिमन पर अर्थात् अपने विचार और अपनी कियापर ही अधिकार रख सकता है, पर पदार्थों पर तेरा वास्तविक अधिकार है? यह अधिकार बेष्टा ही राम की उपत्पन्न करती है तू चाहता है कि यारीर प्रकृति सारक समस्त पदार्थ तेरे अधीन हों, तू को ईश्वर बन जाय । पर यह सब तेरी निरधिकार चेष्टाएँ हैं । तू जिस कार्य अनुत्सुक सर्क हासोजमीन करना चाहता है उसी तरह तेरे जैसे अनन्त म वेतन भी यही दुर्गामना लिये है और दूसरे इयोंको अपने अधीन करना चाहते है। इसी नाझपटीमें संघर्ष होता है, हिसा होती है. राग द्वेष होता है और अन्नतः वृष मुख और दुःखी परिभाषा यह है कि जो चाहे सो होवे' इसे कहते हैं सुख और 'चाहे कुछ और ही कुछ था जो चाहे सो न हो यही है दुःख मनुष्यकी चाह सदा यही रहती है कि मुझे सदा का संयोग रहे, अनिका संयोग न हो, चहके अनुसार समस्त भौतिक जगत् और वेतन परिणत होते रहें, शरीर चिरयौवन रहे, स्त्री थियोवना हो, मृत्यु न हो, अमरत्व प्राप्त हो, धन धान्य ही प्रकृति अनुक रहे और जाने कितनी प्रवारी 'वाह' इस दोखचिल्ली मानव होती रहती है उन गवका निलो यह है कि जिन्हें चाहे उनका परिणमन हमारे इशारे पर हो, तब हम भ मानवको क्षणिक मुखका आभाग हो सकता है बढ़ने जिस दुःख सर्वानुभूत भताया वह सब अभावहो तो है। महावीरने इस तृष्णाका कारण बताया- स्वस्त्ररूपकी मर्यादाका अज्ञान । यदि मनुष्यपता हो कि जिनकी में चाह करता हूँ, जिनकी नष्णा करता हूँ ये पदार्थ मेरे नहीं है, मैं तो एक चिन्मात्र है तो उसे अनुचित काही उत्पन होंगी। स्त्री पुत्र परिजन आदि सब मेरे हारेपर व को हारपर नचानेवाला एकमात्र अधिकतम तरह संसारक को नवयुगपने बहुत सुन्दर "जगके पदार्थ सारे व इच्छाकल जो तेरी । तो तुझको सुख होने पर ऐसा हो नहीं सकता । क्योंकि परिणमन उनका शव उनके अधीन रहता है। जो निज अधीन चाहे यह व्याकुल स्वयं होता है || इससे उपाय सुखा सचा स्वाधीन वृति है अपन रागद्वेषविहीना अणमें समय हरती जो ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वनिकपण सारांश यह कि दुःखका कारण नष्ण और तष्णाकी उलि रवाधिकार एवं स्वस्वरूपके अज्ञानके कारण होती है, पर पदार्थीको अपनाामानक कारणालावीतविधिरामदजमीपवस्वरूप के यथार्थ परिशानसे या स्वपरविक्रमे श्री हो सकता है । इस मानवने अपने आत्माके स्वरूप और सके अधिकारकी मीमाकी न जानना मदा मिथ्या आचरण किया और पर पदार्थोके निमित्तसे जगनम अनेक कल्पित जननीच भाकवी नटि र मिथ्या अहंकारका पाषण किया। बारीराश्रित, या जीविकाश्रित ब्राह्मण क्षत्रियादि व को लेकर ऊंच नीच व्यवहारकी भेदक भित्ति बड़ी कर मानवको मानवसे इतना जदा कर दिया जो एक उच्चाभिमानी मांसपिंड दूसरेको छायामे या दूसरे को एनसे अपनेको अपवित्र मानने लगा । बान्य परगदाथोक रांग्रही और परिग्रही को सम्माट् गजा आदि संज्ञाएँ देकर नष्णा की पूजा की। हम जनमें जिनने संघर्ष और हिमाएं हुई हैं वे मन पर पदार्थों की छीनाझपटीक कारण ही हुई है । अतः जनक मुमुक्षु अपन गस्तविक रूपको तथा तृष्णाके मूल कारण 'परत्र आत्मवृद्धि' को नहीं समझ लेना दन तक दुःखनितिकी समुचित भुमिका ही तैयार नहीं हो सकती। बुद्धने मपम स्कन्धको दुःख कहा है, पर महावीग्नं उसके भीतरी तत्वज्ञानको बताया कि ये स्कन्ध आत्मरूप नही है अतः रनका रामगही अनेक गगादिभाषाका सर्जक है, अनः ये दु:खस्वरूप है। अत: निराइल सुखका गाय आत्मामानिाया और पर पदार्थामे ममनवा हटाना ही है। इसके लिए आत्मष्टिरी आवश्यक है। आत्मदर्शनका उपर्यक्त प्रकार पम्पदाबामदेष करना नहीं सिखाता किन्तु वह बताताई वि.दनम जी तुम्हारी सुष्णा फैल रही है वह अनधिकार चस्टा है । वास्तविक अधिकार तो लुम्हाग अपने विचार और अपनी प्रवृत्ति पर ही है। इस तरह आत्मा वास्तविक स्वरूपका परिझान हुए बिना दुःखानत: या मक्तिकी संभावना ही नहीं की जा सकती। अन: धर्मकीनिकी यह आदांका निर्मल है कि "प्रात्मनि सप्ति परसंका स्वपरविभागात परिपहषो । अनमेः संप्रतिबद्धाः सर्प दोषाः प्रजायन्ते ॥' [प्रमाण वा. १२२१] अर्थात् आत्माको भाननेपर दुमरोबो पर मानना होगा। स्त्र और पर विभाग होते ही सका परिग्रह और परसे द्वष होगा। परिग्रह और दंप होन में गगदशमलयः गंकड़ों अन्य दोष उत्पन्न होते हैं। यझा सकता ठीक है कि कोई व्यक्ति नात्माको स्व और आत्मतरको पर मानेगा। पर स्व-परविभागसे गरिग्रह और द्वेष से होगं आत्मस्वरूपका परिग्रह केमा परिग्रह नो दारीर आदि पर पदार्थोंका और उसके मुखमाधनोंका होता है जिन्हें आत्मदर्शी व्यक्नि छोड़ेगा ही ग्रहण नहीं करेगा। उमे नो जैसे स्त्री आदि सुखसाधन पर है वैसे शरीर भी। राग और द्वेषभी शरीगदिक सुख साधनों और असाधनोंमें जीत है. मो आत्मदर्शीको क्यों होंग ? उलटे आत्याप्टा शरीगादिनिमित्तक यावत् रागद्वेष न्होंके त्यागना ही स्थिर प्रयत्न करेगा। हाँ,जिमने गरीरकन्धको ही आत्मा माना है उसे अवश्य आत्मदर्शलमे शरीरदान प्राप्त होगा और शरीरकं इष्टानिष्ट्रनिमिमक पदार्थो में परिवह और द्वेष हो सकते जित जो शरीरको भी पर ही मान रहा है तथा मुःखका कारण समझ रहा है वह क्यों उसमें तथा उसके इष्टानिष्ट साधनो रागद्वेष करेगा? अत: शरीरादिन भित्र आत्मस्वरूपका परिज्ञान ही रागद्वेषकी जड़को काट सकता है और बीतगगताको प्राप्त करा सकता है। अतः धर्मकीनिका यात्मदर्शनको बराइमोंका यह वर्णन भी नितान्त भ्रमपूर्ण है-- "यः पश्यत्यात्मानं तत्रास्माहमिति शाश्वतः स्नेहः । स्नेहात् सुश्लेषु तृष्यति तृष्णा बोषास्तिरस्कुरुते ॥ गुणदशी परितृष्यन् ममेति तत्माधनान्युपावते । तैनात्माभिनिवेशो यावत् तावत् स संसार ।" [प्रमाणवा० ११२१९-२०] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तार्थविना अर्थात् जो आत्माको देखता है उसे यह मेरा आत्मा है ऐसा नित्य स्नेह होता है। स्नेहसे आत्मसुखमें कृष्णा होती है। तृष्णामे आत्मानं अन्य बोधपर दृष्टि नहीं जाती गुण ही गुण दिखाई देते है। आत्ममें गुण देखनेसे उसके साधनोंमें ममकार उत्पन्न होता है, उन्हें यह पहण करता है। आत्माका अभिनिवेश है तब तक संसार ही है। क्योंकि इसतरह जब तक २४ आत्मदर्शी व्यक्ति जहाँ अपने आत्मस्वरूपको उपादेय समझता है वहाँ यह भी तो समझता है कि शरीरादि पर पदार्थ आत्माक हितकारक नहीं है। इनमें रागद्वेष करना ही आत्माको बन्धमे वाला है। आत्माको स्वरूपमा प्रतिष्ठा रूप सुख के लिए किसी साधन ग्रहण करनेकी आवश्यकता नहीं है, किन्तु जिन शरीरादि परपदार्थों में सुखसाधनत्वकी मिथ्याबुद्धि कर रखी है वह मिथ्याबुद्धि ही छोड़ना है। आत्मगुणका दर्शन आत्ममागमें लीनताका कारण होगा न कि बन्धनकारक पर पदार्थों ग्रहणका शरीरादि पर पदों होनेवाला आत्माभिनिवेश अवश्य रागादिका सर्जक हो सकता है किन्तु शरीरादि मिश्र आत्मतत्त्वका दर्शन क्यों शरीरादि रायादि उत्पन्न करेगा? यह तो धर्मकीर्ति तथा उनके अनुयायिओंका आत्मतत्वक अव्याकृत होने के कारण दृष्टिभ्यामोह है जो वे अंधेरे उसका शरीरस्कन्धरूप ही स्वरूप टटोल रहे हे और आत्मदृष्टिको मिध्यादृष्टि कहनेका दुःसाहस कर रहे हैं। एक ओर पृथिवी आदि भूतांसे आत्माकी उत्पनिका खंडन भी करते हैं दूसरी ओर रूप वेदना संज्ञा संस्कार और विज्ञान इन पांच स्कन्धोंसे व्यतिरिक्त किसी आत्माको मानना भी नहीं चाहते । इनमें वेदना संज्ञा संस्कार और विज्ञान ये चार स्कन्ध चेतनात्मक हो सकते हैं पर रूपस्कन्धको चेतन कहना चार्वाक भूतात्मवाद से कोई विशेषता नहीं रखता । जब युद्ध स्वयं आत्माको अभ्याोटि डाले गए तो उनके शिष्योंका युक्तिमूलक दार्शनिक क्षेत्रमें भी आत्माके विषयमें परस्पर विरोधी दो विचारोंमें दोलित रहा न बुढ विचारोंको 'अभौतिक अनात्मवाद' जैसे उभयप्रतिषेधक नामसे पुकारते हैं । वे यह नहीं बता सकते कि आखिर फिर आत्मा का स्वरूप है क्या ? क्या उसकी रूपस्कन्धकी तरह स्वतन्त्र सत्ता है ? क्या वेदना संज्ञा संस्कार और विज्ञान ये स्कन्ध भी रूपस्कन्धकी तरह स्वतन्त्र सत् है ? और यदि निर्वाण वित्तसन्तति निद्ध हो जाती है तो चार्वाक्के एवजन्मतक सीमित हात्मवादसे इस असीमित देयवाद ফুল महाराज मौलिक विशेषता रहती है ? अन्तमें तो उसका निरोध हुआ ही महाबीर इस असंगतिजालमं न तो स्वयं पड़े और न वियोंको ही उनने इसमें डाला। यही कारण है जो उन्होंने आत्माका पूरा पूरा निरूपण किया और उसे स्वतन्त्र द्रव्य माना। जैसा कि में पहले लिख आया हूँ कि धर्मका लक्षण है वस्तुका स्व-स्वभावमं स्थिर होना । आत्माका ख़ालिस आत्मरूपमें लीन होना ही धर्म है और मोक्ष है। यह मोक्ष आत्मतत्वकी जिजामा बिना हो ही नहीं सकता। आश्मा तीन प्रकारके हे बहिरात्मा अन्तरत्मा और परमात्मा जो आत्माएँ शरीरादिको ही अपना रूप मानकर उनकी ही प्रिय साधनाएं लगे रहने के बहिर है जिन्हें स्वपरविवेक या भेदविज्ञान उत्पन्न हो गया है, शरीरादि बहि:पदार्थ आत्मदृष्टि हट गई है के सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा है । जो समस्त कर्ममल कलोंसे रहित होकर शुद्ध चिन्मात्र स्वरूपमं मग्न हैं वे परमात्मा है। एक ही आत्मा अपने स्वरूपका यथार्थ परिज्ञान कर अन्तर्दृष्टि हो क्रमशः परमात्मा बन जाता है । अतः आत्मधर्मकी प्राप्तिके लिए पाबन्धमोक्षके लिए आरमतस्वका परिज्ञान नितान्त आवश्यक है। जिस प्रकार आत्मरक्षा ज्ञान अवश्यक है उसी प्रकार जिन वजीमोके सम्बन्ध आमा विकृत होता है, उसमें विभावपरिणति होती है उस अजीवतत्वके ज्ञानकी भी आवश्यकता है। जब तक इस अजीवतत्वको नहीं जानेंगे तब तक किन होगें बन्ध हुआ यह मूल बात ही अशान रह जाती है। अतः अजीवता ज्ञान जरूरी है। अजीवतत्त्वमं चाहे धर्म अधर्म आकाश और कालका सामान्य ज्ञान ही हो पर पुद्गला किंचित् Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्धसत्त्वनिरूपण २५ विशेष शान अपेक्षित है। पारीर स्वयं पुदगलपिड है। यह चैतनके संसर्गसे चेतनायमान हो रहा है । जगतम रूम रस गन्ध और स्पर्शवाले यावत् पदार्थ पौद्गलिक हैं। पृथिवी जल अग्नि वायु सभो पौद्गलिक हैं। इनमें किसीमें कोई गुण उद्भूत रहता है किसीम कोई गुण । अग्निम रस अनुभूत है, वायुमै स्प अनुभव है जल में गन्ध अनुद्भुत है। पर, सर विभिन्न जातीय द्रव्य नहीं है किन्तु एक पुद्गलमय ही है । शब्द, प्रकाश, छाया, अन्धकार आदि पुदगल स्कन्धकी पर्याय है। विशेषतः मुमुक्षके लिए यह जानना जरूरी है कि गरीर पद्गल है और आत्मा इससे पथक है। यद्यपि आज अशुद्ध देशामें आत्माका ९९ प्रनिशन विकास और प्रकाश शरीराधीन है। शरीरक पूजोंके बिगड़ते ही वर्तमान ज्ञानविकास रुक जाता है और सरीरक नाश होनेपर वर्तमानशक्तियां प्रायः समाप्त हो जाती है फिर भी आत्मा स्वतन्त्र और पारीरक अतिमार्गदर्शकभी-उसमावखित्मपिरोविधिसागरमितहासाबमा अपने सूक्ष्म कार्मण शरीरके अनुसार वर्तमान स्थूल शरीरकं नष्ट हो जानेपर भी दूसरे स्थूल शरीरको धारण कर लेता है। आज आत्माके मात्विक राजस या तामस सभी प्रकारके विचार या संस्कार शरीरको स्थितिके अनुसार विकसित होत है। अत: मुमुक्षुके लिए इस शरीर दगलकी प्रकृतिका परिज्ञान नितान्त आवश्यक है, जिसमें वह इसका उपयोग आत्मविकासमें कर सके ह्रासमें नहीं। यदि उत्तेजक या अपथ्य आहार विहार होता है ना कितनाही पवित्र विचार करने का प्रयल किया जाय पर सफलता नहीं मिल रानती। इसलिए बरे सस्कार और विचारोंका शमन करनेके लिए या क्षीण करने के लिए उनके प्रब निमित्त भन शरीरकी स्थिति आदिका परिमान करना ही होगा। जिन पर पदासे आत्माको विरका होना है या उन्हें पर ममम. कर उनके परिणमन पर जो अनधिकृत स्वामित्वके दुर्भाव आरोपित हैं उन्हें नष्ट करना है उस परका कुट विशेष शान तो होना ही चाहिए, अन्यथा विरक्ति किससे होगी? सारांश यह कि जिसे बंघन होना है और जिससे बंधता है उन दोनों तत्वोंका यथार्थ दर्शन हुए बिना बन्ध परम्परा कट नहीं सकती। इस तत्वज्ञानके बिना चारित्रकी ओर उत्साह ही नहीं हो सकता। चारित्रकी प्रेरणा विचारोंसे ही मिलती है। बन्ध-बन्ध दो पदार्थोंके विशिष्ट सम्बन्धको कहते हैं। बन्ध दो प्रकारका है-एक भावन्ध और दूसरा देव्यबन्ध । जिन राग द्वेष मोह आदि विभानोंसे कर्यवर्गणाओंबा बंध होता है उन रागादिभावोंको भावबंध कहते हैं और कर्मवर्गणाओंका आत्मप्रदेशोंसे सम्बन्ध होना द्रव्यबन्ध कहलाता है। द्रव्यबन्ध आत्मा और पुद्गलका है। मह निश्चित है कि दो द्रव्योंका संयोग ही हो सकता है नादात्म्य नहीं। पुद्गलाव्य परस्परमें बन्धको प्राप्त होते है सो एका वियोष प्रकारके संयोगको ही प्राप्त करते हैं। उनमें स्निग्धता और रूक्षता के कारण एक रासायनिक मिश्रण होता है जिससे उस स्कन्ध अन्तर्गत सभी परमाणुझोंकी पर्याय बदलती है और वे ऐसी स्थितिमें आ जाते हैं कि अमुक समय तक उन सबकी एक जैसी ही पर्याएं होती रहती हैं। स्कन्धके रूप 'रमादिका व्यवहार नदन्तर्गत परमाणुओंके कारसाधिपरिण मन की औसतसे होता है । कभी कभी एक ही स्कन्धके अमुक अंशम रूप रसादि अम्क प्रकार हो जाते हैं और दूसरी ओर दूसरे प्रकारके। एक ही आम स्वन्ध एक ओर पका पीला मीश और सुगन्धित हो जाता है तो दूसरी और हरा खट्टा और विलक्षण गन्धवाला बना रहना है। इससे स्पष्ट है कि स्कन्धमें शिथिल या दक्ष बन्धक अनुसार सदन्तर्गत परमाणुबोंके परिणमनकी औमनसे रूपरसादि व्यवहार होते हैं। स्कन्ध अपने में स्वतन्त्र कोई द्रव्य नहीं है। किन्तु वह अमुव परमाणओं की विशेष अवस्था ही है। और अपने आधारभूत परमाणुओंके अधीन ही उसकी दशा रहती है। पद्गलोक बन्धमें यही रासायनिकता है कि उस अवस्थामें उनका स्वतन्त्र विलक्षण परिणमन नहीं हो सकता किन्तु एक जैसा परिणमन होता रहता है। परन्तु आस्मा और कर्मपुद्गलोंका ऐसा रासायनिक मिश्रण हो ही नहीं सकता। यह बात जुदा है कि कर्मस्कन्धके आ जानेसे आत्माके परिणमनमें विलक्षणता आ जाय और आत्माकै निमित्तसे कर्मस्कन्धकी परिणति विलक्षण हो माय पर इमसे आत्मा और पुदगलकर्मके बन्धको रासायनिक मिश्रण 'नहीं कह सकते। स्पोंकि जीव और कर्मके बन्ध में दोनोंकी एक जमी पर्याय नहीं होती। जीवकी पर्याय चेतन Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थबृत्ति-प्रस्तावना स्प होगी, पुद्गलकी अचंतनरूप। पुद्गलका परिणमन रूप रस गन्धादिरूप होगा, जोव का चैतन्यके विकाररूप। हाँ, यह वास्तविक स्थिति है, कि नूतन कर्मपुदगलोंका पुरने बंधे हुए कर्मशरीरके साथ रासायनिक मिश्रण हो और वह उस पुराने कर्मपुद्गल के साथ बंधकर उसी स्कन्धमें शामिल हो जाम होता भी यही है। पुराने कमशरीरमे प्रतिक्षण अमुक परमाणु बरत है और दूसरे कुछ नए शामिल होते हैं। परन्तु आत्मप्रदेशोंसे उनका बध रासायनिक बिलकुल नहीं है। यह तो मात्र संयोग है। प्रदेशवन्धकी व्याख्या तस्वार्थ मूत्रकारने यही की -"नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मंकवावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रवेशोष्वनस्तानम्तप्रदेशाः ।" (तस्वार्थसत्र ८०२४) अर्थात योगके कारण समस्त आत्म प्रदेशोंपर मुक्ष्म पद्गल आकर एत्रक्षेत्रावगाही हो जाते हैं। इसीका नाम प्रदेशबन्ध है। द्रव्यवन्ध भी यही है। अतः आत्मा और कर्मशरीरका एकक्षेत्रायगाहके सिवाय अन्य कोई रासायनिक मिश्रण नहीं होता। रासायनिक मिश्रण नबीन कर्मपदलोका प्राचीन कमामलासे ही हो सकता है, आत्मप्रदेशोंमे नहीं। जीवके रागादिभावोसे जो योगणिया अर्थात् आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्द होता है उससे कर्म वर्गणाएँ खिचती हैं । वे शरीरके भीरनसे भी खिचती हं बाहिरसे भी। खिचकर आत्मप्रदेशोंपर या जाक बद्ध कमशरीरमे बन्धको प्राप्त होती है। इस योगसे उन कर्मवर्गणाओंमें प्रकृति अर्थात् स्वभाव पड़ता हैं। यदि वे कर्मपद्गल किमीके ज्ञानम बाधा डालने क.पक्रियासे खिचे है तो उनमें जानावरणका स्वभाव पड़ेगा और यदि गगादि कषायमे तो उनमें चारिवावरणका । आदि । तात्पर्य यह कि आए हुए कर्म पुद्गलोंको आत्मप्रदेशोंसे एकक्षेत्रावगाही कर देना और उनमें ज्ञानावरण दर्शनावरण आदि स्वभावोंका पड़ जाना योगसे होता है। इन्हें प्रदशन और प्रकृतिबन्ध कहते है। कषायोंकी तीव्रता और मन्दता के अनुसार उस कर्मपुद्गलमें स्थिति और फल देने की शक्ति पड़ती है यह स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्ध कहलाता है। ये दोनों बन्ध कषायसे होते हैं। केवली अर्थात् जीवन्मक्त व्यक्तिको रागादि कषाय नहीं होती अत: उनके योगके द्वारा जो कर्म पूदगल आत विनिती सम्या महार हैं, उनका स्थितिबन्ध और अनुभाग अन्ध नहीं होता। मार्गदर्शक:-आचार्यश्री सुविधासा बन्न प्रतिक्षण होता रहता है और जैसा कि मैं पहिलं लिख आया हूँ कि उसमें अनेक प्रकारका परिवर्तन प्रतिक्षणभावी पायादिक अनुसार होता रहता है। अन्त में कर्मशरीरकी जो स्थिति रहती है उसके अनुसार फल मिलता है। उन कर्मनिषकोके उदयमे बाह्य वातावरण पर बसा बसा असर पड़ता है। अन्तरंगमं यसे वैसे भाव होत है। आयुबन्धके अनुसार स्थल शरीर छोड़नपर उन उन योनियोंमें जीवको नया स्थल गरीर धारण करना पड़ता है। इस तरह यह बन्धचक्र जबतक राग द्वेष मोह बासनाएँ आदि विभाव भाव हूँ बराबर चलता रहता है। सपहल आसव-निथ्यात्व अविनि प्रमाद कषाय और योग में पांच बन्धके कारण हैं। इन्हें आस्रवप्रत्यय भी कहते हैं। जिन भावों के द्वारा कर्मोका आस्रव होता है उन्हें भावात्रव कहते है और कर्मध्यका आना द्रव्यात्रव कहलाता है। पद्गलोंमें कर्मत्व प्राप्त हो जाना भी द्रव्यारव कहलाता है। आत्मप्रदेशतक उनका आना ब्यास्रव है। जिन भावोंसे वे कर्म खिचते हैं उन्हें भावासब कहत हैं। प्रथमक्षण भावी भाबोंको भावानव कहते है और अग्रिम क्षणभाबी भावोंको भाष बन्ध । भावानव जैसा तीन मन्द मध्यमास्मक होगा तजन्म आत्मप्रदेशपरिस्पन्दसे से कर्म आयेंगे और आत्मप्रदेशोंसे बंधेगे। भावबन्धके अनुसार उस स्कन्धर्मे स्थिति और अनुभाग पड़ेगा। इन आस्बों में मन्य अनन्तकर्मवाक्षक आस्रव है मिथ्यात्व अर्थात् मिथ्या दृष्टि। यह जीव अपने आत्मस्वरूपको मलकर दारीरादि पर दयों में आत्मवि करता है और इसके समस्त विमार और क्रियाएँ उन्हीं शरीराश्रित ब्यवहारोंमें उलझी रहती हैं। लौकिक यशोलाभ आदिकी दृष्टिसे ही यह चर्म जैसी त्रियाओंका आचरण करता है। स्व-पर विवेक नहीं रहता। पदार्थोक स्वरूपमें भान्ति बनी रह हैं। तात्पर्य यह कि लक्ष्यभूत कल्याणमार्गमही इसकी सम्यक अशा नहीं होती। वह सहज और गहीन दोनों प्रकारकी मिथ्या दृष्टियोंके कारण तस्वरुचि नहीं कर पाता। अनेक प्रकारकी देव गुरु तथा लोकमूक्ताओंको धर्म समझता है। शरीर और शरीराधित स्त्री पुत्र कुटम्बादिके मोहमें उचित अनचितका विवेक किए बिना Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज आस्वतत्वनिरूपण भोपण अनर्थ परम्पराओंका मजन करता है। नच्छ स्वार्थक लिए मनाप्य जीवनको व्यर्थ ही खो देता है। अनेक प्रकारके ऊंच नीच भेदोंकी मष्टि करकं मिथ्या अहंकारका पोषण करता है। जिस किमो भी दंवको जिम किसी भी वेषधारीगरको जिस किनो भीगास्थको भय आमा मनंह और लोभमे मानने को तैयार हो जाता है। न उमत्रा अपना कोई गिद्धान्त ई और न ब्यवहार। थोडम प्रलोभनमें बह भव अनर्थ करने का प्रस्तुन हो जाता है। जानि, ज्ञान, पूजा, कुल, बल ऋद्धि, तप और शरीर आदिके रण मदमन होता है और अन्योंको मत समझकर उनका निरस्कार करता है। भय आकाइना, पणा, अन्यदोषप्रकाशन आदि दुर्गणोंका केन्द्र होना है। इसकी वनिक मलमं एक ही बान है और वह है स्व-स्वरूपविभ्रम । उसे आत्मम्बम्परा कोई श्रद्धान नहीं। अन् : बद वाद्य पदामि लभाया रहता । यही मिथ्या दृष्टि सब दोषांकी जननी है, इगीगं अनन्न संसारखा बन्ध्र होता है । दर्शन माहनीय नामर कर्मके उदयमे वह दष्टिमूतता होती है। अविनि-चारित्रमाल नामक कर्मके उदयमे मनप्यको चारित्र धारण करनक परिणाम नहीं हो पाते। वह चाहना भी है. गोभी कपायोंकासा तीन उदय रहना है जिमसे न ना सकल नाग्त्रि धारण कर पाता और न देश नारिक । कषाएं चार प्रकार की है(१) अनन्तानबन्धी शोध मान माया लोभ-अनन्त मंमारका संच करानेवाली, स्वरूपाचरण चारित्रका प्रभिबन्ध नग्नवाली, प्रायः मिथ्यात्वसहवारिणी कपाय । पत्थरकी रेखाके समान । (२) अप्रत्याख्यानावग्ण क्रोध मान माया लोभ-देश चारित्र-अणुस्ताको धारण करने के मायोको न होने देने वाली कषाय । इसके उदयमे जीव थान करतांको भी ग्रहण नहीं कर पाता। मिट्टीके रेखाके ममान । (२) प्रत्याख्यानावरण कोष मान माया लोभ-संपूर्ण चारित्रकी प्रतिबन्धिका कपाय। इसके उदयसे जीव सकल न्यान करक मंपूर्ण व्रतोंको धारण नही कर पाता। धूलि रेखाके समान। (४) मज्वलन कोष मान माया लोभ-गणं नारित्रमें विभिन्मात्र दोष उपन्न करनेवाली ऋषाय । यथाम्यान चारित्रकी प्रनिन्धिरा। जलरेवाके समान । इस तरह इन्द्रियांक विषयोंम तथा प्राण्यसंगमम मिल प्रयनि होनेसे कर्मोका आयत्र होना है। अविरनिका निरोध का विरतिभान आनेपर कौका पात्र नहीं होता । प्रमाद-असावधानीको प्रमाद कहते हैं। काल कॉमें अनादरका भाव होना प्रमाद है। पांचो इन्द्रियाक विषयाम लीन होने के कारण, राजकथा चोरकथा स्त्रीकथा और भोजनकथा इन चार विकाओंम स लनेके कारण, क्रोध मान माया और लोभ इन चार कपायों में लिप्त रहनके कारण, निद्रा और प्रणयमग्न होनका कारण कर्तव्य पथमं अनादरका भाव होता है। इस असावधानी मे कुशलकर्मके प्रति अनास्था तो होतो ही है, साथही माथ हिसाकी भूमिका भी तैयार होने लगती है। हिमाके मुख्य हेतुओंम प्रमादका स्थान ही प्रमुख है। बाह्यमं जीवका घात हो या न हो किन्तू असावधान और प्रमादी व्यक्तिको हिसाका दोष सुनिश्चित है। प्रयत्नपूर्वक प्रवत्ति करनेवाले अप्रमत्त साधबके द्वारा बाह्य हिसा होनेपर भी वह अहिंसक है। अतः प्रमाद आरवका मुख्य द्वार है। इसीलिए भ० महावीरने बारबार गौतम गणघरको चेताया है कि "समयं गोयम मा समावए ।" अर्थात् गौतम, किसी भी समय प्रमाद न करो । ___ कषाय-आत्माका स्वरूप स्वभावत: शान्त और निधिकारी है। परन्तु कोध मान माया और लोभ ये चार कपाएं आत्माको कम देती हैं और इसे स्वरूपच्यत कर देती है। ये चारों आत्माकी विभाव दशाएँ हैं। क्रोधकषाय द्वेष रूप है यह द्वेषका कार्य और देषको उपन्न करती है। मान यदि क्रोधको उत्पन्न करता है नो द्वेष रूप है। लोभ रागरूप है। माया रदि लोभको जागृत करती है, तो रागरूप है। तारायं यह कि राग द्वेष मोह की दोषत्रिपुटीम कषायका भाग ही मुख्य है। मोहरूप मिथ्यात्त्र दूर हो जानेपर भो सम्यग्दष्टिको राग-देष रूप कषायें बनी रहती है। जिसमें लोभ कषाय नो पदप्रतिष्ठा और शोलिप्साके Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ मार्गदर्शक - आचार्य श्री.सुविधिसागर जी महाराज तत्त्वाधवास प्रस्तावना रूपमें बड़े बड़े मुनियोंका भी स्वरूपस्थित नहीं होने देती । यह राग द्वेष रूप ही समस्त अनका मूल हेतु है। वहीं प्रमुख आन है। स्वाय गीता और पालीपिटको भी इसी इन्द्रको ही पायल बताया है। जन शास्त्रोंका प्रत्येक वाक्य कवायदामन का ही उपदेश देता है। इसीलिए जैनमुतिय तार अकिञ्चनताकी प्रतीक होती है उसमें न का साधन और न रामका आधार स्त्री आदिका साहचर्य ही। वे तो परम वीतरागता और अकिंचनताका पावन सन्देश देती हैं । है इन पयोंके सिवाय - हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा ( ग्लानि ) स्त्रीवेद पुरुषवेद और नपुंस वेद ९ नोकषायें हैं। इनके कारण भी आत्मामें विकार परिणति उत्पन्न होती है। अतः मे भी आभव है योग - मन वचन और काय के निमित्तसे आत्माकं प्रदेशोम जो परिस्पन्द अर्थात् क्रिया होती है उसे यांग कहते हैं। योगकी साधारण प्रसिद्धि चित्तवृत्तिनिरोध रूप ध्यानके अर्थ में है पर जन परम्पराम कि मन और कासे होनेवाली आत्माकी क्रिया कर्म योग अर्थात् सम्बन्ध कराने में कारण होती है अतः इसे योग कहते हैं और योगनिरोधको ध्यान कहते है आत्मा सक्रिय है। उसके प्रदेशोंम परिन्द होता है। गन वचन और कायर्क निमित्तमे सदा उसमें क्रिया होती रहती है। यह क्रिया जीवन्मुक्तक भी बराबर होती है। पति से कुछ समय पहिले अयोगकेवल अवस्थामै मन वचन कापी किया निरोध होता है और आत्मा निर्मल और निश्चल बन जाता है। सिद्ध अवस्था अस्मानी पूर्ण शुद्धरूपत्रा आविर्भाव होता है न उसमें कर्मजन्य मलिनता रहती और न योगजन्य चंचलता ही प्रधानरूपले आय तो योग ही है। इसीके द्वारा कमका आगमन होता है शुभ योग पुण्यकर्मका आम्रत्र कराता है तथा अशुभ योग पापकर्म के आलवका कारण होता है। सबका शुभचिन्तन तथा अहिंसक विचारधारा शुभ मनोयोग है। हितमित प्रिय सम्भावण शुभ भचनयो है परको बाधा न देनेवाली लाचारपूर्वक प्रवृत्ति शुभ का योग है। इस तरह इस आश्रम तत्व का ज्ञान मुमुक्षु को अवश्य ही होना चाहिए। साधारण प एह तो उसे ज्ञात कर हो लेना चाहिए कि हमारी अमुक प्रवृतियोंसे शुभास्त्रव होता है और अमुक प्रवृत्तियों अशुभासद, तभी वह अनिष्ट प्रवृत्तियों अपनी रक्षा कर सकेगा। सामान्यतया व दो प्रकारका होता है-एक तो कषायानुरञ्जित योगसे होनेवाला साम्भराविक आव जो वयका हेतु होकर संसारको वृद्धि करता है तथा दूसरा केवल योगये होनेवाला वाप आसव जो कपाय न होनेसे आगे वन्धनका कारण नहीं होता । यह आश्य जीवन्मुक्त महात्माओंके वर्तमान शरीरसम्बन्ध तक होता रहता है। यह जीवस्वरूपका विधानक नहीं होता।" · प्रथम साम्परागिक आसव कपायानरंजित यांसे होनेके कारण बन्धक होता है। काय और बांद प्रवृत्ति शुभरूप भी होती है और अशुभरूप भी। अतः शुभ और अशुभ योग अनुसार आलव भी शुभा या गुष्पासन और अशुभासव अर्थात् पापासन भेद से प्रकारका हो जाता है। साधारणतया सान्य वेदनीय, शुभ आए शुभ नाम और शुभ गोत्र ये पुग्छ फर्म है और शेष थानावरण आदि पाविया और 23घातियाँ कर्मप्रकृतियां पापरूप हैं। इस आववमं कषायोंके तीव्र भाव मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञानभाव, आधार और शक्ति आदिको दृष्टिसे तारतम्य होता है। संरम्भ (संकल्प) समारंभ (सामग्री जुटाना) आरम्भ (कार्य शुरुआत) कुल (स्वयं करना) कारित (दूसरोंसे कराना) अनुमत (कार्यकी अनुमोदना करना) मन वचन काय योग और कांध मान माया लोभ से चार कथाएँ परस्पर मिलकर ३४३३४०x१०८ प्रकारके हो जा है। इन अव होता है। आगे ज्ञानावरण आदि कर्मोंमें प्रत्येके आम कारण बताते हैं जनावर दर्शनावरण-जानी और दर्शनयुक्त पृरुपकी या ज्ञान और दर्शनकी प्रशंसा सुनकर भीतरी द्वेषवश उनकी पूहांसा नहीं करना तथा मनमें दुष्टभावका लाना (प्रदोष) ज्ञानकर और ज्ञानके साधनोंका अपलाप करना (निह्नव ) योग्य पात्रको भी मात्सर्यवश ज्ञान नहीं देना, जानमें विघ्न डालना दूसरे द्वारा प्रकाशित ज्ञानको अविनय करना, ज्ञानका गुण कीर्तन न करना, सम्यानको मिथ्याज्ञान कर जानके नाथवा अभिप्राय रखना आदि यदि ज्ञानके हैं तो ज्ञानावरण के आन्दनके कारण होते Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयवतत्त्वनिरूपण २९ पदि दर्शनके सम्बन्धमें है तो दर्शनावरणके आस्रवके कारण हो जाते है । इसी तरह आचायं और उपाध्याय रखना, अकाल अध्ययन, असंचपूर्वक पढ़ना, पढ़नेम आलम करना, व्यास्थान को अनादर पूर्वक सुनना. तीर्थोपरोध, बहुश्रुतके समक्ष भी ज्ञानका गर्व करना, मिथ्या उपदेश देकर दूसरे मिथ्या ज्ञानमं कारण बनना. बहुश्रुतका अपमान करता, लोभादिवश तत्त्वज्ञानके पक्षका त्याग करके अतस्वजानीय पक्षको रहण काना. असम्बद्ध प्रसाप, सूत्र विरुद्ध व्याख्यान, कपटसे ज्ञानार्जन करना, मास्त्र विषय आदि जितनं शान, ज्ञानी और जानव साधनोंमें विघ्न और द्वेषोत्पादक भाव और क्रियाएँ होती हैं उन सबसे आत्मापर ऐसा संस्कार पड़ता है जो शानावरण कर्मक आवका हेतु होता है। देव गा आदिक दर्शन में मात्सर्य करना, दर्शनमें अन्तराम करना, मिमीकी आंख फोड देना. इन्दियोफा अभिमान करना, नेत्रोंका अहंकार करना, दीर्घ निद्रा, अतिनिद्रा, आलस्थ, सम्यग्दष्टिमें दोषोभावन, कुशास्त्र प्रशंसा, गुरुजसा आदि दर्शनके दिघामक भाव और क्रियाएँ दर्शनावरण का आखत कराती हैं। असावावेदनीय-अपने में परमें और दोनोंमें दुःख पाक आदि उत्पन्न करनये आसानावेदनीयका आलब होता है। स्व पर या उभयमें दःख उत्पन्न करना, इवियोगमें अत्यधिक विकलता और शोब करता. निन्दा मानभंग या कर्कशवचन आदिसे भीतरही भीतर जालना, परिपके कारण अचगानपूर्वक बहु विलाप फरना, छाती कूट कर या सिर फोड़कर आक्रन्दन करना. दुःखसे आ फोड़ लेना या आत्महत्या कर लेना. इम प्रकार रोना चिलाना कि सुननेवाले भी रो पड़ें, योक आदिसे लंघन करना, अशुभ प्रयोग, पनिन्दा, गिशुनना. मार्गदर्शकअदयाअचाखाकासुईवविद्यमावड़वी सरगली आदिमे तर्जन करना,बचनोंसे भमना करना, रोधन, बंधन, दमन, आत्म प्रशंसा, क्लेशोत्पादन. अपरिग्रह, आकुलता, मन वचन कायकी कुटिलता, पाप कायोग आजीविका करना, अनर्थदण्ड, विषमिश्रण, बाण जाल पिजरा आदिका बनाना इत्यादि बिलने कार्य स्वयं में परमें पा दोनोंमें दुःख आदिके. उत्पादक है वे सब असाता देदनीय कमके आमवमें कारण होते हैं। सातावेदनीय-प्राणिमात्र पर दयाका भात्र, मुनि और श्रावतके वन धारण करनेवाले प्रतियोंपर अनुकम्पाके भाव, परोपकारार्थ दान देना, प्राणिपक्षा, इन्द्रियजय. क्षान्ति अर्थात् क्रोध मान मायाका त्याग. शौच अर्थात लोभका त्याग, रागपूर्वक संयम धारण करना, अामनिर्जरा अर्थात शान्ति से कर्मोक फलका भोगना, कायमलेश रूप कठिन बाहातप, अर्हत्पूजा आदि शुभ राग, मुनि आदिकी सेवा आदि स्व पर नथा उभयमें निराकुलता सुखके उत्पादक विचार और क्रियाएँ सातावदनीयकं आसयका कारण होती है। दर्शनमोहनीय-जीवन्मुक्त केवली शास्त्र मंध धर्म और देवोंकी निन्दा करना इनमें अवर्णवाद अर्थात् अविद्यमान दोषोंका कथन करना दर्शन मोहनीय अर्थान् मिथ्यात्व कर्मका आत्रव करता है । वेवली रोगी होते हैं, कवलाहारी होते हैं, नग्न रहते हैं परं वस्त्रयुक्त दिखाई देते हैं. इत्यादि केवलीका अवर्गवाद है। शास्त्रमें मांसाहार आदिका समर्थन करना श्रुतका अवर्णवाद है । शास्त्र मुनि आदि मलिन हैं, स्नान नहीं करते, कलिकाल साधु हैं इत्यादि संघका अवर्णवाद है। धर्म करना व्यर्थ है, अहिंसा कायन्ता है, आदि धर्मका अवर्णबाव है। देव मद्यपायी और मांसभक्षी होते हैं आदि देशेवा अवर्णनाद है। सारांश यह कि देव गुरु धर्म संघ और श्रुतके सम्बन्धम अन्यथा विचार और मिथ्या धारणाएं मिथ्यात्वको पोषण करती है और इसमें दर्शनमोह का आरत्रव होता है जिससे यथार्थ तत्त्वरुचि नहीं हो पाती। चारित्र मोहनीय-स्वयं और परमं कषाय उत्पन्न करना, प्रतशीलवान् एषोंम दूषण लगाना, धर्मका नाश करना, धर्ममें अन्तराम करना, देश संयमियोंरों व्रत और शीलका त्याग कराना, मात्सर्या दिसे रहित सज्जन पुरुषों में मतिविभ्रम उपन्न करना, आर्त और रौद्र परिणाम आदि कषाय की तीव्रताके साधन कषाय चारित्र मोहनीयकै आलवके कारण है। समीचीन धार्मिकोंकी हंसी काना, दीनजनोंको देखकर हंसना, काम विकारक भावों पूर्वक हंसना, बहु प्रलाप तथा निरन्तर माड़ों जैसी हंसोड़ प्रवृत्ति से हास्य नो कषायका कासव होता है। नाना प्रकार क्रीड़ा, विचित्र क्रीड़ा, देशादिके प्रति अनौत्सुक्य, तशील आदिम अरुचि आदि पति नोकषायके आनयक हेतु है। दूसरोंमें अरति उत्पन्न करना, रतिका विनाश करमा, पापशीलजनों Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ३० तत्त्वार्थेनसि प्रस्तावना का संसर्ग पाप कियाओंको प्रोत्साहन देना आदि अरति नोकषायके आत्र के कारण हैं। अपने और दूसरे में डाक उत्पन्न करना, शोकयुक्तका अभिनन्दन, वातारण में रुचि आदि नोकषायके आसयके कारण है। स्त्र और परको भय उत्पन्न करना, निर्दयता, दूसरोंको त्रास देना, आदि भयके आस्त्रवके कारण है। पृयक्रियाम जुगुप्सा करना, पर निन्दा आदि जुगुप्साकं आखदके कारण है । परस्त्रीगमन, स्वीके स्वरूपको धारण करना, असत्य वचन, परयेऽचना परशेष दर्शन, वृद्ध होकर भी युवकों जैसी प्रवृत्ति करना आदि स्त्रीवेद के सबके हेतु है। अन्यकोध मावाक्य अभाव गर्नका अभाव स्थियों में अल्प आयति, ईर्षाका न होता, राम are तुओं अनादर, स्वदार सन्तोष परस्त्रीत्याग आदि पुवेदके आववके कारण हैं। प्रचुरं कषाय, गुह्येन्द्रियांका विनाश परांगनाका अपमान, स्त्री या पुरुषोंमें अनंग क्रीड़ा, व्रतशीलयुक्त पुरुषोंको कष्ट उत्पन करना, तीव्रराग आदि नपुंसक वेदनीय नोकषायके आवके हेतु हैं । नरकाव-बहुत आरम्भ और बहुपरिग्रह नरकायुका आस्त्रव कराते हैं। मिथ्यादर्शन, तीव्रराग, मिथ्याभाषण, परद्रव्यहरण नलवी परोपकार करना यतिविरोध, शास्त्रविरोध, कृष्णलेया म अनिनाममपरिणाम, विषयोंमें अतिष्णा रौद्र ध्यान हिंसादि कर कार्यों में प्रवृत्ति, बाल वृद्ध स्त्री हत्या आदि कूरकर्म नरकायके आपके होते हैं। 1 निर्यवायु-छल कपट आदि मायाचार, मिथ्या अभिप्रायसे धर्मोपदेश देना, अधिक आरम्भ, अपिहिमा पानी लेक्ष्या और कपोत या मग सामस परिणाम मरणकालमें संध्यान, क्रूरकर्म भेद करना, अनयद्भावन, सोना चांदी आदिको खोटा करना, कृत्रिम चन्दनादि बनाना, जाति कुलशी दूषण लगाना, सद्गुणांवर कोप दोष दर्शन आदि पाथण भाव तिर्वचायुके आमलके कारण होते हैं। भी मनुष्यायु— अन्य आरम्भ अस्य परियर विनय भद्र स्वभाव, निष्कपटव्यवहार अत्यवधाय, मरणमंद न होना, मिथ्यात्वी व्यक्ति प्रभाव, सुखबोध्यता अहिंसकभाव, अत्यकोभ, क्षेषरहिनता रकमोंमें अरुचि अतिधिग्यागवत मधुर वथम जगत् में अल्प आसक्ति अनसूया, अल्पदेश, गुरु आदि की पूजा, कापोस और पीतलेरा राजस और अल्प सात्विक भाव, निराकुलता आदि भाव मनुष्यायुके आसवके कारण होते है। स्वाभाविक मृदुता और निरभिमान वृत्ति मनुध्यायुके सारण हेतु है। 1 r देवामरागमयम अर्थात् अभ्युदयकी कामना रहते हुए संयम धारण करना, धावकके प्रत मनपूर्वक कर्मका फल भोगनारूप अनामनिर्जरा, मन्यागी एकदण्डी त्रिदण्डी परमहंस आदि नायक पारगम्य आदि सात्विक परिणाम देशयुके असबके कारण होते हैं। नाम कर्म-मन वचन कायकी कुटिलता, विसंवादन अर्थात् श्रेगोमागमें अथक्षा उपन्न करके उससे करना मिथ्यादर्शन, पैशुन्य, अस्थिरचित्तता, झूठे बाट तराजू गज आदि रखना, मिथ्या साक्षी देना, परनिन्दा, आत्मप्रेममा, परव्य ग्रहण असत्यभाषण, अधिक परिग्रह वदा बिलासीवेश धारण करना, रूपमद, भाषण, असभ्य भाषण आफो जान बूझकर धारण करना, दशीकरण चूर्ण आदिका प्रयोग, मत्य आदिकं प्रयोग से दूसरोंमं कुतुहल उत्पन करना, देवगुरु पूजाके बहाने गन्ध माला धूम आदि लश्कर अपने की पुष्टि करना, पर विडम्बना, परोपहास, इंटोंके भट्टे लगाना, मन्दिर ध्वंस, उच्चान उजाड़ना, ती कोष मान-माया लोभ B प्रतिमा तोड़ना अशुभ शरीर आदिके उत्पादक अशुभ नाम कर्म का आन्न होता है। उनसे विपरीत मन-वचन-कायकी सरलता, ऋज प्रवृत्ति आदि सुन्दर शरीरोत्पादक शुभनाम कर्मका आसव होता है। सीकर नाम-निर्मल सम्पदर्शन, जगतिचिता जगत्‌के तारनेकी प्रकृष्ट भावना, विनयसम्प अन्य निरतिचार पालन निरन्तर ज्ञानोपयोग, गंगार दुःखभीता यथा शक्ति तप यथाशक्ति त्याग, + दावानल प्रज्वलित कराना, पापजीविका आदि कामसे Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षतत्वनिरूपण समाधि, साधु सेया, अर्जन्त आचार्य यहचत और प्रवचनम भक्ति, आवश्यक क्रियाओंमें मश्वद्ध निगलन्य प्रवनि, शासन प्रभावना, प्रवचन वात्मन्य आदि मोलह भावना जगदुबारक नोकर प्रकृतिक आमवका कारण होती है। इनमें सम्यग्दर्शनके साथ होने वाली जगददार की ती भावना हो मुरूप है। नीचगोत्र—परनिन्दा, आत्मप्रशंसा. परगविलोप, अपने अधिद्यमान मावा प्रख्यापन, जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, श्रुतमद, शानमद, दययंमद, तपामद, परापमान. पाकरण, पगारवाछुतकिरकार मालकी सुविधिसमार जी सवाद्भावन. गुण विभंदन, गांको स्थान न बना भर्मना करना, स्तुति न करना, विनय न करना. उनका अपमान करना. आदि नीचगोपके आवक कारण। उच्चगोत्र—पर प्रशंसा, आत्मनिन्दा, पर सद्भणोद्भावन, ग्वसद्गुणाच्छादन. नोवृति-नप्रभाव, निर्मद भाव #प अनुत्सेक, परवा अपमान हाम पग्बिाद न करना, मनुभाषण आदि उच्चगोत्र श्राम वक कारण होते हैं। अन्नराय- दसराक दान न्याम भो| उपभोग और वीर्यम विन करना. दानको निन्दा करना, देवव्य का भक्षण, परवीयर्यापहरण. बर्मोभनोट, अधर्माचरण गनिरोध, बन्धन, कर्णछदन, गायन, न्द्रिय विना: आदि विघ्नकारक विगर और क्रियाएँ अन्तराय कर्मका आरव कराती हैं। सारांण यह कि इन गवामे उस उन काँकी स्थिनिबन्ध और अन भागवन्ध विशेष रुपमे होना। वैसे आयुके मित्राय अन्य सान कर्मोपा आस्रव न्यनाधिक भावये प्रतिममय होना रहता है । आयका आत्र व आयुके विभागम होता है। मोक्ष--बन्धनमवितको मोक्ष का है। अन्यत्र कारणांका प्रभाव होने पर नया गंचित नमागे निर्जरा होनेपर ममम्न कोंका समाल उर होना माना है। आत्माकी भाविकी विनवा मंमार अवस्थाम विभाव परिणमन हो रहा था। विभाव परिणमन निमिन हट जानसे मोक्षदगाम उमका स्वभाव पग्निन हो जाता है। जी आमा गण विकर हो र ही स्वाभाविक दमाम आ जाते हैं। मिथ्यावर्शन सम्दग्दर्शन मन जाता है. अमान ज्ञान और अनाग्त्रि बारित्र । तात्पर्य यह कि आत्मा का साग नकशा ही बदल जाता है। जो आत्मा मिथ्याशनादि रूपने अनादिकालमे अगद्धिका पूज बना हुआ था यही निर्मल निदनल और अनन्त चैतन्यमय हो जाता है। उसका श्राग मदा मत परिणमन ही होता है। वह तन्य निरिकन है। वह निम्तरंग ममत्र की तरह निर्विकल्प निश्चल और निर्मल है। न लो निर्वाण दगम आमात्रा अभाव होता है और न बह अचान ही हो जाता है। जन आत्मा एक स्वतन्त्र मौलिक द्रव्य है तब उसका अभाव हो । नहीं सकता। उसमें परिवर्तन कितने ही हो जाय पर अभाव नही हो सकता। किमीकी भी यह सामथ्र्य नहीं जो जगत के किमीभी एक सतका गमल उच्छेद कर सके। बुद्धसे जब प्रश्न किया गया कि-'मरने के बाद तथागत होते हैं या नहीं जा उनने इस प्रश्नको असा. कृत कोटिम डाल दिया था । यही कारण हुआ कि वृद्धके शिष्यानं निर्वाणके विषयमं दो तरहको कल्पना कर डालीं। एक निर्वाण वह जिसमें चिन सन्तति निराम्पत्र हो जाती है और दुराग निर्वाण वह जिसमें दीपवर. समान चित्त सन्तति भी बन जाती है अर्थात उसका अस्तित्व ही समाप्त ो जाता है। * दवा विज्ञान संझा और संस्कार इन पनि कन्ध रूप ही आत्माको मानने का यह महज परिणाम था कि निर्वाण दगामं जाका अस्तित्व न रहे। आरचर्य है कि बद्ध निर्माण और आत्मा परलोकगामित्वका निर्णः बनाए निना ही दुःख निवृत्तिके उपदेशक सर्वांगीण औचित्यका गमन करते रहे। यदि निर्वाण चिनमन्नतिका निरोध हो जाता है, वह दीपक की तरह वझ जातो है अर्थात अस्तित्वशन्य हो जाती तो उच्छेदत्रादक दोषसे बुद्ध कैसे बचे? आत्माकं नास्तित्वसे इनकार तो इसी भयमे करले थे कि यदि आत्माको नास्ति कहत हैं तो उच्छेदवादका प्रसंग आना है और अस्ति कहते हैं तो शाश्वतवावका प्रसंग आता है। निर्माणा. वस्थामें उच्छेद मानने और मरणके बाद उच्छेद माननेम तन्वदृष्टिग कोई विशप अन्तर नहीं है । बल्कि चार्वात का सरल उच्छेद सबको सुकर क्या अवस्नसाध्य होनेरी सहजग्राह्य होगा और युद्धका निर्वाणोसर उच्छेद Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ त्यावृति अनेक प्रकारकं ब्रह्मचयंनास ध्यान आदिये साध्य होने के कारण दुर्या होगा अतः मांझ अवस्थामें शुद्ध चित्त सन्ततिक सत्ता मानना ही उचित है। तयसंग्रह पंजिका (५० १०४ ) आचार्य कमलशीने संसार और निर्वाका प्रतिपादक यह प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है- "चितमेव हि संसारी रागादिक्केशवासितम्। सैविनिर्मुक्त' भवान्त इति कथ्यते ॥" अर्थात रागादिवा-वासनागम चितको संसार कहते हैं और जब वही भित रामादि क्लेश वासनाममुक्त हो जाता है तब उसे भवान्त अर्थात् निर्माण कहते हैं। यह जीवन्मुक्तिका वर्णन नहीं है किन्तु निर्वाणका । इस श्लोक में प्रतिपादित संसार और मोक्षका स्वरूप ही मुक्तिसिद्ध और अनुभवगम्य है। वित्ती रागादि अवस्था संसार है और उसकी यनादिरहिता मोक्ष अतः सर्वकर्मक्षयसे प्राप्त होनेवाला स्वात्मलाभ ही मोक्ष है। आत्माका अभाव या चैतन्यके अभाबको मोक्ष नहीं कह सकते । रोगकी निवृत्तिका नाम आरोग्य है न कि रोगी की ही निवृत्ति या समाप्ति स्वास्थ्यलाभ ही आरोग्य है न कि मृत्यु । मोक्षके कारण – १ संदर — मंबर रोकनको कहते हैं। सुरक्षाका नाम संबर है। जिन द्वारोंसे कमौका आम़व होता था उन द्वारांका निरोध कर देना संवर कहलाता है । आवका मूल कारण योग है । अतः योगनिवृत्ति ही मूलतः संवरके पद पर प्रतिष्ठित हो सकती हैं। पर मन दन कामको प्रवृतिको सबंधा रोकना संभव नहीं हैं। शारीरिक आवश्यकताओं की पूतिके लिए आहार करना मलमुत्रका विसर्जन करना चलना फिरना बोलना रखना उठाना आदि क्रियाएं करनी ही पड़ती है। अतः जितने अंशोंमें मन वचन काय की किसानोंका निशेष है उतने बंधको गुप्ति कहते हैं। गुप्ति अर्थात् रक्षा मन वचन और कायकी अकुमार्गदशत्तियों विजी महाराज राप्ति ही संकरका प्रमुख कारण है। गुप्तिके अतिरिक्त समिति धर्म अनुप्रेक्षा परीषहजय और पारिदै आदि सबर होता है। समिति आदिमें जितना निवृत्तिका भाग है उतना संबरका कारण होता है और प्रवृतिका अंश शुभबन्धका हेतु होता है। । समिति सम्यक प्रवृत्ति सावधानी से कार्य करना। ईस समिति देखकर चलना । भाषा समितिहित मित प्रिय वचन बोलना । एषणा समिति विधिपूर्वक निर्दोष आहार लेना आदान-निक्षेपण समिति-देखोपकर किसी भी वस्तुवा रखना उठाना उत्सर्ग गमिनि-निर्जन्तु स्थानपर मल मुत्रका विसर्जन करना | 1 धर्म-आत्मस्वरूपमें धारण करानेवाले विचार और प्रवृत्तियों धर्म है। उत्तम क्षमाका लाग करना । क्रोधके कारण उपस्थित होनेपर भी विवेकवारिसे उन्हें शान्त करना। कायरता दोष है और क्षमा गुण जो क्षमा आत्मामें दीनता उत्पन्न करे वह धर्म नहीं। उत्तम माय-मदुता, कोमलता, विनयभाव मानका स्याग । ज्ञान पूजा कुल जाति बल ऋद्धि तमं और शरीर आदिकी किंचित् विशिष्टताके कारण आत्मस्वरूप को न भूलना, इनका अहंकार न करना। अहंकार दोष है स्वमान गुण है। उत्तम आजंद-ऋजुता, सरलता, मन वचन काय कुटिलता न होकर सरलगाव होगा जो मनमें हो, तदनुसारी ही वचन और जीवन व्यवहारका होना। माया का राग सरलता गुण है मपन दोष है। उत्तम शौचा पवित्रता, निर्लोभ वृत्ति, प्रलोभन में नहीं फंसना | लोभ कषायका त्यागकर मनमें पवित्रता लाना झीच गुण है पर बाह्य बोला और चौकापथ आदि कारण छू करके दूसरों से घृणा करना दोष है। उत्तम पमाणिकता, विश्वास परिपालन, तथ्य स्पष्ट भाषण | सच बोला धर्म है परन्तु वरनिन्दा के लिए दूसरेके दोषोंका विढोरा पीटना दोष है। पर बाधाकारी सत्य भी दोष हो सकता है। उत्तम संयम - इन्द्रिय विजय, प्राणि रक्षण। पांचो इन्द्रियोंकी विषय प्रवृत्ति पर अंकुश रखना कि प्रवृत्तिको रोकना, रुपये होना प्रणियोंकी रक्षाका ध्यान रख हुए खान-पान जीवन व्यवहारको अहिंसाकी भूमिका पर चलाना । क्रियाकाण्डमें' का अत्यधिक आग्रह दोष है। उत्तम लंग -- इच्छानिरोध । संयम गुण हैं पर भावशून्य बाह्यमनकी आशा तृष्णाओंको रोककर Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतरतरवनिरूपण २३ प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य ( सेवाभाव ) स्वाध्या और व्त्सर्ग (परित्याग ) में वित्तवृत्ति लगाना। ध्यान चित्तकी एकाग्रता । उपवास, एकाशन रसत्याग, एकान्तरोवन, मौन, शरीरको सुकुमार न होने देना आदि बाह्यत है। इच्छानिवृत्ति रूप तप गुरु है और मात्र बाह्य कायदेश, पंचाग्नि तपनाहट योग की कटिन कियाएँ बालता है | उत्तमत्यागदान देता, त्यागकी भूमिका पर आना । शक्त्यनुसार भूखीको भोजन, रोगी को औषधि, अशाननिवृत्तिके लिए ज्ञानके साधन जुटाना और प्राणिमात्रकी अभय देना समाज और दे निर्माण के लिए तन धन आदि गाधनीका त्याग। लान पूजा नाम आदि के लिए दिया जानेवाला दान उसग दान नहीं हूँ । उत्तम आकिञ्चन्य-अनिमात्र बाह्यदि ममैत्य भावकीया पर्ने धान्य द मार्गदर्शक, आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज हि तथा शरीरमें यह मेरा नहीं है, आत्माचा बनतो उसका शुद्ध चैतन्यरूप हूँ' 'नाति में किञ्चन'मेरा कुछ नहीं है आदि भावनाएं आविन्य है कर्तव्यनिष्ठ रहकर भौनिकतामे दृष्टि हटाकर विशुद्ध त्मिक दृष्टि प्राप्त करना उत्तम ब्रह्मत्रयं ब्रह्म अर्थात् आत्मस्वरूपमं विवरण करना । स्त्रीमुखमे विरक्त होकर समस्त शारीरिक मानसिक आत्मक्तियोंको आत्मविकासोन्मुख करना । मनःशुद्धिके बिना ब्रह्मचर्य न तो शरीरको हो लाभ पहुँचाता है और न मन और आत्मामें ही पवित्रता लाता है । अनुप्रेक्षा- सद्भावनाएँ आत्मविवार । जगत्‌ में प्रत्येक पदार्थ क्षणभंगुर है। स्त्री आदि पर द भावनः अनित्य है अतः इनके बिछुड़ने पर क्लेश नहीं होना चाहिए । संसारमे गृत्युमुख बचाने वाला कोई नहीं । बड़े बड़े सम्पाद् और साधनसम्पन व्यक्तियोंको आयुकी परम होते ही इस मरवारीको छोड़ देना होता है। अतः इस मृत्यु पाना नहीं माहिए। जगत् कोई किग्रीको गर नहीं है। हम ससारमें यह जीवनानापानियां परिभ्रमण करते हुए भी आपकी प्राप्ति नहीं करने के कारण अनेक दुर्वासना थागित रहकर रागद्वेष आदि में उनका रहा शारीरिक हूँ।एतंत्ररी पुत्र मकान यहां तक कि शरीर भी मेरा नहीं है, हमारे स्वरूप से जूदा है। यह शरीर मन रुधिर आदि चान धातुभहना हुआ है। इस बहता रहता है । उनकी सेवा करने करने जीवन जीन गया। यह जब तक है अपना ओर जगत्का जो उड़कर ही एकता हो, करना चाहिये । ि रागादिभाव और वासनाएं है उनने फिर दुर्भाबाट होती है कर्मोका आप होता है, और उससे को पड़ना पड़ता है। अतः इन आदि कपयों छोड़ देनः राहिए। परिवार गमताभाव आदि आध्यात्मिक आगे होना रोके जा सकते हैं सुष्टि की जानेर खोटी आदत स धीरे धीरे द्वार हो सकता है यह अनो अनन्त भित्रन है। इसमें लिखेदा सुनाई। व्यक्तिका उबार ही मुख्य है। लोक के राकृतिक रूपका सदस्य भाव मे चिन्तन करनेसे रागादि बुनियां अपने आप संकुचित होने लगती है। गाजी वनमें जो आनन्द यह नहीं पदार्थ है जवान बनने के साधन भी विज्ञान उपस्थित कर दिये पर अत सम्यग्ज्ञानतत्वनिर्णय होना है। जिससे आगरा और निराकुलताका हाम कठिन करे यह बोध अत्यंत दुर्लभ है । यह अहसाको भावना, भानत्रमात्र के ही नहीं प्राणिमात्र मुलक आकांक्षा जगत्के हितकी पृष्पभावना ही धर्म है प्राणिमात्र मे मंत्रीभाव, गुलियों गुण प्रमोद दुःखी जीवों दुःखमें सहानुभूति और वंदना विचार तथा जिनसे हमारी निवृतिका मे नही साता उन विग पुरुषद्वेष न होकर हमारी आत्मकथा मानवसमाजको अहिमा तथा उच्च भूमिकापर ले जा सकते है । ऐसी भावनाओंको रादा दिन भान रहना चाहिये । इन विचारोग सुरात्त समय आनेपर विच नहीं हो सकता सभी में समताभा सकता है और कमों के आसनको शेककर गंवरकी ओर ले जा सकता है। " परीष जय-मापकको भूमारा उंद नरमी मतांतर चलने फिरने गोनेमें आनेवाली करु आदि बाधाएँ व आक्रोश मल रोग आदिको वाधाको शान्ति महना चाहिए। नग्न रहते हुए भी स्त्री Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ तरवावृत्ति प्रस्तावना आदिको देखकर अविकृत बने 'मार्गदर्शक' आचार्य सुग महाराज भी यदि कोई ऋद्धि सिद्धि प्राप्त न हो तो भी तपस्याके प्रति अनादर नहीं होगा चाहिए। कोई सत्कार पुरस्कार करे तो हर्ष न करे तो खेद नहीं करना चाहिए । यदि तपस्या से कोई विशेष ज्ञान प्राप्त हो गया हो तो अहंकार और प्राप्त न हुआ हो तो खेद नहीं करना चाहिए। भिक्षावृत्तिसे भोजन करते हुए भी दोगताका भाव आत्मामें नहीं आने देना चाहिए । इस तरह परीषहजयसे चरित्रमें दूध निष्ठा होती है और इससे आवथ कर संबर होता है । चारित्र चारित्र अनेक प्रकारका है। इसमें पूर्ण चारित्र मुनियोंका होता है तथा देश चारित्र श्रावकका । मुर्ति अहिंसा सत्य अचौर्य ब्रह्मवयं और अपरिग्रह दन व्रतोंका पूर्णरूप में पालन करता ई तथा श्रावक इनको एक अंशसे मुनियोंके महानत होते हैं तथा धावकोंकि अल इनके सिवाय सामायिक आदि पारित भी होते हैं। सामायिक समस्त पापक्रियाओंका त्याग, समताभावकी आराधना । छंदोपस्थापना - यदि व्रतोंमें दूषय आ गया हो तो फिरसे उसमें स्थिर होना परिहारविशुद्धि इस वारिवाले व्यक्ति शरीरमें इतना हलकापन आ जाता है जो सर्वत्र गमन करते हुए भी इसके शरीरसे हिंसा नहीं होती । सूक्ष्म साम्पराय अन्य सब कपायोंका उपाम या क्षय होनेपर जिसके मात्र सूक्ष्म लोभकाम रह जाती है उसके सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र होता है। यथास्यातचारिण जीवन्मुक्त व्यक्तिके समस्त कषायक क्षय होनेपर होता है जैसा आत्माका स्वरूप है वैसा ही उसका प्राप्त हो जाना यथास्यात हैं। इस तरह गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेक्षा परीषहजय और चारित्र आदिकी कि होनेपर कर्म प्रवेशका कोई अवसर नहीं रहता और पूर्णसंबर हो जाता है। निर्णय- गुप्ति आदि सर्वतः संवृत व्यक्ति आगामी कमोंके आसवको तो रोक ही देता है साथ ही साथ पूर्वबद्ध कमकी निर्जग करके क्रमशः मोक्षको प्राप्त करना है। निर्जरा शड़ने को कहते हैं। यह दं प्रकारकी होती हूं -- (१) ओमिक या अविक निरा (२) अनीमिया विपाक निर्जरा। तप आदि साधनाओंके द्वारा कमको बलात् उदयमें लाकर बिना फल दिये ही शहा देना अधिपाक निर्जरा है। स्वाभाविक रुमसे प्रति समय कम फल देकर झड़ जाना सवियाक निर्जरा है। यह सवि पाक निर्जरा प्रतिसमय हर एक प्राणी होती ही रहती है और नूतन कर्म बंधने जाते हैं। गुप्ति समिति और खासकर तरूपी अनिके द्वारा फमको उदयकालके पहिले ही भस्म कर देना अविपाक निर्जरा या ओमिक निरा है। म्यष्टि भाव, गुभिः अनन्तादन्दीका वियोजन करनेवाला दर्शनमोहक क्षय करनेवाला उपनामहाला अपकश्रेणीवाले श्रीममोही और जीवन्मुक्त व्यक्ति क्रमशः असंख्यात गुणी बमोंको निर्जरा करते हैं। 'कर्मो की गति दल नहीं सकती' यह एकान्त नहीं है । यदि आत्मामें पुरुषार्थ हो और वह साधना करे तो समस्त कर्मोंको अन्तर्मुहूर्त ही नष्ट कर सकता है। "नाभुक्त' क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतंरपि ।" अर्थात् संकड़ों सपकाल बीत जानेपर भी बिना भोगे कर्मो का क्षय नहीं हो नका यह मत जैनोंको मान्य नहीं जन तो यह कहते हैं कि "ध्यानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते क्षणात ।" अर्थात् ध्यानरूपी अग्नि सभी कर्मोंको क्षण भरमें भस्म कर सकती हैं। ऐसे अनेक दुष्टान्त I • मौजूद हैं-- जिन्होंने अपनी प्रात्साधनाका इतना बल प्राप्त कर लिया था कि साबुदीक्षा लेते ही उन्हें लाभ हो गया। पुरानी वासनाओंको और रागद्वेष आदि कुसंस्कारोंको नष्ट करनेका एकमात्र मुख्य साधन ध्यान अर्थात् चित्तवृत्तियोंका निरोध करके उसे एकाग्र करना । इस प्रकार भगवान् महावीरने बम्ब ( दुःख) बन्धके कारण (आसन) मोक्ष और मोक्षके कारण-संवर निर्जस इन पांच तत्वोंके साथ ही साथ अहमतश्वके ज्ञानको भी खास अश्वदयता बनाई जिसे बन्धन और मोटा होता है तथा उस अजीव तत्वके जानकी जिसके कारण अनादिसे यह जीव मन्मनबद्ध हो रहा है। मोक्षके साधन वैदिक संस्कृति विचार या मानसे मोक्ष मानती है जब कि श्रमण संस्कृति आचार अर्थात् चारित्रको मोक्षका साधन स्वीकार करती है। यद्यपि वैदिक संस्कृतिय तत्वज्ञानके साथ ही साथ वैराग्य और संन्यासको भी मुक्तिका अंग माना है पर वैराग्य आदि का उपयोग तत्त्वज्ञानकी पुष्टिमें - - Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन का सम्मरदर्शन ३५ मनका होता है अर्थात् वैराग्यसे तत्वज्ञान परिपूर्ण होता है और फिर मुक्ति । जैन तीर्थकरांचे "सम्यग्दर्शमशानपारिवागि मोक्षमार्गः" (तन्वार्थमूत्र १११) सम्यग्दर्शन सम्परज्ञान और सम्यकचारित्रको मोक्षका मार्ग कहा हूँ। ऐसा सम्यग्जान जो सम्यकचारित्रका पोषक या बर्द्धक नहीं है मोक्षका साधन नहीं हो सकता। जो जान जीवनमै उनबर यात्मशोधन करे वही मोक्षका बारण है । अन्ततः सच्ची श्रद्धा और शानका फल चारित्रशुद्धि है । ज्ञान थोड़ा भी हो पर यदि उसने जीवनशुद्धि में प्रेरणा दी है तो वह सम्यग्ज्ञान है। अहिमा मंयम और तप साधनात्मक वरता है जानात्मक नहीं । अतः जनमंस्कृतिने कोरे जानको भार ही बताया है । लत्त्वोंकी मापी घद्धा खासकर चरकी श्रद्धा मोक्ष प्रासादका प्रथम सोपान है। आत्मधर्म अर्थात् आत्मस्वभावका और आत्मा नथा शरीगदि परपदार्थो का स्वरूपन्जान होना-इनमें भेदविज्ञान होना ही सम्यग्दर्शन है। मभ्यकदर्शन अर्थात् आत्मस्वरूपका स्पष्ट दर्शन, अपने लक्ष्य और कल्याण-मार्गकी दह प्रतीनि। भय आगा स्नेह औरलोभादि बिसी भी कारण से जो श्रद्धा चल और मलिन न हो सके, कोई साथ दे या न देर भीलग्ये जिसके प्रति जीवनकी भी बाजी लगानेवाला परमात्रगाढ संकल्प हो मार्गदर्शवाह-जीसमवपापविहीरइसीज्योतिराजजगने ही माधकको अपने तन्त्रका स्पष्ट दर्शन होने लगता है। उसे स्वानुभति-अर्थात् आत्मानभव प्रतिक्षण होता है। वह समझना है कि धर्म वात्मस्व. रूपकी प्राप्निम है, राह्य पदार्थाश्रित क्रियाकाण्डम नहीं। मीलिए उसकी परिणति एक विलक्षण प्रकारको हो जाती है। उसे आत्मकल्याण, मानवजानिका कल्याण, देश और रामाजके कल्याणके मार्गका स्पष्ट भान हो जाता है। अपने प्रात्यागे भिन्न विनी भी पपदार्थकी अपेक्षा ही दृग्यका कारण है । सूख स्वाधीन वनिमें है। अहिंसा भी यन्ततः यही है कि हमारा परपदार्थ गे स्वार्थसाधनका भाव कम हो । जैसे रवयं जीबिन रहने की इच्छा है उसी तरङ्ग प्राणिमात्रा भी जीवित रहनका अधिकार स्वीकार करें । स्वरूपज्ञान और स्वादिकार भयदाकी न सम्मम्जान है। उनके प्रति दढ़ श्रद्धा सम्यग्दर्शन है और तद्प होनेके यावन प्रलला सम्यक चारित्रई। सा..- अन्यत्र आत्मा चैतन्यका धनी है । प्रनिश्क्षण कीय बदलने हा भी उगकी अविच्छिल धाग अनन्तकालतक चलनी रहेगी। उनका कभी समूल नाश न होगा। एक इन्चका मरे कपन बोर्ट अधिकार नहीं है। रागादि कथा और वागनाएँ आत्माका निजरूप नहीं दिकाग्भाव: । गरीर भी पर है। हमारा ग्रूप ना चैतन्यपात्र है। हमाग अधिकार अपनी गणपयांया पर है। अपने विचार और अपनी यियाआको हम जैसा चाहें वैसा बना सकते हैं। दूमोको बनाना बिगाड़ना हमाल म्वाभाविक अधिकार नहीं है। यह अवश्य है रि. दुराग हमारे बनन बिगड़ने में निमिन होना र निमित्त उपादालकी योग्य-राका ही विकास करता है। यदि उपादान कमजर है नो निमिनके द्वारा अत्यधिक प्रभावित हो सकता । अनः बनना बिगड़ना बहुत कुछ अपनी भीतरी 'मोग्यतापरही निर्भर है। इसतरह अपने आत्मानं स्वरूप ऑर ग्वाधिकारपर अटल थक्षा होना और प्राचार व्यवहारम इसका उल्लघन न कानकी दर प्रतीनि हाना सम्यम्बान है। सम्यग्दर्शनका सम्यग्दर्शन-- मम्यग्दर्शनका अर्थ मात्र यथार्थ देखना या वास्तविक पहिनान ही नहीं है, किंतु उस दर्शनके पीछे होनेवाली दृढ प्रनीनि, जीवन्त श्रद्धा और उसको कायम रखने के लिए प्राणों की भी बाजी लगा देनेका जदर विदनाम ही वस्तुतः सम्बग्दर्शनका स्वरूपार्थ है। सम्यग्दर्शनमें दो शब्द है सम्यक और दर्शन । सम्यक शब्द सापेक्ष है, उसमें विवाद हो सकता हैं। एक मन जिसे सम्यक् समझता है दुसरा मत उसे सम्यक नही मानकर मिथ्या मानता है। एक ही बम्तु परिस्थिति विशेषमें एक को सम्यक् और दूसरेको मिथ्या हो सकती है । दर्शनका अर्थ देखना या निश्चय करना है। इसमें भी भ्रान्तिकी मम्भावना है। सभी मत ने अपने धर्मको दर्शन अर्थात् सामक्षात्कार किया हआ बनाते है, अनः कौन मम्यक और कोन असम्यक तथा कोन दर्शन और कौन अदर्शन Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! ३६ तस्यार्थवृति प्रस्तावना ? ये प्रश्न मानव मस्तिष्कको आन्दोलित करते रहते है। इन्हीं प्रश्नोंके समाधानमें जीवन का लक्ष्य क्या है धर्मकी आवश्यकता क्यों है ? आदि प्रश्नोंका समाधान निहित है। सम्यक्दर्शन एक क्रियात्मक शब्द है, अर्थात् सम्यक् - अच्छी तरह दर्शन देखना । प्रश्न यह है किदेखना, किसको देखना और कैसे देखना ।' 'क्यों देखना तो इसलिए कि मनुष्य स्वभावतः मननशील और दर्शनशील प्राणी होते हैं। उनका मन यह तो विचारता ही है कि यह जीवन क्या है क्या जन्मसे मरतक ही इसकी धारा है या आगे भी ? जिन्दगीभर जो अनेकों और संघर्ष से जूझना है वह किस:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज. लिए? अतः जब इसका स्वभाव ही मननशील है तथा मामों मत प्रचारक मनुष्यको वस्तु स्वरूप दिखाते हुए चारों ओर घूम रहे हैं, 'धर्म इवा, संस्कृति हुबी. धर्म की रक्षा करो, संस्कृतिको बचाओ' आदि धर्मप्रचारकोंके नारे मनुष्य के कानकेक फट रहे हैं तब मध्यको न चाहने पर भी देखना तो पड़ेगा ही यह तो करीब करीब निश्चित ही है कि मनुष्य या कोई भी प्राणी अपने लिए ही सबकुछ करता है, उसे सर्वप्रिय वस्तु अपनी ही आत्मा है। उपनिषदोंमें आता है कि "आत्मनो कामाय सर्व प्रियं भवति।" कुछ स्त्री पुत्र तथा शरीरका भी यह अपनी आत्माकी टिकेलिए किया जाता है। अतः 'किसको देखना इस प्रश्न का उत्तर है कि सर्वप्रथम उस आत्माको हो देखना चाहिए जिसके लिए यह राव कुछ किया जा रहा है, और जिसके न रहने पर यह सब कुछ व्यर्थ है, वही आत्मा है, उसीका अभ्यदर्शन हमकरना चाहिए कैसे देखना इस प्रश्न का उत्तर धर्म और सम्यदर्शन का निरूपण है। 1 जनाजाति 'वत्थुस्वभावो धम्मो यह धर्मकी अन्तिम परिभाषा की है। प्रत्येक वस्तुका अगना निज स्वभाव ही धर्म है तथा स्वभावत होता अधर्म है। मनुष्यका मनुष्य रहता धर्म है पशु बना अधर्म है। आत्मा जब तक अपने स्वरूपने धर्मात्मा है, जरूरी न हुआ अथमा बना। अतः जब स्वरूपस्थिति ही धर्म है तब धर्मकेलिए भी स्वरूपका जाना गितान्न आवश्यक है। वह भी जानना चाहिए कि आत्मा स्वरूप क्यों होता है जलना गरम होना उसकी स्वरूपच्युति है. एतावता यह अधर्म है पर जल चूंकि जट है, अतः उसे यह मान ही नहीं होता कि मेरा स्वरूप नष्ट हो गया है। जैन तत्वज्ञान तो यह कहता है कि जिस प्रकार अपने स्वरूपसे च्युत होना अधमें है उसी प्रकार दूसरेका स्वरूप च्युत करना भी अब स्वयं को करके शान्तस्वरूपसे च्युत होना जितना अधर्म है उतना ही दूसरे के शान्तस्वरूपमें विघ्न करके उसे स्वरूपच्युत करना भी धर्म है। अतः ऐसी प्रत्येक विचार बारा, वचनप्रयोग और शारीरिक प्रवृत्ति अत्र हैं जो अपनेको स्त्ररूपच्युत करती हो या दुसरेकी स्वपच्युतिका कारण होती हो । स्वरूप और स्वाधिकारको मर्यादाका अज्ञान । स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं। प्रत्येक अपने स्वरूप में उपादानके अनुसार होकर भी दूसरेके निमित्तसे प्रभा परिपूर्ण है। इन सबका परिणमन मूलतः अपने दिन होता है। अनन्त अनन द्रव्यांका अर्थात संयोगोंके आधारसे स्वरसतः परिणमन होना रहना आत्माके स्वरूपच्युत होनेका मुख्य कारण नगर अनन्त अचेतन और अनन्न वेतन द्रव्य अपना पर होनेके कारण उनमें वृद्धिपूर्वक पिया नहीं हो सकती जंगी जैसी सामग्री जुटती जाती है गंगा गंगा उनका परिणमन होता रहता है। मिट्टी यदि विप पड़ जाये तो उसका विषरूप परिणमन ही जाता मदिधार पड़ जाय तो सारा परिणमन है। जायगा चैतन द्रव्य ही ऐसे हैं जिनमें बुद्धिपूर्वक ही है। ये अपनी प्रवृतिनो बुद्धिपूर्वक हो साथ ही साथ अपनी बुद्धिके अनधिकार आयोग के कारण दूसरे अपने अधीन करनेष्टा भी करते हैं। यह सही है कि जबतक आत्मा या गरीबक उन पदायकी आवश्यकता होगी और वह परपदार्थोंने बिना जीवित भी नहीं रहना पर इस अनिवार्यस्थिनिमं भी उसे यह सम्यदर्शन तो होना ही चाहिए बिद्यपि आज मेरी अशुद्ध दशादि होनेके कारण नितान्त पर स्थिति और के लिए यत्किचित् परम आवश्यक है पर मेरा निसर्गतः परद्रव्यांपर कोई अधिकार नहीं है Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन का सम्यदर्शन प्रत्येक द्रव्य अपना अपना स्वामी है ।" इस परम व्यक्तिस्वातन्त्र्यको उद्घोषणा जैन तत्वज्ञानियोंने अत्यंत निर्भयता की है और इसके पीछे हजारों राजकुमार राजपाट छोड़कर इस व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी उपासना हते आए हैं। यही सम्यग्दर्शनकी ज्योति है। प्रत्येक आत्मा अपनी ज्ञमान-आत्माथि कार स्वीकार कर के और अचेतन द्रव्यों के संग्रह या परिग्रहको पाप और अनाधिकारटा मात्र ले तो जयतु वुद्ध संघर्ष हिंसा द्वेष आदि क्यों हों ? आत्मरूप होना मुख्य कारण है परसंग्रहाभि लाया और परपरियच्छा प्रत्येक मिध्यार्थी आत्मा यह वाहना है कि संगारके समस्त जीवधारी उसके हमारेपपलें उसके अधीन रहें, उसकी उच्चता स्वीकार करें इसी व्यक्तिगत अनधिकार चेष्टाके फलस्वरूप जगत् जाति वर्ग रंग आदियुक्त वैषम्यक दृष्टि हुई है। एक जाति उच्च अभिमान होनेपर उसने दूसरी जातियोंको नीचा रखनेका प्रयत्न किया। मानवजातिके काफी बड़े भागको अस्पृश्य घोषित किया गया। गोरेरंववालोंकी शामक जाति बनी। इस तरह जाति वर्ष और रंगके आधार से यूट बने और इस गिरोहोंने अपने वर्गकी उच्चता और लिप्साकी पुष्टिकेलिए दूसरे मनुष्योंपर अर्थ fte अत्याचार किए मात्र भोगको वधु ही स्त्री और का दर्जा अत्यन्त पनि समझा गया। जैन तीर्थकरों इस अनधिकार चेष्टाको मियादर्शन कहा और बताया कि इस अनधिकार चेष्टाको समाप्त किये बिना सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं होती । अतः महतः सम्यग्दर्शन-आत्मस्वरूपदर्शन और आत्माधिकारके जानमें ही परिमापायोंमें इसका ही स्वानुभव, स्वानुभूति स्वा तुम जैसे शब्दों वर्णन किया गया है। जैतपरपरा सम्यक दर्शनके विविधरूप पाए जाते हैं (१) तस्वार्थश्रद्धान ( २ ) जिनदेव शास्त्र गुरुका श्रद्धान ( ३ ) आत्मा और परका भेदज्ञान आदि । जनदेव, जंनशास्त्र और जैनगुरुकी श्रद्धा के पीछे भी वही आत्मसमानाधिकारी बात है। जैनदेव परम वीतरागता प्रतीक है उस बीगना और आत्ममायके प्रति सम्पूर्ण निष्ठा र बिना वाय और गुरुभक्ति भी अधुरी है अतः जनदेव शास्त्र और गृहकी धड़ा का वास्तविक अर्थ किसी व्यक्ति विशेषकी श्रद्धा न होकर उन गुणोंके प्रति अटूट बड़ा है जिन गुणों के प्रतीक है। आत्मा और पदार्थोका विवेकज्ञान भी उसी आत्मदर्शनकी ओर इशारा करता है। इसीतरह श्रद्धानमें उन्हीं आत्मा, आत्माको बन्ध करने वाले और आत्माकी मुक्तिमं कारणभूत तत्वां श्रद्धा ही अपेक्षित है। इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि सम्यग्दर्शन आत्मस्वरूपदर्शन और आत्मा कारका परिक्षान तथा उसके प्रति अटूट जीवन बारूप ही है जो रियर हिंसाका कोई स्थान नहीं रह सकता। वह तो मात्र अपनी आत्मपर ही अपना अधिकार समझन दूसरी आत्माओंको या अन्य को अधीन करने की चेष्टाएं हैं उन सभीको प्रथमंही मानता है तरह यदि प्रत्येक मानवको यह आत्मस्वरूप और आत्माधिकारका परिजान हो जाय और का जीवन उसके प्रति निष्ठावान् हो जाय तो संसारमें परम शान्ति और सहयोगका साम्राज्य स्थागित हो सकता है। सम्यग्दर्शनके इस अन्तरस्वरुपी जयह आज बाहरी जवा कामनाओ पूजन और अमुक प्रकारकी द्रव्यने या आज सम्यक्त्व समझी जाती है। जो महावीर और के प्रतीक में आज उनकी पूजा व्यापारलाभ, पुषप्राप्ति भनवायायासि जैसी लिए ही की जाने लगी है। इतना ही नहीं इन तीर्थंकरोंका गया दरबार' कहलाता है। इनके मन्दिरोग शासनदेवता स्थापित हुए हैं और उनकी पूजा और भक्तिने ही मुख्य स्थान प्राप्त कर लिया है। और यह सब हो रहा है सम्यग्दर्शनके पवित्र नामपर जिस सम्यग्दर्शन सम्पन्न भाडाको स्वामी समन्तभद्रनं देवके समान बनाया उसी सम्यग्दर्श कोटमें और शास्त्रों की ओट में जातिगत उच्चरव नीचत्व भावका प्रचार किया जा रहा है। जिम या पदार्थाश्रित या शरीराश्रित भावोंके विनागके लिए आत्मदर्शनरूप सम्यग्दर्शनका उपदेश दिया गया Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ तस्वार्थवृत्ति प्रस्तावना था उन्हीं शरीराश्रित सार्थक आदिके मम श्रीचिपटाया जा रहा है | इसतरह जबतक हमें सम्यग्दर्शनका ही सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होगा तबतक न जाने क्या क्या अलाय बलाय उसके पत्र नामसे मानवजानिका पतन करती रहेगी । अतः आत्मस्वरूप और आत्माधिकारकी मर्यादाको पोषण करने वालो धारा ही सम्यग्दर्शन है अन्य नहीं। यही धर्म है | दो मिथ्यादर्शन- मैंने आगे 'संस्कृतिके सम्यग्दर्शन' प्रकरण में लिखा है कि-गर्भस्य बालकके ९० प्रतिशत संस्कार मां वाके रजोवीर्य के परिपाकानुसार होते हैं और १० प्रतिशत संस्कार जन्मान्तरसे आते है। उन १० प्रतिशत में भी जो मन्द संस्कार होंगे वे इथरकी समग्री से प्रभावित होकर अपना अस्तित्व समाप्त कर देते हैं । अतः जिन संस्कारोम बालककी अपनी बुद्धि कोई कार्य नहीं कर सकती वे सब मां बाप और समाजव्यवस्थाकी देन हैं अर्थात् अगृहीत संस्कार हैं। जिन संस्कारोंको या विचारोंको बालक स्वयं शिक्षा उपदेश श्रादिसे बुद्धिपूर्वक ग्रहण करता है वे गृहीत संस्कार हैं। अब विचारिए कि १८ या २० वर्षको उमर तक, जबतक बालक शिष्य है तबतक मां बाप, समाजके बड़ेबूढ़े धर्मगुरु, धर्मप्रचारक, शिक्षक सभी उस मोमको अपने सांचे में ढालने का प्रयत्न करते हैं। बालक सफेद कोरा कागज है। ये सब मां-बाप, शिक्षक और समाज आदि उस कोरे कागजपर अपने संस्कारानुसार काले लाल पीले धब्बे प्रतिक्षण लगाते रहते हैं और उसकी स्वरूपभूत सफेदीको रंचमात्र भी अवशिष्ट नहीं रहने देना चाहते। जब वह बालिग होता है और अपने स्वरूपदर्शनका प्रयत्न करता है तो अपने मनरूपी कागजको पंचरंगा पाता है. दूसरे रंग तो नाममात्रको हैं काला ही काला रंग है । सारा जीवन उन धब्बों को साफ करनेमें ही बीत जाता | सारांश यह कि यह अगृहीत मिध्यात्व जो मां बाप शिक्षक समाजव्यवस्था आदि कच्ची उमर में प्राप्त होता है दुनिवार है । गृहीत- मिध्यात्वकरे तो जिसे कि वह पूर्व स्वीकार करता है बुद्धिपूर्वक तुरंत छोड़ भी सकता है। अतः पहिली आवश्यकता है- माँ बाप समाज और शिक्षकवर्गको सम्यष्टा बनानेकी । अन्यथा ये स्वयं तो मिथ्यादृष्टि बने ही हैं पर आगेकी नवतीको भी अपने काले विचारोंसे दूषित करते रहेंगे । - जिस प्रकार मिथ्यादर्शन दो प्रकारको है उसी प्रकार सम्यग्दर्शनके भी निसगंज-अर्थात् बुद्धिपूर्वक प्रयत्न विना अनायास प्राप्त होनेवाला और अधिगमज अर्थात् बुद्धिपूर्वक परोपदेश से सीखा हुआ, एस प्रकार दो भेद है। जन्मान्तर से आयें हुए सम्यग्दर्शन संस्कारका निसर्गजमें ही समावेश है अतः जबतक मां बाप. शिक्षक, समाजके नेता, धर्मगुरु और धर्मप्रचारक आदिको सम्यग्दर्शनका सम्यग्दर्शन न होगा तबतक ये अनेक निरर्थक क्रियाकाण्डों और विचारशून्य रूवियोंकी शराब धर्म और सम्यग्दर्शन के नामपर नूतनपोढ़ीको पिलाते जायेंगे और निसर्गमिध्यादृष्टियोंकी सृष्टि करते जायंगे । अतः नई पीढ़ी के सुधारकेलिए व्यक्तिको सम्यग्दर्शन प्राप्त करना होगा। हमें उस मूलभूत तत्त्व - आत्मस्वरूप और आत्माfrerent इन नेताओं को समझाना होगा और इनसे करबद्ध प्रार्थना करनी होगी कि इन कच्चे बच्चोंपर करो, इन्हें सम्यग्दर्शन और धर्मके नामपर बाह्यगत उच्चत्वनीचत्व शरीराश्रित पिण्डशुद्धि आदिमं न उलझा, थोड़ा थोड़ा आत्मदर्शन करने दो। परम्परागत रूढ़ियोंको धर्मका जामा मत पहिनाओ । बुद्धि और विवेकको जाग्रत होने दो। श्रद्धाके नामपर बुद्धि और विवेककी ज्योतिको मत बुझायो । अपनी प्रतिष्ठा स्थिर रखनेकेलिए नई पीढ़ी के विकासको मत रोको स्वयं समझो जिससे तुम्हारे संपर्क में आने वाले लोगोमं समझदारो आवे | रुचिका आम्नाय परम्परा आदिके नामपर आंख मूंदकर अनुसरण न करो। तुम्हारा यह पाप नई पीढ़ीको भोगना पड़ेगा । भारतकी परतन्त्रता हमारे पूर्वजोंकी ही गलती या संकुचित दृष्टिका परिणाम थी, और आज जो स्वतंत्रता मिली वह गान्बीयुगके सम्यग्रष्टानोंके पुरुषार्थका फल है। इस विचारधाराको प्राचीनता, हिन्दुत्व, धर्म और संस्कृतिके नामपर फिर तमः छन मत करो । सारांश यह कि आत्मस्वरूप और आत्माधिकारके पोषक उपहक परिवर्धक और संशोधक कर्त्तव्योंका प्रचार करो जिसमे सम्यग्दर्शनकी परम्परा चले। व्यक्तिका पाप व्यक्तिको तो भोगना ही Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्पराका सम्यग्दर्शन पता है पर उसका मूक्ष्म विश समाजशरीरमं व्याप्त होता है, जो सारे समाजको ही अज्ञातरूपसे नष्ट कर देता है । तुम तो समझ सकते हो पर तुम्हारे बच्चे तो तुम्हारे नामपर न जाने क्या क्या करते जायंगे । अत: उनकी खातिर स्वयं सम्याद्रष्टा बननेका स्थिर प्रयत्न करे। परम्परा का सम्यग्दर्शन प्राचीन नवीन या समीचीन ? मनुष्यमें प्राचीनताका मोह इतना दृढ़ है कि अच्छी से अच्छी बातको वह प्राचीनताके अम्बसे उड़ा देता है और बुद्धि तथा विवेकको ताकमें रख उसे 'आधुनिक' कहकर अग्राह्य बनानेका दुष्ट प्रगल करता है। इस मद मानवको यह पता नहीं है, कि प्राचीन होनेसे ही कोई विचार अच्छा और मार्गदर्शवानं होनेवाकाडी क्सविहामाहारा सकारातमध्यात्व हमेशा प्राचीन होता है, अनादिसे आता है और सम्यग्दर्शन नवीन होता है पर इससे मिथ्यात्व अच्छा और सम्यक्त्व वरा नहीं हो राकता। आचार्य समन्तभद्रम धर्मदेशनाकी प्रतिज्ञा करते हुए लिखा है-"वेशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम ।" इसमें उनने प्राचीन या नवीन धर्मके उपदेवा देनेकी बात नहीं कही है कि वे 'समीचीन' धर्मका उपदेश देना चाहते है। जो समीचीन अर्थात सच्चा हो बुद्धि और विवेकके द्वारा सम्यक् सिद्ध हुआ हो. वही ग्राय है न कि प्राचीन या नवीन । प्राचीन में भी कोई बात समीचीन हो सकती है और नवीनमें भी कोई बात समीचीन । दोनोंम असमीचीन बातें भी हो सकती है। अतः परीक्षा सौर जो खरी समीचीन उतरे वही हमें ब्राह्म है। प्राचीननाके नामपर पीतल ग्राह्य नही हो सकता और नवीनताके कारण सोना त्याज्य नहीं । कलौटी रखी हुई है, जो कसने पर समीचीन निकले वही ग्राम। आचार्य सिद्धसेन दिवाकरने बहुत खिन्न होकर इन प्राचीनता-मोहियोंको सम्बोधित करते हुए छठन्नी द्वात्रिंशनिकाम बहुत मार्मिक चेतावनी दी है, जो प्रत्येक संशोवकको सदा स्मरण रखने योग्य है-- यतिक्षितपण्डितो जनो विवामिच्छति अक्तमतः। न च सत्क्षणमेव शोर्यते जगतः कि प्रभवन्ति देवताः।। समीक्षक विद्वानों के सामने प्राचीनरूढ़िवादी बिना पहा पंडितम्मन्य जब अंसंट बोलनेका साहम करता है, वह तभी क्यों नहीं भस्म हो जाता? क्या दुनियामें कोई न्याय-अन्यायको देखनेवाले देवता नहीं हैं ? पुरातन नियता व्यवस्थितिस्तथैव सा कि परिचिन्त्य सेत्स्यति । तथेति वक्तु मृतकौरवादह न जातः प्रथयन्तु विद्विषः ।। पुराने पुरुषोंने जो व्यवस्था निश्चित की है वह विचाग्नेपर क्या बेनी ही मिद्ध हो सकती है ? यदि समीचीन सिद्ध हो तो हम उसे समीचीनताके नामपर मान सकते है. प्राचीनलार्क नामपर नही। यदि वह समीचीन सिद्ध नहीं होती तो मरे हा पुरुषांक मुठे नौरवकं कारण तथा' हां में हाँ मिलाने के लिए मैं उत्पन्न नहीं हुआ हूँ। मेरी इस समीचीनप्रियताव वारण यदि विरोधी बढ़त है तो बई। श्रद्धावा कबरपर फल तो चढ़ाये जा सकने ई पर उनकी 8211 वानका अन्धानुसरण नहीं किया जा सवना । बहप्रकाराः स्थितयः परस्पर विरोधयक्ता: करमाश निश्चयः। विशेषसिद्धाषियमेक नेति वा पुरातन प्रेमजस्य युज्यते ॥ पुरानी परम्पगएँ महत प्रकारकी है, उनमें परस्पर पूर्व-पश्चिम जैसा विशेष भी है। अत: विना विचार प्राचीनताके नाम पर चटले निर्णय नही दिया जा सकता। किमी कार्य विशेषकी सिद्धिके लिए 'यही व्यवस्था है, अन्य नहीं' 'यही पुगनी आम्गाय ई' आदि जडनाकी बातें परातनप्रेमी जड़ ही कह मकते हैं। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थवनि-प्रत्तावना जनोऽयमन्यस्य स्वर्ष पुरातनः पुरातनरेन समो भविष्यति । पुरातनेष्वित्यनवस्थितेषु कः पुरातनोक्तान्यपरीक्ष्य रोषयेत् ।। आज जिरो हम नयीन कहकर उड़ा देना चाहते है वही व्यक्ति मरनेके बाद नई पीढ़ी के लिए पुराना हो जायगा और पुगतनोंकी गिनतीम शामिल हो जायगा । प्राचीनता अस्थिर है। जिन्हें आज हम पुगना कहते हैं ये भी अपने जमाने में नए रहे होंगे और जो उस समय नवीन कहकर दुरदुराये जाते मार्गदर्शक :ोंगअपेचव आ सुविधासागहमा पहाराजतरह प्राचीनता और पुरातनता जत्र कालकृत है और कालचके परिवर्तनके अनमार प्रत्येक नवीन पुरातनोंकी राशिमें सम्मिलित होना जाता है तब कोई भी विचार बिना परीक्षा किये इस गड़बड़ पूरातनताके नामपर कैसे स्वीकार किया जा सकता है? विनिश्चयं नैति यथा यघालसस्तथा तथा निश्चितवस्प्रसीदति । अवयवाक्या गरयोगमल्पपीरिति व्यवस्यन् स्वयमाय धावति ।। प्राचीनताम्ह आलसी जड़ निर्णयकी अशक्ति होने के कारण अपने अनिर्णम ही निर्णयका भान करके प्रसन्न होता है। उसके तो यही अस्त्र है कि 'अवश्य ही इसमें कुछ तत्व होगा? हमारे पुराने गुरु अमोघवचन थे, उनके वाक्य मिथ्या हो नहीं सकते, हमारी ही बद्धि अस्प है जो उनके वचनों तक नहीं पहुँचती' आदि। इन गिद्धावन आलशी पुरणप्रेमियोंकी ये सद बुद्धिहत्यावं मीचे प्रयत्न हैं और इनके द्वारा ये आत्मविनाशकी ओर ही तेजीसे बढ़ रहे हैं। मनुष्यवृत्तानि मनुष्यलक्षण मनुष्यहेतोनियतानि खैः स्वयम् । अलभपाराण्यलसेषु कर्णधानगाधपाराणि कथं ग्रहीष्यति ॥ जिन्हें हम पुरानन कहते हैं वे भी मनुष्य ही थे और उन्होंने मनुष्योंकेलिए ही मनुष्यचरिओंका वर्णन किया है। उनमें कोई बी चमत्कार नहीं था। अतः जो आलमी या बुद्धिजड़ हैं उन्हें ही वे अगाध गहन या रहग्यमय मालूम हो रावत पर जो समीक्षक बेना मनरवी है वह उन्म आंख मदकर 'गहन रहस्य के नामपर कैसे स्वीकार कर सकता है। यदेव किञ्चित् विषमप्रकल्पितं पुरातनरूपमिति प्रशस्यते । विनिश्चिताप्यन मनुष्यवाक्कृतिन पठ्यते यत्स्मृतिमोह एव सः ।। कितनी भी असम्बद्ध और अरांगत बातें प्राचीननाके नामपर प्रशंसित हो रही हैं और चल रही है। उनकी असम्बद्धना पुशननोक्त और हमारी अशक्ति' के नामपर भूषण बन रही है तथा मनुष्यकी प्रत्यक्षसिद्ध बोधगम्य और यक्तिप्रवण भी रचना आज नवीनना नामपदरदराई जा रही है। यह तो प्रत्यक्षके ऊपर स्मृतिकी विजय है। यह मात्र स्मतिमझता है। इसका विबेक या समीक्षणसे कोई सम्बन्ध नहीं है । न गौरवाक्रान्तमतिर्षिगाहते किमत्र युक्त किमयुक्तमर्षतः । गुणायबोधप्रभवं हि गोरखं कुलागनावृत्तमतोऽन्यथा भवेत् ॥ प्राननके मिथ्यागीरबका अभिमानी व्यक्ति वक्त और अयक्तवर विचार ही नहीं कर सकता। उसकी बुद्धि उम श्रोथ बडप्पनसे इतनी दब जाती है कि उसकी विचारशक्ति सर्वथा रुद्ध हो जाती है। अन्नमें आचार्य लिखने है कि गोत्र गुणकता है। जिसमें गणं है वह वाहे प्राचीन हो या नवीन या मध्ययगोन, गौरवके योग्य है। इसके सिवाय अन्य गौरवके नामका होल पीटना किसी कलकामिनीके अपने कुलक नाममे सतीत्वको सिद्ध करनेके समान ही है। ___कवि कालिदासने भी इन प्राचीनताबद्धबुद्धियोंका परप्रत्यक्नेयवृद्धि कहा है । वे परीक्षकमतिकी सराहना करते हए लिखते हैं पुराणमित्येव न साधु सन चापि काय नवमित्यवतम् । सन्तः परीक्ष्यान्यत रद भजन्त मूः परप्रत्ययनेय वृद्धिः ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंस्कृति का सम्यग्दर्शन अर्थात् सभी पुराना अच्छा और सभी नया बना नहीं हो सकता। समझदार परीक्षा करके उनसे ममीचीनको ग्रहण करते हैं। मह ही इसरोंके बहकावेम आता है। अत: इस प्राचीनताके मोह और नबीननामावनिको कार्यसमाधीसविताखामकली समाज चाहिए तभी हम जतन पीढ़ीकी मतिको समीचीन बना सकेंगे । इस प्राचीनताके मोहने अमंच्य अन्धविश्वासा. कुरूढ़ियों, निरर्थक परम्पराओं और अनर्थक लाम्नाय को जन्म देवर मानवक्री सहजद्धिको अनन्त भमोमें डाल दिया है। अत: इसका सम्यग्दर्शन प्राप्तकर जीवनको समीक्षापूर्ण बनाना चाहिए । संस्कृति का सम्यग्दर्शन मानवजातिका पतन-आत्म स्वरूपातर अजान ही मानवजानिके पनन्दकार मुख्य कारण । मनष्य एत्र. सामाजिक प्राणी है। यह अपने आसपासके मनुष्याक। प्रभावित करता है। बच्चा जब उत्पन्न होता है तो बहन कम संस्कारों को लंबर आता है। उत्पनिकी दात जाने दीजिये । यह आत्मा जब एव देहको छोड़कर दूसरा दारीर धारण करने के लिए किमी स्त्रीके गर्भमै गहुँचता है तो बहुत कम मंस्कारोंको लेकर जाना है। पूर्व जन्मको यावन यक्तियों उसी पर्यायके माथ समाप्त हो जाती हैं. कुछ शुक्ष्म संस्कार दी जन्मान्तर तक आते हैं । उस समय उसका आत्मा सूक्ष्म कार्मण शरीरके माथ रहता है । वह जिस स्त्रीक गर्भ में पहुँचता है यहाँ प्राप्न वीयंत्रण और रजःकणसे नए कलपिण्डम विवामित होने लगना है। जैसे गंस्कार उस रज:कण और वकणम होंग उनके अनुसार तथा याताके आहार-विहार-विचारोके अनुकल वह बदन लगता है। वह ना कोन मोमके रामान है जैमा सांचा मिल जायगा वैसा हुल जायगा। अत: उसका ०९ प्रतिगन विवाग मातापिताके संस्कारांके अनुसार होना है। यदि उनम कई गारीरिक या मानसिक वीमारी है तो यह बच्चम अवश्य आजायगी। जन्म देने के बाद वह मां बापके शब्दोंको सुनता है जनको त्रियाआको देखना है । आमपामके लोगोंके यवहारक सम्बार उसपर क्रमशः पड़ते जाते है। एक ब्राह्मण से उत्पन्न वारकको जन्मने ही यदि विगी म सलमान के यहां पालनको रच दिया जाय तो उसमें मलाम दृझा करना, मांग खाना, मी पात्रसे पानी पीना उसीगे टट्रो जाना आदि सभी बात मसालमानों देगी होन लगती है। यदि बह किम भेड़ियेकी मांदमं चला जाता है तो वह चौपायोंकी तरह वाने लगा है, कपड़ा पहनना भी उसे नी मुहाना, नारत्नग दरारोंको नानना है. दारीरके आकार के मित्राय मारी बात भंडिया जनी हो जाती है । चदि किगी चापडानका बालक ब्राह्मणवे. यहां पले नो उनमें वहन कुछ संस्कार ब्राह्मणांक आ जाते हैं। हां. नौ माह नई. चाण्डालीक गरीरसे.जो सरकार उभभ पड़ है, वे कभी भी उदबद्ध होकर उसके चाण्डालनवा परिचय करा देते हैं। तात्पर्य यह कि मानवजाति को नुतन पीढ़ी के लिए बहुत कुछ मां बार उनन्दायी है । उनकी वरी आदत और खोरे विचार नवीन पाहीम अपना घर बना लेज हैं। आज जगत्म माविला हे हैं कि-'गरऋतिकी रक्षा करो.गाकृति जी, संस्कृति डवीटो बचाओ।' इम सस्कृति नामपर उसके अजायबघ अनंक प्रबाकी बड्दगी भरी हुई है । कल्पित ऊत्त-नोच भात्र. अमकप्रकार के आचार-विचार, महनगहन. बोलनाबारना. उटना टना आदि सभी शामिल हैं। हम तरह जब चागं ओर से मतिरक्षाकी आवाज आ रही है और वह उनि भी है तो सत्रग परिले संस्कृतिकी ही परीआ दंगा जगई। नही गं कृतिबे नामपर मानवजानिक विनाशके माधनोवा पोषण तो नहीं किया जा रहा है । विन्दम अंग्रेज जानि ग्रह प्रचार करना ही कि गोरी जानिको ईश्वरन काली जातिपर शासन करनेकेन्लिाहीमतल पर भेजा और उनी कुरांस्कृतिका प्रचार काके में भारतीयोंपर शासन कान रहे । यह ना हम लोगोंन उनके ईश्वरको बाध्य किया कि यह अब उनग कह दे कि अब शासन करना छोड़ दो और उनन बाध्य शकर छोड़ दिया । जमनीने अपने नवयुवकाम इस संस्कृतिका प्रचार किया था चि-जर्मन आर्य रक्त है। वह सर्वोत्तम है। वह यह क्यिोंक विनाशके लिया है आर जगतम गामन Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ तत्त्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना करनेकी योग्यता उसी में है। यह भाव प्रत्येक जर्मनयुवक उत्पन्न किया गया। उसका परिणाम द्वितीय महायुद्धके रूपमं मानवजातिको भोगना पड़ा और ऐसी ही कुसंस्कृतियोंके प्रचारसे तीसरे महायुद्धकी सामग्री इकट्ठी की जा रही है। भारतवर्ष में सहस्रों वर्षसे जातिगत उच्चना नीचया, टुआछत, दासीदामप्रथा और स्त्रीको पददलित करनेकी संस्कृतिका प्रचार धर्मकार्यनलिने किया नमामी यसमिनिममरगती अहायात्राषिन किया, स्त्रियोंको मात्र भोगविलासकी सामग्री बनाकर उन्हें पशुम भी बदतर अवस्था में पहुँचा दिया। रामायण जैसे वर्भ जप "ढोल गवार शद्र पशु नारी में सब ताड़नके अधिकारी।" जैसी व्यवस्याएँ दी गयी हूँ और मानवजातिमं अनेक कल्पित भेदोंकी मुष्टि करके एक वर्गके गोषणको वर्गविशेषके शासन और विलासको प्रोत्माहन दिया, उसे पुण्यका फल बताया और उसके उच्छिष्ट कणसे अपनी जीविका चलाई। नारी और शूद्र पश के समान करार दिये गये और उन्हें बोलकी तरह ताडनाका पात्र बनाया। ग धर्माना को आज संस्कृतिके नामगे पुकारा जाता है। जिस पुरोहितवर्गकी धर्मसे आजीविका चलती है उनकी पूरी सेना इस मंस्कृतिकी प्रचारिका है। गुओको बगाने राजके लिए उत्पन्न किया है अनः ब्रह्माजीके नियमके अनुसार उन्हें यज्ञ बोको। गौडी रक्षाके बहाने मुगलमानोंको गालियां दी जानी न पर इन याजिकोंकी यज्ञयालामें गोमेध यन धर्म के नामपर बगबर होते थे । अतिथि सत्कारक लिए इन्हें गायकी बरियाका भर्ता बनानेम कोई मंकोच नहीं था। कारण स्पष्ट था-'ब्राह्मण ब्रह्माका मुख है, धर्मशास्त्रको रचना उसके हाथ में थी। अपनं वनके हित के लिए वे जो चाहे लिख सकते थे। उननं तो यहांतक लिखनेका साहस किया है कि-"ब्रह्माजोने गष्टिको उत्पन्न करके ब्राह्मणों को सौंप दी थी अर्थात् ब्राह्मण इरा सारी सृष्टिके ब्रह्माजीसे नियुवत' स्वामी है। ब्राह्मणोंकी असायधानीसे ही दूसरे लोग जगन के पदाकि स्वामी बने हुए हैं। यदि ब्राह्मण किसीवो मारकर भी उसकी मंगनि छीन लेता है तो वह अपनी ही वस्तू वापिस देता है। उसकी बह लट सत्कार्य है । वह उस ना उद्धार करता है।" इन ब्रह्ममखोंने ऐसी ही स्वार्थपोषण करनेवाली व्यवस्थाएं प्रचारित की, जिममें दूसरे लोग जाह्मणव. प्रभुत्वको न भूलें । गर्भसे लेकर मग्णनक सैकडों नखार इनको आजीविकाकलिए यामम हुए। मरणके बाद श्राद्ध, पापिन बाषिक आदि थाद्ध इनका जीविकाके आधार बने । प्राणिया नैगिक अधिकारोबो अपने आधीन बनाने के आधारपर संस्कृतिक नामसे प्रगर होता रहा है। 'ऐसी दशा में इस संस्कृतिका सम्यग्दर्शन हुए विना जगदमें शान्ति और व्यक्षिकी भक्ति में ही सवनी है? वर्गविशेषकी प्रभुताके लिए किया जानेवाल यह विषेला प्रचार ही मानवजातिब पतन और भारतकी पराधीनताका कारण हुआ है। आज भारतमें स्वातन्थ्योदय होनपर भी वही जहरीली धारा "संस्कृति रक्षा के नामपर युवकोंके कोमल मस्तिष्कों में प्रवाहित करनेका पूरा प्रयत्न वही वर्ग कर रहा है। हिंदीकी रक्षाके पीछे वही भाव है। पुराने समयमं इस बगने संस्कृतका महत्ता दी थी और संस्कृतके उच्चारणको पुण्य और दूसरी जनभाषा-अपञ्चशके उच्चारणको पाप बताया था। नाटकाम रत्री और शूद्रोंसे अपभ्र या प्राकृत भाषाका बृलवाया जाना उसी भाषाधारित उच्चनीच भावका प्रतीक है। आज मम्मृतनिष्ठ हिन्दीका समर्थन करनेवालोंका वड़ा भाग जनभाषाकी अवहेलनाके भावसे ओतप्रोत है। अनः जबतक जगतके प्रत्येक द्रव्यकी अधिकारमीमाका वास्तविक यथार्थदर्शन न होगा तबतक यह धाँधली चलती ही रहेगी। धर्मरक्षा, नंस्कृतिरक्षा, गोरक्षा, हिन्दीरक्षा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, धर्म संघ आदि इसके आवरण है। जैन संस्कृतिने आत्माके अधिकार और स्वरूपकी औरही सर्वप्रथम भ्यान दिलाया और कहा कि इसका सम्यग्दर्शन हुए बिना बन्धनमोक्ष नहीं हो सकता। उसकी स्पष्ट घोषणा(१) प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है उसका मात्र अपने विचार और अपनी क्रियाओंपर अधिकार है, वह अपने ही गुण पर्यायका स्वामी है। अपने सुधार-बिगाड़का स्वयं जिम्मेदार है । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति का सम्यग्दर्शन (२) कोई ऐसा ईश्वर नहीं जो जगतके अनन्त पदार्थोंपर अपना नांगवः अधिकार रखना हो. पूष्य पापका हिसाव रखता हो और स्वर्ग या नरक में जीवोंको भेजता हो, सष्टिका नियत्ता हो। (३) एक आत्माका दूसरी आत्मापर तथा जर द्रव्योंपर कोई स्वाभाविक अधिकार नहीं है। दुमरी आत्माको अपने अधीन बनानेकी चेष्टा ही अनधिकार चेष्टा अन एव हिना और मिथ्या दृष्टि है। (४) दूसरी आत्माएँ अपने स्वयंक विचारांमे यदि किगी एकको अपना नियन्ता लोक व्यवहारकेलिए नियुक्त करती या चुनती हैं तो यह उन आन्माओंका अपना अधिकार आ न कि उस चने जानेवाले व्यक्निवा जन्मसिद्ध अधिकार । अतः मारी लोक व्यवहार व्यवस्था सहयोगपर ही निर्भर न वि जन्मजान अधिकारपर । (५) ब्राह्मण क्षत्रिवादि वर्णव्यवस्था अपने गुणकर्मके अनुसार है जन्मसे नहीं 1 (६) गोत्र एक जन्ममें भी बदलता है, वह गुण-कर्मक अनसार पग्वितित होता है। (७) परद्रव्योंका मंग्रह और परिग्रह ममकार और अहंकारका हेतु हानेमे बन्धकारक है। (८) दूसरे द्रव्योंको अपने अधीन बनाने की चेष्टाही मुमस्त अशान्ति दुख संघर्ष और हिंसाका मुल है। जहां तक अचेतन पदार्थोके परिग्रहका प्रश्न है यह छीनाझपटीका कारण होनसे राक्लेशकारक है, अतः हेय हैं । (९) स्त्री हो या पुरुष धर्म में उसे कोई रुकावट नहीं। यह जदी बात है कि स्त्री अपनी यारीमार्गदर्शक सिमाधीश्रीनवावाहीसमितरजीहारी हो।। (१०) किसी वर्गविशेषका जन्मजात कोई धर्मका का नहीं है। प्रत्यक आत्मा धर्मका अधिकारी है। ऐसी कोई क्रिया धर्म नहीं हो सकती जिसमें प्राणिमात्र का अधिकार न हो।। (११) भाषा भाषोंको दूसरेतक पहुँचानेका माध्यम। अतः जनताकी भाषा ही ग्राह्य है। (१२) वर्ण जाति रंग और देश आदिके कारण आत्माधिकारम भव नहीं हो सकता में सब शरी राश्रित है। (१३) हिंदू मसलमान सिख ईसाई जैन बौद्ध आदि पम्यभेद भी थाल्माधिकारके भेदक नहीं हैं। (१४) वरतु अनेकधर्मात्मवः है उसका विचार उदारदृष्टिले होना चाहिए। सीधी बात तो यह है कि हमें एक ईश्वरवादी शासकांस्कृतिका प्रचार इप्ट नहीं है। हम नो प्राणिमात्रको समन्नन बनाने का अधिकार स्वीकार करनेवालो सर्वसमभात्री संस्कृतिका प्रचार करना है। जबतक हम इस सर्वसमानाधिकारवाली मर्वसमा गंरकृतिका प्रचार नहीं करेंगे नबनक जातिगा उभ्वत्व नीचत्व, बाणाधित तुन्छन्व आदिक रषित विचार पीकी दरपीढ़ी मानवगमाजवी पतनकी ओर & जायगे। अतः मानय मगाजकी उन्नतिके लिए आवश्यक है कि संस्कृति और धर्म विषयक दर्शन स्पष्ट और सम्यक् हो। उसका आधार सवभूतमंत्री हो न वि वर्ग विशेषका प्रभुत्व या जाति विशेषका उच्चस्व । ___ इम तन्ह जब हम इस आध्याल्मिक संस्कृतिक विपलमें स्वयं सम्यग्दर्शन प्रान करंग तनी हम मानवजानिका विकास का मकंगे। अन्यथा यदि हमारी दृष्टि मिथ्या हुई जो हम तो पतित हैं ही अपनी सन्तान और मानव जातिका बड़ा भारी अहित जरा विषाक्त सत्रकला संस्कृतिका प्रचार करके करने । अत: मानवसमाजके पतनका मुख्य कारण मिथ्यादर्शन और उत्थानका मन साधन सम्यग्दर्शन ही हो सकता है। जब हम स्वयं इन रारामभावी उदार भावाम मुस्कृत होंग तो वही संस्कार स्तबाग हमारी सन्तानमें तथा विचारप्रचार द्वारा पाग पड़ौसके मागवमन्लानाम जायगे और इस नाम हम एमी नतन पीकोका निर्माण करने में समरांग जो अहिम समाज रचनाका आधार बनेगी। यही भारतभूमिकी विशेषता है जो इसने महावीर और बई जमघमणमन्नः प्राग श उदार आध्यात्मिनाका सन्देश जगत को दिया। आज विश्व भौतिकविषमताले पाहि पाटि नार रहा। जिन हाथमें बाह्य Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्यवृत्ति प्रस्तावना साधनोंको सत्ता है अर्थात् आध्यात्मिक दृष्टिसे जो अत्यधिक अनधिकार चेष्टा कर पर इको हस्तगत करनेके कारण मिध्यादृष्टि और बंधनान् है वे उस सत्ताका उपयोग दूसरी आत्माओं को कुचल नेमें करना चाहते हैं, और चाहते हैं कि संसारके अधिक से अधिक पदार्थोंपर उनका अधिकार हो और इसी लिप्साके कारण वे संघर्ष हिंसा अशान्ति ईर्षा युद्ध जंसी तामस भावनाओं का सृजन कर forest for कर रहे हैं। धन्य है, इस भारतको जो उसने इस बीसवीं सदीमें भी हिंसा बरता के इस दानवयुगमें भी उससे आध्यात्मिक मानवताका संदेश देनेके लिए गान्धी जैसे सन्तको उत्पन्न किया। पर हाय अभागे भारत, तेरे ही एक कपूतने, कपूतने नहीं, उस सर्वकषा संस्कृतिने जिसमें जातिगत उच्चत्व आदि कुभाव पुष्ट होते रहे हैं और जिसके नाम पर करोड़ों धर्मजीवी लोगों की आजीविका चलती है. उस सन्तके शरीरको बोलीका निशाना बनाया। गान्धीकी हत्या व्यक्तिकी हत्या नहीं है यह तो उस अहिसक सर्वसमा संस्कृतिके हृदयपर उस दानवी साम्प्रदायिक हिन्दूकी ओटमें हिंसक विद्वेषिजी सर्वसंस्कृति विषयक सम्यग्दर्शन प्राप्त करना ही होगा और सवसमा आध्यात्मिक अहिंसक संस्कृतिकं द्वारा आत्मस्वरूप और आत्माferent सम्यग्ज्ञान लाभ करके उसे जीवनमें उतारना होगा तभी हम बन्धनमुक्त हो सने स्वयं स्वतन्त्र रह सकेंगे और दूसरोंको स्वतन्त्र रहने की उच्चभूमिका तैयार कर सकेंगे । या संस्कृतिका प्रहार मोदक सारांश यह कि पतनका, नाहे वह सामाजिक हो राष्ट्रीय हो या वैयक्तिक--मूल कारण मिथ्यादर्शन अर्थात् वृष्टिका मिथ्यापन-स्वरूपविभ्रम ही है। दृष्टिमिव्यात्यके कारण ज्ञान मिया बनता है और फिर समस्त क्रियाएँ और आचरण मिथ्या हो जाते हैं। उत्थानका क्रम भी दृष्टि सम्यक्त्व अर्थात् सम्यग्दर्शनसे - प्रारम्भ होता है । सम्यग्दर्शन होते ही ज्ञानकी गति सम्यक् हो जाती है और समस्त प्रवृत्तियाँ सम्यकत्वको प्राप्त हो जाती है। इसप्रकार बन्धनका कारण मिथ्यात्व और मुक्तिका कारण सम्यक्त्व होता है। अध्यात्म और नियतिवाद का सम्यग्दर्शन- पदार्थस्थिति- नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः " - जगतमें जो सत् हूँ उसका सर्वधा विनाश नहीं हो सकता और सर्वथा नए किसी असत्का सद्रूपमें उत्पाद नहीं हो सकता। जितने मौलिक द्रव्य इस जगत में अनादिसे विद्यमान हैं वे अपनी अवस्थाओंमें परिवर्तित होते रहते हैं। अनन्त जीव अनन्तानन्त पुगल अणु एक धर्मद्रव्य एक अधर्मद्रव्य, एक आकाश और असंख्य कालाणु इन्द्रसे वह लोक व्याप्त है। मे छह जातिके द्रव्य मौलिक है, इनमेंसे न तो एक भी द्रव्य कम हो सकता है और न कोई नया उत्पन्न होकर इनकी संख्या में वृद्धि ही कर सकता है। कोई भी द्रव्य अन्यद्रव्यरूप में परिणमन नहीं कर सकता। जीव जीव ही रहेगा पुद्गल नहीं हो सकता। जिस तरह विजातीय द्रव्यरूपमें किसी भी व्यका परिणमन नहीं होता उसी तरह एक जीव दूसरे खजातीय जीवद्रव्यरूप या एक पुद्गल दूसरे सजातीय पुद् गलद्रव्यरूपमें परिणमन भी नहीं कर सकता। प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायों अवस्थाओंकी धारा प्रमाहित है। वह किसी भी विजातीय या सजातीय द्रव्यान्तरको धारामें नहीं मिल सकता। यह सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तरमें असंभान्ति प्रत्येक मौलिकता है। इन द्रव्योंमें नर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशदव्य और कालद्रव्यों का परिणमन सदा शुद्ध ही रहता है, इनमें त्रिकार नही होता, एक जैसा परिणमन प्रतिसमय होता रहता है । जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में 'शुद्धपरिणमन भी होता है तथा अशुद्ध परिणमन भी इन दो द्रव्योंमें क्रियाशक्ति भी है जिससे इनमें हलन चलन आना जाना आदि क्रियाएँ होती हैं। शेष द्रव्य निष्क्रिय हैं, वे जहाँ है वहीं रहते है। आकाश सर्वव्यापी है। धर्म और अधर्मं लोकाकाशकं बराबर हैं । पुद्गल और काल अणुरूप है। जीव असंख्यातप्रदेशी है और अपने शरीरप्रमाथ विविध आकारों में मिलता है। एक युगलद्रव्य ही ऐसा है जो सजातीय अन्य पुद्गलद्रव्य से मिलकर स्कन्ध बन जाता है और कभी कभी इनमें इतना रासायनिक मिश्रण हो जाता है कि उसके अणुओ की पृषक सलाका मान करना भी कठिन होता है। तात्पर्य यह कि जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्यमं अशुद्ध परिणमन होता है और वह एक दूसरे rx Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मह सहाज मार्गदर्शक : आचार्य श्री के निमित्तसे पुद्गलमें इतनी विशेषता है कि उसकी अन्य जागी पुगलोंगे मिलकर स्कन्ध-पर्याय भी होती है पर जीवकी दूसरे जीवसे मिलकर स्वच्छ पर्याय नहीं होती। दी विजातीय द्रव्य बैंकर एक पर्याय प्राप्त नहीं कर सकते। इन दो व्यकेि विविध परिणमनोंका स्थूलरूप यह दृश्य जगत् है । व्य-परिणमन- प्रत्येक द्रव्य परिणामनित्य है । नष्ट होती है उत्तर उत्पन्न होती है पर मूलद्रव्यकी धारा अविच्छिन्न चलती है। यही उत्पाद व्यव-ध व्यात्मकता प्रत्येक द्रव्यका निजी स्वरूप है। धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्यों का सदा शूद्ध परिणमन हो होता है। जीवद्रव्यभ जो मुक्त जीव हैं उनका परिणमन शुद्ध ही होता है कभी भी अशुद्ध नहीं होना । बगारी जीव और अनन्त पुद्गलद्रव्यका शुद्ध और अब दोनों ही प्रकारका परिणम होता है। इतनी विशेषता है है कि जो संसारी जीव एकवार मुक्त होकर शुद्ध परिणमनका अधिकारी हुआ वह फिर को भी अशुद्ध नहीं होगा, पर पुद्गलद्रव्यका कोई नियम नहीं है। वे कभी कन्ध वनकर अशुद्ध गणिमन करते हैं तो परिमाणुरूप होकर अपनी शुद्ध अवस्था में आ जाते हैं फिर स्कन्ध बन जाते हैं इस तरह उनका विविध परिणमन होता रहता है। जीव और पुनमें वैमाविकी शक्ति है, उनके कारण विभाव परिणमनको भी प्राप्त होते है। • प्रगतशक्ति-धर्म अधर्म, आकाश में तौन द्रव्य एक एक एक है। काळा असंख्यात हैं। प्रत्येकाला एक जगी शक्तियाँ है। बाकी विभागप्रतिछंदवादी शनि एक काही दूसरे में इस तरह परस्पर दाक्ति-विभिन्नता या परिणमनविभिन्नता नहीं है। पुद्गलद्रव्यके एक अणु जितनी शक्तियों में उतनी ही और भी ही दाक्तियाँ परिणमनयोग्यताएँ अन्य पुद्गलाओं में है। मूलत पुदगल अद्रव्यों में शक्तिभेद, योग्यताभेद या स्वभावभेद नहीं । यह तो सम्भव है कि कुछ पुद्गलाण मूलन विग्ध वाले हों और दूसरे मुलतः रुक्ष, कुछ पी और कुछ उष्ण, पर उनके वे मृग भी नियत नहीं है, गुणवाला भी अणु स्निग्धगुणवाना बन सकता है तस्मिम्यगुणवाला भी सीग भी उष्ण बन उकता है उष्ण भी मीन नात्पर्य यह किला ओम ऐसा कोई जातिभेद नहीं है जिसमे किसी भी गलाका पगलसम्बन्धी कोई परिणमन न हो सकता हो । पुद्गल के जितने भी परिणमन हो सकते है उन सबकी योग्यता और शक्ति प्रत्येक उद्या स्वभावतः हूँ। यही किलाती है। | स्वस्थ अवस्था पर्यायशक्तियां विभिन्न हो सकती हैं। जैसे किसी अग्निस्कन्पमें सम्मिनित परमाणुका उष्णस्पर्श और तेजोरूप था. पर यदि वह अग्निस्कन्धमे जुदा हो जाना कृष्णरूप हो सकता है, और यदि स्कल्प ही भस्म बन जाय भी सभी मांओंकर रूप और स्पर्श आदि फते हैं। I ४५ सभी जीवद्रव्योंकी मूल स्वभावतयों एक जैसी हैं, ज्ञानादि अनन्नगुण और अनन्त न्य परिणमनकी शक्ति मूलतः प्रत्येक जीवद्रव्य में है। हो, अनादिकालीन अशुद्धता के कारण उनका विकान विभिन्न प्रकार होता है। वाहे भव्य हो या अगला ही प्रकार प्रत्येक जीव एक जैसी शक्तिय आवार हैं। शुद्ध दशामें गभी एक जैसी यक्तिक स्वामी बन जाते है और प्रतिसमय अखण्ड शुद्ध परिणमनन रहते है। मारी जीवाम भी मुलतः सभी शक्तियां इन विशेष है कि भव्यजीवन केवल ज्ञानादि शक्तियोंके आविर्भावकी शक्ति नहीं मानी जाती उपयुक्त विवेचनमे एक वात्र निवादरूप स्पष्ट हो जाती है कि चाहे द्रव्य चेतन हो या अत्यंत अपनी अपनी चेतन-अनंतन शकि पनी है उनमें कहीं कुछ भी नापिता नहीं है अदा अन्य पक्तियां भी उन शेती और विलीन होती रहती है। पण सीमा उनिक द्रव्यों में परिणमनहर सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तरमें परिणमत नहीं कर सकता। अपनी धाराम सदा उसना परिणमन होता रहता है। द्रव्यगत मूल स्वभावकी अपेक्षा प्रत्येक द्रव्यके अपने परिणमन नियत है। किसी भी सभी दुगन्धी परियमन यथासमय हो सकते हैं और किसी भी जीवके जीवसम्बन्धी अनन्त परिणमन। यह तो सम्भव यह तो सम्भव है कि कुछ पक्तियों म भी कोई भी Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ तत्वार्थवृत्ति प्रस्तावना मन्ध रखनेवाले परिणमत कारणभूत पर्यायशक्तिके न होने पर न हों। जैसे प्रत्येक पुद्गलपरम शु पिट बन सकता है फिर भी जबतक अमूक परमाणु मिट्टी स्वरूप पर्यायको प्राप्त न होंगे तब तक उनमें मिट्टीरूप पर्यायशक्ति के विकासले होनेवाली पटपर्याय नहीं हो सकती। परन्तु मिट्टी पर्यायसे होनेवाली घट सकोग आदि जितनी पर्यायं सम्भावित है व निमित्त के अनुसार कोई भी हो सकती ई जैसे जीव मनुष्यपर्याय अखिसे देखनेकी योग्यता विकसित है तो वह अमुक समयमें जो भी सामने आयगा उसे देखेगा। यह कदापि नियत नहीं है कि अमुक समयमे अमुक पदार्थको ही देखनेकी उसमें योग्यता है गंषकी नहीं, या अमुक पदार्थ में उस समय उसके द्वारा ही देखे जानेकी योग्यता है। या नहीं। मतलब यह कि परिस्थितिवश जिस पर्यायशक्तिका द्रव्यमें विकास हुआ है उस शक्ति से होने का जिस कार्यकी सामग्री या बलवान् निमित्त मिले उसके अनुसार उसका वैसा परिणमन होता जायगा । एक मनुष्य गद्दीपर बैठा है उस समय उसमें हँसना- रोना, आश्चर्य करना, गम्भीरतामे सोचना आदि अनेक कार्योंकी योग्यता है यदि बहुरूपिया सहमने आजाय और उसकी उसमें पी हो तो हंसरून पर्याय हो जायगी। कोई लोकका निमित्त मिल जाय तो ये भी गड़ता है। अकस्मात् बात सुनकर आश्चर्यमें डूब सकता है और तत्वचर्चा सुनकर गम्भीरतापूर्वक गोभी सकता है मार्गदर्शक यह आचार्य इत्येव्या प्रतिसमयका परिणमन नियत है उसमें कुछ भी हेर-फेर नहीं हो सकता और न कोई हेर-फेर कर सकता है द्रव्य के परिणमनस्वभावको गम्भीरता न सांचने के कारण भ्रमात्मक है । द्रव्ययत परिणमन नियत है। अमुक स्युपगत शक्तियोंक परिणमन भी नियत हो सकते हैं की उस पर्यायद्यक्ति सम्भावनीय परिणयनों से किसी एकरूपमें निमि सकती तानुगार सामने आते हैं। जैसे एक अंगुली अगले समय टेड़ी हो सकती हैं, सीधी रह सकती है, टूट है घूम सकती है. जैसी सामग्री और कारण -कलाप मिलेंगे उसमें विद्यमान इन सभी योग्यताओं से अनुकूल योग्यता विकास हो जागया। उस कारणशक्ति से यह अमुक परिणमन भी नियत कराया आ सकता है जिसकी पूरी सामग्री अविकल हो और प्रतिबन्धक कारणकी सम्भावना न हो, ऐसी अन्तिमक्षणमान शक्तिमे वह कार्य नियत ही होगा, गर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि प्रत्येक द्रव्यवा प्रतिक्षणका परिचमन सुनिश्चित है उसमें जिसे जो निमित्त होना है नियतित्र पेटमें पड़कर ही वह उसका निमित्त मेगा हो। यह अनिसुनिश्चित है कि हरएक प्राका प्रतिसमय कोई न कोई परिणमन होना चाहिए पूरा सरकारोंके परिणामस्वरूप कुछ ऐसे निश्चित कार्यकारणभाव बनाए जा सकते 1 है दिन यह नियत किया जा सकता है कि अमुक समय इस व्यका ऐगा परिणमन होगा ही, पर इस काफी अवश्यभाविना सामग्री की अविकलता तथा प्रतिवन्धक कारणकन्या पर ही निर्भर है। जैसे हल्दी और चुना दोनों एक में डाले गये तो वह अवश्यंभावी है कि उनका रंगका परिणमन हो । एक बात यहाँ वह शामतीरसे ध्यान में रखने की है कि अवेतन परमाणुओं में बुद्धिपूर्वक किया नहीं हो सकती उनमें अपने संयोगोंके आधार ही किया होती है, भले ही वे संयोग पेतन द्वारा मिलाए गए हों या प्राकृतिक कारणोग मिले हों जंगे पृथिवीमें कोई बीज पड़ा हो तो सरदी गरमीका निमित्त पाकर उनमें अंकुर आ जायगा और पल्लवित पुष्पित होकर पुनः बीजको उत्पन्न कर देगा। गरमीका निमित्त पाकर जन भाप बन जायगा । पुनः सरीका निमित्त पाकर भाग जलके रूपमें बरसकर विमल बना देगा कुछ ऐसे भी अन द्रव्योंके परिणमन हैं जो चेतन निमित्तसे होते है. जैसे मिट्टीका बड़ा बनना या रुईया कपड़ा बनना वा यह कि अतीत के संस्कारवश वर्तमान अपमें जिमनी और जैसी योग्यताएँ विकसित होगी और जिनके विकास के अनुकूल निमित्त मिलेंगे द्रव्योंका वैसा वैसा रगत होता जाएगा कि कोई निमित कार्यक्रम द्रव्यका बना हुआ हो और उसी सुनिश्यित अनन्न यह जगत बगहा से यह पारकर ही पूर्व नियता नियतत्वादर्जन दृष्टिसे भागत शक्तियां नियत है पर उनके प्रतिक्षणके परिणमन अनिवार्य होकर भी अनियत है। एक व्यकी उन समयको गोग्यतासे जितने प्रकार परिणमन हो सकते हैं उनमें कोई भी परिणमन जिसके निमित्त और अनुकूल सामग्री मिल जायगी हो जायगा। तात्पर्य कियह Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और नियतिवादका सम्यग्दर्शन प्रत्येक व्यकी शक्तियाँ तथा उनसे होने वाले परिणमनीको जानि सुनिश्नि है। कभी भी पुद्गलक परिणमन जीवमें नया जीवके परिणमन पदगलम नहीं हो सकती। पर' प्रनिलमय कैसा परिणमन होगा यह अनियत है। जिस समय जो शक्ति विकसित होगी तथा अनल निमित्त मिल जायगा उसके बाद वैसा परिणमन हो जायगा। अत: नियतत्व और अनिया-च दोनों धर्म सापेक्ष # अपेक्षा भेदमे सम्भव हैं। जीवाव्य और पद्गल द्रव्यका ही खर, पह जगत है। इनकी अपनी द्रव्यमस्नियाँ निवत हैं। संसारमें किसीकी भक्ति नहीं जो द्रव्यशक्तियोमते एकको भी कम कर सके या एकको बढ़ा सके। इनका आविर्भाव और निरोभाव पर्याय के कारण होता रहता है। जैने मिट्टी पर्यायको प्राप्त प्रगलग तेल नहीं निकल सकता, वह मोना नहीं बन सकती यद्यपि नल और सोना भी पृद्गल ही बनता है, क्योकि मिट्टी त्यामबाले पुद्गलोंकी यह योग्दना भिराभूत है. उसमें घट आदि बनने की, अंकुरको उत्पन्न करनकी, बर्तनोंके शुद्ध करनेकी, प्राकृतिक चिकित्सा उपयोग आनकी आदि पचागों पर्याय योग्यताएं विद्यमान है। जिसकी सामग्री मिलेगी अगट क्षणमं कही पर्याच उत्पन्न होगी। रेन भी पदभल है पर इस पर्याय घड़ा बननेकी योग्यता तिरोन्त है. अपकार है. उम्मं मीमटके साथ मिलकर दीबालपर पुष्ट लप करने की योग्यता प्रकट है. वह बांच बन सकती है गा वही पर लिखी जाने वाली काली स्याहीका शोषण कर सकती है। मिट्टी पर्यायमें ये योग्यताएँ अप्रट हैं। तात्पर्य यह कि :-- (१) प्रत्येक व्यकी मलद्रज्यशक्तियां निवत: उनकी संख्याम बनाधिवना कोई नहीं कर सकता। पर्याय के अनुसार कुछ शक्तियां प्रकट हनी है और कुछ अप्रकट। इन्हें गर्याय योन्यना कहत है। (२) यह नियत, कि मनन का अभवनमाविर्शकया अपना सविहिासागर जी महाराज हो सकता। (३) वह भी नियत है कि एक चनन या अननन भयका दृस सजातीय च-नन या अतिनम दव्य रूपसे परिणमन नहीं हो सकता। (४) वह भी गियन है कि दो नन मिलकर एसयुक्न सदा पर्याय उतान नहीं कर सकते जम नि: अनेक नन परमाण मिन्टचार मानी गंयुक्त बस घर गर्याय उत्पन्न कर लेते हैं। (५)चा भी लिया है कि माम म सभा जितनी पर्याय सम्बना है उनमें जिसके अनुकूल निमित्त मिलंग की परिणमन आग गा. आप यो मन तयार भदभावप मेंगी।।६)बह भो नियत है कि प्रत्यक या कोई न कोई गणमानगडे क्षणमं अवश्य होना। मह परिणमग त्र्यगत मुल योग्यनाओं और पर्यायगन प्रवाट योयनाओंकी गीमाके भीतर ही होगा शहर कदापि नहीं। (७) यह भी नियत है कि निनिन उपादान द्रव्य को योन्य गाती विकास करना है, उसमं न तनमर्वथा असदभूत किमन उपस्थित नहीं कर गाना। (८) यह भी नियत है कि प्रत्येक द्रव्य अपने अपनं परिणमनका उपादान होना । जस मगयकी पर्यासयोग्यतारुण पादानास्तिकी नीमाके वाहिरका कोई परिणमन निमिन नहीं ला गकता। परन्तु -- (१) यही एक वान अनियन है. कि 'अमक समय में अमक परिणमन ही होगा। मिट्टीकी पिंडपर्यायम घड़ा सकोग मृगई दिया आदि अने* पाके प्रबाटानेकी योग्यता है। कुम्हारकी इच्छा और क्रिया आदिका निमित्त मिलनेपः उनमम जिसको अगफलता होगी वह पर्याय अगरेक्षणमं उत्पन्न हो जायगी। यह कहना कि उस समय मिट्टीकी सही पर्याय होनी थी. उनका मन्ट भी सदभाव रूपगं होता था. पानीको यही पर्याय होनी थीच्य और पयांचगन चोग्यताक अज्ञानका पर है। तमाम पारणमन नहीं नियतिवाद नहीं जो हाना हाना यह होगा ही, हमारा कुछ भी पुरुपाय नही है. इस प्रकारक निष्क्रिय नियतिवादके विचार जनववस्थिनिक निकलाई। जो द्रव्यगत शक्तियाँ नियत है उनमें हमारा कोई पुरुषार्थ नहीं, हमाग पुरुषार्थ त. कोबलकी होगर्याचा विकास कगनम है। यदि कोयलक लिए उसकी हीरापर्यावके विकास के लिए आवश्यक सामग्री न मिले तो या तो वह जलकर भस्म बनेगा या फिर सानिम दी गड़े पड़े ममाप्त हो जायगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि जिसमें उपादान शक्ति नहीं है उसका परिणमनमो निमित्तग हो सकता है या निमिनम यह शक्ति है जो निरुपादानको परिणमन करा सके। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवृत्ति प्रस्तावना नियतिवादवृष्टि विच एकबार 'ईश्वरवाद के विरुद्ध छात्रोंने एक प्रहसन खेला था। उसमें एक ईश्वरवादी राजा था जिसे यह विश्वास था कि ईश्वर समस्त दुनियाके पदार्थों का कार्यक्रम निश्चित कर दिया है। प्रत्येक पदार्थकी अमुक समयमें यह दशा होगी इसके बाद यह सब सुनिश्चित है। कोई अकार्य होना वो राजा सदा यह कहता था कि हम पा कर सकते है? ईश्वरने ऐसा ही नियत किया था। ईश्वरके नियतिक्रमे हमारा हस्तक्षेप उचित नहीं "ईश्वरकी मर्जी" एकबार कुछ गुण्होंने राजाके सामने ही गनीका अपहरण किया। जब रानीने रक्षार्थ चिल्लाहट शुरू की और राजाको शेष आया तब गुण्डोके सरदारने जोरसे कहा- "ईश्वरको मर्जी" राजाके हाथ ढीले पड़ते हैं और वे मुण्डे रानीको उसके सामने ही उठा ले जाते हैं। गुण्डे रानीको भी समझाते हैं कि 'ईश्वरकी मर्जी यही थी' रानी भी 'विधिविधान' में अटल विश्वास रखती थी और उन्हें आत्म समर्पण कर देती है। राज्यमें अव्यवस्था फैलती है और परचक्रका आमार्गदर्शक :- आचार्य आस्तविधिना की हम दुश्मनकी जो तलवार घुसती है वह भी 'ईश्वरकी मर्जी इस जहरीले 1 : राजाकी विश्वासविषसे भी हुई थी और जिने राजाने विधिविधान मानकर ही स्वीकार किया था। राजा और रानी गुण्डों और शत्रुओं के आक्रमणके समय "ईश्वरकी मर्जी" "विधिका विधान" इन्हीं ईश्वरास्त्रोका प्रयोग करते थे और ईश्वरसे ही रक्षाकी प्रार्थना करते थे। पर न मालूम उस समय ईश्वर क्या कर रहा था ? ईश्वर भी क्या करता ? मन्डे और शत्रुओंका कार्यक्रम भी उसीने बनाया था और वे भी ईश्वरकी मर्जी' और 'विधिविधान की दुहाई दे रहे थे । इस ईश्वरवादमें इतनी गुंजाइश थी कि यदि ईश्वर चाहता तो अपने विधानमें कुछ परिवर्तन कर देता। आज श्री कानजी स्वामीकी 'वस्तुविज्ञानसार' पुस्तकको पलटते समय उसकी याद आ गई और ज्ञात हुआ कि यह नियतिवादका बालकूट 'ईश्वरवाद से भी भयंकर है। ईश्वरवादमें इतना अवकाश हूँ कि यदि ईश्वरकी भक्तिकी जाय या सत्कार्य किया जाय तो ईश्वरके विधान में हेरफेर हो जाता है। ईश्वर भी हमारे सत्कर्म और दुष्कर्मो के अनुसार ही फलका विधान करता है। पर यह नियतिवाद जर्भय है। आश्चर्य तो यह है कि इसे 'अनन्त पुरुषार्थ का नाम दिया जाता है। यह कामकूट कुन्दकुन्द अध्यात्म सवंश, सम्यग्दर्शन और धर्मको शक्कर में लपेट कर दिया जा रहा है। ईश्वरवादी सांपके जहरका एक उपाय ( ईश्वर ) तो है पर उस नियतिवादी कालकूटका इस भीषण दृष्टिविषका कोई उपाय नहीं क्योंकि हर एक की हर रामकी नियत है। ४८ समन्ति वेदना तो तब होती है जब इस मिथ्या एकांत विषको अनंकान्त अमृतके नामसे कोमलमति नई को मिलाकर उन्हें अनन्त पुरुषार्थी कलकर महाके लिए पुरुषार्थसे विमुख किया जा रहा है। पुण्य और पाप क्यों? जब प्रत्येक जीवका प्रतिसमयका कार्यक्रम निश्चित है, अर्थात् पत्तो है ही नहीं, साथ ही स्वय भी नहीं है तब क्या पुष्य और क्या पाप ? किसी मुसलमानने जंगप्रतिमा समय प्रतिमाको तोड़ना ही था. प्रतिमाको उस समय टूटना तोड़ी, तो जब मुसलमानको उस ही था. सब कुछ नियत था तो विचारे मुसलमान का क्या अपराध ? वह तो नियमित दास था। एक यामिक ब्राह्मण बकरेगी बलि चढ़ाता है तो क्यों उसे हिंसक कहा जाय 'देनीकी ऐसी ही पर्याय होनी थी, बकरेके गलेको कटना ही था, छुरेको उसकी गर्दन के भीतर घूराना ही था, ब्राह्मणके हमें मांस जाना ही था, वेदमें ऐसा लिखा ही जाना था।' इस तरह पूर्वनिश्चित योजनानुसार जब घटनाएं घट रही है तब उस विचारेको क्यों हत्यारा कहा जाये ? हत्याकाण्ड मी पटना अनेकइयों सुनिश्चित परिणमनका फल है जिस प्रकार ब्राह्मणके घुरेका परिणयन बकरे के गले के भीतर पुनेका नियत था उसी प्रकार बकरेके गलेका परिणमन भी अपने भीतर छुरा पुसवानेका निश्चित था। जब इन दोनों नियत घटनाओंका परिणाम बकरेका बलिदान है तो इसमें क्यों ब्राह्मणको हत्यारा कहा जाय ? किसी स्त्री शील भ्रष्ट करनेवाला व्यक्ति क्यों दुराचारी गुण्डा कहा जाय ? स्त्रीला परिणयन ऐसा ही होना था और पुरुषका भी ऐसा ही, दोनों के नियत परिणमनोंका नियत मेला दुराचार भी नियत ही या फिर उसे गुण्डा और दुराचारी क्यों कहा जाय इस तरह इन श्रोत्र विरूप (जिसके सुगमे ही Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और नियतिवादका सम्यग्दर्शन पुरुषार्थहीनताका नशा आता है) नियतिवादर्भ जब अपने भावोंका भी कतत्व नहीं है अर्थात ये भाव सुनिश्चित है तब पुष्पा-पाप, हिसा-अहिंसा, सदाचार-दुराचार, सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन क्या ? गोरसे यारा क्यों?-पदि प्रत्येक व्यका प्रतिसमयका परिणमन नियत है, भले ही वह हमें नमालम हो, तो किसी कार्यको पुण्य और किसी कार्यको पाप क्यों कहा जाय ? नाथूराम गोडमेने महात्माजीको गोली मारी तो क्यों नाथूरामको हत्यारा कहा जाय ? नारामका उस समय बसा ही परिणमन होना या महात्माजीका भी वसाही होना था और गोलीका और पिस्तौलका भी वैसा ही परिणमन निश्चित था। • अथात हत्या नाथुराम, महात्माजी, पिस्तौल औपासकादि-अनावरायोकी विधिकिार्यक्रमकाजमिस्हिायाज है। इस घटनासे सम्बद्ध सभी पदार्थोंके परिणमन नियत थे। और उस मम्मिलित नियतिका परिणाम हत्या है। यदि यह कहा जाता है कि नाथराग महात्माजीक प्राणवियोगरूप परिणमनमें निमित्त हना है अत: अपराधी है तो महात्माजीको नायूरामके गोली चलाने में निमित्त होनेपर क्यों न अपराधी ठहराया जाय? जिस प्रकार महात्माजीका वह परिण मन निश्चिन था उसी प्रकार नाथूरामका भी। दोनों नियतिचक्र के सामने समानरूपसे दान थे । मो यदि नियतिदास नाथूराम हत्याका निमित्त होनेसे वोषी है तो महात्माजी भी नाथूरामकी गोली चलाने रूप पर्याय निमिन होनेसे दोषी क्यों नहीं ? इन्हें जाने दीगिए, हम तो यह कहते हैं कि--पिस्तौलसे गोली निकलनी थी और गोलीको गाँधीजीकी छातीमें घुसना या इसलिए नाथूराम और महात्माजीकी उपस्थिति हुई । नाथूराम तो गोली और पिस्तौलके उस अवश्यम्भावी परिणमनका एक निमित्त था जो नियतिचा के कारण वहाँ पहुँच गया। जिनकी नियतिका परिणाम हत्मा नामकी घटना है वे सब पदार्थ समानरूपरो नियतिनसे प्रेरित होकर उस घटनामें अपने अपने नियत भवितव्यके कारण उपस्थित है। अब उनमे क्यों भाव नाथ रामको पकड़ा जाता है ? बल्कि हम सबको उस दिन ऐसी खबर मूननी श्री और धी आत्माचरणको जज बनना या इसलिए यह सब गुआ। अत: हम सबको और आत्माचरणको ही पकड़ना चाहिए । अतः इस नियतिवादमें न कोई पुण्य है न पाप, न सदाचार न दुराचार । जब कर्तृत्व ही नहीं तब का सदाचार ऋया दुराचार नापूमाम गोडसेको नियनिवादके आधारपर ही अपना बनाव करना चाहिए था, और सीधा आत्माचरणके ऊपर टूटना चाहिए था कि- कि तुम्हें हमारे मुकदमेवा जज होता था इसलिए इतना बना निरतिचत्र चला और हम सब उसमें फंसे । यदि सब चेतनोको छुड़ाना है नो पिस्नील के भवितव्यको दोष देना चाहिएपिस्तौल का उस समय वैमा परिणमन होना होता, न वह गोडमेके हाथमें आती और ने गांधीजीकी छाती छिदती। सारा दोष पिस्नीलके नियन परिणमनका है। तात्पर्य यह कि इस नियतिवादमें सब साफ है। व्यभिचार, चोरी, दगाबाजी और हत्या आदि सबकुछ उन जन पदार्थों के नियत परिणमनके परिणाम है, इसमें व्यक्तिविशेषका क्या दोष? अतः इस सत्-असन लोपक, पुरुषार्थ-विधातक नियतिवादके विषसे रक्षा करनी चाहिए। निर्यातबारमें एक ही प्रश्न एक हो उत्तर–नियतिवाद एक उत्तर है-ऐसा ही होना था, जो होना । होगा सो होगा ही' इसमें न कोई तर्क है, न कोई पुरुषार्थ और न कोई बुद्धि । वस्नुबवरधाम इस प्रकारके मन विचारोंका क्या उपयोग जगत्में रिजानसम्मत कार्यकारणभाव है। जैसी उपादान योग्यता और जो निमित्त होंगे तदनुसार चेतन-अर्थतनका परिणमन होता है। पुभवार्थं निमिन और अनुकूल मामग्रीके जुटाने में है। एक अग्नि है, पुरुषार्थी यदि उगम चन्दनना चग डाल देना तो सुगन्धिन प्रा निकलकर कमरको सुवासित कर देता है,यदि बारट आदि पड़ते है नो दुर्गन्धित धआं उगन्न हो जाता है। यह कहना अत्यन्त भ्रान्त है कि खुराको उसमें पड़ना था. पुरुषको उसमं डालना था. अग्निकाउने ग्रहण करना ही था। इसमें यदि कोई हेर-फेर करता है तो नियतिवादीका वही उत्तर कि ऐसा ही होना था।" भानो जगत्त्रो परिणमनीको एमा हीहोना था' इस निमति-पिशाचिनीने अपनी गोद ले रखा हो! नियतिवावमें स्वपुरुषार्थ भी नहीं --निगनियादम अनन्स पुरुषार्थकी बात तो जाने दीजिये स्वपु:पार्य भी नहीं है । विचार तो कीजिये जब हमारा प्रत्येक क्षणका कार्यक्रम सुनिश्चित है और अनन्तकालका, उसमें हेरफेरका हमको भी अधिकार नहीं है तब हमारा पुरुषार्थ कहां? और कहां हमारा सम्यग्दर्शन ? Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! ५० तार्थवृति प्रस्तावना हम तो एक महानि के के अंश है और उसके परिचलन अनुसार प्रतिक्षण चल रहे हैं। यदि हिंसा करते हैं तो नियति है, व्यभिचार करते हैं तो नियत है, चोरी करते हैं तो नियति है, पापचिन्ता करते हैं तो नियति | हमारा पुवा कहाँ होगा? कोई भी क्षण इस नियतिभूतकी मौजूदगी से रहित नहीं है, जब हम सांस लेकर कुछ अपना भविष्य निर्माण कर सकें। भविष्य निर्माण कहाँ ? दस नियतिवाद में भविष्य निर्माणकी सारी योजनाएँ हवा है। जिसे हम भविष्य कहते हैं वह भी नियतिचक्रमें सुनिश्चित है और होगा ही । जैन दृष्टि तो यह कहती है कि तुम में उपादान योग्यता प्रति समय अच्छे और बुरे बननेकी सत् और असत् होनेकी है, जैसा पुरुषार्थ करोगे, जंगवश जुटाये आसा निर्माण स्वयं कर सकोगे ।" पर जब नियतिचक निर्माण करनेकी बात पर ही कुठाराघात करके उसे नियत या सुनिश्चित कहता है तब हम क्या पुरुषार्थ करें? हमारा हमारे ही परिणमनपर अधिकार नहीं है क्योंकि वह नियत है। पुरषायेभ्रष्टताका इससे व्यापक उपवेद दूसरा नहीं हो सकता। इस नियतिक्रमें सबका सब कुछ नियत है उसमें अच्छा क्या ? बुरा क्या ? हिसा अहिंसा क्या ? सबसे बड़ा अस्त्र सर्वशरण नियतिवादी वा तथोक्त अध्यात्मवादियोंका सबसे बड़ा तर्क है कि'सर्वज्ञ है या नहीं? यदि सर्वज्ञ हैं तो वह त्रिकालज्ञ होगा अर्थात् भविष्यज्ञ भी होगा । फलत: वह प्रत्येक पदार्थका अनन्तकाल तक प्रतिक्षण जो होना है उसे ठीक रूपमें जानता है। इस तरह प्रत्येक परमाणुकी प्रतिसमयकी पर्याय सुनिश्चित है उनका परस्पर जो निमित्तनैमित्तिकजाल है वह भी उसके जानके बाहिर नहीं है। सर्वज्ञ माननेका दूसरा अर्थ है नियतिवादी होना । पर आज जो सर्वज्ञ नहीं मानतें उनके सामने हम नियतितन्त्रको कैसे सिद्ध कर मकते है ? जिस अध्यात्मवादके मूलमें हम नियतिवादको पनपाते है उस अध्यात्मदृष्टिने सर्वज्ञता व्यवहारनयको अपेक्षा है। निश्चयसे तो आत्मतामें ही उसका पर्यवसान होता है, जैसा कि स्वयं आचार्य कुन्दकुन्दने नियमसार (गा. १५८) में लिखा है--- A "जागदि परमदि सध्वं व्यवहारणएग केवली भगवं । केवलाणी जागव पस्सदि पियमेण वपाणं ।।" अर्थात् केवली भगवान् व्यवहारजयमे सर्व पदार्थको जानते देखते हैं । निश्चयसे केवलज्ञानी अपनी आत्मा को ही जानता देखता है । अध्यात्मशास्त्रगत निश्चयको भूतार्थदा और परमार्थता तथा व्यवहारनयकी अभूतार्थता और परमाता पर विचार करने को अध्यात्मशास्त्रमें पुर्णज्ञानका पर्यवसान अन्ततः आत्मज्ञानमें ही होता अतः सर्वज्ञत्वकी दलीला अध्यात्मचिन्तनमूलक पदार्थमवस्थायें उपयोग करना उचित नहीं है । समग्र और अप्रतिम कारण ही हेतु अकलंक देवने उस कारण को हेतु स्वीकार किया है जिसके द्वितीयक्षणमं नियमसे कार्य उत्पन्न हो जाय। उसमें भी यह शर्त है कि जब उसकी शक्ति में कोई प्रतिबन्ध उपस्थित न हो तथा सामग्रयन्तगत अन्य कारणांकी विकलता न हो। जैसे अग्नि धूमकी उत्पत्ति में अनुकूल कारण है पर यह तभी कारण हो सकती है जब इसकी दशक्ति किसी मन्त्र आदि प्रतिबन्धकने न रोकी होगा भूमा सामग्री-जीला ईवन आदि पूरे रूपमे विद्यमान हो। यदि कारणका अमुक कार्यरूपमें परिणमन नियत हो तो प्रत्येक कारण को हेतु बनाया जा सकता था पर कारण तबतक कार्य उत्पन्न नहीं कर सकता जबतक उसकी सामग्री पूर्ण न हो और शक्ति अप्रतिबद्ध न हो । इसका स्पष्ट अर्थ है कि शक्तिकी अप्रतिबद्धता और सामग्री की पुर्णना जबतक नहीं होगी तबतक अमुक अनुकूल भी कारण अपना अमुक परिणमन नहीं कर सकता । अग्निमें यदि गीला ईधन डाला जाय तो ही धूम उपन्न होगा अन्यथा वह धीरे राख बन जायगी । यह बिल्कुल निश्चित नहीं है कि उसे उस समय राख बनना ही है या धूम पैदा करता ही है। यह तो अनुकूल सामग्री जुटाने की बात है। वहीं परिणमन उसका होगा । जिस परिणमनकी सामग्री जोगी Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म और नियतिवादका सम्यग्दर्शन रागादिका पुदगलव-अध्यात्म शास्त्रम रानादिको परभाव और पोद्गलिया बताया है । इसका कारण भी यह बताया गया है कि. चूकि वं भाव पुद्गलनिमित्त होते है अतः पुद्गलावलम्बन होनेसे पौद्गलिक हैं। सर्वार्थसिद्धिर्म भावमनको इसीलिए पौद्गलिक बताया है कि यह पुद्गलनिमित्तक या पुदगलावलम्बन है। रागादि या भातमनम उपादान नो आत्मा ही है, आमा हो वा परिणमन रागादि रूपमे होता है। यहां राष्ट्रन: पगलका या पर दध्य ना सवलनिगिनत्व रवीकृत है। पर को निमित्त मुग बिना रागादिको परभाव को कहा जा सकता है ? अतः अध्यात्म भी उभयकारणोंने कार्य होता है इस मर्चसम्मत कार्यकारणभावका निषेध नहीं करता। "सामग्री अनिका कार्यस्य नक कारणम्' अर्थात् मामग्रीमे कार्य होता है पर नहीशानभवृविवाहासागर महाराखे। कार्य उभयजन्न होनेपर भी चकि अध्यात्म उपादानहा सुधार करना चाहता है अत: उगदानपर ही दृष्टि रखता है, और वह प्रति समय अपने मूलस्वरूप की याद दिलाता रहता है कि तेरा वास्तविक स्वरूप तो शुद्ध है. यह रानादि कुभाव परनिमित्त से उत्पन्न होते हैं अन: पनिमितको छोड़। इसी में अनन्न परुषार्थ है न कि नितिबादकी निष्क्रियतामें। उनय कारणोंसे कार्य-कार्यालनियो लिा दोनों ही कारण चाहिर उगादाने और निमित्न; जैसा कि अनेकान्तदर्शी स्वामी समन्तभद्र ने कहा है कि "यथा कार्य पहिरन्तरपाधिभिः' अर्थात् बार बाह्य-अभ्या न्तर दोनों कारणोंसे होना है। वह स्वयंभ स्तोत्रके वामपूज्य स्तवनम और भी स्पष्ट लिखते हैं कि-- "यवस्तु बाहघ गुणदोषसूतेनिमित्तमभ्यन्तरमूलहेतोः । अध्यात्मवृत्तस्य तदंगभूतमभ्यन्तर केबलमप्यतन।" अर्थात् अन्नगगे विद्यमान मूलकारण अचात् उपादान योग्यता के गण औरोषको प्रन्टनम जो वाह्य वस्तु कारण होनी है वह उम उपादानके लिये अगभून अर्थात् सहकारी कारण है । केवल अभ्यन्तर कारण अपने गणदोषकी उत्पत्तिमं ममर्थ नहीं है । भले ही अध्यात्मवन पुरुषकं लिए बाह्यनिमित्त गौण हो जॉय पर उनका अभाव नहीं हो रामा] । वे अन्नमें उगमहार करने हुए और गी रपष्ट लिखने में-- "बाहयतरोपाधिसमग्नतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः ।। नवान्यथा मोक्षविधिःच तेनाभिवन्यस्त्वमृषि बु धानाम् ।।" अनि कार्योत्पत्तिके लिए बाह्य और आभ्यतार, निमित्त और उपादान दोनों कारण की गमग्रता पूर्णता ही द्रव्यगत निजन्वभाव । सवे. बिना मोक्ष नहीं हो सकता। इस उभयकाणोंकी पप्त घोषणाके रहते हुए भी केवल नियतिवादकानका पोषण अनेकान्त दर्शन और अनन्त पुरुषार्थका रूप नहीं ले सकता। वही अनाद्यनन्त वैज्ञानिक कारण-कार्यधारा ही द्रव्य जिसम पूर्वपर्याय अपनी सामग्रीक अनुसार सदश, विसदरा, अर्धसदृश, अल्पसदृश आदिरूपरी अनेक पर्यायोंका उत्पादक होती है। मान लीजिए एक जलबिन्दु है उसकी पर्याय बदल रही है, वह पनि जलबिन्दु रूपमे परिणमन कर रही है पर यदि गरमीका निमित्त मिलता है तो तुरन्त भाप बन जाती हैं। फिभी मिट्टीम यदि पड़ गई नो सम्भव है. पथिवी बन माय। यदि सापक मुहम चली गई ताजहर बन जायगी। तात्पर्य यह कि एकवाग पूर्व-उत्तर पर्यावों की बली है उसमें जैसे अंग संयोग होते जायगे उसका उस ज्ञानिम परिणमन को जायगा। गंगाकी धारा हरिद्वारमें जो है वह कानपुग्म नहीं । वह और कानपुरकी गटर आदिका संयोग पाकर इलाहाबाद में बदली और इलाहाबादवी गन्दगी आदिके कारण काशीकी गंगा जुदी ही हो जाती है। यहाँ यह कहना कि "गंगाके जलके प्रत्येक परमाणुका प्रनिसमरवा निश्चित कार्यक्रम बना हा उभवा जिस समय जो परिणमन होना है वह होकर ही रहेगा" अव्यकी विज्ञानगम्मत कार्यकारणपरम्पराको प्रतिक है। समयसारमें निमित्ताधीन उपादान परिणमन-समयमार (ना-८६८८) में जीव और कर्मका परसर निमित्त मिनिक सम्बन्ध बनाने हाए लिखा है कि-- Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ स्वार्थवृत्ति प्रस्तावना "जीव परिणामहेषु कम्मतं पुग्गला परिणमति । पुगलकम्मणिमित्तं तहेव जोवो वि परिणमदि ॥ निकुद जो मंत जोगुणे । अग्गोणिमिण व कला आदा सय भावेण ॥ पुग्गलकर मकवाणं ण ड कत्ता सव्वभावाणं ।” मार्गदर्शन-जीवाचं काळी होती है और पुलों निमित्तसे जीव कामाय रागादिरूपसे परिणमन करता है। इतना समझ लेना चाहिए कि जीव उपादान बनकर मुद्दलके गुणरूप से परिणमन नहीं कर सकता और न पुद्गल उपादान बनकर जीवके गुजरूपसे परिणति कर सकता है। हॉ परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धके अनुसार दोनोंका परिभ्रमन होता है। इस नरम उपदान दृष्टिसे आत्मा अपने भावोंका कर्ता है पुद्मलके ज्ञानावरणादिरूप] द्रव्यकर्मात्मक परिणमनका कर्त्ता नहीं है । इस स्पष्ट कथनसे कुन्दकुन्दाचार्य की स्व-अतुल दृष्टि समझ में आ जाती है। इसका विशद अर्थ यह है कि प्रत्येक द्रव्य अपने परिणमनमें उपादान है. दूसरा उसका निमित्त हो सकता है उ दान नहीं । परस्पर निमित्तसे दोनों उपादानोंका अपने अपने भावरूप गरिगमन होता है। इसमें निमित्तनैमित्तिकभावका निषेध कहाँ है? निश्चयदृष्टिने पनिरपेक्ष आत्मस्वरूपका विचार है। उसमें नव अपने उपयोगरूपमें ही पर्यवसित होता है। अतः कुन्दकुन्दके मासे अध्यत्ममें द्रव्यस्वरुपका नहीं निरूपण है जो आगे समन्तभद्रादि आचार्यनेि अपने पन्नों किया है मूलमें भूल कहाँ ? -- इसमें वहाँ मूल भूल है ? जो उपादान है वह उपादान ही है, जो निमित्त है निमित्त ही है। कुम्हार पटकाकर्ता है यह बचत व्यवहार हो सकता है कारण, कुम्हार वस्तुतः अपनी हलन किया गया अपने घट बनानेकं उपयोगवा ही कर्ता है, उसके निमित्तसे मिट्टी के पा वह आकार उत्पन्न हो जाता है। मिट्टीकी घड़ा बनना ही था और कुम्हारके को पैसा होना हाथको ही था और हमें उसकी व्यास्थ ऐसी करनी ही मी. आपको ऐसा पर करना ही था और हमें यह उत्तर देना ही था। ये सब बातें न अनुभवसिद्ध कार्यकारणभावक अनुकूल ही हैं और न तर्फसिद्ध ही । परम पुरुषार्थी कुकुवा अध्यात्म० कुन्दने अपने आध्यात्ममें यह बताया है कि कार्य निर्मित और उपादान दोनों होता है पर निमितको यह अहंकार नहीं करना चाहिये कि ऐसा किया।" यदि उपादानकी योग्यता न होती तो निमित्त कुछ नहीं कर सकता था। पर केवल उपदान की योग्यता भी निमित्तके बिना अविकसित रह जाती है । प्रतिसमय विकसित होनेको सैकड़ों योग्यताएँ है। जिसका अनुकूल निमित्त जुड़ जाता है उसका विकास हो जाता है। यही पुरुका है। श्री कुम्कुल उनके अहंकारको निकालने के लिए पर-अक्की भावना पर जोर देते हैं। पर यह नियतिवाद का भूत स्वकतृत्वका भी समाप्त कर रहा है। कुन्दकुन्द यह तो कहते ही है कि जीव अपने गुणपर्यायका वर्ता है। पर इस नियतिवादमें जब सब गुनियन है तब रंचमात्र भी स्वकर्तृको अवकाश नहीं है । कुन्दकुन्द जहां चरित्र दर्शन शील आदि पुरुषार्थी पर भार देकर यह कहते है कि इनके द्वारा अपनी आवद्ध प्राचीन कमकी निर्जरा करके शीघ्र मुक्त हो सकते हैं। यहां यह नियनिवाद कहता है कि "शीघ्रताकी बात न करो, सव नियत है, होना होगा, हो जायगा ।" कुन्दकुन्दकी दृष्टि तो यह है कि हम परक्त वहा आरोप करकेही राग द्वेष मोही सृष्टि करते हैं। यदि हम यह समझ लें कि हम यदि किसी परियमनमें निर्मित हुए भी हैं जो इतनं मात्रमे उसके स्वामी नहीं हो सकते, स्वामी तो उपद ही होगा जिसका कि विकास हुआ है तो सारे झगड़े ही समाप्त हो जाय । पर इसका यह अर्थ तो कदापि नहीं है जो स्वपुरुषार्थ या स्वकर्तृत्व की भी स्वतन्त्रता नहीं है । अध्यात्मको अकर्तृव भावनाका उपयोग-तत्र अध्यात्मशास्त्री भावनामा क्या अर्थ है ? अध्यात्म में समस्त वर्णन उपादानयोग्यता के आधारले दिया गया है। निमित्त मिलानेपर भी यदि उपादान Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज अध्यात्म और नियतिवादका सम्यग्दर्शन योग्यता विकसित नहीं होतो,ता कार्य नहीं होगकेगा । एकही निमित्तभूत अध्यापकसे एक छात्र प्रथम श्रेणीका विकास करता है जबकि दूसरा द्वितीय श्रेणीका और तीसरा अज्ञानीका अज्ञानी बना रहता है। अत: अन्ततः कार्य अन्तिमक्षणवर्ती उपादानोग्यदास ही होता है हाँ निमित्त उस योग्यताको विकासोन्मुख बनाते हैं। ऐशी दशामें अध्यात्मशास्त्र का कहना है कि निमित्तको यह अहंकार नहीं होना चाहिए कि हमने उसे ऐसा बना दिया। निमित्तकारणको सोचना चाहिए कि इसकी उपादानयोग्यता न होती तो मैं क्या कर सकता था। अत: अपनेमे कर्तृत्वजन्य अहंकारकी निवृत्ति के लिए उपादानम कर्तृलकी भावनाको दृढमूल करना चाहिए, ताकि परपदार्थ के कर्तृत्वका अहंकार हमारे चित्त में आकर रागद्वेषको सष्टि न करे। बड़े से बड़ा कार्य करके भी मनुष्यको यही सोचना चाहिए कि 'मैने क्या किया? यह तो उराकी उपादानयोग्यता का ही विकास है, मैं तो एक साधारण निमित्त है। क्रिया हि द्रव्य बिनयति नाव्यम्' अर्थात्--त्रिया योग्यमें परिणमन कराती है अयोग्यमं नहीं। इस तरह अध्यात्मकी अकनत्व भावना हम वीतरागताकी ओर ले जानेके लिए है, न कि उसका उपयोग नियतिवाद के पुरुषार्थविहीन बूमार्गपर ले जानेको किया जाय । 'जं जस्स जम्मि आदि भावनाएँ हैं-स्वामिकानिकयानप्रेक्षाम सम्यग्दृष्टिकं धर्म भावनाकं चिन्तनमें ये दो गाथाएँ लिखी है-- " जस्म जम्मि वेसे जेण चिहाणेण जम्मि कालम्मि । कादं जिण णियदं जम्म ब अहष मरणं वा ।। ३२१ ॥ लं तस्स तम्मि देसे तण विहाणंण तम्मि कास्मि । को पालेद सबको इंदो या अह.जिणिो वा ॥ ३२२ ।।" अर्थात् जिसमा जिम ममय जहाँ जैसे जन्म या मरण होना है उसे इन्द्र या जिनेन्द्र कोई भी नहीं टाल सकता, वह होगा ही। पं० दौलतगमजीन भी छहवालामें कही लिखा है "सुर असुर खगधिप जेते, मग ज्यों हरि काल बले ते । मणिमन्त्र तन्त्रबह होई, भरते न बचा कोई॥" हम तरह मन्याय की गावकको निर्भय होकर गुरुषार्थी बनने के लिए नियनत्वको भावनाका उपदेश है न कि पायंस चिमुन्न होकर नियतिचक्रवः निष्क्रिय कुमार्गपर पहुँचदेवे लिए। उक्त गाथाओंका भारुती यही है कि जो जव होना होगा उसमें कोई किमीका कारण नहीं है। आत्मनिर्भर रहबर हा आवं उम महना चाहिए। मृत्युको डाई नही टाल गला। इस तरह चित्तसमाधानके लिए भाई जाने वालो भावनाओम कायदम्बा नहीं हो सकती। अनिन्य भावनामही कहते कि जान स्वप्नवत है. पर इसका यह अब कदापि नहीं कियान्मयादिशंकी दरह जगत् पढाथों की सत्तास शून्य है। बल्कि उसका बही नात्पर्य है कि वनको तरङ्ग व आत्महिनो ला वास्तविक कार्यकारी नहीं है। यहाँ सम्यग्दष्टिकी चिनन-भावनाग स्वालम्चनका उपदंदा है, उगगे पदार्थव्यवस्था नहीं की जा सकती। मिचय और व्यवहार-..-निश्तयनन तमनुका पर्गन पक्ष स्त्रभन दयाका वर्णन करता है। वह यह वताता है कि प्रत्यंच. गीच स्वभावमे अनन्त ज्ञान दर्शन या अरण्ड चतन्यवर पिण्ड है। आज यद्यपि बह कर्मनिमित्तसे निभाव मिन बर रहा है, पर उसमें स्वभावभूत शक्ति अपने अखण्ड निविकार चैतन्य होनेकी है। व्यवहारनय कामाक्षेप यस्याका वर्णन यन्ना है। वह जहाँ आत्माको पुरघटपटादि पदार्थोके कर्मस्वके वर्णनगम्वन्धी सम्त्री उड़ान लेना है वहाँ निश्चयनयारागादि भावी कर्मस्वको भी आत्मकोटिमे बाहर निकाल देना है, और आत्माको अपने शुद्ध पात्रोंका ही कार्मा बनाना है. अनच भावोंका नहीं। निश्चयनवर्कः भतार्थताका तापर्य यह है कि वही दया आत्माकं लिए वास्तविक उपादेय ई. परमार्थ है। यह जो गगादिरूप विभावपरिणलि है वह अभूतार्थ है अर्थात् आत्माकं लिए उपादेय नहीं है, इसके लिए वह अपरमार्थ है, अग्राह्य है। निश्चयनयका वर्णन हमारा लक्ष्य है-निश्चयनय जो वर्णन करता है कि में सिद्ध है। बद्ध हैं, निर्विकार है निस्कषाव हूँ, यह सर हमारा लक्ष्य है। इगम हूँ' के स्थानम 'हो सकता हूँ' यह प्रयोग भ्रम उत्पन्न नहीं Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ तत्त्वार्थवृत्ति प्रस्तावना करेगा। यह भाषाका एक प्रकार है। साधक अपनी अन्तर्जन्य अवस्थामै अपने ही आत्माको सम्बोधन करता है कि हे आत्मन्, तू तो स्वभावमे सिद्ध है, बुद्ध है, बीतराग है, आज फिर यह तेरी क्या दशा हो रही है ? तू कषायी और अज्ञानी बना है। यह पहला सिद्ध है बुद्ध है' वाला अंश दूसरे 'आज फिर तरी क्या दशा हो रही है, त कपासी अज्ञानी बना है' इस अंशसे ही परिपूर्ण होता है। इस लिए निश्चयनय हमारे लिए अपने द्रव्यगत मुलस्वभावकी ओर संकेत करता है जिसके बिना हम कषायपंकसे नहीं निकल सकते। अत: निश्चयनयका सम्पूर्ण वर्णन हमारे सामने कागजपर मोटे मोटे अक्षरों में लिखा हुआटॅगा रहे ताकि हम अपनी मूलभूत उस परमदशाको प्राप्त करने की दिशामें प्रयत्नशील रहें। न कि 'हम तो सिद्ध है,कर्मोंसे अस्पष्ट है' यह मानकर मिथ्या अहंकारका पोषण करें और जीवन्तचारित्र्यसे बिमख हो निश्चय कान्तरूपी मिथ्यात्वको बहावें।। मिवेदन-मेरा यही निवेदन है कि, हम सब समन्तभद्रादि आचार्यों द्वारा प्रतिपादित उभयमुखी तत्वव्यवस्थाको समझें । कुन्दकुन्दके अध्यात्मसे अहंकार और परकर्त स्वभावको नष्ट करें, कार्तिकेयकी भावनासे निर्भयता प्राप्त करें और अनेकान्त दृष्टि और अहिंसाके पुरुषार्थ द्वारा शीघ्र ही आत्मोत्रनिके असीम पुरुषार्थमें जुटें। भविष्यको हम बनाएंगे, वह हमारे हाथमें है। कमों के उत्कर्षण अपकर्षण उदीरणा संक्रमण उद्वेलन आदि सभी हम अपने भाषोके अनुसार कर राकते हैं और इसी परम स्वपुरषार्थकी घोषणा हमें इस छन्दमें सुनाई देती है कोटि जन्म तप तपें शानविन कर्म सड़े में । नानीके क्षणमें त्रिगुप्तते सहज टरें ते॥" यह त्रिगुप्ति स्वपुरुषार्थकी सूचना है । इसमें स्वोदवका स्थिर आश्वासन है । नियतिवाद एक अदार्शनिक सिद्धांतोसे समुत्पन्न काल्पनिक भूत है । इसको डाढ़ी पकड़कर हिला दीजिये और तत्वमामाके दाविध मित्रोवहिासागरी जम्होजिषसे नई पीढ़ी को बनाइये । यह बड़ा सीधा उपाय है। न इसमें कुछ कारना है न विचारता है एक ही बान याद कर लो “जो होना होगा मो होगा ही भाई, इस बातका भी उपयोग जब तुम्हारा पुरुषार्थ शक जायनो मांस लेने के लिए कर लो, कुछ हज नहीं, पर यह धर्म नहीं है। धर्म है-स्वपुरुषार्थ, स्वसंशोधन और स्वदृष्टि । महावीरके समयमें मक्खलिगोशाल इस नियतिवादका प्रचारक था। आज सोनगढ़से नियतिवादकी आवाज फिरसे उठी है और वह भी कुन्दकुन्दके नामगर । भाननीय पदार्थ जुदा हैं उनसे तत्त्वव्यवस्था नहीं होती यह मैं पहले लिख चुका है। वों ही भारतवर्षने नियतिवाद और ईश्वरवादकै कारण तथा कर्मवादके स्वरूपको ठीक नहीं समझनेके कारण अपनी यह नितान्त परतन्त्र स्थिति उत्पन्न कर ली थी। किसी तरह अव नव-स्वातन्त्र्योदय हुआ है । इस युगमें वस्तुतत्त्वका यह निरूपण हो जिससे सुन्दर समाजव्यवस्था-पटक व्यक्तिका निर्माण हो। धर्म और अश्यात्मक नामपर और कुन्दकुन्दानार्यक सनामपर आलस्थ-पोषक पुण्य-पापलोपक नियतिवादका प्रचार न हो। हम सम्यक् तत्त्वव्यवस्थाको समय और समन्तभद्रादि आवायोके द्वारा परिशीलित उभयमुखी तत्त्वव्यवस्थाका मनन करें। निश्चय और व्यवहार का सम्यग्दर्शन-- "यस्मात क्रियाः प्रतिफलन्ति म भावशून्या:" अर्थात् भावान्य कियाएँ सफल नहीं होती। यह भाव क्या है ? जिसके बिना समस्त क्रियाएं निष्फल हो जाती है? यह भाव है निश्चयदष्टि । निश्चय रनिरपेक्ष आत्मस्वरूपको कहता है। परमवीतरागता पर उसकी दष्टि रहती है। जो क्रियाएँ इस परमवीनरागनाकी साधक और पोषक हो वे ही सफल हूँ। पुरुषार्थसिद्धयपायम बनाया है कि "निश्चयमिह भूतार्य व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् ।" अर्थात् निश्चयनय भूतार्थ है और व्यवहारनय अभूतार्थ। इस भूतार्थता और अभूतार्थताका क्या अर्थ है 'जब आत्मामें इस समय रागद्वेष मोह आदि भाव उत्पन्न हो रहे हैं। आत्मा इन भावों रूपसे परिणमन कर रहा है, तब परनिरपेक्ष सिद्धवत Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय और व्यवहारका सम्यग्दर्शन ५५ स्वरूपके दर्शन उसमें कैसे किए जा सकते है ? यह शंका व्यवहार्य है और इसका समाधान भी सीधा और स्पष्ट है कि प्रत्येक आत्मा सिद्धके समान अनन्त चैतन्य है, एक भी अविभाग प्रतिच्छेदकी न्यूनता किसी आत्मार्क चैतन्यमें नहीं है। सबकी आत्मा असंख्यातप्रदेशवाली है, अखण्ड द्रव्य है। मूल द्रव्यदृष्टिसे सभी आत्मानोंकी स्थिति एकप्रकारकी है । विभाव परिणमनके कारण गुणोंके विकाराम न्यूनाधिकता आ गई है। संसारी आत्माएं विभाव पर्यायांको धारण कर नानारूपमं परिणत हो रही है। इस र्गदर्शक रहता है उतनी ही उसकी विभावपरिणतिरूप व्यवहार स्थिति भी सत्य और भूतार्थ है । पदार्थ परिणमनकी दृष्टिमे निश्चय और व्यवहार दोनों भूतार्थ और सत्य हैं । निश्चय जहां मूल द्रव्यस्वभावको विषय करता है, वहाँ व्यवहार परसापेक्ष पर्यायको विषय करता है, निषिय कोई नहीं है। व्यवहारकी अभूतार्थता इतनी ही है कि वह जिन विभाव पर्यायोंको विषय करता है ने विभाग पर्याय है, उपादेय नहीं, शुद्ध इभ्यस्वरूप उपादेय है, यही नवकी भूतार्थता है जिस प्रकार निश्चय द्रव्यके मूल स्वभावको विषय करता है उसी प्रकार शुद्ध सिद्ध पर्याय भी निश्चय का विषय है। तात्पर्य यह कि परनिरपेक्ष द्रव्य स्वरूप और परनिरपेक्ष पर्याएँ निश्चयका विषय हैं और परसापेक्ष परिणमन व्यवहारके विषय है। व्यवहारकी अभूतार्थता वहाँ है जहाँ अमा कहता है कि "में राजा हूँ में विद्वान् है में स्वस्थ है, में ऊंच हूँ, यह नीच है, मेरा धर्माधिकार है, इस धर्माधिकार नहीं है आदि" तब अर्न्त दृष्टि कहता है कि राजा विद्वान् स्वस्थ ऊंच नीच आदि बाह्यपेश होने से देय है इन रूप तुम्हारा मूलस्वरूप नहीं है, वह तो सिद्धके समान शुद्ध है, उसमें न कोई राजा है न रंक, न कोई ऊंच न नीच, न कोई रूपवान् न कुरूपी उसकी दृष्टिमें सब खण्ड चैतन्यमय समस्वरूप समाधिकार है। इस व्यवहारमें अहंकारको उत्पन्न करनेका जी जहर है, भेद खड़ा करने की जो कुटे है निश्चय उसीको नष्ट करता है और अभेद अर्थात् समत्वकी और दृष्टिको ले जाता है और कहता है कि क्या खोच रहा है. जिसे तु नीच और तुच्छ समझ रहा है बहसी अनन्त चैतन्यका अखण्ड मौलिक द्रव्य है, पकृत भेदसे तू अहंकारकी सृष्टि कर रहा है और भेदका पोषण कर रहा है, परीचित उंचनीवभावकी कल्पना धर्माधिकार जैसे भीषण अहंकारी बात बोलता है? इस अनन्त विभिन्नतामय अहंकारपूर्ण व्यवहारससार निश्नय ही एक अभूतशलाका है जो दृष्टिमें व्यवहारका नहीं पड़ने देती। कार्य है। जय 1 पर ये निश्वयकी चरचा करने वाले ही जीवनमें अनन्त भेदांकी कायम रखना चाहते है । व्यवहारलोपका भय पग पगपर दिखाते हैं । यदि दरसा मंदिरमें आकर पूजा कर लेता है तो इन्हीं व्यवहारसोपका भय व्याप्त हो जाता है। भाई व्यवहारका दिप दूर करना ही तो प्रसारका अवसर आता है तो क्यों व्यवहारलोपसे डरते हो ? कचनक इस देश व्यवहारसे चिपटे रहोगे और धर्मके नामपर भी अहंकारका पोषण करते रहोगे ?अहंकारकेलिए और क्षेत्र पड़े हुए हैं, उन कुयोग तो अहंकार कर ही रहे हो ? बाह्य विभूतिके प्रदर्शनसे अन्य व्यवहारोंमें दूसरोंखे श्रेष्ठ बनने का अभिमान पुष्ट कर ही लेते हो, इस धर्मक्षेत्रको तो ममताकी भूमि बनने दो धर्म क्षेत्रको तो धनके प्रभुत्व अ रहने दो। आखिर यह अहंकारक विष कहाँ तक आज विश्व इस अहंकारी भीषण ज्यादाओं भस्मसात हुआ जा रहा है । गोरे कालेका अहंकार हिन्दू मुसलमानका अहंकार, धनी निर्धनका अहंकार सत्ताका अहंकार,ॐषनीचका अहंकार, आदिछूत अछूतका अहंकार आदिइस सहमजिह्न अहंकारनागकी नागदमनी औषधि freeवृष्टि ही है । यह आत्ममात्रको समभूमिपर लाकर उसकी आंख खोलती है कि देखो, मलमे तुम सब कहाँ भिन्न हो ? और अन्तिम लक्ष्य भी तुम्हारा वही समस्वरूपस्थिति प्राप्त करना है तव क्यों बीच पड़ावोंमें अहंकारका जैन करके उनकी मिथ्या प्रतिष्ठाकेलिए एक दूसरे खून के प्यासे हो रहे हो ? धर्मका क्षेत्र तो कमसे कम ऐसा ने दी जहाँ तुम्हें स्वयं अपनी लगाना भान हो और दूसरे भी उसी समदास मान कर सके। "सम्मीलने नयनयोः न हि किचिदस्ति" आंख बजाने पर यह सज नेद तुम्हारे लिए कुछ नहीं है। मांफर्म तुम्हारे साथ वह अहंकारविष तो चला जायना Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ तत्त्वार्थं वृत्ति-प्रस्तावना पर महजो भेवसृष्टि कर जाओगे उसका पाप मानवसमाजको भोगना पड़ेगा। यह मूह मानव अपने पुराने पुरुषों द्वारा किये गये पापको भी बाप के नामपर पोषता रहना चाहता है । अतः मानवसमाजकी हितकामनासे भी 'निश्चयदृष्टि - आत्मसमत्वकी दृष्टि को ग्रहण करो और पराश्रित व्यवहारको नष्ट करके स्वयं शान्तिलाम करो और दूसरोंको उसका मार्ग निष्कंटक कर दो। समसारका सार नहीं है। कुन्दकुन्दकी आत्मा समयसारके गुणगान से उसके ऊपर अर्ध चढ़ाने से, उसे चांदी सोने में मढ़ानेसे सन्तुष्ट नहीं हो सकती। वह तो समयसारको जीवनमें उतारनेसे ही प्रसन्न हो सकती है। यह जातिगत ऊँचनीच भाव, यह धर्मस्थानोंमें विसीका अधिकार किसीका अधिकार इन शंकाही निश्चयको उपादेय और भूतार्थ तो कहेगा पर जीवनमें निश्चयकी उपेक्षा ही कार्य करेगा, उसकी जड़ खोदने का ही प्रयास करेगा। निचयनयका वर्णन तो कागज पर लिखकर सामने टांग लो। जिससे सदा तुम्हें अपने ध्येयका भान रहे। राच पूछो तो भगवान् जिनेन्द्रकी प्रतिमा उसी निश्चयनवकी प्रतिकृति है जो निपट वीतराग होकर हमें आत्ममा सत्यता सर्वात्मसमस्य और परमवीतरागताका पावन सन्देश देती है पर व्यवहारमूडमानव उसका मात्र अभिषेक कर ब्राह्मपूजा करके ही कर्तव्यकी इतिश्री समझ लेता है । उलटे अपने में from after अहंकारका पोषण कर मंदिरमें भी चौका लगाने का दुष्प्रयत्न करता है । 'अमुक मन्दिर में आ सकता हूँ अमुक नहीं इन विधिनिषेधांकी कल्पित अहंकारपोषक दीवार खड़ी करके धर्म शास्त्र और परम्पराके नामपर तथा संस्कृतिरक्षा के नामपर सिरफुड़ोबल और मुकदमेशजोकी स्थिति उत्पन्न की जाती है और इस तरह रौद्रानन्दी रूपका नग्न प्रदर्शन इन धर्मस्थान में आये दिन होता रहता है। विनयावलम्बियों की एक मोटी भ्रान्त धारणा यह है कि ये द्रव्यमें अशुद्धि न मानकर पर्यायको अशुद्ध कहते हैं और द्रयको सदा शुद्ध कहने का साहस करते हैं। जब जनसिद्धान्त में द्रव्य और पर्यायकी पृयकता ही नहीं है तब केवल पर्याय ही अशुद्ध कैसे हो सकती है जब इन दोनोंका तादात्म्य है तब दोनों ही अशुद्ध हैं । दूसरे शब्दोंमं द्रव्य ही पर्याय बनता है । द्रव्यशून्य पर्याय और पर्यायशून्य द्रव्य हो ही नहीं सकता । जब इस तरह दोनों एकसनाक ही है तब अशुद्धि पर्याय तक सीमित रहती है द्रव्य में नहीं पहुँचती यह कथन स्वतः निःसार हो जाता है। पर्यागके परिवर्तन होनेपर इथ्य किसी अपरिवर्तित अंशका नाम नहीं है और न ऐसा अपरिवर्तिष्णु कोई अंश ही द्रव्यमें है जो परिवर्तन सभा अछूता रहता हो किन्तु द्रव्य अग्रण्ट गरिननित होकर पर्याय नाम पाता है। उसकी परिवर्तित पास अनाद्यनन्तकाल तक चालू खती है, इसीको द्रव्य या श्रीव्य कहते हैं। अतः पर्याय अशुद्ध होती है और द्रव्य शुद्ध बना रहता है यह धारणा द्रव्यस्वरूप के अज्ञानका परिणाम है । इसी धारणा निश्चय में सिद्ध है। निविकार है, कर्मबन्धनमुक्त हूँ' आदि वर्तमानकालीन प्रयोग करने लगते हैं । और उसका समर्थन उपर्युक्त भ्रान्तधारणाके कारण करने लगते हैं। पर कोई भी समझदार आपकी नितान्त अशुद्ध दशामें अपनेको शुद्ध माननेका भ्रान्त साहस भी नहीं कर सकता। यह कहना तो उचित है कि मुझमें सिद्ध होने की योग्यता है, में सिद्ध हो सकता हूँ, या सिद्धका मूल द्रव्य जितनं प्रदेवाला जिन गुणधर्मवाला है उनने ही प्रदेशवालय उनने ही गुणधर्मवाला मेरा भी हैं। अन्तर इतना ही है कि सिके सब गुण निगवरण है और मेरे सावरण । इस तरह वाक्ति प्रदेश और अविभाग प्रतिच्छेद समत्व कहना जुदी जान है वह नमागता तो सिद्धके समान निगादिया से भी है। पर हमारी मालिक एकजातीयताका निरूपण होता है न कि वर्तमान कालीन पर्यायका । वर्तमान तो अमर है। इसीतरह निभयनय केवल द्रव्यको विषय करता है यह धारणा भी मिच्दा है वह तो पर निर देश रवभावको विषय करनेवाला है चाहे वह द्रव्य हो या पर्याय सिद्ध पर्याय परनिरपेक्ष स्वभावभूत है, उसे निश्चयनय अवश्य विषय करेगा जिरा प्रकार द्रव्यके भूतस्वरूपपर दृष्टि रखनेसे आत्मस्वरूपकी प्रेरणा t Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परलोकका सम्पदर्शन ५७ मिलती है उसी तरह सिद्ध पर्यामपर भी दृष्टि रखनेसे आरबोन्मुखता होती है। अतः निश्यय और व्यव हारका सम्यग्दर्शन करके हमें विलयनयके लक्ष्य आत्मसमत्वको जीवनव्यवहारमें उतारनेका प्रयत्न करना चाहिए। धर्म-अधर्म की भी यही कसौटी हो सकती हैं जो क्रियाएं आत्मस्वभावकी साधक हों परमधील रागता और आत्मसमताकी ओर से जाँय वे धर्म है शेष अधर्म । परलोक का सम्यग्दर्शन धर्मक्षेत्र में सब ओरसे 'परलोक सुधारों की आवाज सुनाई देती है। परलोका अर्थ है मरणोत्तर मार्गदर्शक बन । अएकार्थी महाके बताए हुए मार्गपर चलने से परलोक मुखी और समद्ध होगा। जैनधर्म भी परलोकके सुखोंका मोहक वर्णन मिलता है। स्वर्ग और नरकका सांगोपांग विवेचन सर्वत्र पाया जाता है। संसारमें चार गतियाँ हैं- मनुष्यगति नियति नरकगति और देवगति । नरक अत्यन्त दुःखने स्थान है और स्वर्ग सांसारिक अभ्युदय के स्थान इसमें सुधार करना मानवशक्तिके बाहरकी शत है। इनकी जो रचना जहाँ है सदा नैसी रहनेवाली है। स्वर्गयें एक देवको कमसे कम सदायोजना बत्तीस देवियाँ अवश्य मिली है। शरीर कभी रोगी नहीं होता। खाने-पीनेकी चिन्ता नहीं। सब मनकामना होते ही समुपस्थित हो जाता है। नरक में सब दुःख ही इसकी सामग्री है। यह निश्चित है कि एक स्थूल शरीरको छोड़कर आत्मा अन्य स्थूल शरीरको धारण करता है। यही परलोक कहलाता है'। में यह पहिले विस्तारसे वता आया हूँ कि आत्मा अपने पूर्वशरीरके साथ ही साथ उस पर्याध उपार्जित किये ज्ञानविज्ञानशक्ति आदिको नहीं छोड़ देता है, मात्र कुछ सूक्ष्म संस्कारोंके साथ परलोकमें प्रवेश करता है। जिस योनि में जाता है वहाँके वातावरणके अनुसार विकसित होकर बढ़ता हैं। अब यह विचारने की बात है कि मनुष्यके लिए मारकर उपस होने के दो स्थान तो ऐसे हैं जिन्हें मनुष्य इसी जन्म में सुधार सकता है, अर्थात् मनुष्य योनि और पशु योनि इन दो जन्मस्थानोंके संस्कार और बातावरणको सुधारना तो मनुष्य के हाथमें है ही। अपने स्वार्थकी दृष्टिसे भी आये परलोकका सुधारता हमारी रचनात्मक प्रवृत्तिकी मर्यादा है। बीज कितना ही परिपृष्ट क्यों न हो यदि खेत ऊबड़ खाबड़ है, उसमें कास आदि है, सांप चूहे छंदर आदि रहते हैं तो उस बीजकी आधी अच्छाई तो खेतकी खराबी और गन्दे वातावरण से समाप्त हो जाता है। अतः जिसप्रकार चतुर किसान बीजकी उत्तमत्ताकी चिन्ता करता है उसी प्रकार खेतको जोतने बखरने उसे जीत करते, घास फम उत्पादने आदिको भी पूरी पूरी कोशिश करता ही है, तभी उसकी खेती समृद्ध और आशातीत फलप्रसू होती है। इसी तरह हमें भी अपने परलोकके मनुष्यसमाज और पशुसमाज रूप दो तो हम योग्य बना लेना चाहिए कि कदाचित् इनमें पुनः शरीर धारण करना पड़ा तो अनुकूल सामग्री और सुन्दर वातावरण तो मिल जाय। यदि प्रत्येक मनुष्यको यह दृष प्रतीत हो जाय कि हमारा परलोक यही मनुष्य रामाज है और परलोक सुधारने का अर्थ इसी मानव समाजको सुधारना है तो इस मानवसमाजका नकाशा ही बदल जाय। इसी तरह पशुसमाजके प्रति भी सद्भावना उत्पन हो सकती है और उनके खानेपीने रहने आदिका ममुचित प्रबन्ध हो सकता है। अमेरिकाकी गाएँ रेडियो सुनती है और सिनेमा देखती हैं। बाँकी गोशालाएं यहां मानव सोंगे अधिक स्वच्छ और व्यवस्थित है। परलोक अर्थात् दूसरे लोग, परलोकका सुधार अर्थात् दूसरे लोगोंका - मानवसमाजका सुधार । जब यह निश्चित है कि मरकर इन्हीं पशुओं और मनुष्यांम भी जन्म लेने की संभावना है तो समझदारी और सम्यग्दर्शनकी बात तो यह है कि इस मानव और पशु समाज आए हुए दोषको निकालकर इन्हें निर्दोष बनाया जाय। यदि मनुष्य अपने कुकृत्योंसे माननजातिमें क्षय, सुजाक को मृगी आदि रोगोंकी सृष्टि करता है, इसे नीतिभ्रष्ट आचारविहीन, कल केन्द्र और राखीर आदि बना देता है तो वह कैसे अपने मानव परलोकको सुखी कर सकेगा। अरखिर उसे भी इसी नरकभूत समाजमें जन्म सेना पड़ेगा। इसी तरह गाय भैंस आदि पशुओं की दशा यदि मात्र मनुष्यके ऐहिक स्वार्थके ही आधारपर चली तो Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ तत्वार्थवृत्ति प्रस्तावना 1 उनका कोई सुधार नहीं होता। उनके प्रति सद्भाव हो यह समझे कि कदाचित् हमें इस योनि में जन्म लेना पड़ा तो यही भोग भोगना ने जो परम्पराएँ हम इनमें रहे हैं उन्ही के पत्र में हम भी पिसना पड़ेगा जैसा करोगे वैसा भरोगे, इसका वास्तविक अर्थ यही है कि यदि अपने कुकृत्यों इस मानव समाज और पशु समाजको कलंकित करोगे तो परलोकमें कदाचित् इन्हीं समाज मे आना पड़ा तो उन अपने कुकृत्यों का भोग भोगना ही पड़ेगा । मानव समाजका सुख दुःख तत्कालीन समाज व्यवस्थाका परिणाम है अतः परलोकका सम्यदर्शन यही है कि जिस आषं परलोकका सुधार हमारे हाथमें है उसका सुधार ऐसी सर्वोदयकारिणी व्यवस्था करके करे जिससे स्वर्ण उत्पन्न होनेकी इच्छा ही न हो । यही मानवलोक स्वर्गलोकमे भी अधिक सभ्युदय कारक बन जाय । हमारे जीवन के असदाचार असयम कुठेव बीमारी आदि सीधे हमारे वीर्यऋणको प्रभावित करते हैं और उनमें जन्म लेनेवाली सन्नतिके द्वारा मानवसमाज में वे सव बीमारियां और चरित्रभ्रष्टताएँ फैल जाती हैं। अत: इनसे. मार्गदर्शक सुविधामा जी महाराज जात्पर्य यही है कि खोटे संस्कार सन्तति द्वारा उस मानवजाति घर कर लेते हैं जो मानवजाति कभी हमारा पुनः परलोक बन सकती है। हमारे कुकृत्योंमे नरक बना हुआ नही मानवसमाज हमारे पुनर्जन्मका स्थान हो सकता है। जीवन मानवसमाज और पशुजातिके सुधार और उद्धार में लग जाता है तो नरकमें जन्मलेने का मौका ही नहीं आ सकता । कदाचित् नरकमे पहुँच भी गए तो अपने पूर्व संस्कारवश नारकियोंका भी सुधारनेका प्रयत्न किया जा सकता है। तात्पर्य यह कि हमारा परलोक यही हमसे भिन्न अखिल मनुष्य समाज और पशुजाति है जिनका सुधार हमारे परलोकका आधा सुधार है। आचार्य यदि हमारा दूसरा परलोक है हमारी सन्तति हमारे इस परीरस होनेवाले यावत् सत्कर्म और दुष्टमीक रक्तद्वारा जीवित संस्कार हमारी सन्ततिमें आते हैं। यदि हममें को क्षय या सुजाक जैसी संक्रामक बीमारियों है तो इसका फल हमारी सन्ततिको भोगना पड़ेगा। असदाचार और शराबखोरी आदि होनेवाले वकार रक्तद्वारा हमारी सन्तति अंकुरित होंगे तथा बालक जन्म लेने वाद व पल्लवित पुष्पित और कलिन होकर मानवजातिको नरक बनाएंगे। अतः परलोक सुधारका अर्थ है सन्नतिको सुधारना और सन्नतिक सुधारका अर्थ है अपनेको सुधारना। जबतक हमारी इस प्रकारको अन्तर्मुखी दृष्टि न होगी तबतक हम मानवजातिके भावी प्रतिनिधियां जीवनमें उन असंख्य काळी रेखाओंको भक्ति करने जो जोगी हमारे असंयम और पचारका फल हैं। एक परक - परम्परा जिस प्रकार मनुष्य पुनर्जन्म रक्तवग अपनी मन्ननि होता है उसी तरह विचारों द्वारा मनुष्यका पुनर्जन्म अपने शिष्यों में या आसपास के लोगों में होता है । हमारे जैसे आचार-विचार होंगे स्वभावतः शिष्योंके जीबनमें उनका असर होगा ही । मनुष्य इतना सामाजिक प्राणी है कि वह जान कर अनजानमें अपने आसपास के लोगोंको अवश्य ही प्रभावित करता है। आपको बीड़ी पीता छोटे को झूठे ही लकड़ीकी बीड़ी पीनेकी होता है और यह खेल आने जाकर व्यसन का रूप ले लेता है शिष्यपरिवार बोमका पिट है उसे जैसे सांमें लाया जायेगा। अतः मेनु ध्व ऊपर अपने सुधार-बिगाड़ी जबाबदारी तो है ही साथ ही साथ मानव समाजके उत्थान और पतनमें भी उसका साक्षात् और परम्परया खास हाथ है। रक्तजन्य सन्तति तो अपने पुरुषार्थद्वारा कदाचित् पशुजन्य कुसंस्कारोंसे मुक्त भी हो सकती है पर यह विचारसन्तति यदि जहरीली विचारधाराने बेहोश हुई तो इसे होणमें लाना ब्रहा दुष्कर कार्य है। आजका प्रत्येक व्यक्ति इस नूतनवीढ़ी पर ही आंख गड़ाए हुए हैं। कोई उसे मजहबी व पिलाना चाहता है तो कोई हिन्दुरख की तो कोई जातिकी तो कोई अपनी कुल परम्परा की न जाने कितने प्रकारकी विचारधाराओंकी रंग बिरंगी दारावें मनुष्यकी दिने तैयार की है और अपने वर्गका उच्चन्ध, स्वमता स्थायित्व और स्थिर स्त्राी संरक्षाके लिए विविध प्रकारके धार्मिक सांस्कृतिक सामाजिक और राष्ट्रीय आदि सुन्दर मोहक पाल टालकर भोली पीढ़ीको खिर उन्हें Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त का सम्यग्दर्शन मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ५९ स्वरूपच्युत किया जा रहा है। वे इसके नशे में उरा मानवसभत्याधिकारको भूलकर अपने भाइयोंका खून बहाने में भी नहीं हिचकिचाते पशुओं सुधार और उनकी सुरक्षाकी बात तो सुनता ही कौन है ? अतः परलोक सुधार के लिए हमें परलोकके सम्यग्दर्शनकी आवश्यकता है। हमें समझना होगा कि हमारा पुरुषार्थ किस प्रकार उस परलोकको सुधार सकता है। परलोकमें स्वर्गके सुखादिके लाभरी इस जन्ममें कुछ वारित्र या तपश्चरणको करना तो लम्बा व्यापार हूँ । यदि ३२ देवियोके महासुखकी तीव्रतामनामे इस जन्म में एक बूढ़ी स्त्रीको छोड़कर ब्रह्मचर्यं धारण किया जाता है तो यह केवल प्रवचना है। न यह चारित्रका सम्यग्दर्शन है और न परलोकका यह तो कामनाका अनुचित पोषण है, कपालको पुतिका दुष्प्रयत्न है। अतः परलोक सम्बन्धी सम्यग्दर्शन साधके लिए अत्यावश्यक है। कर्मसिद्धान्तका सम्यग्दर्शन जैन सिद्धान्त सर्वासी ईश्वरसे जिस किसी तरह मुक्ति दिलाकर यह घोषणा की थी कि प्रत्येक जीव स्वतंत्र है वह स्वयं अपने भाग्यका विभाता है। अपने कर्मका कर्ता और उसके फलका भोक्ता है । परन्तु जिस पक्षी की चिरकालमे पिंजरे में परतन्त्र रहने के कारण सहज उड़ने की शक्ति कुटित हो गई है उसे पिंजड़ेंगे बाहर भी निकाल दीजिए तो वह पिजड़की ओर ही झपटता है। यह जीव अनादि परतन्त्र होने के कारण अपने मूल स्वातन्त्र्य आत्मसमानाधिकारको भूला हुआ है। उसे इसकी याद दिलाते हैं तो कभी वह भगवान्का नाम लेता है, तो कभी किसी देवी देवता का । और कुछ नहीं तो 'करम्मति टाली नाहि दले' का नारा किसीने छीन ही नहीं लिया। 'विधिका विधान' 'भवितव्यता अमिट है' आदि नारे बच्चे से बूढ़ेतक सभीकी जवानगर बड़े हुए हैं। ईश्वरकी गुलामी से हटे तो यह कर्मकी गुलामी गले आ पड़ी। मैंने अन्तके विवेचनमें कर्मका स्वरूप विस्तारसे लिखा है। हमारे विचार वचन व्यहार और शारीरिक क्रियाओंके संस्कार हमारी आत्मावर प्रतिक्षण पड़ते हैं और उन संस्कारोंको प्रबोध देनेवाले कन् आत्मा सम्बन्धका प्राप्त हो जाते हैं। आजका किया हुआ हमारा कर्म कल देव बन जाता है। पुराकृत कर्मको ही देव विधिभाग्य आदि कहते है जो कर्म हमने किया है, जिसे हमने उमे चाहें तो दूसरे क्षण ही जवाड़कर फेंक सकते हैं। हमारे हाथ की मत्ता है। उनकी उदीरणा - समय से पहिले उदय में लाकर द्वाड़ा देना मंत्रमण - साताको अमाता और असानाको खाता बना देना, उत्कर्षण स्थिति और फल देने की प्रक्तिम वृद्धि कर देना, I - स्थिति और फलदानशक्तिका हास कर देना, उपथम न आने देना या करना उन अयोपशम आदि विविध दशाएँ हमारे पुरुषार्थके अधीन है। अमुक कोई कर्म था इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वह व्रज्ज्रलेप हो गया। बंधनेके बाद भी हमारे अच्छे बुरे विचार और प्रवृत्तियों उसको अवस्थामें सैकड़ों प्रकार परिवर्तन होते रहते हैं। हां, कुछ कर्म ऐसे जरूर बंध जाते हैं जिन्हें ना कठिन होता है उनका फल उसीप सो मं एक ही होता है। भोगना पड़ता है। पर ऐसा कर्म -- सीधी बात है - पुराना संस्कार और पुरानो बानना हमारे द्वारा ही उत्पन्न की गई थी। यदि आज हमारे आचार-व्यवहार में शुद्धि आती है तो पुराने संस्कार धीरे धीरे या एकही झटके में समाप्त हो ही जायेंगे की बात है यदि आजकी तैयारी अच्छी है तो प्राचीनको नष्ट किया जा सकता है, यदि कमजोरी है तो पुराने संस्कार अपना प्रभाव दिखाएँगे ही ऐसी स्थिति में "कर्मगति टाली नहीं ट" जैसे क्लीयविचारों का स्थान है? में विचार तो उस समय शान्ति देनेके लिए हैं जब पुरुषार्थ पारनेपर भी कोई प्रबल आपान आ जाये, उस ममय मान्त्वना और सांस के लिए इनका उपयोग है। कला था. पुरुषार्थ नहीं हो रहा अतः रुषार्थ कीजिए जो भावी बातें हैं उनके द्वारा कर्मको गतिको अटल बताना उचित नहीं है। एक शरीर भाग्य किया है, रामयानुसार वह जीर्ण शीर्ष Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० तत्वार्थवृत्ति प्रस्तावना होगा ही । अब यह यह कहना कि 'कितना भी पुरुषार्थ कर लो मृत्यु से बच नहीं सकते और इसलिए कर्मगति अटल है वस्तुस्वरूपके अज्ञानका फल है। जब वह स्वापी पर्याय है तो आगे पीछे उसे जीर्ण शीर्ण होना ही पड़ेगा। इसमें पुरुषार्थ इतना ही है कि यदि युक्त आहार-विहार और संयमपूर्व चला जायगा तो जिन्दगी लम्बी और सुखपूर्वक चलेगी। यदि असदाचार और असंयम करोगे तो शरीर ब आदि रोगोंका घर होकर जल्दी क्षीण हो जायगा। इसमें कर्मकी क्या अटलना है? यदि कर्म यदि कर्म वस्तुनः अटल होता तो ज्ञानी जीन भिप्ति आदि साचनाओं द्वारा उसे क्षणभर काटकर सिद्ध नहीं होगे। पर इस आशय की पुरुषार्थप्रवण घोषणाएँ मूलतः शास्त्रोंमें मिलती ही हैं। स्पष्ट बात है कि कर्म हमारी कियाजों और विचारोंके परिणाम है। प्रतिकूल विकारोंके द्वारा पूर्व संस्कार हटाए जा सकते हैं। कर्म की दशाओं में विविध परिवर्तन जीवके भावोंके अनुसार प्रतिक्षण होते ही रहते है। इसमें अपना क्या है। कमजोरके लिए कर्मही क्या, कुत्ता भी अटल है, पर सबके लिए कोई भी अटल नहीं है परन्तु कर्मको टालने के लिए शारीरिक इसकी आवश्यकता नहीं है इसके लिये चाहिए। चूंकि श्री "भाव आत्माकी ही कमजोरी हुए थे अतः उसकी निवृत्ति भी आत्मा ही स्वभावोंसे स्वसंशोधन से ही हो सकती है। यही आत्मबल यदि है तो फिर किसी कर्मकी ताकत नहीं जो तुम्हें प्रभावित कर सके। श्री पंडित टोडरमलजीने मोक्षमार्ग प्रशासक और भविनयके सम्बन्धमं स्पष्ट लिखा है रि"सम्धि और होनहार तो किछु वस्तु नाहीं जिस काल व कार्य बने सोई हाललब्ध और जो कार्य भया सो होनहार में अध्यात्मवे विनवता आया है कि प्रतिक्षण वस्तुमें अनेक परिणमनोक तरतमभूत योग्यताएँ रहती है। जैसे निमित्त और जैसी सामग्री जुट जायगी तदनुकूल योग्यताका परि पवन होकर उसका विकास हो जायगा। इसमें स्वपुरुषार्थ और स्वशक्तिको पहिचानको आवश्यकता है। जिस जैनधर्म ईश्वर जैसी मूल समर्थ और प्रचलित कल्पनाका छेद करके जीवस्था का स्वाबलम्बी उपदेश दिया उसमें कर्म अमिट और विधिविधान अटल कैसे हो सकता है ? जो हमारी गलती है उसे हम कभी भी सुधार सकते हैं। यह अवश्य है कि जितनी पुरानो भूलें और आदतें होंगी उन्हें हटानेके लिए उतना ही प्रबल पुरुषार्थ करना होगा। इसके लिए समय भी अपेक्षित हो सकता है। इसका अर्थ पुरुषार्थ में अविश्वास कदापि नहीं करना चाहिए। T कर्मके सम्बन्धमें एक धम यह भी है कि कर्मके बिना पता भी नहीं हिलना संसारके अनेकों क अपने अपने अनुकूल प्रतिकूल संयोग होते रहते है उन उन पदार्थोंके सन्निधानमं जीवके माता और असाना का परिपाक होता है। जैसे ठंडी हवा अपने कारणोंसे चल रही है। स्वस्थ पुरुष की सानामें वह तो हो जाती है और निमोनियाँ रोगीके असानामें नोकमं बन जाती है। यह कहना कि 'हमारे साताके उदपने वकी चला दिया और रोगी के अमाता के उदपने भूल है ये तो नोकर्म है। इनकी समुत्पत्ति अपने कारणांम होती है और में उन कर्मकि उदयकी सामग्री बन जाते है। यह भी ठीक है कि उय क्षेत्र कालभावकी सामग्री के अनुसार कर्मके उदयमें उसकी फलदान गणिम तारतम्य हो जाता है। 'नामान्तराय उदय लाभको रोकता है और उसका क्षयोपशम लाभका कारण है इसका आन्तरिक अर्थ तो नहीं है कि जीवमें उसके यम से उस लाभको अनुभवनीयोगाता होती है। बाह्य पदार्थका मिलना आदि उस योग्यताजन्म पुरुषार्थ आदिके फल हैं। यह भी निश्चित है कि आत्मा भौतिक जगत्को प्रभावित करता है। आत्मा के प्रभाव के साक्षी स्मरेजिम हिनामि आदि है । अतः आत्मपरिणामों के अनुसार भौतिक जगत्‌में भी परिवर्तन प्रायः हुआ करते हैं। परमायिकोंकी तरह जैवकर्म अमेरिकामें उत्पन्न होनेवाली हमारी भाग्य साबुन में कारण नहीं हो सकता। कर्म अपनी आसपास की सामग्रीको प्रभावित करता है। अमेरिकामं उत्पन्न साबुन अपने कारणोंसे उत्पन्न हुई है। हाँ, जिससमय वह हमारे संपर्क में आ जाती है तब हमारी Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त का सम्यग्दर्शन ६१ सातामें नोकर्म हो जाती है। रास्तेमें पड़ा हुआ एक पत्थर सेकड़ों जीवोंके सैकड़ों प्रकारकं परिणमनमें तत्काल निमित्त बन जाता है, इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उस पत्थर को उत्पन्न करने में उसकी जीवोंके पुण्य-पापने कोई कार्य किया है। संसारके पदाओंकी उत्पत्ति अपने-अपने कारणोसे होती है । उत्पन्न पदार्थ एक दूसरेकी साता असाताके लिए कारण हो जाते हैं। एक ही पदार्थ समयभेदरो एकजोर या नानाजीवों के राग द्वेष और उपेक्षाका निमित्त होता रहता है। किनीका कालिक रूप मदा एकसा नहीं रहना। अत: कर्मका सम्पग्दर्शकागदशकों अपचायकालावसिागरमीयहोरानुकूल सत्पुरुषार्थम लगना चाहिए। वही पुरुषार्थ सत् है जो आत्मस्वरूप का साधक हो और आत्माधिकारको मर्यादाकी न लांघता हो। संसारके अनन्त अचेलन पदार्थोबा परिणमन यद्यपि उनकी उपादान योग्यताके अनुसार हाता है पर उनका विकास पुरष निमित्तसे अत्यधिक प्रभावित होता है । प्रत्येक परमाणुमें पुद्गलकी वे सब शक्तियां हैं जो किसी भी एक पुद्गलाण इन्धमे हो सकती है अतः उपादान योग्यताको कमी तो किसीमें भी नहीं है। रह जाती है पर्याययोग्यता, सो पर्याययोग्यता परिणमनांके अनसार बदल जायगी। रेत पर्यायसे मामुली कुम्हार आदि निमित्तोंसे घटरूप परिणमनका विकास नहीं हो सकता जैसे कि मिट्टीका हो जाता है पर कांचकी भट्टी में या चीनी मिट्टीवे. बारवाने में उमीन पयका कांच बड़े रूपसे और चीनी मिट्टीके पढे रूपसे स्थिरतर सुन्दर परिषमन विकसित हो जाता है। अचनन पदायोंके परिणमन जैसे स्वल: बद्विशन्य होने के कारण मंयोगाधीन है में चनन पदार्थोक परिणमन मान संयोगाधीन ही नहीं है। जबतक यह आत्मा परतन्त्र है नबतक उसे कुछ योगाधीन पटिगमन करना भी पड़ते हों फिर भी वह उन संयोगोंसे मुक्त होकर उन परिण मनसे मुक्ति पा सकते है। चेतन अपनी स्वशक्तिकी नरतमताके अनसार अपने परिणमनोम वाधीन बन सकता है। उसमें कर्म अर्थात हमारे पुराने संस्कार सभी तक बाधक हो सकते है जबतक हम अपने प्रयोगों द्वारा उदार विजय नहीं पालने । उन पुराने संस्कार और विकारोंसे जो पगलव्य हमारी आत्माले बंधा था, उगकी अपनी स्वत: सामर्थ्य कुछ नहीं है उसे बल तो हमारे मंस्कार और हमारी वासनायामे ही प्राप्त होना है। इसके सम्बन्धम सांस्यकारिकामं बहुन उफ्यवत दृष्टान्त बेश्या का दिया है। जिस प्रकार बश्या हमारी वासनाओंका बल पाकर ही हमें नानाप्रकासे नचाती है. हम उसके एकापर चलते हैं. उम है। अपना सर्वस्व मानते हैं, चमले है, चांटते है. जैमा वह कहती है वैसा करते हैं। पर जिस समय व वासनामिर्मक्त होकर म्वरूपदर्शी होते हैं उस समय वेश्या का बल समाप्त हो जाता है और वह हमारी गलाम होकर हमें शिाने की चेष्टा करती है, पूनः वासना जाग्रत करने का प्रयत्न करती है। यदि हम पक्के रहे तो वह स्वयं असफल प्रयत्न होकर हम छोड़ देनी है. और समझनी है कि अब इनपर रंग नहीं जन सकता। यही हालत कर्मपुद्गलको है। वह तो हमारी बारानाका बल पार ही सस्पन्द होता है। बंधा भी हमारी वासनाओंके कारण ही था और दंगा या नि:मार होगा तो हमारी वागतानिर्मक्त परिणतिसे ही । कर्मका बल हमारी वासना है और वह यदि निबल होगा तो हमारी बीतगनतामे ही । शास्त्राम मोहनीयको काँका राजा कहा है और ममकार तथा अहंकारको माहराजका मन्त्री । मोह अर्थात् मिप्यादर्शन, राग और द्वेष। बास्य पदार्थों में ये मेरं हैं' हम ममकारसे तथा 'म ज्ञानी हैं रूपवान' इत्यादि अहंकारसे राग द्वेषकी मुष्टि होती है और मोहाज को मेना तैयार हो जाती है। जिस समय इस मोहराजका पतन हो जाता है उस समय मेना अपने आप निवार्य होकर तितर बितर हो जाती है। साथ रह गया इन कुभावोंके माध बंधनेवाला पुदगल । मो वह तो विचारा पर द्रव्य है। वह यदि आत्माम पहा भी रहा तो भी हानिकारक नहीं। सिभिलाएर भी सिद्धाके पास अनन्न पद्गलाणु पड़े हाग पर वे उनमें रागादि उत्पन्न नहीं कर सकते क्योंकि उनम भीतरसे वे कुभाव नहीं है। अत: मोहनीयकं नट होते ही, बोतगगता आते ही वह बंधा हुआ द्रव्यभी झड़ जायगा, या न भी सड़ा वहाँ ही बना रहा तो भी उसमें जो कर्मगता आया है वह समाप्त हो जायगा, वह मात्र पुद्गलपिड रह जायगा। कर्मपना Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवत्ति-प्रस्तावना तो हमारी ही वारानामे उसमें आया था मो समाप्त हो जायगा। "करम विचारे कौन, भूलं मेरी अधिकाई । अग्नि सहे घनघात लोहकी संगति पाई ।" यह स्तुति हुम रोज पढ़ते हैं। इसमें कर्मशास्त्रका पारा तत्व भरा हुआ है। तात्पर्य यह कि-कर्म हमारी लगाई हुई खेती है उसे हमीं सींचते हैं। चाहें तो उमे निर्जीव कर दें चाहं तो सजीव। पर पृगनी परतन्त्रताके कारण आत्मा इतना निर्बल हो गया है कि उसकी अपनी कोई आवाज ही नहीं रह गई है। आत्मामें जितना सम्यग्दर्शन और स्वरूप-स्थितिका बल आयगा उतना ही वह सबल होगा और पुरानी बासना समाप्त होती जाँचगी। इस तरह कर्मके यथार्थ रूपको समझ कर हम अपनी शक्तिको पहिचान करनी चाहिए और उन सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियोंका संवर्धन तथा गोषण करना चाहिए जिससे पुरानी कुवासनाएँ नष्ट होकर वीतराग चिन्मय स्वरूपकी पुनः प्रनिष्ठा हो। शासका सम्यग्दर्शनवैदिक परम्परा और जैनपरम्पगमें महत्वका मौलिक भेद यह है कि वैदिक परम्परा धर्म-अधर्मव्यवस्थाके लिए वेदोंको प्रमाण माननी है जब कि जैन परम्पराने वेद मा किसी शास्थकी केवल शास्त्र होने केही कारण प्रमाणता स्वीकार नहीं की है । धर्म अधर्मकी व्यवस्थाके लिए परपके तत्वज्ञानमालक अनुभवको प्रमाण माना है । वैदिक परापरामं स्पष्ट घोषणा है बि.---'धर्म चोवनक मार्गदर्शक :- अपमझ लीसिविनिम्यवस्थामनीमाटराजमाण वेद है । इसीलिए वेदपक्षवादी मीमांसकने पूरुषकी सर्वजनास ही इनकार कर दिया है। यह धादि अतीन्द्रिय पदार्थोके सिवाय अन्य पदार्थोका यथासंभव प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे ज्ञान मानता है, पर धर्मका ज्ञान बंद के ही द्वारा मानता है। जब कि जन परम्परा प्रारम्भरी ही वीतरागी पुरुष के नवज्ञानमलक वचनाको प्रमादिम प्रमाण मानती आई है। इसीलिए स परम्प गर्म पुरुपकी सर्वज्ञना स्वीकृत हुई है। इस विवेचन इसमा स्पष्ट है कि कोई भी शास्त्र म मास्न होने के कारण ही जैन परम्पको स्वीकार्य नहीं हो सकता जब तक कि उसके वीतरागययाधंबंदिषणीतल का निस्त्राय न हो जाय । साक्षात सर्वजनस्वके निश्चर या मर्वजप्रणीत मूल-परम्परागतत्व के निश्चय के बिना कोई भी शास्त्र धर्मके विषय में प्रमाणकोटिमें उपस्थित नहीं किया जा सकता। बदकी गलामीको जैन नत्वशानियोंने हमारे ऊपरमे उतारकर हमें पुरुषानुभवमूलक पौरुषेय वचनोंको परीक्षापूर्वक माननेकी राय दी है.। पर दास्त्रोंके नामपर अनेक मूल परम्पराम अनिर्दिष्ट विषयांके मंग्राहक भी शास्त्र तैयार हो गये हैं । अनः हम यह विवेक तो करना ही होगा कि इस शास्त्रके द्वाग प्रतिपाद्य विषय मन अहिंसापरम्पराम मेल खाते हैं या नहीं ? अथवा तत्कालीन प्राह्मणधर्मके प्रभावन प्रभावित हुए है। श्री पंडित जगलकिशोरजी मुरुताग्ने ग्रन्थपरीक्षाके तीन भागोंमे अनेक ऐसे हो न्योकी आलोचना की है जो उमास्वामी और पूज्यपाद जैसे युगनिर्माता आचायोंके मामपर बनाए गा। जिम जन्मना जातिव्यवस्थाका जन संस्कृतिन अस्वीकार किया था कुछ पुराणग्रन्थोंम वही अनेक मकान और परिकरोंके साथ विराजमान है। जैनमन्वृति बाध आडम्बरीसे शून्य अध्यात्म-अहिंसक संस्कृति है । उसमें प्राणिमाका अधिकार है। ब्राह्मणधर्ममें धर्मका उत्त्चाधिकारी ब्राह्मण है जब कि जैन मंस्कृतिन धर्मका प्रत्यक द्वार मानवमात्रकेलिए उन्मुक्त रखा है। किमी भी जातिका किमी भी वर्णका मानव धर्म के मन नर तक बिना किसी रुकावटके पहुंच सकता है। पर कालक्रममे यह संस्कृति ब्राह्मणधर्मसे पगमन हो गई है. इसमें भी वर्णव्यवस्था और जानिगत उच्चनीच भाव आदि शामिल हो गये हैं। नर्पण यात आध्यायप्रथा आदि इसम भी प्रचलित हुए। यज्ञोपवीतादिरांस्वारोंन जोर पकडा है। दक्षिण में ना जैन और ब्राह्मणमं फर्क लग्ना भी कठिन हो गया है। तदनुसार ही अनेक ग्रन्योंकी रचनाएँ हुई और मनी भावके नामपर प्रचलित हैं। पिवर्गाचार और चर्चासागर जैसे अन्य भी शास्त्रके खातेमें खतयारा हा है। दामन देवताओंकी पूजा प्रतिष्ठा दायभाग आदिक शास्त्र भी बने है। कहनका तात्पर्य Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वाधिगम के उपाय ३ यह कि मात्र शास्त्र होने के कारण ही हर एक पुस्तक प्रमाण और ग्राह्य नहीं कही जा सकती। अनेक टीकारोंने भी मुलग्रन्थका अभिप्राय समझने में भलं की है । अग्नु । हमें यह ती मानना ही होगा कि शारक पुस्पकृत हैं। पद्यपि महापुरुष विशिष्ट ज्ञानी और मोक कल्याणकी सदभावनाबाले थे पर क्षायोपशामिकज्ञानवा या गरम्प रावदा मनभेदकी जायश तो हो ही सकती है। एमे अनेक मतभेद गोम्मटमार आदिम स्वयं उलिथिन । अनः मात्र विषयक सम्यग्दर्शन भी प्राप्त करना होगा कि शात्रम किस युगमं किन पात्रके लिए किस विवक्षाने क्या बात लिखी गई है ? उमका ऐतिहासिक पर्यवेक्षण भी काना होगा। दानशाम्बके ग्रन्याम खण्डन गाड़ा के प्रगंगम ताकालीन या पूर्वकालीन ग्रन्थोंका परपरमें आदान-प्रदान पान पसे हुआ है। अतः आत्म रामाधकको जन संस्कृतिकी शास्त्र विषयकः दष्टि भी प्राप्त करनी होगी। हमारे यहां गणकत प्रमाणला है। गणवान वक्ता के द्वारा कहा गया हास्थ जिसमें हमारी मलधागग विरोध न जाता है प्रमाण है। इसीतरह हमें मन्दिर, गम्या, मगाज. शरीर. जोवन, विवाह आयिका मम्यग्दर्शन कर के सभी प्रवतियोंकी पुनारबना अमममत्वके आना करनी चाहिए नभी मानव जातिका कल्याण र अक्तिकी मुक्ति हो सकेगी। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री.विशिष्मागर जी महाराज झानं प्रमाणमात्मादेरुपायो न्याम इष्यते । नयो शातुरभिप्रायो यक्तितोऽर्थपरिग्रहः ॥"-घीय० । अकलंत्रदेवनं रघीयस्वय बत्तिम बनाया जीयदि पोंका गवत्रम निक्षत्र हाम न्याम करना चाहिए, नमी प्रमाण जार नयन उनमा पचावन् सम्पशन होता। जान प्रमाण होता है । आक्ष्माविको रखने का उपाय न्यान है। जाना अभिप्रायको नय कहने । प्रमाण और न जानात्मक दपाय है और निक्षेप वर तुम्प है। इसीलिए सोने नया माप णि आदि में है। गा है कि अमुक नय अमर निको विषय बना। निक्षेप-निक्षेपका अर्थ है रखना अथांत वक्षमा विलषण कर उसकी थिनिकी दिलने प्रकारको समावनाएं हो सकती है उनको सामने रखना जंगे 'गजाको वनाओं परी गजा मार लाना इन की पदोंका अर्थबोध करना है । गजाननेक प्रकार होन हैन 'गजा हम इनको भी गजा वह हं. पट्टीपर लिखे हुए 'राजाइन अनगंको भी गजा कहते हैं, जिस व्यक्तिका साम राजा है जमे भी गजा कहते हैं, गजाने चित्रको या मतिको भी गजा कहले, दानरंजन महगं भी राजा होता है। को आगे गजा होमंत्राला है उसे भी लोग आजम ही राजा कारन लगत हे, जा ज्ञानवा नी जा कहते हैं, जो वर्तमानम पासनाधिकारी है उगे भी जा रही है। अनः हम कोन : विधित है: बच्चा यदि राजा मानता है तो जम गमय लिन नजाबी गावश्यबान होगी, जरजरं गगय कोन यता अपेक्षित होना है। अनेक प्रकारे गजाआगे अरन्तनवा नगरण का विक्षिा गजवा जान करा देना निक्षपना प्रयोजन है। राजाविषयक संशयका निराकरण कर विक्षिा गजाविषयब यथार्यनत्र करा घेना ही निक्षेपका कार्य है । इसी तरह क्याना भी अनेक प्रकारका होता है। ना गजानना ' इस वाक्पमें जो वर्तमान शासनाधिकारी है वह भात्र गजा विलिन है. नन्दाजा, न जाननजा न लिपिराजा न मुनिराजा न भावीगजा आदि । पुरनी पन्न गं अपन विधिन अका लटोक जाट कराने के लिए प्रत्येक शब्दके संभावित बाच्याओंको सामने रखकर उनका त्रिलषण करनवी परिमाटी थी। आगमोंमें प्रत्येक पान्दका निक्षेप किया गया है । यहीं तक कि शेष' दाव्द और 'व' शब्द भी निरंप विधिम भलाये नहीं गये है । शब्द ज्ञान और अर्थनीन प्रकार व्यवहार चलते हैं। यहां शन्दबहान कार्य बलदा Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थवत्ति-प्रस्ताबना है तो कहीं ज्ञानसे तो कहीं अर्थसे । बच्चको डराने के लिए शेर शब्द पर्याप्त है। शेरका ध्यान करनेके लिए शेरका शान भी पर्यात है । पर साकसम तो शेर पदार्थ ही चिंघाड़ सकता है। विवेचनीय पदार्थ जितने प्रकारका हो सकता है उतने सब संभावित प्रकार सामने रखकर अप्रस्तुतका निराकरण करके विक्षित पदार्थको पकड़ना निक्षेप है। तत्त्वार्थसूत्रकारने इस निक्षेपको चार भागोंमें बांटा है-गब्दात्मक व्यवहारका प्रयोजक नामनिक्षेप है, इसम वस्तुमें उस प्रकारके गुण जाति क्रिया आदिका होना आवश्यक नहीं है जैसा उमे नाम दिया जा रहा है। किमी अन्धका नाम भी नयनसुख हो सकता है और किसी सुखकर काटा हुए दुर्बल व्यक्तिको भी महावीर कहा जा सकता है। ज्ञानात्मक व्यवहारका प्रयोजन स्थापना निक्षप है। इस निक्षपमं ज्ञानके द्वारा तदाकार या अतदाकार में विवक्षित वस्तुकी स्थापना कर ली जाती है और संकेत ज्ञानके द्वारा उसका बोध करा दिया जाता है । अर्थात्मक निक्षेप देव्य और भावरूप होता है। जो पर्याय आगे होनेवाली है उसमें योग्यताके बलपर आज भी वह व्यवहार करना अथवा जो पर्याय हो चुकी है उसका व्यवहार वर्तमान भी करना न्यनिक्षेप है जैसे युवराजको राजा कहना और राजपदका जिसने श्याम कर दिया है उसको भी राजा कहना। वर्तमानम उम पर्यायवाले व्यक्ति ही वह व्यवहार करना भावनिक्षेप है. जसे सिहासनस्थित शासनाधिकारीको राजा कहना । आगोमें द्रव्य, क्षेत्र, काल आदिको मिलाकर स्थासंभव गांच, छह और सात निक्षेप भी उपलब्ध होते हैं परन्तु इस निक्षेपका प्रयोजन इतना ही है कि शिष्यको अपने विवक्षित पदार्थका ठीक ठोक मान हो जाय । धवला नौगाम ( पृ ३ मार्गशिकाके प्रयोचोंच श्रीवाससगिरहमा चोहाररामया उदृवत है-- "अवगनिवारण पयदस्स परुवाणिमित्त छ। संसयविणासण? तच्चस्थवधारण8 च ॥" अर्थात्-अप्रकृतका निराकरण करने के लिए, प्रकृतका निरूपण करनेके लिए, संशयका विनाश करने के लिा और नत्त्वार्थका निर्णय करने के लिए निक्षेपको उपयोगिता है। प्रमाण, नय और स्थावाद-निक्षेप विधिसे वस्तुको फैलाकर अर्थात् उसका विश्लेषण कर प्रमाण और नयके द्वारा उसका अधिगम करनका कम शास्त्रसम्मत और व्यवहारोपयोगी है। ज्ञानकी गति दो प्रा रमे वस्तुको जाननेकी होती है । एक तो अमुक अंगके द्वारा पूरी वस्तुको जानने की और दूसरी उसी अमक अंशवो जानने की । जब ज्ञानं पूरी वस्तुको ग्रहण करता है तब वह प्रमाण कहा जाता है तथा जब वह एक अंगको जानता है नत्र नय । पर्वतके एक भागके द्वारा पूरे पर्वतका अखण्ड भावसे ज्ञान प्रमाण है और उगा अंग का जान नय है। सिद्धान्त प्रमाणको सकलादेशी तथा नयको विकलादेशी कहा है उसका यही नागर्य है कि प्रमाण ज्ञात वस्तुभागके द्वारा मका वस्तुको ही ग्रहण करता है जब कि नय उसी विकल अर्थात कि अंशलो ही रहण करता है। जैसे आस्वसे घटके रूपको देखकर रूपमुखेन पूर्ण घटका ग्रहण करना सकलादेश है और घटमें रूप है इस रूपांशको जानना विकलादेश अर्थात् नम है। अनन्तधत्मिक वस्तुका य या विशेषोंके साथ मंपूर्ण रूपसे ग्रहण करना नो अल्पज्ञानियोंके बाकी बात नहीं हूँ बह तो पूर्ण ज्ञानका कार्य हो सकता है। पर प्रमाणज्ञान तो अल्पजानियोंका भी कहा जाता है अतः प्रमाण और नम की भेदक रेता यही है कि जब ज्ञान अखंड वस्तु पर दृष्टि रखें तब प्रमाण तथा जब अंदापर दृष्टि रस्ने तब नय । वस्तुमें सामान्य और विशेग दोनों प्रकारके धर्म पाए जाते है । प्रमाण ज्ञान सामान्यविशेषात्मक पूर्ण वस्तुको Bण करना है उव, कि नय केवल सामान्य अंशको या विशेष अंशको । यद्यपि केवल सामान्य और केवल किलोखरूप बस्नु नहीं है पर नय वस्तुको अंदाद करके ग्रहण करता है । वक्ताके अभिप्रायविशेषको ही नम कहते हैं। नय जब विवक्षित अशको ग्रहण करके भी इतर अंशोंका निराकरण नहीं करता उनके प्रति तटस्थ रहता है त सुनय कहलाता है और जब वही एक अंशका आग्रह करके दूसरे अंगोका निराकरण करने लगता है तब दुर्नय कहलाता है । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्शक : नय निरुपण ६५ नव-विचार व्यवहार साधारणतया तीन भागों में बांटे जा सकते हैं—१ शानाश्रमी २ अर्यामी, आयी ट्राफिक व्यवहार संकल्पके माधारसे ही चलते हैं। जैसे रोटी अनेक प्रायवहारे बनाने या कपड़ा बुनेकी तैयारी के समय रोटी बनाता है, कपड़ा बुनता है, इत्यादि व्यवहारोंमें संकल्पमात्रमें ही रोटी या कपड़ा व्यवहार किया गया है। इसी प्रकार अनेक प्रकार के औपचारिक व्यवहार अपने ज्ञान या के अनुसार हुआ करते हैं। दूसरे प्रकारके व्यवहार अर्थाश्रयी होते है-अर्थने एक ओर एक नित्य ब्यापी और सम्मानरूपसे चरम अभेदकी कल्पना की जा सकती है तो दूसरी ओर क्षणि बच परमाणुत्व और निरंशत्वकी दृष्टिसे अन्तिम भेदकी। इन दोनों जन्तोंके बीच अनेक अवान्तर मेद और अनेक स्थान है। अभेद कोटि ओपनिषद अद्वैतवादियोंकी है। दूसरी कोटि वस्तुकी सूक्ष्मतम वर्तमान क्षणवर्ती अपर्यायके ऊपर दृष्टि रखनेवाले क्षणिकनिरंश परमाणुवादी मोठोंकी है। तीसरी कोटि में पदार्थको अनेक प्रकारसे व्यवहारमें लानेवाले नैयायिक वैशेषिक आदि दर्शन हैं। तीसरे प्रकार के शब्दानित व्यवह रोमें भिन्न कालवाचक, भिन्न कारकोंमें निष्पन्न, भिन्न वचनवाले, भित्र पर्यायवाले और विभिन्न क्रियावाचक शब्द एक अर्थको वा अर्थकी एक पर्यायको नहीं कह सकते। शब्दभेद अर्थमेष होना ही चाहिए इस तरह इस ज्ञान अर्थ और शब्दका आश्रय लेकर होनेवाले विचारोंके समन्वय के लिए नथदृष्टियों का उपयोग है। इसमें मंल्पाधीन यावत् ज्ञानाश्रित व्यवहारीके ग्राहक नंगमनयको संकल्पमात्रग्राही बताया है । स्वार्थभाष्य में अनेक ग्राम्य व्यवहारोंका तथा औपचारिक लोकव्यवहारोंका स्थान इसी नयी विषयमर्यादा में निश्चित किया है। आ० सिद्धसेनने अभेदग्राही मैगमका संग्रहनयमे तथा भेदग्राही नैगमका व्यवहार नयमें अन्तर्भाव किया है 1 इससे ज्ञात होता है कि वे नैगमको संकल्पमात्रग्राही मानकर अर्थग्राही स्वीकार करते हैं । देवने यद्यपि राजवातिकर्म पूज्यपादका अनुसरण करके नंगमनयको संकल्पमात्रग्राही लिखा है फिर भी लीवस्त्र ( कर० ३९) में उन्होंने नैगमनयको अर्थ के भेदको या अभेदको ग्रहण करनेवाला भी बताया इसीलिए इन्होंने स्पष्ट रूपसे नैगम आदि ऋजुपात बार नयोको अर्थनय माता है। अश्रित अभेदव्यवहारका जो "आत्मैवेदं सर्वम्" आदि उपनिषद्द्वाक्योंसे व्यक्त होता है, परमंडनयमं अभी होता है। यहाँ एक बात विशेष रूपसे ध्यान देने योग्य है कि जनदर्शन में दो या अधिक इम्पो अनुस्यूत सत्ता रखनेवाला कोई सन् नामका सामान्यपदार्थ नहीं है। अनेक प्रयोंका सद्रूपसे जो मंग्रह किया जाना है वह सत्सादृश्यके निमित्तसे ही किया जाता है न कि सदेकत्वकी दृष्टिसे । हां, सदेकत्वकी दृष्टिसं प्रत्येक सत्की अपनी कमवर्ती पर्यायोंका और सहभावी गुणोंका अवश्य संग्रह हो सकता है. पर दो तुम अनुस्यूत कोई एक सत्व नहीं है। इस परसंग्रहके आगे तथा एक परमाणुकी वर्तमानमालीन एक असे पहिले होनेवाले मावत् मध्यवर्ती भेदोका व्यवहारनयमं समावेश होना है इन अवान्तर भेदोंको न्यायवैशेषिक आदि दर्शन ग्रहण करते हैं । अर्थको अन्तिम देशकोटि परमाणुसपना तथा काकोटि अजमानस्यायिताको ग्रहण करनेवाली बौद्ध दृष्टि मूत्रकी परिधिम अनी है। वहनिक अर्थको सामने रखकर भेद तथा अभेद ग्रहण करनेवाले अभिप्राय बताये गये है। इसके आगे शब्दाश्रित विचारोंका निरूपण किया जाता है । काल, कारक, संख्या तथा धातुके साथ लगनेवाले भिन्न भिन्न उपसर्ग आदिको दृष्टिसे प्रयुक्त दोनेावाय अर्थ भी भिन्न भिन्न है. इस कालाविभेदमे शब्दभेद मानकर अर्थभेद माननेवाली दृष्टिका शब्दनयमं समावेश होता है एक ही सामनमें निष्णन तथा एक कालवाचक भी अनेक पर्यायबाबी शब्द होते हैं। इन पर्यायवाची शब्दोंके भेदसे अर्थभेद माननेवाला समभिरूकनय है । एवम्भूतनय कहता है कि जिस समय जो अर्थ जिस क्रियामें परिणत हो उसी समय उसमें तकिया निष्यन्न शब्दका प्रयोग होना चाहिए। इसकी दृष्टिने सभी शब्द क्रियावाणी है। गुणवाचक शुकशब्द भी भुविभवन Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्त्वावत्ति-प्रस्तावना रूप क्रिपासे, जातिवाचक अश्वशब्द आशगमनरूप क्रियासे, कियावाचक चलति शब्द चलनेरूप कियास नामवाचक यदृच्छाशब्द देबदस आदि भी 'देवने इसको दिया इस क्रियासे निष्पन्न हुए है। इस तरह ज्ञान, अर्थ और शब्दको आश्रय लेकर होनेवाले ज्ञाताके अभिप्रायोंका समन्वय इन नयोंमें किया गया है। यह समन्वय एक खास शर्तपर हुआ है। वह शर्म मह है कि कोई भी दष्टि या अभिप्राय अपने प्रतिपक्षी अभिप्रायका निराकरण नहीं कर सकेगा। इतना हो सकता है कि जहाँ एक अभिप्रायकी मुल्यता रहे वही दूसरा अभिप्राय गीण हो जाय । यही सापेक्षभाव नयका प्राण है, इसीमे नय सूनम कहलाता है। आ. समन्तभद्र आदिने सापेक्षको सुनय तथा निरपेक्षको दुर्नय बतलाया है। इस संक्षिप्त कथनमें मूक्ष्मतासे देखा जाय तो दो प्रकारकी दृष्टियां ही मुख्यरूपसे कार्य करती हैं एक अभेद दृष्टि और दूसरी भेददृष्टि । इन दृष्टियोंका अवलम्बन चाहे शान हो या अयं अथवा शब्द, पर कल्पना मंद या अभंद दो ही रूप से की जा सकती है। उस कल्पनाका प्रकार चाहे कालिक,देशिक या म्यारपिक कुछ भी क्यों न हो। इन दो मल आधारभत दष्टियोंको द्रव्यनय और पर्यायनय कहते हैं। अभेदको ग्रहण करनेवाला द्रव्याथिकनय है तथा भेदग्राही पर्यायाथिकनय है। इन्हें मूलनय कहते हैं, क्योंकि समस्त नयोंके मूल आधार यही दो नय होते है। नंगमादिनय लो इन्हींकी शाश्चा-प्रशास्त्राएँ है। द्रव्यास्तिक, मातृकापदास्तिक, निश्चयनय, शुद्धनम आदि शब्द द्रव्याथिकके अर्थमें तथा उत्पन्नास्तिकः, पर्यायास्तिक, व्यवहारनय, अशुबनय, आदि पर्यायाथिकके अर्थ में व्यबहुत होते है। हन नपोंमें उत्तरोत्तर सूक्ष्मता एवं अल्पविषयता है । नंगमनय संकल्पग्राही होनेसे मत् असत् दोनोंको विषय करता था इमलिग सन्माषणही संग्रहनय उससे सूक्ष्म एवं अल्पविषयक होता है । सन्मारमाही मंग्रहनयसे सद्विशेषग्राही व्यवहार अल्पविषयक एवं सूक्ष्म हुआ । त्रिकालवी मद्विष. ग्राही ब्यबहारनयसे वर्तमानकालीन सद्विशेष-अर्थपर्यापनाही ऋजमूत्र मूक्ष्म है। शब्दभेद होनेपर भी अभिन्नार्यवाही ऋजसत्रसे कालादि भेदसे शब्दभेद मानकर भिन्न अर्थको ग्रहण करनेवाला शब्दनब सूक्ष्म पर्यायभेद होनेपर भी अभिन्न अर्थको ग्रहण करनेवाले शब्दनयसे पर्यायवाची शब्दोंके भेदमे अर्थमंदग्राही समभिक अल्पविषयक एवं सुक्ष्मतर हुआ। क्रियाभेदसे अर्थभेद नहीं मानने वाले समभिरूनसे क्रियाभेद होनेपर भी अर्थभेदग्राही एषम्भूत परमसूक्ष्म एवम्झस्पल्पविषयक है। मय-पूर्नय-जय वस्तुके एक अंधाको ग्रहण करके भी अन्य धोका निराकरण नहीं करना उन्हें गौण करता है । दुर्गम अन्यधर्मोका निराकरण करता है । नय साक्षेप होता है दुर्नय निरपेक्ष । प्रमाण उभयधर्मग्राही है। अफलदेवने बहुत सुन्दर लिखा है----"धर्मान्तरावानोपेक्षाहानिलक्षणस्मात् प्रमाणनयबुनयानां प्रकारान्तरासंभवानम, प्रमाणात तरतस्वभावप्रतिपत्तेः तत्प्रतिपत्तेः तदम्यनिराकृतेश्च" (अष्टाश० अष्टसह पृ० २९०) अर्थात् प्रमाण तत् और अनन् सभी अंशोंसे पूर्ण वस्तुको जानता है, नयसे केवल तत्-विवक्षित अंशकी प्रनिपत्ति होती है और दुर्नम अपने अविषय अंशोंका निगकरण करता है । नय' प्रसिरोंकी उपेक्षा करता है जबकि दुर्नब धर्मान्तरोंकी हानि अर्थात् निगकरण करनकी दुष्टना करता है। प्रमाण सफलादेशी और नय विकलादेशी होता है। मद्यपि दोनोंका कथन शब्दसे होता है फिर भी दृष्टिभेद होने से यह अन्तर हो जाता है। यथा, 'स्यादस्ति घट: यह वाक्य जब सफलादेशी होगा सब अस्तिके द्वारा पूर्ण वस्तुको ग्रहण कर लेगा। जब यह विकालदेशी होगा तब अस्तिको मुख्यनया शेषधोको गौण करेगा। विकलादेशी नय विवक्षित एक धर्मको मध्यरूपसे तथा शेषको गौणरूपसे ग्रहण करते हैं जबकि मकलादेशी प्रमाणका प्रायक काश्य पूर्ण वस्तुको समानभासे ग्रहण करता है। मकलादेशी वाक्योंमें भिन्नताका कारण है-गब्दोच्चारणकी मुरूपता। जिस प्रकार एक पूरे चौकोण कागजका क्रमश: चारों को पकड़कर पूराका पूरा उठाया जा सकता है उमी प्रकार अनन्तधर्मा वस्तुक किसी भी धर्मके द्वारा पूरीकी पूरी प्रस्तु ग्रहण की जा सकती है। इसमें वाक्योंमें परस्पर भिन्नता इतनी ही है कि उस धर्म के द्वारा या तायक शब्दप्रयोग करके वस्तुको ग्रहण कर रहे हैं। इसी शब्दप्रयोगकी मन्नता Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज से प्रमाणसप्तभंगीका प्रत्येक बाक्य भिन्न हो जाता है। नयसप्तमगीमें एक धर्म प्रधान होता है तथा अन्यधर्म पौण। इसमें मुख्यधर्म ही गहीत होता है, शेषका निराकरण तो नही होता पर ग्रहण भी नहीं होगा। यही सकलादेश और विकलादेशका पार्थक्य है । 'स्यात्' शब्दका प्रयोग दोनोंमें होता है। सकलादेशमें प्रयुक्त होनेवाला स्यात् शब्द यह बताता है कि जैसे अस्तिमुखेन सकल वस्तुबा ग्रहण किया गया है वैसे 'नास्ति' आदि अनन्त मखोंसे भी ग्रहण हो सकता है। विकलादेशका स्यात् शब्द विवक्षित धर्मके अतिरिक्त अन्य शेष धर्मोका वस्तुमें अस्तित्व मूचित करता है। स्थाद्वाद स्थावाब-जनदर्शनने सामान्यरूपसे यावत सतको परिणामीनित्य माना है। प्रत्येक सत् अनन्त धर्माएमक है। उसका पूर्णरूप वचनोंके अगोचर है । अनेकान्तात्मक अर्थका निर्दष्ट कासे कथन वारनंवाली भाषा स्थावाद रूप होती है। उसमें जिस धर्मका निरूपण होता है उसके साथ स्यात्' शब्द इसलिपा लगा दिया बाता है जिससे पूरी वस्तु उमी धर्मरूप न समझ ली जाय । अविवक्षित दोष धोका अस्तिन्य भी उसमें है यह प्रतिपादन 'स्यात्' शम्दसे होता है 1 स्याद्वादका अर्थ है-स्थात-अमुक निश्चित अपेक्षासे। अमुक निश्चित अपेक्षासे घट अस्ति होई और अमुक निश्चित अपेक्षासे घट नास्ति ही है। स्यात्का अर्थ न शायद है न सम्भवतः और न कदाचित् हो। 'स्यात्' शब्द मुनिश्चित दृष्टिकोणका प्रतीक है। इस शब्दके अर्थको पुराने मतवादी दार्शनिकोंने ईमानदारी समसनका प्रयास तो नहीं ही किया था किंतु आज भी वैज्ञानिक दष्टिकी दहाई देनेवाले वर्णमलेखक उसी प्रान्त परम्पराका पोषण करते आते हैं। स्थावाद-सुनयका निरूपण करनेवाली भाषा पद्धति है। 'स्यात्' शब्द यह निश्चितरूपस बनाता है कि वस्तु केवल इसी धर्मवाली ही नहीं है उसमें इसके अतिरिक्त भी धर्म विद्यमान है। तात्पर्य यह कि- अविवक्षित शेष धर्मोका प्रतिनिधित्व स्यात् शब्द करता है। 'रूपवान् घटः यह वाक्य भी अपने भीतर 'स्यात्' शब्दको छिपाए हुए है। इसका अर्थ है कि 'स्यात् रूपवान् घटः' अर्थात् बक्षु इन्द्रियके द्वारा ग्राह्य होने से या रूप गुणकी सत्ता होनेसे घड़ा रूपवान् है. पर रूपवान ही नहीं है उसमें रम गन्ध स्पर्श आदि अनेक गण, छोटा, बड़ा आदि अनेक धर्म विद्यमान है। इन अविअमित गणधर्मोक अस्तित्वको रक्षा करनेवाला 'स्यात्' शब्द है । 'रयात्' का अर्थ शायद या सम्भावना नहीं है किन्तु निश्चय है। अर्थात् घड़े में रूपके अस्तित्वको सूचना तो रूपवान शब्द दे ही रहा है। पर उन उपेक्षित शेष धमोंके अस्तित्वकी सूचना 'स्यात्' शब्दमे होती है। मारांश यह कि 'स्यात' गद 'रूपवान के साथ नहीं जुटता ई., किन्तु अविवक्षित प्रमंके माथ । वह 'रूपवान् को पूरी वस्तु पर अधिकार जमानेसे रोकता है और कह देना है कि वस्तु वरन बड़ी है उसम मार ही एक है। एमे श्नन्त गुणधर्म वस्तुमें लहरा रहे हैं। अभी रूपकी विवक्षा या जसपर वृष्टि होनेगे बढ़ सामने । या शब्दगे उन्चरित हो रहा है, सो यह मुख्य हो सकता है पर वही सब कुछ नहीं है। दुम अगम : भको मुन्यता होनेपर रूप गोय हो जायगा और वह अविवक्षित ष थर्मोकी गनिमें शामिल हो जाएगा . स्यात' शब एक प्रहरी है. जी उनवरित धर्मको इधर उधर नहीं जाने देता। यह उन वि. बक्षित धोका संरक्षक है। इसलिए 'रूपवान् के माथ 'म्यात राब्दका अन्वय करके जो लोग पहेम रूपकी भी स्थितिको स्यातका सायद या संभावना अर्थ काये मंदिग्श बनाना चाहते है ये मम ।। इसीतरह 'स्यादग्नि पर: वाक्यम घट: अस्ति' यह अस्तित्व अंग घरभे मुनिश्चिनरूपम विद्यमान है। स्यात् दाब्द उस अस्तित्वकी स्थिति कमजोर नहीं बनाना किन्तु जगकी वास्तविक आंशिक म्पितिको मूत्रमा देकर अन्य नास्ति आदि धर्मोके सदभावका प्रतिनिधित्व करता है। सारांश यह कि 'स्यात्' गद एक स्वतंत्र पद है जो वस्तुके शेषांशका प्रतिनिधित्व करता है। उसे डर है कि कहीं अस्ति नामका धर्म, जिसे शम्दसे उच्चारित होने के कारण प्रमुखता मिली है. पूरी वस्तुको न हड़प जाय, अपने अन्य नास्ति Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ स्वार्थपुति पस्तावना आदि सहयोगियोंके स्थानको समाप्त न कर दे। इसलिए वह प्रतिवाक्यमें चेतावनी देता रहता कि हे भाई अस्ति, तुम वस्तुके एक अंश हो, तुम अपने अन्य नास्ति जादि भाइयोंके हरुको हडपनेकी चेष्टा नहीं करना । इस भयका कारण इस भयका कारण है नित्य ही है, अनित्य ही है' आदि अथवाक्योंने अपना पूर्ण अधिकार वस्तुपर जमाकर अनधिकार चेष्टा की है और जगतमें अनेक तरह से वितण्डा और संघर्ष उत्पन्न किये हैं। इसके फलस्वरूप पदार्थके साथ तो अन्याय हुआ ही है. पर इस बाद-प्रतिवादने अनेक मतवादोंकी सृष्टि करके अहंकार हिंसा संघर्ष अनुदारता परमतासहिष्णुता आदि विश्वको अशान्त और आकुलतामय बना दिया है । 'स्यात्' शब्द वाक्यके उस जहरको निकाल देता है जिससे अहंकारका सर्जन होता है और वस्तुके अन्य धर्मकि सद्भावसे इनकार करके पदार्थके साथ अन्याय होता है। अपेक्षाको द्योतन करके जहाँ 'अस्तित्व धर्मकी स्थिति सुदृढ़ और सहेतुक बनाता है वहाँ उसकी उस सर्वहारा प्रवृत्तिको भी नष्ट करता है जिससे वह पूरी वस्तुका मालिक बनना चाहता है। वह न्यायाधीशको तरह तुरन्त कह देता है किन्हे अस्ति, तुम अपने अधिकारकी सीमाको समझो। स्वद्रव्य-क्षेत्र का भावको दृष्टि से जिस प्रकार तुम पटमें रहते हो उसी तरह पर द्रव्यादिकी अपेक्षा 'नास्ति' नामका तुम्हारा भाई भी उसी घटमें है। इसी प्रकार घटका परिवार बहुत बड़ा है। अभी तुम्हारा नाम लेकर पुकारा गया है, इसका इतना ही अर्थ है कि इस समय तुमसे काम है, तुम्हारा प्रयोजन है, तुम्हारी विवक्षा है । अतः इस समय तुम मुख्य हो । पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि तुम अपने समानाधिकारी भाइयोंके सद्भावको भी नष्ट करनेका दुष्प्रयास करो। वास्तविक बात तो यह है कि यदि 'पर' की अपेक्षा 'नास्ति' धर्म न हो तो जिस घड़े में तुम रहते हो वह बड़ा बड़ा होन रहेगा कपड़ा आदि पररूप हो जायगा । अत: जैसी तुम्हारी स्थिति है वैसी ही पररूपकी अपेक्षा 'नास्ति' धर्मकी भी स्थिति है तुम उनकी हिंसा न कर सको इसके लिए अहिंसाका प्रतीक 'स्यात्' शब्द तुमसे पहिले ही वाक्यमें लगा दिया जाता है । भाई अस्ति, यह तुम्हारा दोष नहीं है। तुम तो बराबर अपने नास्ति आदि अनन्त भाइयोंको वस्तुमें रहने देते हो और बड़े प्रेमसे सबके सब अनन्त घर्मभाई हिलमिलकर रहते हो पर इन वस्तुदर्शियोंकी दृष्टिको क्या कहा जाय ! इनकी दृष्टि ही एकांगी है । ये शब्द के द्वारा तुमसे किसी एक 'अस्ति' आदिको मुख्य करके उसकी स्थिति इतनी अहंकारपूर्ण कर देना चाहते हैं जिससे यह 'अस्ति' अन्यका निराकरण करने लग जाय । यस 'स्यात्' शब्द एक अजन है जो उनकी दृष्टिको विकृत नहीं होने देता और उसे निर्मल तथा पूर्णवश बनाता है। इस अविवक्षितसंरक्षक, दृष्टिविषहारी, शब्दको सुधारूप बनानेवाले, सचेतक प्रहरी, अहिंसक भावनाके प्रतीक, जीवम्ल न्यायरूप सुनिश्चित अपेक्षाद्योतक 'स्मात्' शब्दके स्वरूप के साथ हमारे दार्शनिकोंने न्याय तो किया ही नहीं किन्तु उसके स्वरूपका शायद, संभव है, 'कदाचित्' जैसे भ्रष्ट पर्याय विकृत करनेका दुष्ट प्रयत्न अवश्य किया है तथा अभी भी किया जा रहा है। सबसे शेषा तर्क तो यह दिया जाता है कि- 'महा जब अस्ति हूं तो नास्ति कैसे हो सकता है, घड़ा जब एक है तो अनेक कैसे हो सकता है, यह तो प्रत्यक्ष विरोध है पर विचार तो करो बड़ा पड़ा बड़ा घड़ा ही है, कपड़ा नहीं, कुरसी नहीं, टेबिल नहीं, गाय नहीं, घोड़ा नहीं तात्पर्य यह कि वह घटभिन्न अनन्त पदार्थरूप नहीं है। तो यह कहने में आपको क्यों संकोच होता है कि घड़ा अपने स्वरूप अस्ति हैं, भिन्न पररूपोंसे नास्ति हैं। इस घड़े में अनन्त पररूपोंकी अपेक्षा 'नास्तित्व' धर्म है, नहीं तो after कोई शक्ति घड़ेको कपड़ा आदि बनने से रोक नहीं सकती थी। यह 'नास्ति धर्म ही घड़ेको घड़े रूपमें कायम रखनेका हेतु है। इसी नारित धर्मकी सूचना 'अस्ति के प्रयोग के समय 'स्वात्' शब्द दे देता है। इसी तरह बड़ा एक है। पर बड़ी घड़ा रूप रस गन्ध स्पर्श छोटा बड़ा हलका भारी आदि अनन्त शक्तियोंकी दृष्टिसे अनेक रूपमें दिलाई देता है या नहीं ? रूप में दिखाई देता है तो आपको यह कहने में क्यों कष्ट होता है कि यह आप स्वयं बतायें। यदि अनेक घड़ा द्रव्य रूपसे एक है, पर अपने मार्गदर्शक :- आचार्य श्री Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ स्याद्वाद गुण धर्म और शक्ति आधिकी दृष्टिसे अनेक है। कृपा कर मोचिए कि वस्तुमें जब अनेक विरोधी धमका प्रत्यक्ष हो ही रहा है और स्वयं वस्तु अनन्त विरोधी धर्मोका अविरोधी तब हमें उसके स्वरूपको विकृत रूपमें देखनेकी दुई ष्टि तो नहीं करनी चाहिए जो 'स्वात्' शब्द वस्तुके इस पूर्णरूप दर्शनकी याद दिलाता है उसे ही हम "विरोध संशय' जंगी गालियोंसे दुरदुराते मनः परम्। यहाँ धर्मकीतिका मह लोकांश ध्यानमें आ जाता है कि "मीयं स्वयमभ्यो रोचते वयम्" अर्थात् यदि यह अनेकधर्मरूपता वस्तुको स्वयं पसन्द है, उसमें है, वस्तु स्वयं राजी है तो हम बीचमें eat बननेवाले कौन ? जगत्का एक एक कम इस अगलधर्मताका आकर है। हमें अपनी दृष्टि निर्मल और विशाल बनाया अचार्यः सुविधिशेषगरी परेज हमारी दृष्टिमें है ओर इस दृष्टिविरोध की अमृता (गुर बेल ) 'स्यात्' शब्द है, जो रोगीको कटु तो जरूर मालूम होती है. पर इसके बिना यह दृष्टिनियम-ज्वर उत्तर भी नहीं सकता । प्रो. बलदेव उपाध्याय ने भारतीय दर्शन (१० १५५) में स्वाद्भावना अर्थ बताते हुए लिखा है कि- "स्वात् ( शायद, सम्भवतः ) शब्द अरा वातुके विधिलिसके रूपका तिङन्त प्रतिरूपक अन्यय माना जाता है। घड़के विषयमें हमारा परामर्श 'स्यादस्ति संभवतः यह विद्यमान है। इसी रूपमें होना चाहिए।" यहाँ 'स्वात्' शब्दको शायद पर्यायवाची तो उपाध्यायणी स्वीकार नहीं करना चाहते। इसीलिए वे शायद शब्दको कोष्टकमें लिखकर भी आगे 'संभवत' शब्दका समर्थन करते हैं। वैदिक आचार्य शंकराचार्यने शांकरभाष्यमं स्वाद्वादको संगमस्य लिखा है इसका संस्कार आज भी कुछ विद्वानोंके माथेमे पड़ा हुआ है और वे उस संस्कारवश स्यात्का अर्थ शायद लिन हो जाते हैं। जब यह स्पष्ट रूपमे अवधारण करके कहा जाता है कि-'घटः स्यादस्ति अर्थात् घड़ा अपने स्वरूप में हे ही ।' 'घटः स्यान्नास्ति घट स्वभिन पर रूपसे नहीं ही है तब संशयको स्थान कहाँ है ? स्यात् शब्द fae धर्मका प्रतिपादन किया जा रहा है उससे भिन्न अन्य धर्मो के सद्भावको सूचित करता है। वह प्रति समय श्रीता को यह सूचना देना चाहता वस्तुके जिस स्वरूपस्य निरूपण हो रहा है वस्तु उतनी ही नहीं है उसमें अन्य जब कि संशय और शामदमें एक धर्म निश्चित नहीं होता। जैनके अनेकान्त में अनन्त ही धर्म निश्चित है, और उनके दृष्टिकोण भी निश्चित हैं तब संशय और शायदकी उस भ्रान्त परम्पराको आज भी अपनेको तटस्थ माननेवाले विद्वान् भी चलाए जाते हैं। यह रूढ़िवादका ही माहात्म्य है ! कि वक्ता के शब्दोंग धर्म भी विद्यमान है। इसी संस्कारवश प्रो० बलदेवजी स्यात्के पर्याययाचियोंमें शायद शब्दको लिखकर ( पृ०१७३ ) जैन दर्शनकी समीक्षा करते समय शंकराचार्यको वकालत इन पदों में करते हैं कि "यह निश्चित ही है कि इसी समन्वय दृष्टिसे वह पदार्थोंके विभिन्न रूपोंका समीकरण करता जाता तो समग्र विश्व अनुस्यूत परम तत्व तक अवश्य ही पहुँच जाता हमी दृष्टिको ध्यान में रखकर शंकराचार्य "स्माद्वाद का मार्मिक खण्डन अपने शारीरिक भाष्य ( २२२३३ ) में प्रबल युक्तियों के सहारे किया है।" पर उपाध्यायजी, जब आप स्वातका अर्थ निश्चित रूपसे 'गंशय' नहीं मानते तब शंकराचार्यके संण्डन का माणिकत्व क्या रह जाता है ? आगार स्व हम महामहोपाध्याय डॉ० गंगानाथा इन वाक्योंको देखें "जब मेने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्तका खंडन पढ़ा है, तबसे मुझे विश्वास हुआ है कि इस सिद्धान्तमें बहुत कुछ है जिसे वेदान्त आचायों ने नहीं समझा।" श्री विभूषण अधिकारी तो और स्पष्ट लिखने है कि-"जैनधर्म के स्वाद सिद्धान्तका जितना गलत समझा गया है उतना किसी अन्य सिद्धान्तको नहीं यहाँ तक कि शंकराचार्य भी इस Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 दोष मुक्त नहीं है। क्षम्य हो सकती थी। असभ्य ही कहूँगा है कि उन्होंने इस मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज सदावृति प्रस्तावना उन्होंने भी इस सिद्धान्तके प्रति अन्याय किया है। यह बात अल्पज्ञ पुरुषोंके लिए किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार है तो में भारत के इस महान् विद्वानके लिए तो यद्यपि में इस महर्षिको अतीव आदरकी दृष्टिसे देखता हूँ ऐसा जान पड़ता धर्मके दर्शनशास्त्र मूल अध्ययनकी परवाह नहीं की।" I जैन दर्शन स्याद्वाद सिद्धान्तके अनुसार वस्तुस्थिति आधारसे समन्वय करता है जो धर्म वस्तु विद्यमान है उन्हींना समत्यय हो सकता है। जैनदर्शनको आप वास्तव बहुत्ववादी लिख आये है। अनेक स्वतंत्र मत् व्यवहारके लिए सदूपये एक कहे जाये पर यह काल्पनिक एकल्व वस्तु नहीं हो सकता ? यह कैसे सम्भव है कि वेतन और अपेतन दोनों ही एक संत्के प्रातिभासिक विवह जिस काल्पनिक समयको शेर उपाध्यायजी संकेत करते हैं उस ओर भी जैन दाद निकोन प्रारम्भ से ही दृष्टिपात किया है। परमसंग्रह नयी दृष्टिसे सदूपसे यावत् चेतन अवेतन द्रव्योंका सह करके एक यत् इस व्यवहार करनेमें जैन दार्शनिकको कोई आपत्ति नहीं है। काल्पनिक व्यवहार होते है. पर इससे मौलिक तत्वव्यवस्था नहीं की जा सकती ? एक देश या एक राष्ट्र अपने में क्या वस्तु समय समय पर होनेवाली वृद्धिगत वैशिक एकताके सिवाय एक देश एक राष्ट्र का स्वतंत्र अस्तित्व ही क्या है ? अस्तित्व जुदा जुदा भूखण्डोंका अपना है। उसमें व्यवहारकीसुविधा लिए शन्त और देश सभाएँ जैसे काल्पनिक व्यवहारखत्य में उसी तरह एक सत् या एक ब्रह्म काल्पनिक होकर व्यवहारसत्य तो बन सकता है और कल्पनाको दौड़का चरम बिन्दु भी हो सकता है पर उसका या परमार्थस होना नितान्त असम्भव है। आज विज्ञान एटम तरुका विश्लेषण कर चुका है और सब मौलिक अणुओंकी पृथक् सत्ता स्वीकार करता है उनमें अनेद और इतना बड़ा अभेद जिसमें चेतन अचेतन मूर्त अमूर्त आदि सभी लीन हो जायें कल्पनासाम्राज्यकी अन्तिम कोटि है। और इस कल्पनाकोटिको परमार्थसत् न मानने के कारण मदि जैन दर्शनका स्वाद्वाय सिद्धान्त आपक मूलभूत तत्वके स्वरूप समझाने में नितान्त असमर्थ प्रतीत होता है तो हो, पर वह वस्तुसीमाका उल्लंघन नहीं कर सकता और न कल्पनालोककी लंबी दौड़ ही लगा सकता है। । स्थात् शब्दको उपाध्यागी संजयका पर्यायवाची नहीं मानते यह तो प्रायः निश्चित है क्योंकि आप स्वयं लिखते हैं ( पृ० १०३) कि "यह अनेकान्तवाद संवादका रुपान्तर नहीं हूँ" परं आप उसे संभववाद अवश्य कहना चाहते है परन्तु स्वात्का अर्थ 'संभवतः' करना भी न्याय संगत नहीं है क्योंकि संभावना संयमें जो कोटियां उपस्थित होती है उनकी अनिश्चितताकी ओर संकेत मात्र है, निश्चय उससे भिन्न हो है । उपाध्यायजी स्याद्वादको संशयवाद और निश्चयवादके बीच संभा-चनावादी जगह रखना चाहते हैं जो एक अनध्यवसायात्मक अनिश्चयके समान है। परन्तु जब स्याद्वाद स्पष्टरूपये की चोट यह कह रहा है कि पड़ा ज्यादस्ति अर्थात् जगने स्वरूप, अपने क्षेत्र अपने काल और अपने आकार इस स्वचतुष्टयकी अपेक्षा है ही यह निश्चित अवधारण है। मड़ा वसे भ वात् परपदार्थों की दृष्टिसे नहीं ही है यह भी निश्चित अवधारण है। इस तरह जब दोनों धर्मोका अपने अपने दृष्टिकोण से घड़ा विरोधी आधार है तब घटेको हम उभयदृष्टि से अस्ति नास्ति रूप भी निश्चित ही कहते हैं। पर शब्दमें यह सामर्थ्य नहीं है कि मटके पूर्णरूपको जिसमें बस्ति नास्ति जैसे एक-अनेक नित्य-अनित्य आदि अनेकों युगल-धर्म लहरा रहे हैं- कह सकें, अतः समग्रभावसे घड़ा अवक्तव्य हूँ। इस प्रकार जब स्याद्वाद सुनिश्चित दृष्टिकोणोंसे तत्तत् धर्मोके वास्तविक निश्चयको घोषणा करता संभावनावादमें कैसे रखा जा सकता है ? स्मात् शब्दके साथ ही एवकार भी लगा रहता है जो निर्दिष्ट धर्मके अवधारयको सूचित करता है वषा स्वात् शब्द उस निर्दिष्ट धर्मसे अतिरिक्त अन्य धर्मोकी निश्चित स्थितिको सूचना देता है। जिससे श्रोतः यह न समझ ले कि वस्तु इसी धर्मरूप है। यह स्याद्वाद Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद कल्पित धर्मों तक व्यवहारके लिए भले ही पहुँन जाय पर वस्तुभ्यवस्थाके लिए वस्तुकी सीमाको नहीं लापता । अत: न यह संशयवाद है, न अनिश्चमवाद है और न संभावनाबाद ही, किंतु खरा अपेक्षा. प्रयुक्त निश्चयवाय है। इसी तरह डॉ. देवराजजीका पूर्वी और पश्चिमी दर्शन (पृ१६५) में किया गया स्यात् शन्द का 'कदावित्' अनुवाद भी भ्रामक है । कदाचित शब्द कालापेक्ष है। इसका सीधा अर्थ है किसी समय । और प्रचलित अर्थमें यह संशयकी ओर ही मुकता है । स्यान् का प्राचीन अर्थ है कम्नित्-अर्थात् किसी निश्चित प्रकारसे, स्पष्ट शब्दोंमें अमुक निश्चित दृष्टिकोणसे । इस प्रकार अपेक्षाप्रयुक्त निश्चयबाद ही स्थाद्वादका अभ्रान्त वाच्यार्थ है। महापंडित राहल सांकृत्यायनने तथा इतः पूर्व प्रो० कोबी आदिने स्यापदकी उत्पत्तिको संजयष्टिपुत्तके मतसे बताने का प्रयत्न किया है। राहुलजीने दर्शन-दिग्दर्शन (पृ० ४९६) में लिखा है, कि -"आधुनिक जनदर्शनका आधार स्यावाद है। जो मालम होता है संजयवेलष्ठिपत्तके चार अंग मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज वाल अनकान्तवाको लेकर उसे सात "अंगवाल किया गया है। संजयने तत्त्वों (परलोक देवता ) क शारेमें कुछ भी निश्चयात्मक रूप से कहनसे इनकार करते हुए उस इनकारको चार प्रकार कहा है १है ? नहीं कह सकता। २ नहीं है ? नहीं कह सकता । ३ है भी और नहीं भी नहीं कह सकता । ४ न है और न नहीं है ? नहीं कह सकता । इसकी तुलना कीजिए जनोंके सात प्रकारके स्याद्वादसे१ है ? हो सकता है (स्यादस्ति) २ नहीं है ? नहीं भी हो सकता है (स्थानास्ति) ३ है भी और नहीं भी ? है भी.और नहीं भी हो सकता (ग्यादस्ति च नास्ति च) उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा मकते हैं (-वक्तव्य है)? इसका उत्तर जैन 'नहीं' में देते हैं। स्याम् (हो सकताह ) क्या यह कहा जा सकता है (-वक्तव्य) है? नहीं, स्याद् अ-बक्तव्य ह । ५ 'स्यादस्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्याद् अस्ति' अवक्तव्य है। ६ स्याद् नास्ति' क्या यह नक्तव्य है : नहीं, 'स्याद् नास्ति' अवक्तव्य है। ७ 'स्याद् अस्ति च नास्ति च' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं 'स्यादस्ति च नास्ति च अ-ब क्तव्य है। दोनों मिलान से मालूम होगा कि जैनोंने संजयके पहिलेवाले तीन वाक्यों (प्रश्न और उत्तर दोनों) को अलग करके अपने स्याहादकी छह भगियाँ बनाई है और उसके चौथे वाक्य 'न है और न नहीं है' को जोड़कर 'सद भी अवयतव्य है यह सास भंग तैयार कर अपनी सप्तभंगी पूरी की।..... इस प्रकार एक भी सिद्धान्त (-म्याद्) की स्थापना न करना जो कि संजय का वाद था, उसीको संजयके अनयायियोंके लप्त हो जानेपर जनानं अपना लिया और उसके चतुर्भगी न्यायको सप्तभंगीमें परिणत कर दिया।" राहुलजीने उक्त सन्दर्भ में सप्तभंगी और स्यादको न समझकर केवल शब्दसाम्य में एक -नये मतकी वृष्टि की है। यह तो ऐसा ही है जैसे कि चोरसे 'क्या तुम अमुक जगह गये थे? यह पूछने पर वह कहे कि "मैं नहीं कह सकता कि गया था" और जज अन्य प्रमाणोसे यह सिद्धकर दे कि 'चोर अमुक जगह गया था। तब झाब्दसाम्य देखकर यह कहना कि जजका फैसला चोरके बयानसे निकला है। संजयवेष्ठित्तक दर्शनका विवेचन स्वयं राहुलजीने (पृ० ४९१) इन शब्दाम किया है Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ तत्त्वार्थनि-प्रस्तावना "यदि आप पूछे-'क्या परलोक है ?' तो यदि मैं समझता होऊँ कि परलोक है तो आपको बतलाऊँ कि परलोक है। मैं ऐसा भी नहीं क ता, वैसा भी नहीं क ता ,सरी तरहसे भी नहीं कहता । मैं मह भी नहीं कहता कि वह नहीं है। मैं यह भी नहीं कहता कि वह नहीं नहीं है। परलोक नहीं है । परलोक नहीं नहीं है। परलोक है भी, और नहीं भी है। पुरलोक न है और नहीं है।" 'मागदर्शक :- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज संजयके परलोक, देवता, कर्मफल और मुक्तिके सम्बन्धके ये विचार शतप्रतिशत अनिश्चयवादके हैं। यह स्पष्ट कहता है कि-"यदि मैं जानता हो तो बताऊँ।" संजयको परलोक मुक्ति आदिके स्वरूप का कुछ भी निश्चय नहीं था। इसलिए उसका दर्शन बकोल राहुलजीके मानवकी सहजबुद्धिको भ्रममें नहीं डालना चाहता और न कुछ निश्चयकर भ्रान्त धारणाओंकी पुष्टि ही करना चाहता है । तात्पर्य यह कि संजय घोर अनिश्चयवादी था। बुद्ध और संजय-बुद्धने "लोकनित्य है. अनित्य है,नित्य-अनित्य है,न नित्य न अनित्य हं, लोक अन्तवान् है, नहीं है, है-नहीं है, न है न नहीं है, निर्वाणके बाद तथागत होते में, नहीं होतं, होते-नहीं होते, न होते न नहीं होते, जीव शरीरसे भिस है, जीव शरीरसे भिन्न नहीं है।'' (माध्यमिक वृत्ति पृ. ४४६) इन चौदह वस्तुओंको अध्याकृत कहा है। मजिनमनिकायम (२०२३) इनकी संख्या दश है। इसमें आदिके दो प्रश्नोंमें तीसरा और चौथा विकल्प नहीं गिनाया गया है। इनके अन्याकृत होनेका कारण बुद्धने बताया है कि इनके बारेमें कहना सार्थक नहीं, भिशुचमकि लिए उपयोगी नहीं, न यह निर्वेद निरोध शान्ति परमज्ञान या निर्वाणके लिए आवश्यक है। तात्पर्य यह कि बुद्धकी दृष्टिमें इनका जानना मुमुक्षुके लिए बावश्यक नहीं मा। दूसरे शब्दोंमें बुद्ध भी संजयकी तरह इनके बारेमें कुछ कहकर मानवको सहल बुसिको भ्रममें नहीं डालना चाहते थे और न भ्रान्त धारणाओंको पुष्ट ही करना चाहते थे। हाँ संजय जब अपनी अज्ञानता या अनिश्चयको साफ साफ शब्दोंमें कह देता है कि यदि में जानता होऊ तो बताऊँ, तब बुद्ध अपने जानने न जाननेका उल्लेख न करके उस रहस्यको शिष्योंके लिए अनुपयोगी, बताकर अपना पीछा छुड़ा लेते हैं। किसी भी ताकिकका यह प्रश्न अभी तक असमाहित ही रह जाता हैं कि इस अव्याकृतता और संजयके अनिश्चयवायमें क्या अन्तर है? सिवाय इसके कि संजय फक्कड़की तरह खरी खरी बात कह देता है और बुद्ध ब) आदमियोंकी बालीनताका निर्वाह करते हैं। युद्ध और संजय ही क्या, उस समयके वातावरणमें आत्मा लोक परलोक और मुस्तिके स्वरूपके सम्बन्धमें है (सत्), नहीं (असत्) है-नहीं (सत् असत् उभय), न है न नहीं है (अवक्तव्य या अनुभय)' ये चार कोटियाँ गूज रही थीं। कोई भी प्राश्निक किसी भी तीर्थकर या आचार्यसे बिना किसी संकोचके अपने प्रश्नको एक साँसमें ही उक्त चार कोटियोंमें विभाजित करके ही पूछता था। जिस प्रकार आज कोई भी प्रश्न मजदुर और पूंजीपति, शोषक और शोष्पके द्वन्द्वकी छायामें ही सामने आता है, उसी प्रकार उस समय आस्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थोके प्रश्न सत् असत् उभय और अनुभव-अनिर्वचनीय इस चतुष्कोटिमें आवेष्टित रहते थे। उपनिषद् और ऋग्वेद में इस चतुष्कोटिके दर्शन होते हैं। विश्वके स्वरूपके सम्बन्धमें सत्से असत् हुआ ? या सत्से सत् हुआ ? विश्व सत् रूप है ! या असत् रूप है, या सदसत उभयरूप ह या सदसत दोनों रूपसे अनिर्वचनीय है? इत्यादि प्रश्न उपनिषद् और वेदम बराबर उपलब्ध होते है ? ऐसी दशाम राहुलजीका स्यावादके विषयमें यह फतबा दे देना कि संजयके प्रश्नोंके शब्दोंसे या उसकी चतुर्भगीको तोड़मरी कर सप्तभंगी बनी-कहाँतक उचित है यह वे स्वयं विचारें। बुद्धके समकालीन जो छह तीथिक थे उनमें निम्गण्ठ नाथपुष महावीरकी, सर्वज्ञ और सर्वदशी के रूपमें प्रसिद्धि थी । वे सर्वन और सर्वदर्शी थे या नहीं यह इस समयकी चरचा का विषय नहीं है, पर वे बिशिष्ट तत्वविचारक थे और किसी भी प्रपनको संजयकी तरह अनिश्चयकोटि या Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद विक्षेपकोटिमें और बुद्धकी तरह अन्याकृत कोटिम डालने वाले नहीं थे और न दिय की महज जिज्ञामा को अनुपयोगिताके भयप्रद चक्करमं डुबा ऐना चाहते थे। उनका विश्वास था कि संघके पंचमेल व्यक्ति जब तक वस्तुतत्त्वका ठीक निर्णय नहीं कर लेते तबतक उनमें छोद्धिक दृढ़ता और मानसनल नहीं आ सकता। वे सदा अपने समानशील अन्य मंघके भिक्षुओंके सामने अपनी बौद्धिक दीनताके कारण इतरभ रहेंगे और इसका असर उनके जीवन और आचार पर आये बिना नहीं रहेगा। वे अपने शिष्योंको पर्दबन्द पधिनियोंकी तरह जगत्के स्वरूप विचारकी बाह्य हवासे अपरिचित नहीं रखना चाहते थे, किन्तु चाहलं थे कि प्रत्येक मानव अपनी सहज जिज्ञासा और मननशक्तिको वस्तुके यथार्थ रवरूपके विचारकी और लगावे। न उन्हें बुद्धकी नरह यह भय व्याप्त था कि यदि आत्माके सम्बन्धम है कहते हैं तो शाश्वसवाद अर्थात उपनिषदवादियोंकी तरह लोग नित्यत्वकी ओर झुक जायगे और नहीं है' कहनमे उग्रवाद अर्थात चार्वाककी तरह नास्तिकत्वका प्रसंग प्राप्त होगा, अत: इस प्रश्नको अव्यावृन रखना ही श्रेष्ठ है। वे चाहते थे कि मौजुद तर्कोका और मंगाका समाधान वस्तुस्थितिक आधारसे होना * चाहिये। अतः उन्होंने वस्तुस्वरूपका अनुभव कर यह बताया कि जगत्का प्रत्येक सत् मार्गदर्शक :- आचार्यश्री सविधिसागर जी महाराज "राहे वह चेतनजातीय होथी अंचलनजातीय परिवर्तनशील है । बह निसर्गतः प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है। उसकी पर्याम बदलती रहती है। उसका परिणमन कभी सदृश भी होता है कभी विसदृश भी। पर परिणमनसामान्यके प्रभावसे कोई भी अछूता नहीं रहता। मह एक मौलिक नियम है कि किसी भी सत् का सर्वथा उम्छेद नहीं हो सकता, वह परिवर्तित होकर भी अपनी मौलिकता या सत्ताको नहीं खो सकता। एक परमाणु है वह हाइड्रोजन बन जाय, जल बन जाय, भार बन आय, फिर पानी हो जाय, पथिवी बन जाय, और अनन्त आकृतियों या पर्यायोंको शरण कर ले, पर अपने अध्यल या मौलिकत्व को नहीं खो सकता। किसीकी ताकत नही जो उम परमाणकी हस्ती या अस्तित्वको मिटा सके। तात्पर्य यह कि जगत्में जितने 'सत्' है उसने बने रहेंगे, उनमें से एक भी कम नहीं हो सकता, एक दूसरे में विलीन नहीं हो सकता। इसी तरह न कोई नया 'सत्' उत्पन्न हो सकता है। जितने हैं उनका ही आपमी संयोग वियोगोंके आधारसे यह विश्व जगत (गच्छनौति जगत् अर्थात् नाना रूपोंको प्राप्त होना) बनना रहता है। तात्पर्य यह कि-विश्वमं जितनं सन् है उनमें से न तो एक कम हो सकता है और न एक बड़ सकता है। अनन्त जड़ परमाणु, अनन्त आत्माएं, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्म द्रव्य, एक आकाश और असंख्य कालाण इतने सत् है। इनमं धर्म अधर्म आकाश और काल अपने स्वाभाविक रूपमें सदा विद्यमान हत हैं उनका विलक्षण परिणमन नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि ये कटस्थ नित्य हैं किन्तु इनका प्रतिक्षण जो परिणमन होता है, वह सदश स्वाभाविक परिणमन ही होता है। आत्मा और पुद्गल ये दो दम्प एक दूसरेको प्रभावित करते हैं। जिस समय आत्मा शुद्ध हो जाता है उस समय वह भी अपने प्रतिक्षणभावो स्वाभाविक परिणमनका ही स्वामी रहता है, उसमें विलक्षण परिणति नहीं होती। जबतक आत्मा अउ है तबतक ही इसके परिणमनार राजातीय जीवान्नरका और विजासीय पुद्गलका प्रभाब आनसे विलक्षणता आनी है। इसको नानासाना प्रत्येकको स्वानुभवसिम है। जड़ पुद्गल ही एक ऐसा विलक्षण द्रव्य है जो मदा सजातीय में भी प्रभावित होता है और विजातीय चेननसे भी । इमी पूगल द्रव्य के चमत्कार आज विज्ञान के द्वारा हम सबके सामने प्रर्रतुत है। इसीक होनाधिक संयोग-वियोगोंके फलस्वरूप असंख्य आविष्कार हो रहे हैं। विद्युन शन्द आदि इसीके रूपान्तर है. इमीकी शक्तियाँ हैं। जीनको अशुद्ध दशा इसीके संपर्कसे होती है। अनादिसे जीव और पूदगाल का ऐसा संयोग है जो पर्यापान्तर लेने पर भी जीव इसके मंयोगसे मुक्त नहीं हो पाता और उसमें बिभाव परिणमन-राग ष मोह अज्ञानरूप दशा होती रहती हैं। जब यह जीव अपनी चारित्रसाधना Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 तस्वार्थवृति प्रस्तावना द्वारा भूना समर्थ और स्वरूपप्रतिष्ठ हो जाता है कि उस पर बाह्य जगत्‌का कोई भी प्रभाव न पड़ सके तो वह मुक्त हो जाता है और अपने अतुल वैतन्यमें स्थिर हो जता है । प्रतिक्षण परिवर्तित स्वाभाविक चैतन्यमें लीन रहता है। फिर उसमें अशुद्ध दशा नहीं होती । अन्ततः मुक्त जीव अपने गुद्गल परमाणु ही ऐसे है जिनमें शुद्ध या अशुद्ध किसी भी दशामें दूसरे संयोगक आधारसे नाना आकृ तियाँ और अनेक परिणमन संभव हैं तथा होते रहते हैं। दस जगत् व्यवस्थामं किसी एक ईश्वर जैसे नियन्ताका कोई स्थान नहीं है। यह तो अपने अपने संयोग-वियोगों परिणमनशील है। प्रत्येक पदार्थंका अपना सहज स्वभावजन्य प्रतिक्षणभावी परिणमनचक्र नालू है। यदि कोई दूसरा संयोग आ पड़ा और उस द्रव्यने इसके प्रभावको आत्मसात् विभागदेरिया मन आत्होसार श्री वश गति से बदलता चला जायगा। हॉइड्रोजनका एक अणु अपनी गति से प्रतिक्षण हाइड्रोजन रूपमें बदल रहा है। यदि ऑक्सीजनका अणु उसमें आ जुटा तो दोनों का जलरूप परिणमत हो जायगा। वे दोनों एक जलबिन्दु रूपसे सदृश संयुक्त परिणमन कर लेंगे। यदि किसी वैज्ञानिक के विश्लेषण प्रयोगका निमित्त मिला तो वे दोनों फिर जुदा जुदा भी हो सकते हैं। यदि अग्निका संयोग मिल गया तो भाप बन जायेंगे। यदि सांपके मुखका संयोग मिला विषबिन्दु हो जायेंगे । तात्पर्य यह कि यह विश्व साधारणतया पुद्गल और अशुद्ध जीवके निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धका वास्तविक उद्यान है। परिणमनचत्र पर प्रत्येक द्रव्य चढ़ा हुआ है। वह अपनी अनन्त योग्यताओं के अनुसार अनन्त परिणमनोंको क्रमशः धारण करता है । समस्त 'सत् के समुदायका नाम लोक या विश्व 1 इस दृष्टिसे अब आप लोकके शाश्वत बोर अशाश्वत वाले प्रश्नको विचारिए -- ( १ ) क्या लोक शाश्वत है ? हाँ, लोक शाश्वत है। द्रव्योंकी संख्या की दृष्टि से, अर्थात् जितने सत् इसमें हैं उनमेंका एक भी सत् कम नहीं हो सकता और न उसमें किसी नये सत्की वृद्धि ही हो सकती है । न एक सतू दुसरेमं विलीन ही हो सकता है। कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता जो इसके अंगभूत द्रव्योंका लोप हो या वे समाप्त हो जाँय । ७४ (२) क्या लोक अशाश्वत है? हाँ, लोक अशाश्वत है, अंगभूत द्रव्योंके प्रतिक्षण भावी परिणमनां की दृष्टि से ? अर्थात् जितने सत् हैं वे प्रतिक्षण सदृश या विसदृश परिणमन करते रहते हैं। इसमें दो क्षण तक ठहरनेवाला कोई परिणमन नहीं है। जो हमें अनेक क्षण ठहरनेवाला परिणमन दिखाई देता है वह प्रतिक्षणभावी सदृश परिणमनका स्थूल दृष्टिसे अवलोकनमंत्र है। इस तरह सतत परिवर्तनशील संयोगfaraint दृष्टिसे विचार कीजिये तो लोक अशाश्वत है, अनित्य है, प्रतिक्षण परिवर्तित है। (३) क्या लोक शाश्वत और अशाश्वत दोनों रूप है ? हाँ कीजिए तो लोक शाश्वत भी हूं ( द्रव्य दृष्टिसे ) अवाश्वित भी को क्रमशः प्रयुक्त करनेपर और उन दोनों पर स्थूल दृष्टिसे प्रतिभासित होता है। क्रमशः उपर्युक्त दोनों दृष्टियोंसे विचार ( पर्याय दृष्टिसे ) । दोनों दृष्टि कोणों विचार करनेपर जगत् उभयरूप ही (४) क्या लोक शाश्वत और अशास्वत दोनों रूप नहीं है ? आखिर उसका पूर्णरूप क्या हूँ ? हाँ, लोकका पूर्णरूप भवक्तव्य है, नहीं कहा जा सकता। कोई शब्द ऐसा नहीं जो एक साथ शाश्वत और अशात इन दोनों स्वरूपोंको तथा उसमें विद्यमान अन्य अन त धर्मोको युगपत् कह सके। अतः शब्दकी असामर्थ्य के कारण जगत्का पूर्णरूप अवक्तव्य है, अनुभय है, वचनातीत है। इस विरूपण में आप देखेंगे कि वस्तुका पूर्णरूप वचनोंके अगोचर है, अनिर्वचनीय या अथक्तव्य है। यह चौथा उत्तर बस्तुके पूर्णरूपको युगपत् कहने की दृष्टिसे है। पर बही जगत् शाश्वत कहा जाता है द्रव्यदृष्टिसे अशाश्वत कहा जाता है पर्यायदृष्टिसे इस तरह मूलतः चौथा, पहिला और ये तीन प्रश्न मौलिक है। तीसरा उभयरूपताका प्रदन तो प्रथम और द्विनीयके संयोगरूप द्रुमरा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याबाद ७५ है। अब आप विचार कि संजयने जब लोकके शाश्वत और अशाश्वत आदिक बारेमें स्पाट कह दिया त्रि में जानता होऊँ नो वताऊँ और बद्धन कह दिया कि इनके चक्करमें न पडो, इराका जानना उपयोगी नहीं है, तब महावीरने उन प्रश्नोंका वस्तुस्थितिक अनुसार यथार्थ उना दिया और शिष्पांकी जिज्ञामा का ममाधान कर उनको बौद्धिक दीननामे त्राण दिया। इन प्रश्नोंका स्वरूप इस प्रकार है--- प्रश्न संजय बुद्ध महावीर १. श्या लोक शाश्वत है ? मैं जानता होऊं तो इसका जानना अनु- हाँ, लोक द्रव्य दष्टिसे भ्रता, (अनिश्चय, पयोगी है (अन्याकुत, शाश्वत है, इसके किसी भी विक्षेप) अकथनीय) सतका सर्वधा नाश नहीं हो सकता। २. क्या लोक अशाश्वत है? हो, लोक अपने प्रतिक्षण भावी परिवर्तनोंकी दृष्टिमे अशाश्वत है, कोई भी परिवर्तन दो क्षणस्थायी नहीं मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज ३. क्या लोक शाश्वत और अ है। हाँ, दोनों दष्टिकोणोंसे शाश्वत है ? क्रमश: विचार करने पर लोकको शाश्वत भी कहते है और अशाश्वत भी। ४, क्या लोक दोनों रूप नहीं है हाँ, ऐसा कोई शब्द नहीं जो अनुमय है ? लोकके परिपूर्ण स्वरूपको एक साथ समय भावसे कह सके। अत: पूर्णरूप से वस्नु अनुभय. है, अब नथ्य है, अनिर्वचनीय है। संजय और बुद्ध जिन प्रश्नों का समाधान नहीं करते, उन्हें अनिश्चय या अव्याकृत कहकर अपना पिण्ड छुड़ा लेते हैं, महावीर उन्हींका वास्तविक युक्तिसंगत समाधान करते हैं। इस पर भी राहलजी, और स्य. धर्मानन्द कोसम्बी आदि यह कहनका साहरा करते है कि 'संजयके अन मावियोंके लुप्त हो बानपर संजयके बादको ही जैनियोंने अपना लिया।' यह तो ऐसाही है जैसे कोई कहे कि "भारतमें रही परसन्त्रताको ही परतन्त्रताविधायक अंग्रेजोंके चले जानेपर भारतीयोंने उसे अपरन्त्रता (रवतन्त्रता) रूपसे अपना लिया है, क्योंकि अपरतन्त्रतामं भी 'प र तन्त्र ना' ये पांच अक्षर तो मौजूद है ही। या हिंसाको ही युद्ध और महावीरने उसके अनुयायियोंके लुप्त होनेपा अहिसारूपसे अपना लिया है क्योंकि अहिंसा में भी 'हि सा' ये दो अक्षर है ही।" यह देखकर तो और भी आश्चर्य होता है कि आप . ४८४) अनिश्चिततावादियोंकी सुचीमें संजयके साथ निग्गंठ नाथपृष (महायोर) का नाम भी लिख जाते हैं, तया (प० ४९१) संजयको अनेकान्तवादो भी। क्या इसे धर्मकीनिके शब्दों में 'विग् व्यापकं तमः नहीं कहा जा सकता ? 'स्पात' शब्दके प्रयोगसे साधारणतया लोगोंको संशय अनिश्चय या संभावनाका श्रम होता है। पर यह तो भाषाकी पुरानी शैली है उस प्रसंगकी, जहाँ एक वादका स्थापन नहीं होता। एकाधिक भेद या विकल्पको सूचना जहाँ करनी होती है वहाँ 'स्यात् पदका प्रयोग भाषाकी शैलीका एक रूप रहा है जैसा कि मज्झिमनिकायके महाराहुलोवाद मत्तके निम्नलिखित अवतरणसे जात होता है-कतमा राहुल च तेजो Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति प्रस्तावना धातु ? तेमोधातु सिया अजमत्तिका सिया बाहिरा।" अर्थात् जो धातु स्यात् आध्यात्मिक है, स्यात् बाल है। यही सिया (स्यात) शब्दका प्रयोग तेजो धातुके निश्चित भेदोंकी सूचना देता है न कि उन भदोंका संशय अनिश्चय या संभावना बताता है। आध्यात्मिक भेद के साथ प्रयुक्त होनेवाला स्यात् शब्द . इस वातका द्योतन करता है कि तेजी धातु मात्र आध्यात्मिक ही नहीं है किन्तु उससे व्यतिरिक्त बाह्य भी है। इसी तरह स्यादस्ति में अस्तिके साथ लगा हुआ ''यात्' शब्द सूचित करता है कि अस्तिसे भिन्न धर्म भी बस्तुमें है केबल अम्लिधर्मरूप ही वस्तु नहीं है। इस तरह 'स्यात्' शब्द न शायदका न अमिश्नयका और न सम्भावनाका सिरहास निसिवाय अन्य अशेष धर्मोकी सूचना देना है जिमेसे"योती बस्तुको निदिष्ट धर्ममाष रूप ही न समझ बैठे। सप्तभंगी--वस्तु मूलत: अनन्तधर्मात्मक है। उसमें विभिन्न दृष्टियोंमे विभिन्न विवाओंसें अनन्त धर्म है। प्रत्येक धर्मका विरोधी धर्म भी दष्टिभेदसे वस्तुमं मम्भव है। जैसे 'घटः स्यादस्ति' में घट है अरने द्रव्य क्षेत्र काल भावकी मर्यादासे। जिस प्रबार घटमें स्वचतुष्टयकी अपेक्षा अस्तित्व धर्म है उसी तरह घटव्यतिरिक्त अन्य पदार्थोका नास्तिब्ध भी घटमें है। यदि घटभिन्न पार्योवा नास्तित्त्र घटमें न पाया जाय तो घट और अन्य पदार्थ मिलकर एक हो जायेंगे। अल: घट स्यादस्ति और रुपान्नास्ति झा है। इसी तरह वस्तुमें व्यष्टिगे नित्यत्व और पर्यायदृष्टिगे अनित्यत्व आदि अनकों विरोधी युगल धर्म रहते हैं। एक वस्तु में अनन्त सप्तभंग बनते हैं। जब हम घटक अस्तित्वका विचार करते हैं तो अस्तित्वविषयक सान भंग हो सकते हैं। जैसे गंजयके प्रश्नोत्तर या बुद्धक्रे अव्याकृत प्रश्नोत्तरमें हम चार कोटि तो निश्चित रूपसे देखते है--सत् असत् उभय और अनु'भय । उमी तरह गणित के हिसाबग नीन मुल भंगोंको मिलानेपर अधिकसे अधिक सात अपनरुस्त भंग हो सकते हैं। जैसे घड़के अस्तित्वका विचार प्रस्तुत है तो पहिला अस्तित्व, धर्म दूसरा विरोधी नास्तित्व धर्म और तीसरा धर्म होगा अवक्तव्य जो वस्तु पूर्ण रूपको सूचना देता है कि वस्तू पूर्णरूपसे ववनके अगोचर है, उसके विगद रूपको याद नहीं छू सकते। अबक्तव्य धर्म इस अपेक्षामे है कि दोनों धर्मोको यगपत कहनेवाला शब्द मारम नहीं है । अतः वस्तु यथार्थतः वचनातीत अवतन्य है। इस तरह मूल में तीन भंग है-- १ स्यादस्ति घट: स्यानास्ति घटः । ३ स्मादवक्तव्या घटः अवमन्यके साथ स्यात् पद लगातका भी अर्थ है कि बस्तु युगपन् पूर्ण रूपमें यदि अवस्तब्ध है तो कमश: अपने अपूर्ण रूपमें वक्तव्य भी है और वह अस्ति नामित आदि रूपसे वचनोंका विषय भी होतो है। अत: यस्तु स्याद् अबक्तबा है। जब मूल भंग नीन हैं तब उनके दिसंयोगी भंग भी तीन होंग मथा नि. संयोगी भंग एक होगा। जिस तरह चतष्कोटिम सल और असतको मिलाकर प्रश्न होता है कि क्या सन होकर भी वस्तु असत् है ?" उमी तरह ये भी प्रश्न हो सकते हैं कि-६ क्या सत् होकर भी वस्तु अवकाव्य है ? २ क्या असत् होकर भी वस्तु अबक्तव्य है? ३ क्या सत्असत् होकर भी वरतु अववतव्य है ? इन तीनों प्रश्नोंका समाधान संयोगज चार भंगोंमें है। अर्थात - (४) अस्ति नास्ति उभय का वस्तु है-स्वचतुष्टय अर्थात् स्वद्रब्य-क्षेत्र-काल-भाव और परचतुष्टय पर क्रमशः दष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहने पर। (५) अस्ति अवक्तव्य बस्तु है-प्रथम समयमें स्वचतुष्टय और द्वितीय समयमें युगपत् स्वपरचतुष्टय पर क्रमशः दृष्टि रखनेपर और दोनोंकी सामूहिक विवक्षा रहने पर। (६) नास्ति अवक्तन्य वस्तु है-प्रथम समयमें पचतुष्टय और द्वितीय समयमे युगपत् स्वर चतुष्टयको क्रमशः दृष्टि बनेपर और दोनोंकी सामहिक विवक्षा रहने पर । (७) अस्ति नास्ति अवस्तथ्य बस्तु है-प्रथम समयम स्वचतुष्टय. द्वितीय ममयम परचतुष्टम तथा तृतीय समयमें युगपत् स्व-पर चतुष्टय पर कमशः दृष्टि रखने पर और तीनोंकी सामूहिक विवक्षा रहने पर। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66. सप्तभंगी जब अस्ति और नारित की तरह अवक्तव्य भी वस्तुका धर्म है तब जैसे अस्ति और नास्तिको मिलाकर याद है वैसे यि से विधीस्त नहटौर अस्तिनास्तिको मिलाकर पाँचवें छठवें और सातवें भगकी सृष्टि हो जाती है। इस तरह गणित के सिद्धान्त के अनुसार तीन मूल वस्तुयोंके अधिक से अधिक अपुनराजन सात ही भंग हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि वस्तुके प्रत्येक धर्मको लेकर सात प्रकारकी जिज्ञासा हो सकती है, सात प्रकारके प्रश्नही सकते हैं अतः उनके उत्तर भी सात प्रकारके ही होते हैं । दर्शन दिग्दर्शनमें श्री राहुलजी ने पांचवें टवें और सातवें भंगको जिस भ्रष्ट तरीकेसे तोड़ामोड़ा है वह उनकी अपनी निधी कल्पना और अतिसाहस है। जब वे दर्शनोंको व्यापक नई और वैज्ञानिक दृष्टिसे देखना चाहते हैं तो किसी भी दर्शनकी समीक्षा उसके स्वरूपको ठीक समझ कर ही करनी चाहिए। अवक्तव्य नामक धर्मको, जो कि सत्के साथ स्वतन्त्रभाव से द्विसंयोगी हुआ है, तोटकर अ वक्तव्य करके संजय 'नहीं' के साथ मेल बैस देते हैं और 'संजय' के घोर अनिश्चयवादको ही अनेकान्तवाद कह देते हैं ! किमाश्वर्यमतः परम् श्री सम्पूर्णानवजी 'जैनधर्म' पुस्तककी प्रस्तावना ( पृ० ३) में अनेकान्तवादको ग्राह्यता स्वीकार करके भी सप्तभागी न्यायको बालको खाल निकालने के समान आवश्यकतासे अधिक नारीकीमें जाना समझते हैं। पर सप्तभंगीको आजसे हाई हजार वर्ष पहिलेके वातावरणमें देखनेपर वे स्वयं उसे समयकी मांग कहे बिना नहीं रह सकते। अाई हजार वर्ष पहिले आबाल गोपाळ प्रत्येक प्रश्नको सहज तरीकेसे 'सत् असत् उभय और अनुभव' हम चार कोटियोंमें गूंथ कर ही उपस्थित करते थे और उस समय के भारतीय आचार्य उत्तर भी चतुष्कोटिका ही हो या ना में देते थे, तब तीर्थंकर महावीरले मूल तीन मंगोंके गणित नियमानुसार अधिकसे अधिक मात प्रश्न बनाकर उनका समाधान सप्तभंगी द्वारा fear जो निश्चितरूपसे वस्तुको सीमा के भीतर ही रहा है। सात भंग बनाने का उद्देश्य यह है किदस्तु अधिक से अधिक सात ही प्रश्न हो सकते है । अवक्तव्य वस्तुका मूलरूप है. सत् और असत् ये दो धर्म इस तरह मूल धर्म सीन हैं। इनके अधिक से अधिक मिला जुड़ाकर सात ही प्रश्न हो सकते हैं । इन सब संभव प्रश्नोंका समाधान करना ही सप्तभंगी न्यायका प्रयोजन है। यह तो जैसे को तैसा उत्तर है अर्थात् यदि तुम कल्पना करके सात प्रश्नों की संभावना करते हो तो उसी तरह उत्तर भी वास्तविक तीन धर्मोको मिलाकर सात हो सकते हैं। इतना ध्यान में रहना चाहिए कि एक एक धर्मको लेकर ऐसे अनन्त सात मंग वस्तु बन सकते हैं। अनेकान्तवादने जगत् के वास्तविक अनेक सत्का अपलाप नहीं किया और न वह केवल कल्पनाके क्षेत्र में विचरा है । मेरा उन दार्शनिकोंसे निवेदन है कि भारतीय परम्परा में जो सत्यकी धारा है उसे 'दर्शन ग्रन्थ' लिखते समय भी कायम रखें और समीक्षाका स्तम्भ तो बहुत सावधानी और उत्तरदायित्वके साथ लिखनेकी कृपा करें जिससे दर्शन केवल बिवाद और भ्रान्त परम्पराओंका अजायबघर न बने, वह जीवन में संबाद लावे और दर्शनप्रणेताओंको समुचित न्याय दे सके । इस तरह जैनदर्शनने दर्शन की काल्पनिक भूमिका से निकलकर वस्तु सीमापर खड़े होकर जगत् में वस्तुस्थितिके आधारसे मंत्राद समीकरण और यथार्थ तत्वज्ञानको दृष्टि दो जिसकी उपासना से विश्व अपने वास्तविक रूपको समझकर निरर्थक विवाद से बचकर सच्चा संवादी बन सकता है। १ जैनमन्यमिह बी के बालजीवन की एक घटनाका कर्णन आता है कि ' और विजय नामके दो साधुसंशय महावीर को देखते ही नष्ट हो गया था, इसलिए इनका नाम सन्मति रखा गया था सम्भव है यह संजय-विजय संजय कपुित्त हो हो और इसीके संशय या अनिश्चयका नाश महावीर के सप्तभंगीन्याबले हुआ हो। यहाँ केलट् ठिपुत्त विशेष भ्रष्ट होकर विजय नामका दूसरा । सा वन गया है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुष्टादर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसमता महाराजा अनेकान्तदर्शनका सांस्कृतिक आधारभारतीय विचार परम्पगमें स्पष्टन. दो धागाएँ। एक भाग बंदको प्रमाण मानने वाले दिन दर्शनोंकी है ओर दुगरी वेदो प्रमाण ने गानकार गुरुपान मात्र या पुरुषसाक्षात्कारको प्रमाण माननेवाले श्रमण सन्त की। यद्यपि नार्वाक दर्शन भी बंद! माण नहीं मानना बिन्त उमन आत्माका अस्तित्व जन्मसे मरण पर्यन्त ही रवीकार किया है। उसन परलोक, पुण्य, पाण, और मोक्ष में आत्मप्रतिष्ठित तत्त्वा को तथा आत्मनंशोधन पारित्र आदिको उपगिताव स्वीकृत नहीं किया है। अन: अवैदिक होकर भी वह श्रमणधारामं सम्मिलित नहीं किया जा सकता। श्रमणवारा वैदिक परम्पराको न मानकर भी आत्मा, जभित्र ज्ञान सन्तान, पुण्य-पा, परलोक निर्वाण आदिम विश्वास रखती है, अतः पाणिनिकी ग्यिाषा के अनुसार आम्निा है। वेदको या ईश्वरको जगत्वा न मानने के कारण श्रमणधागको नास्तिक कहना उचित नहीं, क्योकि अपनी अमक. गरमागको न मानन के कारण यदि श्रमण नास्निक' है, नो श्रमणपराम्पमा को न मानने के कारण वैदित्र न मिथ्यावृष्टि आदि विशेषणों में पुकारे गये हैं। थमणधागका सारा लन्नज्ञान या विस्तार जोबन-गोधन या चारित्र्य वृद्धिवे लिए हुआ था। वैदिक परम्परामें तत्त्वमानको मस्तिका साधन माना है, जब कि धमधारगमचारिय का। वैदिकप पग वैराग्य आदिमे जानको पृष्ट करती है, और विचारद्धि करकं मोक्ष मान लेती है जब कि श्रमणपरम्पग कहती है कि उस ज्ञान या विचारका कोई मूल्य नहीं जो जीवनम न सरे । जिसकी मुत्रासमे जोवनशोधन न हो वह जाम या विचार मस्तिष्कके न्यायामसे अधिक कुट भी महत्व नहीं रखते। जैन परम्परामं तस्यायका आद्यसुत्र है--सम्यादर्शनसानचाग्त्रिाणि मोक्षमार्ग:" निस्वार्थत्र ११) अयाल सम्यग्दर्शन सम्यग्जान और सम्यक् नारित्रकी आत्मपरिणति मोक्षका मान है। यह मोक्षका माक्षान् कारण चात्रि है। सम्यग्दर्शन आर सम्यग्ज़ाद ना उस पारिबके पगियापनहे। बाद पाम्पगना अष्टांग मार्ग भी तान्त्रिका ही विस्तार हैं। तात्पर्य यह कि श्रमणधारामें शानकी अशा चारित्रका ही अन्तिम महत्त्व रहा है और प्रत्यक विचार और ज्ञानका उपयोग चारित्र अर्थात् आत्मशोधन या जीवनमें नामञ्जस्य स्थापित करनेके लिए किया गया है। श्रमण सन्मोंने नप और साधनाके द्वारा त्रोत रागना प्राप्त की और उमी परमवीतरागनी, ममता या अहिंसा की उत्कृष्ट ज्योतिको विश्वमें प्रचारित करने के लिए विश्वतन्नोंका नाक्षात्कार किया। इनका साहब विचार नहीं आचार बा. मान नहीं वारिप था वाग्विालाम या शास्त्रार्थ नहीं, जीवनद्धि और संबाद था। अहिंसाका अन्तिम अर्थ है-जोवमात्र (चाहे वह स्थावर हो या जंगम, पशु हो या मनुष्य, ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, बंदय हो या शुद, गोरा हो या काला, एतद्देशीय हो या विदेशी देश, काल. शरीराकार, वर्ण, जाति, रंगआदि के प्रयागामे पर होकर ममन्य दर्शन । प्रतीक जीत्र ग्वन्पग चैतन्य शक्तिका अखगड गाश्वत आधार है। वह वर्म या वागनाओंके कारण वक्ष, कीड़ा-मकोटा, पश और मनुष्य आदि शरीरोंको धारण करता श्रे, पर अश्वगः चंतन्यका एक भी अंश उसका नष्ट नहीं होता। वह वासना या रागपादिके द्वारा विकृन अवश्य हो जाता है। मनुष्य अपने देशवाल आदि निमित्तोंसे गोरे या काले किसी भी वारीरको बारण किए हो, अपनी बुनि मा कर्मक अनूसा बाह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दा किगीभी श्रेणीमं उसकी गणना मयनहारतः बी जाती हो. किमो भी देदाम उत्पन्न हुआ हो, किसी भी सन्तका उपासक हो, वह इन व्यावहारिक निमिनोंसे ऊँच या नोच नहीं हो सकता। किमी वर्णविशेषमें उत्पन्न होने के कारण हो बह धर्मका ठेकेदार नहीं बन सकता। मानवमात्र के मूलत: समान अधिकार है, इतना ही नहीं किन्नु गदा-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, वृक्ष आदि प्राणियोंके भी। अमर प्रकार की आजीविका या व्यापारके कारण कोई भी मनुष्य किसी मानवाधिवाग्ग वंचित नहीं हो सकना । यह मानवसमत्वभावना, प्राणिमात्रमें गमता और उत्कृष्ट मन्यमंत्री अहिंसाके ही विक्रमित रूप हैं। श्रमणसन्तोंने यही कहा है कि-एक मनष्य किसीभन्यण्डपर या अन्य भौतिक साधनोंपर अधिकार कर लेने के कारण जगत में महान बनकर दूसरोंके निदंलनका जन्मसिद्ध अधिकारी नहीं हो सकता। किसी वर्णविदोष में उत्पन्न होने के कारण अमरोंका भामक या धर्म का ठेकेदार नहीं हो सकता। भौतिक साधनों Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनेकान्तदर्शन का सांस्कृतिक आधार की प्रतिष्ठा बाहामं कदाचिरीडी भी प्राचार्य प्रणिधानकार एका हाहामवर बैठना होगा। है' एक प्राणीकी धमकी शीतल छायामं मनानभाव मन्नाषक। ग्राम रनका अवनर है। आमममत्व वीतरागत्व या आसाके विकासमेही कोई महानही मना हैन कि जगतम त्रिपमता फैलानेवाले हिम परिअहके संग्रहमे । आदर्श त्याग है न कि संग्रह । इस प्रकार जाम, वर्ण, रंग. देश, P. पग्पिहसंग्रह आदि विषमता और गघर्षक कारणों में परे होकर प्राणिमात्रको ममत्य, अहिंसा और जीनगरलावा पावन मन्दा इन श्रमणमन्तान उस समय दिया जच यज्ञ आदि क्रियाकक बविशेषत्री जीविकाके माधन बन हाए। कुछ गाय, सोना और स्त्रियों की दक्षिणास स्वर्ग के टिकिः प्राप्तान धर्म के नाम पर गामध अजामेध कनिन नरमेधतक का म्ला बाजार था, जानिनन उक्चस्व नीचवका विष समाजमरीका दग्ध कर रहा थर, अनंक प्रकारसे सनाको हभियानक पड्यन्त्र चाल थे। उस नबंर गर्म पानबममत्व और प्राणिमधीका उदाग्नम सन्देश इन युगधर्मी मत्ताने नास्तिकताका मिश्या लाछन महल हए भी दिया और धान्न जनगावो मन्त्री समाजरचनाका मलमन्त्र बनाया। पर, यह अनुभवसिद्ध बात है कि अहिंसाकी स्थायी प्रतिष्टा मनासद्धि और वचनशुद्धिके विना नहीं हो गकती। हम भले ही गरीग्मे दूसरं प्राणियोंकी हिमा न करें पर यदि बचन ध्यत्रहार और चित्तगतविचार दिषभ और विसंवादी है तो कायिक ओहमा पल ही नहीं मानी। अपने मनके चिनार अर्थात मतको पुष्ट करने के लिए ऊन नीच शब्द बोले जायेंगे और फलत: हाथापाईका अवसर आए विना न रहेगा। भारतीय शास्त्राका इतिहास ऐसे अनके हिसा कराके किनार्गअन गोग भग का है। उमः यह आवश्यक था कि हिमाको सर्वागीण प्रतिष्ठाक लिए विश्वका यथार्थ तत्त्वज्ञान ही और विना अधिमूलक वचनशद्धिकी जीवमध्यवहारम प्रनिष्ठा हा ग्रह मम्भव ही नही है कि कही तक विषय में परस्पर विरोधी मतवाद चल रहें, अपने पक्ष के समर्थन लिए गत अनिम्बार्य हात रहें. पक्षप्रतिपक्षोंका संगठन हो, शास्त्रार्थ में हारने बालेकी नलकी जन्ननी भाडाहीम जीवित नालन जैसी हिसक हो भी लगे, फिर भी परस्पर हिसा बनी रहे ! भगवान महावीर एक परम अहिसक सना । नन दखा कि आजका माग राजकारण धर्म और मजादियोंके हायम है। जबतक इन मतगावनिक आधाभगमन्वय नगः तनमक हिसाकी जद नहीं कट सकती। उनने विश्व के लत्वाका साक्षाकार किया और बनाया कि विश्वका प्रत्येक चेतन और जड़ तस्त्र अनन्त बोका भण्डार है। उसके बिगट् स्वरूपको गाधारणा मानव परिपूर्ण रूपमें नहीं जान सकता। उसका सद ज्ञान वस्नुके एक एक अंगको जानकर अपनी गुणं। का दुरभिमान कर बैठा है। विवाद वस्तुमे नहीं है। विवाद तो द खनवालांकी दृष्टिमं है। काय ये बस्तके विराट् अनन्त-धर्मा:मक या अनेकात्मक स्वरूपकी झांकी पा सकते । उननं इम अनंकानात्मक तस्वज्ञानकी ओर मतवादियोंका ध्यान स्वीचा और बताया कि देखो, प्रत्यक बस्तु अनन्न गण पर्याय और मौका अखण्ड पिण्ड है। या अपनी अनाधनन्ज मन्नादरूप स्थितिकी म नित्य है । कभी भी ऐना समय नहीं आ सकता जब शिस्त्रके रंगमनसे एक कणका भी समल विवाग हो जाय । गायी प्रतिक्षण उसकी पर्याय बदल रही हैं, उनके गुण-धोम भी मदन या विक परिवर्तन हो रहा है, अनः बह अनित्य भी है। इसी सरह अनन्त गुण, शकिा, पर्याय और धर्म प्रयोग वस्तकी निजी सम्पत्ति हैं। इनमसे हमारा स्वल्प मानलब एक एक अंगको विषय करके अः गतवाद गष्टि करता है। आत्मा को नित्य सिद्ध करने वालोंका पक्ष अपनी सारी भक्ति आत्माको अनिन्य सिद्ध करने वालांक: उन्नाइ पछाड़में लगा रहा है तो 'अनित्यत्रादियों का मु. नित्यत्रादियोंको गला बुरा कह रही है। महावीरका इन मतवादियोंकी बुद्धि और प्रवृत्ति पर गरम आता था। ये बी गह आत्मनित्यत्व और अनित्यत्व, परलोक और निर्वाण आदिको अन्याकन (अकथनीय) कहकर बौद्धिक नमकी Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मॉमसंकृति-प्रस्वाबार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज मष्टि नहीं करना चाहते थे। उनने इन सभी तत्वांका पथार्थ स्वरूप बताकर शिष्योंको प्रकाशम लाकर उन्हें मानस समताकी समभूमिपर ला दिया। उनन बनाया कि वस्तुको गम जिस दृष्टिकोणसे देख रहे हो वस्तु उतनी ही नहीं है.उसमें ऐसे अनन्त दृष्टिकोण से देसे ज्ञानको क्षमता है, उसका विराट् स्वरूप अनन्त धर्मात्मक है। तुम्हें जो दृष्टिकोण विरोधी मालम होता है उसका ईमानदारी से विचार करो, वह भी वस्तुमें विद्यमान है। चितसे पक्षपानक। दुर्गभगन्धि निकालो और दूसरेके दृष्टिकोणको भी उतनी ही प्रामाणिकतासे वस्तुमें खोजो, वह वहीं लहरा रहा है। हाँ, वस्तूकी सीमा और मर्यादाका उल्लंघन नहीं होना चाहिए। तुम चाहो कि जड़ चेतनत्व मिल जाय या चेतनमे जडत्व, तो नहीं मिल सकता त्येक पदार्थके अपने निजी धर्म निपिचन। में प्रत्येक वस्तको अनन्नधर्मात्मक कह रहा है, सर्वधर्मात्मक नहीं। अनन्त धोम नेतनके सम्भव अनन्त धर्म चेतनमें मिलेंगे तथा अचेतनगत धर्म अचंतनम । चेतनके गण-धर्म अचेतगम नहीं पाये जा सकते और न अनंतन के चेतन में। हो, कुछ ऐने मामान्य धर्म भी है जो'चंतन औ: बरेनन दोनोंम साधारण रूपसे पाए जाते हैं। तात्पर्य यह कि वस्तुम बहुत गुजाइश है। वह इतनी दिगद है, जो तुम्हारे अनन्त दृष्टिकोणोंसे देखी और जानी जा सकती है। एक क्षुद्र-दृष्टिका आरह करके दूसरेकी दृष्टिका तिरस्कार करना या अपनी दृष्टिका अहंकार करना वस्तुके स्वरूपकी नासमक्षीका परिणाम है। हरिभद्रमृरिने बहुत सुन्दर लिखा है कि "आपही बता निनीष सि मुक्तिं तत्र यत्र मतिरस्प निषिष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्लियत्र तत्र मतिरैति निवेशम् ।।'' (लोकतत्त्वनिर्णय) अर्थात्-आग्रही व्यक्ति अपने मतपोषण के लिए युक्तियाँ देता है, यक्तियोंको अपने मतकी ओर ले जाता है, पर पक्षपात हित मध्यस्थ व्यक्ति युक्तिसिद्ध वस्तुम्वरूपको स्वीकार करनमें ही अपनी मति की सफलता मानता है। अनेकान्त दर्शन भो यही सिखाता है कि युक्तिसिद्ध वस्तुस्वरूपकी और अपने मतको लगाओ न कि अपने निश्चित मतकी ओर वस्तु, और युक्तिको खींचातानी कर उन्हें बिगाड़नेका दुष्प्रायास करो, और न कल्पनाको उड़ान इतनी लम्बी लो जो वस्तु की सीमाको ही लांघ जाय । तात्पर्य यह है कि मानससमताके लिए यह वस्तुस्थितिमूलक अनेकान्त तत्त्वज्ञान अत्यावश्यक है। इसके द्वारा इस नरतनपारी को ज्ञात हो सकेगा कि वह कितने पानीमे है, उसका ज्ञान कितना स्वल्प है, और वह किस दुरभिमानसे हिसक मतवादका सजन करकं मानवसमाजका अहित कर रहा है। इस मानस अहिंसात्मक अनंकाम्न दर्शनसे विचारोंम या दृष्टिकोणोंम कामचलाऊ समन्वय या ढीलाढाला समझौता नहीं होता, किन्तु वन्तुस्वरूपके आधारमे यथार्थ तत्त्वज्ञानमूलक संवाद दृष्टि प्राप्त होती है । डॉ० सर राधाकृष्णन इण्डियन फिलामफी (जिल्द १ पृ० १०५-६ ) में स्थावादके ऊपर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं कि-'इससे हमें केवल आपेक्षिक अथवा अर्धसत्यका ही ज्ञान हो सकता है. स्वामादसे हम पूर्ण सत्यको नही जान सकते। दूसरे शब्दोंम स्याहाद हमें अर्धसत्योंके पास लाकर पटक देना है और इन्ही अर्धसत्योंको पूर्ण सत्य मान लेनेकी प्रेरणा करता है। परन्तु केवल निश्चित अनिश्चित अर्थमन्योंको मिलाकर एक नाथ रख देनमे बह पूर्णसत्य नहीं कहा जा सकता।" आदि । क्या सर राधाकृष्णन यह नामकी कृपा करेंगे कि स्याहादने निश्चित अनिश्चित अर्धसत्योंको पूर्ण म:य मागनंको प्रेरणा कैप की है? हां, वह वेदान्सकी नन्द चेतन और अचेतनके काल्पनिक अभेदकी दिमानी दाडम अवश्य शामिल नहीं हुआ, और न वह किसी एसे सिद्धान्तका समन्वय करनेकी सलाह देना है जिममं वस्तुस्थितिकी उपेक्षा की गई हो। सर राधाकृष्णन को पूर्णसत्य रूपसे वह काल्पनिक अभेद या ब्रह्म इष्ट है जिमम चनन अचेतन मत अमर्त सभी काल्पनिक रीतिमे समा जाते हैं। वे स्याद्वादकी समन्वयदृष्टिको अर्धसत्योंके पास लाकर पटकना समझते हैं, पर जब प्रत्येक बस्तु स्वरूपतः अनन्तधर्मात्मक Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ अनेकान्तदर्शन का सांस्कृतिक आधार हं तब उस बास्तविक नतीजेपर पहुँचनेको अर्धसत्य कैसे कह सकते हैं? हाँ, स्याद्वाद उस प्रामाणविरुद्ध काल्पनिक अभेदकी ओर वस्तुस्थितिमूलक दृष्टिसे नहीं जा सकता। वैसे, संग्रहह्नयकी एक घरम अभंदकी कल्पना जनदर्शनकारोंने भी की है और उस परम संग्रहनयकी अभेद दृष्टिसे बताया है कि-"सर्वमेक मदविशेषात् अर्थात् जगत् एक सयस यतन और म्यान में कोई भेद नहीं है । पर यह एक कल्पना है, क्योंकि ऐसा एक सत् नहीं है जो प्रत्येक मौलिक द्रव्यमै अनुगत रहता हो। अत: यति सर राधाकृष्णनको चरम अभेदकी कल्पना ही देखनी हो तो वे परमसंग्रहनयके दष्टिकोणमें देख सकते हैं, पर वह केवल कल्पना ही होगी, वस्तुस्थिति नहीं। पूर्णसत्य तो वस्तुका अनेकान्तात्मक रूपमें दर्शन ही है न कि काल्पनिक अभेदका दर्शन । इसी तरह प्रो.बलदेव उपाध्याय इस स्मातादसे प्रभावित होकर भी सर राधाकृष्णनका अनुसरण कर, स्याद्वादको मूलभूततस्व (एक ब्रह्म?) के स्वरूपके समझने में नितान्त असमर्थ बतानेका साहस करते हैं। इनमें सो यहाँ तक लिख दिया है कि-"इसी कारण यह व्यवहार तथा परमार्थके बीचोंबीच तस्वविचारको कतिपय क्षणकं लिए बिसम्म तथा बिराम देनेवाले विधामगृहसे बढ़कर अधिक महत्त्व नहीं रखता।" (भारतीय दर्शन १.० १७३) । आप चाहते हैं कि प्रत्येक दर्शनको उस काल्पनिक अभेदतक पहुंचना चाहिए। पर स्याद्वाद जब वस्तुविचार कर रहा है तब वह परमार्थसत् वस्तुकी सीमाको कैसे लाँघ सकता है ? वाकवाद न केवल युक्तिविरुद्ध ही है किन्तु आजके विज्ञानसे उसके एकीकरणका कोई वास्तविक मूल्य सिद्ध नहीं होता । विज्ञानने एटमका भी विश्लेषण किया है और प्रत्येककी अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की है। अतः यदि स्थाढाद वस्तुकी अनेकान्तात्मक सीमा पर पहुंचाकर बुद्धिको विराम देता है तो यह उसका भूषण ही है। दिमागी अभेदसे वास्तविक स्थितिकी उपेक्षा करना मनोरज्जनसे अधिक महत्त्वकी बात नहीं हो सकती। इसी तरह श्रीयुत हनुमन्तराष एम. ए. ने अपने "Jain Instrumental Theory of knowledge"नामक लेख में लिखा है कि-"स्याद्वाद सरल समझौतेका मार्ग उपस्थित करता है, वह पूर्ण सत्य तक नहीं ले जाता।" आदि। ये सब एक ही प्रकारके विचार है जो स्यावादके स्वरूपको न सममनके या वस्तुस्थितिकी उपेक्षा करने के परिणाम है। मै पहिले लिख चुका हूँ कि महायोग्ने देखा कि-वस्तु तो अपने स्थानपर अपने विराट रूपमें प्रतिष्ठित है, उसमें अनन्त धर्म, जो हमें परस्पर विरोधी मालूम होते हैं, अनिरुद्ध भावमे विद्यमान है. पर हमारी दृष्टिमें विरोध होनेगे हम उसकी यथार्थ स्थितिको नहीं समय पा रहे हैं। जैन दर्शन वास्तव-बहुल्बबादी है। वह दो पृथक् सत्ताक यस्तुओंको व्यवहारके लिए कल्पनासे अभिन्न कह भी, पर वस्तुकी निजी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करना चाहता। जैन दर्शन एक व्यक्तिका अपने गुण-पर्यायोंमे वास्तविक अभेद तो मानता है, पर दो व्यक्तियोम अवास्तविक अभेदको नहीं मानता। इस दर्शनकी यही विशेषता है, जो यह परमार्थ सत् वस्तुकी परिधिको न लांघकर उसकी सीमा ही विवार करता है और मनुष्योंको कल्पनाकी उड़ानसे विरत कर वस्तुको ओर देखनेको बाध्य करता है। जिस चरम अभेद तक न पहुंचने के कारण अनेकान्त दर्शनको सर राधाकृष्णन जैसे विचारक अर्घसत्योंका समुदाय कहते हैं, उस चरम अभेदको भी अनेकान्त दर्शन एक व्यक्तिका एक धर्म मानता है। वह उन अभेदकल्पकोंको कहता है कि वस्तु इसमे भी बड़ी है अभेद तो उसका एक धर्म है। दृष्टिको और उदार तथा विशाल करके यस्तुके पूर्ण रूपको देखो, उममें अभेद एक कोनम पड़ा होगा और अभेदके अनन्तों भाई-बन्धु उसमं तादात्म्न हो रहे होंगे। अत: इन ज्ञानलवधारियोंको उदारष्टि देनेवाले तथा वस्तुकी झांकी दिखानेवाले अनेकान्तदर्शन ने वास्तविक विचारकी अन्तिम रेखा खींची है, और यह सब हुआ है मानसममलामुलक तत्त्वज्ञानकी खोजसे। जब इस प्रकार वस्तुस्थिति ही अनेकान्तमयी या अनन्तधर्मात्मिका है तब सहज Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तार्थवृत्ति प्रस्तावना । मानस वाखिके लिए ही मनुष्य यह सोचने लगता है कि दूसरा वादी जो कह रहा हूं उसकी सहानुभूतिसे समीक्षा होनी चाहिये और वस्तुस्थिति मूलक समीकरण होना चाहिये। इस स्वीयस्वल्पता और वस्तुकी अनन्तधर्मता के वातावरणसे निरर्थक कल्पनाओंका जाल टूटेगा और अहंकारका विनाश होकर मानससमताकी सृष्टि होगी, जो कि अहिंसाका संजीवन बीज है । इस तरह मानस समताके लिए अनेकान्तदर्शन ही एकमात्र स्थिर आधार हो सकता है । ra अनेकान्त दर्शनसे विचारशुद्धि हो जाती है तब स्वभावतः वाणी में नम्रता और परसमन्वयकी वृत्ति उत्पन्न हो जाती है। वह वस्तुस्थितिको उल्लंघन करनेवाले शब्दका प्रयोग ही नहीं कर सकता। इसीलिए जैनाने वस्तुकी अनेकधर्मात्मताका द्योतन करने के लिए 'स्मात्' शब्दके प्रयोगकी आवश्यकता बताई हूं । शब्दों में यह सामर्थ्य नहीं जो कि वस्तुके पूर्णरूपको युगपत् कह सके। वह एक समयमें एक ही धर्म को कह सकता है। अतः उसी समय वस्तुमं विद्यमान शेष धर्मों की सत्ताका सूचन करनेके लिए 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया जाता है 'स्यात्' का 'सुनिश्चित दृष्टिकोण' या 'निर्णीत अपेक्षा' ही अर्थ हैं 'शायद, सम्भव, कदाचित् आदि नहीं। 'स्यादस्ति' का वाच्यार्थ है- 'स्वरूपादिकी अपेक्षासे वस्तु है ही' न कि 'शायद है', 'कदा चित् है' आदि। संक्षेपतः जहां अनेकान्त दर्शन चित्तमें समता, मध्यस्थभाव, वीतरागता, निष्पक्षताका उदय करता है वहाँ स्याद्वाद वाणी में निर्दोषता आनेका पूरा अवसर देता हूँ । इस प्रकार अहिंसाकी परिपूर्णता और स्थायित्वकी प्रेरणाने मार्गदर्शक आचार्य श्री दर्शन और वचन शुद्धि के लिए स्याद्वाद जैसी निधियोंको भारतीय संस्कृतिके समय वक्ताको सदा यह ध्यान रहना चाहिए कि बहु जो बोल रहा है उतनी ही वस्तु नहीं है, किन्तु बहुत बड़ी है, उसके पूर्णरूप तक शब्द नहीं पहुँच सकते। इसी भावको जलाने के लिए वक्ता 'स्यात्' शब्दका प्रयोग करता है । 'स्यात्' शब्द विधिलिङ् निष्पन्न होता है, जो अपने वक्तव्यको निश्चिन रूपमें उपस्थित करता है न कि संशय रूपमें जैन तीर्थकरोंन इस तरह सर्वांगीण अहिंसाको साधनाका वैयक्तिक और सामाजिक दोनों प्रकारका प्रत्यक्षानुभूत मार्ग बताया है । उनने पदार्थोके स्वरूपका यथार्थ निरूपण तो किया ही, साथ ही पदार्थोंके देखनेका, उनके ज्ञान करनेका और उनके स्वरूप वचन से कहनेका नया वस्तुस्पर्शी मार्ग बताया। इस अहिंसक दृष्टिसे यदि भारतीय दर्शनकारोंने वस्तुका निरीक्षण किया होता तो भारतीय जल्पकथाका इतिहास रक्तरंजित न हुआ होता और धर्म तथा दर्शनके नामपर मानवताका निर्यलन नहीं होता। पर अहंकार और शासन भावना मानबको दानव बना देती हूं । उस पर भी धर्म और मतका 'अहम्' तो अति दुर्निवार होता है। परन्तु युग युगमं ऐसे ही दानवोंको मानव बनानेके लिए अहिंसक सन्त इसी समन्वय दृष्टि इसी समता मात्र और इसी सर्वांगीण अहिंसाका सन्देश देते आए हैं। यह जैन दर्शनकी ही विशेषता है जो वह अहिंसाकी तह तक पहुँचने के लिए केवल धार्मिक उपदेश तक ही सीमित नहीं रहा अपितु वास्तविक स्थितिके आधारसे दार्शनिक गुल्थियों को सुलझानेको मौलिक दृष्टि भी खोज सका । न केवल दृष्टि हो किन्तु मन वचन और काय इन तीनां द्वारोंसे होनेवाली हिंसाको रोकनेका प्रशस्ततम मार्ग भी उपस्थित कर सका । सागर जी महारानुकान्तकोषागार में दिया है। बोलते ८२ आज डॉ भगवान् वास जैसे मनीषी समन्वय और सब धर्मोकी मौलिक एकलाकी आवाज बुलन्द कर रहे हैं। के वर्षों कह रहे हैं कि समन्वय दृष्टि प्राप्त हुए बिना स्वराज्य स्थायी नहीं हो सकता, मानव मानव नहीं रह सकता। उन्होंने अपने 'समन्वय' और 'दर्शन का प्रयोजन' आदि ग्रन्थोंमें इसी समवय तत्त्वका भूरि भूरि प्रतिपादन किया है। जैन ऋषियोंने इस समन्वय ( स्याद्वाद ) सिद्धान्त पर ही संख्याबद्ध ग्रन्थ लिखे हैं। इनका विश्वास है कि जबतक दृष्टिमें समीचीनता नहीं आयगी तबतक मतभेद और संघर्ष बना ही रहेगा। नए दृष्टिकोणसे वस्तु स्थिति तक पहुँचना ही विसंवादसे हटाकर जीवनको संवादी बना सकता है। जैन दर्शनकी भारतीय संस्कृतिको सही देन है। आज हमें जो स्वा तन्त्र्यके दर्शन हुए हैं वह इसी अहिंसाका पुण्यफल है। कोई यदि विदयमें भारतका मस्तक ऊँचा रखता है तो वह निरुपाधि-वर्ण जाति रंग देश आदिकी क्षुद्र उपाधियोंसे रहित अहिंसा भावना हो Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदादि अनुयोग ८३ सानि अनुयोग - प्रमाण और नयके द्वारा जाने गए तथा निक्षेपके द्वारा अनेक संभावित रूपों में सामने रखे गए पदार्थोंसे ही तत्वज्ञानोपयोगी प्रकृत अर्थका यथार्थ बोध हो सकता हूँ। उन निक्षेपके विषय भूल पदार्थों में दृढ़ताकी परीक्षा के लिए या पदार्थके अन्य विविध रूपोंके परिज्ञानके लिए अनुयोग अर्थात् अनुकुल प्रश्न या पश्चाद्भावी प्रश्न होते हैं। जिनसे प्रकृत पदार्थकी वास्तविक अवस्थाका पता लग जाता है। प्रमाण और नय सामान्यतया तत्त्वका ज्ञान कराते हैं। निक्षेप विधिसे अप्रकृतका निराकरणकर प्रस्तुतको छांट लिया जाता है । फिर घंटी हुई प्रस्तुत वस्तुका निर्देशादि और सादि द्वारा सविवरण पूरी अवस्थाओंका ज्ञान किया जाता है। निक्षेपसे घंटी हुई बस्तुका क्या नाम है ? ( निर्देश) कौन उसका स्वामी हूँ ? (स्वामित्व ) कैसे उत्पन्न होती है ? (साधन) कहाँ रहती है ? (अधिकरण) कितने कालतक रहती है ? (स्थिति) कितने प्रकारकी हुँ ? (विधान), उसकी द्रव्य-क्षेत्र काल भाव आदिसे क्या स्थिति है। मस्तित्वका ज्ञान 'सत्' है। उसके भेदोंकी गिनती संख्या है। वर्तमान निवास क्षेत्र है। कालिक निवासपरिधि स्पर्शन है। ठहरतेकी मर्यादा काल है। अमुक अवस्थाको छोड़कर पुनः नाप्राप्त औपशमिक आदि भाव हैं । परस्पर संख्याकृत तारतम्यका विचार अल्पबहुत्व हैं । सारांश यह कि निक्षिप्त पदार्थका निर्देशादि और सदादि अनुयोगोंके द्वारा यथावत् सविवरण ज्ञान प्राप्त करना मुमुक्षुकी अहिंसा आदि साधनाओंके लिए आवश्यक है । जीवरक्षा करने के लिए जीवकी द्रव्य क्षेत्र काल भाव आदिकी दृष्टिसे परिपूर्ण स्थितिका ज्ञान अहिंसकको जरूरी ही है । इस तरह प्रमाण नय निक्षेप और अनुयोगोंके द्वारा तत्त्वोंका यथार्थ अधिगम करके उनकी प्रतीति और अहिंसादि चारित्रकी परिपूर्णता होनेपर यह आत्मा बन्धनमुक्त होकर स्वस्वरूपमें प्रतिठित हो जाता है। यही मुक्ति हैं। "श्रुतादर्थमनेकान्तमधिगम्याभिसन्धिभिः । परीक्ष्य साँस्तान् तद्धर्माननेकान् व्यावहारिकान ॥ ७३ ॥ नयानुगत निक्षेप ६ पार्य भँव वेदने । विरचय्यार्थवाक्प्रत्ययात्मवान् श्रुतार्थताम् ॥७४॥ अनुयुज्यानुयोगच निर्देशाविभियां गतैः । पाणि जीवावन्यात्मा विबुद्धाभिनिवेशनः ॥ ७५ ॥ जीवस्थानगुणस्थानमार्गणास्थानतरववित् । तपोनिर्जीणकर्मायं विमुक्तः सुखमुच्छति ॥७६॥ अर्थात् - अनेकान्तरूप जीवादि पदार्थोको श्रुत-शास्त्रोंसे सुनकर प्रमाण और अनेक नयोंके द्वारा उनका यथार्थ परिज्ञान करना चाहिए। उन पदार्थोके अनेक व्यावहारिक और पारमार्थिक गुण-वर्मोकी परीक्षा नय दृष्टियों से की जाती है। नयदृष्टियों विषयभूत निक्षेपोंके द्वारा वस्तुका अर्थ ज्ञान और शब्द आदि रूपये विश्लेषण कर उसे फैलाकर उनसे अप्रकृतको छोड़ प्रकृतको ग्रहण कर लेना चाहिए। उस छंटे हुए प्रकृत अंशका निर्देश आदि अनुयोगांसे अच्छी तरह वारवार पूछकर सविवरण पूर्णज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए । इस तरह जीवादिपदार्थोका खासकर आत्मतत्त्वका जीवस्थान गुणस्थान और मार्गणा स्थानोंमें दृढतर ज्ञान करके उनपर गाढ़ विश्वास रूप सम्यग्दर्शनकी वृद्धि करनी चाहिए। इस तत्वश्रद्धा और तत्त्वज्ञानके होनेपर परपदार्थोंसे विरक्ति इच्छा निरोधरूप तप और चारित्र आदिसे समस्त कुसंस्कारोंका विनाकर पूर्व कर्मोकी निर्जरा कर यह आत्मा विमुक्त होकर अनन्त चैतन्यमय स्वस्वरूपमं प्रतिष्ठित हो जाता है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ८४ तरबात्ति-प्रस्तावना अन्धका बाघ स्वरूप-- तस्वार्थाधिगमसूत्र जैनपरम्परा की गीता बाइबिल कुरान या जो कहिए एक पवित्र ग्रन्ध है। इसमें बन्धनमुक्तिक कारणोंका सांगोपांग विवेचन है। जैनधर्म और जनदर्शनके समस्त मूल आधारोंकी संक्षिप्त सूचना इस सूत्र ग्रन्थसे मिल जाती है। भ- महावीरके उपदेश अर्धमागधो भाषामें होते थे जो उस समय मगध और बिहारकी जनबोली थी। शास्त्रोंमें बताया है कि यह अर्धमागधी भाषा अठारह महाभाषा और सातसौ लघुभाषाओं के शब्दोंसे समृद्ध थी। एक कहावत है-"कोस कोस पर पानी बदल चारकोस पर पर बानी।" सो यदि मगध देश काशीदेश और विहार देवामें चार चार कोसपर बदलनेवाली बोलियोंकी वास्तविक गणना की जाम तो वे७१८ से कहीं अधिक हो सकती होंगीं। अठारह महाभाषाएँ मुख्य मुख्य अठारह जनपदोंकी राजभाषाएँ कहीं जाती थी। इनमें नाममात्रका ही अन्तर था। क्षुल्लकभाषाओंका अन्तर तो उच्चारणकी टोनका ही समझना चाहिए। जो हो, पर महावीरका उपदेश उसमयकी लोकभाषामें होता था जिसमें संस्कृत जंसी वर्गभाषाका कोई स्थान नहीं था। बद्धकी पालीभाषा और महावीरकी अर्धमागधी भाषा करीब करीब एक जैसी भाषाएँ हैं। इनमें वही चारकोसकी बानी काला भेद है। अर्धमागधीको सर्वार्धमागधी भाषा भी कहते हैं और इसका विवेचन करते हुए लिखा है अर्ष भगवद्भाषाया मगषवेशभाषात्मकम् अधं च सर्वदेवाभाषारमकम्" अर्थात्-भगवान्की भाषामें आधे शब्द तो मगध देशकी भाषा मागधी के थे और आधे शब्द सभी देशोंकी भाषाओं तात्पर्य यह कि अर्धमागधी भाषा वह लोकभाषा थी जिसे प्रायः सभी देवाके लोग समझ सकते थे। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि महावीरकी जन्मभूमि मगध देश थी, अत: मागधी उनकी मातृभाषा थी और उन्हें अपना विश्वशान्तिका अहिमा सन्देश सब देशोंकी कोटि कोटि उपक्षित और पतित जनता तक भेजना था अतः उनकी झोली में सभी देशोकी बोलीके शब्द शामिल थे और यह भाषा उस समयको साधिक जनताकी अपनी बोली थी अर्थात सबकी बोली थी। जनबोलीमें उपदेश देने का कारण बतानेवाला एक प्राचीन श्लोक मिलता है "बालस्त्रीसन्दमूर्खाणां वृणां चारित्र्यकांक्षिणाम् । प्रतिबोधनाय तस्वनः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः॥" अर्थात्-बालक स्त्री या मूर्खसे मूर्ख लोगोंको, जो अपने चारित्र्यको समुन्नत करना चाहते हैं. प्रतिबोध देन के लिए भगवान्का उपदेश प्राकृत अर्थात् स्वाभाविक जनबोलीमें होता था न कि संस्कृत अर्थात् बनी हुँदै बोलीकृत्रिम वर्गभाषामें। इन जनबोलीके उपदेशोंका संकलन 'आगम' कहा जाता है। इसका बड़ा बिस्तार था। उस समय लेखनका प्रचार नहीं हुआ था। सब उपदेवा कण्ठपरम्परा से सुरक्षित रहते थे। एक दूसरेसे सुनकर इनकी धारा चलती थी अतः ये 'श्रुत' कहे जाते थे। महावीरके निर्वाणके बाद यह श्रुत परम्परा लुप्त होने लगी और ६८३. वर्ष बाद एक अंगका पूर्ण ज्ञान भी शेष न रहा। अंगके एक देशका ज्ञान रहा । श्वेताम्बर परम्परामें बौद्ध संगीतियोंकी तरह वाचनाएँ हई और अन्तिम वाचना देवधिगणि क्षमाश्रमणके तत्त्वावधानम वीर संवत् १८० वि० सं० ५१० में दलभीमें हुई। इसमें आगमोंका त्रुदिन अत्रुटित जो रूप उपलब्ध था संकलित हुआ। दिगम्बर परम्परामें ऐसा कोई प्रयत्न हुआ या नहीं इसकी कुछ भी जानकारी नहीं है। दिगम्बर परम्परामें विक्रमकी द्वितीय तृतीय शताब्दीमें आचार्य भूतबलि पुपदन्त और गुणधरने षट्वंडागम और कसायपाहुउकी रचना आगमाश्रित साहित्यके आधारसे की। पीछ कुन्दकुन्द आदि आचार्योने आगम परम्पराको केन्द्र में रखकर तदनुसार स्वतन्त्र ग्रन्थ रचना की। अनुमान है कि विक्रमकी तीसरी चौथी शताब्दीमें उमास्वामी भट्टारकन इस तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की थी। इसीसे जन परम्परा संस्कृतग्रन्थनिर्माणया प्रारम्भ होता है। इन तस्वार्थसत्रकी रचना इतने Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ का स्वरूप मूलभूत तत्त्वोंको संग्रह करनेकी असाम्प्रदायिक दृष्टिसे हुई है कि इसे दोनों जन सम्प्रदाय थोड़े बहुत पाठभेदसे प्रमाण मानते आए हैं। श्वे० परम्परामें जो पाठ प्रचलित है उसमें और दिगम्बर पाठमें कोई विशिष्ट माप्रदायिक मतभेद नहीं है। दोनों परम्पराओंके आचार्योंने इसपर दशों टीका ग्रन्थ लिखे हैं। इस मार्गदर्शक त्योचोच्च प्राथमिसागरस्थानमहाराज आधार बनाया जा सकता है। इसे मोक्षशास्त्र भी कहते हैं क्योंकि इसमें मोक्षके मार्ग और तदुपयोगी जीवादि तत्त्वोंका ही सवि स्तार निरूपण है। इसमें दश अध्याय हैं। प्रथमके चार अध्यायोंमें जीवका, पांचवेंमें अजीब का, छठवें और सातवें अध्याय में आबका, आठवें अध्यापमें बन्धका, नौवें में संवरका तथा ददावें अध्यायमें मोक्षका वर्णन है। प्रथम अध्यायमें मोक्षकामार्ग सम्यग्दान सम्यग्जान और सम्म चारित्रको बताकर जीवादि सात तत्त्वोंके अधिगमके उपाय प्रमाण नय निक्षेप और निर्देशादि सदादि अनुमोगोंका वर्णन है। पांच ज्ञान उनका विषय आदिका निरूपण करके उनमें प्रत्यक्ष परोक्ष विभाग उनका सम्यकच मिथ्यात्व और नोंका विवेचन किया गया है। द्वितीय अध्यायमें जीवके औपशमिक आदि भाव, जीवका लक्षण, शरीर, इन्द्रियाँ योनि 'जन्म आदिका सविस्तार निरूपण है। तृतीय अध्यायमें जीवके निवासमत-अधोलोक और मध्यलोक गत भगोलका उसके निवासियोंकी आयु कायस्थिति आदिका पूरा पूरा वर्णन है। चौथे अध्यायमें ऊवलोकका देवोंक भेद लेश्याएँ आयु काय परिवार आदिका वर्णन है। पांववें अध्यायमं अजीबतत्त्व अर्थात पदगल धम अधर्म आकापा और काल द्रष्योंका समय वर्णन है। क्योंकी प्रदेश संख्या, उनके सरकार, शम्दादिका पुदगल पर्यायत्व, स्कन्ध बननकी प्रक्रिया आदि पुद्गल ट्रंब्यका सवागीण विवेचन है। छठवें अध्यायमें ज्ञानावरमादि कमौके आस्रवका सविस्तार निरूपण है। किन किन बुत्तियों और प्रवृत्तियोंसे किस किस कर्मका आस्त्रव होता है, कैसे मालवमें विशेषता होती है, कौन कर्म पुण्य है. और कौन पाप आदिका विशद विवेचन है। सातवें अध्यायमें शुभं आस्त्रवके कारण, पुण्यरूप अहिंसादि बलोंका वर्णन है। इसमें ब्रतोंकी भावनाएँ उनके लक्षण अतिचार आदिका स्वरूप बताया गया है। आठवें अध्यायमें प्रकृतिबन्ध आदि चारों बन्धोंका, कर्मप्रकृतियोंका उनकी स्थिति आदिका निरूपण हैं। नौवें अध्यायमें संबर तस्वका पूरा पूरा निरूपण है। इसमें गप्ति समिति धर्म अनप्रेक्षा परिषहजय चारिष तप ध्यान आदिका सभेदप्रभेद निरूपण है। दश अध्यायम मोक्षका वर्णन है। सिद्धोंमें भेद किन निमित्तोंसे हो सकता है। जीव ऊर्यगमन क्यों करता है? सिद्ध अवस्थामें कोन कोन भाष- अवशिष्ट रह जाते हैं आदिका निरूपण है। यह अकेला तत्वार्थ सूत्र जैन शान, जैन भूगोल, खगोल, जैनतस्व, कर्मसिद्धान्त, जन चारिष आदि समस्त मुख्य मुख्य विषयोंका अपूर्व आकर है। मंगल इलोक- मोक्षमार्गस्य मेतारम् श्लोक तत्त्वार्थसूत्रका मंगल एलोक है या नहीं यह विषय विवादम पहा हुआ है। यह श्लोक उमास्वामि कतक है इसका स्पष्ट उल्लेख श्रुतसागरसूरिने प्रस्तुत तत्त्वार्थवत्तिम किया है। वे इसकी उत्थानिकामें लिखते हैं कि-याक नामक मध्यके प्रश्नका उत्तर देनेके लिए उमास्वामि भट्टारकने यह मंगल श्लोक बनाया। द्वैयाकका प्रश्न है-'भगवन्, आत्माका हित क्या है?' उमास्वामी उसका उत्तर 'सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्ग: सूत्र में देते हैं। पर उन्हें उत्तर देनेके पहिले मंगलाचरण करनेकी आवश्यकता प्रतीत होने लगती है। श्रुतसागरके पहिले विद्यानन्दि आचार्यले जाप्न परीक्षा (पृ०३) में भी इस श्लोकको सूत्रकारके नामसे उक्त किया है। पर यही विद्यानन्द 'तत्त्वार्थसूत्रका र उमास्वामिप्रभृतिभिः' जैसे वाक्य भी आप्त परीक्षा (पु. ५४)में लिखते हैं जो उमास्यामिके साथ ही साथ प्रभृति पादसे सूचित होनेवाले आचार्योको भी तत्त्वार्थसूत्रकार माननेका या सूत्र शब्दकी गौणार्थताका प्रसंग उपस्थित करते है। यद्यपि अभयनन्दि श्रुतसागर जैसे पश्चातीं व्रन्पकारोंने इस श्लोकको सत्दार्थसूत्रका मंगल लिख दिया है पर इनके इस लेखमें निम्नलिखित अनुपपत्तियां है जो इस श्लोकको पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धिका मंगलश्लोक माननेको शध्य करती है (१) पूज्यपादने इस मंगलश्लोककी न तो उत्थानिका लिखी और न व्याख्या की। इस मंगलश्लोक Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवत्ति-प्रस्तावना के बाद ही प्रथमसूत्रको उत्थानिका शुरू होती है। (२) अकलंकदेव तत्त्वार्थवार्तिकमें न इस श्लोककी व्याख्या करते है और न इसके पदोंपर कुछ ऊहापोह ही करते हैं। मार्गदर्शक.:- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज (३) विद्यानन्द स्वयं तत्त्वावलोकवातिकम इसकी व्याख्या नहीं करते। हनने प्रसंगतः इस श्लोक के प्रतिपाद्य अर्थका समर्थन अवश्य किया है। यदि विद्यानन्द स्वयं ऐतिहासिक दृष्टिसे इसके कर्तृत्व सम्बन्धमें असंदिग्ध होते तो वे इसकी यथावद् व्याख्या भी करते। (४) तत्वार्यसूत्रके ब्याख्याकार समस्त श्वेताम्बरीय आचार्योंने इस श्लोककी व्याख्या नहीं की और न तत्वार्थसूत्रके प्रारम्भमें इस श्लोककी चर्चा ही की है। यह रलोक इतना असम्प्रादायिक और जैन आप्त स्वरूपका प्रतिनिधित्व करनेवाला है कि इसे सूत्रकारकृत होनेपर कोई भी कितना भी कट्टर इवे. आचार्य छोड़ नहीं सकता था। अनेकान्त पत्रके पांचवें वर्ष के अंकोंमें इस बलोकके ऊपर अनुकूल-प्रतिकूलपरचा चल चुकी है। फिर भी मेरा मत उपर्युक्त कारणोंके आधारसे इस क्लोकको मूलसूत्रकारकृत माननेका नहीं है। यह श्लोक पूज्यपाद ने सर्वार्थ सिद्धि टीकाके प्रारम्भमें बनाया है इस निश्चयको बदलने का कोई प्रबल हेतु अभीतक मेरी समझ में नहीं आया। लोकवर्णन और भूगोल-जैनधर्म और जैन दर्शन जिसप्रकार अपने सिद्धान्तोंके स्वतन्त्र प्रतिपादक होनेसे अपना मौलिक और स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं उस प्रकार जैन गणित या जैन भूगोल आदिका स्वतन्त्र स्थान नहीं है। कोई भी गणित हो, वह दो और दो बार ही कहेगा। आजके भूगोलको चाहे जंन लिखे या अजैन जैसा देखेगा या सुनेगा वैसा ही लिखेगा। उत्तग्में हिमालय और दक्षिणमें कन्याकुमारी ही जैन भूगोलमें रहेगी । तथ्य यह है कि धर्म और दर्शन जहां अनुभव के आधारपर परिवर्तित और संशोधित होते रहते है वहीं भगोल अनभवके अनसार नहीं किन्तु वस्तुगत परिवर्तनके अनसार बदलता है। एक नदी जो पहिले अमक गांवसे बहती थी कालक्रमसे उसकी धारा मीलों दूर चली जाती है । भूकम्प, ज्वालामुखी और बाड़ आदि प्राकृतिक परिवर्तनकारणोंसे भूगोलमें इतने बड़े परिवर्तन हो जाते हैं जिसकी कल्पना भी मनुष्यको नहीं हो सकती। हिमालयचे अमुक भागोंमें मगर और छड़ी बड़ी मछलियोंके अस्थिपंजरोंका मिलना इस बातका अनुमापक है कि वहां कभी जलीय भाग था। पुरातत्त्वके अन्वेषणोंने ध्वंसावशेषोंसे यह सिद्ध कर दिया है कि भगोल कभी स्थिर नहीं रहता वह कालक्रमसे बदलता जाता है। राज्य परिवर्तन भी अन्तःभौगिलिक सीमाओंको बदलने में कारण होते हैं। पर समग्र भूगोलका परिवर्तन मुख्यतया बलका स्थल और स्थलका जलभाग होनेके कारण ही होता है। गाँवों और नदियोंके नाम भी उत्तरोत्तर अपभ्रष्ट होते जाते हैं और कुछके कछ बन जाते हैं। इस तरह कालचक्रका धबभावी प्रभाव भूगोलका परिवर्तन बराबर करता रहता है। जैन शास्त्रोंम जो भूगोल और खगोलका वर्णन मिलता है उसकी परम्परा करीब तीन हजार वर्ष पुरानी है। आजके भूगोलसे उसका मेल भले ही न बैठे पर इतने मात्रसे उस परम्पराको स्थिति सर्वथा सन्दिग्ध नहीं कही जा सकती। आजसे ||-३हजारवर्ष पहिले सभी सम्प्रदायोंमें भूगोल और खगोलके विषयमें प्रायः यही परम्परा प्रचलित थी जोजन परम्परामें निबद्ध है। बौद्ध वैदिक और जैन तीनों परम्पराके भूगोल और खगोल सम्बन्धी वर्णन करीम करीब एक जैसे हैं। वही जम्बूद्वीप, विदेह, सुमेरु, देवकुरु,उत्तरकुरु, हिमवान्, आदि नाम और वैसीही लाखों योजनकी गिनती। इनका तुलनात्मक अध्ययन हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि उस समय मू-- . गोल और खगोलकी जो परम्परा श्रुतानुश्रुत परिपाटीसे जैनाचार्योको मिली उसे उन्होंने लिपियन कर दिया है। उस समय भूगोलका यही रूप रहा होगा जैसा कि हमें प्रायः भारतीय परम्पराओंमें मिलता है। आज हमें जिस रूपमें मिलता है उसे उसी रूपमें मानने में क्या आपत्ति है? रहता नहीं । जैन परम्परा इस ग्रन्थके तीसरे और चौथे अध्यायके पानेसे ज्ञात हो सकती है। बोद और वैदिक परम्पराक भूगोन और खगोलका वर्णन इस प्रकार है-.. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवर्णन और भूगोल बौद्ध परम्परा अभिधर्मकोशके आधारसे असंख्यात वायुमण्डल हैं जो कि नीचेक भागमें सोलह लाख योजन गम्भीर है । जलमण्डल ११२०००० योजन गहरा है। जलमण्डलम ऊपर ८००००० योजन भागको छोड़कर नीचेका भाग ३२००२० योजन भाग सुवर्णमय है । जलमण्डल और काञ्चनमण्डलका व्यारा १२०२३४० योजन है और परिधि ३६४०३५० योजन है।। काञ्चनमण्डल में मेरु, युगन्धर, ईषाधर, खदिर, सुदर्शन, अश्वकर्ण, वितनक और निमिन्धर ये ८ पर्वत है। ये पर्वत एक दूसरेको घेरे हुए है। निमिन्धर पर्वतको घेरकर जम्बूद्वीप, पूर्वविदह, अवर. मायामा कर उत्तमहार्य वीर विहिासागसबम बाहाराकबाल पर्वत है। सात पर्वत सुवर्णमय है। चक्रवाल लोहमय है। मेरुके ४ रंग हैं। उत्तरमें सुवर्ण मय, पूर्वमें रजतमय, दक्षिणम नीलमणिमय और पश्चिममें वैदूर्यमय है। मेरु पर्वत ८०००० योजन जलके नीचे है और इतना ही जलके ऊपर है । मेरु पर्वतकी ऊंचाईस अन्य पर्वतोंकी ऊंचाई कमशः आधी आधी होती गई है। इस प्रकार चक्रवाल पर्वतकी ऊंचाई ३१२ ।। रोजन है। सब पर्वतोंका आधा भाग जलके ऊपर है। इन पर्वतोंके बीचमें सात गीता (समुद्र) हैं। प्रथम समुद्रका विस्तार ८०००० योजन है। अन्य समद्रोंका विस्तार क्रमशः आधा-आधा होता गया है। अन्तिम समुद्रका विस्तार ३२००० योजन है। मेरुके दक्षिण भागमें जम्बूद्वीप शकटके समान अवस्थित है । मेरुके पूर्व भागमं पूर्व विदेह अर्धचन्द्राकार । मेरके पश्चिम भागमें अवरगोदानीय मण्डलाकार है। इसकी परिधि ७५०० योजन है। और ब्याम २५०० योजन है । मेरुके उत्तरभागमें उत्तर कुरुद्वीप चतुष्कोण है। इसकी सीमाका मान ८००० योजन है। चारों द्वीपोंके मध्यमें आठ अन्तर द्वीप हैं। उनके नाम में हैं-देह, विदेह, पूर्वविदेह, कुरु कौरव, चामर, अवर चामर, शाठ और उत्तरमंत्री। मार दीपम राक्षस रहते है। अन्य दीपोमें मनुष्य रहते है। जम्बूद्वीपके उत्तर भागमें पहले तीन फिर तीन और फिर तीन इस प्रकार ९ कोटादि हैं। इसके बाद हिमालय है। हिमालयके उनमें पचास योजन विस्तृत अनवतप्त नामका सरोवर है। इसके बाद गन्धमादन पर्वत है । अनवतप्त सरोवरमें गंगा, सिंधु, वक्षु और सीता ये चार नदियाँ निकली हैं। अनवनप्लके समीपमें जम्बू वृक्ष है जिससे इस द्वीपका नाम जम्बूद्वीप पड़ा। जम्बू द्वीपके नीचे बीस योजन परिमाण अवीचि नरक है । इसके बाद प्रतापन, तपन, महारौरव रौरव, संघात, कालसूत्र और संजीवक-ये सात नरक है। इस प्रकार कुल आठ नग्क है। नरकोंमें चारों पाश्वोंमें असिपत्रवन, श्यामशबलश्वस्थान, अय:शाल्मलीवन और वैतरणी नदी ये चार उत्सद (अधिक पीड़ाके स्थान) है। जम्बू द्वीपके अधोभागमं तथा महानरकोंके धरातलमें आठ शीतलनरक भी हैं। उनके नाम निम्न प्रकार है- अर्बद, निरर्बुद, अट, हप, उत्पलपा और महापन। ___ मेरु पर्वतके अधोभागमें (अर्थात् युगन्धर पर्वतके समनलमें) चन्द्रमा और सूर्य भ्रमण करते हैं। चन्द्रमण्डलका विस्तार ५० योजन है तथा सूर्यमण्डलका विस्तार ५१ योजन है। चारों द्वीपोमें एक साथ ही अर्धरात्रि, सूर्यास्त, मध्यान्ह और सूर्योदय होते है, अर्थात् जिस समय जम्बूद्वीपमें मध्याह्न होता है उसी समय उत्तरकुरुमें अर्धरात्रि, पूर्वविदेहमें सूर्यास्त और अवरगोदानीयम सूर्योदय होता है । चन्द्रमाकी विकलांगताका दर्शन सूर्यके समीप होने से तथा अपनी छामासे आवृत होने के कारण होता है। मेरुके चार विभाग है। ये चारों विभाग क्रमशः दस हजार योजन के अन्तरालसे ऊपर है। पूर्वमें पहिले बिभागमें करोटपाणि पक्ष रहते हैं। इनका राजा धृतराष्ट्र है। दक्षिणमें द्वितीयशगमें मालाघर यक्ष रहते हैं। इनका राजा विरुद्धक है । पश्चिममें तीसरे भागमें सदामद देव रहते है। इनका राजा विरूपाक्ष है। उत्तरमें चौथे भागमें चातुर्महाराजिक देव रहते हैं। इनका राजा बैरवण Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ तत्त्वार्यकत्ति-प्रस्तावना है। मरके समान अन्य मात पर्वतोंमें भी देव रहते है । त्रयस्त्रिश स्वगलोक का विस्तार ८०००० योजन है । वहां चारों दिशाओंके बीच में वज्रपाणिदेव रहते हैं । यायस्त्रिशलोकके मध्यभागमें मुदर्शन नामका सुवर्णमय नगर है। इस नगरके मध्यम वैज यन्त नामका इन्द्र का प्रासाद है। यह नगर बाह्य भाग चार उद्योनोंसे सुशोभित है। इन उद्यानोंकी चारों मार्गदर्शदशाओम शाजनक अरिलिसादेयाक कीडाला। पूर्वोत्तर दिग्भागमें पारिजात देवम है। दक्षिण पश्चिम भागमें मुधर्मा नामकी देव सभा है। प्रायस्त्रिश लोकसे ऊपर याम, सुषित, निर्माणरति, और परनिर्मितवशवी देव विमानोंम रहते हैं। महाराजिक और त्रास्त्रिशदेव मनुष्योके समान कामसेवन करते हैं। याम आलिंगनरो, तुषित पाणिसंयोगसे, निर्माणरति हास्यमे और परनिर्मितवशवर्ती देव अवलोकनरो कामसूखका अनुभव करते हैं। कामधात्में देय पांच या दस वर्षके बालक जसे उत्पन्न होते हैं। रूपधातुमें पूर्ण दारीरधारी और वस्व सहित उत्पन्न होते हैं। ऋद्धिबल अथवा अन्य देवोंकी सहायताके बिना देव अपने ऊपर देवलोकको नहीं देख सकते। जम्बूद्वीपवामी मनुष्योंका परिमाण (शरीरकी ऊँचाई) ३॥ या ४ हाथ है। पूर्वविदेहवासी मनुष्यों का परिणाम ७ या ८ हाथ है। गोदानीयवासियों का परिमाण १४ या १६ हाच है । और उत्तर करुवामी मनुष्योफा परिमाण २८ या ३२ हाथ है। चातुर्महाराजिक देवोंका परिमाण पावकोश त्रायरिंशदेवोंका आधाकोश, पामोंका पौनकोश, तुषितोंका एक कोश, निर्माणरतियोंका सवाकोश और परिनिर्मितवशवर्ती देवोंका परिमाण डेड कोश है। उत्तरकुरुमें मनुष्योंकी आयु एक हजार वर्ष है। पूर्व विदेहमें ५०० वर्ष आयु है । गोदानीयमें २५० वर्ष आयु है। लेकिन जम्बू-दीपमें मनुष्योंकी आयु निश्चित नहीं है। कल्पके अन्तमें दस वर्ष की आयु रह जाती है। उत्तरकुरुमं आयुके बीच में मृत्यु नहीं होती है । अन्य पूर्वविदेह आदि द्वीपों में नथा देवलोक में बीच में मृत्यु होती है। वैविक परम्परा योगदर्शन-व्यासभाष्यके आधारमे-- भुवन विन्यास-लोक सात होते हैं। प्रथम लोकका नाम भूलोक है। अन्तिम अवीचि नरकसे' लेकर मेरुपृष्ठ तक भूलोक है। द्वितीय लोक का नाम अन्तरिक्ष लोक है। मेरुपृष्ठसे लेकर धव तक अन्तरिक्ष लोक है। अन्तरिमलोकम ग्रह, नक्षत्र और तारा है। इसके ऊपर स्वर्लोक है। स्वलोकके भेद है-माहेन्द्रलोक, प्राजापत्यमहर्लोक, और ब्रह्मलोक आदि । ब्रह्मलोकके तीन भेद है-जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक | इस प्रकार स्वर्लोकके पांच भेद होते हैं। अवीचिनरकसे ऊपर छह महानरक हैं । उनके नाम निम्न प्रकार है-महाकाल, अम्बरीष, रौरव, महारोरत्र, कालमूत्र और अन्धतामित्र। ये नरकः क्रमशः धन (शिलाशकल आदि पार्थिव पदार्थ), सलिल, अनल, अनिल, आकाश और तमके आधार (आश्रय) है। महानरकोंके अतिरिक्त कुम्भीपाक आदि अनन्त उपनरक भी हैं। इन नरकोंमें अपने अपने कर्मोंके अनुसार दीर्घायुनोले प्राणी उत्पन्न होकर दुःख भोगते है। अवीचिनरकसे नीचे सात पाताललोक है जिनके नाम निम्न प्रकार है-महातल, रसातल, अतल, सुतल, वितल, तलातल और पाताल । भूलोकका विस्तार-इस पृथ्वीपर सात द्वीप है। भूलोकके मध्यमें सुमेरु नामक स्वर्णमय पर्वतराज है जिसके शिखर रजत, बेदुर्य, स्फटिक, हेम और मणिमय है । सुमेरु पर्वतके दक्षिणपूर्वमें जम्बू नामका वृक्ष है जिसके कारण लवणोदधिसे वेष्टित द्वीपका नाम जम्बूद्वीप है। मूर्य निरन्तर मेरुकी प्रदक्षिणा करता रहता है। मेरुमे उत्तरदिशामें नील श्वेत और श्रृंगवान् ये तीन पर्वत है। प्रत्येक पर्वतका विस्तार दो हजार योजन है । इन पर्वतोंके बीचमें रमणक, हिरण्यमय और उत्तरकुरु ये तीन क्षेत्र है। प्रत्येक क्षेत्रका विस्तार नौ योजन है। नीलगिरि मेरुसे लगा हुआ है। नीलगिरिके उत्तरमें रमणक क्षेष है। श्वेत Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवर्णन और भूगोल पर्वतके उत्तरमें हिरण्यमय क्षेत्र है। शृंगवान् पर्वतके उत्तरमें उत्तरकुरु है। मेहसे दक्षिणदिशामें भी निषध, हेमकुट और हिम नामक दो दो हजार योजन विस्तारवाले तीन पर्वत हैं। इन पर्वतोंके बीच में हरिवर्ष, किम्पुरुष और भारत ये तीन क्षेत्र हैं। प्रत्येक क्षेत्रका विस्तार नौ हजार योजन है। मेरुसे पूर्व में भाल्यवान् पर्वत है। माल्यवान् पर्वतसे समृद्रपर्यन्त भद्राश्व नामक देश है- इस देश में भद्राश्वनामक क्षेत्र है । मेरुसे पश्चिममें गन्धमादन पर्वत है । गन्धमादन पर्वतसे समुद्रपर्यन्त केतुमाल नामक देश है-क्षेत्रका नाम भी केतुमाल है । मेरुके अधोभागमें इलावृत नामक क्षेत्र है। इसका विस्तार पचास मार्गदर्शक : आचोचन सावकार जम्बुद्धीपमें नो क्षेत्र हैं। एक लाख योजन विस्तारवाला यह जम्बूद्वीप दो लाख योजन विस्तारवाले लवण समुद्रसे घिरा हुआ है। जम्बूद्वीपके विस्तारसे क्रमशः दूने दून विस्तार वाले छह द्वीप और है-शाक, कुश, क्रीश्च, शाल्मल, मगध और पुष्करद्वीप । सातों द्वीपोंको घेरे हुए सात समुद्र हैं। जिनके पानीका स्वाद कमशः इक्षुरस, सुरा, घृत, दधि,मांड, दूध और मीठा जैसा है। सातों द्वीप तथा सातों समुद्रोंका परिमाण पचास करोड़ योजन है । पातालों में, समुद्रोंमें और पर्वतोपर असुर, गन्धर्व, किन्नर किम्पुष, यक्ष, राक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच आदि देव रहते हैं। सम्पूर्ण द्वीपोंमें पुण्यात्मा देव और मनुष्य रहते हैं । मेरु पर्वत देवोंकी उद्यानभूमि है। यहां मिश्रवन, नन्दन, चारथ, सुमानस इत्यादि उद्यान है। मुधर्मा नामकी देवसभा है । सुदर्शन नगर है तथा इस नगरमें वैजयन्त प्रासाद है। ग्रह, नक्षत्र और तारा धब (ज्योतिविशेष) मेरुके ऊपर स्थित है। इनका भ्रमण बायुके विक्षेपसे होता है । स्वलोकका वर्णन--माहेन्द्रलोकमें छह देवनिकाय है-त्रिदश, अग्निष्यात्तायाम्य, तुषित, अपरिनिमितबशति और परिनिर्मितवशति । ये देव संकल्पसिद्ध (संकल्पमात्रसे सबकुछ करनेवाले) अणिमा आदि ऋद्धि तथा ऐश्वयंसे संपन्न, एक कल्प की आयु वाले, औपपादिक (माता पिताके संयोगके बिना लक्षणमात्रमें जिनका शरीर उत्पन्न हो जाता है) तथा उत्तमोत्तम अप्सराओंसे रक्त होते हैं। महलोंकमें पांच देवनिकाय है-कुमद, ऋभव, प्रतर्दन, अजनाभ और प्रचिताभ। ये देव महाभतोंको वशमें रखने में स्वतंत्र होते हैं तथा ध्यानमात्रसे तृप्त हो अते हैं। इनकी आयु ए हगार कल्पकी है। प्रथम ब्रह्मलोक (जनलोकमें) चार देवनिकाय है-ब्रह्मपुरोहित, ह्यकायिक, प्रब्रह्ममहाकायिक और अमर। ये देव भूत और इन्द्रियोंको वशमें रखने वाले होते है । ब्रह्मपुरस्थित देवोंकी आयु दो हजार कल्पकी है। अन्य देवनिकायोंमें आयु कमश: दूनी दूनी है। द्वितीय ब्रह्मलोकमें (तपोलोकमें) तीन देवनिकाय हआभास्वर, महाभारतर और सत्यमहाभास्वर । ये देव भूत और इन्द्रिय और अन्तःकरणको वशमें रखनेवाले होते हैं। इनकी आयु पहले निकायकी अपेक्षा क्रमश: दूनी है । ये देव ऊध्वरेतस् होते है तथा घ्यानमात्र मे नृप्त हो जाते हैं । इनका ज्ञान ऊर्ध्वलोक सथा अधोलोकमें अप्रतिहत होता है। तृतीय ब्रह्मलोक (सत्यलोक) में चार देवनिकाय है-अच्युत, शुद्धनिवास, सत्याभ और मंज्ञा संशि। इन देवोंके पर नहीं होते। इनका निबास अपनी आत्मामें ही होता है। क्रमशः ये ऊपर स्थित है। प्रधान (प्रकृति) को वशमें रखने बाले तथा एक मर्गकी आयुवाले हैं। अच्युतदेव सवितर्क ध्यान से सुखी रहते हैं। शुद्धनिवासदेव सविचार ध्यानमे सुखी रहते हैं। सत्यामदेव आनन्दमात्र ध्यानमे सुखी रहते हैं। संजामंशि देव अस्मितामात्र ध्यानसे सुखी रहते हैं। ये सात लोक तथा अवान्तर सात लोक सब ब्रह्मलोक ( ब्रह्माण्ड )के अन्तर्गत है। वैदिक परम्परा श्रीमद्भागवतके आधारते भलोकका वर्षम--यह भूलोक सात द्वीपोंमें विभाजित है। जिनमें प्रथम जम्बूद्वीप है। इसका विम्नार एक लाख योजन है तथा यह कमलपत्रके समान गोलाकार है। इस द्वीपमें आठ पर्वोंमे विभक्त नौ क्षेत्र है। प्रत्येक क्षेत्रका विस्तार नौ हजार योजन है। मध्यमें इलावत नामका क्षेत्र है। इस क्षेत्रके मध्य में सुवर्णमय मेरु पर्वत है। मेरुकी ऊंचाई नियुक्तयोजन Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्यवृत्ति-प्रस्तावना प्रमाण है । मूलमें मेरु पर्वत सोलह हजार योजन पृथ्वी के अन्दर है तथा शिखर पर बत्तीस हजार योजन फैला हुआ है। मेरुके उत्तरमें नील, श्वेत तथा श्रृंगवान ये तीन मर्यादागिरि हैं जिनके कारण रम्यक, हिरप्पमय और कुरुक्षेत्रोंका विभाग होता है। इसी प्रकार मेस्से दक्षिणमें निषष, हेमकूट, हिमालय ये तीन पर्वत हैं जिनके द्वारा हरिवर्ष, किम्पुरुष और भारत इन तीन क्षेत्रोंका विभाग होता है । इलावृत्त क्षेत्रसे पश्चिममें माल्यवान् पर्वत है जो केतुमाल देशकी सीमा का कारण है। इलावतसे पूर्वमें गन्धमादन पर्वत है अससे भद्राश्व देवाका विभाग होता है। मेरुके चारों दिशाओंमें मन्दर, मेरुमन्दर, सुपाल और कुमद में चार अवष्टम्भ पर्वत हैं। पारों पर्वतोपर आम्र, जम्बू, कदम्ब और न्यग्रोष ये चार विशालवृक्ष हैं। चारों पर्वतोंपर चार तालाब है जिनका जल दूध, मधु, इक्षुरस तथा मिठाई जसे स्वादका है। नन्दन, चैत्ररथ वैभ्राजक और सर्वतोभद्र ये चार देवोद्यान हैं। इन उधोनोंमें देव देवांगनाओं सहित विहार करते हैं। मन्दर पर्वतके ऊपर ११ सौ योजन ऊंचे आध वृक्षसे पर्वतके शिखर जसे स्थूल और अमृतके समान रसबाले फल गिरते हैं। मन्दर पर्वतमे अरुणोदा नदी निकलकर पूर्व में इलावृत क्षेत्रमें बहती है। अरुणोदा नदीका जल आग्न बक्षके फलोंके कारण .अक्षण रहता है। इसी प्रकार मेरुमन्दर पर्वतके ऊपर जम्बूद्वीप वृक्षके फल गिरते हैं। मेरुमन्दरपर्वतसे जम्बू नामकी नदी निकलकर दक्षिणमें इलायत क्षेत्रमं बहती है। जम्बूवृक्षके फलोंके रससे युक्त होने के कारण इस नदीका नाम जम्बू नदी है । सुपाश्वं पर्वत पर कदम्ब वृक्ष है। सुपार्श्व पर्वतसे पांच नदियां निकलकर पश्चिममें इलावृत क्षेत्रमें बहती हैं। कुमुद पर्वत पर शातवल्श नामका वट वृक्ष है। कुमुद पर्वतसे पयोनदी, दधिनदी, मधुनदी, घृतनदी, गुडनदी, अननदी, अम्बरनदी, मार्गदम्बासक्नवसाचारादीनिधिसबकाकी पताकरनेवाली नदियां निकलकर उत्तरमें इलायत क्षेत्रम बहती हैं। इन नदियोंके जलके सेवन करनेसे कभी भी जरा, रोग, मृत्यु, उपसर्ग आदि नहीं होते हैं । मेरुके मूलमें कुरंग, कुरर, कुसुम्म आदि बीस पर्वत हैं । मेरुसे पूर्वमें जठर और देवकूट, पश्चिममें पवन और परिपात्र, दक्षिणमें कैलास और करवीर, उत्तरमें विशृंग और मकर इस प्रकार आठ पर्वत हैं । मेरुके शिखर पर भगवान की शातकोम्भी नामकी चतुष्कोण नदी है । इस नगरीके चारों और आठ लोकपालोंके आठ नगर है। वक्षु और भद्रा इस प्रकार चार नदियां चारों दिशाओं में बहती हुई समद्रमें प्रवेश करती हैं। सोता नदी ब्रह्मसदनकेसर ,अचल आदि पर्वतोंके शिखरोंसे नीचे नीचे होकर गन्धमादन पर्वतके शिखरपर गिरकर भद्रापब क्षेत्रमें बहती हई पूर्व में क्षार ममद्रमें मिलती है। इसी प्रकार चक्षु नदी माल्यवान् पर्वतके शिखरसे निकलकर केतुमाल क्षेत्र में बहती हई समद्रम मिलती है। भद्रा नदी मेरुके शिखरले . निकलकर श्रृंगवान् पर्वतके शिखरसे होकर उत्तरकूहमें बहती हुई उत्तरके समुद्र में मिलती है। अलकनन्दा नदी ब्रह्मसदन पर्वतसे निकलकर भारतक्षेत्रमें बहती हई दक्षिणके समुद्र में मिलती है। इसी प्रकार अनेक नद और नदियां प्रत्येक क्षेत्रमें बहती हैं। भारतवर्ष ही. कर्मक्षेत्र है। शेष आठ क्षेत्र स्वर्गवासी पुरुषोंके स्वगंभोगसे बचे हुए पुग्मों के भोगनेके स्थान है । ___ अन्य डोमोंका वर्गम-जिस प्रकार मेरु पवंत जम्बूद्वीपसे घिरा हुआ है उसी प्रकार जम्बूद्वीप भी अपने ही समान परिमाण और विस्तारवाले खारे जलके समुद्रसे परिवेष्टित है। क्षार समुद्रभी अपनेसे दूने प्लक्षद्वीपसे घिरा हुआ है। जम्बूद्वीपमें जितना बड़ा जामुनका पेड़ है उतने ही बिस्तारवाला यहां प्लक्ष (पाकर)का वृक्ष है। इसीके कारण इसका नाम प्लक्षद्वीप हुआ। इस दीपमें शिव, यबस सुभद्र, शान्त, क्षेम, अमृत और अभय ये सात क्षेत्र है। मणिकूट, बचकूट, इन्द्रसेन, ज्योतिष्मान् सुपर्ण, हिरण्यठीव और मेखमाल ये सात पर्वत है। अरुण, नम्ण, आगिरसी, सावित्री, सुप्रभाता, ऋतम्भरा और सत्यम्भरा ये सात नदियां है। प्लक्षद्वीप अपने ही समान विस्तारवाले इसरसके समुद्रसे घिरा हुआ है। उससे आगे उससे दुगुने परिमाणवाला शास्मली द्वीप है जो उतने ही परिमाणवाले मदिराके सागरसे घिरा हुआ है। इस द्वीपमें Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकवर्णन और भूगोल शाल्मली ( सेमर ) का वृक्ष है जिसके कारण इस द्वीपका नाम शाल्मलीद्वीप हुआ। इस द्वीपमें सुरोचन, सौमनस्य, रमणक, देववर्ष, पारिभद्र और अविशाल ये सात क्षेत्र हैं। स्वरस, शतम्टंग, वामदेव, कुन्द, मुकुन्द, पुष्पवर्ष और सहस्रश्रुति ये सात पर्वत है। अनुमति, सिनीवाली, सरस्वती, कुहू, रजनी, नन्दा और राका ये नदियां हैं। ११ मदिरा समुद्र से आगे उसके दूने विस्तारवाला कुशद्वीप है। यह द्वीप अपने ही परिमाणवाले तके समुद्रसे घिरा हुआ है। इसमें एक कुशोका साड़ है इसीसे इस द्वीपका नाम कुशद्वीप है । इस ठीपमें भी सात क्षेत्र हैं। चक्र, जतुः श्वंग, कपिल, चित्रकूट, देवानीक ऊर्ध्वरोमा और द्रविण ये सात पर्वत हैं । रसकुल्या, मधुकुल्या, मित्रवृन्दा देवगर्भा, घृतच्युता और मन्त्रमाला में सात नदियां हैं । धृत समुद्रसे आगे उससे द्विगुण परिमाणवाला कौञ्चद्वीप है। यह द्वीप भी अपने समान विस्तारवाले दूषके समुद्रसे घिरा हुआ है। यहां कौञ्च नामका एक बहुत बड़ा पर्वत है उसीके कारण इसका नाम द्वीप हुआ । इस द्वीपमें भी सात क्षेत्र हैं। शुक्ल, वर्धमान, भोजन, उपबहिण, नन्द, नन्दन और सर्वतोभद्र ये सात पर्वत हैं तथा अभया, अमृतौद्या, आयंका, तीर्थवती, वृतिरूपवती पवित्रवती और शुक्ला ये सात नदियां हैं। इसी प्रकार क्षमता आगे यहाारवाला शाकद्वीप है जो अपने ही समान परिमाणवाले मठेके समुद्रसे घिरा हुआ है। इसमें शाक नामका एक बहुत बड़ा वृक्ष हैं वही इस द्वीपके नामका कारण है। इस द्वीपमें भी सात क्षेत्र, सात पर्वत तथा सात नदियाँ हैं । इसी प्रकार ठेके समुद्रसे आगे उससे दूने विस्तारवाला पुष्कर द्वीप है । वह चारों ओर अपने समान विस्तारबाले मीठे जलके समुद्रसे घिरा हुआ है। वहां एक बहुत बड़ा पुष्कर (कमल) है जो इस द्वीप नामका कारण हैं। इस द्वीपके बीचोंबीच इसके पूर्वीय और पश्चिमीय विभागोंकी मर्यादा निश्चित करनेवाला मानसोत्तर नामका एक पर्वत है। यह दस हजार योजन ऊँचा और इतना ही लम्बा है। इस द्वीपके आगे लोकालोक नामका एक पर्वत है। लोकालोक पर्वत सूर्यसे प्रकाशित और अप्रकाशित भूभागों बीच में स्थित हैं इसीसे इसका यह नाम पड़ा। यह इतना ऊँचा और इतना लम्बा है कि इसके एक ओरसे तीनों लोकोंको प्रकाशित करने वाली सूर्यसे लेकर ध्रुव पर्यंत समस्त ज्योतिमण्डलकी किरणें दूसरी ओर नहीं जा सकतीं । समस्त भूगोल पचास करोड़ योजन है। इसका चौथाई भाग ( १२ || करोड़ योजन) यह लोकालोक पर्वत है | . इस प्रकार मूलोक का परिमाण समझना चाहिए। भूलोकके परिमाणके समान ही धुलोकका भी परिमाण है । इन दोनों लोकोंके बीचमें अन्तरिक्ष लोक है, जिसमें सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और artan निवास है । सूर्यमण्डलका विस्तार दस हजार योजन है और चन्द्रमण्डलका विस्तार बारह हजार योजन है । ans आदितीचे लोकों का वर्णन भूलोक के नीचे अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, और पाताल नामके सात भू-विवर (बिल) हूं। ये क्रमशः नीचे नीचे दस दस हजार योजनकी दूरी पर स्थित हैं। प्रत्येक बिलकी लम्बाई चौड़ाई भी दस दस हजार योजनकी है। ये भूमिके बिल भी एक करके स्वर्ग है । इनमें स्वर्गसे भी अधिक विषयभोग ऐश्वर्य, आनन्द, सन्तानसुख और घन-संपत्ति हूँ । तरकोंका वर्णन - समस्त नरक अट्ठाईस है । जिनके नाम निम्न प्रकार है - तामिल अन्धतामित्र, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, सूकरमुख, अन्धकूप, कृमिभाजन, सन्देश, सप्तसूमि, वाकष्टकशास्मली, वैतरणी, पयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीवि, अय:पान, क्षारकर्दम, रजोगणभोजन, शूलप्रोत दन्दशूक, अवरोधन, पर्यावर्तन और सूचीमुख । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवृत्ति प्रस्तावना मागदशक जो पुरुष दुसरोके धन सन्तान, अथवा स्त्रियोंका हरण करता है उसे अत्यन्त भयानक यमदूत कालपाशम बांधकर बलात्कारसे तामित्र नरकमें गिरा देता है। इसी प्रकार जो पुरुष किसी दूसरेको धोखा देकर उसकी स्त्री आदिको भोगता है वह अन्धतामिस्र नरकमें पष्ठता है । जो पुरुष इस लोकमें यह शरीर ही में हैं और ये स्त्री धनादि मेरे हैं ऐमी बद्धिसे दूसरे प्राणियोसेवारविहारजालमहावन में ही लगा रहता है वह रौरव नरकमें गिरता है। जो झूर मनुष्य इस लोक में अपना पेट पालनेके लिए जीधित पशु मा पक्षियोंकों रोचता है उसे यमदूत कुम्भीपाक नरकमें ले जाकर खोलते हुए तेलमें रांधते है। जो पुरुष इस लोकमे खटमल आदि जीवोंकी हिंसा करता है वह अन्धकूप नरकमें गिरता है । इस लोकमें यदि कोई पुरुष अगम्या स्त्रीके साथ सम्भोग करता है अथवा कोई स्त्री अगम्य पुरुषसे व्यभिचार करती है तो यमदूत उसे तप्तमूमि नरक ले जाकर कोड़ोंसे पीटते हैं । तथा पुरुषको तपाए हुए लोहेकी स्त्री-मूर्तिसे और स्त्रीको तपायी हुई पुरुष-प्रतिमासे आलिंगन कराते हैं। जो पुरुष इस लोकम पा आदि सभीके साथ व्यभिचार करता है उसे यमदुत वज्यकण्टकशाल्मली नरकम ले जाकर वयके समान कठोर कांटोंवाले सेमरके वक्षपर चढ़ाकर फिर नीचेकी ओर खींचते हैं। जो राजा पा राजपुरूष इस लोकमें श्रेष्ठकूल में जन्म पाकर भी धर्मको मर्यादाका उच्छेद करते हैं वे उस मर्यादातिकमके कारण मरने पर वैतरणी नदीमें पटके जाते हैं । यह नदी नरकोंकी खाईके समान है । यह नदी मल, मूत्र, पीव, रक्त, केश, नख, हड्डी, चर्बी, मांस, मज्जा आदि अपवित्र पदार्थो से भरी हुई है । जो पुरुष इस लोकमें नरमेधादिके द्वारा भैरब, यक्ष, राक्षस, आदिका यजन करते हैं उन्हें वे पशुओंकी तरह मारे गये पुरुष यमलोकमें राक्षस होकर तरह तरह की यातनाएँ देते हैं तथा रक्षोगणभोजन नामक नरकमें कसाइयोंके समान कुल्हाड़ीसे काट काटकर उसका लोहू पीते हैं तथा जिस प्रकार वे मांसमोजी पुरुष इस लोकमें उनका मांस भक्षण करके आनन्दित होते थे उसी प्रकार भी उनका रक्तपान करते और आनन्दित होकर नाचते-गाते हैं। इसी प्रकार अन्य नरकोंमें भी प्राणी अपने-अपने कमक अनुसार दुख भोगते हैं । वैदिक परम्परा (विष्णु पुराणके आधारसे-) भूलोकका वर्णन-इस पृथ्वीपर सात द्वीप हैं जिनके नाम ये हैं-जम्बू प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौञ्च, शाफ और पुष्कर । ये दीप लवण, इल, सुग, घृत, दधि, दुग्ध और जल इन सात समुद्रोंसे घिरे हुए है। मत्र द्वीपोंके मध्य में जम्बूद्वीप है । जम्बूद्वीपके मध्य में सुवर्णमय मेरु पर्वत है जो ८४ हजार योजन ऊँचा है । मेरुके दक्षिणमे हिमवान्, हेमकूद और निषध पर्वत है तथा उत्तरमें नील, पवेत और श्रृंगी पर्वत हैं । मेरुके दक्षिण भारत, किम्पुरुष और हरिवषं ये तीन क्षेत्र है तथा उत्तरमें रम्यक, हिरण्यमय और उत्तरकुरु ये तीन क्षेत्र है। मेरुके पूर्व में भद्रापूर्व क्षेत्र है तथा पश्चिममें केतुमाल क्षेत्र है। इन दोनों क्षेत्रोंक बीचमें इलावृत क्षेत्र है । इलावृत क्षेत्रके पूर्व में मन्दर, दक्षिणमें गन्धमादन, पश्चिममें विपुल, उत्तरमें सुपार्य पर्वत है । मेरुके पूर्व में शीतान्त, चक्रमुन्न, कुररी, भाल्यवान् , बंका आदि पर्वत है । दक्षिणमें विकट, शिशिर, पता, रुचक, निषध आदि पर्वत हैं, पश्चिममें शिखिवास, वैदूर्य, कपिल, गन्धमादन आदि पर्वत हैं और उत्तरमं शंखक्ट, ऋषध, हंस, नाग आदि पर्वत है।। मरुके पूर्वमें चत्ररथ, दक्षिणमें गन्धमादन, पश्चिममें वभ्राज और उत्तरमें नन्दनवन हैं। अरुणोद, महाभद्र असितोद और मानस सरोवर है। मेरुके ऊपर जो ब्रह्मपुरी है उसके पाससे गंगानदी चारों दिशाओं में बहती है । सीता नदी भद्रापूर्वक्षेत्रसे होकर पूर्व समुद्र में मिलती है । अग्लकनन्दा नदी भारतक्षेषसे होकर समुद्र में प्रवेश करती है। चक्षुःनदी केतुमाल क्षेत्रमें बहती हुई समुद्र में मिलती है और भद्रानदी उत्तरकुरुमैं बहती हुई समुद्र में प्रवेश करती है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्गनिधिमागर जी महाराज १३ इलावृतक्षेत्रके पूर्व जठर और देवर, दक्षिणमं गन्धमादन और कैलाश और पश्चिमम निषध और पारिपार और उत्तरमें विशृंग और जारुधि पर्वत हैं। पवनोंके बीचम मिदचारण देवोंमे मेविन खाई है और उनमें मनोहर नगर तथा वन है। समुद्र के उत्तरमें तथा हिमालयके दक्षिणमं भारत क्षेत्र है। इसमें भरतकी सन्तति रहती है। इसका विस्तार नौ हजार योजन है । इस क्षेत्रमें महेंद, मलय, सह, शुक्तिमान्, ऋक्ष, विध्य, और पारिपात्र ये सात क्षेत्र हैं। इस क्षेत्रम इन्द्रद्वीप, कशेरुमान, ताम्रवण, गधहस्तिमान्, नागद्वीप, मौम्य, गन्धर्व, वारुण और सागरसंवृत ये नव द्वीप हैं । हिमवान् पर्बनसे शनद्रु. चन्द्रभागा आदि नदियां निकली है । पारिपाय पर्वतसे वेदमुख, स्मृतिमुख आदि नदियां निकली है। विध्य पर्वतसे नर्मदा, सुरसा आदि नदियां निकली है। कृषि पर्वतसे तापी, पयोष्णि, निविन्ध्या आदि नदियां निकली हैं। मह्य पर्वतसे गोदावरी, भीमरश्री, कृष्णवेणी आदि नदियाँ निकली हैं। मलय पर्वतमे कृतमाल, ताम्रपर्णी आदि नदियाँ निकली है। महेन्द्र पर्वतसे त्रिसामा. आपकुल्या, आदि नदियां निकली है। शुक्तिमान् पर्नसमे त्रिकुल्या, कुमारी आदि नदियां निकली हैं। प्लक्षद्वीप-इस द्वीपमें शान्तिमय, गिटार, सम्बद, आनन्द, शिव, क्षेमक, और ध व ये सान क्षेत्र है। तथा गोमेंद्र, चन्द्र, नारद, दुन्दुभि, सामक, सुमन और वैधाज में सात पर्वत हैं। अनुतप्ता, शिखी, विपाशा, त्रिदिवा, मु. अमुना और सुकता, ये सात नदियां हैं। शाल्मलिद्वीप--इम द्वीपमें श्वेत. हरित, जीमृत, रोहित, वंद्युत, मानस और मुप्रभ ये सात क्षेत्र हैं। कुमुद, उन्नत, बलाहक, द्रोण, कडू. महिष और बबुम ये मात पर्वत है। यांनी, तोया, वितृष्णा, चन्द्रा, शुक्ला, विमोचनी और निवत्ति में सात नदिया है। कुशद्वीप-इस द्वीपमं उद्भिद्, वेणुमत्, वैरथ, लम्बन, लि, प्रभाकर, और कपिल य सान क्षेत्र हैं। विम, हेमर्शल, शुक्तिमान, पुष्पवान, कौशय, हरि और मन्दगचल यं मात पर्वत है। धनपापा, शिवा, पवित्रा, संमति, विद्युदंभा, मही आदि मात नदियाँ हैं। क्रौञ्च द्वीप-इस द्वीपमें कुशल, मन्दक, उष्ण, पीवर, अन्धकारक, मुनि और दुन्दुभि यं सात क्षेत्र है। क्रौञ्च, वामन, अन्धवारक, देवावृत, पृण्डरीकवान्, बुन्दुभि और महाशैल में साल पर्वत है। गौरी, कुमुद्दती, सन्ध्या, रात्रि, भनोजया, क्षान्ति और पुण्डरीका ये मात नदियाँ हैं 1 शाक द्वीप-इस द्वीपमं जलद, कुमार, सुकुमार, मनीचक, कुसुमोद, मौदाकि और महाद्रम यं मात क्षेत्र है। उदयगिरि, जलाधर, वतक, श्याम अस्तगिरि, अञ्चिकेय और केसरी ये सात पबंत हैं। मुकुमारी, कुमारी, नलिनी, चेनुका, दक्षु, वेणका और गभस्ती ये सात नदियाँ है । पुष्कर दीप-इस द्वीपमें महावीर और धानकीखण्ड ये दो क्षेत्र । मानुसोत्ता पर्वत पृष्काहीप के बीच स्थित है। अन्य पर्वत तथा नदियां इस द्वीपमं नहीं हैं। भूगोलकी इन परम्पराओंका तुलनात्मक अध्ययन हमें इस नतीजे पर पहुंचाता है कि आजम दो ढाई हजार वर्ष पहिले भुगोल और लोक यणेनकी करीब करीब एक जैसी अन श्रुतियाँ प्रवलित थी। जैन अनुश्रुतिको प्रकृत तत्त्वार्थसूत्रके तृतीय और चतुर्थ अध्यायमें निबद्ध किया गया है। लोकका पुरुषाकार वर्णन भी योगभाष्यमें पाया जाता है। अतः ऐतिहासिक और उस समयकी साधनसामग्रीको दृष्टिसे भारतीय परम्पराओंका लोकवर्णन अपनी खारा विशेषता रखता है। आजके उपलब्ध भगोलमें प्राचीन स्थानोंकी खोज करनेपर बहन कुछ तथ्य सामने आ सकता है । प्रस्तुतत्ति-इस वृत्तिका नाम तन्वार्थवृत्ति है जैसा कि स्वयं श्रुतिसागरमूरिने ही प्रारम्भमें लिखा है “वश्य तत्त्वार्थवृत्ति निजयिभवतया श्रुतोदन्तदाख्यः ।" अर्थात में श्रुतसागर अपनी शक्निक अनुसार तत्त्वार्थवृत्तिको कहूँगा। अध्यायोंके अन्तमें आनेवाली पुष्पिकाओंमें इसके 'तत्त्वार्यटोकायाम्', Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यार्थ वृत्ति प्रस्तावना 'तात्पर्यसंज्ञायां तत्वार्थवृत्ती' ये दो प्रकारके उल्लेख मिलते हैं । यद्यपि द्वितीय उल्लेखमें इसका 'तात्पर्य यह नाम सूचित किया गया है, परन्तु स्वयं श्रुतसागरसूरिको तस्वार्थवृत्ति यही नाम प्रचारित करना इष्ट या इस ग्रन्थके अन्तमें इसे तत्वार्थषुनि ही लिखते हैं। यथा- " एषा तत्वार्थवृत्तिः यविन्दायते " आादि । तवायंटीका यह एक साधारण नाम है. जो कदाचित पुष्पिकामें लिखा भी गया हो, पर प्रारम्भ लोक और अन्तिम उपसंहारवाक्यमं 'तरवार्थवृत्ति' इन समुल्लोके बल से इसका 'तत्त्वार्थवृत्ति' नाम ही फलित होता है। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज इस नरवार्थं वृत्तिको श्रुतसागरसूरिने स्वतंत्रवृत्तिके रूपमें बनाया है । परन्तु ग्रन्थके पहले ही यह भान होता है कि यह पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धिकी ही व्याख्या है। इसमें सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ तो प्रायः पूराका पूरा ही समा गया है। कही सर्वार्थसिद्धिकी पंक्तियोंकी दो चार शब्द नए जोड़कर अपना लिया है. कहीं उनकी व्याख्या की हैं, कहीं विशेषायं दिया है और कहीं उसके पदोंकी सायंकता दिखाई है । अतः प्रस्तुतवृत्तिको सर्वाधसिद्धिकी अविकल व्याख्या तो नहीं कह सकते । हो, सर्वार्थसिद्धि को लगाने में इसमे सहायता पूरी पूरी मिल जाती है । ૪ सागरसूरि अनेक शास्त्रोंके पण्डित थे | उनने स्वयं ही अपना परिचय प्रथम अध्याय की पुष्पिका में दिया है। उसका भाव यह है - "अनवद्य गद्य पद्य विद्याके विनोदसे जिनकी मति पवित्र है, उन मतिसागर यतिराजकी प्रार्थनाको पूरा करने में समर्थ, तर्क, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार, साहित्यादिशास्त्रोंमें जिनकी बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण है, देवेन्द्रकीति भट्टारकके प्रशिष्य और विद्यानन्दिदेवके शिष्य श्रुतसागरसूतिके द्वारा रचित स्वार्थश्लोकातिक राजवानिक सर्वार्थसिद्धि न्यायकुमुदचन्द्र प्रमेयकमलमार्त्तण्ड प्रचण्ड-अष्टमहत्री आदि प्रत्यकि पाण्डित्यका प्रदर्शन करानेवाली तस्वार्थ टीकाका प्रथम अध्याय समाप्त हुआ ।" इन्होंने अपने को स्वयं कलिकालमवज्ञ, कलिकालगीतम, उभयभावशकविचक्रवर्ती, तार्किका सिरोमणि, परमागमप्रवीण आदि विशेषणोंमें भी अलंकृत किया है । इन्होंने सर्वार्थसिद्धि अभिप्राय के उद्घाटनवन पूरा पूरा प्रयत्न किया है। सत्संख्यासूत्र में सर्वार्थसिद्धिके सूत्रात्मक वाक्योंकी उपपत्तियां इसका अच्छा उदाहरण हैं । जैसे- ( १ ) सर्वार्थसिद्धिमे क्षेत्ररूपणा सयोगकेवलीका क्षेत्र लोकका असंख्य भाग असंख्येय बहुभाग और सर्वलोक बताया है । इसका अभिप्राय इस प्रकार बताया है- "लोकका असंख्येय भाग दण्ड कपाट समुद्घात की अपेक्षा है । सो कैसे ? यदि केवली कायोत्सर्गमे स्थित है तो दण्ड समुद्घातको प्रथम समयमें बारह बंगुल प्रमाण समवृत या मूलशरीर प्रभाग समवृत्त रूपसे करते हैं। यदि बैठे हुए हैं तो शरीरसे तिगुना या वातवलयसे कम पूर्ण लोक प्रमाण दण्ड समुद्धात करते हैं। यदि पूर्वाभिमुख हैं तो कपाट समुद्धातको उत्तर-दक्षिण एक धनुषप्रमाण प्रथम समयमें करते हैं। यदि उत्तराभिमुख हैं तो पूर्व-पश्चिम करते हैं । इस प्रकार लोकका असंख्यातैकभाग होता है। प्रतर अवस्थामें केवली तीन वातवलयकम पूर्णलोकको निरन्तर आत्मप्रदेशोंसे व्याप्त करते हैं। अतः लोकका असंख्यात बहुमान क्षेत्र हो जाता है। पूरण अवस्थामें सर्वलाक क्षेत्र हो जाता है।" (२) वेदकसम्म स्वकी छयासठ सागर स्थिति सोधर्मस्वर्ग में २ सागर, शुक्रस्वर्ग में १६ सागर, शतारमें १८ सागर, अष्टम त्रैवेयक में ३० सागर इस प्रकार छ्यासठ सागर हो जाते हैं। अथवा सौधर्म में दो बार उत्पन्न होनेपर ४ सागर, सनत्कुमारमें ७ सागर, स्वगंमें दस सागर, लान्सवमें १४ सागर, नवम ग्रैवेयकमें ३१ सागर, इस प्रकार ६६ सागर स्थिति होती हैं । अन्तिम ग्रंवेयककी स्थिति में मनुष्यायुओंका जितना काल होगा उतना कम समझना चाहिये । (३) सासादन सम्यग्दृष्टिकर लोकका देशोन ८ भाग या १२ भाग स्पर्शन- परस्थान बिहारकी अपेक्षा सासादन सम्यग्दृष्टि देव नीचे तीसरे नरक तक जाते हैं तथा ऊपर अच्युत स्वर्ग तक । सो नीचे दो राजू और ऊपर ६ राजू, इस प्रकार आठ राजू हो जाते हैं। छठवें नरकका साम्रादन मारणान्तिक समुद्भात Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुतविर्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिधसागर औं म्हाराज कोक सक ५ राजू और लोकान्तवर्ती बादरजलकाय या वनस्पतिकायमें उत्पन्न होने के कारण ७ राज, प्रकार १२ राजू हो जाते हैं। कुछ प्रदेश सासादनके स्पर्शयोग्य नहीं होते अतः देशोन समझ लेना चाहिए। - इस प्रकार समस्त सूत्रमें सर्वार्थसिद्धिके अभिप्रायको खोलनेका पूर्ण प्रयत्ल किया गया है । न केवल सौ सूपको ही, किन्तु समग्र ग्रन्थ को ही लगानेका विद्वत्तापूर्ण प्रयास किया गया है। परन्तु शास्त्रसमुद्र इसना अगाध और विविध भंग सरंगोंसे युक्त है कि उसमें कितना भी कुशल अबगाहक वीन हो चस्करमें आ ही जाता है। इसीलिए बड़े बड़े आचार्योन अपने छयस्थशान और चंचल क्षायोमिक उपयोग पर विश्वास न करके स्वयं लिख दिया है कि-"को न विमुहह्मति शास्त्रसमा ।" अवसागरसूरि भी इसके अपवाद नहीं है। यथा" (१) सर्वार्थ सिद्धिमें "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" (५॥४१) सूत्रकी व्याख्या निर्गुण' इस विशेषण की सार्थकता बताते हुए लिखा है कि-"निर्गुण इति विशेषणं पणुकादिनिवृत्त्यर्थम्, तान्यपि हि कारण1. परमानद्रव्यानयाणि गुणवन्ति तु तस्मात् “निर्गुणाः' इति विशेषणात्तानि नियतितानि भवन्ति ।" उपगुकादि स्कन्ध नैयायिकों की दृष्टिसे परमाणुरूप कारणद्रव्यमें आश्रित होनेसे द्रव्याश्रित है और रूपादि गुगवाले होनेसे गुणवाले भी है अतः इनमें भी उक्त गुणका लक्षण अतिव्याप्त हो जायगा । इसलिए इनकी निवृत्ति के लिए 'निर्गुणाः' यह विशेषण दिया गया है। इसकी व्याख्या करते हुए श्रुतसागरमूरि - "निर्गुणाः इति विशेषणं उधणुकश्मणुकादिस्कन्धनिषेधार्थम्, तेन स्कन्धाश्रया गुणा' गुणा नोख्यन्ते ।. ..कामात ? कारणभूतपरमाणुद्रव्याश्रयत्वात्, तस्मात् कारणात् निर्गुणा इति विशेषणात् स्कन्धगुणा गुणा न मन्ति पर्यायाश्रयत्वात् । अर्थात्-'निर्गुणाः' यह विशेषण घणुक श्यणुकादि स्कन्धके. निषेषके लिए है। ले स्कन्धमें रहनेवाले गण गुण नहीं कहे जा सकते क्योंकि वे कारणभूत परमाणुद्रव्यमें रहते हैं । इसलिए स्कन्धके गुण गुण नहीं हो सकते क्योंकि वे पर्यायमें रहते हैं। यह हेतुवाद बड़ा विचित्र है और जैन सिद्धान्त के प्रतिकूल भी । जनसिद्धान्तमें रूपादि चाहे घटादिस्कन्धोंमें रहनेवाले हों या परमाणुमें, सभी गुण 7.कडे जाते । ये स्कन्धके गणोको गण ही नहीं कहना चाहते क्योंकि वे पर्यायाधित है। यदि वे यह कहते कारमपरमाणुओंको छोड़कर स्कन्धको स्वतंत्र सत्ता नहीं है और इसलिए स्कन्धाश्रित गुण स्वतंत्र नाही है तो कदाचित् संगत भी था। पर इस कथनका प्रकृत निर्गुण' पदकी सार्थकतासे कोई मेल नहीं बैठता । असंगतिके कारण आगेके शंकासमाधानमें भी असंगति हो गई है। यथा-सर्वार्थसिद्धि में है किकी संस्थान-आकार आदि पर्याएँ भी द्रश्याश्रित है और स्वयं गुणरहित हैं अतः उन्हें भी गुण कहना चाहिए । इसका समाधान मह कर दिया गया है कि जो हमेशा द्रव्याश्रित हों, रूपादि गुण सदा द्रन्याश्रित रहते है। अब कि यटके संस्थानादि सदा द्रव्याश्रित नहीं हैं। इस शंका-समाधानका सर्वार्थसिसिका पाठ यह है "ननु पर्याया अपि घटसंस्थानादयो द्रव्याश्रया निर्गुणाश्च, तेषामपि गुणत्वं प्राप्नोति । द्रव्याश्रया पति वचनान्नित्यं द्रव्यमाश्रित्य वर्तन्ते, गुणा इति विशेषणात् पर्यायाश्च नितिता भवन्ति, ते हि कदाचिका इति ।" इस शंकासमाधानको श्रुतसागर सरि इस रूपम उपस्थित करते हैं "मनु घटादिपर्यायाश्रिताः संस्थानादयो ये गुणा वर्तन्ले, तेषामपि संस्थानादीनां गुणत्वमास्कन्दति । म्याश्रयत्वात्, यतो घटपटादयोऽपि द्रव्याणीत्युच्यन्ते । साध्वभाणि भवता । ये नित्यं द्रव्यमाश्रित्य वर्तन्ते त एवं गुणा भवन्ति न तु पर्यायाश्रया गुणा भवन्ति, पर्यायाश्रिता गुणाः कदाचित्काः कदाचिद्भवा बर्तन्ते इति ।" इस अवतरणमें श्रुतसागरसूरि संस्थानादिको घटादिका गुण कह रहे हैं, और उनका कादाविक होनेका लेख है फिर भी उसका अन्यथा अर्थ किया गया है। (२) सर्वार्थसिद्धि (८१२)में जीव शब्दकी सार्थकता बताते हुए लिखा कि “अमूर्तिरहस्त आत्मा कर्मादसे ? इति चोदितः सन् जीव इत्याह । जीवनाजीवः प्राणधारणादायुःसम्बन्धात् नायुविरहा Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ तत्वार्थ चन्ति प्रस्तावना दिति ।" अर्थात्- 'हाथरहित अमूर्त आत्मा कैसे कर्म ग्रहण करता है' इस शंका का उत्तर है 'जीव' पदका ब्रहण । प्राणधारण और आयुःसंबंध के कारण जीव बना हुआ आस्मा कर्म ग्रहण करता है, आयुसम्बन्धसे रहित होकर सिद्ध अवस्थामें नहीं। यहां श्रुतसागरसूरि 'नायुविरहात्' वाले अंशको इस रूपमें लिखते हैं"आयुः सम्बन्धविरहे जीवस्यानाहारकत्वात् एकद्वित्रिसमयपर्यन्तं कर्म नादसे जीवः एक द्वौ त्रीन वाऽनाहारक इति वचनात् ।" अर्थात् - आयुसम्बन्धके बिना जीव अनाहारक रहता है और बहू एक दो तीन समय तक कर्मको ग्रहण नहीं करता क्योंकि एक दो तीन समय तक अनाहारक रहता हूं ऐसा कथन है । यहां कर्मग्रहणकी बात हूं, पर श्रुतसागरसूरि उसे नोकर्म ग्रहणरूप आहारमें लगा रहे हैं, जिसका कि आयुसम्बन्धविरहसे कोई मेल नहीं है । संसार अवस्थामें कभी भी जीव आयुसंबंधसे शून्य नहीं होता । विग्रहगतिमें भी उसके आयुसंबंध होता ही है । (३) सर्वार्थसिद्धि (८१२ ) में ही 'स' वाक्वकी सार्थकता इसलिए बताई गई है कि इससे गुणगुणिबन्धकी निवृत्ति हो जाती हैं । न्यायिकादि शुभ अशुभ क्रियाओंसे आत्मामें ही 'अनुष्ट' नाम के गुणकी उत्पत्ति मानते हैं उसीसे आगे फल मिलता है। इसे ही बन्ध कहते हैं। दूसरे शब्दो यही गुणगुणिबन्ध कहमार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज लाता है। आत्मा गुणीमें अदृष्ट नामके उसीके गुणका सम्बन्ध हो गया। इसका व्याख्यान श्रुतसागरसुरि इस प्रकार करते हैं "तेन गुणगुणिबन्धो न भवति । यस्मिशेष प्रदेशे जीवस्तिष्ठति तस्मिन्नेव प्रदेशे केवलज्ञानादिकं न भवति किंतु अपरत्रापि प्रसरति ।" अर्थात् - इसलिए गुणगुणिबन्ध - गुणका गुणिके प्रदेशों तक सीमत रहना नहीं होता । जिस प्रदेशमें जीव है उसी प्रदेशमें ही केवल जानादि नहीं रहते किन्तु वह अन्यत्र भी फैलता हुँ । यहां गुणगुणिबन्धका अनोखा ही अर्थ किया है, और यह दिखाने का प्रयत्न किया है। कि गुणी चाहे अल्पदेशोंमें रहे पर गुण उसके साथ बद्ध नहीं है वह अन्यत्र भी जा सकता है। जो स्पष्ट तः सिद्धांतसमर्थित नहीं है । (४) पृ० २७० १० ११ में एकेन्द्रियके भी असंप्राप्तापटिका संहननका विधान किया है । (५) पु० २७५ में सर्व मूलप्रकृतियों के अनुभागको स्वमुखसे विपाक मानकर भी मतिज्ञानावरणका मतिज्ञानावरणरूप से ही विपाक होता है' यह उत्तरप्रकृतिका दृष्टान्त उपस्थित किया गया है । (६) पृ० २८१ में गुणस्थानों का वर्णन करते समय लिखा है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पहुँचनेवाला जीव प्रथमप्रथमोपशम सम्यक्त्वमें ही दर्शनमोहनीयकी तीन और अनन्तानुबन्ध चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम करता है, जो सिद्धान्तविरुद्ध है क्योंकि प्रथमोशमसम्यकृत्व में दर्शनमोहनीम की केवल एक प्रकृति मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी चार इस तरह पांच प्रकृतियोंके उपदाम से ही प्रथमोशन सम्यक्त्व बताया गया है । सातका उपशम तो जिनके एकबार सभ्य कुत्व हो चुकता है उन जीवक दुबारा प्रथमोशम के समय होता है । (७) आदाननिक्षेपसमितिमें-- मयूरपिच्छ के अभाव में वस्त्रादिके द्वारा प्रतिलेखनका विधान किया गया है, यह दिगम्बर परम्पराके अनुकूल नहीं है । (८) सूत्र ८०४७ में जन्यलिंगकी व्याख्या करते हुए श्रुतसागरसूरिने असमर्थ मुनियोंको अपवादरूपसे वस्त्रादिग्रहण इन शब्दों में स्वीकार किया है- "केचिदसमथ महर्षयः शीतकालादो कम्बलशब्दवाच्यं कौशेयादिकं गृह्णन्ति न तत् प्रक्षालयन्ति, न तत् सीव्यन्ति न प्रयत्नादिकं कुर्वन्ति, अपरकाले परिहरन्ति । केचिच्छरीरे उत्पन्नदोषा लज्जितस्वात् तथा कुर्वन्तीति व्याख्यान माराधना भगवतीप्रोक्ताभिप्रायेण अपवादरूपं ज्ञातव्यम् । 'उत्सर्गापवादयोरपवादो विधिर्बलवान्' इत्युत्सर्गेण तावद् यथोक्तमाचेलक्ष्यं प्रोक्तमस्ति, आय समर्थदोषवच्छरीराद्यपेक्षया अपवादव्याख्याने न दोषः ।" Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यकार अधिक्ति पारीरवाले साधु शीतकाल वस्त्र ले लेते हैं, पर वे न तो उसे घोते हैं न सीते हैं और न उसके लिए प्रयत्न ही करते हैं, दूसरे समय में उसे छोड़ देते हैं । उत्सर्गलिंग तो अचेलकता है पर आर्या असमर्थ और दोषयुक्त शरीरवालोंकी अपेक्षा अपवादगिमें भी दोष नहीं है । १३ ९.७ भगवती आराधना (गा० ४२१ ) की अपराजितसूरिकृत विजयोदया टीकामें कारणापेक्ष यह अपवादमार्ग स्वीकार किया गया है। इसका कारण स्पष्ट है कि अपराजितसूरि मापनीय संघ के आचार्य थे और यापनीय आगमवासनाओं को प्रमाण मानते थे । उन आगमोंमें आए हुए उल्लेखोंके समन्वय के लिए अपराजितमूरिने यह व्यवस्था स्वीकार की है। परन्तु श्रुतसागरसूरि तो कट्टर दिगम्बर थे, वे कैसे इस चक्कर आ गये ? भाषा मीर - तत्त्वार्थवृत्तिकी शैली सरल और सुबोध है। प्रत्येक स्थान में नूतन पर मुमिल शब्दों का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। सैद्धान्तिक बातों का खुलासा और दर्शनगुत्थियोंके सुलझानेका प्रयत्न स्थान स्थान पर किया गया है । भाषाके ऊपर तो श्रुतसागरसूरिका अद्भुत अधिकार है । जो क्रिया एक जगह प्रयुक्त है वहीं दूसरे वाक्यमें नहीं मिल सकती। प्रमाणोंको उद्धृत करनेमें तो इनके श्रुतसागरत्वका पूरा पूरा परिचय मिल जाता है। इस वृत्ति में निम्नलिखित ग्रन्थों और ग्रन्थकारोंका उल्लेख नाम लेकर किया गया है। अनिर्दिष्टकतु के गाथाएं और श्लोक भी इस वृत्तिमें पर्याप्त रूपमें संगीत हैं। इस वृत्तिमें उमास्वामी ( उमास्वाति भी) समन्तभद्र पूज्यपाद अकलंकदेव विधानन्दि प्रभाचन्द्र मिन्द्रदेव योगीन्द्रदेव मतिसागर देवेन्द्रकीर्तिमट्टारक आदि ग्रन्थकारोंके तथा सर्वार्थसिद्धि राजवातिक अष्टसहस्री भगवती आराधना संस्कृतमहापुराणपंजिका प्रमेयकमलमार्तण्ड न्यायकुमुदचन्द्र आदि ग्रन्थोंक नामोल्लेख है। इनके अतिरिक्त सोमदेवके यशस्तिलकचम्पू आशाघरके प्रतिष्ठापाठ वसुनन्दिश्रावकाचार आत्मानुशासन आदिपुराण त्रिलोकसार पंचास्तिकाय प्रवचनसार नियमसार पंचसंग्रह प्रमेयकमल मार्तण्ड बारसअणुवेक्खा परमात्मप्रकाश आराधनासार गोम्मटसार बृह॒त्स्वयंभूस्तोत्र रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्रुतभक्ति पुरुषार्थसिद्धयुपाय नीतिसार द्रव्यसंग्रह कातन्त्रसूत्र सिद्धभक्ति हरिवंशपुराण षड्दर्शनसमुच्चय पाणिनिसूत्र इष्टोपदेश न्याय संग्रह ज्ञानार्णव अष्टांगहृदय द्वात्रिंशद्द्वात्रिंशतिका शाकटायनव्याकरण तस्त्वसार सागारधर्मामृत आदि ग्रंथोके इलोक गाथा आदि उद्धृत किये गये हैं । इस प्रकार यह वृत्ति अतिशयपाण्डित्यपूर्ण और प्रमाणसंज्ञा है । श्रुतसागरसूरिने इसे सर्वोपयोगी वैनानंका पूरा पूरा प्रयत्म किया है। अन्धकार अवसरप्राप्त इस विभाग सूत्रकार उमास्वामी और वृत्तिकारके समय आदिका परिचय कराना हैं । सूत्रकार उमास्वामी के संबंध में अनेक विवाद है-- वे किस आम्नायके थे ? क्या तत्त्वार्थभाष्य के अन्तमें पाई जानेवाली प्रशस्ति उनकी लिखी है ? क्या तत्त्वार्थ भाष्य स्वोपज्ञ नहीं है? मूल सूत्रपाठ कौन हैं ? ये कब हुए थे ? आदि। इस संबंध में श्रीमान् पं० सुखलालजीने अपने तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना में पर्याप्त विवेचन किया है और उमास्वामीको देवे परम्पराका बताया है, तत्त्वार्थभाष्य स्वोपक्ष है और उसकी प्रशस्तिमें सन्देह करनेका कोई कारण नहीं है। इनने उमास्वामी के समयको अवधि विक्रमकी दूसरीसे पांचवीं सदी तक निर्धारित की है। श्री पं० नाथुरामजी प्रेमीने भारतीय विद्याके सिंघी स्मृति अंक में "उमास्वातिका तत्त्वार्थसूत्र और उनका सम्प्रदाय" शीर्षक लेखमें उमास्वातिको यापनीय संघका आचार्य सिद्ध किया है। इसके प्रमाणमें उनने मैसूरके नगरतालुके ४६ नं०के शिलालेखमें आया हुआ यह श्लोक उद्धृत किया है Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ तत्वार्थवृत्ति प्रस्तावना उमास्वामिमनोहवरम् तत्वार्थसूत्रकर्त्तारम् मार्गदर्शक :--- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज केवलिशा बन्ह गुणमन्दिरम् ॥ इस श्लोकमें उमास्वामीको 'श्रुतकेव लिदेशीय' विशेषण दिया है और यही विशेषण मापनीय संत्राग्रणी शाकटायन आचार्यको भी लगाया जाता है। अतः उमास्वामी यापनीयसंघकी परम्परामें हुए हैं। इधर पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार उमास्वामीको दिगम्बर परम्पराका स्वीकार करते हैं तथा भाष्यको स्वोपज्ञ नहीं मानते । यद्यपि यह भाष्य अकलंकदेवसे पुराना है क्योंकि इनने राजवातिकमें भाष्यगत कारिकाएँ उद्धृत की है और भाष्यमान्य सूत्रपाठकी आलोचना की है तथा भाष्यको पंक्तियोंको वार्तिक भी बनाया है । इस तरह तत्त्वार्थसूत्र, भाष्य और उमास्वामीके संबंधके अनेक विवाद हैं जो गहरी छानबीन और स्थिर गवेषणाको अपेक्षा रखते हैं। मैंने जो सामग्री इकट्ठी की है वह इस अवस्थामें नहीं है कि उससे कुछ निश्चित परिणाम निकाला जा सके। अतः तस्वार्थवातिककी प्रस्तावना के लिए यह विषय स्थगित कर रहा हूँ । वृत्तिकर्ता श्रुतसागरसूरि वि० १६वीं शताब्दीके विद्वान् हैं। इनके समय आदिके सम्बन्धमें श्रीमान् प्रेमीजीने 'जैन साहित्य और इतिहास में सांगोपांग विवेचन किया है। उनका वह लेख यहां साभार उद्धृत किया जाता हूँ । श्रुतसागरसूरि ये मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण में हुए हैं और इनके गुरुका नाम विद्यानन्दि था । विद्यानन्ददेवेन्द्रकीति और देवेन्द्रकीति परानन्दिके शिष्य और उत्तराधिकारी थे। विद्यानन्दिके बाद मल्लिभूषण और उनके बाद लक्ष्मीचन्द्र भट्टारक पदपर आमीन हुए थे। श्रुतसागर शायद गद्दी पर बैठे ही नहीं, फिर भी बे भारी विद्वान् थे । मल्लभूषणको उन्होंने अपना गुरुभाई लिखा है । विद्यानन्दका भट्टारक पट्ट गुजरात में ही किमी स्थानपर था, परन्तु कहां पर था, इसका उल्लेख नहीं मिला। श्रुतसागरके भी अनेक शिष्य होंगे, जिनमें एक शिष्य श्रीचन्द्र थे जिनकी बनाई हुई वैराग्यमणिमाला उपलब्ध है । आराधनाकथाकोश, नेमिपुराण आदि ग्रन्थोंके कर्ता ब्रह्म नेमिदत्तने भी जो मल्लि भूषणके शिष्य थे - श्रुतसागरको गुरुभावसे स्मरण किया है और मल्लिभूषण की यही गुरुपरपम्परा दी है जो श्रुतसागरके ग्रन्थोंमें मिलती है। उन्होंने सिनन्दिका भी उल्लेख किया है जो मालबाकी गद्दी के भट्टारक थे और जिनकी प्रार्थनासे श्रुतसागरने यशस्तिलक्की टीका लिखी थी। श्रुतसागरने अपनेको कलिकालसर्वज्ञ कलिकालगीतम, उभयभाषारुविचक्रवर्ती, व्याकरणकमलमार्तण्ड ताकिकशिरोमणि, परमागमप्रवीण, नवनवतिमहामहावादिविजेता आदि विशेषणोंसे अलंकृत किया है। ये विशेषण उनकी अहम्मन्यताको खूब अच्छी तरह प्रकट करते हैं । वे कट्टर तो थे ही असहिष्णु भी बहुत ज्यादा थे । अन्य मतोंका खण्डन और विरोध तो औरोंने भी किया है, परन्तु इन्होंने तो खण्डनके साथ बुरी तरह गालियां भी दी 1 सबसे ज्यादा आ मण इन्होंने मूर्तिपूजा न करनेवाले लोकागच्छ ( दूडियों) पर किया हूँ .......... अधिकतर टीकाग्रन्थ ही श्रुतसागरने रचे है। परन्तु उन टीकाओं में मूल ग्रन्थकर्ताके अभिप्रायोंकी अपेक्षा उन्होंने अपने अभिप्रायोंको ही प्रधानता दी है । दर्शनपाहुडकी २४वीं गाथाकी टीकामें उन्होंने * ये प्रथमन्त्रि वही मालूम होते हैं जिनके विषय में कहा जाता है कि गिरिन्हार पर सरस्वती देवी से उन्होंने चला किया था कि दिगम्बर पन्थ ही सच्चा है। इन्हीं की एक शिष्य शाखा में सकलकासिं, विजयकोर्स और शुभचन्द्र भट्टारक हुए हैं । ॐ. इनकी गड़ी सूरत में थी। देखो 'दानवीर माणिकचन्द्र' पृ० ३७ । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माग श्रुतसागर सरि मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज जो अपवाद बेषकी व्याख्या की है, वह यही बतलाती है। वे कहते है कि दिगम्बर मुनि घर्याके समय चटाई आदिसे अपने मग्नत्वको ढांक लेता है। परन्तु यह उनका खुदका ही अभिप्राय है, मूलका नहीं। इसी तरह तत्त्वाथंटीका (संयमश्रुतप्रतिसेवनादि सूत्रको टीका) में जो दयलिंगी मुनिको कम्बलादि ग्रह्णका विधान' किया है वह भी उन्हींका अभिप्राय है, मूल मन्थकर्ताका नहीं। श्रुतसागरके ग्रन्थ (१) यशस्तिलकचन्द्रिका-आचार्य सोमदेबके प्रसिद्ध यशस्तिलक चम्पूकी यह टीका है और यसागर प्रेसकी काव्यमालामें प्रकाशित हो चकी है। यह अपूर्ण है। पांचवें आश्वासके थोडेसे अंशकी टीका नहीं है। जान पडता है, यही उनकी अन्तिम रचना है। इसकी प्रतियां अन्य अनेक भण्डारीम उपलब्ध है, परन्तु सभी अपूर्ण है। (२) तस्वार्थवृत्ति-यह श्रुतसागरटीकाके नामसे अधिक प्रसिद्ध है। इसकी एक प्रति बम्बईके ऐ• पन्नालाल सरस्वतीभवनमें मौजूद है जो वि० सं० १८४२ की लिखी हुई है । श्लोकसंख्या नौ हजार है। इसकी एक भाषावनिका भी हो चुकी है। (३) तत्त्वत्रयप्रकाशिका-श्री शुभचन्द्राचार्यके ज्ञानाणं व या योगप्रदीपके अन्तर्गत जो गद्यभाग है, यह उसीकी टीका है। इसकी एक प्रति स्व० सेठ माणिकचन्द्रजीके ग्रन्थसंग्रह है। (४) जिनसहस्रनामीका-यह पं० आशाधरकृत सहस्रनामकी विस्तृत टीका है। इसकी भी एक प्रति उक्स सेठजीके ग्रन्थसंग्रहमें हैं। पं० आशाधरने अपने सहस्रनामकी स्वयं भी एक टीका लिखी है जो उपलब्ध है। (५) औदार्य चिन्तामणि-यह प्राकृतव्याकरण है और हेमचन्द्र तथा त्रिविक्रमके व्याकरणोंसे बहा है। इसकी प्रति बम्बईके ऐ० पनालाल सरस्वतीभबन में है (४६८ क), जिसकी पत्रसंख्या ५६ है। यह स्वोपजवत्तियुक्त है। महाभिषेक टीका-पं० आशाधरके नित्यमहोद्योतकी यह टीका है। यह उस समय बनाई गई है जबकि श्रुतसागर देशवती या ब्रह्म (७) प्रतकथाकोश-इसमें आकाशपञ्चमी, मुकुटसप्तमी, चन्दनषष्ठी, अष्टाह्निका आदि व्रतों की कथायें है। इसकी भी एक प्रति बम्बईके सरस्वतीभवनमें है और यह भी उनकी देशवती या ब्रह्मचारी अवस्थाकी रचना है। (८) शुगस्कन्धपूजा-यह छोटीसी नौ पत्रोंको पुस्तक है। इसकी भी एक प्रति बंबईके सरस्वतीभवनमें है। इसके सिवाय श्रुतसागरके और भी कई ग्रन्पोंके" नाम ग्रन्थमूचियोंमें मिलते हैं। परन्तु उनके विषयमें जबतक वे देख न लिये जाय, निश्चय पूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता । समय बिचार इन्होने अपने किसी भी ग्रन्थमें रचनाका समय नहीं दिया है परन्तु यह प्रायः निश्चित है कि ये विक्रमकी १६वीं शताब्दी में हुए हैं। क्योंकि-- * पंपरमानन्दजी ने अपने लेख में सिंधभक्ति टोका सिधनकारक पूजा ईका श्रीपालचरित मशोधर चांन्त चन्यों में भी नाम दिए हैं। इन्होंने इतकथाकोश के अन्तर्गत २४ कधाओं को सतन्त्र अन्ध मानकर अन्य संख्या २६ कर दी है। इसका कारण बताया कि- किं भिन्न भिन्न कथाएं भिन्न भिन्न व्यक्तियों के लिए विभिन्न व्यनियों के भनुरोध में बनाई ई अतः वे सब सतन्त्र ग्रन्थ है। यथा पन्यविधान व्रत कथा इस राठौर वंशी राजाभानुभूपात ( समय वि० स. १५५२ के वाद) राज्य काल में मनिलमण गुरु के उपदेश से रची गई। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना १-महाभिषेककी टीकाकी जिस प्रतिकी प्रशस्ति आगे दी गई है वह विक्रम संवत् १५८२की लिखी हुई है और वह भट्टारक मल्लिभूषणके उत्तराधिकारी लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य ब्रह्मचारी शानसागरके पड़नेके लिये दान की गई है और इन लक्ष्मीचन्द्रका उल्लेख श्रुनसामरने स्वयं अपने टीकाप्रन्योंमें कई जगह किया है। मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सनिधिसागर जी महाराज. २- नमिदत्तन श्रीपालचरित्रको रचना वि० सं० १५८५में की थी और वे मल्लिभषणके शिष्य थे। आराधनाकधाकोशकी प्रशस्तिमें उन्होंने मल्लिभूषणका गुरुरूपमें उल्लेख किया है और साथही श्रुतसागरका भी जयकार, किया है, अर्थात् कथाकोशकी रचनाके समय श्रुतसागर मौजूद थे। ३-स्व. बाबा दुलीचन्दजीकी सं० १९५४में लिखी गई ग्रन्थसूची में श्रुतसागरका समय वि० सं० १५५० लिखा हुआ है। ४-षट्प्राभूतटीकामें लोंकागच्छपर तीव्र आक्रमण किये गये हैं और यह गच्छ वि० सं० १५३० के लगभग स्थापित हुआ था। अतएव उससे ये कुछ समय पीछे ही हए होंगे। सम्भव है, ये लोंकाशाहके समकालीन ही हों। प्रन्पप्रशस्तिमा-- श्री विद्यामगिरोईदिगुरोः पावपजभ्रमर। श्री श्रुतसागर इति वेशवतो तिलकष्टोकते स्मेवम् ।। इति ग्रह्माधीश्रुतसागर कृता महाभिषेक टीका समाप्ता । (२) संवत् १५५२ वर्षे यंत्रमासे शक्लपक्षे पञ्चम्या सियो रयो घोआदिजिनचेस्यालय श्रीमूलसंधे सरस्वतोगन्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्नाचार्यान्वये भट्टारकलीपचनन्दिदेवास्सत्पट्टे भट्टारकीदेवेन्द्रकीतिवास्तपट्टे भट्टारकनोविमानन्धिवेवास्तस्पष्ट भट्टारकनीमहिलभूषभदेवास्तस्पट्टे . भट्टारकोलमोचन्द्रवेवास्तेषां शिष्यवरप्रमोशानसागरपठनार्थ आश्रिीविसलचेली भद्रारकत्रीलक्ष्मीचनरीक्षिता विनयपिया स्वपं लिखित्वा प्रबतं महाभियंकभाष्यम् । शुभं भवत् । कल्याणं भूयात् श्रीरस्तु ॥ -आशापरकृतमहाभिषेकको टीका* (३) इति श्रीपयनन्वि-देवेन्द्रकीति-विद्यानन्दि-मल्लिभूषणाम्नायन भट्टारकभीमल्लिभूषणमुरुपरमाभीष्टा रुनया गुर्जर वंशसिंहासनस्पभट्टारकश्रीलक्ष्मीचन्त्रकाभिमतेन मालवदेशभट्टारकधोसिंहनविप्रार्भनया यतिथीसिवान्तसागरवपाल्पाकृतिनिमित्तं नवनवतिमहावाविस्थाहावलम्धविजयम तर्क-व्याकरणछन्दोलकारसिवान्तसाहित्याविशास्त्रनिपुणमतिना व्याकरणानेकशास्त्रबुबुना सरित्रीतप्तागरेण विरचितायां यास्तिलकचनिकाभिषानायां यशोधरमहाराजचरितचम्पूमहाकाव्यटीकायर्या यशोधरमहाराजराजलक्ष्मीविनोदवर्णनं नाम ततीयावासचन्द्रिका प्ररिसमाप्ता। - यशस्तिलकटीका tी भट्टारक मल्लिभूघागुरुभूयत्सतां शर्मणे ।।६।। + जीयान्मे सूरिवर्यो प्रतिनिचयलसत्पुण्यामायः भूताधिः ॥७॥ ६ प. परमानन्दजी शास्त्री सरसावा ने अपने 'महायुत सागर और उनका साहित्य लेख में लिखा कि-भट्टारक विद्यानन्दी के वि० सं० १४९१ से वि. १५२६ तक के ऐसे मूर्ति लेख पाण जाते हैं जिनकी प्रतिमा विद्यानन्दी ने स्वयं को है अथवा बिन आ० विद्यानन्दी के पदेश से प्रतिष्ठित होने का समुल्लेख पाया जाता है। आदि । श्रीमान प्रेमीजी की सूचनानुसार मैने मूर्ति पलों की खोज की तो माहरजी कृत जैनलेखसंह लेख नं.१८.में संवत् १५३३ में विभानन्दि भदटारक का उल्लेख तथा लेख० २८६ में सवत् १५३५ में विधानन्दि गुरु का उल्लेख है। इसी तरह दानवार माणिकचन्द' पुस्तक प.४ पर एक धातु की प्रतिमा का लेन सं० १४२९ का है जिसमें विद्यानन्दि गुरु का उल्लेख है। यदि यह संवत् ठीक है तो मदशरक विधानन्दि का समय १४२९ से १५३४ तक मानना होगा और इनमें शिन्य श्रुत सागर का समय भी १६ वी सदी। • घ.सेठ माणिक चन्द्रजी पं.बरी के भण्डार की प्रति । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) श्रुतसागर सूरि श्रपनन्दिपरमात्मपरः पवित्रो वेवेन्द्र कीर्तिरथ साधुजनाभिवन्द्यः । विद्याविन विवरसूरिरगस्पनोबः श्रीमल्लिभुषण इतोऽस्तु च मङ्गलं मे ॥ अवः पट्टे भट्टा विकमतघटापट्टनपटु घटद्धयाप्तः स्फुटपरमभट्टारकपयः । प्रभापुनः संयद्विजितवरबीर स्मरमरः ( ७ ) सुषीलक्ष्मी चन्द्रश्चरणचतुरोऽसौ विजयते ॥ ३ ॥ आलम्बनं सुविदुषां हृदयाम्बुजानामानम्वनं मुनिजनस्य विमुक्तिसेतोः । सट्टीकनं विविधशास्त्रविचारच हवेतचमत्कृत्कृतं भुतसागरेण ॥ ४ ॥ श्रुतसागरकृतिवरवचन मुतपानमत्र विहितम् । जन्मजरामरणहरं निरन्तरं तं शिवं लब्धम् ॥ ५ ॥ अस्ति स्वस्ति समस्तसङ्घ तिलकं श्रीमूलसषोऽनघ वृतं यत्र वर्ग शिवयं संसेवितं साधुभिः । विद्यानन्दगुरु स्त्विहास्ति गुणवद्गच्छे गिरः सम्प्रतं सच्छिष्ययुतसागरेण रचिता टीका विरं नम्वतु ॥ ६ ॥ इति सूरितसागर विरचितायां जिननामसहा टीकायाम् तकृच्छतमिवरनो नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ भीनि विगुरुभ्यो नमः । (4) आबादी सुर्यस्वमतिसिसागर जी महाराज सम्प्रा भुतसागरं कृतिवरं भाषणं शुभं कारितम् । गानां गुणवत्प्रियं विनयतो ज्ञानार्णवस्यान्तरे विद्यानन्दगुरुप्रसादजनितं देयादमेयं सुलम् ॥ इति श्री ज्ञानार्णवस्थितगग्रटीका तत्वप्रयत्र काशिका समाप्ता । - सस्वत्रमप्रकाशिका (६) इत्युभयभावावितिव्याकरणकमलमण्डितार्किकशिरोमणि-परमागमप्रवीण-सूरिभोरेबेकीलि प्रशिष्य मुमुक्षुविद्यानविभट्टारकान्तेवासिश्रीमूल संघ परमात्मविरुष ( 7 ) सूरिधी तसागरविरचिते औदार्यfearfare स्वोपशवृत्तिनि प्राकृतव्याकरणे संमुक्ताव्ययनिरूपणो नाम द्वितीयोऽयायः । - ओवार्य चिन्तामणि सुदेवेन्द्रकोतिर विद्याविनो गरीमान् गुरुमे ऽहंदादिप्रवन् । तपोविद्धि मां मूलस कुमारं भूतस्कन्धमीडे त्रिलोकंकसारम् ॥ ६०१ सम्यक्त्यसुरत्न सकलजन्तुकरुणाकरणम् । श्रुतसागरमेतं भजत समते निखिलजने परितः शरणम् ॥ इति तस्कन्धपूजाविधिः । जिनसह नामटीका भारतीय ज्ञानपीठ, काशी वसन्त पंचमी, बीर सं० २४७५ ३।२।१९४९ इसतरह ग्रन्थ और ग्रन्थकार के सम्बन्ध में उपलब्ध सामग्री के अनुसार कुछ विचार लिखकर इस प्रस्तावनाको यहीं समाप्त किया जाता है। तस्वार्यसूत्र सम्बन्धी अन्य मुद्दोंपर तत्त्वाचे वार्तिकको प्रस्तावना में प्रकाश डालने का विचार है । - महेन्द्रकुमार जैन Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयसूची ३५६ विषय मूल पृष्ठ हिन्दी - विषय मूल पृष्ठ हिन्दी मंगलाचरण मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुवासापोपची निधिवका अवधिमोक्षके स्वरूप में विवाद ३२९ | शानका स्वरूप और भेद ७१-७२।। मोक्षप्राप्तिके उपायमें विवाद ३३० । मनःपर्यय ज्ञानके भेद और मोक्षमार्गका वर्णन ११० । स्वरूप ७२-७३ सम्यग्दर्शनका स्वरूप ३३० | ऋजुमति और विपुलमतिसम्यग्दर्शनके भेद ३३१ | मनःपर्ययज्ञानों में विशेषता ३५७ जीवादि सात तत्त्वोंका वर्णन ३३१ ' अवधि और मनःपर्यमचार निक्षेपोंका वर्णन ३३२ । मानमें विशेषता ७ ३-७४ प्रमाण और नयका वर्णन ३३३ । मनःपर्ययज्ञान किन किन निर्देश आदिका स्वरूप जीवोंके होता है "चौदह मार्गणाओंकी अपेक्षा मति आदि शानोंका विषय सम्यग्दर्शनका वर्णन ९-११ ३३४, ३५ । ७८-७५ एक जीबके एक साथ कितने सम्यग्दर्शनके साधन, अधि सान हो सकते हैं करण, स्थिति और विधान का वर्णन कुमति आदि तीन मिध्यासम्यग्दर्शनके आज्ञा आदि शानोंका वर्णन दश भेवोंका स्वरूप मति आदि तीनशान मिथ्या सत्, संख्या आदिका स्वरूप १४ । क्यों होते हैं ३५९ सरप्रकपणाका वर्णन नंगम आदि सात नय ७७-८० ३६०-६२ संसपाप्ररूपणाका वर्णन द्वितीय अभ्यास १५-२३ क्षेत्रप्ररूपणाका वर्णन जीवके पांच असाधारण भाव स्पर्शनप्रस्पणाका वर्णन पांच भावोंके भेद २५-३२ ३४१ कालप्ररूपणाका वर्णन औपमिक भावके दो भेद ३२-४१ ३४१ अन्तरप्ररूपणाका वर्णन ४१-५२ क्षायिक भावके नव भेद भावप्ररूपणाका वर्णन क्षायोपशमिक भावके अठा ५२-५३ अल्पबहुल्वप्ररूपणाका वर्णन ५३-५६ रह भेद ८३-८४ मति आदि पांच ज्ञान औदायिक भावके इक्कीस भेद ३४५ | प्रमाणका स्वरूप छह लेश्याओंके दृष्टान्त ३६५ परोक्ष और प्रत्यक्ष प्रमाण ५९-६० ३४६ पारिणामिक मावके तीन भेद मतिमानका स्वरूप ३४७ । जीबका लक्षण ८५-८६ मतिमानके कारण ३४८ | उपयोगके भेद मतिजानके भेदोंका वर्णन ६२-६५ ३४८-३५० । जीबोके संसारी और मुक्तश्रुतशानका स्वरूप और भेद ६५-७० ३५१-२५५ ! की अपेक्षा दो भेद ८६-८७ ३६६ भवप्रत्यय अवधिज्ञान ७१ ३५५ | पांच परिवर्तनोंका स्वरूप ८७.९१ ३६६-६८ देव और नारकियोंके अवधि संसारी जीवोंके भेद ९१-९२ शानका विषय ७१ ३५५ । स्थावर जीवोंके पांच भेद १२.१४ ३८ ३६२ ar ३४४ ५८ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ३५१ ऊँचाई पिवीके छत्तीस भेद इस जीवोंका वर्णम ९४-९६ इन्द्रियोंकी संख्या और भेद इन्द्रिय और भाबेन्द्रिय इन्द्रियोंके नाम इन्द्रिय और मनका विषय किन किन जीवोंके कौन कौन इन्द्रिय होती है ? संत्री जीपका स्वरूप विग्रहगतिमें जीवकी गतिका कारण ९९ गतिका नियम सुन्तजीवकी गतिका नियम १०० संसारी जीवकी गतिका नियम और समय १०१ विग्रहगतिमें जीव कितनेसमय तक अनाहारक रहता है १०१-१०२ जन्मके भेद योनियोंके भेद और स्वरूप किन किन जीवोंके कौन कौन योनि होती है १०३ चौरासी लाख योनियां किन किन जीवोंके कौन कौन जन्म होता है १०३-१४ शरीरके भेद और स्वरूप १०४-१०५ पारीरोंमें परस्परमें विशेषता तैजस और कामण शरीरकी विशेषता एक जीवके एक साथ कितने शरीर हो सकते हैं १०६-१०७ मार्मण शरीरकी विशेषता १०७ किस जन्मसे कौन शरीर होता है १०७ आहारका शरीरका स्वरूप और स्वामी 'किन किन जीवोंके कौन कौन लिग होता है 'किन किन जीवोंका अकाल मरण नहीं होता। सृतीय अध्याय नरकोके नाम, वातवलयोंका ३६९ | स्वरूप, नरकोंमें प्रस्तारों२६९ की संख्या आदि ३७० नरकोंमें बिलोंकी संख्या ११४ ३६७-७१ | नारकी जीवोंका स्वरूप और विशेषला ११५-११० १७१ | नारकी जीवोंके शरीरकी ११५ ३८. ३७१ नारको जीवोंकी आयु ११७-१२१ ३८१ कौन-कौन जीव. किस-किस ૨૨ नरक नक जाते हैं १२१ एक जीव कितने बार लगा तार नरकम जा सकता है १२२ प्रथम आदि नरकासे निकल२७३ | कर जीव कौन-कौनसी पर्याय प्राप्त कर सकता है १२२ १८२ महादर्शकमध्यलंकमयागामिसिागर जी महाराज ३७४ नाम विस्तार आदि १२२-१२४ ३८२ ३७४ जम्बूद्वीपके आकार विस्तार | आदिका वर्णन १२४-१२५ .८३ ३७४ भग्त आदि मात क्षेत्रोंका ३७४ | नया क्षेत्रवर्ती जीवोंकी । आयु. वर्ण आदिका वर्णन १२५-१३५ ३८३-८६ ३७५ | दश प्रकारके कल्पवृक्षों १२६-१२७ ३८४ ३७५ | छह पर्वतोंके नाम. परिमाण. ३७५ | वर्ण आदिका वर्णन १३०-१३१ ३८६-८७ पन्न आदि छह हृदोंके नाम, ३७६ । परिमाण, हृवर्ती कमल आदिका वर्णन ३८७ ३७७ कमलोमें रहनेवाली श्री आदि १७७ देवियोंकी आयु, परिबार. ३७७ आदिका वर्णन गंगा आदि चौदह नदियाँ १३३-१३६ ३८८-९० ३७८ ; भरतक्षेत्रका विस्तार अन्य क्षेत्रोंका विस्तार १३७-१३८ ३९०-३९१ ३.३८ : भरत और ऐरावत क्षेत्रमें कालचके अनुसार मनुष्यों २७८ की आयु आदिकी वृद्धि और | हानिका वर्णन १३८-१४२ ३२१ चौदह कलकरोंके कार्य १३९-१४० ३९१-२२ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अन्य क्षेत्रोंमें कालका परि वर्तन नहीं होता है। रंगवत आदि क्षेत्रवर्ती जीवों की आय आदिका वर्णन भरत क्षेत्रका बिस्तार समुद्र बड़वालोंका वर्णन घातकीखण्ड और पुष्करार्ध ३९५-९६ द्वीपमें क्षेत्रादिकी संख्या १४५-१४६ मनुष्य कहां होते हैं मनुष्योंके भेद १४६ ३९६ | १४६-१५० ३१६-४०० १५०-१५१ कर्मभूमियोंका वर्णन ४०० विजय आदि विमानोंके देवों को कितने भव धारण करने पड़ते हैं तिर्यञ्चोंका स्वरूप तिर्योंकी का दर्शक १५९- आचार्य श्री सुविद्येिनिसका महराज १७०-१७७ ४१२-४१५ तीन पत्योंका स्वरूप १५२-१५३ १६९-१७० कर्मभूमिवर्ती मनुष्यों और १७० ४०२ चतुर्थ अध्याय व्यन्तरोंके आठ भेद ज्योतिषी देवोंके भेद तथा पृथिवीतल से देवोंके मूलभेद देवोंकी लेश्याओं का वर्णन देवोंके उत्तर भेद १५४-१५५ देवta इन्द्र आदिकी व्यवस्था १५५-१५६ देवोंमें इन्द्रिय सुखका वर्णन १५६-१५८ भवनवासियोंके भेद निवास, ऊंचाई आदि ज्योतिषी देवोंकी गतिका नियम १४२ द्वीप और समुद्रोंमें ज्योतिषीदेवोंकी संख्या ज्योतिषी देवोके निमित्तसे व्यवहारकालकी प्रवृसि मानुषोत्तर पर्वतके बाहर ज्योतिषीदेव अवस्थित हैं ज्योतिषी देवोंके विमानोंका विस्तार वैमानिक देवोंका स्वरूप, मेद, स्थान आदि सोलह स्वगों के नाम तथा पटलोंका वर्णन १४२-१४३ १४४ १४४ १५४ १५४ १५८ १५९ १५९-१६० १६० १६०-१६१ १६१ १६१ १६१ विषय-सूची १६२ ३९३ ३९४ ३९४ ३९४ ४०३ ४०३ ४०३ YOY ४०४ ४०५ ४०५ ४०५-६ ४०६ ४०६ ४०६ ४०६-७ ! . ૪૦૭ । वैमानिक देवोंमें परस्पर में विशेषता वैमानिक देवोंके शरीरकी ऊँचाई १६७ वैमानिक देवोंकी लेश्याएं १६७-१६८ कल्प कहां है १६८ लौकान्तिक देवोंका स्वरूप, स्थान और भेद अजीवकाम द्रव्योंके नाम द्रव्य कितने है वैशेषिकाभिमत पांचवा अध्याय द्रव्यांका खण्डन द्रव्योंकी विशेषता द्रव्योंके प्रदेशोंकी संख्या जीवादि द्रव्योंका निवास धर्मादि द्रव्यों का स्वभाव ४०६ वस्तुमें अनेक धर्मोकी सिद्धि पुद्गल परमाणुओंके परस्पर बन्ध होनेका नियम बन्धकी विशेषता पुद् गल द्रव्यका लक्षण पुद् गलके भेद १६६-१६७ स्कन्ध और अणुकी उत्पत्ति कैसे होती हूँ ? द्रव्यका लक्षण नित्यका लक्षण द्रव्यका लक्षण कालद्रव्यका वर्णन गुण और पर्यायका लक्षण १६८-१६९ योगका लक्षण आवका लक्षण १६२ - १६६ ४०७-१० | शुभ अशुभ योगके निमित्तसे ४१० ४१० ४११ १८० १८१-१८२४१७-४१८ छठवाँ अध्याय ४११ ४१२ ४१२ १७८ ४१६ ४१६ १७९ १८३-१८४ ४१८ १८४-१८६ ४१९ १८८-१९५ ४२० १९५-१९८ ४२०-४२७ १९८ ४२७ १९९-२०० ४२७-४२८ २००-२०१ २०१-२०२ २११ २११-२१२ ४१६ २०३-२०५ The २०६ ४३१ २०७-२०८ * ४३२ २०८ २०९ २१० ४३३ ४२८ २०२४१८-४१० ४३४ Y Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १०५ ४६१ ܫ ܝ * mm आस्रवमें विशेषता २१२-२१३ ४३४-३५ - सन्न्यानाका स्वरूप २४६-२४७ ४५७ किन जीवोंके कौनमा आत्रय , सम्यग्दर्शन के अतीचार २१७-२४८ होता है ४३५ । अहिसाणवतके अतीचार २४०-२४२ साम्पराधिक आम्रवके भंद २१४ ४३५-३मार्गदर्शवनस्के अवार्य श्री सुविधिसागर जीपाहाराज आम्लवमें विशेषनाकै कारण ४३६ ! अचीणिजनके अतीचार २४९-२'५० आम्रवके अधिकरणका स्व ब्रह्मचर्याणवतके अतीचार २५०-२५१ का तथा भेद २१५-६१६ ४३७ परिग्रहपरिमाणवतके अतीचार २५१ जीवाधिकरणके भंद २१६-२१७ ४३७ दिवानके अनिचार २५१-२५२ अजीवाधिकरणके भेद २१७-२१८ ४३८ | देशवतक अतिचार ४६.? ज्ञानावरण और दानावरण अनर्थदान नवे अतिचार २५२-५३ कर्मके आन्त्रव २१८-२१२ सामायिक अतिचार अमातात्रेदतीयके आस्रव २१९.२२१ प्रोषधोगधामके अतिचार २५३-२५४ शतावेदनीयके आरव जपभोगपरिभोगवतके अतिचार ३५४ ४६२ दर्शनमोहनीय के आनव २२२-२२३ अतिथिर्मविभागवनवे निचारित्रमोहनीयक आनव २२३ आयुकर्मक आस्रव २२४-२२६४२-४२ सलेखनाके अतिचार २५५ अशुभनाम कमके आधव २२६-२२७ दानका रक्षण शुभनाम कर्मके आसत्र दानके सभ विशेषना २५६-२५७ तीका प्रकृतिके आस्त्रय ३२५-२२१ ४८४ आठवां अध्याय नीचगोत्रके आमव २२९-२३० अश्वगोरके आपत्र बन्धके है। अन्नगयके आयव बन्धका कत्ररूप ४६६ बन्धक भंद ०६१-६२ सातवाँ अध्याय सनका लक्षण प्रकृति बन्धके भेद प्रभद६२-२६३४६७ ४४.७ ज्ञानाबरणके गांव भेद २६३-२६४४६/बनके भेद ४४८ दर्शनावरणके नव भेद २६४-२६५ ४६८-६९. अहिमा आदि गांव वांकी। बदनीयक को भेद ०५४ पांच पांव भावनाएँ २३२-२३४ मोहनीयके अट्ठाईस भेद २६५-२६३४६९-७० हिमा आदि पांन पापोको भावनाएँ २३५-२३६ आयकर्मके चार भद मंत्री आदि चार भावनाएँ २३६-२३७ कि महननशाले जीत्र कौन.. कोन स्वर्ग और नरकों में जग और कायकी भावना हिलाका लक्षण २३८-२३९ ४५१ जाते हैं। किम-काल में, किस मंत्री और बिस असत्यका लक्षण गुणस्थान में कौन मंहनन स्तेयका लक्षण अब्रह्मका लक्षण २४०-२४१ ४५३ गोत्र कर्म के भेद २०७४ परिग्रहका लक्षण प्रतीका लक्षण २४२ ४५। अन्तगय के भेद प्रतीके भेद आठों जमा की उत्कृष्ट और ग हम्धका लक्षण और सात जघन्य स्थिति २७२-२३४७५-७६ शीलोंका वर्णन २४३-२४६ ४५५-५७ । अनुभागबन्धका स्वरूप होता है Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ निर्जराका वर्णन प्रदेशबन्धका स्वरूप पुण्यकर्मको प्रकृतियों पापकर्म की प्रकृतियाँ संवर कमर्शक : नवम अध्याय २७५-२७६ २७६-२७७ मिथ्यात्व आदि गुण स्थानोंमें किन किन कर्म प्रकृतियों का संवर होता है गुणस्थानोंका स्वरूप और स्वरूप विनयके चार भेद वैयावृत्य के देश व २७७ २७८ रामय संबर के कारण संबर और निर्जग का कारण तप गुप्तिका स्वरूप समितिका स्वरूप और भंद २८२-२८४ धर्मके भेद और स्वरूप २८४-२८५ बारह भावनाओंका स्वरूप २८६-२९० परीषद सहन का उपदेश २९१ के भेद और स्वरूप २९१-९९५ किम गुणस्थान में कितनी परोषह होती हैं किस कर्मके उदयसे कौनसी परी होती है। जीवक एक परी हो सकती है २९१ चारित्रके भेद और स्वरूप २२९-३०० बाह्यतपके छह भेद ३००-३०१ अंतरंगतपके छह भेद अन्तरंगतपके प्रभेद प्रायश्चितके नौ मंद और एक साथ कितनी आचार्य श्री सुविधिसागर स्वामी २८३ २८३ २७९-२८० ४७९-८० । शुक्लध्यानके स्वामी शुक्लध्यानके भेद २९८-२९९ २८१.२८२ ४८०-८१ २८२ ३०१ ܀ ܝ ܕ विषयसूची 59'9 ܕ ܘ ܕ ܝܐ ܘ ܕ ૩૭ ४७८ ४७८ २९६-२९८ ४८१-४९१ ३०१-३०४ ३०४ ८८२ | ४८९ ፈረ ४८३ स्वाध्याय के पांच भेद | व्युत्सर्गके दो 'मैद ३०४-३०५ २०५ ध्यानका स्वरूप और समय ३०५ ३०६ ध्यान के भेद ३०६ आत्तंध्यानके भेद और स्वरूप o'g ३०८ रौद्रयानका स्वरूप और स्वामी ३०८ धर्म्यध्यानका स्वरूप ३०९ ३१० १० ४८३-८४ | ४८४-८६ . किस शुक्लध्यान में कौनसा बोग होता है ४९१ ४९९ ४९३ ४९३ ४९४ प्रथम और द्वितीय शुक्लध्यानोंकी विशेषता वितर्कका लक्षण वीचारका लक्षण ! निन्य के भेद ४८६ ४८७-८९ । | पुलाक आदि निर्ग्रन्थोंमें परपर भेंदके कारण सम्यग्वष्टि आदि जीवोमं निर्जराकी विशेषता | ४०२ | मुक्तजीव किन किन अ साधारण भावोंका नाश हो जाता है ३१-३११ मुक्त होने के बाद जीव ऊर्ध्व गमन करता है ६११ ३११ ३१२-३१३ ४९४ ठहर जाता है. ४९५ मुक्तजीवों में परस्पर द व्यबहारके कारण ४९५ ३१३-३१४ ३१४-३१५ दशम अध्याय केवलज्ञान उत्पत्तिके कारण ३१८-३१९. ५०६ मोक्षका स्वरूप और कारण ३१९-३२० ५०६-५०० ३२०-२२१ ५२१ ऊर्ध्वगमन के हेतु ३२१-३२२ ऊर्ध्वगमन के विषयमं दृष्टान्त ३२२-३२३ | मुक्तजीव लोकके अन्तमें ही क्यों ४९३ ४९६ ४९७ *४९७ ४९८ ४९८ ४९९ ४९९ ५०० ५०० ५०० ३१५-३१७ ५०४-५०५ ३२३ ५०० ५०१ ५०१ ५०२ ५०३ ५०८ ५०द्र ५०८ ५०९ ३२३-३२५ ५०९-५११ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज "तच्चार्थसूत्रकर्तारम् उमास्वातिमुनीश्वरम् । श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम् ||" नगर ताल्लुक शिलालेख नं० ४६ "श्रुतसागरकृतिवरचचनामृतपानमत्र यैर्विहितम् । जन्मजरामरणहरं निरन्तरं तैः शिवं लब्धम् ॥" - जिन सहस्रनामटोका Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमदुमास्वामिविरचितस्य तत्त्वार्थसूत्रस्य श्रीश्रुतसागरसरिरचिता तत्त्वाथ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज [प्रथमोऽध्यायः ] सिद्धोमारवामिपूज्य जिनवरवृषभ वीरमुत्तीरमा श्रीमन्तं पूज्यपादं गुणनिधिमधियन सत्प्रभाचन्द्रमिन्द्रम् । श्रीविद्यानन्द्यधीशं गतमलमकलकार्यमानम्य रम्यं वक्ष्ये तत्त्वार्थवृत्ति निजविभवतयाऽई 'श्रुतोदन्बदाख्यः ॥ १॥ अथ श्रीमदुमास्वामिभट्टारकः कलिकालगणधरदेवो महामुनिमण्डलीसंसेवित- ५ पादपनः कस्मिंश्चिदाश्रमपदे सुस्थितः मनोवाकायसरलतया बांचंयमोऽपि निजमूर्त्या साक्षान्मोक्षमार्ग कथयन्निव सर्वप्राणिहितोपदेशैककार्यः समार्यजनसमाश्रितः निर्मन्थाचार्यवर्यः अतिनिकटीभवत्परमनिर्वाणेनासन्नमव्येन 'याकनाम्ना भब्यवरपुण्डरीकेण सम्पृष्टः 'भगवन , किमात्मने हितम् ?' इति । भगवानपि तत्प्रश्नवशात् 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणोपलभितमन्मार्गसम्बानो मोक्षो हितः' इति प्रतिपादयितुकाम इष्टदेवता. १० विशेष नमस्करोति मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्द तद्गुणलब्धये ॥ १॥ वन्दे नमस्करोमि । कः? कर्ताहमुमास्वामिनामाचार्यः भव्यजीवविश्रामस्थानप्रायः । किमर्थ वन्दे ? तद्गुणलब्धये । तस्य भगवतः सर्वज्ञवीतरागस्य गुणास्तद्गुणाः, तेषां १५ लन्धिः प्राप्तिः तद्गुणलब्धिः, तस्य तद्गुणलब्धये । 'के तस्य गुणाः' इति प्रश्ने भगवद्गुणत्रयगर्भित विशेषणत्रयमाह । कथम्भूतं सर्वज्ञवीतरागम ? मोक्षमार्गस्य नेतारम् 1 मोक्षः सर्वकर्मविप्रयोगलक्षणः, तस्य मार्गः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणो वक्ष्यमाणो मोक्षमार्गः, --. ... ...... - -- . .--. . --.. १ श्रुतसागरः । २ मौनदानपि । ३-जनमाश्रि-त्र। निग्रता । ५ वेवाक-1०। द्वैयायिक-आ। एतन्नामा श्रावकः । ६ भगवन्नन कि-वः । - Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वत्त्वार्थवृत्ती तस्य नेतारं प्रापकं नायकम् । पुनरपि कथम्भूतम् ? भेत्तार, चूर्णीकर्तारं मूलादुन्मूलकमित्यर्थः । केषाम् ? कर्मभूभृताम् । कर्माणि ज्ञानाबरणादीनि, तान्येव भूभृतः पर्वताः कर्मभूभृतः, तेषां कर्मभूभृतां कर्मगिरीणाम् । भूयोऽपि क्रिविशिष्टम् ? हातारं सम्यक् स्वरूपज्ञायकम् । केषाम् ? विश्वतत्त्वानाम् , विश्वानि समस्तानि तानि च तानि तत्त्वानि ५ विश्वतत्त्वानि, तेषां विश्वतत्वानाम् । अत्रायं भावः- सर्वज्ञवीतरागशब्दोऽध्याहारेण लब्धः, तस्यानन्तगुणस्यासाधारणगुणा मुख्यत्वेन मोक्षमार्गनेतृत्व कर्मभू देतृत्वविश्वतत्त्वज्ञातृत्वलक्षणास्त्रयः, तत्प्राप्तये इत्यर्थः । ___अथ द्वैयाकः प्राह-ययात्मने हितो मोक्षः किं तर्हि तस्य स्वरूपम राजस्य च मोक्षस्य प्राप्तरुपायः कः ?"भगवानाह-मोनस्येद स्वरूपम । इदं किम् ? जीवस्य १० समस्तकर्ममलकलङ्करहितत्वम् , अशरीरत्वम् , अचिन्तनीयनैसर्गिकज्ञानादिगुणसहिना च्याबाधसौख्यम, ईदृशमात्यन्दिकमवस्थान्तरं मोक्ष उच्यते । स तु मोक्षोऽतीव परोक्षः छद्मस्थानां प्रवादिनाम् । ते तु तीर्थकरम्मन्यास्तीर्थकरमात्मानं मन्यन्ते न तु ते तीर्थकराः परस्परविरुद्धार्थाभिधायित्वात, तेषां वाचः 'मोक्षस्वरूपं न स्पृशन्ति । कस्मात् ? युक्त्याभासनिबन्धना यस्मात् । कस्मायुक्त्याभासनिवन्धनास्तद्वाचः ? १५ यत्तः केचित् चैतन्यं पुरुषस्व स्वरूपमिति परिकल्पयन्ति । तचैतन्यं ज्ञेयाकारपरि च्छेदपरामुखम् । तचैतन्यं विधमानमप्यविद्यमानम् । किंवत् ? खरविषाणवत् । करमात् ? निराकारत्वात् । कोऽर्थः ? स्वरूपव्यवसायलक्षणाकारशून्यत्वात् । केचिच पुरुषस्य बुद्ध्यादिवशेषिकगुणोच्छेदो मोक्ष इनि परिकल्पयन्ति । तदपि परिकल्पनं मिथ्यैव । कस्मात् ? विशेषलक्षणशून्यस्य बस्तुनोऽवस्तुत्वान् । च तत्वानि आ। २-गणस्य गुणा ता० । ३ पायकः श्रा०, य० । वायानाम: 4.। द्वैपायकः ९०। ४ यथात्म-द। ५ स भग-आ०, ब.। ६-य स्वाभाविकन-व० । - -। मोक्षं स्व-ता | सांख्याः । "चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपमिति"-योगमा० ११९ । “तदा द्राः स्वरूपेऽवस्थानम्" - योगसू० १३) ९ "सावेतौ भोगापवौं बुद्धि कृती मुद्धावेव वर्तमानौ कधं पुरुषे व्यपदिश्येने इति ? यथा विजयः पगजयो वा बाङ्ग्रा वर्तमानः रवामिनि व्यपदिश्यते स इति तस्य पलत्य भोक्नेति, एवं बन्धनोक्षौ बुद्धादेव वर्तमानौ पुरवे व्यपदिश्यते, स हि तस्य फलस्य भोक्तेति, बुद्धेरेव पुरुषार्थापरिसमातिबन्धः तदर्थावसायो मोक्ष इति । एतेन ग्रहणधारगोक्षपोहतत्वज्ञानाभिगियेशा बुद्धौ वर्तमानाः पुरुषेऽचारोपितसद्भावाः स हि तत्फलस्य भोक्तेति ।"-योगभा० 1114 | १० वैशेषिकाः । “नबानामात्मविशेषगुणानामत्यन्तीच्छि. त्तिमोक्षः ।।''-प्रश० व्यो० पृ. ६३८ | "आत्यन्तिकी दुःखव्यावृत्तिरपवर्गे न सावधिका द्विविधदुःखाचमर्शिना सर्वनाम्ना सर्वघामात्मगुणानां दुःखावमर्शाद् अत्यन्तग्रहणेन च सर्वात्मना तद्वियोगाभिधानात् । नवानामात्मगुणानां बुद्धिसुखदुःस्वेच्छाद्वेषप्रयतधर्माधर्मसंस्काराणां निर्मूलीच्छेटोऽपवर्ग इत्युक्तं भवति । यावदात्मगुणाः सर्वे नोनिछन्ना वासनादयः । तावदास्यन्तिकी दुःखच्यावृत्तिविकल्प्यते ।" न्यायम | पृ. ५००1 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽध्यायः केचित्तु आत्मनिर्वाणं प्रदीपनिर्वाणकल्पं परिकल्पयन्ति । तैरात्मनिर्वाणम्व विषाणकल्पनाशी परिकल्पना स्वयमाहृत्य समर्थिता, हटान् समर्थितेरर्थः । यद्येव रूपं मिया, तर्हि परमार्थ मोक्षस्वरूपं किम् ? तो कविष्यामो वयम् । मोक्ष प्राप्तरूपामपि प्रवादिनो विसंबदन्ते । केचिचारित्रनिरपेक्षं ज्ञानमेज मोहोपायं मन्यते । केचित् श्रद्धानमात्रमेव मोक्षोपायं जानन्ति । केचित् ज्ञाननिरपेक्षं ५ चारित्रमेव मोक्षोपायं जल्पन्ति । तदपि मिथ्या । व्य तैर्ज्ञानादिभिर्मि 1 ર न भवति । यथा कश्चिद व्याधिपराभूत व्याधिविनाश कपजज्ञानेनैवोल्लाघो न भवति भेषजोपयोग तथा विश्राम्मरेजीनमासले । यथा कश्विदौपथमारमपि औषधस्वरूपमजानन् उल्लाघो न भवति तथाऽऽचारवान प्यात्मज्ञानरद्दितो " मोक्षं न लभते । यथा कचिदीपवरुचिरहितः तत्स्वरूपं जानन्नप्योषधं नाचरति सोयु- १० ल्लाघो न भवति, तथारमा श्रद्धानरहित ज्ञानचारित्राभ्यां मोक्षं न लभते । तदुक्तम्"ज्ञानं पङ्गां क्रिया चान्धे निःश्रद्धं नाथ हृद्वयम् । ततो ज्ञानक्रियाश्रद्धात्रयं तत्पदकारणम् ॥" [ यश० ० ० २७१ ] १ः । " न जातिर्नजन मृत्यु यतियप्रयोगः । नेच्छा विपन्न मिश्रप्रयोगः क्षेमं पदं नैनित् । दीपो नितिमभ्युपेतो नेत्रावनिं गच्छाते नान्तरिक्षम् । दिशं न काखिद्विदिशं न कामित्यात्केवलमेति शान्ति । एवं कृत निवृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काचित् सोयात् केवलमिति शान्तिम् ॥” सौन्दर १६।२०- २९ । “प्रदीपस्येव निर्माण विनंहरतस्य चेतसः । नातिकाल १४५ - परि-व० | ३- माहत्य आ०, ब०, ब० । ४ समय इव । ५ ११४, १०५६ सूत्रोः । नैवाविकादयः | • मन्यन्ते आ०, ब०, थ, द० । ८ भीमांसकाः । ९ श्र० ब० द० । १० प्यात्मा शशा ० ० । ११- तो आलानादिज्योतिःस्वरूपभमन्यमानो मोक्षं लभते । यत्मात् १ आस्मनोऽनादिज्योतिस्त्वात् आत्मा आत्मानमनादिज्योतिस्त्वं मन्यमानी मोक्षं लमते यथाआ०, ५०, ब० । १२ तथा हि-सकलनिकलायानन्त्रतन्त्रापेक्षादीक्षा लक्षणात् अद्रामात्र सरणान्मोक्ष इति सिद्धान्तवैशेदिक गुणकर्ममामान्यसमवायान्त्यविशेाभावाभिधानानां साधभ्यं वैधम्यत्रबोधतन्त्रात् ज्ञानमात्रान्मोक्ष इति तार्किक शैनिकाः । त्रिकालभत्नाढ्यलड्डुकप्रदान पदक्षिणीकरण रमविडम्बनादिक्रियाकाण्डमा मोच इति पशुताः । सर्वेषु पेयायमश्याभयादिषु निश्वतायान्मोक्ष इति कालाचार्याः । तथा च त्रिकोक्तिः मदिरानीदमेदुरवदनसरमप्रसन्नहृदयः सत्यपाय समीयविनिवेशितशक्तिः शक्तिमुद्रासनघः स्ववमुगामहेश्वरायमाणां नित्यामन् पार्श्वतीश्वरमाराधयेदिति मोक्षः। प्रकृतिपुरुपकार्विकारुयतर्मोक्ष इति साङ्ख्याः । नैरात्म्यादिनिवेदितसम्भावना तो माक्ष इति दशबलशियाः । अङ्गारानादिवत् खभावादेव का चित्तस्य न कुतश्विद्विशुद्धिरिति जैमिनीयाः । सति धर्मिणि धर्माश्चिन्त्यन्ते ततः पराकिनोऽभावात् परलोकाि कस्यास मोक्ष इति सनवास सभतनास्तिकाधिपत्या बार्हस्पत्याः । परमब्रह्मदर्शनवशादथे र द संवेदनाविद्याविनाशान्मोक्ष इति वेदान्तवादिनः । - त०] भास्क० ११ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती [२१-२ अथ 'येन समस्तेन मोक्षो भवति तत्किम् ?' इति प्रश्ने सूत्रमिदमाचार्याः प्राहुः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥१॥ सम्यक्झाब्दः प्रत्येकं प्रयुज्यते । तेन सम्यग्दर्शनं च सम्यग्नानं च सम्यक्चारित्रं च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि, समीचीनानि सम्यग्दर्शनशानचारित्राणीत्यर्थः । तत्र जीवादि५ पदार्थानां यथावत् प्रतिपत्तिविषयं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । येन येन प्रकारेण जीवादयः पदार्था व्यवस्थिता वर्तन्ते तेन तेन प्रकारेण मोहसंशयविपर्ययरहित परिज्ञानं सम्यरहानम् । मोह इति अनध्यवसाय पर्यायः। संशयः सन्देहः । विपर्ययो विपरीतत्वम् । तैः रहितं सम्यग्ज्ञानमित्यर्थः । संसारहेतुभूतक्रियानिवृत्त्युयतस्य तस्वन्नानवतः पुरुषस्य कर्मा दानकारणक्रियोपरमणमज्ञानपूर्वकाचरणरहितं सम्यक्चारित्रम् । एतानि समुदितानि मार्गदर्शकमोक्षम्याचा अधिवाहासागर जी महाराज अथ सम्यग्दर्शनलक्षणोपलक्षणार्थ सूत्रमिदं निर्दिशन्ति सूरयः तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ २॥ योऽर्थो यथा व्यवस्थितस्तस्यार्थस्य तथाभावो भवन तत्वमुच्यते । अर्यते गम्यते ज्ञायते निश्चीयते इत्यर्थः । “उपिकृषिगतिभ्यस्थः।" [फात० उ० ५।६३ ] तत्त्वेन अर्थः १५ तत्त्वार्थः । तत्त्वमेव वाऽर्थस्तत्त्वार्थः । सत्त्वार्थस्य परमार्थभूतस्य पदार्थस्य 'श्रद्धा रुचिः तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं भवतीति वेदितव्यम् । तत्त्वार्थस्तु जीवादिश्यते । न तु अर्थशब्देन प्रयोजनाभिधेयधनादिकं मालम् , तच्छद्धानस्य मोक्षप्राप्तेरयुक्तस्यात् । अर्थशब्दस्यानेकार्थत्यम् । तदुक्तम् "हतौ प्रयोजने वाच्ये निवृत्तौ विषये तथा । प्रकारे वस्तुनि द्रव्ये अर्थशब्दः प्रवर्तते ॥" [ ] ननु "दर्शनमवलोकनं श्रद्धानं कथं घटते ? सत्यम् धातूनामनेकार्थत्वात् । रुच्यर्थे दृशिधातुर्यर्तते । 'दशिर् प्रेक्षणे' प्रेक्षणार्थस्तु प्रसिद्धोऽप्यर्थोऽत्र मोक्षमार्गप्रकरणे स्यज्यते। तत्वार्थश्रद्धानमात्मपरिणामः सिद्धिसाधनं घटते । स तु परिणामो भन्यात्मन एव भवति । प्रेक्षणलक्षणस्त्वर्थः चक्षुरादिनिमित्तो वर्तते । स तु सर्वेषां संसारिणां जीवानां २५ साधारणोऽस्ति । स मोक्षमार्गावययो न सङ्गच्छते । तत्सम्यगदर्शनं द्विप्रकारम्-सरागम, वीतरागञ्च । तत्र सरागं सम्यग्दर्शनं प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्यैरभिव्यज्यते । तत्र रागादिदोषेभ्यश्चेतोनिवर्तनं प्रशमः । शारीर -... -- ---- ----- -- - - -य: संध-भा०, २०, ६० । २-रममज्ञा-भान, य., २०, ५०। ३ भवन्ति ता० । ५ भवो सा०। भवं त-व०। ५ उपिअपिग-श्रा, ब.। उरित्राषि-१०। ६ श्रद्धार्थ रू-ता.। ननु अ-आ०, ०। ८ प्रयोजनादिश्रद्धानस्य । १ तुलना-"अर्थोऽभिधेयरैवस्तु प्रयोजननिवृत्ति"--अमरः, नाममा । "अर्थः प्रयोजने वित्ते हेत्वभिप्रायवन्तुषु । शब्दाभिधये विपये स्यानिवृत्तिप्रकारयोः ।।"-विश्वलो। १. सम्यग्दर्शनं प०। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३] प्रथमोऽध्यायः मानसागन्तुवेदनाप्रसारात संसारायं संवेगः । सर्वेषु प्राणिषु चित्तस्य दयार्द्रत्वमनुकम्पा । आप्तश्रतंत्रततत्त्वेषु अस्तित्वयुक्तं मन आस्तिक्यमुच्यते । तथा चोक्तम्-- "यद्रागादिषु दोषेषु चित्तवृत्तिनिवहंणम् । तं प्राहुः प्रशमं प्राज्ञाः समस्तवतभूषणम् ॥ १॥ शारीरमानसागन्तुवेदनाप्रमवाद्भवात् । स्वमेन्द्र जालसङ्कल्पानीतिः संवेग उच्यते ॥ २ ।। सच्चे सर्वत्र चित्तस्य दयार्द्रत्वं दयालयः । धर्मस्य परमं मूलमनुकम्पा प्रचक्षते ॥३॥ आप्ते श्रुते यते तस्ते चित्तमस्तित्वंसंयुतम् । मार्गदर्शआस्तिक्यमास्तिरुतवासक्तियक्तिधरे हो।। ४ ।" [यश उपृ३२३ ] इति ।। वीतरागं सम्यग्दर्शनम् आत्मविशुद्धिमात्रम् । 'अथेदशं सम्यग्दर्शनं जीवादिपदार्थगोचरं कथमुत्पद्यते' इति प्रश्ने सूत्रमिदं 'ब्रुवन्ति-- तन्निसर्गादधिंगमावा ।। ३ ।। तत्-सम्यग्दर्शनम, निसर्गात् स्वभावात् उत्पद्यते । वा-अथवा, अधिगमात्- १५ अर्थावबोधात उत्पद्यते । ननु निसर्गज सम्यग्दर्शनम् अर्थाधिगमं प्राप्योत्पद्यते, न या ? यदि अर्थाधिगमं प्राप्योत्पद्यते; तहिं तदपि निसर्गजमपि अधिगमजमेव भवति, अर्थान्तरं न वर्तते, किमर्थं सम्यग्दर्शनोत्पत्तेद्वैविध्यम ? अविज्ञाततत्वस्य अर्थश्रद्धानं न सङ्गच्छत एव | सत्यम् । निसर्गजऽधिगमजे च सम्यग्दर्शनेऽन्तरङ्गं कारणं दर्शनमोहस्योपशमः दर्शनमोहरप क्षयो २० या दर्शनमोहस्य श्योपशमो वा सहशमेव कारणं वर्तते । तस्मिन् सहशे कारणे सति यत्सम्यग्दर्शनं बायोपदेशं विनोत्पद्यते तन् सम्यग्दर्शनं निसर्गजमुच्यते । यस् सम्यग्दर्शनं परोपदेशेनोत्पद्यते तदधिगमजमुच्यते । नैसर्गिकमपि सम्यग्दर्शन गुरोरक्लेशकारित्वात् स्वाभाविकमुच्यते न तु गुरूपदेशं विना प्रायेण तदपि जायते । ननु तच्छन्दस्य ग्रहणं किमर्थम् ? "अनन्तरस्य विधिः प्रतिषेधो वा" [पा. २५ महा० १.२४ ] इति परिभापणात 'निसर्गादधिगमाद्वा' ईदृशेनैव सूत्रेण अनन्तरं सम्यग्दर्शनमेव लभ्यते तेन सूत्र तन्छब्दस्य वयच॑म् ; सत्यम् ; यथा सम्यग्दर्शनमनन्तर वर्तते सथा मोक्षमार्गशब्दोऽपि प्रत्यासन्नो वर्तते, "प्रत्यासत्तैः प्रधानं बलीयः" [ ] इति परिभाषणात् मोक्षमार्गो निसर्गादधिगमावा भवतीत्यर्थ उत्पद्यते । तच्छब्देन तु सम्यग्दर्शनमेवाकृष्यते तेन तच्छन्दग्रहणे दोषो नास्ति । -तत 1-सत-व० । २“प्रभवाद्भयात्"-या। -दातिः सा. ४-स्वसंम्तुनम तार, प० । ५ अथेदं स-मा०, ०। अवन्त्याचार्याः आत, द०, ब० । न च आ०, ब०, २०, ५० । 'दशनमोहस्य क्षवो वा' इति नास्ति ता०। ९ सदृमाका-। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थवृत्ती [१४ अथ 'कि तत् तत्त्वम , यस्य श्रद्धानं सम्मग्दर्शनं भवति ?' इति प्रश्न सुत्रमिदमुच्यतेजीवाजीवाऽऽस्वबन्धसंवरनिर्जरामाक्षास्तत्वम् ॥ ४ ॥ जीवश्वाजीचश्चाऽऽरवश्व बन्धन संघरश्न निर्जरा च मोक्षश्च जीवाजीवाऽऽस्रवन्धसंबरनिर्जरामोक्षाः, एते सप्त पनाशकिय भयुधिचिनादिशाकाहारेखा, ५ सा लक्षणं यस्य स जाब उपते । यस्त्र तु ज्ञानदर्शनादिलक्षण नास्ति म पुगलधर्माधर्मा ऽऽकाशकाललक्षणोऽजीवः । शुभाशुभकर्मागमन द्वारलक्षण आरव उच्चत्ते । आत्मनः कर्मणश्च परस्परप्रदेशानुप्रवेशस्वभावो बन्धः । आननिरोधरूपः संवरः । एकदेशेन कर्मक्षयो निर्जरा : सर्वकर्मा यलक्षणो मोक्षः । सर्व फल जीवाधीन तेन जीवस्य ग्रहणं प्रथमम् । जीवस्योपकारकोऽजीवः, तेन १० जीवानन्तरमजीवग्रहणम । जीत्राजीवोभयगांचरत्वात् तत्सश्चादान योपादानम् । आनन पूर्वको बन्धो भवतीति कारणा] 'आत्रवादनन्तरं बन्धवांकारः । बन्धप्रनिबन्धकः सपरा, तेन बन्धादनन्तरं संवराभिधानम् । संचन व निर्जरा भवताति कारणान संबरानन्तरं निजराकथनम् । मोक्षस्त्वन्ने प्राप्यत तेन मोक्षम्माभिधानमन्ते कृतम् । आस्रवन्धयोग्न्तर्भावात पुण्यपापपदार्थद्वदस ग्रहणं न कृतम् । एवं दाल१५ वोऽपि जीवाजीचयोरन्तभवति, तदग्रहणमध्यनर्थकम : सन्नः इह मोक्षशानं प्रधानभूतो मोक्षः, स तु अवश्यमेव वक्तव्यः । माक्षस्तु संसारपूर्वका भवति । संसारस्प मु पहनुराखयो बन्धश्च । माक्षरप मुख्य कारणं संवरा निर्जरा च । सेन कारणेन प्रधानहेतुमन्ती ससारमोक्षौ, संसारमोक्षलक्षणफलप्रदर्शनार्थमास्त्रवादयः पृथग्यपदिश्यन्ते । तत्रास्त्रब बन्धयोः फल संसारः, संवरनर्जरयोः फलं मोक्षः, हतुहेतुमतोः 'फलत्वेन निदर्शनम , दृष्ट्या२० न्तभूनाश्चत्वारः तेषां चतुर्णामास्त्रवादीनां पृथग्व्यपदेशा निहितः विशेषेण प्रदर्शनार्थम् ।। यदि संसारमोक्ष योर्मध्य एते चत्वारोऽन्तर्भवन्ति तहि पृथक किमिति उपपदिश्यन्ते ? साधूक्तं भवता, सामान्येऽन्तभूतस्यापि विशेफ्स्य भिन्नोपादान का हि दृश्यते, यथा क्षत्रियाः समागताः, तन्मध्ये शूरवापि समागत इत्युक्ते "शूर वर्मा कि क्षत्रियो न भवति? तथा आस्त्रवादयश्च । ___ जीवादयः सप्त द्रव्यवचनानि, तत्त्वशब्दस्तु भाववाची', तेषां तस्य च समाना. धिकरणता कथं घटते 'जीवादयः किल तत्त्वम्' इति ? सत्यम ; अव्यतिरेकतया तत्त्व"भावाचारोषतया च समानाधिकरणता भवत्येव । “लिङ्गसङ्ख्याव्यनिक्रमस्तु न दृष्यते, अजहल्लिङ्गादित्वात् । एवं 'सम्बम्दानज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इत्थवास योजनायम । १ किं तवं द । २- स्वामिना आ., ब०, द.। ३ मत ०। नालन-प्रा०, व० ।५ मनु व०। ६ परस्सरं -20 | भिवाग-द। मुख्यम:-:., ६० । सान्जाभ द., ब.। १.-र्थ दृ-द.। १ यूग्वापि कि 4.। १६-.ची सगा-जा- । -वाचकः रोभा०, २०, ५० । १३-भावाध्या रासपचारतया आ०, २०, २०। ६४ मोक्षाः इत्पत्र पुलिङ्गत्वं बहुवचनच 'तत्व' बल्यन च गपुमकैकवचनत्वम् इति व्यतिक्रमः । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १॥५] प्रथमोऽध्यायः अथ सम्यग्दर्शनादिजीवादिव्यवहारव्यभिचारप्रतिपेनिमित्तं सूत्रमुच्यते--- नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ॥५॥ मार्गक्चमि म समाचार्य श्री दुरबिसमावश्नी मरमवारनादव्यभावाः, तेभ्यो नामस्थापनाद्रव्यमायतः, तेषां सम्यग्दर्शनादीनां जीवादीनाञ्च न्यामः प्रमाणनययोनिक्षेपः तल्यासः । अस्यायमर्थः अतद्गुणे वस्तुनि संव्यवहारप्रवर्तन निमित्त पुरुषकारात् हठात् ५ नियुज्यमानं 'संज्ञाफर्म नामकर्म कथ्यते । अतद्गुणे वस्तुनीति कोऽर्थः ? न विद्यन्ते शब्दप्रवृत्तिनिमित्तास्ते जगत्प्रसिद्धा जातिगुणक्रियाद्रव्यलक्षणा गुणा विशेपणानि यस्मिन् वस्तुनि तद्वस्तु अतद्गुणम्' तस्मिन् अतद्गुणे । तदुक्तम् "द्रव्यक्रियाजातिगुणप्रभेदैर्ड वित्थंक द्विजपाटलादौ । शब्दप्रवृत्ति मुनपो वदन्ति चतुष्ट यी शब्दविदः पुराणाः ॥ १।" [ ] १० काष्ठकर्मणि 'पुरसकर्मणि "लेपकर्मणि अक्षनिक्षेपे । कोऽर्थः ? सारिनिक्षेपे वराटवादिनिक्षेपे च सोऽयं मम गुरुरित्यादि स्थाग्यमाना या सा स्थापना कथ्यते । गुणैर्दुत गतं प्राप्त द्रवम, गुणान बा द्रुतं गतं प्राप्तं द्रव्यम् , गुणोष्यते द्रव्यम्, गुणान्वा द्रोष्यतीति द्रव्यम् । द्रव्यमेव वर्तमानपर्यायसहित भाव उक्यते । तथा हि-कोऽर्थः ? नामस्थापनाद्रममावान दर्शयति-नामजीयः, स्थापनाजीवः, १५ द्रष्ाजीचः भारजीवश्चेति चतुर्विधो जीवशब्दो न्यस्यते । जीवनगुणं विनापि यस्य कस्यचिन् जीवसंज्ञा विधीयते स नामजीव उच्यते । अक्षनिक्षेपादिषु जीत्र इति वा मनुष्यजीव इति वा व्यवस्थापमानः स्थापना जीव उच्यते । सारिचालनसमये 'अयमश्वः' 'अयं गजः' 'अयं पदातिः' इति जीवस्थापनैव वर्तते । द्रव्यजीवो द्विप्रकार:-आगमद्रव्यजीव-लोआगमद्रपजीवभेदात् । तत्र जीव- २० प्राभूतज्ञायी मनुष्वजीवनाभूतज्ञाची वानुपयुक्तो निःकार्य आत्मा आगमद्रव्यजीव उच्यते । नोआगमद्रव्यजीवत्रिप्रकारः-ज्ञायक्रशरार-भावि-तद्व्यतिरिक्तभेदान् । तत्र ज्ञायकशरीरं त्रिकालगोचरं यत् ज्ञातुः शरीरं तत ज्ञायकशरीरमुच्यते । सामान्यत्वेन नोआगमद्रमभाविजीवो न विद्यते । कस्मान ? जीवनसामान्यस्य सदैव विद्यमानत्वान । विशेषापेक्षया तु नोआगमद्रव्यभाविजीवस्तु विद्यत एव । कोऽसौ विशेषः ? कश्चित् जीवो गत्यन्तरे २५ स्थिती वर्तते,स मनुष्यभवप्राणिप्रति सम्मुखो मनुष्यभाविजीव उच्यते। अथवा, यदा जीवादिप्राभूत न जानाति अग्रे तु ज्ञास्पति तदा भाविनोआगमद्रव्यजीय उच्यते । तव्यतिरिक्तः नर्मि-इ. २ पुरुषाकारात् आ०, २०, ०, ६० । ३ संज्ञा नामकर्म ब० । ५ "नामजात्यादियोजना । यदृच्छाशब्देषु नाम्ना विशिष्टोऽर्थ उच्यते डिस इति । जातिशब्द जात्या गौरयमिति, गुगसन्देष गुणेन शुक्र इति । क्रियाशब्देषु त्रियया पाचफ इति । द्रव्यशन्देषु वण दण्टी विघाणीति ।" -प्र० स० दी। ३।३। ५ वित्यः काष्ठमयों मृगः । काठादिद्रव्य निमितको इवित्थ शति, फोतिक्रिया निमित्तकः कति, द्विजत्वजातिनिमित्तको विज इति, ईपद्रक्तगुणनिमित्तकः पाटल इति व्यवहारः। ६ दुहितका दिसूनचीवरादिविरचिते। ७ गोमयादिना लेपे । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवृत्त [१६ कोsर्थः ? कर्म-नोकर्मभेद: । तत्र कर्म तावत् प्रसिद्धम् । नोकर्मस्वरूपं निरूप्यते - औदारिकवैकिविकाहारकशरीरत्रयस्य षट्पर्यातीनाञ्च योग्यपुद्गलानामादानं नोकर्म । भावजीवो द्विप्रकारः - आगमभावजीव - नोआगमभावजीवभेदात् । तत्रागमभावजीवप्राभृतविपयोपयोगाविष्टः परिणत आत्मा आगमभावजीवः कथ्यते । मनुष्य जीव५ प्राभृतविषयोपयोगसंयुक्तो वाऽऽत्मा आगमभावजीवः कथ्यते । नोआगमभावजीवस्वरूपं निरूप्यते - जीवनपर्यायेण समाविष्ट आत्मा नोआगमभावजीवः । मनुष्यजीव पर्यायेण वा समाविष्ट आत्मा नोआगमभावजीवः कथ्यते । मार्गदर्शक :- आचार्य एशियन सपैर निरामोक्षाणां पण्णां सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां त्रया णाञ्च नामादिनिक्षेपविधानं संयोजनीयम् । तत्किमर्थम् ? अप्रस्तुतनिराकरणार्थं प्रस्तु१० तस्य नामस्थापनाजीवादेर्निरूपणार्थं च । ननु 'नामस्थापनाद्रव्यभावतो न्यासः' इति सूत्रं क्रियताम्, तच्छद्रणं किमर्थम् ? साधूक्तम् भवता तच्छद्रग्रहणं सर्वसङ्ग्रहणार्थम्। तच्छदं विना प्रधानभूतानां सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामेव न्यासविधिः स्यात् तद्विपयाणां जीवादीनामधानानां भ्यासविधिर्न स्यात् । तच्छन्दमहणे सति समर्थतया प्रधानानामप्रधानानाञ्च १५ म्यासविधिर्निषेद्धुं न शक्यते । , अथ 'नामादिप्रस्तीर्णाधिकृततत्त्वानामधिगमः कुतो भवति !' इति प्रश्ने सूत्रममुकयते - प्रमाणनयैरधिगमः ॥ ६ ॥ प्रमाणे च नयाा प्रमाणनयाः तैः प्रमाणनयैः कृत्वा अधिगमः नामादिनिक्षेप२० विधिकथितजीवादिस्वरूपपरिज्ञानं भवति । ते प्रमाणे नयाञ्च वक्ष्यन्ते । तत्र प्रमाणं द्विप्रकारम्- स्वपरार्थभेदात् । नत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतरहितम । श्रुतं तु स्वार्थे परार्थ च भवति । ज्ञानात्मकं श्रुतं स्वार्थम्, चचनात्मकं परार्थम् । 'वचनविकल्पास्तु नया उच्यन्ते । ननु नयशब्दः अल्पस्वरः प्रमाणशब्दो बहुस्वरः, "अल्पस्वरतर' तत्र पूर्वम्” [ का० २५१२ ] इति वचनाननयशस्य कथं पूर्वनिपातो न भवति ? साधूकं भवता । २५ तत्रैवापवादभूतं "यच्चार्चितं द्वयोः " [ का० २५/१३ ] इति सूत्र वर्तते । तेन प्रमाणस्याचितत्वात् पूर्वनिपातः । अभ्यर्चितं तु सर्वथा वलीयः । प्रमाणस्वार्चितत्वं कस्मात् ? नयानां निरूपणप्रभवयोनित्वात् । प्रमाणेनार्थं ज्ञात्वावधारणं नय उच्यते । तेन सकलादेश: १ " उक्तं हि अवगणिवारण पयदस्य परूवणानिमित्तं । संवि[सण तच्चत्यवधारण च ॥ ध० टी० ० ३ ० ३१ । ६० ० ० १५३ । २ जीवादिनि आ०, ४०, द० । ३ - नानाञ्च भ्या-आ०, ब०, २० । ४-विधि निषेधं कर्तुं शक्यते प्रा० ० ६०५ सूत्रम् - आ०, ० । ६" प्रमाणं द्विविधं स्वार्थ परार्थञ्च" स० स० १६ । ७ "जावया बगवा तावदवा नेव होति जयवाया ।" - सन्मति० ३४७ । ८ अल्पस्वरं तच पूर्व-आ० ० द० । ९ “ तथा चोक्तं सकलादेशः प्रमाणाधीनो विक्लदेशो नवाधीनः " - स०स०] १२६ २ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७] प्रथमोऽध्यायः प्रमाणाधीनो विफलादेशो नयाधीनः । स नयो द्विप्रकारः द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकभेदात् । 'भावस्वरूपं पर्यावार्थिकनयेन ज्ञातव्यम् । नामस्थापनाद्रव्याणां बयाणां तत्त्वं द्रव्यार्थिफनयेन ज्ञातव्यम् । नामस्थापनाद्रव्यभावचतुष्टयं समुदितं सर्व प्रमाणेन ज्ञातव्यम् । तेन प्रमाणं सकलादेशो नयस्तु विकलादेश इति युक्तम् ।। अथ प्रमाणनगरधिगता अपि जीवादयः पदार्था भूयोऽपि उपायान्तरेणाधि- ५ गम्यन्ते इत्य, चेतस्यवधार्य सूत्रमिदं सूरयः प्राहु: निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ॥७॥ निर्दिश्यत इति निर्देशः । निर्देशश्च स्वरूपकथनम् , स्वामित्वं च अधिपतित्वम् , पालाश चोत्पतिवाणाम् अगवाक्ष शिनमिति यावत्, स्थितिश्च कालांवधाः रणम् , विधानं च प्रकारः, निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानानि, तेभ्यः निर्देश- १० स्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः । एभ्यः पड़भ्यः अधिगमसम्यग्दर्श नमुत्पद्यते । ____ तत्र 'सम्यग्दर्शनं किम् ?' इति केनचित् प्रश्ने कृते ते प्रति सम्यग्दर्शनस्वरूपं निरूप्यते-तत्त्वार्थश्चद्धानं सम्यग्दर्शनभिति निर्देशः । नाम स्थापना द्रव्यं भावो वा निर्देश उच्यते । 'कस्य सम्यग्दर्शनं भवति ?' इति सम्यग्दर्शनस्वामित्वप्रश्ने केनचित कृते सति ते प्रत्युच्यते-'सामान्येन सम्यग्दर्शनस्य स्वामी जीवो भवति' इति स्वामित्वमुच्यते। १५ विशेषेणे तु चतुर्दशमार्गणानुवादेन स्वामित्वमुच्यते । तत्र गत्यनुवादेन नरकगतौ सप्तस्वपि पृथ्वीषु नारकाणां पर्याप्तकानां द्वे सम्यक्त्वे भवतः-औषमिकं झायोपशमिकं च वेदनानुभवनादित्यर्थः। प्रथमपृथिव्यां पर्याप्तकानामपर्याप्तकानाकच क्षायिक क्षायोपशमिकच सम्यक्त्वमस्ति । कथम् ? नरकगतौ पूर्व बद्धायुष्कस्य पश्चात् गृहीतझायिकक्षायोपशमिकसम्यक्त्वस्य अधःपृबीपूत्पादाभावात् प्रथमपृथिव्यामपर्याप्तकानां २० क्षायिक क्षायांपशमिकञ्च वर्तते । ननु वेदकयुक्तस्य तिर्यङ्मनुष्यनरकेपुत्पादाभावात् कथमपर्याप्त कानां तेषां क्षयोपशमिकमिति ? सत्यम् । क्षपणायाः प्रारम्भकेन वेदकन युक्तस्य तत्रोत्पाद विरोधाभावान् । एवं तिरश्चामप्यपर्याप्तकानां क्षायोपशमिकत्व ज्ञातव्यम् । ___ तिर्बग्गतौ तिरश्चा पर्याप्तकानामा पमिकं भवति । क्षायिक क्षायोपशमिकं पर्या- २५ सापर्याप्तकानामस्ति । तिरश्चीनां क्षायिकं नास्ति | करमादिति चेत् ? उच्यते-कर्मभूमिजो मनुष्य एव दर्शनमोहक्षपणायाः प्रारम्भको भवति । अपणायाः प्रारम्भकालान पूर्व सिर्यक्षु यद्धायुष्कोऽपि उत्कृष्टभोगभूमिजतिर्यकमनुष्येष्वेवोत्पद्यते न तिर्यकत्रीषु । तदुक्तम् 1-कारो भवति पर्याश्वार्थिकदच्यार्थिकभेदात् श्रा०, २०, ३० ।कारो भवति द्रव्या-व.। २ "शाम उवणा दविपत्ति एस दटियरस निकम्वेवो । भायो उ पज्जवअिस्स पावणा एस परमत्यो । "-सन्मति. १| स. सि. १६ । जयध० पृ. २६०। ३ कालावधानम् ताः। ४ तं प्रति सम्यग्दर्शनमि-प्रा०, ब०, द. ! ५- चतु-३०, ८०। ६-त्वमिति आ०, व., द.। ७ पूर्वबद्धा-. । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सास्वार्थवृत्ती [१७ "दसणमोहकखवणापहवगो कम्मभूमिर्जादो दु । मणुसो केवलिमले णिहवगो चारि सव्वस्य ।" [गो० जी० गा० ६४७] औपशमिकं भायोपशमिकं च सम्यग्दर्शनं पर्याप्तिकानामेष तिरश्चीनां भवति, ५ न त्वपर्याप्तिकानां तिरश्चीनाम् । एवं मनुष्यगतौ मनुष्याणां पर्याप्रापर्याप्तकानां क्षायिकं क्षायोपशमिकं च भवति । औरशमिकं पर्याप्तकानामेन, न त्वपर्याप्तकानाम् । मानुषीणां वितयमपि पर्याप्तिकानामेव, न वपर्याग्निकानाम् । क्षायिकं तु सभ्यक्त्वं यत् मानुपीणामुक्तं तत् भाववेदापेक्षयैव, द्रव्य स्त्रीणां तु सम्यग्दर्शनं न भवत्येव । १० देवगतौ देवानां पर्याप्तापर्याप्तकानां सम्यग्दर्शनत्रयमपि भवति । अपर्याप्तावस्थायां देवानां कथमोपशमिकं भवति, औपशमिकयुक्तानां मरणासम्भवान् ? सत्यम् ; मिथ्यात्वपूर्वकौपशमिकयुक्तानामेव मरणासम्भवोऽस्ति, वेदकपूर्वकोपशमिकयुक्तानां तु मरणसम्भ वोऽस्त्येव । कथम् ? वेदकपूर्वकोपशमयुक्ता नियमेन श्रेण्यारोहणं कुर्वन्ति, श्रेण्यारूढात् मार्गदर्शकेचारिसमहर्मोनमाभूतायपेक्ष्याअवस्थायामपि देवानामौपशमिकं सम्भ१५ वति । विशेषेण तु भवनवासिनां व्यन्तराणां ज्योतिष्काणां च देवानां तद्देवीनां च क्षायिक न वर्तते। सौधम्मैशानकल्पवासिनीनां च देवीनां क्षायिकं सम्यग्दर्शनं नास्ति । सौधम्मैशानकल्पवासिनीनाम्च देवीनां पर्याप्त( मि )कानामौपशमिक शायोपशमिक च यतते ॥ १ ॥ इन्द्रियानुवादेन पञ्चेन्द्रियसंझिनां सम्यग्दर्शनत्रितयमप्यस्ति । एकेन्द्रियद्वीन्द्रिय२० श्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणामेकमपि नास्ति ॥२॥ कायानुवादेन त्रसकायिकानां त्रितयमपि भवति । स्थावराणामेकमपि नास्ति ॥३॥ योगानुवादेन त्रयाणां योगानां त्रितयमपि भवति । अयोगिनां क्षायिकमेकमेव ॥४|| वेदानुवादेन वेदत्रयस्य दृक्त्रयमपि भवति । अवेदानामौपशमिकं क्षायिक च ॥५॥ २५ कपायानुवादेन 'चतुःकषायाणां त्रितयमपि विद्यते । अकषायाणामौपशमिकं क्षायिकं च ॥६॥ __झानानुवादेन मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानिनां त्रितयमपि दीयते । केवलिना क्षायिकमेव ॥७॥ १-जादा उ आ०। २-पासका-आ०, प०, व., द.। ३ वेदपूर्वकोप-ता । घेदकपूर्वकोपशमकसयु-१० । वेदकपूर्वकोपशमिकस यु-या। ४ कुर्वन्तु प०३ ५ श्रेण्यारोहात् भार, ब, । ६-क मध• । ७-वासिनां देवानां पर्या-ता० ।-वासिनीनां दे--. । वासिनीनां देवान ब.. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र म: it... प्रथमोऽध्यायः माता महेशक सामाजिक धनिनां त्रियमसरोज परिहारविशुद्धिसंय वेद प्राधिकं च । परिहारविशुद्धि संयतानामौपशमिकं कस्मान्न भवतीति चेत् ? परिहारविशुद्ध चौपशमिकसम्यक्त्वाहारकर्द्धानां मध्येऽन्यतरसम्भवे परं त्रितयं पति । पंकस्मिन मनःपर्यये तु मिध्यात्वपूर्वकौपशमिकप्रतिषेधो द्रष्टव्यो न वेकपूर्व - "मणपेज्जवपरिहारा उबसमसम्मत्त आहारया दोष्णि । एदेसिं य एगदरे सेसाणं संभवो णत्थि ॥ १ ॥” [ गो० जी० गा० ७२८] आहारया दोणि आहारकाहारकैमिश्र सूक्ष्मसाम्परायिकयथाख्यातसंयमिनामौपशायिकं च वर्तते । संयतासंयतानामसंयतानां च त्रितयं वर्तते ॥ ८ ॥ दर्शनानुवादेन चक्षुरचचुरवधिदर्शनिनां सद्दृष्टिमपि स्यात् । केवलिनां मेव ॥ ९ ॥ ११ १- पर्याय- ब० । २-हारशुक्र- शा०, २०, ३०३ एकयती मन्व० त०] ४ कस्य प्रति देवष्टो ना०, ब० द० - कस्य प्रतिषेधां द्रष्ट०० १-पज्जय म० । ६ दोणि ०, ० । ७ मिश्रः द० आ०, ब० । त्रितयं च व-० । ९पिनि-ता०, ब० । सा०, ब० । ११ - नामाहार- भा० 1 आ०, ६०, १० क्षायिकम् १० श्यानुवादेन षड्लेश्यानां सम्यक्त्वत्रयमपि स्यात् । निर्देश्यानां " क्षायि कमेव ॥ १० ॥ भध्यानुवादेन भव्यानां त्रयमपि । अभव्यानामेकमपि नास्ति ॥ ११ ॥ सम्यक्त्वानुवादेन यत्र यत्सम्यक्त्वं तत्र तदेव ॥ १२ ॥ संज्ञानुयादेन संज्ञिनां सम्यग्दर्शनत्रयमपि असंज्ञिनामेकमपि नास्ति । ये तु न झिनो नाप्यसंज्ञिनस्तेषां क्षायिकमेव ॥ १३ ॥ आहारानुवादेन आहारकाणां सम्यग्दर्शन त्रयमपि । छद्मस्थानाम नाहारकाणां त्रितमपि सम्यग्दर्शनम् । समुद्वातप्राप्तानां केवलिनां क्षायिकमेव ॥ १४ ॥ सम्यग्दर्शनस्य साधनं द्विप्रकारम् - आभ्यन्तर बाह्यभेदात् । तत्राभ्यन्तरं सम्यग्दर्श---नस्य साधनं दर्शनमोहस्योपशमः क्षयोपशमः क्षयो वा । माझं सम्यग्दर्शनस्य साधनं नारकाणां प्रथमद्वितीयतृतीयनरकभूमिषु केषाचिजातिस्मरणं केषाविचद्धर्मश्रवणं केपाञ्चिद्वेदनानुभवनम् | चतुर्थ्यादिसप्तमी पर्यन्तासु . नरभूमिषु नारकाणां जातिस्मरणवेदनाभिभवी सम्यग्दर्शनस्य साधनम्। तिर्यक्मनुष्याणां २५ ..जातिस्मरणधर्म श्रवणजिनबिम्बदर्शनानि । देवानां सम्यग्दर्शनस्य साधनं केषाचिज्जातिस्मरणम्, अन्येषां धर्मश्रवणम्, अपरेषां जिनमहिमदर्शनम्, इतरेषां देवर्द्धिदर्शनं सहसारपर्यन्तम् आनतप्राणतारणाच्युतदेवानां देवर्द्धिदर्शनं सम्यग्दर्शनस्य साधनं १५ २० Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्वार्थवृत्ती __ [ ११७ मास्ति, जातिस्मरण-धर्मश्रवण-जिनमहिमदर्शनानि च वर्तन्त । नवप्रवेयकदेवानां केषाकिचज्जातिस्मरणम् , अपरेशं धर्मश्रवणम् । प्रैवेयकवासिनामहमिन्द्रत्वात् कथं धर्मश्रवणमिति चेन् ? उच्यते-तत्र कश्चित् सम्यग्दृष्टिः परिपाटी करोति, शास्त्रगुणनिकां करोति, सामाकर्यान्यः कोऽपि तत्र स्थित एव सम्यग्दर्शनं गृहाति । अथवा, प्रमाणनयनिक्षेपास्तेषां ५ न विद्यन्ते, तत्त्वविचारस्तु लिङ्गिनामिव विद्यत इति नास्ति दोपः । अनुदिशानुत्तरबिमानदेवास्तु पूर्वमेव गृहीतसम्यक्त्वास्तत्रोत्पद्यन्त 1 तेन तेषां जातिम्मरणधर्मश्रवणकल्पना नास्ति। ___ अधिकरणं द्विप्रकारम्-अभ्य(आभ्यन्तर-बाह्यभेदान् । (आ)भ्यन्तरं सम्यग्दर्शनस्याधिकरणमात्मैय | वाह्यमधिकरणं सम्यग्दर्शनस्य चतुर्दशगज्यायामा एकरजुविष्कम्भा १० लोकनाडी वेदितव्या। जीवाकाशपुद्रलकालधर्माधर्माणां निश्चयनयन स्वप्रदेशा एवाधि करणम् । व्यवहारेण आकाशरहितानामाकाशमधिकरणम् । जीवस्य शरीरक्षेत्रादिर वधिकरणम् । मुदलकुटाद्विपुद्गलानां भूम्याटियाधारः । जीवादिद्रव्यगुणपर्यायाणा मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ज्ञानसुपादिरूपादिरधिकरणं-घटादीनां (रूपादिघटादीनां ) जीवादिद्रव्यमेवाधिकरणम् । इत्याद्यधिकरणं वेदितव्यम् । औपशमिकस्य सम्यग्दर्शनस्य उत्कृष्टा निकृष्टा च स्थितिरन्तर्मुहूर्तः । क्षाथिकस्य सम्यग्दर्शनस्य स्थितिः संसारिजीयस्य जघन्यान्तर्मुहूर्तिकी ( स्तमौहूर्तिकी ) । उत्कृष्टा तु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि । कथम्भूतानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि ? अन्तर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्षहीनपूर्वकोटियसहितानि । तत्पश्चात् क्षायिकसष्टेः संसारो निवर्तते । तथा हि-कश्चित् कर्मभूमिजो मनुष्यः पूर्वकोट्यायुरुत्पन्नी गर्भाष्टमवर्षानन्तरमन्तर्मुहूर्तेन २० दर्शनमोहं क्षपयित्वा क्षायिकसदृष्टिभूत्वा तपो विधाय सर्वार्थसिद्धावुत्पद्य ततश्च्युत्वा पूर्वकोट्यायुरुत्पद्य कर्मक्षयं कृत्वा मोक्षं याति, भवत्रयं नातिकामति । मुसजीवस्य साद्यनन्ता झायिकसम्यग्दर्शनस्य स्थितिर्वेदितव्या । वेदकस्य जघन्या स्थितिरान्तमौहूर्तिकी । वेदकस्योत्कृष्टा स्थितिः षट्षष्टिसागरोपमानि । सा कथम् ? सौधर्मे द्वौ सागरौ, शुके पोडश सागराः, शतारे अनादश सागराः, २५ अष्टमप्रवेयके त्रिंशत्सागराः, एवं पट्यष्टिसागराः । अथवा, सोधर्मे द्विरुत्पन्नस्य चत्वारः सागराः, सनत्कुमारे सप्त सागराः, ब्रह्मणि दश सागराः, लान्तवे चतुर्दश सागराः, नवम4वेयके एकत्रिंशत्सागराः, एवं षट्षष्टिः । अन्त्यसागरशेष मनुष्यायुहीन क्रियते तेन षट्षष्टिसागराः साधिका न भवन्ति ।। सर्वजीवानां द्रव्यापेक्षयाऽनाद्यनन्ता स्थितिः, पर्यायापेक्षया एकसमयाक्षिका ३० स्थितिः । वागास्त्रबस्य मानसास्रवस्य च जघन्यन एकसमयः, उत्कर्पण घटिकाद्वयम् , मध्यमा १५ -निव-द०, भा०, ५० २-न्ते तेषां श्रा०, २०, २० । ३-रधिकरणम्' इति पाठः निरर्थको भाति । ४. सम्यग्दृष्टेः श्रा०, प० । ५-श्चुरवा ताव.-रन्त हर्तिकी प्रा०, य०, २०, २० । .- सस-आर, ब., प० । ८-समयादिकस्थितिः द०, आ., 4.। ९ मनसासवस्य मा .। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरस्य जघन्या स्थितिरन्तमुहूर्तः । उत्कृष्टा पूर्वकोटी देशोना । निर्जराया जघन्या स्थितिरेकसमयः, उत्कृष्टा अन्तर्मुहूर्तः । मोक्षस्य स्थितिः साग्रनन्ता । 1. विधानम् - सम्यग्दर्शनं कतिभेदम् ?' इति केनचित् पृष्ठे सामान्येन सम्यग्दर्शनमैकमेव । विशेषेण निसर्गजाधिगमजविकल्पात् द्विविधम उपशम-वेदक- क्षायिकभेदात् १० विविधम्। दशविधव । तदुक्तम् ना 看 -1: ० प्रथमोऽध्यायः १२ निर्मुहूर्तः । कायासवस्य च जघन्येन एकसमयः, उत्कर्षेणानन्तकालः । तत्कंथwwww: स्थिते ? एकस्मिन्नेव कार्य मृत्या मृत्वा स एव जीव उत्पद्यते, अन्ये अन्य 1. बन्धस्थितिर्वेदनीयस्य जघन्या द्वादश मुहूर्ताः । नामगोत्रयोरष्टौ मुहूर्ताः । शेषाणामधन्वा स्थितिः । ज्ञानदर्शनावरण वेदनीयान्तरायाणामुत्का स्थितिः त्रिशत्सागमोदीकोटयः | मोहनीयस्योत्कृश स्थितिः सप्ततिसागरोपमकोटो कोट्यः । नामगोत्रयो- ५ स्थितिविंशतिखागरोपमकोटीकोट्यः । आयुष्कर्मण उत्कृष्टा स्थितिः त्रयस्त्रिंशत्सागरा - “ आज्ञा मार्ग समुद्भवमुपदेशात् सूत्रबीजसंक्षेपात् । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज 'विस्ताराभ्यां भवमव परमावादि गाई च ॥ १ ॥” "अस्या आर्याया विवरणार्थं वृत्तत्रयमाह । तथा हि "आज्ञा सम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरुचितं वीतरागाज्ञयैत्र त्यक्तग्रन्थप्रपञ्चं शिवममृतपथं श्रदधन्मोहशान्तेः । मार्ग श्रद्धानमाहुः पुरुषवरपुराणोपदेशांपजाता या संज्ञा नागभाब्धिप्रसृतिभिरुपदेशादिरादेशि दृष्टिः ॥ १ ॥ आचारसूत्रं सुनिचरणविधेः सूचनं श्रद्दधानः सूक्तासौ सूत्र दृष्टिर्दुरधिगमगतेरर्थसार्थस्य बीजैः । कैश्विजातोपलब्धैरसमसमवशाद् बीजदृष्टिः पदार्थान् [ आत्मानु० ० ११] संक्षेपेणैव बुद्ध्वा रुचिमुपगतवान् साधुसंक्षेपदृष्टिः ॥ २ ॥ यः श्रुत्वा द्वादशाङ्ग कुतरुचिरिह तं विद्धि विस्तारदृष्टि संजातार्थात्कुतश्चित्प्रचच नवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टिः । दृष्टिः साङ्गाङ्गवाल प्रवचनमवगाह्योत्थिता याऽवगाढा कैवल्य लोकिताथै रुचिरिह परमाबादिगादेति रूह || ३ || " [ आत्मानु० ० १२-१४ ] ५न्तर्मुहूर्ताः ६० आ०, ब० , २ कथं तत्कालस्थितिः आ०, ब० । कथमनन्तकाल स्थितिः ० । ३ अन् वा ३० आ०, ब० । ४ आयुकर्मणः सा० । ५ द्विधम् आ०, ब० । ३ बिस्तरा - सोपलब्धेरन्द्र । वाक्यमिदं वा प्रतौ नास्ति । १५ २० २५ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 तत्त्वार्थवृसौ [११८ एवं संख्येयविकल्पं सम्यग्दर्शनप्ररूपकशब्दानां संख्यातत्वान् । अखायक-श्रद्धासठयभेदादसंख्येया अनन्ताश्च सम्यग्दर्शनस्य भेदा भवन्ति । तदपि करमाल् ! अद्धायकानां भेदोऽसंख्यातानन्तमानावच्छिन्नः श्रद्धायकवृत्तित्वात अद्धेयस्याप्येतदवच्छिन्नत्वम्, असंख्येयानन्तभेदस्तद्विषयत्वात् । एवं निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानविधिर्यथा ५ योजितस्तथा जाने चारित्रे च सूत्रानुसारेण योजनीयः । आस्रवो द्विविधः-शुभाशुभविकल्पान् । तत्र कायिक आसषः हिंसानृतस्तेयाब्रह्मादिषु प्रवृत्तिनिवृत्ती । वाचिकालवः परुषाक्रोशपिशुनपरोपघातादिषु वचस्सु प्रवृत्तिनिवृत्ती । मानस आत्रयो मिथ्याश्रुत्यभिप्रातेासूयादिषु मनसः प्रवृशिनिवृत्ती ।। बन्धो द्विविधः-शुभाशुभभेदात् । चतुर्धा-प्रकृतिस्थिस्यनुभवप्रदेशभेदात् । २५ पञ्चधा-मिध्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगभेदात् । अष्टधा-शानावरणादिभेदात् ।। आस्रवभेदात संवरोऽपि तद्भेदः । “आस्रवनिरोधः संवरः" [त० सू० ९।१] इति वचनात् । निर्जरा द्विधा यथाकालीपकमिकभेदान् | अष्टधा-ज्ञानावरणादिभेदात् । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधांसांगर जी महाराज "ज्ञान सामान्यादेकम् । द्विधा-प्रत्यक्षपरोक्षतः । पञ्चधा-मत्यादिभेदात् । चारित्र सामान्यादेकम् । विधा-यालाभ्यन्तरनिवृत्तिभेदात् । त्रिघा-उप (औप) शमिक-क्षायिक-मिश्रभेदात् । पञ्चधा-सामायिक-छेदोपस्थापना-परिहारविशुद्धि-सूक्ष्मसाम्पराय-यथाख्यातभेदात् । इत्यादिविधान वेदितव्यम् ।। अथ जीवादीनामधिगमो यथा प्रमाणनयैर्भवति तथा निर्देशादिमिःषभिश्च भवति तथान्यैरपि कैश्चिदुपायैरधिगमो भवति न वा ? इति प्रश्ने सूत्रमिदमुच्यते२० सत्सङ्ख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ॥ ८॥ 'सत्' शब्दो यद्यष्यनेकार्थो वर्तते, “साध्वर्चितप्रशस्तेषु सत्येऽस्तित्वे च सन्मतः।" [ ] इति वचनात् , तथाप्यत्रास्तित्वे गृह्यते नान्यत्र । सञ्जयाशब्देन भेदगणना वेदितव्या। क्षेत्रं निवास उच्यते । स तु वर्तमानकालविषयः । क्षेत्रमेव त्रिकालगोचरं स्प शैनमुच्यते । मुख्य-व्यावहारिकविकल्पान् कालो द्विप्रकारः। विरहकालोऽन्तरं कथ्यते । २५ औपशमिकादिलक्षणो भावः । परस्परापेक्षया विशेषपरिज्ञानमल्पबहुत्वम् । सम संख्या व क्षेत्रं च स्पर्शनं च कालश्चान्तरं च भाववाल्पबहुत्वं च सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वानि, वैस्तथोक्तः । चकारः परस्परं समुपये वर्तते । तेनायमर्थः-न फेवल १.त्वात् एवं भा०, ब०, द. | २-विधानतः वि-मार, ०, २० । ३ हिंसास्तेया-ता, ..। ४-दात् आमव-मा०. 4०, ६० । ५ द्विविधा आ०, २०, ५० । ६-कालोपक्रमिकानोपक्रमिकभे-भा०, ब०, १०। ७ "संतपरूवणा दव्यपमाणाणुगमो नेताणुगमो फोसणाणुगलो कालाणुगमो अंतराणुगमो भावाणुगमो अन्याबहुगाणुगमो चेदि ।"-पसडा० ।। ८ "सत्ये साधी विद्या माने प्रास्तेऽम्पर्चिते च सत् ।" इस्कार। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312] १५ प्रमाणनयैर्निर्देशादिभिश्च सम्यग्दर्शनादीनां जीवादीनाञ्चाधिगमो भवति । किन्तु सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावात्पबहुत्वैश्च अष्टभिरनुयोगैञ्चाधिगमो भवति । ननु निर्देशात् सत् सिद्धम्, विधानात् संख्यापि ज्ञायते, अधिकरणात् क्षेत्रस्पर्शनareकारो भविष्यति, स्थितिग्रहणात् कालो विज्ञायते, नामादिसङ्गृहीतो भावश्च वर्तते, पुनः सदादीनां ग्रहणं किमर्थम् ? साधूक्तं भवता । शिष्याभिप्रायवशादेषां प्रणम् । केचि ५ च्छिष्याः संक्षेपरुचयः केचिद्विस्तर प्रियाः अन्ये मध्यमत्व सन्तोषिणः । सत्पुरुषाणां तूयमः सर्वजीवोपकारार्थ इति कारणादधिगमस्त्राभ्युपायः कृतः । अन्यथा प्रमाणन ये- ' रेवाधिगमो भवति, अपर प्रणमनर्थकं भवति । रात्र तावज्जीवद्रव्यमुद्दिश्य सदाद्यधिकारो विधीयते । ते तु जीवाश्चतुर्दशं गुणस्थानेषु तिष्ठन्ति । कानि तानीति चेत् ? उच्यते - मिध्यादृष्टिः || १ || सासादनसम्य- १० ष्टिः || २ || सम्यमिध्यादृष्टिः ॥ ३ ॥ असंयतसम्यग्दृष्टिः || ४ || देशसंयतः ॥ ५ ॥ प्रनत्तसंयतः || ६ || अप्रमत्तसंयतः ॥ ७ ॥ अपूर्वकरणगुणस्थाने उपशमकः क्षपकः ॥ ८ ॥ अनिवृत्तिबादरसाम्परायगुणस्थाने उपशमकः क्षपकः ॥ २ ॥ सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थाने उपशमकः क्षपकः || १८ || उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थः ॥ ११ ॥ क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थः || १२ || सयोगकेवली ॥ १३ ॥ अयोगकेवली चेति ॥ १४ ॥ अमीषां जीव- १५ प्रथमोऽध्यायः समासानां प्ररूपणार्थं चतुर्दश मार्गणास्थानानि ज्ञातव्यानि । तथा हि - गतयः ॥ १ ॥ मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज इन्द्रियाणि || २ || कायाः ॥ ३ ॥ योगाः ॥ ४ ॥ वेदाः ॥ ५ ॥ कषायाः || ६ || ज्ञानानि || ७ || संयमाः ॥ = ॥ दर्शनानि ।। ९ ।। लेश्याः ॥ १० ॥ भव्याः ॥। ११ ॥ सम्यक्त्वानि ॥ १२ ॥ संज्ञाः ॥ १३ ॥ आहारकाचेति ॥ १४ ॥ गुणवनेषु सत्प्ररूपणा द्विप्रकारा सामान्यविशेषभेदात् । तत्र सामान्येन अस्ति २० मिथ्यादृष्टिः, अस्ति सासादनसम्यन्द्रष्टि, अस्ति सम्यग्मियादृष्टिः अस्ति असंयतसम्यम्हापेः, अस्ति संत्रतासंयतः अस्ति प्रमत्तसंयत इत्यदि 'चतुर्दशसु गुणस्थानेषु वक्तव्यम् ! विशेषेण गत्यनुवादेनं नरकगतौ सप्मस्वपि पृथिवीषु मिध्यादृष्टयादिचत्वारि गुणस्थानानि वर्तन्ते । तिर्य्यग्गतौ देशसंयतान्वानि पञ्च गुणस्थानानि सन्ति | मनुष्यगतौ चतुर्दशापि जाति । देवगती आद्यानि चत्वारि विद्यन्ते । एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु प्रथमं गुणस्थानं धियते । पञ्चेन्द्रियेषु इन्द्रियानुवादे चतुर्दशाप्यासते । कायानुवादे प्रथिव्यादिपञ्चकायेषु प्रथमं गुणस्थानं जागर्ति । त्रसकायेषु चतुर्दशापि विद्यन्ते | १- नयैरधि-मा०, ब०, द० । २- दशगुण-आ०, ब०, १०, १० । ३ उच्यन्ते श्र०, ३० द० । ४ - जी अमी ला०, ब०, १० । ५ षट्खण्डा० १२-४ । ६ - कति आ०, २००७ षट्खं० ११८-२२८ चतुर्दश गुण-भा०, ब०, २०, ३० । ९ षट्सं०] १।२५-२९ | १० षट्खं०] १३६, ३७ | ११ पटुखं० १ ४२, ४४ ॥ २५ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११८ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज सत्वार्थवृत्ती योगानुवादेनं त्रिषु योगेषु सयोगकेवल्यन्तानि त्रयोदश गुणस्थानानि ध्रि पन्ते । तत्पश्चादयोग केवली। वेदानुवादेन त्रवाणां वेदानाम् अनिवृत्तिपादरा नानि नव विद्यन्ते । वेदरहितेषु' अनिवृत्तियादराद्ययोगकेवल्यन्तानि षट् गुणस्थानानि दातव्यानि । ननु एकस्यैव अनि५ वृत्तियादरगुणस्थानरप सवेदत्वमवेदस्वञ्च कथमिति चेत् ? भण्यते-अनिशिगुणस्थानं षट्मागीक्रियते । तत्र प्रथमभागत्रये वेदानामनिवृत्तित्वात् सवेदत्वम् । अन्यत्र वेदानां निवृत्तित्यादवेदत्वम् । ___षावानुवादेर्ने क्रोधमानमायासु अनिवृत्तिबादरगुणस्थानान्तानि नव दातव्यानि । लोभकषाये मिथ्यामुष्ट यादीनि दश । उपशान्तकषायक्षीणकषायसयोगकेवल्ययोगके१० बलियतुष्टये अकषायाः। मानानुशदेने मत्यज्ञानश्रुताज्ञान विभङ्गज्ञानेपु आधै गुणस्थानद्वयमस्ति । सम्यम् मिध्याः ज्ञानमज्ञानञ्च केवलं न सम्भवति तस्याज्ञानत्रयाधारत्वात् । उक्तञ्च ___ "मिस्से पाणत्तयं मिस्सं अण्णाणत्तयेण" [ ] इति । सेन ज्ञानानुवादे मिश्रस्यानभिधानम् , तम्याज्ञानप्ररूपणायामेवाभिधानं ज्ञानं १५ ज्ञातव्यम् , ज्ञानप यथावस्थितार्थविषयत्वाभावान् । मतिश्रुतावधिज्ञानेषु क्षीणकषायान्तानि असंयतसम्यग्दृष्टयादीनि नव वर्तन्ते । मनःपर्ययज्ञाने प्रमत्तसंयतादीनि झोणकषायान्तानि सप्त गुणस्थानानि सन्ति । "केवलज्ञाने सयोगोऽयोगश्च गुणस्थानद्वयं वर्तते । ___ संयमानुवादेर्न सामायिकच्छेदोपस्थानशुद्धिसंयमद्वये प्रमत्तादोनि चत्वारि गुणस्थानानि । “परिहारविशुद्धिसंयमे प्रमनाप्रमत्तनम् । सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयमे सूक्ष्मसा२० म्परायगुणस्थानमेकमेव । यथाख्यातबिहारशुद्धिसमे उपशान्तकषायादीनि चत्वारि गुणस्थानानि भवन्ति । देशसंगमे देशसंयमगुणस्थानमेकमेव । असंयत्ता आदिगुणस्थानचतुष्टये भवन्ति । दर्शनानुयादेनं चक्षुरचक्षुर्दर्शनयोः आदितो द्वादश गुणस्थानानि भवन्ति । अवधिदर्शने असंयतसदृष्यादीनि गुणस्थानानि नव भवन्ति । केवलदर्शने "सयोगायो२५ गद्वयं भवति । १ षट्खं० 1180-100। २ घटखं० १.१.१-१.३ । ३ षटखं० १।१०। ४ पर खे० 11५१-११५ । '-लिनश्च येते क -मा., य., ह । ६ षट्वं० १।११५-२२ । • आद्यगुणता. "सम्मामिन्छाइटठिठाणे तिणि चि गाथाणि आण्णाणेण मिस्साणि | आभिणियोदियणाणं मदिअण्णाण मिस्सियं, मुदणाणं सुदअण्णागेण पिस्सियं, ओहिणाग त्रिभंगणागेश मिस्सियं, सिणिण विणाणाणि अण्णाणेण मिस्साणि वा ॥"-पटर, १।११५। १ सम्बगियाहानिस्य । १० "केवलणाणी तिसु ठाणेसु सजोगकेवली अजोगवली सिद्धा चेदि ।”-षटख० १।१२२ । ११ षट्व०१।१२५. १२६ । १२ परिदारशुद्धि-ता० । १३ षट्रपं० १।१३२-१३४ | १४-नि नव गुणस्थानानि भव-मा०, म, १०। १५ "केवलदसणी तिस हाणेसु सजोगिकेवली अजोगिकेवली सिद्धा वेदि ।"-षट् स्खें1|३५ / -. -.-- Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] १७ प्रथमोऽध्यायः लेखामुवादेन कृष्णनीलंकापोतलेवासु मिथ्याट्यादीनि पत्यारि गुणस्थानानि भवन्ति । लेजपालेश्ययोरादितः सप्त गुणस्थानानि । शुक्ललेणयामावितस्त्रयोदश गुणस्थानानि सन्ति । चतुर्दश गुणस्थानमलेश्यम् । भव्यानुवादेनं भव्येषु चतुर्दशापि गुणस्थानानि भवन्ति । अभव्येषु प्रथममेव मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज गुणस्थानं सत्। ___ सम्यक्त्वानुवादेने क्षायिकसम्यक्त्वे असं पतसद्दष्ट्यादीनि एकादश गुणस्थानानि भवन्ति । वेतकसम्यक्त्वे चतुर्थादीनि चत्वारि । औपशामिकसम्यक्त्वे चतुर्थादानि अष्ट गुण- . स्थानानि सन्ति। सांसादनसम्बनी सासादनगुणस्थानमे कमेव । सम्मग्मिध्यादृष्टी सम्यारमध्यादृष्टिगुणस्थानमेकमेव । मिध्याही मिमादृष्टिगुणस्थानमेकमेव।। ___संयनुवादेने सन्निषु आदितः द्वादश गुणस्थानानि सन्ति । असजिषु प्रथममेव १० गुणस्थानं सत् । अन्त्वगुणस्थानद्वयं सयसंझिव्यपदेशरहितम् । आहारानुवादेन आहारकेषु आदितः त्रयोदश गुणस्थानानि सन्ति । अनाहारकेषु विमगतिषु मियादृष्टि-सासादनसदृष्टि-अर्सयतसदृष्टिगुणस्थानत्रयमस्ति । समुद्धाताक्सरे सयोगकेवली अयोगफेवली । सिद्धाश्च गुणस्थानरहिताः । इति सत्प्ररूपणा समाप्ता । अथ संख्याप्ररूपणा प्रारभ्यते । संख्या द्विप्रकारा-सामान्यविशेषभेदात् । सामा- १५ न्येन मिथ्यादृष्टयो" जीवा अनन्तानन्तसंख्याः । सासादनसम्यग्दृष्टयः सम्बग्मियादृष्टयः असंयत्तसम्यग्दृष्टयो देश संयताश्च पल्पोपमासंख्येयभागसंख्याः । तथाहि-"द्वितीये गुणस्थाने वापञ्चाशत्कोटयः ५२००००००० । "तृतीये गुणस्थाने चतुरधिकशतकोटयः १०४२०००००० | चतुर्थ गुणस्थाने सप्रशतकोटयः ७००००००००० । पञ्चमगुणस्थाने त्रयोदशकोटयः १३००६८००० । उक्तञ्च - "तेरहकोडी देसे पावण्णा सासणा मुणेयवा। मिस्सम्मि य ते दूणा असंजया सत्तसयकोडी ॥" [ ] प्रमत्तसयताः" कोटिपृथक्वसंख्याः । पृथक्त्वमिति कोऽर्थः ? आगमभापया १ षट्खं० १११३६-१७. १ २-लकण-भा., ०१०। ३-नि भवन्ति शु-या। षटसं. १।१४२-१४३ । ५ षट्वं० १।१५-1१७ । सासादनस्य सम्य-ता. | " पटक. 1१0३-१७४। प्रथममेकमेष भा.,401 संशासंशि-आ०,०,१०० पटव०७४1011 षट्स इ.२ । १२ षटसं० २०६द्वितीयगु-मा०, २०, ५० । नृतीयगुभा०,०, द.। १५ "त्रुतं च तेरहकोडी देस बावण ॥अहवा, तेरहकोडी देसे पण्णास सासणे मुणेयवा | मिस्से वि य तदुगुणा असंजदे सत्तकोडिसया ॥"-४० टी० द.पू. २५६ । प्रयोदशकोटयो देश द्वापञ्चाशत् सासादना मन्तव्याः । मित्रे च ते दिगुणा असंयताः सप्तशतकोटयः ॥ १६-य त - भा०, ब, ज०, २०। १७ गो. जी. गा० ६४२ । १४ पटी... | स. सि. 1 | मो, जी. गा० १२५। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५८ " मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविहितामको म्हाराज सिसृणां कोठीनामुपरि नकार्ना कोटीनामधस्तात् पृथक्त्वमिति संज्ञा । तथापि प्रमतसंयसा न निर्धारयितुं शक्याः । तेन तत्संख्या कथ्यते-कोटिपश्चकं विनवतिलक्षा अष्टानयतिसहस्राः शतद्वयं षट् च वेदितव्याः ५५.३९८२०६ । अप्रमत्तसंयता संख्येयाः। सा संख्या न सायप्ठ इति चेत; अफयते-कोटिद्वयं षण्णवतिलक्षा नवनवतिसहस्राः ५ शतमेकं त्रयाधिकम् । प्रमत्तसंयतार्धपरिमाणा इत्यर्थः । २९६९९१०३ । सदुक्तम्' - "छस्सुण्ण-वैण्णि-अट्ठ य णय-तिय-णव पंच होति पम्मता । ताणद्धमप्पमचा गुणठाणजुगे 'जिणुट्ठिा ।" [ ] अपूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसाम्परायोपशान्तकपायाः चत्वार उपशमकाः । ते प्रत्येक एकत्रकत्र गुणस्थाने अष्टमु अष्टसु समयेषु एक िमनेकस्मिन्समये यथासंख्य १० षोडश-पतुर्विशति त्रिंशत्-पट्त्रिंशत् - द्विचत्वारिंशत्-अप्रचत्वारिश-चतुष्पश्चाश-चतुष्प व्चाशत् मवन्तीति । अष्टसमयेषु चतुर्गुणस्थानवर्तिनां सामान्येन उत्कृष्टा संख्या१६।२४॥३०॥३६॥४२॥४८॥५४।५४ । विशेषेण तु प्रथमादिसमयेषु एको वा द्वौ वा त्रयो वा चैत्यादि षोडशाद्युत्कृष्टसंख्या यावत् प्रतिपत्तव्याः । उक्तरुच "सोलसगं चदुबीस तीस च्छत्तीसमेव जाणाहि। __ वादाल अडदालं दो चउवण्णा य उवसमग्गा ॥"[ ] ते तु स्वकालेन समुदिताः संस्येया भवन्ति नवनवत्यधिकशतत्यपरिमाणा “एककत्र गुणस्थाने भवन्तीत्यर्थः । २९९ । तदुक्तम् - "पवणवदो एकठाण उवसंता ।" [ ] ननु "चाटसमयेषु षोडशादीनां समुदितानां चतुरधिकं शतत्रयं भवति कयमुक्त २० नवनवत्यधिकं शतद्वयम ? सत्यम् । "अष्टसमयेषु औपशमिका निरन्तरा भवन्ति परिपूर्णा K -स्तात्तु पू-साथ, ब०, द. | २ "पुधनमिदि तिण्ई कोहीणमुवरि णवह कोडीणं हेहदो जा संखा सा घेसव्वा ।"-१० टी०. 5. पृ० ८१ । ३ शक्काः भा०, २०,०। ४ पटसं० २० ८।५-मेकं अधि-भा, ब.। ६ “वृत्तं च-तिगहियसदगावणउदी छण्णउदी अप्पमत्त बे कोडी। पंव २ रेगउदी गवविसया छ उत्तरा चे य "-4. टी. द. पृ. ।। पो० मी. गा० १२३६७ जिदिडा ता.., २०, २० । षट् शून्यम द्वौ अष्ट च नव त्रीणि नव पञ्च भवन्ति प्रमत्ताः । तेषामईमप्रमत्ता गुणस्थानयुगे जिनोहिष्टाः ।। ८ “चदुण्हमुवसामगा दवपमाणेण केवडिया ? पवेसण एको वा दो या तिणि वा उकस्सेण च उवष्य ।"-पटसं० २०११ आधगुणसमयेषु एकमा० ब०, ब.। १. ध. टी. पृ. ५ , षोडशचतुर्विंशतित्रिंशत्पत्रिंशदेव जानीहि वाचत्वारिंशतः अधचत्वारिंशत् दी चतुःपञ्चाशत् च उपशमकाः || १२ एकत्रयिक गुण-ता। 11-ठाणे. उ-पा०,.२०. २० । नव नव दो एकस्थान उपशान्ताः | १५ चाष्टमस-आ.,.,१०। १५-धिकशत-मा०, १०, ६० । १६ अष्टमस-आ०, प० । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स] १९ प्रथमोऽध्यायः श्रीदर्शक लयमा सचिहासागरभवन्तिाहाहात चतुर्गुणस्थानयर्तिनामपि उपशमकानां समुदिताना पण्णवत्यधिकानि एकादश शतानि भवन्ति ।। ११९६ ॥ अपूछकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसाम्परायक्षीणकषाचायोगकेवलिनश्च- एतेषामष्टधा समयक्रमः पूर्ववद् द्रष्टव्यः, कंवलं तेषामुपशमकेभ्यो द्विगुणसंख्या । तदुक्तम् "सोर्स अडदाल सट्ठी बाहसरी य चुलसीदी। च्छष्णउदी अठुत्तरअठुत्तरसयं च बोधव्वा ॥" ३२४८६०।०२।८४।५६।१०८१५८ । बत्रापि एको वा द्वौ वा त्यो वा इत्याधुत्कृष्टाटसमयप्रवेशापेक्षयोक्तम् , स्वकालेन समुदिताः प्रत्येकम् अष्टनवत्युत्तरपञ्चशतपरिमाणा भवन्ति ।। ५९८ || नन्वत्रापि पशसानि अष्टाधिकानि भयन्ति कथमष्टनवत्यधिकानि पञ्चशतान्युक्तानि ? सत्यम ; उपशम. १० हेषु यथा पञ्च हीयन्ते तथा क्षपके द्विगुणहानी 'दश हीयन्ते । तेन एकगुणस्थाने फवशतानि अष्टनवत्यधिकानि भवन्ति । ५३८ गुणस्थानपञ्चक्रवर्तिनां क्षपकाणां गुणसमुदिवानां दशोनानि त्रीणि सहस्राणि भवन्ति । तदुत्तम"वीणकसायाण पुणो तिष्णि सहस्सा दमणया भणिया ।" [ ] ।। २९९० ।। सयोगकेवलिनामपि उपशमकेभ्यो द्विगुणत्वान् समयेषु प्रथमादिसमयक्रमेण १५ एको वा द्वौ वा त्रयो या चत्वारो वा इत्यादिद्वानिशहाद्युत्कृष्टसंख्यायावन् संख्याभेदः प्रतिपत्तव्यः । नन्वेवमुदाहृतक्षपकेभ्यो भेदेनाभिधानमेषामनर्थकमिति चेन; न ; स्वकालसमुदितसंख्यापेक्षया तेषां तेभ्यो विशेषसम्भवात् । सयोगकालनो हि स्वकालेन समुदिता लक्षपृथक्त्वसंख्या भवन्ति । अष्टलक्षाटनतिसहसवयोधकपकचशतपारमाणा भयन्ती- २० त्यर्थः ।। ८९८५०२।। तदुक्तम् - .. -..--- . . . .--- ----- - --- , "सकरसपमाणजीवसहिदा सन्य समया जुगवं ण लति त्ति के वि पुश्रुत्तपमाण पंचूग करेंति । पद पंचूर्ण वरखाण पवाइजमा दक्विणमाइरियपपरामानिदि जं बुरा हाइ । पुश्चत्तवस्खाणमपनाइजमाणं वार्ड आइरिबपरंपरा अगागदमिदि गाय-यं ।"-धेटी 5पृ० १२ । पन्चसं. लोक ५। २ द्विगुणा सं-आ०, २०, २०, ५० । "चउगई खवा अजागिकवली दवपमाण केवदिया ! पवेसण एका वा दो वा तिष्णि वा, उकरसंग अहोस सदं ।' घट खे० इ० ११ । ३ बावन्तभा०,०। ४ उद्धृतेयम् - घ. दी. ६० पूर १३ । मो० जी० गा• ६२७ । द्वात्रिंशत् अष्टचत्वारिंशत् पष्टिः वासप्ततिश्च चतुरदशीतिः । पग्णवतिरष्टोत्तराष्टोत्तरशतं च बोद्धव्याः ।। ५ इत्यायुस्त्वष्टायसमयमा० 1 ६ "एत्य इस अवणिदे दक्रिनगपाडवती वदि ।"-१० टीद्र० ९४ । क्षीणक्रयायाणा पुनः श्रीगि सहस्राणि दशोनानि भणिरानि। ८ "सजोगिकेवली दवषमाणेग केवडिया: पवेसणे एको का दो वा तिष्णि था, उकारण अद्दुतरसयं ।"-पट सं० २० १३। ५ त्रत्वारो इत्याग्रुत्कृष्टसंख्यान पापत् आ., १०, १.। १० उढतेयन्-ध- टी० ० ० ५६ । गोर 'जी. ६२० । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थचौ "अट्ठेर सयसहस्सा अट्ठाणउदो य तह सहस्साई। संखा जाव जिणाणं पंचव सया विउत्तरा होति ॥" ] सर्वेऽयेते प्रमशाद्ययोगकेवल्यन्ताः समुदिता उत्कर्षेण यदि कदाचिदेकरिमन् समये भवन्ति तदा त्रिहीननवकोटिसंख्या एव भवन्ति ।। ८९९९९९९७ ॥ अक्तच "सत्ताई अहंता छष्णषमा य संजदा सब्वे । अंजुलिमउलियहत्थों वियरबसुद्धो गर्मसामि ॥" [ ] इति सामान्यसंख्या समाता। अथ विशेषसंख्या प्रोग्यवे-विशेषेण गस्यनुवादेनं नरकगतौ प्रथमनरकभूमौ नारका मिथ्यादृष्टयोऽसंख्याताः श्रेणयः। कोऽर्थः ? प्रतरासंख्येयभागप्रमिता इत्यर्थः । १० अथ केयं श्रेणिरिति चेत् ? उच्यते-सप्तरज्जुकमयी मुक्ताफलमालावत् आकाशप्रदेमार्गदर्शक :- आचार्य प्रायोगिालयोहासाबविशेष इत्यर्थः। प्रतरासंख्येयभागप्रमिता इति यदुक्तं स प्रतरः कियान् भवति ? श्रेणिगुणिता श्रेणिः प्रतर उच्यते । प्रत्तरासंख्यातभागप्रमितानामसंख्यातानां श्रेणीनां यावन्तः प्रवेशाः तावन्तस्यत्र नारका इत्यर्थः। 'द्वितीय नरकभूम्यादिषु सप्तमी भूमिर्यावत् मिथ्यारष्ट्यो नारकाः श्रेयसस्येयभागप्रमिताः । १५ स चासंख्येयभागः असंख्येययोजनकोटिकोटयः । सर्वासु नरफभूमिषु सासादनसम्यग्दृष्टयः सम्यग्मिध्यादृष्टयः असयंतसम्यग्दृष्टयश्च पल्योपमस्याऽसंख्येयभागममिताः सन्ति । अथ सासादनादयः पुनरुच्यन्ते। तथा हि-देशविरतानां त्रयोदशकोटयः । सासादनानां द्विपञ्चाशत्कोटयः । मिश्राणां चतुरधिककोटिशतम् । असंयतसम्यग्दृष्टीनां कोटिशतानि सप्त । उताच "तेरसकोटी देसे बावणं सासणे मुणेयव्वा ।। तदुणा मिस्सगुणे असंजदा सत्तकोडिसया ॥" [ ] अन्न बालावबोधनार्थत्वात् पुनरूकदोषो न प्रायः। अथ "तिर्यग्गतिजीयसंख्या कथ्यते । तत्र मिथ्याट्टयोऽनन्तानन्ताः, सासाइनसम्यग्दृष्टयः सम्यग्मिध्यादृष्टयोऽसंयतसम्यग्दृष्टयो देशसयताः पल्यासंख्येयभागमिताः। २५ मनुष्यगतौ मिथ्याश्यः श्रेण्यसंख्येमभागमिताः । स स्वसंख्येवभागः असंख्ये. ययोजनकोटिकोटयः। सासादनसम्यग्दृष्टयः सम्यग्मिध्यादृष्टयः असंयप्तसम्यग्दृष्टयो । अष्टैब बातसहस्राणि अनमतिश्च तथा सहस्राणि । संख्या यावत् जिनानां पञ्चैव शतं धुत्तरं भवति ।। ५ गो• जी० गा० १३१।-इत्थे तियरणशुझे आ•, व...| सप्तादि अन्साः षट् मयमध्याभ संयताः सर्वे । अक्षालिमुकुलितइस्तः त्रिकरणशुद्धः नमस्करोमि ॥ ५ प्रारभ्यते भा० ., व.। । षट्र० ० १७, १३ • "कादो सत्तरसेवायामो ।"-10 टी. द. ५. ३५। मषटलं.द. २२ । १ तेरहको-Ne,.,.,.पो.मी. गा. . . १५-१९ -योऽनन्ताः ....। षट्स....-५२१ल्येया यो-मा.... Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽध्यायः संवता. संख्येयाः । प्रमत्तसंयतादीनां सामान्योक्ता संख्या । देवगतौ मिथ्यायोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्ये भागप्रमिताः । सासादनसम्पष्टिसम्परिमध्यादृष्ट्यसंयत्तसम्यग्दृष्टयः पल्यासंख्येवभागप्रमिताः । इन्द्रियानुवादेनं एकेन्द्रिया' मिथ्यादप्रयोऽनन्तानन्ताः। द्वित्रिचतुरिन्द्रिया असंमेयाः श्रेणयः, प्रतराऽसंख्येभागप्रमिताः । पञ्चेन्द्रियेषु प्रथमगुस्थाना असंख्येयाः श्रेणयः, ५ प्रवरासंख्येयमागप्रमिताः । पञ्चेन्द्रियेषु सासावनसम्यग्दध्यादयंत्रयोदशगुणस्थानक. सिनः सामान्योक्तसंख्याः। कायानुयाइने मृथिवकिजोवासपीकाप्रशिक्षिधासापोलत हाशजोऽयं लोका नाम ! मानविशेषः, प्रतरश्रेणिगुणितो लोको भवति । वनस्पतिकायिका अनन्तानन्ताः । क्सकायिकसंख्या पचन्द्रि यवत् । योगानुवादन मनोयोगिनो बायोगिनश्च मियादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रणयः, प्रप्तरासंख्ययभागप्रमिताः। काययोगिनो मियादृष्टयोऽनन्ताऽनन्ताः। त्रियोगवतां मध्ये मासादनसम्यग्दृष्टयः सम्यग्मिथ्यादृष्टयोऽसंयससम्यग्दष्टयों देशसंयताः पल्यासंख्येयभागप्रमिताः । प्रमसाधारणस्थानवर्तिनः संज्येयाः । अयांगकेवलिनः सामान्याक्तसंख्याः। वेदानुवादेन व वेदाः पुवेदाश्च मिध्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेण यः प्रतरासंख्येयभाग- १५ प्रमिताः । नपुंसकवेदा मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः। नावेदा नपुंसकवेदाश्च सासादनसम्बहष्टयादिचतुर्गुणस्थानवर्तिनः सामान्योक्तसंख्याः । प्रमत्तसंवतादयश्चतुर्गुणस्थानतिनः संख्येयाः । पुवेदाः सासावनसम्यग्दृष्ट्यादिचतुर्गुणस्थानवर्तिनः" सामान्यक्तिसंस्थाः । प्रमत्तस्यतादिचतुर्गुणस्थानबर्तिनः संख्ययाः सामान्योक्तसंख्याः । अवदा अनिवृत्तिबादरादयः षड्गुणस्थाना. सामान्योक्तसंख्याः ।। कषायानुवादेन कोधमानमायासु मिथ्याष्टि-ससादनसम्यग्दृष्टि-सभ्यम्मियादृष्टि असंयतसम्यग्दष्टि-संवतासंयताः सामान्योक्तसंख्याः। प्रमत्तसंबतादयश्चत्वारः संख्ययाः। छोभकषायाणामपि उक्त एव क्रमोस्त, परन्तु अयं विशेषा यत् सूक्ष्मसाम्परायसयताः सामान्योक्तसंख्याः । अकषाया उपाशान्तकषावादयश्वत्वारः सामान्यांतसंस्थाः। ज्ञानानुवादन मस्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनो मिथ्यारष्टयः सासादनसम्बम्हष्टयः २५ सामान्योक्तसंख्याः । कदवघयो मिनादृष्टयाऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासययमिताः। सासाइनसम्यम्दृष्टयो विभङ्गज्ञानिनः पल्योषमासख्येयभागममिताः । मतिश्रुतन्नानिनोऽसंयत्तसम्यगट्यादयो नवगुणस्थानाः सामान्योक्तसंख्याः। तृतीयमानिनः चतुर्थपञ्चमगुणस्था 1-घट्स०.५३-१३। २ घदखेप ३०७४ -८६ | ३-विवामि-आ०, ५०, ब०, द.। र-दयोदेश-भा०, ५०, द. । ५ पटलं. दू० ८५-१०२। ६ षट्स. द्र० ३.३-१२३ । ७-गुणमर्तिनः भा., स. १.। ८ पद्स. व. १२४-१३४, ९ सामान्योकसंख्या आ०, ब०, इ. । -नः संख्येचा सा-आ०, ०,१० । ११ पद्ख०. १३५-१४. १२-विसंय-वा० । १३ 0.13-101 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्यवृत्ती [स माः सामान्योक्तसंख्याः। प्रमत्तसंयतादयः सप्तगुणस्थानाः संख्येया: । चतुर्थनानाः प्रमत्तसे यतादयः सप्तगुणस्थानाः संख्येयाः । पंचमज्ञानाः सकोगा अयोगाश्च सामान्योक्तसंख्याः । संयमानुवादेन सामाथिकच्छेदोपस्थापनशुद्धिसंयताः प्रमत्तसंयतादयश्चतुर्गुणस्थानाः सामान्योक्तसंख्याः । परिहारशुद्धिसंयताः प्रमत्तसंघता अप्रमत्तसंयताश्च संख्येयाः । सूक्ष्म५ साम्परायशुद्धिसंयता यथाख्यातविहारशुद्धिसंयता देशसंयता असंयताश्च सामान्यो क्तसंख्याः | मार्गदर्शक :- आचाशनानुदिनसचक्षुदर्शनिनामियादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः, प्रतरासंख्येयभाग प्रमिताश्च । अचतुर्वनिनो मिश्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः । चक्षुर्दशनिनोऽचक्षुर्दनिनश्च सा सादनसम्यम्हट्याय एकादशगुणस्थानाः सामान्मोक्तसंख्याः । अवधिदर्शनिनस्तृतीय१० झानिवत् । केवलदर्शनिनः केवलज्ञानिवत । लेश्यानुवादेने कृष्णनोलकापोतलेश्यामु आदितश्चतुर्गुणस्थानाः सामान्योक्तसंख्याः । तेजःपद्मलेश्ययोरादितः पञ्चगुणस्थानाः स्त्रावेदवद् वेदितव्याः-मिथ्यारष्ट्रयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभागप्रमिताः, सासादनसम्यग्दृष्टि-सम्यग्मिवादृष्टयन यतसम्यग्दृष्टिसंपतासंयताः सामान्योक्तसंख्या वेदितव्या इत्यर्थः । तेजपालेश्वयोः प्रमत्ताऽप्रमत्त१५ संयताः संख्येयाः । शुक्ललेश पायामादितः पञ्चगुणस्थानाः पल्पोपासंख्येवभागप्रमिताः । शुक्ल लेश्यायां प्रमत्ताऽप्रमत्तसंयता संख्येयाः । शुक्ललेश्या चामपूर्वकरणादिसप्तगुणस्थानाः सामान्त्रोक्तसंख्याः । भव्यानुवादेन भव्येषु चतुर्दशसु गुणस्थानेषु सामान्योक्तसंख्याः। अभव्या अनन्तानन्ताः। सम्यक्त्वानुवादेनं क्षायिकसम्बम्हष्टिषु असंयतसम्यम्मष्यः पल्यासंख्येयभागप्रमिताः । क्षाधिकसम्यग्दृष्टिषु देश प्रतादयः सप्तगुणस्थानाः मख्य पाः । अपूर्वकरणक्षाका अनिवृत्तिकरणक्षयका सूक्ष्मसाम्परायक्षपकाः क्षीणकषायाश्चेति चत्वारः सयोगकेवलिनो:योगकेवलिनश्च सामान्योक्तसंख्याः । "बेदकसम्यग्दृष्टिषु असंयतसम्पग्दष्ट्यादयश्चनुर्गुणस्थानाः सामान्योक्तसंख्याः । २५ औपशमिकसम्पादटिपु असंयतसम्यग्दृष्टयो देशमयताश्च पल्यासंख्येयभागप्रमिलाः । औपशमिकसम्यग्द्रष्टिषु प्रमत्ताप्रमत्तसंवताः संख्येयाः। अपूर्वकरणोपमिका अनिवृत्तिकरणोपमिकाः सूक्ष्म साम्परायोपशभिका उपशान्तकयायाश्च सामान्योक्तसंख्याः । सासादनसम्परहष्यः सम्यग्मिथ्याहटवा मिथ्याइष्ट्रयश्च सामान्याक्तसंख्याः । 1-पक्षीणकपायान्ताः सं-१०। २ पञ्चम ज्ञानिनः द । ३ पटावं. द्र. १४०-१५ । ४ पर्ख ०६०५५५-१६१ । ५ षटरव ३० ३६२-६७१ । ६-पमाः अमरवेश-प्रा०, ब०, २०। ७ षट सं० २० १७२-७३ । ८ चतुशगु-श्रा, ब०, ३० | ९ पटख० द. १७४-१८४ | १० ज्ञायोंपरिकसम्बदृधि २०। ११-दत्यः अममतान्ताः सा-२०११२-दृष्टि संयवासंपता:प-द.। १३-ताः प्रमत्ताप्रमत्तसंपता: संख्येयाः चत्वारः उपशामकाः समायोकसंख्याः संज्ञानवादन द. । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] प्रथमोऽध्यायः संज्ञानुवादेन संझियु मिथ्यामन्यादयो द्वाष्टशगुणस्थानाः चक्षुर्दर्शनियम् । लथाहि-मिथ्यादृष्टयोऽमस्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभागममिताः । अन्य एकादश सामान्योकसंख्याः । असज्ञिनी मिध्याहटयोऽनन्तानन्ताः । न संन्निनो नास्यसज्ञिनः ये ते सामान्योक्तसंख्याः। आहारानुनादेन आहारकेपु आदितन्त्रयोदशगुणस्थानाः सामान्योक्तसंख्याः । आ- ५ नाहारकेयु मिश्यादृष्टयः सासादनसम्यग्दष्टयोऽभवतसम्यग्दृष्टयश्च सामान्योक्तसंख्याः । मिश्नास्तु अनाहारका न भवन्ति मृतेरभावात् । तथा चोक्तम् "मिश्रे क्षीणकषाय च मरणं नास्ति देहिनाम् । शेषेवेकाद शस्त्रास्त मृतिरित्यूचिरे विदः ॥" [ ] अनाहार के पु सांग र बलिनः संख्येमाः, यतः पुचित सोग वलिमु समुद्घातो १० वर्तते केपुचित समुद्घातो नास्ति ममें समपाताचावाद्वारकानालाहार योग केलिनः सामान्योक्तसंख्याः । इत्ति संध्यानुयोगः ममाप्तः । अथेदानी क्षेत्रप्ररूपणा कथ्यते । सामान्यविशेपभेदात् क्षेत्र द्विप्नकारम | नत्र तावन् मामान्येनं मियादीनां क्षेत्रं सर्वलोकः । सामादनसम्यग्दृष्टीनां सम्यग्मिध्याहष्टीनामसंवतसम्मग्दधीनां संवताऽसंग्रतानां प्रमत्तसंयतानामप्रमत्तसंयतानामपूर्वकर- १५ णानामनिवृत्तिवादरसाम्परावाणां सूक्ष्मसाम्बरायाणामुपशान्तकपाग्राणां क्षीणकषायाणामयोग वलिना श्रेत्रं लोकस्यासंख्येवभागः । सयोगकालनां लोकस्यासंख्येयभागः लोकस्यासंख्येयभागा वा सर्वलोको वा । स तु लोकरयाऽसंख्येयभागो दण्डकपाटापेक्षया ज्ञातव्यम् । तत्कथम ? देण्डसमुद्रात कायोत्सर्गेण "स्थितश्चेन द्वादशाङ्गलप्रमाणसमवृत्तं मूलशरीरप्रमाणसमवृनं वा । उपविष्टश्चेत् , शरीरनिगुण बाहुल्यं वायूनलोकोदयं रा प्रथ- २० मसमये करोनि । कपाटसमुदघातं धनुःप्रमाणबाहुल्योदयं" पूर्वाभिमुखकोन दक्षिणोत्तरतः करोति । उत्तराभिमुखोत पूर्वापरत आत्मप्रसर्पणं द्वितीयसमये करोति । एष विचार: संस्कृतमहापुराणपञ्जिकायामस्ति । प्रतरावस्थापेक्षा असंख्ये या भागा ज्ञातव्याः । प्रतरावस्थायां सयोगकेवली वातवलयनयादर्वागेव आत्मादेशैग्न्तिरं लोक व्याप्नोति । लोकपूरणावस्थायां वातवलपत्रयमपि व्याप्नोति । तेन सर्यलोकः क्षेत्रम्। . २५ विशेषेण तु गत्यनुवादेन नरकगती नारकाणां चतुर्पु गुणस्थानेषु सर्वासु पृथिवीषु लोकस्यासंख्य प्रभागः । तिर्यगती तिरश्वामादितः पञ्चगुणस्थानानां सामान्योक्तं क्षेत्रम् । १ षट्व. द्र. १८५-१८६ । २ एते आर, ब०, २०, २० । ३ पटसं ० ६९०-१९२ । * तथादि चोक्तम् भा०. १०, द.। तर मा-आ., ब०, द. । ६ षट् गर्व खे. २-४ । . 'सम्पग्भिश्यादृष्टीनाम्' नम्ति मा० । -मयोगि-३०, ता | : द्रष्टव्यन्-घटखं० ध० टी. स्खे. पृ०४८ । १० स्थिनश्चेति द्वा-आ०, बद० । ११-दसः पू-भा० ब०, द० | १२ द्राःयम्-घट स्व. ५. टी. स्ने पृ. ४५-५६ । १३ षटसं० खे० ५-१६ । १४ क्षेत्रम् ता०, २० पुस्तकयोः नास्ति । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थती [१८ कोऽर्थः १ मिथ्याधीनां सर्वलोकः । सामादनादीनां संपतासंयतान्ताना लोकस्यासंख्येया भागः । मनुष्यगतौ मनुष्याणतं सयोगकेवलियर्जानां सर्वगुणस्थानानां लोकस्यासंख्येय. भागः। सयोगकेयलिनां तु सामान्योक्तं क्षेत्रमसंख्येअभागोऽसंख्येया भागा का सर्वलोको वा इत्यर्थः । देवगती देवानां चतुर्यु गुणस्थानेषु सर्वेषां लोकरपासंख्येयभागः । ५ इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियाणा सर्वत्र संभवान सर्वो लोकः क्षेत्रम् । विकलेन्द्रि गणां लोकस्यामध्ये भागः क्षेत्रम् देवनारकमनुष्यन् तेषां निगतोवादस्थानत्वात् । विकला हि अर्धतृतीये द्वीपे लवणोदकालोदसमुद्रद्वये स्वयम्भूरमणद्वीपापरभागे स्वगम्भूरमणसमुद्र चोत्पद्यन्ते न पुनर संख्यद्वीपसमुद्रेषु न च नरकस्वर्गभोगभूम्गादिषु । पञ्चेन्द्रिमणां मनुष्यवनि से क्षेत्रम् । सथाहि "प्राइभानुपांतरान्मनुष्याः " [त० सू. ३२४५ ] इति १० वक्ष्यमाणसूत्रत्रन यथा मनुष्याणां लोकस्यासंख्येयभागः क्षेत्रं नियस वर्तते तथा पञ्चे न्द्रियाणां नरके तिर्यग्लोफे देवलोके च सनाडौंमध्ये नियतेष्वेव स्थानेषु उत्पादो वर्तते तेन लोकस्यासंख्येयभागः क्षेत्र पञ्चेन्द्रियाणां दातव्यम् । ___कायानुवादेन पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायानां सर्वलोकः क्षेत्रम् । प्रसकायिकानां पहचेन्द्रिययल्लोकस्यासस्येयभागः क्षेत्रम् । मार्गदर्शक योगानुवादन मनसायनामोदितहासागकेवल्यन्तानां लोकस्यासंख्येयभागः क्षेत्रम् । काययोगानामादितः त्रयोदशगुणस्थानानामयोगकेवलिनाञ्च सामान्योक्त क्षेत्रम् । मिध्यादृष्टीनां सर्वलोकः। मासादनादोनामयोगिवल्यन्दाना लोकस्वासंख्येयभागः। सयोगकेवलिना लोकस्यासंख्येयभागोऽसंख्येया भागा “वा सर्वलोको वा इत्यर्थः । "वेदानुवादेन त्रीपुंसवेदानां मिश्यादृष्यादिनवमगुणस्थानान्ताना लोकस्यासंख्येय२० भागः क्षेत्रम् । नपुंसकवेदानां मिथ्यादृष्टवादिनवमगुणस्थानान्तानामवेदानाञ्च मामान्योक्तं क्षेत्रम् । "कषायानुवादेन क्रोधमानमायाकषायाणां लोभापायाणाञ्च मिथ्यारष्टचादिनयमगुणस्थानान्तानां दशमगुणस्थानान्तानां व्यपगतकषायाणाञ्च सामान्योक्त क्षेत्रम् । ज्ञानानुवादेनं कुमतिकुश्रुत्यज्ञानिनां मिथ्याष्टिसासादनसम्यादृष्टीनां सामान्योक्तं २५ क्षेत्रम् । "कदवध्यज्ञानिनां मिथ्याष्टिसासादनसम्यग्दृष्टीनां लोकस्यासंख्येयभागः क्षेत्रम। __ मतिश्रुतावधिज्ञानिनामसंयतसम्यग्दष्टयादीनां मनःपर्ययज्ञानिनां षष्टगुणस्थानादिद्वादशगुणस्थानान्सानां केवलज्ञानिनां सयोगानामयोगानाञ्च सामान्योक्तं क्षेत्रम। सयताना १०, मा०, ब०, ५० । २-संख्येयभा--प्रा०, २०, ५०, २० । ३ चतुर्गुणभा., ०, प० । ४ पट्ख० खे. १५-२१॥ ५ सर्वसं-१०. भा०, २०। ६ स्थानकेषु ता०, स.। . क्ट्ख • खे० २२-२८ । ८ घटखा खे० २९-४२ । १-घंख्येयभा-पा०, ब०, ६०। १० का सर्वलोका वा इत्यर्थः वः । ११ बट खे० ४३-४५। १२ षट संग खे० १३.५० । १३-मायानां श्रा०, १०.२०१४ परखं० खे० ५.५।१५ कुदवध्य-भा. २०. प.। कुवध्य-६०।१६-नां च षष्टमगुणस्यानादीनां ० । च पट् गुणस्थानानि २० । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [12] मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज प्रथमोऽध्यायः ६५ "संयमनुवादेन सामायिक च्छेदोपस्थापनशुद्धिसंयतानां प्रमत्ताप्रमत्ताऽपूर्वकरणानिवृत्तिपरसाम्परायणां सामान्योक्तं क्षेत्रम् | परिहारविशुद्धिसंयतानां श्रमत्ताप्रमत्तानां सामान्योक्तं म् । सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतानां यथाख्यात विहारशुद्धिसंयतानामुपशान्तकपायक्षीणमासयोग केवल्ययोगकेवलिनां चतुर्णां सामान्योक्तं क्षेत्रम् | देशसंयतानां सामान्योक्तं ओम् असंयतानाच मिध्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिध्यादृतम्या ५ सामान्योक्तं क्षेत्रम् | "दर्शनानुवादेन चतुर्दर्श निनामादितो हादशगुणस्थानानां लोकस्यासंख्येयभागः क्षेत्रम् । अचक्षुर्वशेनि नामादितो द्वादशगुणस्थानान्तानां सामान्योक्तं क्षेत्रम् । अवधिदर्शTherefuज्ञानिषत् सामान्यो क्षेत्रम्। केवत्यदर्शनिनां केवलज्ञानियत् सयोगानां त्रिवि धम् । अयोगानां लोकस्यासंख्येयभाग इत्यर्थः । १० ४ लेश्यानुवादेन कृष्णनीलका पोतले श्यानामादितञ्चतुर्गुणस्थानानां सामान्योक्तं क्षेत्रम् । तेजः पद्मलेश्यानामादितः षड्गुणस्थानानां लोकस्यासंख्येयभागः क्षेत्रम् । शुकुलेश्यानामादितो गुणस्थानानां लोकस्यासंख्येयभागः क्षेत्रम् । सयोगकेवलिनाम लेश्यानां सामान्योक्तं क्षेत्रम् । भव्यानुवादेन भव्यानां चतुर्दशगुणस्थानानां सामान्योक्तं क्षेत्रम् | अभव्यानां कः क्षेत्रम् । * सम्यक्त्वानुषादेन क्षायिकसम्यष्टीनां चतुर्थगुणस्थानादारभ्य अयोगकेवलिंगुणखानान्तेषु सामान्योक्तं क्षेत्रम् । वेदकसम्यग्दष्टीनां चतुर्थ श्रम सप्तमगुणस्थानेषु सामाक्षेत्रम् | औपशमिकसम्यग्दृष्टीनां चतुर्थगुणस्थानादारभ्य एकादशगुणस्थानं यावत् साम्यकं क्षेत्रम् । सासादनसम्यग्दृष्टीनां मिश्राणां मिध्यादृष्टीनाच सामान्योक्तं क्षेत्रम् १. संश्यनुवादेन संज्ञिनां चतुर्दर्शनिवद आदितो द्वादशान्तेषु गुणस्थानेषु लोकस्या- २० यभागः क्षेत्रमित्यर्थः । असंशिनां सर्वलोकः क्षेत्रम् । ये न संज्ञिनो नाप्यसंज्ञिनस्तेषां यो क्षेत्रम् । "आकारानुवादेन आदितो द्वादशगुणस्थानेषु सामान्योकं क्षेत्रम् । सयोगकेवलिनां या संख्येयभागः क्षेत्रम् समुद्धातरहितत्वादित्यर्थः । अनाहारकाणां मिध्यादृष्टिमहुससम्यग्दृष्टय संयत सम्यग्दृष्टव्ययोगकेवलिनां सामान्योक्त क्षेत्रम् । सयोग केवलिनां लोक- २ संख्येयभागः सर्वलोको वा असमुद्घातसमुद्घातापेक्षया सिद्धम् । अथ स्पर्शनं कथ्यते । सामान्यविशेषभेदात् तत् द्विप्रकारम् । तत्र तारत् १ ० ० ५८-६६ । २ प्रमत्तानां सार । प्रमत्तानां च सा-व | अवमानां ।। ३०० ६७-७१ ४ पट्सं० से० ०२-७६ । ५ षट्सं० खे७७-७८ । ०७९-८५ । ७ चतुर्गुणस्थाना-आ०, ब० । ८ सयोग-आ०, ब० । ९-नां सा-आ०, ६०, १० प० ० ८६-८७ । ११ पटूखं० खे ८८.९२ । १२ अ तत्स्य ६०, आ०, ब० प्रकार वा० । ४ १५ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ तत्त्वार्थवृत्ती १८] "सामान्येन मिध्यादृष्टिभिः सर्वलोकः सृष्टः । अथ कोऽसौ लोक इति चेत् ? उच्यतेअसंख्यातयोजनकोख्याकाशप्रदेशपरिमाणा रज्जुस्तायदुभ्यते । तल्लक्षणसमचतुरस्ररज्जुत्रिचत्वारिंशदधिकशतत्रयपरिमाणो लोक उच्यते । स लोको मिध्यादृष्टिभिः सर्वः स्पृष्ट इति । उत्तलक्षणे लोके स्वस्थानविहारः परस्थानविहार : मारणान्तिकमुत्पादश्च प्राणिभिर्वि५ धीयते । तत्र स्वस्थानविहारापेक्षया सासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्या संख्येयभागः स्पृष्टः । एवमसर्व स्वस्थानविहारापेक्षया लोकस्यासंख्येयभागो ज्ञातव्यः । परस्थानविहारापेक्षया तु सासादनदेवानां प्रथमपृथिवीत्रये विहारात् रज्जुद्र्यम् | अच्युतान्तो परिविहारात् षड् रञ्जय इत्यष्टौ द्वादश वा चतुर्दशभागा देशोनाः स्पृष्टाः । द्वादशभागाः कथं स्पृष्टा इति चेत् ? उच्यतेमथिव्यां परित्यक्सासादनादिगुणस्थान एव मारणान्तिकं विदधातीति नियमात् षष्ठीतो १० मध्यलोकं पन रजवः सासाइनो भारणान्तिकं करोति । मध्यलोकाच्च ठोका बादरपृथिवीकायिकबाद्वराप कायिकवाद र वनस्पतिविधिसागर × : महाराज मरः । एवं द्वादश रज्जवो भवन्ति । सासादनसम्यग्टष्टिहि वायुकायिकेषु तेजःकायिकेषु नरकेषु सर्वसूक्ष्मकायिकेषु च चतुर्षु स्थानकेषु नोत्पद्यत इति नियमः । तथा चोक्तम् "चज्जि ठाणचक्कं तेऊ चाऊ य णरयसुहुमं च । अण्पत्थ सव्वठाणे उववज्जदि सासणी 'जीवो ॥" [ १५ ] देशोना इति कथम् ? केचित् प्रदेशाः सासादनसम्यग्दर्शनयोग्या न भवन्तीति देशोनाः । एवमुत्तरत्र सर्वत्रापि अस्पर्शनयोग्यापेक्षया देशोनत्वं वेदितव्यम् । सम्यग्मिथ्याद्दष्ट्य संयतसम्यग् प्रिर्भिकस्य असंख्येयभागः, अष्टौ वा चतुर्दशभागा देशोनाः स्पृष्टः । तत्कथम् ? सम्यग्मिथ्यादृष्ट्ा संयत सम्यन्द्रष्टिभिर्देयः परस्थानविहारापेक्षया अष्टौ रज्जयः २० स्पृष्टाः । संयतासंयतः लोकस्य असंख्येयभागः, षट् चतुर्दशभागा " वा देशोनाः । तत्कथम् ? संयतासंयतैः स्वयम्भूरमणतिर्यग्भिरुच्चतो मारणान्तिकापेक्षया पटू रज्जवः स्पृष्टाः । प्रमत्तसंयताथयोगिकेवल्यन्तानां स्पर्शनं क्षेत्रवत् । तत्कथम् ? प्रमत्तादीनां नियतक्षेत्रत्वात् भवान्तरे नियतोत्पादस्थानत्वाच्च समचतुरस्ररज्जुप्रदेशव्याप्त्यभावात् लोकस्यासंख्येयभागः । सयोगकेवलिनां क्षेत्रवत् लोकस्यासंख्येयभागः लोकस्यासंख्येयभागा २५ वा सर्वलोको वा स्पर्शनम् । इति सामान्येन स्पर्शनमुक्तम् । अथ विशेषेण स्पर्शनमुच्यते । श्रात्यनुवादेन नरकगती प्रथम प्रथिव्यां नाचतुर्गुणस्थानैर्लोकस्य असंख्येयभागः स्पृष्टः । तत्कथम् ? सर्वेषां नारकाणां नियमेन संज्ञिपर्याप्तक पवेन्द्रियेषु तिर्यक्षु मनुष्येषु प्रादुर्भावः । तत्र प्रथमपृथिव्याः सन्निहितत्वेन अर्द्धरज्जु .. १० फो० १.१० । २-माणरज्जुः आ०, ३०, ब० । ३ तल्लक्षणम - ६० । तल्लश्चमता० । ४-पि स्व-आ०, ६०, ख० । ५ का येषु द० । ६ उद्यन्ते आम, ० ० ७ चतुर्थस्थानकेषु आ०, ऋ० । चतुर्थस्थानेषु ६० । ८ "ण हि सासगो अपुष्णे साहारणमुहुम य तेजदुगे ।" -गो० ०० ११५ । ९ - रमत्र व० । १० पर्थन प० । ११ भागा दे-आ०, ब०, प०, १० १२ षट्सं० फो० ११-५६ । 0 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ प्रथमोऽध्यायः मामायास् , तत्रत्यनारकंश्चतुर्गुणस्थान: लोकस्यासंख्ययभागः स्पृष्टः । द्वितीयतृतीयवयष्ठभूमीनां मिथ्याष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः एको हो त्रयश्चपत्र चतुर्दशभागा बा देशोनाः स्पृष्टाः। तत्कथम. ? द्वितीयपृथिव्यास्तिर्यगलोकादधः रिमाणत्वात् एको भागः। तृतीयपृथिव्यास्तिर्यग्लोकादधः द्विरज्जुपरिमाणत्वात् द्वौ न चतुर्वविध्यास्तिर्यग्लोकादधः त्रिरज्जु परिमाणत्वात् त्रयो भागाः। पश्चमथिब्या- ५ sी तुशासनिमखानहारबारो भागाः । पष्ठपृथिव्यास्तिर्यग्लोकादधः जुपरिमाणत्वात् पञ्च भागाः । तत्रत्यांमध्यादृष्टिसासादनसम्बदृष्टिभिर्यथासंख्यमेते स्ष्टाः । सम्यग्मिध्यादृष्टीनां मारणान्तिकोत्पादायुर्वन्धंकाले नियमेन तद्गुणस्थानत्यास्वस्थानविहारापेक्षया लोकस्यासंख्येयभागः । तेषां सम्यग्मिध्याष्टीनां नियमेन मेषोत्पावान्मनुष्याणामलपक्षेत्रत्वात् सम्यग्मिध्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्ये- १० गः स्पृष्टः, स्वक्षेत्रविहारापेक्षया इत्यर्थः । सप्तम्यो पृथिव्यां मिध्यादृष्टिभिलॊकस्यायभागः षट्चतुर्दशभागा वा देशोनाः स्पृष्टाः । असंख्येयभागः स्वस्थानविहारापेक्षया । यो मारणान्तिकापेक्षया स्पृष्टा इत्यर्थः । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयसंयतसादृष्टिभिः समपृथिव्या नारकैः स्वस्थानविहारापेमन्या लोकस्यासंख्येयभागः स्पृष्टः । रान्तिकापेक्षयापि एषा स्पर्शनं कस्मान्न प्रतिपादितमिति चेत् ? सप्तमपृथिवीनारकाणां १५ लान्तिकोत्पादायुर्वन्धकाले नियमेन सासादनादिगुणस्थानत्रयत्यागात् सासादनोऽधो नीति नियमात् । तिर्यग्गतो, तिरश्चां मिथ्याष्ट्रिभिः सर्वलोकः स्पृष्टः । सासादनसम्यभिबैकस्यासंख्येयभागः सप्त चतुर्दशभागा वा देशोमाः रघृताः। तत्कथम् ? तिय॑क्सानस्य लोकाने बादरपृथिव्यवनस्पनिषु मारणान्तिकापेक्षयापि सप्त रजवः । सम्यग्मिध्यामिलकस्यासंख्येयभागः स्पृष्टः । असंयतसम्यग्दृष्टिभिः संयतासंयतैः लोकस्यासंख्येयभागः २० चतुर्दशभागा वा देशोनाः स्पृष्टाः। मनुष्यरांती मनुष्यमित्यादृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः लोको वा स्पृष्टः । तत्कथम् ? मारणान्तिकापेक्षया पृथिवीकायिकादस्तत्रोत्पादापेक्षया वा । हि त्रोत्पद्यते तस्योत्पादावस्थायां तद्व्यपदेशो भवति । सर्वलोकस्पर्शनं च अग्रे सर्वत्रेत्थं म् । सासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः सप्त चतुर्दशभागा वा देशोनाः स्पृष्टाः । पम्मिध्यारष्टचाद्ययोगिकेवल्यन्तानां स्पर्शनं क्षेत्रबद्वेदितव्यम् । F: देवगतौ देवमिथ्यादृष्टिभिः सासादनसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्याऽसंख्येयभागः अष्टौ नव चतुर्दमागा या देशोनाः स्पृष्टाः । तत्कथम् ? मिथ्या दृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिदेवानां कृततृतीयनरकमेरितीना लोफा बादरपृथिव्यब्वनस्पतिमारणान्तिकापेक्षया नथ रज्जयः स्पर्शनम् । एव. अस्त्रापि नवरज्जुक्तिवेदितव्या । सम्यग्मियादृष्ट चसंयतसम्यादृष्टिभिलॊकस्यासंख्येयबागः अष्ठौ चतुर्दशभागा वा देशोनाः स्पृष्टः । तत्कथम् ? सम्यग्मिथ्यादृष्टयसंयतसम्य- ३० -- - - - -- - - १तत्र ना-मा०, २०, २०१२ बन्धनका-बा० १३ मानुष्याणां ता० १ ४ सप्तम-श्रा, ५०, 41५-याः ति-०, आ०, ब०१६ विकृतीनाम् श्रा०, ५०, १० । ७ रज्जवः -०, ५०, ३० । वर्ष-व०। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] तत्त्वार्थवृत्ती ग्सष्टीनाम् एकेन्द्रियेपूत्पादाभावात् परक्षेत्रविहारापेक्षया अष्टरज्जुरपशन वेदितव्यम् । इन्द्रियानुवादन, एकेन्द्रियैः सर्वलोकः स्पृष्टः । विकन्द्रियलोकस्यासंख्येयभागः मार्गक्सकोको चमाचाथीसिनवायागयतवयम्हारपञ्चेन्द्रियेषु मिथ्याष्टिभिर्लोकस्यासंख्येय__ भागः स्वक्षेत्रनिहारापेक्षया स्पृष्टः । परक्षेत्रविहारापेक्षया अनौ चतुदर्शभागा वा देशोनाः । ५ मारणान्तिकोत्पादापेश्नया सर्वलोको वा । सासादनसम्यग्दृष्टयादित्रयोदशगुणस्थानानां पञ्चेन्द्रियाणां सामान्योक्तं पर्शनम् । काशनुवादेन स्थावरकायिकः सर्वलोकः स्पृष्टः । त्रसकाथिकानां स्पर्शनं पञ्चेन्द्रियवन् । योगानुबादेन बाङ्मनसयोगिनां मिध्यादृष्टीना लोकस्याऽसंख्येयभागः अष्टी चतु१० दशभागा वा देशोनाः सत्रलोको वा स्पर्शनम् । सासादनमम्यग्दृष्टयादिक्षीणकषायान्तानां सामान्योक्तं स्पर्शनम् । सयोगकेवलिना लोकस्यासंस्थेयभागः । तत्कथम् ? सयोगकेवलिना दण्डकपाटप्रतरलोकपूरणावस्थायां वाङ्मनसवर्गणामवलम्ब्य आत्मप्रदेशपरिस्पन्दाभायात् लोकस्यासंख्येयभागः स्पर्शनं बेदितव्यम् । काययोगिनां मिथ्यारस्थादित्रयोदशगुणस्थाना नामयोगकेवलिनाञ्च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । १५ "वेदानुवादेन स्त्रीपुंवेदैमिथ्या दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः स्पृष्टः अष्टौ नव चतुर्दश भागा वा देशोनाः भर्वलोको वा । तन्मारणान्तिकोत्पादापेक्षया ज्ञातव्यम् । सासाइनसम्यदृष्टिभिः स्त्रीपुर्वेदैः लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ नव चतुदेशभागा वा देशानाः । ते तु नवभागास्तृतीयभूमिलोकायोत्पादापक्षया वेदितव्याः । सम्यमिथ्यारष्यनिवृत्तिरादरान्तानां स्त्री पुंवेदैः सामान्योक्तं स्पर्शनं कृतम् । नपुंसकवेदेषु मिश्यादृष्टीनां सासादनसम्यग्दृष्टीनाञ्च ५. सामान्योक्त स्पर्शनम् । सम्यम्मिध्यादृष्टिभिर्मपुंसकदैलोकस्यासंख्येयभागः स्पृष्ठः । असंयतसम्यग्दृष्टिसंयतामयतनपुंसकवेवोकस्यासंख्येयभागः षट् चतुर्दशभ.गा बा देशोनाः । प्रमत्तानिवृत्तियादरान्तानामवेदानाञ्च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । "कषायानुवादेन चतुःकषायाणामेकपायाणामकषायाणाश्च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । * ज्ञानानुवादन मत्यासानिनां श्रुताज्ञानिनां मिथ्याष्टिसासादनसम्यादृष्टीनाञ्च' " सामा२५ न्योक्तं स्पर्शनम् । विभङ्गज्ञानिना मिथ्यारष्टीनां लोकस्यासंख्येयभागः अष्टी चतुर्दशभागा वा देशोनाः सर्वलोको वा तन्मारणान्तिकोत्पादापेक्षया । सासादनसम्यष्टीनां सामान्योक्तं स्पर्शनम् । आभिनिबोधिकादिपशज्ञानिनां सामान्योक्तं स्पर्शनम् । 'संयमानुवादेन पञ्चप्रकारसंयतानां देशसंयतानामसंयतानाच सामान्यो स्पर्शनम् । .... ----- __-----... -- -- -...-- १ षट्य० फो० ५७-६५। २ पट्खं फो० ६६-७३ । ३ षट्वं० फोः ७४-१०१ । ४ मिथ्यारष्टिभिः ता, प। ५ पटलं फो० १०२५-११९ । ६-मारणान्तिकापेक्षया भा०, १०, बर। ७ षट्स० फो' १२०-१२२ । ८-मेककम्ययाणां च सा-भा०, ३०, ३० । ९पटसं० फो० १२३-१३१ । १०-नां सा-वा, य० । ११ घट्वं० फो० १३२-१३९ । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ १८] प्रथमोऽध्यायः प्रदर्शनानुबादेन चक्षुर्दनिनामादितो द्वादशगुणस्थानानां पञ्चन्द्रिययन । तत्कथम् ? पञ्चेन्द्रियेषु मिथ्याष्टिभिर्लोकस्यासंख्येयभागः स्वक्षेत्राचारापेक्षया । अष्टौ पातुदर्शभागा या देशोनाः परक्षेत्रविहारापेक्षया । सर्वलोको वा मारणान्तिकोत्पादापेक्षया। शेपाणां सामा. न्योक्तमिति पञ्चेन्द्रियवत् । अचक्षुर्दनिनामादितो द्वादशगुणस्थानानामधिकवलदनिनाञ्च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । म्लेश्यानुवादेन सप्तनरकेषु तावन् प्रश्रमे नरक कापोती लेश्या । द्वितीये च नरके कापोती लेश्या । तृतीये नरके उपरि कापोती, अधो नीला । चतुर्थे नरक नीलब लेश्या । पश्चमे नरके उपरि नीला, अधः कृष्णा । पष्टे नरक कृष्णलेश्या । सप्तमे नरके परमकुष्णलश्या । तथा चोक्तम्-- "काऊ काऊ य तहा णीला णीला य णीलकिण्हा य । किण्हा य परमकिण्हा लेस्सा पढमादिपुढवीसु ।। [गोद जी० गा. ५२८] मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिासागर जी महाराज इति सप्तनरका लेश्याप्रदानम् । तत्र लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतल श्यमिथ्यादृष्टिभिः सर्वलोकः स्पृष्टः । सासादनसम्यग्हष्टिभिः कृष्णनीलकापोतलेश्यैर्लोकस्यासंख्येयभागः पश्च चत्वारो द्वौ चतुर्दशभागा वा देशोनाः स्पृष्टाः । तत्कथम् ? पष्चयों पृथिव्यां कृष्णलेश्यः सासा- १५ दनसम्यग्दृष्टिभिसरणालिकोत्पादापेश्या पञ्च रज्जनः स्पृष्टाः । पञ्चमथिव्यां कृष्णलेश्याया अविवक्षया नीललेश्यश्चतम्रो रज्जवः स्पृष्टाः । तृतीय-पृथिव्यां नीललेश्याया अविवक्षया कापोतलेश्य २ रज्जू स्पृष्टं। सप्तमपृथिव्यां यद्यपि कृष्णलेश्या वर्तते तथापि मारणान्तिकावस्थायां सासावनस्य नियमेन मिथ्यात्वग्रहणादिति नोदाहता । अत्र पञ्च चत्वारो द्वौ चतुर्दशभागा वा देशोनाः। सासादनसम्यग्दृष्टीनामादिनिलेश्याना दत्ता द्वादश भागाः कस्मान्न लभ्यन्त इति चेत् ? 'पष्टीनो मध्यलोकं यावत् पञ्च लोकानं यावत्मप्त इति द्वादशभागाः कुतो ने दत्ताः' इति येत् पृच्छसि ? तन्त्र पष्ठनरके अवस्थितलेश्यापेक्षया पञ्चैव रज्जयः स्पृष्टा भवन्ति, यतो मध्यलोकादुपरि कृपालेश्या नास्ति । "पीतपनशुक्ललेश्या द्वित्रिशेष" [व० सू०४।२२] इति वचनात् । अथया येषां मते सासाउनसम्यग्दृष्टिरेकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वादश- २५ भागान दत्ता। सम्यग्मिध्यावधसंयतसम्यग्दृष्टिभिः कृष्णनीलकापोतलेश्यलॊकस्यासंख्येयभागः १५० को १४०-१४५ । २ स्वक्षेत्रमवहा-द०1३-मवधिदर्शनके-सा०,१०। ४ षट्स० को १४६-१६५। ५ कापोती कापोती च तथा नीला नीला च नीलकृष्णा च । कृष्णा च परमकृष्णालेल्या प्रथमादिमितीषु ।। ६ भागाः आ० । ७ कृष्णनीलैः सा-१० । कृष्णलेश्या सा-मा। ८ अविवक्षितत्वात् आ०, द०, ५० ५-दिति कारणात् नौ-आ, थ०, ६० । १-मादितो लेल्यानाम् आ०,०,०। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० तत्त्वावृसो १४॥ स्पृष्टः । तेजोलेश्यमिथ्या दृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिभिलोकस्यासंख्येयभागोऽष्टी नव चतुर्दशभागा चा देशोनाः स्पृष्टाः । तेजोलेश्यः सम्यग्मिथ्या दृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टिभिर्लोकरयासंख्येयभागोऽष्टौ नव चतुर्दशभागा वा स्पृष्टाः । तेजोलेश्यः संयतासंयतलोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ नब चतुर्दशभागा या देशानाः । संयतासंयतैलोकस्यासंख्येयभागो अध्यर्धचतुर्दशभागो ५ वा देशोनाः । अस्यायमर्थः-तेजोलेश्यैः संयतासंयतः प्रथमस्वर्गे मारणान्तिकोत्पादापेक्षया अध्यर्धचतुर्दशमार्गदर्शसाधरज्जः स्पृष्ट "तजालश्या प्रमत्ताप्रमत्तलाकस्यासंख्येयभार्गः । नलेश्यादितचतुर्गुणस्थान कस्यासंख्येयभागोऽष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोनाः स्पृष्टाः । पद्मलेश्यः संयतासंयनेर्लोकस्यासंख्येयभागः पञ्च चतुर्दशभागा वा देशोनाः । तत्कथम् ? पहा लेश्यः संयतासंयतः सहस्रारे मारणान्तिकादिविधामात् पञ्च रञ्जयः स्पृष्टाः । पनलेश्यः प्रम१० त्ताप्रमत्तैर्लोकस्यासंख्येयभागः स्पृष्टः। शुक्ललेश्यैरादितः पश्चगुणस्थानकस्यासंख्येयभागः षट् चतुर्दशभागा या देशोनाः । तत्कथम् ? शुक्ललेश्यमिथ्याश्यादि संयतासंयतान्तरिणान्तिकादापेक्षया । सम्यस्मिध्यादृष्टिभिस्तु मारणान्तिके तद्गुणस्थानत्यागात् विहारापेक्षया घट् रजयः स्पृष्टाः। अनावपि कस्मान्न सृष्टा इति नाशकनीयम् ? शुक्ललेश्यानामधो विहाराभावात् । तदपि कस्मात ? ग्रथा कृष्णनीलकापोतले यात्रयापेक्षया अवस्थितलेश्या नारका बन्ने १ तथा १५ तेजः पद्मशुक्ललेश्याायापेक्षया देवा अपि अवस्थितलेश्या वर्तन्ते । "तेऊ तेऊ य तहा तेऊ पउमा य पउममुक्का य । सुक्का य परमसुक्का लेस्सा भवणादिदेवाणं ॥१॥" गोल जी० गा० ५३४] १२ अस्यायमर्थः-भवनयासिव्यन्तरज्योतिषकेषु जघन्या तेजोलेश्या । सौधर्मेशानयोः २० मध्यमा तेजोलेश्या । सनत्कुमारमाहेन्द्रयोरुत्कृष्टा तेजोलेश्या ? जघन्यपद्मलेश्याया अविवक्षया । ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरलान्तयकापिष्टशुक्रमहाशुक्रषु मध्यमा पालेश्या जयन्यशुक्कुलेश्याया अविक्षया । शतारसहस्रारयोर्जघन्या शुखलेश्या उत्कृष्ट पझालेश्याया अविवक्षितत्वात् । आनतप्राणतारणाच्युतनववेयकेषु मध्यमा शुक्लश्या । मवानुदिशपश्चानुचरेषु उत्कृष्टा शुद्धलेश्या । तथा चोक्तम् १-श्री च-आ०, द०, वा, ज० । २-धौ च-भा०, १०, ०। ३ वा देशोनार प। ४ "दिवड्द चोइसभागा वा देणा"-पटख० फो० १५५ । ५-वर्गमा-मा०, ०, ३० । स्वर्गः च । ६ सा अर्ध-भा०, २०, ५० । ७ नागः सृष्टः । ८ पालेश्यैः मिथ्यादृष्ट्याद्यसंयत सम्यग्दृष्ट्यौः लोक-३०। ९-दिस्यतान्तः १०, २०, आरु, ३०। १० तथा पन-भा०, य० । तया पीतपम-द० । ११ "तेऊ ऊ ऊ पम्मा एम्मा य पम्मसुक्का य | सुक्का य परमसुक्का भवणतिया पुणगे असुहा ।"-गो० जी० गा० ५३४ । तेजस्तेजश्व वया तेजः पद्मा च पशुक्ला च । शुमला च परमशुक्ला लेश्या भवनादिदेवानाम् ।। १२ अस्य गाथासूत्रस्य अयमर्थः । अथायमर्थः १०। १३-कापिष्ठ क्रमशशुक्रषु०, ६० | Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽध्यायः "तिहं दोण्हं दुण्डं च्छण्डं दोण्डं च तेरसहं च । एचो य चोइसण्ह ओसवणाद्वितचाय श्री विद्यासागर जी महाराज [गो. जी गा० ५३ राज sोऽम्वत्र तिर्य्यमनुष्येषु लेश्यानियमाभावः । नजदिसयोगकेवल्यन्तानामलेश्यानाञ्च सामान्योक्तं स्पर्शनम्। पानुषानेन मध्यानां सर्वगुणस्थानानां सामान्यो स्पर्शनम् । अभयः सर्वलोकः सम्यक्त्वानुषादेन ज्ञायिकसदृष्टीनामेकादशगुणस्थानानां सामान्योक्तं स्पर्शनमेव किन्तु देशसंयतानां क्षायिकसदृष्टीनां लोकस्यासंख्येवभागः स्पर्शनम । क्षायिक मुलानां देशसंयताना पडपि रज्जयः कुतो नेति नाशङ्कनीयम् ? तेपो नियतक्षेत्रत्यान् । १० लियो हिं मनुष्यः सप्तप्रकृतिक्षयप्रारम्भको भवति । क्षायिकसम्यक्त्वलाभान पूर्वमेव वायुवस्तु संयतासंयप्तस्वं न लभते । "अणुव्ययमहव्ययाह ण लंभइ देवाउगं मोत्तु" [गो कम० गा० ५३४ ] इत्यभिधानान् तिर्यगल्पतर स्थिति परिहत्तुं न शक्नोतीत्यर्थः । वेदकसम्यग्दृष्टीनां १५ स्पर्शनम् । औपशमिकयुक्तानामसंयतसम्यादृष्टीनां सामान्योक्तं स्पर्शनम् । देशमोपशमिकसम्यक्त्ययुक्तानां लोकस्यासंख्येयभागः स्पर्शनम् । औपशामिकसम्यक्त्वसंवानां तो लोकस्यासंख्येयभाग इति यदि पृच्छसि ? "मनुजेम्बेतत्सम्भदकपूर्व कौपशमिकयुक्तो हि श्रेण्यारोहणं विधाय मारणान्तिकं करोति, मिथ्यात्वपूर्वशामिकयुताना मारणान्तिकासम्भवान् लोकस्यासंख्येयभागः । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्य- २० पाहिमिध्यादृष्टीना सामान्योक्तं स्पर्शनम् । मेवानुवादन संझिनां चक्षुर्दर्शनिवत् । असंझिभिः सर्वलोकः स्पृष्टः । ये तु न नाप्यसंझिनस्तेषां सामान्योक्तं स्पर्शनम् । आहारानुषावेन आहारकाणामादितो द्वादशगुणस्थानानां सामान्योक्तं स्पर्शनम् । विछिना लोकस्यासंख्येयभागः । तत्कथम् ? आहारकावस्थायां समचतुरसरवादिव्या- २५ भावात् । दण्डकपाटावस्थायां कपाटप्रतरावस्थायाञ्च सयोगवली औदारिकौदारिक रयोग्यपुद्गलादानादाहारकः । तथा दोस्तम्१त्रयाणां स्योः द्वयोः षण्णा द्वयोः त्रयोदशाना । एतस्माकचतुर्दशानां लेश्या भवनादि|| २ पर्ख० फो० १६५, १६६। ३ षट्वं० को १६७-१७६ । ४-मम्य १०,०। ५ लइ आ., बा, २०, ५० । अवतमहानतानि न लभते क्या 1 ६-ति चेत् पृ-श्रा०, २०, १०, जः । ७ मनुष्येष्वे-आ०, ५०, १०, ज० । मो० १७७-१८०। ९षट्व० फो० १८१-१८५ 1 -- ---- Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ तत्त्वार्थवृत्ती २१८] "दंड जुग ओगलं कवारजुगले य पंदरसंवम्णे । मिस्मीरालं भणियं सेसतिए जाण कम्महयम् ॥१॥" पञ्चसं० १।१९५१ दण्ट कपाटयोश पिते अल्पक्षेत्र या समचतुरस्ररजवादिव्याप्तेरभावात् सिद्धो लोक५ स्यासंख्येयभागः। अनाहारकेषु मिश्यादृष्टिभिः सर्वलोकः स्पृष्टः । सासादनसम्यग्दृष्टिभिलीमाशययभागचाकारानुसार यादे महासजष्टाः । तत्कथम् ? अनाहारकेषु सासा दनस्य षष्ठथिवीना निःसृत्य तिर्यम्लोके प्रादुर्भावात. पञ्च रज्जयः, अच्युतादागत्य तिर्यग्लोके प्रादुर्भावात् पटिन्येकादश । ननु पूर्व द्वादशोक्ता इदानीं त्वेकादशति पूर्वापरविरोध इति चेत् । न मारणान्तिकापेक्षया पूर्व तथाभिधानात् । न च मारणपन्तिकावस्थायामनाहारकत्वं १. किन्तूत्पादावस्थायाम् । सासादानश्च मारणान्तिकमेकेन्द्रियेषु कति नोत्पादम , उत्पादाव स्थायां सासादनत्वत्यागात् । अनाहारके' असंयतसम्यग्दृप्रिभिलॊकम्पासंग्वेयभागः पट चतुदेशभागा वा देशोनाः स्पृष्टाः । सयोगवलिना लोकरयार ख्येयभागः सर्वलोको वा । अयोगकेलिना लोकस्यासंख्येयभागः स्पर्शनम । इति स्पर्शनव्याख्यानं समाप्तम्। अथ कालस्वरूपं निरूप्यते । म कालः सामान्यविशेषभेदात् विप्रकारः। सामान्यतस्ता१५ अन् मिथ्यादृष्टे नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवापेक्षया त्रयो भङ्गाः। ते के ? अनाद्य नन्तः कस्यचित् , कस्यचिदनादिसान्तः, कस्यचित्सादिसान्तः। स तु सादिसान्तो जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । अन्तर्मुहूर्त इति कोऽर्धः ? त्रीणि सहस्राणि सप्त शतानि त्यधिकसप्ततिरुच्छ्वासाः मुहूर्तः कथ्यते ।। ३७७६ ।। तस्यान्तरन्तर्मुहूर्तः । समयाधिकामालिकामादि कृत्वा समयोनमुहूर्त' यावत् । स च अन्तर्मुहूर्त इत्यमसंख्यातभेदो भयति । तथा चोक्तम् "तिण्णि सहस्सा सत्त य सदाणि तेहत्तरं च उस्सासा । ऐसो भवदि मुहुत्तो सव्वेसि चेव मणुयाणं ॥ १॥" [ ] उत्कण अर्द्धषुद्गलपरिवों " देशानः । मासादनसम्याद नानाजीबापेक्षया जघन्येनंकसमयः । उत्कण पल्योपमाऽसंख्ययभागः । एकजीव प्रति जघन्येनका समयः । उत्कर्षेण पडावलिकाः। आलिका च २५ असंख्यातसमयलक्षणा भवति । तथा चोक्तम्-'" १ परदस-ता। पयर सं०-व० । द्। युभे औदारिक कपाउयुगले च प्रतरसंवरणे । मिश्रीदार भागात शेषत्रये जानीहि कार्मणम् || २-ते काल: आ०, ब०, द०, ज० । ३ षट्वं. का. १-३२ । ४ भागाः जः । ५ अमध्यस्य । ६ भक्ष्यस्य । ७ सादिमिथ्यादृष्टेः पुनरुत्पन्नसम्यग्दर्शनस्य । ८ समयाधिकानामावलि-भा, न., बर।९एसे ता० । १८ मणुयाणां ता । त्रीणि महागि सन न शतानि त्रिसप्ततिध इसाराः। एतत् भवति मुहूर्स सर्वेषाम्चैव मनुजानाम् ।। ११-यतों सा-द०, । १२ एक जीव आर, प, ज. । १३ नैकस-T०, १०. द., व०, जा १५ माधिक पदालिकालशेपे सासादनाणस्थान प्रापभावनियमात् । दृष्टव्यम्-ध० टो• का० पू० ३४२ । १५ गो० जीब. गार ५७३-५७४ । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] प्रथमो धिर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर औ "अलि असंखया संज्जाबलिसमूह उस्सासी । सत्साम थोओ सत्तत्थोत्रो लवो भगिओ ॥ १ ॥ अत्तसद्धलवा नाली दोनालिया मुहुतं तु । समऊणं तं भिण्णं अंतमुहून अणयविहं ॥ २ ॥ " [ जम्बू- प० १३४५, ६ ] ५ सम्यग्मिध्यादृष्टेर्नानाजीबापेक्षया जघन्येनान्तर्मुहूर्तः, उत्कर्षेण पल्योपमास क्रूस्येयभागः । एकं जीवं प्रति बन्योश्चान्तर्मुहूर्त कालः । अस्यायमर्थ:- सम्यग्मिध्याद कजीवं प्रति जघन्येन जंधन्यान्तर्मुहूर्तः, उत्कर्षण च उत्कृष्टोऽन्तर्मुहूर्तः । असंयतसम्यग्दृषुर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः, उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि सातिरेकाणि । तत्कथम् ? कविज्जीव: पूर्व कोट्यायुरुत्पन्नः १० सान्तर्मुहूर्तानन्तरं सम्यक्लमादाय तपोविशेषं विधाय सर्वार्थसिद्धात्पयते । ततश्च्युत्वा पूर्व कोट्यायुरुत्पन्नोऽब्रुवनन्तरं संयममादाय निर्माण गच्छति । देशसंयतस्य नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीत्रं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः, उत्क पूर्वकोटी देशोनी | प्रमत्ताप्रमत्तयोर्नानाजीबापेक्षया सर्वः कालः | एक जीवं प्रति जघन्येनेकः समयः । १५ तत्कथम् ? सर्वो जीवः परिणामविशेषवशात् प्रथमतोऽप्रमत्तगुणस्थानं प्रतिपद्यते, पश्चात् तस्प्र तिपक्षभूतप्रमत्तगुणस्थानान्तरस्थिती निजायुः समयशेषेऽप्रमत्तगुणं प्रतिपद्य म्रियते इति १० महाराज १ असंखे - ज० । आलि अवख्यसमया संख्याताबलिसमूह उच्छूवासः । समाश्वाखः स्वोकः सप्तस्तीकाः लवो मणिः || अष्टदला नाही द्वे नालके मुहूर्त्त तु समयोन तत् भिन्नमन्तर्मुहूमविषम् || २ प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः द० प्रति जघन्येन जघन्यमु-ज० । ३ जघन्योऽन्वव । ४ उत्कृष्यन्त ब० स० । ५ सर्वका - आ०, ब०, ब०, अ० ६ "तं स्वं ? एक्को प्रमत्तो अनमत्तो वा चदुमुसामगानमेवकदरांना समजणतेनीसागरी वाटिदिएमु अणुतर विमाणवासिय देवेमु उवण्णो । सा संजभसम्म सरस आदी जादो | तदाँ चुदो पुत्रको उखे उनवष्णो । तत्थ असंजदसम्भादिट्ठी होहूण नाबटूलिदो जाय अतोमुहुतमेचा उसे ति । तदो अयमन्तभावेण संजम विष्णो । ( १ ) तदो पमचापमत्त परावत्तसहस्से कादुण ( २ ) वगले दिपा ओनिस होष्ट विद्धो अपमती नदी । ( ३ ) अपुलपगो ( ४ ) अणियहिखवगो (५) नुहुमुखी ( ६ ) लीणकलाओं ( ७ ) खजोगी ( ८ ) अजोगी ( ९ ) होतॄण सिद्धो जादी पदे णवह तो मुहुत्तेहि ऊणपुन्त्रको टीए अदिरित्ताणि समऊणतेत्तीससागरोमाणि असंजदसम्मादिस्सि उक्करस कालो होदि ।" घ० टी० का० पृ० ३४७ । ७-भाददाति पा० । ८ः काल उ-आ०। ए "एत्रमादिल्लेहिं तीहिं अंतोमुहुत्तेहिं ऊगा पुव्यकोडी संजमाम कालो होदि ।" -५० टी० का० पृ० ३५० | १० गुणस्थानं प्र० । ५ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती [१६ अप्रमत्तैकजीवं प्रति जघन्येनैकः समयः । तथा अप्रमत्तस्थाने स्थितो निजायुःकालान्तसमये प्रमत्तगुणस्थानं प्रतिपद्य म्रियते इति प्रमत्तकजीव प्रत्यपि जघन्येनैका समयः, उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः । चतुर्णामुपमा नानाजीवाश्या सावलीसमयमा महासत्येनैकः समयः, ५ उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः । तत्कथम् ? चतुर्णामुपशमकानां चतुःपञ्चाशत् यावत् यथासम्भवं भवन्तो 'युगपदपि प्रवेशे मरणासम्भवात् नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च जघन्ये कसमयः । नन्वेवं मिध्यादृष्टेरप्येकसमयः कस्मान्न सम्भवतीत्यनुपपन्नम् ; कोऽर्थः १ मिथ्यादृष्टेरेकसमयः कालो न घटते इत्यर्थः । कस्मात् ? प्रतिपन्न मिथ्यास्त्रस्य अन्तर्मुहूर्तमध्ये मरणसम्भ यात् । तदुक्तम्१० "मिथ्यात्वं दर्शनात् प्राप्ते नास्त्यनन्तानुबन्धिनाम् । यावदावलिका पाकान्तर्मुहुर्ते मृतिर्न च ॥ १॥" [ ] सम्यग्मिध्यादृष्टः परिमरणकाले तद्गुणस्थानत्यागान्नकः समयः सम्भवति इति प्रतिपन्नासंयतसंयतासंयतगुणोऽपि अन्तर्मुहूर्तमध्ये न म्रियते । अतोऽसंयतसंयतासंयतयोरपि एकः समयो न भवति । चतुर्णा क्षपकाणामयोगकेत्रलिनाश्च नानाजीवापेक्षा एकजीवापेक्षया च जघन्यश्च उत्कृष्श्च कालोऽन्तर्मुहूर्तः । तत् कथम् ? चतुर्णा अपकाणामपूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसाम्परायक्षीणकषायाणामयोगफेवलिनाञ्च मोक्षगामित्वेन' अन्तरे मरणासम्भवात् नानकजीवापेक्षया जघन्यश्वोत्कृष्टश्चान्तर्मुहूर्तः कालः। सयोगिकेवलिनां नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः, एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । २० कुतः ? सयोगिकेवलिगुणस्थानानन्तरमन्तर्मुहूर्तमध्ये अयोगिकेवलिगुणस्थानप्राप्तेः उत्कर्षण पूर्वकोटी देशोना । कुतः ? अष्टवर्षानन्तरं तपो गृहीत्वा केवलमुत्पादयतीति कियद्वर्षहीनत्वात् पूर्वकोटी वेदितव्या। विशेषेण गत्यनुवादेन नरकाती नारकेषु सप्तहुँ भूमिषु मिध्यारष्ट्र नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकं जीव प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः कालः, पश्चात् मिथ्यादृष्टिगुणस्थानत्यागे"२५ सम्भयात् । उत्कर्षेण प्रथमभूभ्यादिषु यथासयमेकः सागरः, त्रयः सागराः, सप्त सागराः, दश सागराः, सप्तदश सागराः, द्वाविंशति सागराः अयरिंशत्सागराश्चेति । सासादनसम्यग्दृष्टः सम्यग्मिथ्याश्च सामान्योक्तः कालः । असंयतसम्यादृष्टेन नाजीवापेक्षया सर्थः कालः । एक १-या ज-द, आप, ज०। २ युगपदेकस्मिन्नपि प्रदेशे आ , २०, व, ज०, १०। ३ पाना-प० । -न च अ--आ०, ब०, १०,०, १० । ५-का-श्रा०, २०, ५०, ५० ज०। ६. तः कालः कु-आ० । ७ 'अहि वस्सेहि अहि अंतोमुहचेहि य ऊणपुब्धकोडी सजागकेवटिकालो होदि ।"-५० दो का० पृ० ३५७ । ८ पटसं का० ३३-१०६ । ९ मरकेषु ॥०, २०, ५०, ज० । १० सप्तभू-आ० । ११-न त्यागासं-प० ।-नयोगसं-ता। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ३५ प्रथमोऽध्यायः मार्गदर्शकली प्रविचानोमान्दाचाहोदेोमाजअन्तर्मुहूर्तः (१)। कस्मात् ? देशोनादन्तर्मुहूर्वान् परं तद्गुणास्थानत्यागात्। तिर्यग्गतौ तिरश्यां मिथ्यादृष्टीनां नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण २ अनन्तः कालः । असल्येयाः पुद्गलपरिवाः । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिध्यादृष्टिसंयत्तासयतानां सामान्योक्तः कालः । असंयतसम्यग्दृष्टेस्तिरश्चः नाना- ५ जीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवं तिऱ्याचं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः, उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि । स्थमिति चेत् ? उच्यते-तियंगसंयतसम्यग्दृष्ट पकजी प्रति उत्कर्षेण दर्शनमोहअपकवेदकापेक्षया त्रीणि पश्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्वैरभ्यधिकानि, सप्तचत्वारिंशत्पूर्वकोटिभिरभ्यधिकानीत्यर्थः । सया हिं-पुंनपुंसफरीदेन अष्टावष्टौ बारान पूर्वकोट्यायुषा 'उत्पथ अपान्तरे अपर्याप्तमनुष्यबुद्रभवेन अष्टो धारान् उत्पद्यते । पुनरपि 'नपुंसकसीवेदन १० अष्टावष्टौ पुंवेदेन सप्तेति । ततो भोगभूमौ निपल्योपमायुषि भोगभूमिजाना नियमेन देवेषु उत्पादात् पश्चात् गत्यतिक्रमः । पूर्वकोटिपूथक्त्वाधिक्यं देवातिप्रणेन पूर्यत इति वेदितव्यम् । मनुष्यगतौ मनुष्येषु मिथ्यादृष्टेनानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः, उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वैरभ्यधिकानि । सासादनसम्य- १५ रदृष्टेन नाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः उत्कर्षेणान्तमुहूर्तः। एक जीवं प्रति जघन्येनैका समयः, उत्कर्षेण षडावलिकाः । सम्यम्मिध्यादृष्टे नाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च जघन्यश्चोत्कृष्टश्च कालोऽन्तर्मुहूर्तः। असंयतसम्यम्दृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः, उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि सातिरेकाणि । तत्कथम् ? कर्मभूमिजो हि मनुष्यः सायिकसम्यक्त्वयुक्तो दर्शनमोहक्षपेकवेदकयुक्तो या भोगभूमिजमनुष्येषूत्पद्यते इति [ ततः ] २० मनुष्यगतिपरित्यागात् १ सातिरेकाणि पश्चाद्स्यतिक्रमः । देशसंयतादीनां दशानां गुणस्थानानां सामाग्योकः कालः। १ मारकेषु सम्यगष्टेरयं कालः चिन्त्यः । यतः षट्स्वाहागमादिषु तस्येत्थ निरूपणम्--. "उक्कस्सं सागरोपमं तिणि सत्त दस सत्चारस बावीस तेचीस सागरोवमाणि देसणाणि" ४६ । ... "एवं तीहि अंतोमुहुत्तेहि जण अयप्पणी उक्कस्साइहिदी अस्जदसम्मादिहिउक्कस्सकालो होदि । णवरि समाए हि अंतोमुहुत्तेहि ऊणा उक्कसहिदित्ति वत्तव्यं ।' -परख०, धरी का पृ० ३६२ । “उत्कर्षेण उक्त एवोत्कृष्टो देशोगः ।"-ससि पृ० २२ । २ अनन्तकालः भा०, ६०. ५०, ० | ३ परावर्ताः ज०। ४ अयं कालः त्रिविधपञ्चेन्द्रियतियश्चमिप्याइस्टेति । यथा-"उमस्तं तिणि पलिदोषमाणि युनकोडि पुषणमायापि ।" -पट्स० का० ५९ । ५ उत्पद्यते ०। ६ नपुंसकत्रीवेदे मा०, २०, ५०। नपुंसकवेदे जः। ७-विक्रम! आ०, २०, ५०, ०। ८ ग्रहणेन वेदि-आ०, १०, १०, ज० । ग्रहणेन पूर्वतः वेदि-१०। ९क्षपकयुक्तः आध, ३०, २०, ज०। १० "तिष्णि पलिदोषमाणमुरि देसूषापुत्रकोडितिभागुवलंभा।"-५० टी० का० पू० ३७८ । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्तौ [१८ देवगतौ देवेषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एक जीवं प्रति जघन्येनान्तमुंहून उत्पन्नमात्रापेक्षया, अन्तर्मुहूर्तानन्तरं सैष्टिर्भवति यतः । उत्कर्षेण एकत्रिंशत्सागरोपमामि भित्रमवेयकेऽपि कश्चिन्मिथ्या दृष्टिभवति यतः । सासादनसम्यग्दृष्टेः सम्यस्मिथादृष्टेश्च सामान्योक्तः कालः । असंयत्तसम्यकप्टेन नाजीवापेक्षया सर्वः कालः। एक जीवं ५ प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः, उत्कर्षेण प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुइहानुपादे की पहनिबाणां नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एक जीर्ष प्रति जघन्येन चंद्रभवग्रहणम् । तत्कीराति चेत् ? उक्तलक्षणमुहूर्त्तमध्ये तावदेकेन्द्रियो भूत्वा कश्चिजीवः षट्षष्टिसहस्रद्वात्रिंशदधिकशतपरिमाणानि ६६१३२ जन्ममरणानि अनुभवति, तथा स एव जीवः तस्यैव मुहूर्तस्य मध्ये द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियो भूत्वा यथासंख्यमशीति१० षष्टि-चत्वारिंशत्-चतुर्षिशलिजन्ममरणान्यनुभवति । सर्वेऽप्येते समुदिताः क्षुद्रभवा पतावन्त एव भवन्ति-६६३३६ । उक्त ""तिण्णिा सया छत्तीसा छावहि सहस्स जम्ममरणानि । एवदिया खुद्दभवा हवंति अंतोमुहुत्तस्स ॥ १॥ वियलिंदिएम सीदि सहि चालीसमेव जाणाहि । पंचेंदियचउवीसं खुद्दभवतोमुहुसस्स ॥ २॥" [ यदा यान्तर्मुहूर्तस्य मध्ये एतावन्ति जन्ममरणानि भवन्ति तदेकस्मिन्नुच्छ्वासे अष्टादश जन्ममरणानि लभ्यन्ते । तत्रैकस्य क्षुद्रभवसंज्ञा । उत्कर्षेण अनन्तकालोऽसमस्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः। तत्कथम् ? उत्कर्षेण अनन्तकालः असंख्यातपुद्गलपरिवर्तनलक्षणो निरन्तरमेकेन्द्रिय त्वेनैव मृत्वा मृत्वा पुनर्भवनात् , ततो विकलेन्द्रियः पन्चेन्द्रियो वा भवति । विकलेन्द्रियाणां २. मानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एक जीवं प्रति जघन्येन चुद्रभवग्रहणम् । उत्कषण समन्ये यानि वर्षसहस्राणि । पञ्चेन्द्रियेषु मिथ्यादष्ट नाजीवापेक्षया सर्वः कालः | एकं जीषं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण सागरोपमसहस्र पूर्वकोटिपृथक्त्वैरभ्यधिकम् । तत्कथम् ? पञ्चेन्द्रियमिध्यादृष्टय केजीवं प्रति उत्कर्षेण सागरोपमसहस्र पूर्यकोटिपृथक्त्वैः षण्णषति पूर्वकोटिभिरभ्यधिकमित्यर्थः । तथा हि- नपुंसकत्रीपुंवेदे हि संज्ञित्वेन अष्टावष्टौ वारान् पूर्व२५ कोट्यायुपा समुत्पद्यते । ‘तक्षेत्र चामज्ञिकरवे एयमष्टचत्वारिंशद्वाराः । अवान्तरे अन्तर्मुहूर्त १ सम्पदृष्टिभ-भा०, ब०, २०, म. । २ मवग्रंवेयकेषु क-भा०, २०, ५०, ज.। ३ सम्यग्मिश्यादृष्टेश्च मा, ज० । सम्यग्मिथ्यादृष्टेः द०,०,०। ४ पटलं. का० १०७-१३८ । ५ गो० जी० गा- १२२ -१२३ | कश्यागा गा. ५, ६ । त्रीणि शतानि षत्रिंशत् षट्षष्टिसहसजन्ममरणानि । एतावन्तः क्षुद्रभवा भवन्ति अन्तर्मुहूर्तस्य । विकलेन्द्रियेवशति षष्टि चत्वा रिंशदेव बानीहि । पञ्चेन्द्रिय तुर्विंशति क्षुद्रभवानन्तर्मुहत्तस्य ।। ६ चैव श्रा०, ५०, २०, म । चैकं मुह-ताः। ७ मृत्या पुनर्भयात् आर, २०, ५०, ज०। ८ यथैत्र मा०, २०, ज.। ५ चासंशित्वेक। च संज्ञिकत्वे ज० । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the ] प्रथमोऽध्यायः ३७ 1 मध्ये पचेन्द्रिये क्षुद्रभवेन अष्टौ वारान् पुनरपि द्वितीयारं नपुंसकस्त्रीपुंवेदे 'सत्वासत्याभ्यामष्टचत्वारिंशत् पूर्व कोट्यो भवन्ति । एवं षण्णवति कोटयः । पञ्चेन्द्रियसासादभावनां सामान्यतः कालो वेदितव्यः । I कायानुवादेन पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकानां नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकं जीवं प्रति जघन्येन छुद्रभषग्रहणम् उत्कर्षेण असख्येया लोकाः । वनस्पतिकायिकानाम् एके- ५ न्द्रियवत् ।। ६६१३२ ।। कायिकेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः, 'उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र पूर्वकोटिपृथक्त्वैरभ्यधिके । सासादनादीनां पचेन्द्रियवत् कालो वेदितव्यः । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज "योगानुषादेन वाङ्मनसयोगिषु मिथ्यादृष्टय संयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्ताप्रमन्त सयोगकेवलिनां नानाजीयापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । तत्कथम् ? १० बाङ्मनसयोगिषु मिध्यादृष्ट्यादीनां षण्णां 'योगपरावर्त्त गुणस्थानपरावर्त्तापेक्षया जधन्येनैकसमयः । तथा हि-अविवक्षितत्वादिगुणस्थानकाळान्त्य समये वाङ्मनसान्यतर योगसङ्क्रमणं योगपरावर्त्तः । गुणान्तरयुक्त वाङ्मनसाम्यतर योगकालान्त्यसमये मिध्यात्वादिगुणसमो गुणपरावर्त्तः । तदपेक्षया वा एकः समयः । उत्कर्षेण अन्तर्मुहूर्त्तः । तत्कथम् ? योगकालं यात्रदित्यर्थः, पचात्तेषां योगान्तर सङ्क्रमः । सासादनसम्यग्दृष्टेः सामान्योक्तः कालः । सम्यग्मिथ्यादृष्टेर्नानाजीयापेक्षया जघन्येनेकः समयः । तत्कथम् ? सम्यम्मिश्यादृठेनाजीवापेक्षया योगगुणपरावर्तनमपेक्ष्य जघन्येनैकसमयः । तथा हि-- केषाश्र्चित् गुणान्तरयुक्तबाङ्मनसान्यतरयोगकालान्त्यसमये यदा सम्यग्मिध्यात्वसङ्क्रमणं तदैव अन्येषां योगान्तरानुभूतम्, सम्यम्मिध्यात्त्रकालान्त्यसमये वाङ्मनसान्यतरयोगसङ्क्रम इति कारणादे कः समयः । सम्यग्मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया उत्कर्षेण पल्योपमास ख्येयभागः । एकं जीवं प्रति सम्य- २० ग्मिध्यादृष्टेर्जघन्येनोत्कर्षेण च अन्तर्मुहूर्त्तः । १५ चतुर्णामुपशमकानां क्षपकाणा नानाजीषापक्षया एकजीवापेक्षया च जघन्येनेकसमयः योगगुणपरावर्त्तनापेक्षया पूर्वयत् । उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः । काययोगिषु मिध्याहष्टेनाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकं जीवं प्रति जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेणानन्तः कालोसंख्येयाः पुलपरिवर्त्ताः । सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिय्यादृष्टादीनां जघन्योत्कृष्टः कालो २५ मनोयोगिवत् । अयोगानां सामान्यवत् । वेदानुवादेन' स्त्रीवेदेषु मिध्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकं जीवं प्रति ० का ० १३९ - १६९ । ३ असख्येय १ वेदसंशित्वाभ्याम् आ०, ब० ज० २ फालः ब० । असङ्ख्येयलोकः आ०, ब०, ज०, ६० ४ पट्खे० का० १६२-२२६ | ५ दृष्यसंयतासंयतश्र० । - दृष्टिसंयतासंयत - ज० । ६ "एत्थता जोगपरावत्ति गुणपरावत्ति रणवाद्यादेहि मिच्छतगुणहाण एगसमओ परूविजदे ।" -४० टी० का० पृ० ४०९ । ७ “ एगजीव पहुच अणेण एगसमर्य उक्करसेण अंतोतंत ।" पट० का० १६८,१६९ | स सि० १० २४ । ८ प ० का ० २२७-२४९ । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्त [१८ जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । तत्कथम् ? एकजीवस्य मिध्यात्वयुक्तः श्रीवेदकालः जघन्येनान्तर्मुहूर्तः, ततो गुणान्तरसङ्क्रम इत्यर्थः । उत्कर्षेण पल्योपमशतपृथक्त्वम् । तत्कथम् ? स्त्रीवेदयुक्तो मिथ्यादृष्टिदेवेष्वायुर्वध्नाति ततस्तिर्यङ्मनुष्येषु नारकसम्मूर्च्छनवर्जं ताबत् पल्योपमशतयक्त्वम्, ततो वेदपरित्यागः । सासादन सम्यष्ट्याद्यनिवृत्तिबादरान्तानां सामान्योक्तः कालः, किन्तु ५ असंयत सम्यग्दृननाजीयापेक्षया सर्वः कालः | एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः, उत्कर्षेण पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि देशोनानि । देशोनानि कथमिति चेत् ? स्त्रीवेदासंयतैकजीवं प्रति उत्कर्षेण पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमानि गृहीतसम्यक्त्वस्य श्रीवेदनोत्पादाभावात् पर्याप्तः सन् सम्यक्त्वं गृहीष्यतीति पर्याप्तिसमापकान्तर्मुहूर्त्तहीनत्वात् देशोनानि तानि पचपचाशत्पश्योप मानि स्त्री वेदे षोडशे स्वर्गे सम्भवन्तीति वेदितव्यम् । पुंवेदेषु मिथ्यादृष्टनी नाजीवापेक्षया सर्वः १० कालः । एकं जीवं प्रति जघन्ये नान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण सागरोपमशवपृथक्त्वम् । सासादन सम्ब निवृतिबावरान्तानां सांमान्योक्तः कालः । नपुंसकवेदेषु मिध्यादृष्टनानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्त्ताः । सासादन सम्यदृष्ट्याद्यनिवृत्तिबादरान्तानां सामान्यवत् । किन्त्वसंयतसम्यग्दृष्टेनाजीवापेक्षा सर्वः कालः । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः, उत्कर्षेण त्रयकित्सा१५ गरोपमानि देशोनानि । तत्कथम् ? कश्रिजीयः सप्तमनरके पतितः, तत्र नपुंसकः सन्नुरकर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुरुत्पद्यते स पर्याप्तः सन् सम्यक्त्वं गृहीष्यतीति कियत्कालं विश्रम्य सम्यगृहात शोनानि । अपगतवेदानां ३८ फालि विश् सामान्यवत् । कषायानुवादेन चतुष्कषायाणां मिध्यादृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां मनोयोगिवत् जघन्ये२० नैकसमयः, उत्कर्षेण अन्तर्मुहूर्त्त इत्यर्थः । स तु कालः एक जीषं प्रति काषाय गुणपरावर्त्तापक्षया ज्ञातव्यः । द्वयोरुपशमकयोर्द्वयोः क्षपकयोः केषललोभस्य घाऽकषायाणात सामान्योक्तः कालः । "ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानश्रुताज्ञानिषु मिध्यादृष्टिसासादन सम्यग्दृष्ट्योः सामान्यवत् कालः । विभानिषु मिध्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकं जीवं प्रति जपन्येना२५ न्तमुहूर्त्तः, उत्कर्षेण त्रयत्रिशत्सागरोपमानि दशोनानि । देशोनानीति कथम् ? विभङ्गज्ञानि मिध्यादृष्ट्य कजीवं प्रति उत्कर्षेण नारकापेक्षा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि, पर्याप्तञ्च विभङ्गानं प्रतिपद्यत इति पर्य्यामि समापकान्त मुहूर्त्तहीनत्वात् देशोनानि । सासादनसम्यग्दृष्टे : सामान्योक्तः कालः | आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनः पय्र्ययज्ञानिनां केवलज्ञानिनाश्च सामान्योक्तः कालः । ० । १ स्त्रीवेदोत्पा-१०, ५०, ५०, ज० ॥ २ मोडशस्वभा० ० ० ० ३ "हि अंतोमुहुरेहि ऊतेची ससागरोवलं " घ० टी० का० पृ० ४४३ | ४ ० का २५० - २५९ । ५ षट्सं० का० २६० - २६८ । ६ विभंगाचा वा० आ०, ब०, ब०, ज० । ७ एवाचून तेतीस सागरोवमाणि विभंगणाणस्स उक्कस्तकालो दोदि ।" -४० टी० का पृ० ४५० । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽध्यायः ३९ संयमानुषादेन सामायिकच्छेदोपस्थापना परिहारविशुद्धि सूक्ष्मसाम्पराययथाख्यातसंयसंयतानामसंयतानाच चतुर्णां सामान्यतः कालः । मनुवादेन चतुर्दर्शनिषु मिथ्यादृष्टेन नाजीवापेक्षया सर्वः कालः, एक जीवं प्रति नर्स | उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र े । सासादन सम्यग्दृष्ट्यादीनामेकादशाकाष्ठार्य श्रमशनितुमध्या साक्षत द्वादशानां सामान्योक्तः कालः । ५ दिर्शनि नोरवधिज्ञानि केवलज्ञानिवत् । - लेश्यानुवादेन कृष्णनीलका पोसलेश्या मिथ्याः ष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स तु कालः तिङ्मनुष्यापेक्षया तेपामेव लेश्यापरावात् । एवं सर्वत्र व लेश्यायुक्तस्यान्तर्मुहूर्त्तस्तिर्यग्मनुष्यापेक्षया वेदितव्यः । श्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि सप्तदशसागरोपमानि सप्तसागरोपमानि "सातिरेकाणि । १० नारकापेक्षया यथासङ्ख्यं सप्तपञ्चतृतीयपृथिव्यां त्रयस्त्रिंशत्सप्तदश सप्तसागरोप।। देषनारकाणामवस्थितले श्यत्वात् ब्रजन् नियमेन तल्लेश्यायुक्तो व्रजति आगच्छतो मोनास्तीति सातिरेकाणि । सासादनसम्यग्दष्टिसम्यग्मिध्यादृयोः सामान्योक्तः कालः | सभ्यपदेर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकं जीत्रं प्रति जघन्येनान्तन्तर्मुहूर्तः रण श्रयत्रिंशत् सप्तदश सप्तसागरोपमानि 'देशोनानि । तत्कथम् ? उक्तलेश्यायुक्काऽसंय- १५ कजीवं प्रति उत्कर्षेण नारकापेक्षा उक्तान्येव सागरोपमान, पर्याप्तिसमापकासप्तम्यां मारणान्तिके च सम्यक्त्वाभावात् देशोनानि । तेजः पद्मलेश्ययोमिथ्यादृष्ट्य टष्टयोनाजीयापेक्षया सर्वः कालः | एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । द्वे सागरोपमे अष्टादश च सागरोपमानि 'सातिरेकाणि । कथमेतत् ? तेजः पद्म १० का २६९ - २७५। २-स्थापन चा०, ० ० प० का० २७६-२८२ । ฟุ้ง २८३ - ३०८ । ४- मुहूर्तः कालः स तु ति आ । ५ " एवं सोहुचेहि सादिरेयाणि तेची सागरीत्रमाथि किण्हलेस्साए उक्कस्सकालो होदि । दोहि तो मुहतेहि सादिरेयाणि सचारस सागरोत्रमाणि नीलले खाए उक्कस्सकाली होदि । एवं दोहि अंतोहि सादिरेयाणि सच सागरोमाणि काउलेस्साए उक्करसकालो होदि ।" ० डी० क३० पृ० ४५७, ४५८ । ६ "एवं छह अंतोमुह ऊणाणि तेची सं माणिकलेस्साए उक्रसकाली होदि । पच्छिल्लमंतोमुहुत्तं पुब्विल्लतिसु अंतोसोहिय सुद्ध सेसेणं ऊणाणि सत्तारस सागरोवमाणि असंजदसम्मणदिस्सि बोललेस्साए काली होदि । पचिल्ले अंतीच पुल्लितिसु अंतोनुते सोहिय दुवसेसेण सत्तागरोवमाणि काउलेस्साए उक्कम्सकाली हादि " ० टी० का० पृ० ४६०-४६२ | सा-आ००, घ० ज० । ८ ला सगदी पुल्लितो मुहुत्ते" अयमधिया । ..... काणि अंतोमुहून्तुणभद्राइज सागरोबमाणि संपुष्णानि । तत्थ भार सागरोमाणि पलदोॐ श्रसंखेजदिभाणन्महियाणि जीविण चुदस्स णट्टा पम्पलेस्सा | लद्वाणि अंतो दूधसागरोवमेण अहियाणि अारस सागरोत्रमणि । घ० ट्री० का० पृ० ४६३-४६५ । M Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० तत्त्वार्थपृष्ठों [शब्द लेश्या मिथ्यादृष्ट्य संयत सम्यच केजीवं प्रति उत्कर्षेण प्रथमस्वर्गपटलापेक्षया द्वे सागरोपमे । दाइशस्वर्ग पदळापेक्षा अष्टादश सागरोपमानि च तल्लेश्या युक्तानां मारणान्तिकोत्पाद सम्भवात् मार्गदर्शयतिरेकाद्यायुरवाना समाप्त मिहाकञ्चिदधिकानीत्यर्थः । सासादनसम्यदृष्टिसभ्यमिध्यादृष्ट्या सामान्योक्तः कालः । संयताऽसंगतप्रमत्ताप्रभत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया ५ सर्वः कालः । एकं जीवं प्रति जवन्येनेकसमयः । उत्कर्पेणान्तर्मुहूर्त: । शुकुलेश्यानां मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकं जीवं प्रति जघन्वेनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण एकत्रिंशत्सागरोपमानि सातिरेकाणि । तत्कथम् ? शुक्ललेश्यमिध्यादृष्टय कजीवं प्रति उत्कर्षेण एकत्रिंशत्सागरोपमा नि मैवेयक देवापेक्षया तेषां मारणान्तिकोत्पादावस्थायामपि शुक्ललेश्यासम्भवात् सातिरेकाणि । सासादनसम्यग्दृष्टयादिसयोगकेवल्यन्तानामलश्याना सामा१० न्योक्तः कालः । किन्तु संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकं जीवं प्रति जघन्येनैकः समयः उत्कणान्तर्मुहूर्त्तः । कथमेतत् ? संयतासंयतशुक्ललेश्यकजीवं प्रति गुणलेश्या परावर्त्तापेक्षेतराभ्यां जघन्येनैकसमयः । उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्त्तः । भव्यानुवादेन भव्येषु मिथ्याद्रष्टेर्नानाजीचापेक्षया सर्वकालः । एकजीवापेक्षया द्वी est अनादिः सपर्यवसानः, सादिपर्य्यवसान । तत्र सादिपय्र्यवसानः जघन्येनान्त१५ मुहूर्त: । उत्कर्षेण अर्धपुलपरिवर्ती देशोनः । सासादनसम्यग्द्रष्ट्रचाद्ययोगकेवल्यन्तानां सामान्योक्तः कालः | अभव्यानामनादिरपर्यवसानः । अयं तु तृतीयो भङ्गः । सम्यक्त्वानुषादेन क्षायिक सम्यग्दृष्टी नाम संयत सम्यष्ट्या वायोगकेवल्यन्तानां सामा न्योक्तः । क्षयोपशम सम्यग्टष्टीनां चतुर्णां सामान्योः कालः । के ते चत्वारः ? असंयतसम्यदृष्टि-संयतासंयत-प्रमत्तसंयता अप्रमत्तसंयताश्चेति । औपशमिकसम्यक्त्वेषु असंयत सम्यग्दृष्टि२० संयतासंयतयोनाजीबापेक्षया जघन्ये नान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण पल्योपमास येयभागः । एक जीवं प्रति जघन्यश्वोश्चान्तर्मुहूर्त्तः । प्रमत्ताप्रमत्तयोञ्चतुर्णामुपशमकाना नानाजी यापेक्षया एकजीवापेक्षया व जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्त्तः । सासादनसम्यमिध्यादृष्टिमिथ्यादृष्टीनाच सामान्योक्तः कालः । सब्यनुवादेन सब्क्षिषु मिथ्यादृष्ट्यादि नयगुणस्थानानां देववत् । शेषाणां सामा२५ न्योक्तः कालः | असञ्ज्ञिनां मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः | एक जीवं प्रति जधन्येन क्षुद्रभवम् । उत्कर्षेण अनन्तः कालः, असख्येयाः मुलपरिवर्त्ताः । ये तु न सञ्ज्ञिनो नाप्यसंज्ञिनरतेषां सामान्योक्तः कालः । "आहारानुवादेन आहारकेषु मिध्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवं प्रति "एवं पढमिल्लतो मुहुरेण सादिरेग एक्कत्तीस सागरोत्रममेत्तोचि मिन्छतसहिदक लेक्सकालो होदि ।” ५० डी० का० पृ० ४७२ । २ घटूखं कार ३०९ - ३१६ । ३ सादिः सप - सा०. व० । ४ "दं देसूणमदुषपोग्गल परियहं ।" १० दी० का ० पृ० ४८० । ५ पटू० का ० ३१७ - ३२९ । ६ षट्खे० का० ३३०-३३६ । संज्ञानु-आ०, ज० ७ ष० का ३३७-३४२ / ०, ब०, ब० Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ २८ ] मार्गदर्शक :- आचार्य प्रोविधिसागर जी महाराज जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः। "चक्रेण गतः चुद्रमत्रेषु पुनरपि वक्रेण गतः । उत्कर्षेण अङ्गुल्यसंख्येयभागः संख्येयाऽसंख्येया उत्सर्पिण्यव सर्पिण्यः । अस्यायमर्थः- उत्कर्षेण सङ्ख्याताऽसङ्ख्यातमानावच्छिन्नोत्सर्पिष्यव स्वपिणीलक्षणाङ्गुल्य संख्येयभागः शश्वदृजुगतिमत्वात् । शेषाणां सासद्नसम्यग्दृष्ट्यादीनां त्रयोदशगुणस्थानानां सामान्योक्तः कालः । अनाहारकेषु मिथ्यादृष्टेनाजीवापेक्षया सर्वः कालः । एकजीवं प्रति जघन्येनैकसमयः । उत्कर्षेण श्रयः समयाः, ५ "एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः ।" [ ० सू० २३० ] इति वक्ष्यमाणत्वात् । सासादनम्य नानाजीवापेतवा जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण आवलिकाया असंख्येयभागः । तच्चाबलिकाया असंख्येयभागः समयमानलक्षणत्वात् एकसमय एव स्यात्, आवल्या असंख्यातसमयलक्षणत्वादिति । एकजीवं प्रति जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण द्वौ समयौ । सयोग केव लिनो नानाजीचापेक्षया जघन्येन त्रयः समयाः समये समये दण्डादिप्रारम्भकत्वात्। उत्क- १० पैंण सख्येयाः समयाः जघन्योत्कृष्टसवख्यात मानावच्छिन्नाः निरन्तरं विषमसमये दण्डादिप्रारम्भकत्वात् । एकं जीवं प्रति जघन्यश्चोत्कृष्टश्च कालत्रयः समयाः प्रतरद्वयलोकपूरणलक्षणाः । अयोगकेवलिनां सामान्योक्तः कालः । इति कालवर्णनं सम्पूर्णम् । अथ अनन्तरमन्तरं निरूयते । विवक्षितस्य गुणास्थानस्य गुणस्थानान्तरसङ्कमे सति पुनरपि नद्गुणस्थानप्राप्तिः यावन्न भवति तावान् कालोऽन्तरमुच्यते । तदन्तरं सामान्यविशेष- १५ भेदात् द्विप्रकारं भवति । सामान्येन तावदन्तरमुच्यते--मिध्यादृष्टेना जीवापेक्षया अन्तरं नास्ति । एकं जीवं श्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण द्रे षट्षष्टी देशोने सागरोपमानाम् । तत्कथम् ? वेदकसम्यक्त्वेन युक्तः एक षट्षष्टिं तिष्ठति । वेदकसम्यक्त्वस्य उत्कर्षेण एता"वन्मात्रकालत्वात् । पुनरवान्तरे अन्तर्मुहूर्त्त यावत् सम्यग्मिथ्यात्वं गतस्य पुनरौपशमिकसम्यक्त्वग्रहणयोग्यता पल्योपमाख्येयभागे गते सति । एतावदन्तरे तत्र वेदकसम्यक्त्वग्रहण- २० योग्यता, ग्रहणं योग्यताया एवं सम्भवात् । सासादनसम्यग्वाण्टेरन्तरं नानाजीबापेक्षया जयन्येनैकर समयः | उत्कर्षेण पल्योपमासज्येयभागः । एकं जीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासवख्येयभागः । उत्कर्षेण अर्द्धपुलपरिवर्त्ता 'देशोनः । सम्यम्मिध्यादृष्टेरन्तरं नानाजीवापेक्षया सासादनवन् । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण अर्द्धपुलपरिवर्त्तो " देशोनः । १ "जगेण खुद्दाभवग्गणं तिसमयूणं । २११ । तिणि निग्गहे काऊ सुहुमेदिएसुप्पच च उत्थसमए आहारी होदून भुंजमाणाउयं कदलीघादेव घादिय अवसा विमा करिय णिग्गयम्स तिसमऊणख़ुदा भवग्गणमे ताहारकालं भादो ।" षट्सं० ० ४० १८४ | २ इति कालव्यावर्णना समाप्ता आ । इति कालव्यावर्णनं समासम् ब० । ३ षट्खं अ० २ - २० । ४ "दूधमंतरं बेटिसागरोबा ।" -५० टी० [अ०] १०७ । ५-मानका - अ० ६०. २० जे० । ६ “एवं समयाहियचोदसता भुहि ऊणमद्धमोग्गलपरिवदं सामणसम्मादिट् टिस्स उक्कस्तरं हादि । " ० ० ० ० १२७ "एदेहि चाहतो मुहुचेहि ऊणमद्धगोग्गल - परिय सम्माभिच्छन्त कमतर होदि ।" ध०डी० भ० पृ० १३ १ तो ६ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ तत्त्वार्थवृत्ती [ १८ असंयतसम्यग्दृष्टिसंयताऽसंयतप्रमत्तसंयताप्रमत्तसंयतानां नानाजीवापेक्ष्या अन्तरं नास्ति । एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्चः। उत्कर्षेण अर्द्धपुद्गलपरिवों देशोनः । चतुर्णामुपशमकाना नानाजीवापेक्षया जघन्येनकसमयः । उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम् । त्रिभ्य उपरि नवभ्योऽधः पृथक्त्वसज्ञा आगमस्य । एक जीवं प्रति जघन्ये नान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षेण अर्द्धपुद्रलपरिवों ५ *देशोनः । चनुणां झपकाणामयोगिकेवलिनाञ्च नानाजीयापेक्षया जघन्येनैकसमयः। उत्कर्षण षमासाः। एक जीवं प्रत्यन्तर नास्ति । सयोगकेवलिना नानाजीवापेक्षया" एकजीवापेक्षया चान्तरं नास्ति। विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगती नारकाणां सप्तसु नरकभूमिषु मिथ्यारष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टयो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षण १० एकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशसागरोपमानि “देशोनानि । “मासादनसम्यग्दृष्टि सम्यस्मिथ्यादृष्ट्यो नाजीवापेक्षया जघन्यनैकसमयः । उत्कर्पण पल्योपमासङ्ख्येयभागः । एक जीवं प्रति जघन्येन पन्योपमासङ्ख्येयभागः अन्तर्मुहूर्त्तश्च । उत्कर्वेण एकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि देशोनानि । तिर्यमातो, तिरश्चां मिथ्याचष्टेन नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एक जीवं प्रति जघ१५ न्येनाम्समुहका उत्कषायत्रीणि पायापमानाच दशानामान अधिकमपि कस्मान्नेति चेत् ? -- -.. १-संयतानां नाना-आ०, २०, २०, ज० । २ “एवमेक्कारसेहि अंतोमुहुरोहि ऊणमद्धपोग्गलपरियहमसंजदसम्मादिट्ठीण मुस्कस्संतरं होदि । एवमेक्कारसेहि अन्तोमुहुत्तेहि अणमद्धपोग्गलपरियमुक्कस्संतरं संजदासजदरस होदि "एवं दसहि अंतामुहुरोहि ऊपमडपोग्गलपरियट पमत्त स्मुक्कस्संतरे होदि । ..." एवं दसहि अंतामुहरोहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्ट अप्पमत्तस्सुक्कस्सतरं होदि ।" -ध० टी० भ० पृ. १५-१७ । ३-कः सम-ब। ४ “एवमट्टानीसेहि अंतीमुहुत्तेहि ऊणमोग्गलपरियट्टमपुयकरणमुक्कसंतरं होदि । एवं तिहमुवसामगाणं । णवरि परिवाहीए छव्योसं च वीस बावीस अंतीमहत्तेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियह तिण्डमुक्कस्सतरं होदि ।” -४० टी० अ० पृ. २० । ५-पेक्षया नात्यन्तरं विशे -मा, व, ब०, जा । ६ षट्स० अ० २१-१०० । ७ “उक्स्से ण तेत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि ।२३। एवं छहि अंतोमु हुचेहि ऊगाणि तेत्तीस सागरोवमाणि मिच्छ सुक्कस्संतरं होदि ।.."एवं अहि अंतीमुदुत्तेहि अगाणि तेत्तीस सागरोवमाणि असजदसम्मादिदि-उस्संतरं होदि ।" -ध० टो अ. पृ० २३ । ८ सासादनसम्यग्मिन्या -आs, द०, व, ज० । ९ "एवं समपाहियचदुहि अंतीमुहुत्तेहि ऊणाओ सगसगुक्कस्सटिंधीओ सासणाणुक्कसंतरं होदि ।' ''''"छहि अंतोमुहुनेहि जणाआ संगसगुक्काट्दिीओ सम्मामिच्छ,नक्कस्संतरं होदि ।" -ध० टी० ० ० ३०-३१ । १० “आदिल्लेहि महत्तपुधत्तम्भहिय-चेमासेहि अवसागे उबलद्ध के अंतोमुहुरोहि य उणाणि तिष्णि पलिदोवमाणि मिच्छत्सुक्कस्संतरं होदि ।" -२० टी० अ० पृ० ३२ । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोऽध्यायः ४३ क्षपणारम्भकवेदकयुक्तस्य तिर्यक्षुत्पादाभावात् तद्युक्तो हि देवेष्वेवोत्पद्यते। अतो मिध्यात्मयुक् त्रिपल्योपमायुष्को भोगभूमिषु उत्पद्यते । तत्र चोत्पन्नानां तिर्य्यग्मनुष्याणां किश्चिदधिकष्टत्वारिंशद्दनेषु सम्यक्त्वग्रहणयोग्यता "भवति, नियमादेतावदिनेषु मिध्यात्वपरित्या गात् सम्यक्त्वं गृह्णाति । त्रिपल्योपमायुः शेषे पुनर्मिध्यात्वं प्रतिपद्यते इति गर्भकालेन कितिदधिकाष्टचत्वारिंशदिनैः अवसानकालशेषेण च हीनत्वात् देशोनानि ज्ञातव्यानि । ५ सासादनसम्यग्दृष्ट्यादीनां चतुर्णां सामान्योक्तमन्तरम् । मनुष्य मनुष्याणां मिष्टया स्तिर्य्यग्वत् । यतो मनुष्या अपि भौगभूमौ तथाविधा भवन्ति । सासादन सम्यग्टष्टि सम्यग्मिध्यादृप्रयोर्मानाजीवापेक्षया सामान्ययत् । एकं जीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्त्तश्च । उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटिपृथक्त्वरभ्यधिकानि । असंयत सम्यग्दृष्टेर्नानाजी त्रापेक्षया नास्त्यन्तरम् | एकजीवापेक्षया १० जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि पूर्व कोटिपृथक्त्वैरभ्यधिकानि । संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तानां नानाजीयापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः उत्कर्षेण पूर्वकोटिपृथक्त्वानि चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवदन्तरम् । एकं जीवं प्रति जघन्ये नान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण पूर्वकोटिपृथक्त्यानि । शेषाणां क्षीणकषायादीनां मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज सामान्यवस् । १८ १५ देवगतौ देवानां मिथ्यादृष्ट्रय संयत सम्यग्दृष्टयोर्नानाजीबापेक्षया नास्त्वन्तरम् । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण एकत्रिंशत्सागरोपमानि देशोनानि । तत्कथम् ? मिध्यात्वयुक्तो अप्रैवेयकेषु उत्पद्यते, पश्चात्सम्यक्त्वमादाय एकत्रिंशत्सागरोपमानि तिष्ठति । अवसानhtशेषे पुनर्मिध्यात्वं प्रतिपद्यते । अन्यथा गत्यनुक्रमः" स्यादिति देशोनानि । सासादनसम्यदृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टयोर्नीनाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकं जीवं प्रति जघन्येन पल्योपम संख्ये- २० यभागः अन्तर्मुहूर्त्तश्च । उत्कर्षेण एकत्रिंशत्सागरोपमानि " देशोनानि । १ भवति एता ५०, ब० 'इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियाणां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवापेक्षया जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र े पूर्वकोटि पृथक्त्वैरभ्यधिके षण्णवतिपूर्वकोटिभिरभ्यधिके इत्यर्थः । विकलेन्द्रियाणां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकं जीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवप्रणम्, उत्कर्षेण अनन्तः कालोऽसंख्येयाः पुलपरिवर्त्ताः । एकमिन्द्रियं २५ ज० । २ दिनेषु सम्यक्त्वमिथ्या आ०, ६०, ब० ज० । ३ गर्भकाले कि - ० ०, ० ज० । ४ " चदुहि अंतोमुहुतेहि ऊणाणि एक्कची सागरोवभाणि उक्कस्तरं होदि । "पंचहि अंतोमुहुचेहि ऊयाणि एक्कनीसं सागरोवमाणि असंजदसम्मादिद्विस्स उक्करसंतरं होदि ।" ४० टी० अ० पृ० ५८ ५-नुगमः ज० । ६ इति शेषोनादे - मा० । ७ “तिहि समएहि ऊणाणि एक्कतीसं सागरोषमाणि सासणुक्कस्तरं होदि । छहि अंतोहि ऊणाणि एक्कतीसं सागरोवमाणि सम्मामिचत्तस्थुक्करसंतरं होदि ।" ५० डी० अ० ० ६० । ८० मं० १०१-१२९ । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ तत्वार्थवृत्त [१ : प्रति अन्तरमुक्तम् । गुणं प्रति उभयतोऽपि नास्त्यन्तरम् । उभयत इति कोऽर्थः ? एकेन्द्रियविकलेन्द्रियतोऽपि यतस्ते एकेन्द्रियविकलेन्द्रिया मिध्यादृट्रय एव । एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियाणां गुणस्थानान्तर सम्भवात् । पञ्चेन्द्रियाणां तु तत्सम्भवात् मिथ्यात्वादेः सम्यक्त्वादिना अन्तरं द्रव्यम् | पन्चेन्द्रियेषु मिध्यादृष्टेः सामान्यवत् । सासादन सम्यग्दृष्टिसम्य ५ मिना जीयापेक्षया सामान्यवन् । एक जीवं प्रति जघन्येन पयोपमासंख्येयमार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिया की भागोऽन्तर्मुहूर्त्त | उत्कर्षण सागरोपमसहस्र पूर्व कोटिपृथक्त्वभ्यधिकम् । असंगतसभ्यदृष्टाद्यप्रमत्तानां चतुर्णां नानाजीबापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एक जीवं प्रति जघन्येनान्तमुहूर्त्तः । उत्कर्षेण सागरोपमसहस्र' पूर्वकोटिपृथक्त्वैरभ्यधिकंम् । चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण सागरोपमसहूस २० पूर्वकोटिप्रथक्त्वैरभ्यधिकम् । शेषाणां चतुर्णा क्षपकाणां सयोग्ययोगिकेवलिना सामान्योक्तमन्तरम् । 'कायानुवादेन पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकानां नानाजीवापेक्षया नात्यन्तरम् । एकं जीवं प्रति जघन्येन द्रवहणम् | उत्कर्षेण अनन्तः कालोऽसंख्येयाः पुलपरिवर्त्ताः । वनस्पत्तिकायिकानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम्, एकजीवापेक्षया जघन्येन चुद्रभयग्रहणम् । १५ उत्कर्षेण असंख्येया लोकाः । तत्कथम् ? पृथिव्यादिकायानां वनस्पतिका श्रिकैरन्तरमुत्कर्षेणासंख्येयाः पुलपरिवर्त्ताः । तेषां नैरन्तरमुत्कर्षेण असंख्येया लोकाः वनस्पतिकायिकेभ्यः अन्येषामल्पकालत्वात् । एवं कार्य प्रत्यन्तरमुक्तम् । गुणस्थानं प्रति पृथिव्यादिचतुर्णां वनस्पतिकायिकानाञ्च अन्तरं नास्ति यतः पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकास्तथा वनस्पतिकार्यिका उम येsपि मिध्यादृष्य वर्त्तन्ते । त्रसका विकेषु मिध्यादयः सामान्यवत् । सासादनसम्यग्दृष्टि२० सम्यमिध्यादृयोननाजीवापेक्षया सामान्यत्रत। एकं जीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येय. भागोऽन्तर्मुहूर्त्तश्च । उत्कर्षेण द्रे सागरोपमसहस्र े पूर्वकोटिप्रथक्त्वैरभ्यधिके । असंयतसम्यदृष्ट्यादीनां चतुर्णां तानाजीवापेचया नास्त्यन्तरम् । एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र पूर्वकोटिपृथक्त्वैरभ्यधिके । चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र े पूर्व२५ कोटिष्टथक्त्वैरभ्यधिके । चतुर्णां क्षपकाणां सयोग्ययोगिनाञ्च पञ्चेन्द्रिययत् । I "योगानुवादन कायवाङ्मनसयोगिनां मिथ्याष्ट्रयसंयत सम्यग्दृष्टिसंयताऽसंयतप्रमत्ताप्रमत्तस योगकेवलिनां नानाजीयापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । कायवाङमयोगिनां मिध्याष्ट्याद्युक्तषड्गुणस्थानानां नानैकजीवापेक्षया अन्तरं कथं नास्तीति चेत् ? "कायादियोगिनोऽन्तर्मुहूर्त्तं कालत्वात् कायादियोगे स्थितस्थात्मनो मिध्यात्वादिगुणस्य गुणा १ चतुर्गु - ता० । २ - सहस्रे पू ० ० ०, ० ३ षट० अ० १३०-१५२ । ४- गिनां - ० द०, ब०, १०५ बखं० अ० १५३-१७७ । ६ - पेक्षया कश्रमन्तरम् आ०, ६०, ब० ज० १७ काययोगेनान्त ता० । काययोगिनान्त व० । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज १८ प्रथमोऽध्यायः न्तरेणान्तरं पुनस्तत्प्राप्तिश्व न सम्भवतीति कारणान् । सासादनसम्यग्दप्रिसम्यग्मियादृष्ट्योनोनाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकं जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । सासादनसभ्ययादीनामप्येकजीवापेक्षया अद एवं पुनस्तत्प्राप्त्यसंभवकारणान् नास्त्यन्तरम् । चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्ययत् । एकं जीवं प्रति नास्त्यन्तरम्। चतुर्णा क्षपकाणामं योगकेव लिनाऊच सामान्यवत् । वेदानुवादेन स्त्रीवेषु मिध्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकं जीवं प्रति जबन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण पचपचाशत्पल्योपमानि देशोनानि । सासादनसम्यग्दृष्टिसभ्यमध्यायोनाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एक जीवं प्रति जघन्येन" पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्त्तश्च । उत्कनेंग पल्योपमं शतप्रथक्त्वम् । असंयतसम्यग्दृष्ट्याप्रमत्तन्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण पल्योपमशत- १० पृथक्त्वम् । द्वयोरुपशमकयोर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । ननु उपशमकाअत्वारो वर्तते द्वयोरिति कस्मात् ? सत्यम्; अपूर्वकरणानिवृत्ति करणाभ्यामुपरि वेदाऽसम्भवात् । एवं द्वयोः क्षपकयोरपि चर्चनीयम्। एकं जीवं प्रति जघन्ये नान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण पल्योपमशतपृथक्त्वम् । द्वयोः क्षपकयांननाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः | उत्कर्षेण पृथक्त्वम् । एकं जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । पुंवेदेषु मिथ्यादृष्टेः सामान्यवत् । सासादनसम्यग्दष्टम्य- १५ मिध्यादृष्टयोर्नीना जीयापेक्षया सामान्यवत् । एकं जीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासङ्ख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्त्तश्च । उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । असंयत सम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमत्तन्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण सागरोपम शतप्रथक्त्वम् । द्वयोरुपशमक योनीना जीवापेक्षया सामान्यवत् । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । द्वयोः क्षपकयोनोनाजीवापेक्षया जघन्ये- २० नैकः समयः । उत्कर्षेण संवत्सरः सातिरेकः, अष्टादश मासा इत्यर्थः । एकं जीवं प्रति नात्यन्तरम् । नपुंसकवेदेषु मिध्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । “एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि देशांनानि । सासादनसम्यग्या द्यनिवृत्त्युपशमकान्तानां सामान्योक्तम् । अनिवृत्ति तदुपशमक तद्गुणस्थानमन्ते येषामिति प्रायम् । नवमगुणस्थानस्य नवभागीकृतस्य तृतीये भागे नपुंसक वेदो निवर्त्तते, २५ चतुर्थे भागे स्त्रीवेदो निवर्त्तते, पत्रे भागे पुंवेदो निवर्त्तते यतः । द्वयोः क्षपकयोः श्रीवेदवत् । "उत्कर्षेण अष्टादश मासाः । एक तत्कथम् ? नानाजीवापेक्षया जघन्येनेकः समयः । ४५ १ एकं प्रति । २-मश्रीगिके वा०, घ०, ब० द० ज० । ३ षट्सं० अ० १७८-२२२ । ४ हुने काणि पणवालिदीवनापि स्तर होदि ।" ० टी० ० ० ९५ । ५ त्योपमानि सं ० ६ - रुपवाभयोः आ०, ५०, ब० ज० ७ एक प्रति आ० । ८ " एनं कहि अंतोनहुनेहि ऊणाणि तेत्तीनं सागराचमाणि उक्कस्तर होदि ।" ३० टो० अ० पृ० १०७१ ९ विद्यते ता०, ब०आ०, ब०, ० | १० "उक्कस्येण वासपुत्तं" - षट्खं ० २१२ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ तत्त्वार्थवृत्त [ ११८ जीवं प्रति नास्त्यन्तरमित्यर्थः । वेदरहितेषु अनिवृत्तिवादोपशम कसूक्ष्म साम्परायोपशमकयोर्नानाजीबापेक्षया सामान्योक्तम् । एक जीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टश्च अन्तर्मुहूर्त्तः । उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकं जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । तस्याधो गुणस्थाने सवेदत्वात् । क्षीणकषायादोनाम वेदानां सामान्यवत् । "कषायानुवादेन क्रोधमानमायालो भकषायाणां मिध्यादृष्ट्याद्यनिवृत्त्युपशमकानां मनोयोगिवन् । द्रयोः क्षपकयोनी नाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः | उत्कर्षेण संवत्सरः सातिरेकः । केवललोभस्य सूक्ष्मसाम्परायोपशमकस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकं जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । केबललोभस्य सूक्ष्मसाम्परायक्षपकस्य सामान्यवत् । एकं जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् | अकषायेषूपशान्तकपायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकं जीवं २० प्रति नास्त्यन्तरम् । क्षीणकषाय सयोगाऽयोगकेवलिनां सामान्यत्रत् । ५ “ज्ञानानुत्रादेन या मध्यमानश्रुतातमा एकजोबापेक्षया व नात्यन्तरम् । सासादन सम्यग्द्दष्टेन नाजीवापेक्षया सामान्यवत्, जघन्येनॅकसमयः । उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभाग' इत्यर्थः । एकं जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । यतो ज्ञानत्रययुक्तकजीवेऽपि मिथ्यात्वस्यान्तरं नास्ति, गुणान्तरे ज्ञानत्रयव्यभिचारात् । सासादने १५ अस्तीति चेत्; न; तस्य सम्यक्त्यग्रहणपूर्वत्वात् सम्यग्दृष्टेव मिथ्याज्ञानविरोधात् । आभिनिषोधिक श्रुतावधिज्ञानिषु असंयतसम्यग्दृष्टननाजीषःपेक्षया नास्त्यन्तरम् एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण पूर्व कोटी देशोना । तत्कथम् ? देशविस्तादिगुणस्थाने अन्तरम्, अवसानकालशेषे पुनरसंयतत्त्रं प्रतिपद्यत इति देशोना । सयताऽसंयतस्य नानाजीबापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण षट्षष्टिसागरोप २० मानि सातिरेकाणि । षट्षष्टिसागरोपमानन्तरं पुनः संयतासंयतो भवति यतः । तत्कथम् ? असंयतप्रमत्तादिगुणस्थानेन अन्तरं पूर्वकोटिचतुष्टयाष्टवर्षेः सातिरेकाणि, मनुष्येषु उत्पन्नो हि अष्टवर्षानन्तरं संयतासंयत्तत्वं प्रतिपद्यत इति । प्रमत्ताऽप्रमत्तयोर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि 'सातिरे .9 १ षट्खं० अ० २२३-२२८ । २० अ० २२९-२५७ । ३-भागः एक अ०, ६०, ब० ज० : ४ चेत् तस्य आ० | ५ "लदं नहि अंतोमुचेहि ऊणिया कोडी अंतरं । आहिणाणि असंजद सम्मादिद्रिस्स पंचहि अंता मुहुतेहि ऊणिया पुञ्चकोडी मन्तरं । " ०००० ११५, ११६ । ६ शेषे पु आ०, दु०, ब० । ७ “ एवमवस्नेहि एक्कारस यि कणियाहिं तीहि पुष्कोडीहि सादिरेयाणि श्रवद्विसागरांवमाथि उक्करसंतरं । वरि आमिश्रिचोद्दियणाणस्स आदीदों अंतोमुहुतेन आदिकादूण अंतराविंय वारस अंतो मुहुत्ते हि समहिय अवस्सून ती हि पुन्यकोबीहि सादिरेयाणि छावद्विसागरोवमाणि त्ति वत्तब्वं ।" -५० टी० अ० पृ० ११७ । ८ " तेत्तीस सागरोवमाणि एगेतोमुरोण अव्मयि पुव्यकोडी सादिरेयाणि चक्करसं तरं ।' 'अवसिहि श्रछतो तेहि ऊणपुब्बकोडीए सादिरेयाणि तेत्तीस सागरोषमाणि उक्करसंतरं होदि ।" ध० टी० अ० पृ० १२१, १२२ । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८) प्रथमोऽध्यायः मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज काणि । चतुर्णामुपशमकानां नानाजीयापेक्षया सामान्यवन् । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण षट्षष्टिसागरोपमानि 'सातिरेकाणि | चतुणों क्षपकाणा सामान्यवत् । किन्तु अवधिज्ञानिनो नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण वर्षधत्वम् । एक जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । ___मनःपर्ययज्ञानिषु प्रमत्ताऽप्रमत्तसंयतयोनानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एक जीवं ५ प्रति जघन्यमुत्कृष्टवान्तर्मुहूर्त्तः । अधिकमपि कस्मान्नेति चेत् ! अधोगुणस्थानेषु वर्तमानानां मनापर्ययासंभवात् , तेषु वर्तमानानाञ्च अधिकमन्तरं सम्भवतीति । चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। उत्कर्षण पूर्वकोटी देशोना | तत्कथम् ? उपशमश्रेणीतो हि पतितास्ते मनःपय्ययानमपरित्यजन्तः प्रमत्ताप्रमसगुणस्थाने वर्तन्ते यावत्पूर्वकोटिकालशेषः, पुनस्तारोहणं कुर्वन्तीति देशोना। चतुर्णा १० अपक्राणामवधिज्ञानिवत् नानाजीवापेक्षया जघन्ये कसमयः। उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम् । एक जीवं प्रति नास्त्यन्तरमित्यर्थः । 'सयोगायोगकेवलिमानिनोः सामान्यवत् ।। __ संयमानुपादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनशुद्धिसंयतेषु प्रमत्ताऽप्रमत्तसंयतयोर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एक जीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टश्च अन्तर्मुहूर्तः। द्वयोरुपशमस्यो - नाजीवापेक्षया सामान्ययत् । एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण पूर्षकोटी १५ "देशोन्ग । तत्कथम् ? अवर्षानन्तरं तपो गृहीत्वा उपशमश्रेणिमारुह्य पतितः प्रमत्ता:प्रमत्तयोः पूर्वकोटिकालशेषं यावत् वर्तित्वा पुनस्तदारोहणं करोतीति देशोना । द्वयोः क्षपकयोः सामान्यवत् । पिरिहारशुद्धिसंयतेषु प्रमत्ताऽप्रमत्तयो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एक जीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टश्चान्तर्मुहूर्तः। सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयमे उपशमकस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत्। एक जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । कस्मात् ? गुणान्तरे सूक्ष्मसाम्पराय- २० संयमाभावात् । सूक्ष्मसाम्परायक्षपकस्य सामान्यवत् । “यथाख्याते अकषायवत् । संयता:संयतस्य नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । असंयतेषु मिथ्यारष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एक जीवं प्रति जघन्येनान्तमुहूर्तः। उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरो पमानि देशोनानि । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिध्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टीनां सामान्यवत् । १"अदि वस्सेहि छब्बीसंतोमहुवेदि य ऊणा तीहि पुच्चकोडीहि सादिरेयाणि छावद्धिसागरोचमाणि उक्कस्संतरं होदि ।" "गवरि चवीसमानीसबीसे अंतोमुहता ऊणा कादवा ।" -५० टी० भ० पृ. १२३, १२४ । २“यवसैहि वारसअंतोमुहुरोहि य ऊणिया पुन्यकोही उस्कस्सतरं । एवं तिहमुत्रसामगाणं । णवरि जहकमेण दसणवअट्ठभंतोमुहुला समओ व पुन्वकोडोदो ऊणा त्ति वत्तव्यं ।" -५० टी० अ० पृ. १२६ । ३ सयोग्ययोगिके--मा०, ५०, १०, ..। ४ पटसं• अ० २५८-२८१ । ५ "अहहि वस्तेहि एक्कारसअंतोमुहुचेहिय ऊणिया पुज्यकोटी अंतरं । एवमणियद्विरस वि णवरि सममाहिय व अंतोमुहुत्ता ऊणा कादव्या ।" - टी. थ० पृ० १३० । ६ परिहारसंयतेषु आग, १०,५०, म । ७ तमाख्याते ता० । ८ ' हि अंतोमुहुनेदि उणाणि तेत्तीस सागरोनमाणि मिच्छतुक्कसंतरं ।" -४० टी० म० पृ० १३४ । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्धत "दर्शनानुवादेन चतुर्दर्शनिषु मिध्यादृष्टः सामान्यवन् । सासादनसम्यग्दृष्टिसभ्यमिथ्यादृष्टयोर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकं जीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागः अन्तर्मुहूर्त्तश्च । उत्कर्षेण हे सागरोपमसहस्र देशोने । असंयत सम्यग्दृष्टिसंयताऽसंयतप्रम चमार्गदर्शक संयतोऽप्रमतसंपतानामापापक्षय मारयन्तरम् । एकं जीयं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । ५ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र े देशोने । चतुर्णामुपशमकानां नानाजीपापेक्षया सामान्योकम् । एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र ४ देशोने । क्षपकाणां क्षीणकषायान्तानां सामान्योक्तम् । अवतुर्दर्शनिषु मिथ्यादृष्ट्या दिक्षीणकषायान्तानां सामान्योक्तमन्तरम् । अवधिदर्शनिनोऽवधिज्ञानिवत् । केवलदर्शननः केवल ज्ञानिवत् । १० "लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतले श्येषु मिध्यादृष्ट्य संयत सम्यग् ष्टयोर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सप्तदशसमसागरोपमानि देशोनानि । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यमिध्यादृष्ट्योर्मानाजीवापेक्षया सामान्यवन् । एकं जीवं प्रति जयन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्त्तश्च । उत्क त्रयस्त्रिंशत् - सप्तदश- सप्तसागरोपमाणि देशोनानि । तेजः पद्मलेश्ययो मिध्यादृष्ट्यसंयतसम्य१५ ग्दृष्ट्योर्नानाजीषापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण द्वे सागरोपमे अष्टादश च सागरोपमानि । सासादन सम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्ट्योर्नानाजी 9 ४८ [ ११८ १० अ० २८२ - २९५ । २ एवं वहि अंत मुहुतेहि अवलियाए, असंखेज दि भागेण य ऊणिया चायुदंसणहिंदी सासगुक्कस्तरं । एवं वारस अंतीमुहुरेहिं ऊणिया चक्खुदंसणहिंदी उक्करसान्तरं ।" - ष० टी० म० पृ० १३७ । २ "दसहि अंतोहि कणिया मगष्टद अमजदसम्मादिट्ठीपण मुक्कस्तंतरं । एवमउदालीस दिवसेद्दि चारसामु हुनेयिऊण सगद्विदी संजदासंजदुक्कस्सतरं । 'एवमबस्ते िदसतोमुहुतहि ऊशिवा संगहिदी भत्तस्मुवकस्संतरं । एवमनसेहिं दस अंतीमुरीहि ऊणिया चक्बुदसणिहिंदी अयम चुकसंतर होदि " ० टी० अ० ० १४० १४१ ४ एत्रमदवसेद्दि एगूण तीस अंतोमुहुत्तेहिय ऊणिया सगहिदी अपुव्यकरणुक्रकरसंतरं । एवं तिष्हभुवसामगायं । यरि सत्तानी सपंचवीस तेवीस अंतोमुहुत्ता ऊणा कायव्या ।" -१० टी० अ० पृ० १४२ । ५ षटखे - अं० २९६- ३२७ । ६ एकत्रिंशत् द० । चयस्त्रिंशत्सागरोपमानि आ०, ब० । ७ एवं छन्दुदुलोमु हुने ऊणाणि तेतीस सारस - एतसागरांचमाणि किल्हणील काउसि यमिच्छादिद्विक्कस्तर होदि । एवमसेज सम्मादिसि वित्तव्यं । गवारे अष्ट-यंत्र-मंत्र अंतीमुहुरोहि ऊणाणि तेतीस सत्तारस-सत्तसागरीबमाणि उक्कस्तंतरं । -५० टी० अ० १० १४४ । ८ "एवं पंच चतु चतु अंतीमुहुरोहि ऊणाय तेत्तीस सत्तारस- सत्तसागरांवमाणि किन्ह. नीलकाउलेस्सियाखणुक्कस्तर होदि । एवं सम्मामिच्छादिहिस्सवि । वरि छह अंतोनुहुतेहिं ऊगाणि तेतीस सत्तारम सच सागरीवमाणि किंण्ड पील-कालेस्सियसम्मामिच्छादिट्टि उक्कस्वंतरं ।" ० डी० अ० ४० १४६ । ९- दा सागरी-आ०, ६०, ० च० ज० । १० - शेपमा आए, द०, ८०, ज० । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज प्रथमोऽध्यायः ४९ १८ ] मापेक्षया सामान्यवत् । एकं जीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंस्थेय भागोऽन्तर्मुहूर्त्तश्च । उत्कर्षेण द्वे सागरोपमे अष्टादश च सागरोपमाणि सातिरेकाणि । संयतासंयत प्रमन्ताऽप्रमत्तसंयतानां नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । कस्मात् ? परावर्त्तमानलेश्वत्वात् । शुक्ललेश्येषु मिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्योननाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकं जीवं प्रति अघम्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण एकत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि । सासादनसम्यष्टि-५ सम्यग्मिथ्यादृष्टयोर्नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एक जीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येभागोऽन्तर्मुहूर्त्तश्च । उत्कर्षेण एकत्रिंशत्सागरोपमाणि ' ' देशोनानि । संयताऽसंयतमन्तसंयतयोस्तेजोलेश्यैवम् शुकुलेश्यायाः अन्तरम् । अप्रमत्तसंयतस्य नानाजीत्रापेक्षया नास्त्यन्तरम् । शुकुलेश्येषु अप्रमत्तादी नामुपशमश्रेण्यारोहणाभिमुख्यारोहणसद्भावाभ्यां लेश्यान्तरपराभाषात् एकं जीवं प्रति जघम्यमुत्कृष्टवान्तर्मुहूर्त्तः । अपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरण- १० सूक्ष्मसाम्परायोपशमकानां प्रयाणां नानाजीवापेक्षया सामान्ययत् । एकं जीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टवान्तर्मुहूर्त्तः । उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकं जीवं प्रति नास्स्यन्तरम् । कस्मात् ? उपशान्तकषायस्य पतितस्य प्रमत्ते लेश्यान्तरम् 'असंस्पृश्य श्रेण्यारोहणात् एकजीयं प्रति नास्त्यन्तरम् । चतुर्णां क्षपकाणां सयोगकेवलिनामलेश्यानाञ्च सामान्यवत् । 4 'भध्यानुवादेन भव्येषु मिध्यादृष्ट्याद्ययोगिकेवल्यन्तानां सामान्यवत् । अभव्यानां १५ नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । १ १. सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टिषु असंयतसम्यग्देर्नानाजीवापेचया च नात्य न्तरम् । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना । कस्मात् ? गुणपरावर्त्तात् । संयताऽसंचतप्रमत्ताऽप्रमत्तसंयतानां नानाजीचापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकं जीवं प्रति अन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि । कस्मात् ? गुण- २० १-दयसागरी- भा० द०, ब० ज० । २ "एवं सादिरेय-वेारस-सागरोन भाणि दुसमयाणि सासगुक्कस्संत्तरं होदि । एवं सम्मामिच्छादिस्सि वि । वरिं छहि अंताचेहि ऊनिया उत्तद्वीदीओ अंतरं । ष० टी० [अ० १० १४८ । ३ "कुद एगजीवस्य विलसद्धादी गुणद्धाए, बहुत बदेसा ।"-० टी० ० पृ० १४९४ " चदुपनयंता मुदुचेरि ऊणागि एक्कली सागरीषमाणि मिच्छदिटि-अ संजद सम्मादिचीणमुक्कम्सन्तरं । घ० ० भ० ० १५० | ५० संघ-भा०, ६०, ग०, अ० । ६ " उक्करमेय एक्कनीसं सागरावमाणि देवखाणि । पट्खं० अ० ३१४/ ७- लेश्या - श्र० । ८ असंस्पृशन् ज० । संस्पृश्या ९ घट्खं० अ० ३२८-३३० | १० पट्ट ०३३१-३७८ । ११ "अस्सेहि त्रि अतोमुहुत्ते व ऊर्मिला मुख्यकांडी अंतरं ।" - टी. ० ० १५७ । १२ "अस्सेहि चोइस अंतोमुहिय उदापुव्वकाडीह सादिरेयाणि लेन्तीस सागरोत्रमाणि उक्कस्तरं संजदासंजदस्त अंतरस्य वाहिरा भट्ट अंतोगृहुत्ता अंतरम्स अब्भतरिया बित्र तो मुहुभूमुिञ्चकोडी, सादिरेयाणि तेत्तीस सागरोत्राणि उस्तरं । अथवा अवसा अट्टा अंतीमुहुत्ता । तेहि अणियाए पुल्लकीडीए सादिरेयाणि तेती सागरोव माणि प्रमत्तसुक्कस्तरं । अवसेसाए तो मुहुता । एदेहि ऊणपुचकोडीए सादिरयामि तेनीस सागसेवमाणि अपमन्त+वस्तर ।" ध० टी० अ० पृ० १५८-१६० । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थवृत्ती [१८ परावर्तापेक्षया । तथैव चतुर्णामुपशमकाना नानाजीवापेक्षया सामान्ययत् । एक जीषं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सोतिरेकाणि । शेषाणां सामान्यवन् । २क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिषु असंयतसम्यग्दष्टे नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण घर्षकोटी देशोना । संयताऽसंयतस्य नानाजीवा५ पेक्षया नास्त्यन्तरम् । एर्फ जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण षट्षष्टिसागरोपमाणि ५देशोनानि । प्रमत्ताऽप्रमत्तसंयतयो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एक जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि 'सातिरेकाणि । औपशमिकसम्यग्दृष्टिकसंयतसम्यग्दृष्टुर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनेकः समयः। उत्कर्षेण सप्तरात्रिन्दिनानि । एक जीयं प्रति जघन्यमुत्कृष्टश्चान्तर्मुहूर्तः। संयसासंयतस्य नानाजीयापेक्षया जघन्येनेकः समयः । १० उत्कर्षेण चतुर्दश रानिन्दिनानि । एक जीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टश्चान्तर्मुहूर्तः । प्रमत्ताऽप्रमत्त संयतयो नाजीवापेक्षया जयन्येनेंकसमयः । उत्कर्षेण पञ्चदश रात्रिन्दिनानि । एक जीषं प्रतिमामाकष्टाहासाबEART औपसिऽसंयतस्य सम्यग्दृष्टीनां सान्तरत्वात् । नानाजीवापेक्षया सप्त रानिन्दिनानि । औपशमिकसम्यक्त्वं हि यदि कश्चिदपि न गृह्णाति तदा सम्म रात्रिन्दिनान्येव । संयतासंयतस्य चतुर्दश रात्रिन्दिनानि । प्रमत्ताऽप्रमत्तयोः १५ पञ्चदश रानिन्दिनानि । एक जीव प्रति जयन्येनोत्कर्षेण 'चान्तर्मुहूर्तान्तरम् । तथा चोक्तम् "सम्मत्ते सत्तदिणा विरदाविरदेसु चउदसा होति । विरदेसु दोसु पणास विरहणकालो य बोद्धब्बो" ॥ १ ॥" [पनसं० १-२०५] त्रयाणामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम् । एक जीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टश्चान्तर्मुहूर्तः। उपशान्तकषायस्य नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । २० एकं जीचं प्रति नास्त्यन्तरम् । तत्कथम् ? उपशान्तकषायैकजीव प्रति नास्त्यन्तरम् । वेदकपूर्वकोपशमिकेन हि श्रेण्यारोहणभाग् भवति, तस्याः पतितो न तेनैव श्रेण्यारोहणं करोति, १ “एवमट्टवस्सेहि सत्तावीस अंतोमुहुनेहि उणदोषुथ्यकोडीहि सादिरेयाणि तेचीस सागरोवमाणि अंतरं । एवं चेव तिण्ड मुत्रसामगाणं । णवरि पंचवीस तेवीस एक्कवीस मुहुत्ता ऊणा कादवा ।" -० टी० पृ० १६१ । २ “वेदकसम्मादिही असंजदसम्मादिट्ठीर्ण सम्मादिद्विभंगो।"-पटक मा० ३४९ 1 पृ० १६२ । ३ "एवं चदुद्धि अंतीमुहुनेदि अणिया पुटबकोडी उक्कसतरं ।" -४० टी. भ० पू० १५५ । १-माणि मातिरेकाणि मा०, २०, २०, ष, ०। ५ “उक्कस्सेण छावहिसागरोवमाणि देसूणाणि |"-घट्व० ० ३५२ 1 पृ० १६२ । “एदेहि तीहि अंतीमुहुरोहि ऊणाणि छाबढिसागरोवमाणि संजदासजदुस्करसंसरं ।" -५० ह. अ. पृ० १६३ । ६“अवसेसा सत्त अंतोमुहुत्ता । एदेहि ऊणपुल्यकोडीए सादिरेयाणि तेतीसं सागरोवमाणि पमत्तसंजदुक्कस्संतरं । "" अवभेसा । एदेहिं ऊणपुचकोडीए, सादिरेवाणि तेत्तीस सागरावमाणि अच्पमतक्कासतरं ।" घटो भ. पू. १६४-१६५। ७ "किमत्थी सत्तरादिदियविरणियमा : साभावदो ।" -ध. री. स. पू. १६५। ८ तत्कथम था। ९-न्येन चोकण मा। १० सम्यक्त्वे समदिनानि विरताविरतेषु चतुर्दा भवन्ति । विरतयोयोः पञ्चदश विरहकालश्च बोद्धव्यः । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] प्रथमोऽध्यायः ५१ सम्यक्त्वन्तरं मिध्यात्वं वा गत्वा पश्चात् 'तदादाय करोतीत्यतो नास्ति तस्यान्तरम् । सासादनसम्यग्रिसम्यङ् मिथ्यादृयोर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनॅकसमयः । उत्कर्षेण पयोपमासंख्येयभागः । एकं जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । सासादनसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिध्यादृष्टित्वयुकेकजीवं प्रति नात्यन्तरम् । तत् कथमिति चेद् ? गुणेन्सर विरोध नाव विराज दिन अन्तराऽसम्भवात् । मिध्यादृष्टर्मानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । ५ संज्ञयनुवादेन संज्ञिषु मिथ्यार सामान्यवत् । सासादन सम्यग्दृष्ट्रिसम्यग्मिध्याहोनाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकं जीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागः अन्तमुहूर्त्तश्च । उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । असंयतसम्यग्दृष्टि संयताऽसंयत्तप्रमन्त संयताऽप्रमससंयतानां नानाजीवापेक्षया अन्तरं नास्ति । एकं जीवं प्रति जघन्यतयाऽन्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । एकं १० जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तः । उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वम् । चतुर्णां क्षपकाणां सामाव्यवत् । असंज्ञिनां नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । तत्कथम् ? एकगुणस्थानवर्त्तिश्वेन तेषां सासादनादिना अन्तराऽसम्भवात् । येन संज्ञिनो नाप्यसंज्ञिनस्तेषां सामान्यवत् । "आहारानुवादेन आहारकेषु मिध्यादृ: सामान्ययत् । सासादनसम्यम्टष्टिसम्म १५ मिथ्यादृष्टयोर्नानाजीषापेक्षया सामान्यवत् । एकं जीवं प्रति जघन्येन पल्योपभासंख्येयभागोऽन्तर्मुहूर्त्तश्च । उत्कर्षेण घनाङ्गुला संख्येयभागः । घनाङ्गुला संख्येयभाग इति कोऽर्थः ? असंख्येयाः संख्ये या उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः । असंयत सम्यग्दृष्टिसंयतासंयत्प्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एक जीवं प्रति जघन्ये नान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण अड्गुस्यसंख्येयभागः, असंख्येयाः संख्येया उत्सप्पिध्यवसर्पिण्यः । चतुर्णामुपशमकानां नाना- २० जीवापेक्षा सामान्यवत् । एकं जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कर्षेण अङ्गुला संख्येयभागोऽसंख्येयाः ७ संख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः । चतुर्णां क्षपकाणां सयोग केवलिनाच सामान्यवत् । अनाहारकेषु मिध्यादृष्टेर्नानाजीषापेक्षया एकजीयापेक्षया व नास्त्यन्तरम् । कथमेतत् ? अनाहारकेषु मिध्यादृष्टयेकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम्, अनाहारकत्वस्य एकत्रि समयत्वात् गुणस्थानस्य च ततो बहुकालत्वात् तत्र तस्य गुणान्तरेण अन्तरासम्भवादिति । २५ सासादनसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः | उत्कर्षेण पत्योपमासंख्येयभागः । एक जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । असंयतसम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । उत्कर्षेण' मासपृथक्त्वम् । एकं जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । सयोगकेवलिनो नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः | उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम् । एक जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । अयोगिनां 7 १ तद्र्यत्क - अ०, ब०, वृ० । २-रम् कथ - शा०, ६०, ० ० ३ पटू० अ० ३७९२८३ । ४ सासादनादीनां ० ० ५ पटखं० २०३८४-३९७ । ६ प्रमचसंयतानां श्र० द०, ७ असंख्यया उत्सर्पिभा, ० भ० ज० । ८ वर्षपृथकम् 1 व० ज० । प्रमतसंप्रमत्त ब० । भा० द० अ० ज० Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१e तत्वार्थवृत्ती नानाजीवापेक्षया जघन्य कः समयः । उत्कर्षेण षण्मासाः। एक जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । अन्तर विज्ञातं समाप्तमित्यर्थः । अथ भावस्वरूपं निरूप्यते । सामान्यविशेष 'भेदान् स भावो द्विप्रकारः । 'सामान्येन तावत मिथ्यादृष्टिरिति औदयिको भावः । कस्मात् ? मिथ्यात्वप्रकृत्युदयप्रादुर्भावात् । सासा५ दनसम्यग्दृष्टिरिति पारिणामिको भावः । ननु अनन्तानुबन्धिोधाद्युदये अस्य प्रादुर्भावा दौदायिकत्वं कस्मानोच्यत इति चेत् ? अविवक्षितत्वात् । दर्शनमोहापेक्षया हि मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानचतुष्ट ये भावो निरूपयितुमभिप्रेतोऽतः सासादने सम्यक्त्वमिध्यात्वतदुभयलक्षणस्य त्रिविधस्याऽपि दर्शनमोहस्य उदयध्यक्षयोपशमाभावात् पारिणामिकत्वम् । सम्यग्मिथ्यारष्तिरिति क्षायोपमिको भाषः । तथा चोकम् "मिच्छे खल्लु ओदइओ विदिए खलु परिणामिओ भावो । मिस्से खओवसमिओ अविग्दसम्मम्मि तिण्णेव' । [गो० जी० गाठ ११ ] "ननु सर्वघातिनामुदयाभावे देशघातिनाश्चोदये य उत्पद्यते भात्रः स भायोपशमिकः । न घ सम्पग्मिथ्यात्वप्रकृतेर्देशघातिमांनापति, अधिवक्रेत आपसमाहितारिख त्वान् । सत्यम् ; उपचारतस्तस्या देशघातित्वस्यापि सम्भवात् । उपचारनिमित्तश्च दंशतः ५९ सम्यक्त्वव्याधातित्वम् । न हि मिथ्यात्वप्रकृतिवत् सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृत्या सर्वस्य सम्यक्त्व स्वरूपस्य घातः सम्भवति, सर्वज्ञोपदिष्टतत्त्वेषु रुच्यन्तरस्याऽपि सम्भवात् । तदुपदिष्टतत्त्वेषु रुच्यरुच्यात्मको हि परिणामः सम्यग्मिथात्वमित्यर्थः । असंयतसम्बदधिरिति औपशमिको वा क्षायिको वा क्षायोपशमिको वा भाषः । असंयतः पुनरौदयिकेन भावेन । संयता संयतः प्रमत्तसंयतोऽप्रमत्तयत इति च आयोपशमिको भावः । चतुर्णामुपशमकानामिनि २. औपशमिको भावः । चतुर्पु क्षपकेषु सयोग्ययोगिकेवलिनोश्च क्षायिको भावः। विशेषेण "गत्यनुवादेन नरकगतौ 'प्रथमायां पृथिव्यां मारकाणां मियादृष्टचाद्यसंयतसम्यग्दृष्ट्यन्तानां सामान्यवत् । द्वितीयादिष्वासप्तम्याः मिध्यादष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिध्यादृष्टीना सामान्यवत् । असंयतसम्यग्दरोपशमिको या ज्ञायोपशमिको या भावः । असंयतः पुनरोदयिकेन मावेन । तिर्यगतौ तिरश्चां मिश्यादृष्टयादिसंगतासंय२५ तान्तानां सामान्यवत् । मनुष्यगतो मनुष्याणां मिथ्यादष्ट्याययोगकेवल्यन्तानां सामान्यमेव । देवगतौ देवानां मिथ्यादृष्टयादासयतसम्यग्दृष्ट्यन्तानां सामान्यचत् । इन्द्रियानुषादेन एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणामौदयिको भावः । पञ्चेन्द्रियेषु मिथ्यादृष्ट्यादायोगकेवल्यन्तानां सामान्यवत् । "कायानुवादेन स्थावरक्यायिकानामौदयिका भाषः । बसकायिकाना सामान्यमेव । १-पभावात् मा। २ पटखं भा० २.९ । ३ मध्यात्व खल्बौदायकः द्वितीय पुनः पारिणामिका भावः । भित्रै मायोपमिकः अविरतसम्यक्त्वं जीयब ।। ४ अस्याः आग, २०२० जः । ५ पटख. भा. १०-२९ । ६ प्रथमा पृथिव्यान आर, ब, १०,०। ७ मिथ्यादृष्ट्याद्यसंचलसम्म ट्यन्तानाम् पार, द., ब, ज०। ८ पर ख० मा. ३० । ९ षटर्ख० भा० ३१ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] प्रथमोऽध्यायः योगानुवादेन कायवाङ्मनसयोगिनां मिध्यादृष्ट्यादिसयोगिकेवल्यन्तानामयोगिफेयलिनाश्च सामान्यवन् । वेदानुवादेन स्त्रीपुंनपुंसकवेदानामवेदानाञ्च सामान्यषन् । कषायानुवादेन क्रोधमानमायालोभकषायाणामकषायाणाञ्च सामान्यवत् । "शानानुवादेन मत्यज्ञानश्रुताचानविभङ्गसानिनां मतिश्रुताबधिमनःपर्ययकेवलज्ञानिनाच सामान्यवत् । “संयमानुवादेन' सर्वेषां संयतानां संयतासंयतानाश्च सामान्यवन् । "दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनाऽचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनकेवलदर्शनिनान सामान्यवत् । 'लेण्यानुवादेन पट्लेश्यानामलेश्यानाश्च सामान्यवत् । *भव्यानुवादेन भव्यानां मिथ्यारष्ट्यागयोगकेवल्यन्तानां सामान्यवन् । अभव्यानो १० पारिणामिको भावः1 'सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टिषु असंयतसम्यग्दृष्टः क्षायिको भावः क्षायिकसम्यक्त्वम् । असंयतत्वं पुनरोदयिकेन भावेन । संयताऽसंयतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां श्रायोपशमिको भावः, क्षायिक सम्यक्त्वम् । चतुर्णामुपशमकानामौदयिको भावः, क्षायिक सम्यक्त्वम् । शेषाणां सामान्यवदियोपशमसाबाट मुक्तिकाली झायोपशमिको १५ भावः, क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वम् । असंयतः पुनरोदायकेन भावेन । संयताऽसंयतप्रमत्ताऽप्रमत्तसंयताना भायोपशमिको भावः, क्षायोपामिर्क सम्यक्त्वम् । औपशमिकसम्यादृष्टिषु असंयतसम्यादृष्टेरौपशमिको भावः, औपशामकं सम्यक्त्वम् । असंयतः पुनरौयिकेन भावेन । संयताऽसंयतप्रमसाऽप्रमत्तसंयतानामौपशमिको भावः, औपशमिक सम्यक्त्वम् । चतुर्णामुपशमकानाम् औपशमिको भावः, औपमिक सम्यक्त्वम् । सासादनसम्यग्दृष्टेः १० पारिणामिको भावः । सम्यग्मिध्यादृष्टेः १२क्षायोपशमिको भावः । मिथ्यादृष्टेरौदयिको भाषः । संझ्यनुवादेन संझिनो सामान्यवत् । असंज्ञिनामौदयिको भावः। ये न संबिनो नायसंनिस्तेषां सामान्यवस् । १४आहारानुवादेन आहारकाणामनाहारकाणां च सामान्यवत् । इति भाचो विभावितः । • अथ "अल्पबहुत्य ५६ परिवर्ण्यते-सद् द्विप्रकारम्-सामान्यविशेषभेदात् । ५७सामान्येन २५ तावत् सर्वतः स्तोकाः वय उपशमकाः, अष्टसु समयेषु क्रमान प्रवेशे एको वा द्वौ वा त्रयो या इत्यादि जघन्याः । उत्कृष्टास्तु १६।२४।३०।३६।४२१४८१५४१५४ । स्वगुणस्थानकालेषु १ षट्वं. भा० ३२-४ । २ पट्खं भाग ४१, ४२ । ३ पटक ० भा० ४३, ४४ । ४ षट्वं० भा. ४५-४८ । ५ मयता-साः। ६ वटावं. भा. ४९-५५ । ७ संबताना च आ०, बा, ज० । ८ पदावर भा० ५६-५८ । ५ पटवं. मा० ५९-६१ । १० पटलं भा० ६२-६३ । ११ पट स्व० भा० ६४-८८1 १२ धायिको भारः भा०, ५०, ज० । १३ षटकां. भा० ८९, ९०। १४ षट्रस्थं मा. ९१-९३ । १५ अम्बं सा० । १६-बहुत्वञ्च प-प० । १७ पटव० अ० २-२६ । १८ प्रबंशको आ० । प्रवेशेको य० । प्रवेशका ७० 1 प्रवेशो एको ता० । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती [१८ प्रवेशेन तुल्यसंख्याः। उपशान्तकषायास्ताबन्त एव संख्याकथमावसरे प्रोक्ताः । उपशमकानां इतरगुणस्थानवत्तिभ्योऽस्पत्यात प्रथमतः कथनम् । तत्रापि त्रय उपशमकाः सकपायत्वात् उपशान्तकषायेभ्यो भेदेन निष्टिाः प्रवेशेन तुल्यसंख्याः । सर्वेऽप्येते पोडशादिसंख्याः । वयः क्षपकाः संख्येयगुणाः । कोऽर्थः १ उपशमके यो द्रिगुणाः इत्येवमादिसंख्याविचारे विचारितमिह द्रष्टव्यम् । सूक्ष्मसाम्परायसंयता विशेषाधिकाः । तत्संयमयुक्तानामुपशमकानामिव झपकानामपि प्रणात् । क्षार्गकमिवीतराकाहास्त्रिास्ताविहिपागर सम्योगहसिमोऽयोगकेवलिनश्च प्रदेशेन तुल्यसंख्याः । सयोगकेवलिनः स्वकाल समुदिताः संख्येयगुणाः ८९८५०२ । अप्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः । प्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः । संयतासंयताः संध्येयगुणाः । संयताऽसंयवानां नास्त्यल्पबहुत्वमेकगुणस्थानवतित्वात् , संयतानामिव गुण१० स्थानभेदाऽसम्भवात् १३०००००० । सासादनसम्यग्दृश्यः संख्ये यगुणाः ५२०००००० सम्यम्मिथ्यादृष्टयः संख्ययगुणाः १०१०००.००० । असंयतसम्यग्दृष्टयः संख्ययगुणाः ७२००००००००। मिथ्यादृष्टय अनन्तगुणाः । विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ सर्वासु पृथिवीषु मारकेषु सर्वतः स्तोकाः सासादनसम्यादृष्टयः । सम्यग्मिध्यादृष्टयः संख्ययगुणाः । असंयनसम्यग्दृष्टयः असंख्येयगुणाः । ५५ मिथ्याष्ठयोऽसंख्येयगुणाः। तिय्यंगातौ तिरश्च सर्वतः स्तोकाः संयताऽसंयताः । इतरेषा सामान्यवत् । मनुष्यगती मनुष्याणामुपशमकादिप्रमत्ताऽप्रमत्तसंयतान्तानां सामान्यवत् । ततः संख्येयगुणाः संयताऽसंयताः । सासादनसम्यग्दृष्टयः संख्येयगुणाः । सम्यग्मिथ्यादृष्टयः संख्येयगुणाः । असंयतसम्यग्दृष्टयः संख्येयगुणाः । “मिथ्यादृष्टयः [अ] संख्येय गुणाः । देवगतौ देवानां नारकवत् । २० इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियविकलेन्द्रियेषु गुणस्थानभेदो नास्तीति अल्पबहुत्वाऽभावः । इन्द्रियं प्रत्युच्यते परुचेन्द्रियेभ्यः चतुरिन्द्रियाः बहवः । चतुरिन्द्रियेभ्यतीन्द्रिया बहवः । त्रीन्द्रियेभ्यो द्वीन्द्रिया ययः । तेभ्य एकेन्द्रिया बहवः । पञ्चेन्द्रियाणां सामान्ययत् । अयं तु विशेषः । मिथ्यदृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । 'कायानुवाइन स्थावरकायेषु गुणस्थानभेदाभावात् अल्पबहुत्वाभावः । कार्य प्रत्युच्यते २५ सर्वेभ्यः तेजाकायिका “अल्पे । तेभ्यः पृथिवीकारिका बहवः । तेभ्योऽरकायिका बढ्बः । तेभ्यो वायुकायिका बहवः । सर्वेभ्यो वनस्पतयोऽनन्तगुणाः। त्रसकायिकानां पञ्चेन्द्रियवन् । “योगानुवादेन वाङ्मनसयोगिनां पञ्चेन्द्रियवत् । काययोगिनां सामान्यवत् । 'वेदानुवादेन स्त्रीपुंवेदानां पञ्चेन्द्रियवत् । नपुंसकवेदानामवेदानाश्च च सामान्यवन् । १-छदास्थावस्थानन्तः सा --०, ६०, ब०, ० । २ संयतासंग्रतानामिव मा०, य.. द०,जः । ३ षटरखं. १० २७-१०२। ४ नव्यय-आ., ब, दज । ५ "मिच्छादिदी असंखेज गुणा, मिच्छादिट्ठीसु गखेमा गुण ।"-पदलं भ० ६५ । सर्वाध० पृ. ३०। ६ पटौ. अ० १०३ । ७ पटलं. अ० १०४ ' ८ अलग-व। बयः भार, द., १०, ज । ९ पर्ख० म० १०५-१४३ । घटख० अ० १४४-१९६ । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] प्रथमोऽध्यायः पायानुषादेन क्रोधमानमायाकषायाणां पुंवेदवत् । अयं तु विशेषः। मिथ्याहट्योऽनन्तगुणाः । लोभकपायाणां द्वयोरुपशमकयोस्तुल्यसंख्याः । ततो द्वयोः बहवः । क्षपकाः संख्येयगुणाः सूक्ष्मसाम्परायेषु झु पशमकसंयता विशेषाधिकाः । सूक्ष्मसाम्परायक्षपकाः संख्येयगुणाः। शेषाणां सामान्ययत् । "मानानुवादेन मत्यज्ञानिश्रुताझानिषु सर्वतः स्तोमः सासादनसम्यग्दृष्टयः। मिथ्या- ५ दृष्टयोऽनन्तगुणाः। विभङ्गशानिषु सर्वतः स्तोकाः सासाइनसम्यग्दृष्टयः । मिध्यादृष्टमोऽसकरूयेयगुणाः मतिश्रुतावधिनानिषु सर्वतः स्तोकाश्चत्वार उपशमकाश्चत्वारः क्षपकाः सरूयेयगुणाः । अप्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः । प्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः । संयतासंयता असल्येयगुणाः, तियंगपेक्षयेत्यर्थः । असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः, देवनारकतिय॑म्मनुष्यापेक्षया । मनःपयंयनानिपु सर्वतः स्तोकाश्चत्वार उपशमकाः । चत्वारः क्षपकाः सकल्ये २० यगुणाः । अप्रमत्ताः संख्येयगुणाः । प्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः। केवलझानिषु 'अयोगकेवलिभ्यः सयोगकेवलिनः सख्येयगुणाः। तस्कथम् ? अयोगकेवलिनः एको वा हो या त्रयो वा उत्कर्षण अष्टोत्तरशतसङ्ख्याः । स्वकालेन समुदिताः सङ्ख्येयाः । तेभ्यः सङ्ख्येयाः सयोगकेलिनः ८९८५०२ । 'संयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनशुद्धिसंयतेषु योरुपशमकयोस्तुल्यसङ्ख्याः । १५ मार्गदर्शवतः सायेण्डा साटासाभसमाहरोयगुप्याः। प्रमत्ताः सङ्ख्येयगुणाः । परि हारशुद्धिसंयतेषु अप्रमत्तेभ्यः प्रमत्ताः सङ्ख्येयगुणाः । सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयतेषु उपशम्मकेभ्यः अपकाः सङ्ख्येयगुणाः । यथाख्यातविहारशुद्धिसंग्रतेपु उपशान्तकपायेभ्यः क्षीणकपायाः सङ्ख्येयगुणाः । अयोगकेवलिनस्तावन्न एव, उपशान्तकपायेभ्य: सल्येयगुणा इत्यर्थः । सयोगकेवलिनः सख्येयगुणाः । संयताऽसंयत्तानां नास्त्यल्पग्रहुत्वम् । असंयतेषु २० सर्षतः स्तोकाः सासादनसम्यग्दृष्टयः । सम्यग्मिध्यारष्टयः सङ्ख्येयगुणाः । असंयनसम्या. योऽसल्येयगुणाः, देवाद्यपक्षया इत्यर्थः । मिथ्यानष्टयोऽनन्तगुणाः। 'दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनिनां काययोगिवत् , सामान्यवदित्यर्थः । अवधिदर्शनिनामवधिज्ञानवान् । केबलदर्शनिनां केवलज्ञानिवत् । लेश्यानुषादेन कृष्णनीलकापोतलेश्यानामसंयतबत् । तेजःपद्मलेश्यानां सर्वतः २५ स्तोकाः अश्मताः प्रमत्ताः संख्येयगुणाः । संयताऽसंयतसासादनसम्यग्दृष्ट्यसंयतसम्यरतष्टीनां पञ्चेन्द्रियवत् । शुक्ललेश्यानां सर्वतः स्तोकाः ५ 'उपशमकाः १२११९६। क्षपकाः पटसं० अ० १९७-२१५। २ थमानकापा-याणाम् आ० । श्राधमानमा पालाम .. । ३ येषु उप-माल, ज०। विशेषाधिकारः भा०, १०, १०। ५ षटक्षे० अ० २१६२४३ । ६ अयोगकेवलिनः शंख्ये-आ०, २०, ० । - अधोगतत् कथम् ज । ७ मदिनाः तेभ्यः श्रा०, २०, वर, घर, ज० । ८ पर्ख० अ० २४४-२८५ । ९ षटस्त्रं ० अ० २८६-२८५ । १० पर्ख० अ० २९०-३२७ । ११ 'उपशमकाः' श्रा०, ५०, ०, ज० पुस्तकेा नाम 1 १२ २२९६ श्रा०, २०, द०. नः । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवृत्तौ [१८ संख्येयगुणाः १२९९० | सयोगिकेबलिनः संख्येयगुणाः ८९८५०२ । अप्रमत्तसंयताः संख्येयगुणाः २९६९९१०३ | प्रमत्तसंयताः संख्ये यगुणाः ५९३९८२०६ । संयताऽसंयताः संख्ये - यगुणाः, तिर्यङ्मनुष्यापेक्षया । सासादनसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । सम्यम्मिध्यादृथ्र्यो - संख्येयगुणाः । मिध्यादयोऽसंख्येयगुणाः । असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसंख्येयगुणाः । ५६ भव्यानुवादेन भव्यानां सामान्यवत् । अभव्यानामल्पबहुत्वं नास्ति । I सम्यक्त्वानुषान क्षायिकसम्यग्दृष्टि सर्वतः स्तोकाश्चत्वार उपशमकाः । इतरेष * प्रमत्तान्तानां सामान्यवन् । ततः संयताऽसंयताः संख्येयगुणाः । असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसड्रख्येयगुणाः | "क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिषु सर्वतः स्तोकाः अप्रमत्ताः । प्रमत्ताः सङ्ख्येयगुणाः । संयताऽसंयता असल्येयगुणाः, तिर्य्यगपेक्षया । असंयतसम्यग्दृष्टयोऽसयेय१० गुणाः । औपशमिकसम्यग्दृष्टीनां सर्वतः स्तोकात्वार उपशमयाः । अप्रमत्ताः सङ्ख्येय"मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर जी महाराज गुणाः । प्रमत्ताः सङ्ख्येयगुणाः । संयताऽसंयताः असैंख्येयगुणाः । असंयत सम्यग्दृष्टोऽसख्येयगुणाः । शेषाणां मिध्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टोनां नास्त्यल्पबहुत्वम्, विपक्षे एकैकगुणस्थानात् । कोऽर्थः ? मिध्यादृष्टिः सासादनो न भवति, सासादनसम्यग्दृष्टिस्तु मिध्यादृष्टिर्न भवति यतः । १५ 'संज्ञानुवादेन संशिनां चतुर्दर्शनिवत् । चक्षुर्दर्शनिनां काययोगिवत् । काययोगिनां सामान्ययदित्यर्थः । असंज्ञिनां नास्त्यल्पबहुत्वम् । ये न संज्ञिनो नाऽप्यसंज्ञिनस्तेषां केवलज्ञानिवत् । आहारानुवादेन आहारकाणां काययोगिवत् । अनाहारकाणां सर्वतः स्तोकाः सयोगकेवलिनः अयोग के बलिनः सङ्ख्येयगुणाः । सासादन सम्यग्दृष्टयोऽसख्ये यगुणाः । असंयतसम्यग्दृष्टोऽसङ्ख्यगुणाः । मिथ्यादृथ्र्योऽनन्तगुणाः । एवं गुणस्थानानां गत्यादिषु मार्ग२० णाऽन्वेषण कृता । सामान्येन तत्र सूक्ष्मभेदः आगमविरोधेनानुसर्तव्यः । एवं सम्यग्दर्शनस्य प्रथमत उद्दिष्टस्य तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्" इत्यतेन सूत्रेण तस्य - सम्यग्दर्शनस्य लक्षणोत्पत्तिस्वामि विषयन्यासाधिगमोपाया निर्दिष्ाः । “तत्त्वाश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्” इति लक्षणम् । “तनिसर्गादधिगमाद्वा" इत्यनेनोत्पत्तिः । सम्यग्दर्शनस्वाभिनो जीवाऽजीवादिपदार्थाः सम्यग्दर्शनस्य विषयः । "नामस्थापनाद्रव्य२५ भावतस्तन्न्यासः " "प्रमाणन यैरधिगमः" "निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः" इत्यनेन "सूत्रेण अधिगम स्योपायः सम्यक्त्व प्राप्त्युपायः । तथा "सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावात्पबहुत्वैश्च" इति सम्यक्त्वस्याधिगमोपायः । तत्सम्बवेन च सम्यग्दर्शनसम्बन्धेन जीवादीनां संज्ञापरिणामादि निर्दिष्टम्। “जीवाजीवा स्त्रव १३९३६० २ ० ० ३२८-३२९ । ३ पदखे० भ० ३३०-३५४ । ४ प्रमतानाम् आ । ५ क्षापशमिकाः सम्य-आ०, ६०, ब० ज० । ६ षट्सं० ० ३५५-३५७ । ७ -दर्शनवत् श्र० । ८ ० अ०३५८-३८२ । ९ - केवलिनश्च म ० ०, ० | १० अनुकर्तव्यः | ११ त ० १२ १२ स० सू० १/३ | १३०० २५-७ । १४ ० सू० १८ । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९/ मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज प्रथमोऽध्यायः बन्धसंवरनिर्जरमोक्षास्तत्त्वम्" इति संझा। अस्यैव सूत्रस्य वृत्ती जीवादीनां निरुक्तिद्वारंग परिणामादि वेदितव्यम् । अथ सम्यग्ज्ञानं विधार्यते मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् ॥ ९ ॥ इन्द्रियमनसा च यथायथमर्थान् मन्यते मतिः। मनुतेऽनया वा मतिः । मननं या मतिः । ५ भुवनावरणकर्मक्षयोपशमे सति निरूप्यमाणं श्रूयते यत्तत् श्रुतम् । शृणोत्यनेन तदिति या भुवम् । श्रवणं वा श्रुतम् । अवाग्धानं अवधिः । कोऽर्थः ? अधस्ताद् बहुतरविषयग्रहणादयविसन्यते । देवाः खलु अवधिज्ञानेन सप्तमनरकपर्यन्तं पश्यन्ति, वपरि स्तोकं पश्यन्ति, निमविमानध्वजदण्डपर्यन्तमित्यर्थः । अवच्छिन्नविषयत्वाद्वा अवधिः। कोऽर्थः ? रूपिलक्षणविवक्षितविषयत्याना अवधिः । परकीयमनसि स्थितोऽर्थः साहचर्यात् मन इत्युच्यते । तस्य १० पर्वणं परिगमनं परिज्ञानं मनःपय॑यः। ननु तन्मतिज्ञानमेव; तन्न; अपेक्षामात्रखात्, अयोपमशक्तिमात्रविजृम्भितं तत्केवलं स्वपरमनोभिव्यपदिश्यते, यथा अनं चन्द्रमसं पश्येति, प्रथा मनसि मनःपर्ययः, अभ्र व्यापि "मनोव्यापि । यन्निमित्तं बाान अभ्यन्तरेण च तपसा मुनयो मार्ग केवन्ते सेवन्ते तत् केवलम् । असहायत्याद्वा केवलम् ।। प्रान्ते लभ्यते यतस्तदयं केवलस्य अन्ते ग्रहणम् । मनापर्ययस्य समीपे केवलझानं १५ प्राप्यते तेन मनापर्ययस्य समीप केवलस्य ग्रहणम् । अनयोः प्रत्यासत्तिः कस्मात् ? संयमैअधिकरणत्वात् । यथाख्यातचारित्रत्यादित्यर्थः । केवलज्ञानस्य अवधि(रतरवर्ती कृतः । खस्किमर्थम् ? 'दूरतगन्तरत्यात् । अवधिमनःपर्येयकेवलज्ञानत्रयात् परोक्षसानं मतिश्रुतद्वयं पूर्व किमर्थमुक्तम् ? तस्य द्वयस्य "सुप्रापत्वात् । मतिश्रुतानुपरिपाटी हि श्रुतपरिचिताऽनु• भून वर्तते, सर्वेण प्राणिगणेन तव्यं प्रायेण प्राप्यते । मतिश्रुतपद्धतेः बचनेन श्रुतायाः २० सास्वरूपसंवेदनमा परिचितत्वमुच्यते । अशेषविशेषतः पुनः पुनश्चेतसि तत्स्वरूपपरिभाषनमनुभूतस्वं कध्यते । मतिश्च श्रुतश्च अधिश्च मनःपर्ययश्च केवल मत्तिभुवाव. विमनापर्ययकेवलानि । एतानि पञ्च ज्ञानं भवतीति वेदितव्यम् । एतेषां भेदा अप्रे वक्ष्यन्ते । अय "प्रमाणनयैरधिगमः" इति सूत्रं यत्पूर्व मुळी- वत्र प्रमाणं ज्ञानमिति केचना" मन्यन्ते । केपितु सग्निकर्षः प्रमाणमिति मन्यन्ते । सत्रिकर्ष इति कोऽर्थः ? इन्द्रियं २५ (विषयाच तयोः सम्बन्धः सप्रिकर्षः । तदुभयमपि निराकर्तुम् अधिकृसानामेव मत्सदीनां भिमणत्वसूचनार्थ सूत्रमिदमाहु: १०० स. ११४१ २ अवधानम् मा०,०, 4,40 | ३ साहचर्यान्मन्यते मनः बा०, E .०, म० । ४ परिणमनम् मार, ०.०.०१ ५ मनोऽपि व्यापि वा । ६ दुरत खात्मा०.१०,००। ७ सुप्राप्यत्वात् मा०, ०००। ८-पाटी श्रुत-भा०, २०, ....०। ९शानानि भवन्तीति भाग, , ०,०। १० पृ० ८ । ११.बौरादयः । R नैयायिकादयः । १३ इन्द्रियविषयः तदु-वा० । १४ -दं प्राहुः आ०,०, २०० Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्त ५८ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्प्रमाणे ॥ १० ॥ [ inte तन् मतिश्रुतावधिमनःपर्यय केवललक्षणं पञ्चविधं ज्ञानं द्वे प्रमाणे भवतः न सन्निकर्षः प्रमाणम्, नाऽपीन्द्रियं प्रमाणमित्यर्थः । 'यदि सन्निकर्षः प्रमाणम् ; तईिं सूक्ष्माणां व्यवहितानां विकृपानाचार्थानां ग्रहणाप्रसः स्यात् । ते सूक्ष्मा व्यवद्दिता विकृ ५ इन्द्रियैः सन्निष्टु ं न शक्यन्ते । तेन तु सर्वज्ञत्वस्याभाव: स्यात् । तत्कथम् ? यदिन्द्रियैर्न सन्निकृष्यते तन्न ज्ञायते, तेन सर्वज्ञाभावो भवेत् । इन्द्रियमपि प्रमाणं न भवति, उक्तदोषत्वादित्यर्थः । चक्षुरादीनां विषयो हि अल्पः ज्ञेयं तु अनन्तत्वादपरिमाणं यतः । सर्वेषामिन्द्रियाणां सन्निकर्षाभावश्च वर्त्तते । कस्मात् ? चक्षुर्मनसोरप्राप्यकारित्वात् । "न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ' [ ० सू० ११२९ ] इति वचनाश्च । १० यदि ज्ञानं प्रमाणं तर्हि फलाभावः । अधिगमो दीष्ट फलं वर्तते, न भावान्तरम्" | स चेत् अधिगमः प्रमाणम् ; न तस्याधिगमस्यान्यत्फलं भवितुमर्हति । प्रमाणेन च फलवता भवितव्यम् । सन्निकर्षे इन्द्रिये वा प्रमाणे सति अधिगमोऽर्थान्तरभूतः फलं युज्यते ; तन्न युक्तम् ; यदि सन्निकर्षः प्रमाणमर्थाधिगमः फलं तस्य प्रमाणस्य दुष्ट ( द्विष्ट ) स्वात् तत्फलभूतेन अधिगमेनाऽपि दुष्टेन ( द्विष्टेन) भवितव्यम् । कथं द्विष्ठोऽधिगमः ? १५ अर्थाधीनो यतः । आत्मनश्चेतनत्वात् तत्रैव आत्मनि समवाय इति चेत्; न; स्वभावाभावे शायकस्वभावाभावे सर्वेषामर्थानामचेतनत्वात् । ज्ञस्वभावाभ्युपगमो वा आत्मनो भवतु तहिं प्रतिज्ञाहानिस्तव भवति तेषामचेतनत्वात् । ननु चोक्तं ज्ञाने प्रमाणे सवि फलाभाव इति यदा तेनोकं तन्नैष दोषः ; अर्थाधिगमे प्रीतिदर्शनात् । स्वभावस्यात्मनः कर्म्ममलीमसस्य करणात्म्यनात् अर्धनिश्वये सति प्रीतिरुपजायते । सा प्रीतिः फलमुच्यते । २० अथवा उपेक्षा अज्ञाननाशो वा फलम् । का उपेक्षा ? रागद्वेषयोरप्रणिधानमुपेक्षा । अन्धकारसदृशाज्ञानाभावः, अज्ञाननाशो वा फलमित्युच्यते । I प्रमिणोतीति प्रमाणम् । “कृत्ययुटो ऽन्यत्रापि च ' [ का० ४४५/९२ ] इति कर युद्ध | प्रमीयते अनेनेति प्रमाणम् | "करणाधिकरणयोश्च " [ का० ४१५/९५ ] इति करणे युट् । प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम् । भावे युद्ध । इति व्युत्पत्तौ परवाद्याह किमनेन प्रमीयते १ २५ जैनः प्राह-जीवाद्यर्थः । यदि जीवादेरधिगमे प्रमाणं वर्तते तर्हि प्रमाणाधिगमे अन्यत्प्रमाणं परिकल्प्यताम् । तथा सति अनवस्था भवति । जैनः प्राह - नान्त्रानवस्था वर्तते । किंवत् ? प्रदीपवत् । यथा घटपटलकुटस्तम्भादीनां प्रकाशने प्रदीपो हेतुर्भवति तथा स्वस्वरूपप्रकाशनेऽपि स हेतुर्भवति न प्रदीपस्य प्रकाशने प्रकाशान्तरं विलोक्यते । एवं प्रमाणमपि स्वपर१ द्रव्यम् - स० सि० १११० । २- मात्रात् ज० भ०, ०, ब० ज० । ४ भवेत् भ० द०, ब० ज० । ज० । ६ "तस्य द्वित्वात् तत्फलेनाधिगमेनापि द्विष्ठेन भवितव्यमिति प्राप्नोति ।" स० सि० २।१० । ७- भावाभावे सर्वे भा०, ५०, ब० ० दु०, ब० ज० ९ कारणा-आ०, ६०, ब० । एव ९ ० द०, ब० । ३ यतः ५-रम् चेत् ०१० ५०, ब०, अर्थादीनामधिगमः ८-म्युपगमे आ०, Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १।११-१२ | प्रथमोऽध्यायः ५९ प्रकाशकमित्यवगन्तव्यम् । अवश्यमेव चेदमङ्गीकर्तव्यम् । किंषत् ? प्रमेयवत्। यथा ममेयं वर्तते तथा प्रमाणमस्ति । यदि प्रमाणस्य प्रमाणान्तरं परिकल्प्यते तर्हि स्वाधिगमस्याभावो भवति, प्रमाणं निजस्वरूपं न जानाति । तथा सति स्मृतेरभावः स्यात् स्मृतेरभावात् व्यवहारविच्छेदो भवेत् । 'आये पवेशांकात्यक्षमाचात् श्रक्षिशणाभेाहाद्विवचननिर्देशो -- ५ तस्यः । स च द्विवचननिर्देशोऽपरप्रमाणसं ख्याविच्छेदार्थः । "प्रत्यक्षञ्चानुमानश्च शाब्द चोपमया सह । अर्थापरिभाश्च षट् प्रमाणानि जैमिनेः || १ || " [ष० समु० श्लो० ७०] इति श्लोकोक्कोपमानार्थापत्तिप्रभृतीनां प्रत्यक्षपरोक्षप्रमाणद्वयेऽन्तर्भावात् । अथ प्रागुक्तपवविधज्ञानस्य प्रमाणद्वयान्तः पतितस्य अनुमानादिप्रमाणकल्पनानिरासार्थं १० प्रमाणमाह आद्ये परोक्षम् ॥ ११ ॥ आदौ भवमाद्यम् । आद्यश्च आय आये । मतिज्ञानश्रुतज्ञाने द्वे परोक्षं प्रमाणं भवति । 'आये' इत्युक्ते प्रथमे । मतिश्रुतयोः प्रथमत्वं कथम् ? सत्यम् प्रथमं मतिज्ञानं तन्मुख्यम्, तस्य समीपवर्त्तित्वादुपचारेण श्रुतमपि प्रथममुच्यते । द्विवचननिर्देशसम्मर्थ्यात् १५ गौणस्यापि श्रुतज्ञानस्य अद्यत्वेन ग्रहणं वेदितव्यम् । एतत् मानद्वयं परोक्षं प्रमाणं कस्मादुच्यते ? इन्द्रियानिन्द्रियाणि पराणि प्रकाशादिकं च, आदिशब्दाद् गुरूपदेशादिक परम् मतिश्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमञ्च परमुच्यते, तत्परं बाह्यनिमित्तमपेक्ष्य अक्षरयात्मनः उत्पद्यते यत् ज्ञानद्रयं तत्परोक्षमित्युच्यते, “तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्" [सू० १११४ ] "श्रुतमन्तिन्द्रियस्य " [ त सू० २।२१ ] इति वचनात् । उपमानमागमादिकं च प्रमाणं २० परोक्ष एव प्रमाणेऽन्तर्भूतं ज्ञातव्यमिति । अथ किं प्रत्यक्षं प्रमाणमिति प्रश्ने सूत्रमिदमुच्यते प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२ ॥ अक्ष्णोति व्याप्नोति जानाति वेत्तीत्यक्ष आत्मा तमक्षमात्मानमवधिमनः पर्य्ययापेक्षया परिप्राप्तक्षयोपशमं केवलापेक्षया प्रक्षीणाचरणं वा प्रतिनियतं प्रतिनिश्चितं प्रत्यक्षम् । अन्यत् २५ अवधिमनः पर्य्ययकेवलज्ञानत्रयं प्रत्यक्षं प्रमाणं भवति । अत्राह कञ्चिन्-अवधिदर्शनं केवलदर्शनमपि अक्षमेव आत्मानमेव प्रतिनियतं वर्तते, तेन कारणेन तदपि प्रत्यक्षं वक्तव्यम् सत्यम् ज्ञानमित्यनुवर्त्तते । कस्मिन् प्रस्तावे ज्ञानमित्यनुवर्तते ? "मतिश्रुतावधिमनः पर्य्ययकेवलानि ज्ञानम् ” [ त० सू० ११९ ] इत्यत्र सूत्रे ज्ञानस्य ग्रहणं वर्त्तते, तेन कारणेन दर्शनस्य व्युदासः । दर्शनं न प्रत्यक्षं प्रमाणमित्यर्थः । ३० १ स्मृतेन भावः ता० । २ करिंगश्चित् आ०, ६०, ब० जे० । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्तौ | १११६ पतस्मिन्नपि प्रमाणे सति विभङ्गज्ञानमपि अक्षमेव आत्मानमेय प्रतिनियतम् , तेन कारणेन विभङ्गज्ञानस्यापि प्रमाणत्वेन ग्रहणं प्राप्नोति; तदपि न प्रमाणम् ; सम्यगित्यधिकारात् । कासों वासम्यगाधिकारी पतत जामम्यग्दर्शनबानचारित्राणि मोक्षमार्गः" [१० सू० ११] इत्यत्र सूत्रे सम्यकशब्दस्य ग्रहणमस्ति, तेन कारणेन यिभङ्गज्ञानस्य प्रमाणत्वे(त्व)प्रतिषेधः । ५ तेन सम्यकशब्देन विशेषणभूतेन झानं विशिष्यते, सेन कारणेन विभङ्ग वानस्य निषेधः कृतो भवति, न प्रमाणमित्यर्थः । विभङ्गज्ञानं हि मिध्यादर्शनोदयाद्विपरीतार्थगोचरम् , तेन कारणेन तन्न सम्यग्विशेषेण विशिष्टम् । अथैयं त्वं मन्यसे 'इन्द्रियव्यापारजनितंबान खलु प्रत्यक्षम् , प्रतीन्द्रियव्यापरं ज्ञानं परोक्षमेतत्' एतत्प्रत्यक्षपरोक्षयोर्लक्षणमक्षुण्णं वेदितव्यमिति ; तन्न संगच्छते; तथा सति सर्यज्ञस्य प्रत्यक्ष ज्ञानाभावो भवति । यदि इन्द्रियनिमित्तमेव झानं प्रत्यक्षं १० त्वया मन्यते तथा सति सर्वचस्य प्रत्यक्षशानमेव न स्यात् । न हि सर्वज्ञस्य इन्द्रियपूर्वोऽर्था धिगमो भवति । अथ सर्वज्ञस्य करणपूर्वकमेव ज्ञानं त्वया कलप्यते; तर्हि सर्वज्ञस्य असर्वज्ञत्वं भवेत्। अथ सर्वशस्य मानसं ज्ञानं प्रत्यक्षमिति त्वं मन्यसे मनःप्रणिधानपूर्वकत्वात् : तर्हि ज्ञानस्य सर्वझवाभावो भवति । आगमात् सर्यज्ञस्य सिद्धिरिति चेत् । तदपि न ; आगमस्य प्रत्यक्षज्ञानपूर्वकत्वात् । योगिप्रत्यक्षमपरमेव दिव्यज्ञानमस्तीति चेत् त्वं मन्यसे; तदपि न १५ घटते; योगिनः प्रत्यक्षत्वमिन्द्रियनिमित्ताभावाद्भवति 'अक्षमक्षं प्रति यद्वर्तते तत्प्रत्यक्षम्' इत्यभ्युपगमात् । “किंश्च सर्वज्ञत्याभावः प्रतिज्ञाहानिर्वा तव भवति । अलमतिप्रसङ्गेन । अथैदानी परोक्षज्ञानस्य विशेषपरिज्ञानार्थ सूत्रमिदमाहुः"मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनियोध इत्यनान्तरम् ॥ १३ ॥ मननं मतिः । स्मरणं स्मृतिः । संज्ञानं संज्ञा । चिन्तनं चिन्ता । अभिनिषोधनं अभि२० निबोधः । इति एवंप्रकारा मतिज्ञानस्य पर्यायशब्दा वेदितव्याः । एते शब्दाः प्रकृत्या भेदेऽपि सति रूढिबलान्नार्थान्तरम् , मतिज्ञानार्थ एवेत्यर्थः । यथा 'इन्दतीति इन्द्रः, शक्नोतीति शक्रा, पुरं दारयतीति पुरन्दरः' इत्यादीन्दनादिक्रियाभेदेऽपि शचीपतिरेपोच्यते तथा सममिरूढनयापेक्षया, अर्थान्तरे सत्यपि मतिर्मतिज्ञानमेवोच्यते, मतिज्ञानावरणक्षयोपशमे अन्तरगनिमिप्से सति जनितोपयोगविषयत्वात् । एतेषां मतिज्ञानभेदानां श्रुतादिष्वप्रवृत्तिर्वसते । २५ मतिज्ञानावरणक्षयोपशमनिमिसोपयोग नातिकामन्ति । मतिस्मृतिसंशाचिन्ताऽभिनिषोधादि. मिर्योऽर्थोऽभिधीयते स एक एवेत्यर्थः । तथापि भेद उच्यते । बहिरङ्गमन्तरङ्गश्चार्थ परिस्फुट “य आस्मा मन्यते सा अवग्रहहाऽवायधारणात्मिका मतिरुच्यते । स्वसंवेदनमिन्द्रिमान सांव्यवहारिक प्रत्यक्षम् । 'वत्' इति अतीतार्थप्राहिणी प्रतीतिः स्मृतिरुच्यते । तदेवेदं, तत्सह १ शानेऽपि । २ अर्यकत्वम् ०,१०, ज० । आद्यैकत्वम् प० । ३ तथा सर्व-भाष, द. १०, ज० । ४ तुलना-स. सि. १।१२। ५-दं प्राहुः भा०, २०, २०, अ० । ६ सत्यपि मतिज्ञानआ०, व., १०, ज०। ७-मेदेन भा० द०, ५०, ज० । ८-बोधास्तैयोऽर्थी-आ०, २०, २०, ज। ९. यथा भा०, १०, १०, ज०। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |१|१४ १ प्रथमोऽध्यायः ६१ शब्द इति प्रत्यभिज्ञानं संज्ञा कथ्यते । यथा अग्निं विना धूमो न स्यात् तथा आत्मानं बिना शरीरव्यापारवत्वनादिकं न स्यादिति पितर्कणमूहनं चिन्ता अभिधीयते । धूमादिदर्शनादग्न्यादिप्रतीतिरनुमानमभिनिबोध अभिधीयते । इतिशब्दात् प्रतिभाबुद्धि मेधाप्रभृतयो मतिज्ञानप्रकारा वेदितव्याः । रात्रौ दिवा याsकस्माद्वाह्मकारणं बिना 'व्युष्टे' ममेष्टः समेष्यति' इत्येवंरूपं यद्विज्ञानमुत्पद्यते सा प्रतिभा अभिधीयते । अर्थग्रहणशक्तिर्बुद्धिः कथ्यते । पाठग्रहण ५ शक्तिर्मेधा अभिधीयते । उक्त I " मतिरागमिका ज्ञेया बुद्धिस्तत्कालदर्शिनी । 973 प्रज्ञा चातीतकालज्ञा मेधा कालत्रयात्मिका ॥ ं अथ मतिज्ञानस्य आत्मलाभे किं निमित्तमिति प्रश्ने सूत्रं "सूचयन्तितदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ॥ १४ ॥ तन्मतिज्ञानम् इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् । इन्दति परमैश्वर्यं प्राप्नोतीति इन्द्रः आयगा । त त्यात्मनः शायकैकस्वभावस्य मतिज्ञानावरण क्षयोपशमे सति स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्य ज्ञापयतीति यदर्थोपलब्धिलिङ्गं तदिन्द्रमार्गका इन्द्रिनगर यात लिङ्गमिन्द्रियमुच्यते । आत्मनः सूक्ष्मस्य अस्तित्वाधिगमकारकं लिङ्गमिन्द्रियमित्यथः । अग्नेधूमवत् । इत्थमिदं स्पर्शनादिकरणम् आत्मनो लिङ्गं वेदितव्यम् । आत्मानं त्रिना लिङ्गमिन्द्रियं २५ न भवतीति श्रातुः कर्तुरात्मनोऽस्तित्वमिन्द्रियैर्गम्यते । अथवा नामकर्मण इन्द्र इति संज्ञा । इन्द्रेण नामकर्म्मणा "स्पृष्टं (सृष्टं ) इन्द्रियमित्युच्यते । तदिन्द्रियं स्पर्शनादिकम् । तदिन्द्रियं पञ्चप्रकारम्- “स्पर्शन र सनम्राणचक्षुः श्रोत्राणि [त सू० २१९] इति वक्ष्यमाणसूत्रेण वक्ष्यते । 'अनिन्द्रियं मनः अन्तःकरणमिति पर्याय शब्दाः । ननु न इन्द्रियमनिन्द्रियमिति इन्द्रियप्रतिषेधेन मनसि इन्द्रपलि सत्यपि अनिन्द्रियशब्दस्य प्रवृत्तिः कथम् ? सत्यम् : २० नशब्द ईषदर्थे वर्त्तते । न इति कोऽर्थः ? ईषत् । न इन्द्रियमनिन्द्रियम् ईपदिन्द्रियमित्यर्थः, यथा अनुदरा कन्या । यदि कन्या सर्वथा उदररहिता भवति तथा सा कथं जीवति ? तेन ज्ञायते अनुदरा ईषदुदरा कन्येति । ननु मन ईषदिन्द्रियं कथम् ? सत्यम् ; यथा इन्द्रियाणि प्रतिनियत देशविषयाणि कालान्तरस्थायीनि च वर्त्तन्ते मनस्तादृशं कथन ? अन्तःकरण कथ ते ? गुणदोषविचारस्मरणादिव्यापारेषु मन इन्द्रियाणि नापेक्ष्यते यतः, चचुरादिवत् बाह्यः २५ पुरुषैः यतो 'नानु (नो) पलभ्यते तेनान्तर्गतं करणमन्तःकरणमित्युच्यते । इन्द्रियाणि धानिन्द्रिय इन्द्रियानिन्द्रियाणि । तानि निमित्तानि यस्य मतिज्ञानस्य तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् । १ प्रभात २- द्विरुध्यत आ ० ० ज० । ३ तुलना "स्मृतिर्यतीतविषया मतिरागामिंगोचरा । बुद्धिस्तात्कालिकी प्रांता प्रज्ञा त्रैकालिकी मता ॥ प्रज्ञां नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभां विदुः । काम्यव० ० ७ । काव्यमी० ११४ रनयति ० ५ इति नामकच्यते तेन । ७- शब्दः मिन्द्रियमिति । स० स० ११४ । ६ तदिन्द्रियम् आ०, आ०, ब०, ६००८ ना इत्युप-आ०, ब०, ६० ज० । ख ज० Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० तत्त्वार्थवृत्ती [ १५१५-१६ __मार्गनिरसास्थर्यविधिमाशिपयोगबाधा [चाराज्महा० १२४७] इति परिभाषासूत्रबलादिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तमिति सूत्रेणेव मतिझानं लभ्यते, किमर्थं 'तस्'शब्दग्रहणम् ? 'तच्छन्द इहार्थ मुत्तरसूत्रार्थश्च गृह्यते । यन्मतिः (ति) स्मृतिः (ति) संज्ञाचिन्ताऽभिनिबोधबुद्धिप्रज्ञामेधादिपर्यायशब्दवाच्यं ज्ञानं तद् इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् । तदेव अवमहेहा५ चायधारण अपि मतिज्ञानं भवति । अन्यथा प्रथमं ज्ञानं भतिस्मृत्यादिशब्दवाच्यं इन्द्रिया ऽनिन्द्रियनिमित्तं श्रुतम , अवग्रहावायधारणा अपि श्रुतमित्यनिष्टोऽर्थ उत्पद्यते । ततः कारणात् अवग्रहादि इन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तं स्मृत्यादि अनिन्द्रियनिमित्तमिति वेदितव्यम् । अथ मतिज्ञानस्योत्पत्तिनिमित्त झातम् । मतिज्ञानस्य भेदपरिहानार्थ सूत्रमिदमाहु: ___ अवग्रहहावायधारणाः ॥ १५॥ अवमहणमयप्रहः । ईहनमोहा अवायनमवायः । धारणं धारणा। अवग्रहच ईहा च धाचायश्च धारणा च अवग्रहदावायधारणाः। एते चत्वारो भेदाः मतिज्ञानस्य भवन्ति । अबप्रहादीनां स्वरूपं निरूप्यते । अवग्रहस्य प्राक्सन्निपातमात्रदर्शनम् । अयप्रहस्तु मतिज्ञानस्य भेदः सन्निपातलक्षणदर्शनानन्तरमाद्यग्रहणमवग्रह उच्यते । सन्निपातलक्षणं दर्शनं किम् ? विषय विषयिसन्निपाते सति दर्शनं भवति । तत्पश्चादर्थस्य ग्रहणमवग्रह उच्यते, यथा चक्षुषा शुक्छ १५ रूपमिति ग्रहणमयमहः । अयग्रहेण गृहीतो योऽर्थस्तस्य विशेषपरिज्ञानाकासमणमीहा कथ्यते, यथा यच्छुळं रूपं मया दृष्टं तत्किं बलाका-कार्या आहोस्वित् पताका-ध्वजा वर्तते ? इति विशेषाकारक्षणमीहा । तदनन्तरमेषा उत्पतति निपतति पक्षि (क्ष )विक्षेपादिकं करोति, तेन ज्ञायते--इयं बलाकैच भवति, पताका न भवति । एवं याथात्म्यावगमनं वस्तुस्वरूपनिर्धारण मवाय उच्यते । अयेतस्य सम्यकपरिज्ञातस्य यत्कालान्तरऽविस्मरणकारणं झानं सा धारणेत्यु२० फ्यते । यथा या बलाका पूर्वाह्न मया दृष्टा सेवेयं यस्लाका वर्तते । एवंविधं धारणालक्षणम् । अवग्रहावायधारणानामुपन्यासको चिहितः । कोऽर्थः ? उत्पत्ति क्रमः कूत इत्यर्थः । अथ अपग्रहादीनां चतुर्णा मतिज्ञानभेदानां प्रभेदपरिज्ञानार्थ सूत्रमिदमातुः बहुबहुविधक्षिप्रानिःसतानुक्तधुवाणां सेतराणाम् ॥ १६ ॥ अवमहेहाबायधारणाः क्रियाविशेषाः क्रियाभेदाः प्रकृताः प्रस्तुताः । तदपेक्षोऽयं कर्म२५ निर्देशो विषयनिर्देशः । अयग्रहादयः बलादीना सेतराणां विषये भवन्तीत्यर्थः । बहुशब्दोऽत्र संख्यावाची वैपुल्यवाची च बेदितव्यः। संख्यावाची यथा एको द्वौ बहवः । वैपुल्यवाची यथा बहुः कूरः', बहुः सूपः ! बहुश्च बहुविधश्च बहुप्रकारः, क्षिप्रं च चिरम् , अनिःसृतन असकलपुद्गलः, अनुक्त अभिप्राय स्थितम् , ध्र वश्च निरन्तरं यथार्थग्रहणम् , बहुबहुविध. १ तच्छन्दपरणार्थम्-मा०, ज० । तच्छन्दाह. दहाश्रमु-६०, प० । २ -तम्. अवनभार, 40, द. ज० । ३-शापना-जा | ४-दं प्राः भाब०, २०, ज०। ५-मायं ग्रहणम् मा०, ब०, ६० ज०, ३० । ६ अलाभार्या व० । पत्रम हत्यर्थ आ०, २०. ब.. जा । ८ तदरक्षया आरु, २०, २०, ज० । ५ ओदनः | Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १।१७ प्रथमोऽध्यायः ६३ क्षिप्रानिः सृतानुच्ध, बाणि तेषां बहुबहुविधक्षिप्राऽनिःसृतानुक्ता चाणाम् । कथम्भूतानाम् ? सेतराणां प्रतिपक्षसहितानाम् । तेनायमर्थः - बहूनामवग्रहः तदितरस्य । ल्पस्यावग्रहः । बहुविध - क्यामहः तत्प्रतिपक्षभूतस्य एकविधस्यावग्रहः । क्षिप्रेणावग्रहः तदितरेण चिरेणावग्रहः । अनिःसृतस्यावग्रहः तदितरस्य निःसृतस्यामः | अनुक्तस्यात्रमहः तदितरस्योक्तस्यावग्रहः । ध्रुवस्या - यग्रहः तदितरस्य अनुवस्यावग्रहः । एवमग्र विकारः कार्य ईशी / मुलिकन सारा महाराज तथा अवायोऽपि द्वादशप्रकारः । तथा धारण्याऽपि द्वादशप्रकारा । एवं द्वादशचतुष्के अष्टचत्वारिंशत् भेदा भवन्ति । साष्ट्रचलारिंशत् पद्भिरिन्द्रियैर्गुणिना अटाशीत्यधिका द्विशती भवति । तत्र वह्नवग्रहादयः षट्काराः । पण्णां प्रदान ज्ञानावरणक्षयोपशमप्रकर्पाद् भवन्ति । अल्पक षिधचिरनिःस्तोक्ताभवाः पडितरे प्रकारा: ज्ञानावरणक्षयोपशमस्याप्रकर्षात् क्षयोपशममाबाद् भवन्ति । अन एव कारणान् महादीनामचितत्वादादी महणम् । " यच्चार्चितं द्वयोः " १० [ कात० २/५1१३ ] इति वचनात् ! ननु बहुषु बहुत्वं वर्त्तते, बहुविवेष्वपि बहुत्वमस्ति कस्तयोविंशेषः " ? सत्यम् एकप्रकारनानाप्रकाविहितोऽस्ति भेदः । ननु सकलमुद्रलनिःसरणान्निःसृतम् उक्तञ्चाप्येवंविधमेव, अनयोरपि निःस्तोक्तयोः कः प्रतिविशेषो वर्तते ? सत्यम् : अन्योपदेशपूर्वकं यद् प्रणं तदुक्तमुच्यते । स्वयमेव परोपदेशमन्तरेणैव कश्चित् प्रतिपद्यते तद्ग्रहणं निःसून १५ मुच्यते । केचित् क्षिप्रनिःसृत इति पठन्ति । त एवं व्याख्यान्ति - श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दमवगृह्यमाणं मयूरस्य कुररस्य वेति कश्चित् प्रतिपद्यते । अपरन्तु स्वरूपमेव प्रतिपद्यते । मयूरस्यैचार्य “शब्दः अथवा कुररस्यैवायं शब्द इति निरियति स निःसृत उच्यते । ननु वावग्रहस्य धारणायाञ्च को विशेषः ? कर्मणः क्षयोपशमलब्धिकाले निर्मलपरिणामसन्तानेन यः क्षयोपशमः प्रातस्तेन प्रथमसमवेशोऽग्रहः सञ्जातः तादृश एव द्विती- २० यतृतीयादिष्वपि समयेष्ववग्रहो भवति, तस्मादवमहान्यूनाधिको न भवति स वावग्रहः कथ्यते । यदा काले तु विशुद्धसंष्टिपरिणामानां मिश्रणं भवति तस्मिन् काले यः कर्मणः क्षयोपशमो लब्धस्तस्मात् क्षयोपशमात् संज्ञायमानोऽवग्रहः कदाचित् बहूनां भवति, कदाचिदल्पस्य भवति कदाचिद्बहुविधस्यावग्रहो भवति कचिदेकविधस्यावग्रहो वा भवति, एवं न्यूनाधिकोsquat अव उच्यते । धारणा तु अबगृहीतार्थानामविस्मरणकारणमिति श्रवाऽवमा २५ रणयोर्महान् भेदो वर्त्तते । अथ यद्यवग्रहादयो बह्णादीनां विषयाणां स्वीकर्त्तारो भवन्ति नहि बहादीनि विशेषणानि कस्य भवन्तीति प्रश्ने उत्तर माह- अर्थस्य ॥ १७ ॥ २- शेषः एक भ० ज० । २- तुलना ० सि० १।१६. । ३ व्याख्यास्यन्ति । आ० । ४ वेति प्रति १० ५ शब्द इति ४०, ब०, ब०, जत्राः । ६ निधारवति सा | सम- भ० ज०, ६०, ब० ७ प्रथमे Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्त [ १०१८-१९ स्थिरः रथूलरूपः चक्षुरादीन्द्रियाणां प्राह्मो विषयो गोचरो गम्य इति यावत् वस्तुरूपोऽर्थ उच्यते । द्रव्यं वाऽर्थं उच्यते । तस्यार्थस्य बह्वादिविशेषणविशिष्टस्य अवमद्देावायधारणा भवन्तीति सम्बन्धः । किमर्थमिदं सूत्रमुच्यते यतः बह्नादिरर्थ एवास्ति ? सत्यम् ; मिथ्यावादिकल्पनानिषेधार्थं सूत्रमिदमुच्यते । केचिन्मिथ्यावादिन एवं मन्यन्ते । एवं किम् ? य रूपरस५ गन्धवर्णशब्दाः पन गुणाः इन्द्रियैः किल सन्निकृष्यन्ते तेषां गुणानामवग्रह्णमिति । तन्न सङ्गच्छते ; रूपादयो गुणा अमूर्त्ताः, ते इन्द्रियसन्निकर्षं न प्राप्नुवन्ति । यदि न प्राप्नुवन्ति राहि 'मया रूपं दृष्टम् गन्धो मया आघातः' इति न घटते इयत्ति पर्यायान् अर्थः, अयते वा पर्यायः यः सोऽर्थः द्रव्यम्, तस्मिन् द्रव्ये इन्द्रियैः सन्निकृष्यमाणे तस्मात् द्रव्यात् रूपादीनामव्यतिरेके अपृथक्त्वे रूपादिष्वपि संव्यवहारो युज्यते । न च तथा १० सति सन्निकर्षः | अथ "अव्यक्तस्य वस्तुनोऽवह एव स्यान्न च इादय इत्यर्थप्रतिपादनार्थ सूत्र - मिदमाहु: मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिराम नायाग्रहः ॥ १८ ॥ ६४ २५ - ६ व्यञ्जनस्य : अव्यक्तस्य शब्दादिसमूहस्य अवग्रह एव भवति । स बह्नादिरूपो द्वादश१५ विधः । चक्षुर्मनोर हितान्यचतुर्भिरिन्द्रियैः प्रादुर्भाविताऽष्टचत्वारिंशत्प्रकारो भव । पूर्वोऽष्टाशीत्यधिकद्विशतमेलितः पटूत्रिंशदधिकत्रिंशत्प्रकारो मतिज्ञानभेदसमूहो भवति । किमर्थमिदं सूत्रम् १ नियमार्थमिदं सूत्रम् व्यञ्जनस्य अवग्रह एव न ईहादयः । यथा नवशराषः " द्वित्रिजलकणैः सिक्तः सन् नाद्रीभवति, स एव शराषः पुनः पुनः सिच्यमानः शनैः शनैराद्रभवति शिति, तथा श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैः शब्दादिपरिणताः पुलाः द्वि[श्रा ]२० दिषु क्षणेषु गृह्यमाणाः न व्यक्ती भवन्ति, पुनः पुनरवग्रहे सति तु व्यक्तीभवन्ति । अतः कारणात् या व्यक्तोऽवग्रहो न भवति तावद् व्यञ्जनाग्रह एव । उत्तरकाले तु व्यक्तस्य अवधारणा अपि भवन्ति । तर्हि " सूत्रे एवकारो गृहीतव्यः । कथम् ? 'व्यञ्जनस्य अवग्रह् एत्र' इति सूत्रं विधीयताम् । सत्यम् ; सिद्धे विधिरारभ्यमाणी नियमार्थ एव । "सिद्धे सति आरम्भो नियमाय " [ ] इति वचनात् । ५ अथ सर्वेन्द्रियेषु व्यञ्जनाऽषप्रहे प्रसक्के इन्द्रियद्वयनिषेधार्थं सूत्रमिदमुच्यते-न चतुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥ १९ ॥ च अनिन्द्रियं च चतुरनिन्द्रिये, ताभ्यां चतुरनिन्द्रियाभ्याम् । चचुषा अनिन्द्रियेण मनसा व्यञ्जनात्रमहो न भवति । यतः कारणादप्राप्तमर्थं अविदिक्कं युक्तं सन्निकर्षविषयेऽवस्थितं वाह्मप्रकाशाभिव्यक्तं चक्षुरुपलभते । मनच अप्राप्तमुपलभते इति कारणात् चक्षु १ वैशेषिकाः । २ संकृष्यन्तं ० ० ० ० | ३ चन्ति तर्हि ० ४ द्रव्यात् इन्द्रियाणामवा० ० ५- कबस्तु आ०, ब० द० ज० ६ अव्यक्तशब्दसमूहस्य मा० द०. ब० ज० । ७ द्विजल -आ०, २०, ५०, १० । ८ सार्द्रीभवति ज० । सन्नार्द्रीभवति आ०, ५०, ब० । -राट्रभ-वा० ९ द्वित्र्यादि-वा० । १० सूत्रेण भा० ११ विवेरा-आ०, ३० ज० । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजा महाराज प्रथमोऽध्यायः मनसोः व्यसनावग्रहो न भवति । चञ्जपोऽप्राप्यकारित्वं कथमयसीयते ? आगमाक्तितश्च । कोऽसावागमः? ___"पुढे सुणोदि सदं अपुढे पुणवि पस्सद स्वं । गंधं रसं च फासं बद्धपुढं वियागादि ।" [ मादी युति रमाप्र पतः । मानवबहान । वन चक्षुषा स्पृष्टं तन्ना- ५ चगृहातीत्यर्थः। यदि चक्षुः प्राप्यकारि स्यात् नहि पृष्टमञ्जनं त्वगिन्द्रियबत तदवगृह्णीयान् । न चायगृह्णाति । चक्षुः रपृष्टं वस्तु नक्षत इत्यर्थः । तत्तः कारणात् मनोवत् चक्षुरप्राप्यकारीदि बेदितव्यम् । तेन कारणन चक्षुर्मनसी । बर्जयित्वा स्पर्शनरसनप्राणश्रोत्रेन्द्रियाणां चतुर्णामपि व्यवनाऽवग्रहो भवत्येव । तन इत्यायातम-इन्द्रियाणामनिन्द्रियस्य च अर्थाऽवग्रहः सिद्धः। __अथ लक्षणतो भेदतश्च मतिज्ञानं ज्ञातम् । श्रुतझानस्य लक्षणं भेदप्रभेदाश्च यक्तव्या १८ । इति प्रश्ने सूत्रमित्यूचुः श्रुतं मतिपूर्व वन्यनेकद्वादशभेदम् ॥ २० ॥ श्रवणं श्रुतं ज्ञानविशेष इत्यर्थः, न तु श्रवणमात्रम् । यथा कुशं लुनातीति कुशल रुढिवशात् पर्यवदानं क्षेम इत्यर्थः, न तु कुशम्य लयनम् । तथा श्रवणं श्रुतमित्युक्ते प्रवणमा न भवति, किन्तु ज्ञानयिशेपः। कोऽसौ ज्ञानविशेपः ? मतिपूर्वम् , मतिः पूर्व १५ निमित्तं कारणं यस्य तम्मतिपूर्वम् । पूरयनि प्रमाणत्वमिति पूर्वमिति व्युत्पनः। अथवा | महिः पूर्वोक्तलक्षणा पूर्वाः यस्य तन्मतिपूर्व मतिकारणमित्यर्थः । ननु कारणसदृशं कार्य भवतीति कारणात श्रुतमपि मतिरेव ; तदेकान्तिकं न भवति ; चक्रचीवरदवरदण्डादिकारणो घटः न चक्रचीवरदवरदण्डात्मको भवति, चनादौ साप घटाभावात् । सत्यपि मतिज्ञाने चक्षुरादिके बलवाछु तावरणकमोदिययुतस्य जीवस्य श्रुतज्ञानाभावात् । श्रुतज्ञानावरणक्षयों-१८ । पशमप्रकर्षे सति श्रुतज्ञानमुत्पद्यते । तेन कारणेन मतिज्ञानं श्रुतज्ञानस्य निमित्तमात्रं वर्तते, न तु श्रुतज्ञानं मत्यात्मकं वर्तत इति वेदितव्यम् । । अत्राह काश्चन्-श्रुनज्ञानं किलानादिनिधनं भवद्भिरुत्यते, तत्तु मतिपूर्वम् । मतिपूर्षकत्वे श्रुतस्य श्रुताऽभावः प्राप्नोति, यदादिमत् तदन्तवत् , तेन कारणेन पुरुषप्रारब्धस्यात् श्रुतहानस्य न प्रामाण्यम् : सत्यम् ; द्रव्यक्षेत्रकालादी समर्पण श्रुतज्ञानमनादि-२५ निधनं घर्तते, चतुर्थकालादौ पूर्व विदेहादौ कल्पादिपु च श्रुतस्य सर्वसामान्यापेक्षणान् । न केनचित् पुरुपेण कचित् क्षेत्रे कदाचित काले केनाचत प्रकारेण श्रुतज्ञानं कृतं वर्तते । दिव्यदीनामेव विशेषापेक्षया श्रुतज्ञानस्य आदिरन्तश्च घटते । यतो वृषभसेनादयो द्रव्यभूताः, श्रुतज्ञानस्य आदिः कृतः । “वीराङ्गजान्तविशेषापेक्षया श्रुतस्यान्तः सङ्गच्छते । तेन श्रुतं १ १ आव० नि० गा० ५ । पश्नसं० २६८ ' "पृष्ट गोति शब्दमम्पृष्ट पुनरांप पश्यति सम् । गन्ध रसच री स्पृएं विजानाति ।" गमधराः । ५ वीरांगजानत्रि-आ० । । २ ज. I २ डिलम् । सादजन्य । य " :पमानात ग प Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ तत्त्वार्थवृत्ती । १२० मतिपूर्वमित्युच्यते । यथा अङ्करः खलु बीजपूर्वको भवति । स चाङ्क सन्तानापेक्षया अपरवीजापेझया अनादिनिधनः कथ्यते । __वेदाभिप्रायं जेनः खण्डयति । अपौरुषेयत्वं प्रामाण्यकारणं न भवति । यतः अपीरुषेयः शब्दोऽपि नास्ति। येन पुरुषेण देदाः कृताः स पुमान् भवद्भिर्न स्मयते । यदि वेदकृत्सुमान ५ भवद्भिर्न स्मठते तहि वेदाः 'किमकृता भवन्ति ? तत्र दृष्टान्तः, यदि चौर्यपरदाराद्युपदे. शस्य कर्ता न स्मर्यते तर्हि तदुपदेशोऽपि अपौरुषेयः, तस्यापि "प्रामाण्यप्रसङ्गो भवति । न च वेदोऽकृत्रिमः । तथा चोक्तम् "वेदे हेतुं तु काणादा वदन्ति चतुराननम् । जैनाः कालासुरं बौद्धाश्चाष्टकान् सकलाः सदा ॥१॥" [ १० पौरुषेयस्य श्रुतस्यानादिनिधनस्य च प्रत्यक्षादेः प्रामाण्ये सति को विरोधो वर्तते, न कश्चित् विरोध इत्यर्थः। अन्नाह कश्चित्-प्रथमसम्यक्त्वोत्पत्तिकाले मतिश्रुतयोयुगपदुत्पत्तिर्भबत्ति कथं मतिपूर्व श्रुतमिति ? सत्यम् ; सम्यक्त्वस्य समीचीनत्वस्य ज्ञाने तदपेक्षत्वात् सम्यक्त्वापेक्षत्वात् , यादर्शक श्रुतस्य आत्मलाभवन कमलान इति कारणान्मतिपूर्वकत्वव्याघाताभावः । तथा चोक्तम् "कारणकज्जविहाणं दीवपयासाण जुगवजम्मे वि । जुग जम्मेवि तहा हेऊ गाणस्स सम्मत्तं ॥ [ आरा सा गा० १३ ] “यत्सम्यक्त्वं तन्मतिक्षानं वेदितव्यम् , मानसव्यापारादिति । ननु मतिपूर्व श्रुतमिति श्रुतलक्षणं न घटते | कस्मात् ? यतः श्रुतपूर्वमपि" श्रुतं भवति । तद्यथा शब्दपरिणतपुदलस्कन्धात् स्थापितवर्णपदधाक्यादिभावात् चक्षुरादिगोचराम २० आचं श्रुतविषयभावमापन्नात् अव्यभिचारिणः श्रुतात् श्रुतप्रतिपत्तिरिति । यथा विहितसङ्केतो जनः घटात् जलघारणादिकार्य सम्बन्ध्यन्तरं प्रतिपद्यते धूमादेरग्न्यादिद्रव्यवन् । अस्यायमर्थःघट इत्युक्त घकारटकारविसर्गात्मकं शब्दं मतिज्ञानेन प्रतिपद्यते । तदनन्तरं घदात्-घटशब्दात् घटार्थ श्रुतज्ञानेन प्रतिपद्यते । तस्मादपि घटार्थात् जलधारणादिकार्य श्रुतझानेन प्रतिपद्यते । तथा चक्षुरादिविषयाद् धूमादेस्तत्रापि धूमदर्शनं मतिझानम् । तस्मादग्निविषयज्ञानं श्रुतज्ञानम् । १-ति अ-आ० । २ किं न कृता प्रा० । ३-देशको ज० । ४ "चौर्याधुपदेशस्यारमर्यमाणकर्मकस्य प्रामाण्यप्रसङ्गात् ।"-स. सि०पू० ४८ । “तस्मादपौरुषेयत्व स्यादन्याऽप्यनराश्रयः । म्लेच्छादिव्यवहाराणां नास्तिक्यवचसामधि ।। अनादित्वाद् भवेदेवं पूर्वसंस्कारमन्ततः । तारा पौरुषेयत्वं कः सिद्धऽपि गुणा भवेत् ।।"-प्रभागवा. ३१२४५-४६ । अष्टश, अष्टस० पृ. २३८ । सिद्धिवि० पृ. ४०८ । ५ आत्मनो लाभः आ०, २०, ५०, ज० । ६ क्रमयान, मति -भा०, ६., ब०, ज० । ७ कारणकार्यविधानं दीपप्रकाशयोर्युगपज्जन्मन्यपि । युगपजन्मन्यवि तथा हेतुनिरुप सम्यक्त्वम् ।। ८ तत् सम्य-भा०, २०, ५०, ज० । ९ श्रुतपूर्वमित्यपि श्रुतं भा० । १५-भावापन्नात् आ० | Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १।२० ] प्रथमोऽध्यायः तस्मादपि दाहपाकादिकायं श्रुतमिति । एवं श्रुतात् श्रुतं भवति, कथं मतिपूर्व श्रुतमिति घटते ? सत्यम् ; श्रुतपूर्वस्य श्रुतस्यापि मतिपूर्वकत्वमुपचय॑ते । यस्माच्छु तात् श्रुतमुत्पन्नसट्र समषि क्वचित प्रघट्टके मतिरित्युपश्य॑ते व्यवलियते, तेन कारणेन मतिपूर्व श्रुतमिति क्वापि न व्यभिचरति । पुनरपि कथम्भूतं श्रुतम् धनेकद्रौददी हामिदा यस्य तद मिदम्न अनेफे र भेदाः यस्य तत् अनेकभेदम् । विभेदश्च तत् अनेकभेदश्च द्वगनेकभेदम् । द्वादश भेदाः यस्य तत् द्वादशभेदम् । द्वचनेकभेदश्च तत् द्वादशभेदञ्च दू चनेकद्वादशभेदम् । अनया रीत्या एका गृहीतोऽपि भेदशब्दः त्रिषु स्थानेषु प्रयुज्यते । अस्यायमर्थ:-श्रुतं पूर्वोक्तमतिपूर्ववि'शेषणविशिष्ट विभेदमनेकभेदं द्वादशभेदश्च भवति । तत्र अङ्गबाह्याङ्गमविष्टभेदात् विभेदम् । तयोर्द्वयोर्भेदयोर्मध्ये यदङ्गबाह्यं श्रुतं तदनेकभेदम्, मुख्यवृत्त्या चतुर्दशभेद प्रकीर्णकाभिधान. १० मित्यर्थः । यदङ्गप्रविष्टं तत् द्वादशभेदम् । ते के अङ्गबाह्यश्रुतस्य भेदा इति चेत् ? उच्यते । सामायिक सामायिफविस्तरकथक शास्त्रम् । १ । चतुर्विंशतितीर्थकरस्तुतिरूपः स्तवः ।२। एकतीर्थङ्करस्तवनरूपा वन्दना । ३ । मतदोषनिराकरणहेतुभूतं "प्रतिक्रमणम् ।४। चतुर्विधविनयप्रकाशक वैनयिकम् । ५। दीक्षाशिक्षादिसत्कर्मप्रकाशकं कृतिकर्म ।६। 'पृक्षफुसुमादीनां दशानां भेदकथकं १५ यतीनामाचारकथकश्च दशकालिकम् । ७ । भिक्षुमामुपसर्गसहनफलनिरूपकमुत्तराध्ययनम् । ८। यतीनां योग्यसेवनसूचकमयोग्यसेवने प्रायश्चित्तकथक कल्पव्यवहारम् । ९ । कालमाश्रित्य यतिश्रावकाणां योग्यायोग्यनिरूपकं कल्पाकल्पम् । १० । यतिदीक्षाशिक्षाभाषनात्मसंस्कारोसमार्थगणपोपणादिप्रकटकं महाकल्पम् । ११ । देवपदप्राप्तिपुण्यनिरूपर्क पुण्डरीकम् । १२ । देवाशनापदप्रातिहेतुपुण्यप्रकाशकं महापुण्डरीकम् । १३ । प्रायश्चित्त- २० निरूपिका अशीतिका चेति । १४। चतुर्दश प्रकीर्णकानि आरातीयेराचाय्यः कालदोषात् संक्षिप्तायुर्मतिबलशिष्योपकारार्थमुपनिवद्धानि । अर्थतः तीर्थकरपरमदेवप्रोक्तं सामान्यकेलिप्रोक्तञ्च श्रुतं श्रुत्वा गणधरदेवादिभिः श्रुतकेलिभी रचितमङ्गप्रविष्यशास्त्रार्थ गृहीत्वा आधुनियंतिभी रचितमपि तदेवेदमिति मात्वा प्रकीर्णकलक्षणं शावं प्रमाणम् , क्षीरसागरतोयं नीपगृहीतमिय । चतुर्दशप्रकीर्णक- २५ .- -.. --..... ५-विशेषेण विशिष्टभेदम् ०९.०, ब०, ज० । २ अङ्गबाह्यश्रुतभेदानां निरूपणाय द्रष्टव्यम्-जयथा पृ० ९७-१२१ । ३ उच्यन्ते आद०, ४.-विषयकर व० ।५ प्रतिक्रमणं चतुर्विधम् । भा०,१०, ब., ज०। ६ “विकाले अपर स्थापितानि न्यस्तानि पुष्पकादीन्यध्ययनानि यतः तस्मात् दशकालिक नाम ।"-दश निहरि गा० १५, २०-३०। जयध० पू० १२ दि० २। द्रुमपुष्पकादीनाम् अध्ययन नाम्ना स्थाने वृक्षकुसुमादिशब्दः प्रयुक्तः इति भाति । ७ आशीतिका भा०, २०, ज । ८ प्रोक्तञ्च श्रुत्वा भा०, द, म०, ज० । ५ निस्यग्रहीत-आ.. निपरहीत ज. नीरो घटः । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ तत्त्वार्थवृत्ती [१।२० शास्त्रप्रन्यप्रमाणं पञ्चविंशतिलक्षाणि त्रीणि सइस्राणि त्रीणि शतानि अशीत्यधिकानि श्लोकानां भवन्ति, 'पञ्चदशाक्षराणि च २५०३३८० श्लोकाः अक्षराणि १५। ___ अङ्गप्रविष्टं शास्त्रं द्वादशप्रकारम् । यत्याचारसूचकमष्टादशसहस्रपदप्रमाणमाचाराङ्गम् । १। ज्ञानविनयच्छेदोपस्थापनाक्रियाप्रतिपादकं पत्रिंशत्सहस्रपदप्रमाणं सूत्रकृताङ्गम् ।२ । पदव्येकायुत्तरस्थानव्याख्यानकारकं द्वाचत्वारिंशस्पदसहस्रप्रमाणं स्थानाङ्गम, १३ । धर्माऽधर्मलोकाकाशैकजीवसप्तनरकमध्यबिलजम्बूद्वीपसर्वार्थ सिद्धिविमाननन्दीश्वरद्वीपवापिकातुल्यकलप्रयोजनप्रमाण निरूपकं भयभायकथकं चतुःषष्टिपदसहस्राधिकलक्षपदप्रमाणं समवायाङ्गम् । ४ । जीवः किमस्ति नास्ति वा इत्यादिगणधरकृतप्रश्नषष्टिसहसप्रतिपादकम यात्रिंशतिसहस्राधिकद्विलक्षपदप्रमाणा व्याख्याप्रज्ञप्तिः । ५ । तीर्थक्करगणधरकथाकथिका षट्१० पश्चाशत्सहस्राधिकपश्चलक्षपदप्रमाणा ज्ञानकथा । ६ । श्रावकाचारप्रकाशक सप्ततिसहस्राधिकैकादशलक्षपदप्रमाणमुपासकाध्वयनम् । ७। तीर्धकराणां प्रतितीर्थ दश दश मुनयो भवन्ति ते तु उपसर्गान् सोढ़वा मोक्षं यान्ति, तत्क्रयानिरूपकमष्टाविंशतिसहस्राधिकत्रयोविंशतिलक्षप दप्रमाणमन्तदशम् । ८ । तीर्थकराणां प्रतितीर्थं दश दश मुनयो भयन्ति ते तु उपसर्ग मामीकि पञ्चावादार प्रानुकुविहामिपतिश्चत्वारिंशसहस्राधिकनिवतिलक्षपद१५ प्रमाणमनुत्तरौपपादिकद शम् । ९ । नष्टमुष्ट्यादिकप्रश्नानामुत्तरप्रदायकं षोडशसहस्राधिकविन बतिलक्षपदप्रमाणं प्रश्नध्याकरणम् । १०।कर्मणामुदयोदीरणासत्ताकथकं चतुरशीतिलक्षाधिककोटिपदप्रमाणं विपाक्सूत्रम्" । ११३ वृष्टिबादनामधेयं द्वादशमङ्गं तत्पश्चप्रकारं भवति । परिकर्म (१) सूत्र ( २) प्रथमानुयोग ( ३) पूर्वगत (४) चूलिका (५) भेदात् । तेषु “पश्चसु विधेषु प्रथम परिकर्म । २० तदपि पञ्चप्रकारम्-चन्द्रप्रज्ञप्ति सूर्यप्रज्ञप्ति-जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति-द्वीपसागरप्रज्ञप्ति-व्याख्याप्रझप्ति भेदात् । तत्र पञ्चसु प्राप्तिषु मध्ये पश्चसहस्राधिकषत्रिंशल्लक्षपदप्रमाणा चन्द्रायुर्गतिविभवप्ररूपिका चन्द्रप्राप्तिः । १ । तथा सूर्यायुगतिविभवनिरूपिका त्रिसहस्राधिकपञ्चलक्षपदप्रमाणा सूर्यप्रचप्तिः ।२। जम्बूद्वीपवर्णनाकथिका पञ्चविंशतिसइस्राधिकत्रिलक्षपद प्रमाणा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः । ३ । सर्वद्वीपसागरस्वरूपनिरूपिका पट्त्रिंशसाहस्राधिकापरूचा२५ शल्लक्षपदप्रमाणा द्वीपसागरप्रज्ञप्तिः । ४ । रुप्यरूप्यादिषव्यस्वरूपनिरूपिका पत्रिंशसहमाधिकचतुरशीतिलक्षपदप्रमाणा व्याख्याप्रज्ञप्तिः । ५ । एवं परिकर्म पचप्रकारम् । जीवस्य कर्तृत्वभोक्तृत्वादिस्थापकं भूतचतुष्टयादिभवनस्योद्वापकमष्टाशीतिलक्षपद १ द्रव्यम्-जयधपु. ९३ टि. २ । २-माणमवभाव-श्रा०, ब., ९०, ज० । ३ प्रतिदश मुनया भवन्ति आव०, ज०। ४-दशाङ्गम् 40 ५ एतेषां लक्षणानां पदसंख्यायान विशेषतुलनार्थ द्रष्टव्यम् -५० टी० सं० पृ० ९९-१०७ । जयध० प्र० पृ. ९३-९४-१२२-१३२ । ६ दृष्टिवादस्य विशेषस्वरूपरिज्ञानाय द्रष्टव्यम् - भ. टो० सं० पृ० १०८-१२२ । जगभ० प्र० पृ० ९४--१६, १३२-१४८ । ७ पञ्चवि-भा०, 4०, २०,०। ८-स्यात्यापक -मा., १०, जा सा | उच्छेदकमित्यर्थः । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] प्रथमोऽध्यायः ६५ सूत्रम् । त्रिपष्टिशलाका महापुरुपचरित्रकथकः पञ्चसहस्रपदप्रमाणः प्रथमानुयोगः । पूर्व स्वरूपं पूर्वगतम् । तत्र वस्तूनामुत्पादव्ययश्रीन्यादिकथक कोटिपदप्रमाणसुत्वादपूर्वम् । १ । अङ्गानामप्रभूनार्थ निरूपकं पण्णवतियक्षपदप्रमाणमाचणीपूर्वम् |२| वलदेववासुदेवचक्रवर्त्तिशकतीर्थङ्कराविवर्णकं सप्ततिक्षपदप्रमाणं वीर्यानुप्रवादपूर्वम् । ३ । जीषादिवत्यस्ति नास्ति चेति प्रकथकं पष्टिलक्षपनाणमस्ति नास्तिप्रवादपूर्वम् । ४ । अष्ट- ५ ज्ञानतदुत्पत्तिकारणताधारपुरुषप्ररूपकमेकोनकोटिपदप्रमाणं ज्ञानप्रवादपूर्वम् । ५ । वर्णस्थानताधारी न्द्रियादिजन्तुवचनगुप्तिसंस्कार प्ररूपकं पद्यधिककोटिपदप्रमाणं सत्यवादपूर्वम् । ६ । ज्ञानाद्यात्मककन्तु त्वादियुतात्मस्वरूपनिरूपकं पविंशतिकोटिपद्प्रमाणमात्मप्रचादपूर्वम् । ७ । श्रचन्धोदयोपशमोदीरणा निर्जराकथक मशीतिलक्षाधिकको टिपदप्रमाणं कर्मवादपूर्वम् । ८ । ५ पीयरूपप्रत्याख्यातनिश्चलनकथकं चतुरशीतिलक्षपदप्रमाणं प्रत्याख्यानपूर्वम् । ९ । १० पशतमहाविद्याः सप्तशत क्षुद्र विद्या अश्रङ्गमहानिमित्तानि प्ररूपयन् दशलक्षाधिककोटिप्रमाणं विद्यानुप्रादपूर्वम् | १० | तीर्थङ्करपकवत्तिबलभ वासुदेवेन्द्रादीनां पुण्यवायणक पविशतिकोटिपदप्रमाणं कल्याणपूर्वम् । ११ । अविद्यागारुडविद्यामन्त्रतन्त्रादिनिरूपकं त्रयोदशकोटि पद्ममायं प्राणावायपूर्वम् | १२ | छन्दोऽलङ्कारव्याकरणकलानिरूपक कोटपाणं क्रियाविशालपूर्वम् । १३ । निर्वाणपदसुखहेतुभूतं सार्थद्वादशकोटिप- १५ प्रमाणं लोकबिन्दुसारपूसमृदि इति पूर्व विधिसागर जी महाराज ९ प्रथमपूर्वे दश वस्तूनि । द्वितीयपूर्वे चतुर्दश वस्तूनि । तृतीयपूर्व अष्ट वस्तूनि । चतुर्थ पूर्वेऽस्तूनि पद्ममपूर्वे द्वादश वस्तूनि पूर्वेऽपि द्वादश वस्तूनि । सममपूर्वे पोश वस्तूनि । अष्टमपूर्वे विंशतिवस्तूनि । नयमपूर्वे त्रिंशस्तूनि । दशनपूर्वे पश वस्तूतिं । एकादशे पूर्वे दश वस्तूनि । द्वादशे पूर्वेऽपि वस्तूनि त्रयोदशे पूर्वेऽपि दश २० वस्तूनि । चतुर्दशे पूर्वेऽपि दश वस्तूनि । एवं सर्वाणि वस्तूनि पञ्चनवत्युत्तरशतं भवन्ति । एकैकस्मिन् चरतुनि विशति विंशति प्राभृनानि भवन्ति । एवं प्राभृतानां नवशताधिकानि श्रीणि सहस्राणि चेदितव्यानि । ३५०० । द्वितीयस्मिन पूर्वे यानि चतुर्दश वस्तूनि कथितानि नेपाभिमानि नामानि वेदितव्यानि - -प्रमाणः ता० । २ देवचक्रवतितीर्थ - भ० ० ० ० १ देववासुदेवक घर्तितीर्थ-य० । ३ "अन्तरिक्षम नागस्वरस्यानव्यन्जनविनानि अ महानिमित्तानि ।" To राज० १।२० । ४ “शल्यं शालाक्यं कायचिकित्मा भूतविया कीमार नृत्यमगदतन्त्रं रसायनतन्त्रम् बाजीकरणतन्त्रमिति । " - सुश्रु० ० १ ५ मुल आ०, ६०, ब०, ० । ६ त्रति आ०, अ० ज० ॥ ७ पुत्र्यंत अ अ ची अधुवमं प्रणिधिक अभाम्मावयादी सबका ती आणायक सिज्झये ज्येति चास वणि ध० टी० [सं० पृ १२३ | "पूर्वान्तान्तं चमच वचनन्विनामानि नवज्ञानमतीत वनागतं का अत्रं सिद्धाय प्रति चाप्यर्थ मीमावयाचं च ॥ तथा चतुर्दश वस्तूनि द्वितीयस्य ||" - दशम० पृ० ८-९ । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्त्वार्थवृत्ती [ ११२१ पूर्वान्तः परान्तः ध्रुवम् अध्रुवम च्यवनलब्धिः अभ्रूषसम्प्रणिधिः अर्थः भौमाययान्य सर्वार्थकल्पनीयं ज्ञानम् अतीतकालः अनागतकालः सिद्धिःउपाध्यति (?) । न्यवनलम्धिनाम्नि वस्तुनि यानि विशतिप्राभृतकानि वर्तन्ते तेषु यचतुर्थ प्रामृत तस्य ये चतुर्विशतिरनुयोगास्लेपामिमानि नामानिार्गकर्तिकवेदनाममा कर्मबुद्धिसिमरनजनकत्वमंज्यक्रमः अनुपक्रमः अभ्युदयः ५ मोक्षः सङ्क्रमः लेश्या लेश्याकर्म लेश्यापरिणामः सातमसात दीर्घ हस्वं भवधारणीयं पुदलात्मा निधत्तमनिधत्तम सनिकाचितमनिकाचितं कर्मस्थितिक पश्चिमस्कन्धः । अत्राल्पबहुत्वं पञ्चविंशतितमोऽधिकारः चतुविशत्यनुयोगानां साधारणः । तेन सोऽपि चतुर्विंशतितम एवं कथ्यते इति चतुर्दशपूर्वाधिकारः समाप्तः । एवं हादशे अङ्गे मत्वारोऽधिकारा गताः। इदानी पञ्चमोऽधिकारः प्रोज्यते । सोऽपि पश्चप्रकार:-जलगताचूलिका-स्थलगता. १० चूलिका मायागताचूलिका-आकाशगताचूलिका-रूपगतालिकाभेदात् । तत्र जलस्तम्भनजल वर्षणादिहेतुभूतमन्त्रतन्त्रादिप्रतिपादिका द्विशताधिकन वाशीतिसहस्रनवलक्षाधिकद्विकोटिपदप्रमाणा जलगता चूलिका । १। तथा स्तोककालेन बढयोजनगमनादिहेतुभूतमन्त्रतन्त्रादिनिम्पिका पूर्वोक्तपदप्रमाणा स्थलगता चूलिका । २ । इन्द्रजालादिमायोत्पादकमन्त्रनन्त्रादिनिरूपिका' पूर्वोक्तपदप्रमाणा मामागता चूलिका ।३। गगनगमनादिहेतुभूतमन्त्रतन्त्रादिप्रकाशिका १५ पूर्वोक्तपदप्रमाणा आकाशगता चुलिका । ४ । सिंहव्याघ्रगजतुरगनरसुरवरादिरूपविधायक मन्त्रतन्त्राशुपदेशिका पृर्वोमपदप्रमाणा रूपगता चूलिका चेति । ५ । एवं पञ्चविधा चुलिका समाप्रा । द्वादशस्याङ्गस्य इणिवादनामधेयस्य परिकर्म-सूत्र-प्रश्रमानुयोग-पूर्वगत-चलिकाभिधानाः पञ्च महाधिकाराः समाप्ताः। अत्र या पदैः सह था कृता तस्य पदस्य ग्रन्थसाक्ष-या कथ्यते-एकपश्चाशत्कोटयो अष्ट२० लक्षाचतुरशीतिसहस्राणि षट्शतानि सार्धेकविंशत्यधिकानि अनुष्टुपगणितानि एकस्मिन् पदे भवन्तीति वेदितव्यम् । इत्येकपदग्रन्थसङ्घ-या ५१०८८४६२१ । इति पदान्थः, तथाक्षर (राणि) १६। ईदृग्विधानि पदानि अङ्गापूर्वस्य श्रुतस्य कियन्ति भवन्ति १ कोटीनां शतं द्वादशकोटयश्च त्र्यशीसिलक्षाणि अप्रपञ्चासह त्राणि पदानां पञ्च पदाधिकानि भवन्ति । अथ प्रत्यक्षं प्रमाणं त्रिविधम् । तत्र देशप्रत्यक्षं प्रमाणम् अवधिर्मनःपर्ययश्च । सर्व२५ प्रत्यक्षं केवलज्ञानम् । तत्रावधिद्विविधः-भवप्रत्यय-क्षयोपशगनिमित्तभेदात् । तत्र भवप्रत्ययोऽ वधिरुभ्यते भवनस्ययोऽवधिदेवनारकाणाम् || २१ ।। १ दृष्टव्यम्-ध- दो सं०४० १२५ । दशभ• पृ० ९ । २ कथ्यते मा०, १०.द, ज० । ३-धिककोटि -आ०, व., य, ज० । ४-प्रतिरूपिका : । ५-गुणतानि श्रा, ब० ! गनितानि ज० । ६ "बाहत्तरमयकोड़ी तसीदी तह य होति लक्खाणं । अदावण्णसहरसा पंचेच पदाणि अगाणं " -गो० जी० गा. ३४९ । ७-१ अशीति-ता।८-प्रत्यवाधिः | Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक:- आचाया १।२२ । प्रथमोऽध्यायः ____ 'आयुःकर्म-नामकर्मोदयनिमित्तको जीवस्य पर्यायः भव उच्यते । ईग्विधो भवः२ प्रत्ययः कारणं हेतुनिमित्तं यस्यावधेः स भवप्रत्ययः । ईम्बिधोऽवधिवनारवायां देशना हाराज नारकाणाम् । ननु एवं विधस्यावधः यदि भवः कारणमुक्कं तहि कर्मक्षयोपशमः कारणं न भवतिः सत्यम् भवः' प्रधानकारणं भवति यथा पक्षिणामाकाशगमनं भवकारणम् , न तु शिक्षागुणविशेष आकाशगमनकारणं भवति । तथैव देवानां नारकाणां च व्रतनियमादीनामभावेऽपि ५ अवधिर्भवति, तेन कारणेन मुख्यतया भव एवाऽवधेः कारणमुच्यते । क्षयोपशमस्त्वयः साधारणं कारणम् , तत्तु गौणम् , तेन तनोच्यते । अन्यथा भवः साधारणो वर्तते, स तु एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणामपि विद्यत एव तेषामप्यविशेषादयः प्रसङ्गः स्यात् । तथा च देषनारकेषु "प्रकर्षाऽप्रकर्षवृत्तिरवधिर्भवति । देवनारकाणामिति अविशेपोक्तावपि सम्यग्दृष्टीनामेव अवधिभवति मिथ्यादृष्टीनां देवनारकाणामन्येषाश्च विभङ्गः कथ्यते । “अथ कोऽसौ प्रकर्षाऽप्रकर्ष- १० वृत्तिरवधिरिति चेत् ? उच्यते-1 सौधम्मैशानेन्द्रौ प्रथमनरकपर्य्यन्तं पश्यतः । सनत्कुमारमाहेन्द्रौ द्वितीयनरकान्तमीक्षेते । ब्रह्मलान्तवेन्द्रों तृतीयनरकपर्यन्तमीसते । शुक्रसहस्रारेन्द्रौ चतुर्थनरकपर्यन्तं विलायते । आनतप्राणतेन्द्रौ पञ्चमपृथिवीर्य्यन्तं निभालयतः । आरणाच्युतेन्द्रौ पठनरकपर्यन्तं विलोकयतः । नवप्रैवेयकोद्भवाः सप्तमनरकपर्यन्तं निरीक्षन्ते । अनुदिशानुत्तराः सर्वलोकं पश्यन्ति । तथा ''प्रथमनरकनारका योजनप्रमाणं पश्यन्ति । द्वितीय १५ नरकनारका अर्धगव्यूतिहीन योजनं यावत्पश्यन्ति । तृतीयनरकनारका गन्यूतित्रयं पश्यन्ति । चतुर्थनरकनारकाः सार्द्धद्विगम्यूतिपय॑न्तं पश्यन्ति ! पञ्चम नरकनारका द्विगल्यूतिपर्यन्तं पश्यन्ति । पटनरकनारकाः सार्द्धगम्यूतिपयन्तं पश्यन्ति । सप्तमनरकनारका गन्यूतिपर्यन्तं पश्यन्तीति वेदितव्यम् । अथ क्षयोपशमनिमित्तोऽवधिः कथ्यते---- २० क्षयोपशमनिमित्तः षडविकल्पः शेषाणाम् ॥ २२ ॥ कर्मापुद्गलशक्तीनां क्रमवृद्धिः क्रमहानिश्च स्पर्धकं तावदुच्यते । अबधिज्ञानावरणस्य देशघातिरपर्द्धकानामुये सन्ति, सर्वयातिस्पर्द्धकामामुदयाभावः क्षय अत्यते, तेषामेव सर्वघातिस्पर्द्धकानामनुदयप्राप्तानां सदवस्था उपशम उच्यते, अयश्चोपशमश्च क्षयोपशमी, तो निमित्तं कारणं यस्याऽवधेः स क्षयोपशमनिमित्तः । कतिभदः १ षड्विकल्पः । एवं विधोऽवधिः २५ शेषाणां मनुष्याणां तिरश्चाश्च भवतीति चेदितव्यम् । स चावधिः संझिनो पर्याप्तकानाश्च भवति न त्वसझिनां नाप्यपर्याप्तकानां भवति सामर्थ्याभावात् । तेषामपि सोऽवधिः सर्वेषां न आयुष्कर्म भाल, , द. । २ नवप्रत्ययः ना । ३-वधेयादिम-तर० । ४ तहि क्षयीमा०, 4०, २०, २०, ज० ५ भवः प्रधानं भा--भा०, व, ज० । ५-गमनम् प्रधानकारणं न तु भाग, म०,०,ज० । ७ प्रकारप्रयुत्तिर-आ प०,६०, जय । ८ अत्र को-प० । अथ काऽसौ दः । ५ प्रकप्रति : भा०, 4०.१०,जः । १. महामंध गर० ११-१३ । ११ प्रथमनारका नरकयः-आ०, २० । -गो. जो० गा० ४२३ । १२ स्य देवाघातिस्पर्धकानामुदयाभावः भा०, Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ तत्स्वार्थवृत्ती [२३ मार्गदर्शक भासवान्तीयबसिसिम्यग्दशनझीनहारत्रतपोलक्षणकारणसन्निधाने सति उपशान्तक्षीण कर्मणामयधेपलब्धिर्भवति । तदुपलब्ध सर्पस्य क्षयोपशमनिमित्तत्वे सत्यपि यत् क्षयोपशमग्रहणं सूत्रे कृतं तनियमाथं ज्ञातव्यम् । कोऽसौ नियमः ? क्षयोपशम एव निमित्त वर्तते न तु शेषाणां भवो निमित्तमस्ति ।। ५ ते के षड्विकल्पा इति चेद् ? उच्यते-अनुगाम्यननुगामी वर्धमानो हीयमानोऽवस्थितोऽनवस्थितश्चेति । कश्चिद् अवधिर्गच्छन्तं भवान्तर "प्राप्नुवन्तमनुगच्छति पृष्ठतो याति, सवितुः प्रकाशयत् । १ । कश्चिद्वधिनपानुगच्छप्ति, तत्रैवातिपतति, विवेकपराङ्मुखस्य प्रश्ने सत्यादेष्ट्रपुरुषवचनं यथा तत्रैवातिपतति, न तेनाले 'प्रवय॑ते । २ । कश्चिदवधिः सम्यग्दर्शनादि गुणविशुद्धिपरिणामसनिधाने सति यावत्परिमाण उत्पन्नः तस्माद॑धिकाधिको बर्द्धते अस१० येयलोकपर्यन्तम् , अरणिकाप्ननिर्मथनोद्भूतशुष्कपर्णोपवर्धमानेन्धनराशिप्रज्वलितहिरण्य रेतोवत् । ३ । कश्चिदधिः सम्यग्दर्शनादिगुणहान्याऽऽर्तरौद्रपरिणामवृद्धिसंयोगात् यावत्परिमाण उत्पन्नस्तस्माद हीयते अङ्गुलस्यासट्येयभागो यावत्, नियतेन्धनसन्ततिसंलग्नबंहिवालावत् ।४। कश्चिदयधिः सम्यग्दर्शनादिगुणायस्थितेः यावत्परिमाण उत्पन्नस्तावत्परिमाण एव तिष्ठति हानि वृद्धिश्च न प्राप्नोति भवनयपर्यन्तं केवलज्ञानोत्पादपर्यन्तं वा, लाञ्छनवत् १५ १ ५ । कश्चिदषधिः सम्यग्दर्शनादिगुणवृद्धिहानिकारणान् यावत्परिमाण उत्पन्नस्तस्मात् बधते हीयते घ, यावदितव्यम् यावद्' हातव्यं च, प्रभजनयचोदितकमलकल्लोलवन । ६ । एवं'भेदा अवधेः देशावधेरेव वेदितव्याः । परमावधिसर्वावधी विशिष्टसंयमोत्पनी हानिवृद्धिरहितो. ज्ञातव्यौ । तौ तु चरमशरीरस्यैव भवतः । गृहस्थावस्थायां तीर्थङ्करस्य देवनारकाणाश्च देशा चधिरेव वेदितव्यः । २८ अथ मनःपर्यायज्ञानस्य प्रकारपूर्वक लक्षणमालक्षयति ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः ॥ २३ ॥ बाबायमनःकृतार्थस्य परमनोगतस्य विज्ञानात् नितिता पश्चाद्वालिता' व्याघोदिता ऋज्यी मतिरुच्यते, सरला च मतिः ऋज्वी कथ्यते । बाकायमनःकृतार्थस्य परमनोगतस्य विज्ञानादनिर्तिता न पश्चाद्वालिता न व्याघोटिता तत्रैष स्थिरीकृता मतिर्थिपुला प्रतिपद्यते । २५ कुटिला च मतिः विपुला कथ्यते । ऋज्वी मतिर्विज्ञानं यस्य मनःपय॑यस्य स ऋजुमतिः । विपुला मतिर्यस्य मनःपर्यायस्य स विपुलमतिः । तौ ऋजुविपुलमती "बदायितपुंस्कान पूरण्यादिपु स्त्रियां तुल्याधिकरणे ।" [का० सू० २,५।१८] । एकस्य मतिशटदस्य विज्ञातार्थत्वादप्रयोगः रूपे रूपं प्रविष्टम् । “सरूपाणामेकशेप एकविभक्तौ" [ पा० सू० १।२।६४ ] । -तकर्म-आ०, ५०, द., ज०१२-मान-मा०, १०, २०ज० ।३ ननु आ०, ५०, ज.। ४ उच्यन्ते भा०, २०, २०, जे० । ५ प्राप्नुवन्ति भाः प०, ८०, ० । ६ प्रवर्तते मा०, २०, २० व०, ० । -दधिको व-श्रा०, १०, २०, ज० । ८ अग्नि । ९ पञ्चभे-भा०, ६०, १०, ता। १०-दारिता स०। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VIRY-२५] प्रथमाऽध्यायः Fire प्रजुश्च निपुला च ऋजुबिपुले तादृशे मती ययास्ती ऋषिपुलमती । अमुना प्रकारेण मनापर्ययो द्विप्रकारो भवति-ऋजुर्मातः विपुलमतिश्चेति । मनःपय॑यस्य भेदः प्रोक्तः । I.. इदानी लक्षणमुच्यते-वीर्यान्तराय-मनःपर्ययज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभा. सम्मात् आत्मनः परकीयमनोलब्धवृत्तिरूपयोगो मनःपर्यय उच्यते । श्रुतज्ञानव्याख्यानावसरे "मा श्रुतस्य मत्यात्मकत्वं निषिद्धं तथा मनःपर्ययज्ञानस्यापि मत्यात्मकत्वं नाशकनीयमिति । ५ ऋजुमतिर्मनःपर्यायः कालापेक्षया जघन्यतया जीवानां स्वस्य च द्वे त्रीणि था . भवाहणानि गत्यागत्यादिभिनिरूपयति । उत्कर्पण सप्तभवग्रहणान्या वा गत्यागत्यादिभिः प्रकाशयति । क्षेत्रतो जघन्यतया गव्यूतिपृथक्त्वम् । उत्कण योजनपृथक्त्वस्य आभ्यन्तरं महापयति न बहिः प्ररूपयति । विपुलमतिमन:पय॑यः कालापेक्षया जघन्यतया समाष्टानि (2) महणानि प्ररूपयति । उत्कणासङख्येयानि गस्यागत्यादिभिनिरूपयति । क्षेत्रापेक्षया १. अमन्यतया योजनपृथक्त्वम् । उत्कर्पण मानुपोत्तरपर्वताभ्यन्तरं प्ररूपयति, तद्वहिर्न जानाति । अथ मनापर्ययज्ञानभेदयोभूयोऽपि विशेपज्ञानपरितापनार्थं प्राहुः विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशंषः ॥ २४ ॥ मनःपयज्ञानावरणझमक्षयोपशमादात्मनः प्रसन्ना विशुद्धिरुच्यते । संयमात्प्रच्या धनं प्रतिपातः, न प्रनिपातः अप्रतिपातः । विशुद्भिश्च अप्रनिपातश्च विशुद्ध्यतिपाती ताभ्यां १५ विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्याम् । विशुद् ध्यश अप्रतिपातेन च त्रिशुद्ध प्रतिपाताना नशिपः ऋजुमतिविपुलमत्योर्थिशेपो भवति । तत्र उपशान्तकपायस्य चारित्रमोहाधिक्यान संयमशिखरान पतितस्य प्रतिपातो भवति । क्षोणकया यस्य चारित्रमोहोनेकामावादानपातः स्यात् । ऋजुमसेः समाशाद्विपुलमति व्यक्षेत्र कालभाविशुद्धतरो भवति । कमिति न ? उच्यते- ग्रः सर्वावधिज्ञानेन कार्मणद्रव्यानन्तभागोऽन्त्यः बुद्धः सोऽन्त्यभागः पुनरपि अवन्तभागीनिय.. तेष्वयनन्तभागंपु योऽन्त्यो भागा वर्तते स ऋजुमतिना गम्पते, ऋमतेधिपार भनि । यः ऋजुमतेः विपयो भवति सोऽपि भागोऽनन्तभागीक्रियते, प्ययनातभागेपु याऽन्त्या भागः स विपुलमतेविषयो भवति । एवंविधसूक्ष्मद्रव्यपरिज्ञायकत्वान् विपुलमते व्यक्षेत्रकालटी विशुद्धिरुत्कृष्टा भवति । भावतो विशुद्धिस्तु सूक्ष्मतरद्रव्यगोचरत्वादेव ज्ञानव्या। भाषशुद्धिरपि कस्मात् ? प्रकृष्टक्षयोपशमविशुद्धियोगान् । तथा अप्रतिपालादपि विपुलमतिबिशिष्टो भति, .. विपुलमतिमनःपर्यवस्वामिनां प्रथईमानचारित्रादयत्याः । ऋजतिस्तु प्रनिपानी भवनि । करमान् ? ऋनुमतिमनःपर्ययज्ञानस्वामिनां कपायोद्रे कही अमानचारित्रादयवाद । अथाऽवधिमनःपर्यययाविशेषप्रतिपादनार्थ सूत्रमिदमुच्यते-- विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमन:पर्यययोः ॥२५॥ विशुद्धिश्च प्रसादः, क्षेत्रश्च भावप्रतिपत्तिस्थानम, स्यामी च प्रयोजकः स्वरूपकथकः, ३. विषयश्च ज्ञेयः स्तु, विशुद्धिक्षेत्रस्यामिविषयाः, तेभ्यो विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविपग्रेभ्यः । अवधिश्च मनापर्ययश्च अवधिमनःपर्ययो, तयोरधिमनःपर्यययोः । अधिज्ञानस्य मनः ५. चारित्रोदयात् ०. ५०, २५ । २. श्रीमनु मनागिना आक. 4०, द: ज. । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्तौ [१।२६ पर्ययज्ञानस्य च विशेषो विशुद्ध्यादिभिश्चतुर्भिदितव्यः । तत्र अवधिनानात् मनःपर्यायज्ञानं विशुद्धतरं भवति सूक्ष्मवस्तुगोचरत्वात् । क्षेत्रमयधर्मनःपर्ययज्ञानाद् बहुतरम., त्रिभुवनस्थितपुद्रलपर्यायतत्सम्बन्धिजीवपर्यायझायकत्वात् । मनापर्ययस्य क्षेत्रमल्पम् , उत्कर्षेण मानुषोत्तरशैलाभ्यन्तरवर्तित्वात् । अवधिज्ञानस्य "विषय "रूपिष्ववधेः' ५ [तःसू० १।२७] इत्यनेन वक्ष्यति । मनःपर्ययज्ञानस्य विषयं तदनन्तमागे मनःपर्ययस्य" [त. सू० १।२८ ] इत्यनेन सूत्रेण वक्ष्यति । स्वामित्वमुच्यते-- मनःपर्ययो मनुष्येषूत्पद्यते न देवनारकतिर्यक्षु । मनुष्येष्वपि गर्भजेषूत्पद्यते न सम्मूर्छनजेषु । गर्भजेष्वपि कर्मभूमिजेषत्पद्यते न स्त्रकर्मभूमि जेषु । कर्मभूमिजेष्वपि पर्याप्तवेधूत्पद्यते, न त्वपर्याप्तकेषु । पर्याप्तकेष्वपि सम्यग्द१० टिपू पद्यते, न मिथ्याष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिध्यादृष्टिषु । सम्यग्दृष्टिप्वपि संयते फूत्पद्यते, न स्वसंयतसम्यग्दृष्टिसंयताऽसंयतेषु । संयतेष्वपि प्रमत्तादिषु क्षीणकपायान्तेत्पद्यते, न सयोगकेवल्ययोगकेवलिषु । प्रमच्चादिष्वपि' प्रबर्द्धमानचारित्रेषूत्पद्यते, न हीयमानचारित्रेषु । बईमानचारित्रेष्वपि सपविधयान्यतमदिपाले प्यते नानृद्धिप्रानेषु । ऋद्धिप्राप्तेष्वपि केपुचिदुत्पद्यते न सर्वेषु । तेन कारणेन विशिष्टसंयमवन्तो मनापर्ययस्य १५ स्वामिनो भवन्ति । अवधिस्तु चातुर्गतिकेषु भयति । इति स्वामिभेदाद् विशेषः । मनःपर्ययज्ञानादनन्तरं केवलज्ञानलक्षणमभिधातुमुचितम् । तदुलक्षय ज्ञानानां विषयनिबन्धपरीक्षणं क्रियते। केवलज्ञानस्य तु लक्षणं "मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच केवलम्" [त. सू. १० १] इति वक्ष्यति । तत्र ज्ञानविषयनिबन्धपरीक्षणे मतिश्रुतज्ञानयोविषयनियन्ध उच्यते ___ मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ॥ २६ ॥ मतिश्च श्रुतश्च मतिश्रुते तयोर्मतिश्रुतयोः । निबन्धनं निवन्धः विपनियन्त्रणा विषयनियमो विषयनिर्धारणम् । द्रव्येपु जीवधाऽधर्मकालाकाशपुद्गलेषु । कथम्भूतेषु ? असर्वपर्यायेषु अल्पपर्यायसहितेषु मतिश्रुतविषययोग्यस्तोकपर्यायसहितेषु । "विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषये भ्योऽवधिमनःपर्याययोः" [ तक सू. १।२५] इत्यतो विषयशब्दस्य ग्रहण कर्त्तव्यम् । तत्र २५ पञ्चमी अत्र तु षष्ठी तत्कथं सम्बन्धः ? "अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामः" [ ] इति वचनात् पञ्चम्याः पष्ठीत्वेन परियमनम् ।। ननु धाऽधर्मकालाकाशा अतीन्द्रियाः, तेषु द्रव्येपु मतिज्ञानं कथं प्रवर्तते मतिज्ञानस्य इन्द्रियजनितत्त्वात् ? सत्यम् ; अनिन्द्रियाख्यं करणं वर्तते, तेन नोइन्द्रिया चरणक्षयोपशमबलात् तद्महणमवप्रहादिरूप न विरुध्यने । तत्पूर्वक श्रुतझानं तद्विषयेषु ३० नोइन्द्रियविषयद्रव्येषु स्वयोग्येषु प्रवर्त्तत इति । १ -यज्ञेयशा- मा०.०.१०,५०, ज० । २ विषयः रू-ma...ज०।३ -दिक्षीभा०, २०, २०, ४-पि य--आ०,०,१०,ज- 1 ५ नानधिप्रा-१०,१० | Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १।२७.३१ प्रथमोऽध्यायः अथाऽयधि विषयनिबन्ध उच्यते रूपिष्यवधेः ॥ २७ ॥ नियमसूत्रमिदम् । अस्यायमर्थः--पिपु पुद्गलेधु पुद्गलसम्बन्धिजीवेषु च अवधेविषयनिबन्यो भवति । 'असर्व पर्यायेपु' इत्यज्यत्र सम्बन्धनीयम् , नेन स्वयो यपर्यायेषु अल्पेषु पर्यापेषु न स्वनन्तेषु पर्यायेष्ववधिः प्रवर्तन । अथ मनःपययस्य विषयनिबन्ध उच्यते तदनन्तभागे मनापर्ययस्य ।। २८ ॥ तस्य सर्वाधिज्ञानगम्यस्य रूपिद्रव्यस्य यः पर्यायरतस्याऽनन्तभागस्तदनन्तभागः तस्मिन् तदनन्तभागे, मनः पय॑यस्य विषयनिबन्धो भवति सूक्ष्मविषयत्वात् । अन्यत्र च मनापर्ययः प्रवर्तते, अपरेपु भागेषु प्रवर्तत इत्यर्थः । अथ केवलशानस्य विपनियन्ध प्रत्यती महाराज सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥ २९ ॥ द्रव्याणि च पर्यायाश्च द्रव्यपर्यायाः, सर्वे च ते द्रव्यपर्यायाः सर्वद्रव्यपर्यायाः, तेषु सर्वद्रध्यपर्यायेषु । सर्वेषु द्रव्येषु सर्वेपु पर्यायेषु च केवलस्य केवलझानस्य विषयनिवन्धो भवति । जीवद्रव्याणि अनन्तानन्तानि ततो प्यनन्तानन्तानि पुद्गलद्रव्याणि अणुरक- १५ न्धभेदयुक्तानि, धर्माऽधर्माकाशानि, कालभासख्येयः, चतुणी त्रिकालसम्बन्धिनः पर्यायाः पृथगनन्ताऽनन्ताः । तेषु सर्वेषु द्रव्यपर्यायेषु अनन्तमहिम केवलज्ञान प्रवरत इति । अथ पश्चज्ञानपु कति ज्ञानानि एकस्मिन्नात्मनि युगपद्भयन्तीति प्रश्ने सूबमिदमाहुः एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुभ्यः ॥ ३० ।। एकोऽद्वितीय आदिरवन वो येपो तानि एकादीनि एकप्रभृतीनि बानानि । भाज्यानि २० योजनीयानि । युगपत् समकालम् । एकस्मिन्नात्मनि अाचतुर्यः चत्वारि ज्ञानानि यावत् । एकस्मिन जीये पञ्च नानानि युगपन्न भवन्ति । एकं ज्ञानं यदा भवति तदा केवलज्ञानमेव, केवलज्ञानेन क्षायिकेन सह अपराणि चत्वारि ज्ञानानि सायोपशमिकानि युगपन्न भवन्ति । यदा हे ज्ञाने युगपद् भवतस्तदा मतिश्रुते । त्रीणि ज्ञानानि यदा युगपद् भवन्ति तदा मतिश्रुनाऽवधिज्ञानानि भवन्ति, अथवा मतिश्रुतमनःपर्य यज्ञानानि भवन्ति । यदा पारि २५ युगपद् भवन्ति तदा मनिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानानि भवन्ति । अथ मत्यादीनि ज्ञानान्येव भवन्ति आहोस्बिदन्यथापि भवन्ति इति प्रश्ने सूत्रमिदमुच्यते मतिश्रु ताऽवधयो विपर्ययश्च ॥ ३१ ॥ मतिश्च श्रुनश्च अधिश्च मतिश्रुताऽवधयः। एते प्रयत्रीणि ज्ञानानि विपर्ययश्च मिथ्यारूपाणि भवन्ति । चकारान् सम्यग्ज्ञानरूपाणि च भवन्ति । सम्यकशब्द आदावेवोक्तः ३. १ -प्यनन्तानि आ०.६, ६०, ज० । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्त १९३२ "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः:" [ ० सू० १ १ ] इत्यन्त्र | तस्माद् गृहीतः सम्यशब्दः मतिश्रुनाऽवधिमनः पर्यव केवलानि ज्ञानम् सम्यग्ज्ञानं भवन्ती (ती) ति सम्बन्ध नीयः । तस्मात्सम्यज्ञानाद् वैपरीत्यं विपर्ययो भवति मिध्यारूपाण्यज्ञानानि भवन्ति । किंवत् ? रजः कटुत्रिकाफलघृतीरक्त । अत्र शुष्कतुम्बिकामध्यगत निर्गतबीजाऽवशिष्टबुकिका रज उच्यते, तस्मिन् सति यदि दुग्धं धियते तदा कटुकं भवति, तुम्बिकेऽतिशोधिते ? 'वृत्तं पयः कटुकं न भवति । तथा मिथ्यादर्शने बिनादे सति जीवे मत्यादिज्ञाने स्थिते मिथ्याज्ञानं न भवति । ननु मणिकनकादयो विष्ठागृहे पतिता अपि न बुध्यन्ति तथा मत्यादयोऽपि सत्यम् ; मणिकनकादयोऽपि विपरिणामक द्रव्ययोगे दुष्यन्त एव तथा मत्यादयोऽपि मिथ्यादर्शनयोगे दुष्यन्ति । २ 金 ५० 'न्याधारोपात क्षीरस्य विपर्यासो भवति मत्यज्ञानादीनां स्वविषयग्रहणे विपर्यासो न भवति यथा सम्यग्दृष्टिः पुमान् चक्षुरादिभिर्वर्णादिविषयान् प्राप्नोति तथा मिथ्यादृष्टिरपि चक्षुरादिभी रूपादीन् विपयानुपलभते । यथा सम्यग्दृष्टिः श्रुतज्ञानेन रूपादीन मार्गदर्शक आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज विषयान् जानाति परान प्रति प्ररूपयति च तथा मिपि श्रुतज्ञानेन रूपादीन जानाति परान प्रति निरूपयति च । यथा सम्यग्दृष्टिः पुमान् अवधिज्ञानेन रूपिणः पदार्थानति ४५ तथा मिध्यादृष्टि विभङ्गज्ञानेन रूपिणोऽनवगच्छति' इति केनचिदुपन्याने कृते तन्मतनिरासार्थं भगवद्भिः सूत्रमुच्यते सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्म सवत् ॥ ३२ ॥ सच्च प्रशस्तं तत्त्वज्ञानम असच अप्रशस्तं मिथ्याज्ञानम् सदसती, अथवा सत् विद्यमानम् असत् अविद्यमानम् सदसती तयोः सदसतोः । न विशेष: अविशेषस्तस्माद२० विशेषात् । यच्छया स्वेच्छया उपलब्चिपलम्भनं प्रणं चच्छोपलब्धिस्तस्या यदच्छोपलब्धेः | उन्मत्त इव उन्मत्तवन । मतिनाव वीनां विपर्ययः कस्माद्भवति ? सदसतो: सम्ब विनाविशेषात, अविशेषेण यच्छोपलपि भवति । अत्रायमर्थः - मिथ्यादर्श नोदयात् जीवः कदाचित् सदपि रूपादिकमखदित्यङ्गीकरोति कर्हिचितदपि रुदिकं सदस्याध्यवस्यति । अन्या सद् रूपादिक सदेव मनुते, असद् रूपादिकमसदेव अवैति । २५ किंवत् ? उन्मत्तवत् पित्तोयाकुलितबुद्धिवत् । यथा पित्तोदयाकुलितमतिः घुसान् निजमातरं निजम मन्यते भार्याच्च मातरं यदृच्छया मन्यते । कदाचिन्मातरं मातरमेत्र मन्यते भायी भार्यामेव जानाति । तथा अश्वं गां मन्यते, गामश्वं सत्यते । अश्वमश्वं गां गाव मन्यते । तथाऽपि तत्सम्यग्ज्ञानं न भवति । एवमामिनिबोधकताबधीनामपि रूपादिषु विपर्यया भवति । Fear श्रमिध्यादर्शनपरिणाम आत्मनि स्थितः सन् ३० मत्यादिभी रूपादिग्रहणे सत्यपि कारणविपर्ययं भेदाभेदद्विपर्ययं स्वरूपविपर्ययोदयति । १ सरुज क ० १ २ -ऽति आ ० ० ३ णामिक र ० ० ज । ४ - भिः रूपादीन् आ०, ब० ६० ज० ० ५ नू परू- अपनः । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३] प्रथमोऽध्यायः ... कारणविपर्ययस्तावद्भयते--रूपादीनां कारणं 'केचिदेकममूत्तं ब्रह्मलक्षणं कल्पयन्ति । चित्तु नित्य प्रकृतिलक्षणं करूपयन्ति : अंग्ये पृथिव्यादिजातिभिन्नाः परमाणत्रः चतुर्गणात्रिगुणा द्विगुणा एकगुणाः सदृशजातीयानां का योगां कारणं भरन्त्या त्या रम्भकाः सञ्जायन्त इति । अपरे स्वयं कथयन्ति यत् पुथिव्यप्लेजोशयवश्वमारि भूनानि वर्णगन्धरसस्पर्शाश्चत्वारों औतिकधर्माः, एतेषामष्टानां पृथिव्याने जोपायुवर्ण गन्धरसस्पर्शानां समुदयो परमाणुरष्टको ५ भवति । वैभाषिकमते हि पृथिव्यादिमहाभूतश्चतुभिामयादिगुणश्चताभश्चमको परमाणु पद्यते । स रूपएरमागुरष्टक उच्यते । अपरे त्वेवं वदन्ति-पृथिव्यप्तेजोवायत्रः कार्कश्यादि. यस्मादि उष्णस्वादिगमनःदिगुणाः परमाणयो जातिभिन्नाः कार्यस्यारम्भका भवन्ति--कारणं संजायत इत्यादिकः कारणविपर्यायः । . भेदाभेदविपर्ययस्तु नैयायिकमते-कारणात कार्यमर्थान्तरभूतमेव । अनर्थान्तरभूतमेव १० इति च परिकल्पना बत्तंते। . स्वरूपविपर्ययस्तु मीमांसकमते सायंमते वा। हपादयो निर्विकल्पाः। कोऽर्थः सन्ति न सन्त्येत्र वा ? किं तहि ? तदाकारपरिणत विज्ञानमात्रमेव वर्तते, न तु विज्ञानमाद्रस्याबलम्बनं बाह्य वस्तु वर्तते । एवमपरेऽपि परिकल्पनाभेदा दृष्टेष्टविरुद्धाः प्रत्यक्षारोक्षविरद्धा मिथ्यादर्शनोदयात् सञ्चायन्ते । तान् सञ्जायमानान् प्रवादिनः कल्पयन्ति । ५ तेषु च प्रवादिनः श्रद्धानं जनयन्ति । तेन कारगेन तन्मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभाज्ञानं च स्यात् । सम्यग्दर्शनं तु तत्वार्थाधिगमे श्रद्धानमुःणादयति । तेन सम्यग्दर्शनपूर्वकं यद् भवति सम्मनिशानं श्रुतज्ञानमवधिमानं च संबोभवीति । अथ द्विप्रकारप्रमाणकदेशा नया उच्यन्ते--- नैगमसनव्यवहारर्जुमत्रशब्दसमभिरूयंभूता नयाः ॥ ३३ ।। २० नक गरछनीति निगमो विकल्पः, निगमे भयो गमः । अभेदतया वस्तुसमूह गृहातोप्ति सङ्ग्रहः । सङ्ग्रहेण गृहीतस्यार्थस्य भेदरूपतया वस्तु व्यवहियतेऽनेनेति व्यबहारः । ऋजु प्राञ्जलं सरलतया सूत्रयति तन्यतीति ऋजुसूत्रः । शब्दाद् व्याकरणात् प्रकृतिप्रत्ययद्वारेण सिद्धः शब्दः । परस्परेणाभिरूढः समभिरूढः । एवं क्रियाप्रधानत्वेन भूयते एवम्भूतः । नैगमश्च समान व्यवहारश्य ऋजुसूत्रश्च शब्दश्य समभिरूढश्च एवम्भूतश्च नैगम- २५ साहव्य रहारजुसूत्रशब्दसमभिरूटवभूताः । एते सप्त नयाः । नयन्ति प्रापयन्ति प्रमाणेकदेशानिति नयाः । ते सामान्यलक्षणं विशेषलक्षणञ्च बक्तव्यम् । तत्र तावत्सामान्यलक्षणमुच्यते--जीबादाबनेकान्तात्मनि अनेकरूपिणि धस्तुन्यविरोधन १ वदान्तिनः । २ सांख्याः । ३ नायिकाः । ४ "कामेष्टद्रव्यकः''अष्टौ ट्याग चत्वारि महाभूतानि (पृथिवी+जल+तेजाचात ) बचारि भौतिकानि ( गन्ध + रस + रूप + सास ) च ।' – अभिधर्म : टी० २।२२। ५ वैशेषिकाः । ६ सजायन्ते ता० | संज्ञायते यः । कारणतार्थमर्था- शाव०।८-ते स.- भार, प०, द, ज० । ५ -भेद-सा। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती | १३३ प्रतीत्यनतिक्रमेण त्यर्पणात द्रव्यपर्यायाद्यर्पणान् सान्यविशेपयाथात्म्य प्रापणप्रवणप्रयोगो नय उच्यते । अस्यायमर्थः - साध्यविशेषस्व नित्यत्वाऽनित्यत्वादेः याथः स्यप्रापणप्रवणप्रयोगो यथा स्थितस्वरूपेण प्रदर्शन समर्थ व्यापारो नय उच्यते । ज्ञातुरभिप्राय इत्यर्थः । स नयो द्विप्रकारःद्रव्याथिक पर्यायार्थिकमेदात् । द्रव्यं सामान्यमुत्सर्ग अनुवृत्तिरिति यावत् द्रव्यमर्थो विषयो मार्गदर्शक :- आचार्य खुलवा लिए। जर्याहोरविशेषः अपवादो व्यावृत्तिरिति यावत् पयोऽर्थो विपयो यस्य स पर्यायार्थिकः । तयोविकल्पा नैगमादयः । नैगमसहव्यवहारास्त्रयो नया द्रव्यार्थिका वेदितव्याः । ऋजुसूत्रशब्दसमभिरुदेवम्भूतार चत्वारो नयाः पर्याय. थिंका ज्ञानीयाः । 1 इदानीं नयानां विशेषलक्षणमुच्यते । अनभिनिवृत्तार्थः - अनिष्पन्नार्थः, सङ्कल्पमात्रआही नैगम उच्यते । तथा चोदाहरणम् -- कश्चित्पुमान् करकृतकुठारो वनं गच्छति, तं १० निरीक्ष्य कोऽपि पुच्छति यं किमर्थं ब्रजसि ? स प्रोवाच - अहं प्रस्थमानेतुं गच्छामि । इत्युक्ते तस्मिन् काले प्रस्थ पर्यायः सन्निहितो न वर्त्तते, प्रस्थो घटयित्वा धृतो न वर्त्तते । किं तहिं तदभिनिवृत्तये - प्रस्थनिष्पत्तये संकल्पमात्रे दार्वानयने प्रस्थव्यवहारो भवति । एवमिन्धनजलानाद्यानयने कश्चित् पुमान् व्याप्रियमाणो वर्त्तते स केनचिदनुयुक्तः किं करोपि त्वमिति । सेनोच्यते--अमोदनं पचामि । न च तस्मिन् प्रस्तावे ओदनपर्य्यायः सन्निहितोऽस्ति । किं १५ तहिं ? ओदनपचनार्थं व्यापारोऽपि ओदनपचनमुच्यते । एवंविधो लोकव्यवहारोऽनभिनिवृत्तार्थ :- अनिष्पन्नार्थः सङ्कल्पमात्रविषयो नैगमनयस्य गोचरो भवति । १ । स्वजात्यविरोधेनैकत्र उपनीय पर्यायान् आक्रान्तभेदान् विशेषमकृत्वा सकल ग्रहणं सह उच्यते । यथा सदिति प्रोक्तं वाग्ज्ञानप्रवृत्तिलिङ्गानुमितसत्ताधारभूतानां विश्वेषां विशेषमकृत्वा सत्सम्प्रद्दः । एवं द्रव्यमित्युक्ते द्रवति गच्छति तांस्तान् केवलिप्रसिद्ध पर्यायानिति द्रव्यम्, २० जीवाजीवतद्दप्रभेदानां समहो भवति । एवं घट इत्युक्ते घटबुद्धयभिधानानुगमलिङ्गानुमित सकलार्थः हो भवति । एवंविधोऽपरोऽपि समयस्य गोधरो वेदितव्यः ॥ २ । सङ्प्रहृन्नयविषयीकृतानां सङ्ग्रहनयगृहीतानां सम्मन यक्षिमानामर्थानां विधिपूर्वकमहरणं भेदेन प्ररूपणं व्यवहारः । कोऽसौ विधिः ? सहनयेन यो गृहीतोऽर्थः स विधिरुच्यते, यतः सङ्ग्रह पूर्वेणंत्र व्यवहारः प्रवर्त्तते । तथा हि- सर्वसमद्देण यद्वस्तु २५ सङ्गृहीतं तद्वस्तु विशेषं नाऽपेक्षते, तेन कारगेन तद्वस्तु संव्यवहाराय समर्थ न भवतीति कारणात् व्यवहारनयः समाश्रीयते । 'यत्सद्वर्त्तते तत्किं द्रव्यं गुणो वा यदूद्रव्यं तञ्जीबोजीवो वा' इति संयवहारो न कर्त्तुं शक्यः । जीवद्रव्यमित्युक्ते अजीवद्रव्यमिति चोके व्यवहार आश्रिते ते अपि द्रे द्रव्ये सहनयगृहीते संव्यवहाराय न समर्थं भवतः, सद देवनारका दिव्यवहार आश्रीयते घटाविश्व व्यवहारेण आश्रीयते । एवं व्यवहार नयस्ताय३० त्पर्यन्तं प्रवर्त्तते यावत्पुनर्विभागो न भवति । ३ । , " पूर्वान् व्यवहारनगृहीतान् अपश्च विषयान् त्रिकालागोचरानतिक्रम्य वर्त्तमानकाल १ द्रव्यं विता | २ - यो वि-१० । ३ -वग्रहणं व्य- भ० द० ० १ ७८ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथभाऽध्यायः २।३३ गोचरं गृह्णाति ऋजुसूत्रः । अनीनस्य विनष्टत्व अनागनस्यासञ्जातत्वे व्यवहारस्याभावाद् वर्तमानसमयमाविषयपर्यायमात्री ऋ मूत्र इत्यर्थः । नन्येवं सति संव्यवहारलोप: स्यात् । सन्यन : अस्य ऋजुसूत्रनयस्य विषयमान(ध प्रदर्शन विधीयते । लोकसंव्यवहारस्तु सर्वनयसमूह साध्या भवति । तेन ऋजुसूत्राश्रय संव्यवहारलोपा न भवन्ति । यधा कश्चिमृतः, नं रघ्या 'संसारोऽयमनित्यः' इति कश्चिद् अत्रीति, न च सर्वः संसारोऽनित्यो यर्सत इति । एते ५ चत्वारो नया अर्धनया वेदितव्याः । अन्ये वक्ष्यमाणाखयो नयाः शब्दनया इति । ४।। लिङ्ग सङ्ख्यासाधनादीनां व्यभिचारस्य निपेयपरः, लिशादीनां व्यभिचार दोषी नास्तीत्यभिप्रायपरः शब्दनय च्च1 लिङ्गव्यभिचारो यथा-पुष्य नक्षत्रं नारका चेनि । सङ्ख्याव्यभिचा। यथा--आपः तोयम् . वर्णः ऋतुः, आम्रा वनम् , वरणा नगरम ! साधनव्यभिचार: कारकज्यभिचार। यथा--सेना पवनमधिवसति, पर्वन तिष्ठतीत्यर्थः १५ स्थांमार्य शीपासुनिमिसावटया प्रायभिचारो यथा- हि मन्य रधेन यास्यनि ? न यास्यपि, यानरले पितेति । अन्यायमर्थः-..गहि त्वमागच्छ । त्वमेवं मन्यसे--अहं शेन वास्यामि. एनायता स्वं रथेन न यास्यसि । ते तव पिना अप्रे रश्रेन यातः ? न यान इन्पयः । अत्र मध्यमपुरुष थाने उत्तमपुरुषः, उत्तमधुरुपस्थाने मध्यमपुरुपः, नरथं मूगिदम् -- "प्रहासे भन्योपपदे मन्यतेस्तमैकवचनं च उनमे मध्यमस्य । १५ [ ] कालव्यभिचारो यथा--विश्वशा अस्य पुत्रो जनिता । भविष्यत्कार्यमासीदिति । अत्र भनियतकाले अतीनकालयि क्तिः । उपमयभिचारी यथा-- गनिनिवृनौ । अन्न प दापग्रहः । नन्न सन्तिष्ठते, अतिपते. प्रतिष्ठते, विनिमते । अत्र सूत्रम-- अप्रतिम [ का . ३१२३४८. दो १४ ] । रमु क्रीडायामित्यत्र आत्मनेपथ पवदः बिरमन्नारमति परिरमनि । गाङ परिभ्यो नमः" [ पान . ११३८३ ] । इनि व्यभिचारसत्रम् । यदत्तमुपर ति । "उपासकमकान" [ ] इति च व्यभिचारसूत्रम् । त्रि, यवहार नबस्नुपपन्नमन्याययं काश्चमान् नन्यते । स्मादन्याय्यं मन्यते ? अन्यार्थस्य अन्यायन पर्न नेम सम्बन्धाभावात् । नत्र कान्दन यापेक्षा नोगे नास्ति । नहिं लोकसमयविरोधी भविष्यति । भवतु नाम विरोधः। नत्यं परीक्ष्यते, किं तेन विरोधेन भविष्यति ? किमोपचं रोगीच्छानुवांत वर्तते ? । ५।। एकमप्यर्थं शब्दभेदेन भिग्नं जानाति यः स समभिरूढो नयः । यथा एकोऽपि पुलोमजाप्राणवल्लभः परमैश्वर्य्ययुक्त इन्द्र उभ्यते, स अन्यः, शकनात शक्रः, सोयन्त्रः, पुरदारणात् पुरन्दरः, सोऽप्यन्यः । इत्यादिशब्दभेदात् एकस्याप्यर्थस्यानेकत्यं मन्यते तत् समभिरूढनयस्य लक्षणम् । ६। यस्मिन्नेव काल ऐश्वयं प्राप्नोति तदवेन्द्र उच्यते, न चाभिषेककाले न पूजनकाले ३० इन्द्र उच्यते । यस्मिन्नेष काले गमनंपरिणतो भवति तदैव गौरल्यने न स्थितिकाले, न १ -चारो दो भाग, व., ज.। २ -सीदति-पा०, २०१३ - यति का-- आ०, व० | ४ -नयट- आ०,९०,०,ज०। ५ -परिणता भ- आ०,१००। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवृत्ती शयनकाले । अथवा इन्द्रज्ञानपरिणत आस्मा इन्द्र उच्यते, अग्निशानपरिणत आत्मा अग्निश्चेति एवम्भूननवलक्षणम् । ७ । ____पने नया उत्तरोत्तरसूक्ष्मविपाः । कथमिति चेन ? नेगमात् खलु सङ्ग्रहोऽल्पविषयः सन्मात्रग्राहिन्यात., नगमस्तु भावाऽभावविषयत्वाद् बहुविषयः, यथैव हि भावे सङ्कल्पः ५ तथाऽभावे नैगमस्य सङ्कल्पः । एवमुत्तरत्राऽपि योज्यम् । तथा पूर्व-पूर्वहेतुका एने नयाः । कथमिति चेत् ? नैगमः साहस्य हेतुः । साहो व्यबहारस्य हेतुः । व्यवहारः ऋजुसूत्रस्य तुः। ऋजुसूत्रः शब्दस्य हेतुः। शब्दः समभिरूतस्य हेतुः। समभिरूढ एवम्भूतस्य हेतुरिति । एते नया गौणतया प्रधानतया च अन्योन्याधीनाः सन्तः सम्यग्दर्शनस्य कारणं भवति तन्त्यादिवत् । यथा तन्वादयः उपायेन विनिवेशिताः पटादिसंज्ञा भवन्ति तथा परस्पराधीना १., नयाः पुरुषार्थक्रियासाधनसमर्था भवन्ति । परस्परानपेक्षा नयाः पुरुषार्थक्रियासाधनसमर्था न भवन्ति केवलसन्तुयन् । ननु विषमोऽयं दृष्टान्तः । कस्माद्विषमः ? यतस्तन्वादयो निरपेक्षा अपि सन्तः प्रयोजनलेशमुत्पादयन्ति, यतः कश्विसन्तुः प्रत्येक स्त्रपक्षणे समर्थो भवति, मागकवलः पलौशादवलकलश शबन्धन समाँ भवात, नियास्तु निरपेक्षाः सन्तः सम्यग्दर्शनलेश मपि नोत्पादयन्ति तेन घिषयोऽयमुपन्यासः-अघटमानोऽयं दृष्टान्तः। सत्यम् । उक्तमर्थ १५ भवन्तो न जानन्ति । अस्माभिरेतदुक्तम्-निरपेटौः तन्त्रादिभिः घनादिकार्य न भवति । यद भवभिझक्तं कार्य तन पटानिकार्यम् , किन्तु केवलं तन्त्वादिकार्य भयभिरुक्तम् । अथवा केवलस्तन्तुः यद्भवदुक्तं काय्यं साधयति तस्मिन्नपि तन्तौ परस्परापेक्षा अवयवाः मन्ति । गमाऽपि अस्मन्मतसिद्धिः । अथ त्वमेवं वक्षि, तन्त्वादिषु वसनादिकार्य शक्त्यपेक्षया बर्तत एब, तहि अरमन्मते निरपंक्षेषु नयेष्वपि बुद्धिकथनस्वरूपेषु हेतुबशात् सम्यग्दर्शनहेतु२०. परिणामो विदात एच । न कारणेन तूपन्यासस्य तुल्यतासिद्धिरस्ति । तेन सापेक्षरेव नयः सम्यग्दर्शनसिद्धिरिति सिद्धम् । अस्मिन्नध्याये झानदर्शनस्वरूपमुक्त नयलक्षणं च प्रतिपादितम. ज्ञानं च प्रमाणमिति बेदितव्यम् । ३३ । इत्यनवनागपाविधाविनोदनोदिलप्रमोदपीयूपरसपानपावनतिसमाजरत्नराजमतिसागरयतिराजराजितार्थनसमर्थनसमर्थन तर्कव्याकरणच्छन्दोलकारसाहित्यादिशालनिशितमतिना यतिना श्रीमदेवेन्द्रको तभट्टारकाशिध्येण शिष्येण च सकलविद्वज्जनविहितचरणसेवस्य श्रीविद्यानन्दिदेवस्य संच्छदिनमियामतदुर्ग रेण श्रीश्रुतसागरसूरिणा विरचितायां श्लोकात्तिकराजबात्तिकसर्वार्थसिद्धिन्यायकुमुदचन्द्रोदय(न्द्र)प्रमेयकमलमार्तण्डप्रचण्डाष्टसहस्रीप्रमुखग्रन्थसन्दर्भनिर्भरावलोकनयुद्धिविराजितायां तत्त्वार्थटीकायां प्रथमोऽध्यायः समातः ।।१।। १ वन्ति सा०,०।५-धीनत पर पु-- आ०, ब०, २०, ज० । ३ -क्षया अ-आ०. प्रा. ६०, जः। -सतु- आ०, २०, ५-भाजितर- २०। ६ -समर्थनसमर्थतर्क-ता। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽध्यायः अथ सम्यग्दर्शनविषयेषु सप्तसु तत्त्वेषु मध्ये जीवतत्त्वस्य कि स्वरूपमिति प्रश्ने सूत्रमिदमाहुः श्रीमदुमास्वामिनः- औपशमिक क्षायिक भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतस्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥ १ ॥ मार्गदर्शक :कमयं सुकतकादिद्रव्यसम्बन्धात् पङ्क 'अधोगते ५ सति जलस्य स्वच्छता भवति तथा कर्मणोऽनुवये सति जीवस्य स्वच्छता भवति स उपशमः प्रयोजनं स्य भावस्य स औपशमिकः । कर्मणः क्षयणं श्रयः । यथा पङ्कात् पृथग्भूतस्य शुचिभाजनान्तरसङ्क्रान्तस्य अम्बुनोऽत्यन्तस्वच्छता भवति तथा जीवस्य कर्मणः आत्यन्तिकी निवृत्तिः क्षयः कथ्यते । क्षयः प्रयोजनं यस्य भावस्य स क्षायिकः । औपशमिकश्च क्षायिकश्च औपशमिकक्षायिकों । एतौ द्रौं भावौद्री परिणामों जीवस्य आत्मनः स्वतत्त्वं स्वरूपं १० भवतः । न केवलमौ पशमिक्षायिकौ द्वौ भावो जीवस्य स्वतत्त्वं भवतः किन्तु मिश्रा | मिश्री भावश्च जीवस्य स्वतत्त्वं भवति निजस्वरूपं स्यात् । यथा जलस्य अर्द्धस्वच्छता तथा जीवस्य क्षयोपशमरूपो मिश्री भावो भवति । अथवा यथा कोद्रवद्रव्यस्य क्षालनविशेषात् क्षीणाऽक्षीणमदशक्तिर्भवति । तथा कर्मणः क्षयोपशमे सति जीवस्योपजायमानो भाव मिश्रः कध्यते । नरकादी कर्मण उड़ये सति जोवस्य संजायमानो भाव औदयिको भण्यते । १५ कर्मोपशमादिनिरपेक्षश्चेतनत्यादि (दिः) जीवस्य स्वाभाविको भावः पारिणामिको निगद्यते । स तु पारिणामिको भावः संसारिमुक्तजीवानां साधारणो भवति । न केवलमेते त्रयो भात्राः किन्तु औदयिकपारिणामिक च हो माय जीवस्य स्वरूपं भवतः । एते पञ्च भावाः जीवस्य स्त्रपं भवन्तीत्यर्थः । भव्यभ्य औपशमिक क्षायिक हौ भाव भक्तः । मिश्रस्तु अभव्यस्यापि भवति । औदयिकपारिणामिकों च अभव्यस्यापि भवतः । १४ I अथौपशमिकादीनां पञ्चानां भावानामन्नमदसंख्या निरूपणपरं सूत्रमिदमूचुः -- निवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ॥ २ ॥ द्वौ च न च अष्टादश च एकविंशतिश्च त्रयश्च द्विनवाट दशैकत्रिंशतित्रयः । त एत्र भेदा येषामपशमिकादिभावानां ते द्विनवादकविंशतित्रिभेदाः अथवा द्विनवादर्शकविंशतित्रयश्च ते भेदाद्विनवाद शैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रममनुक्रमेण ज्ञातव्याः | २ | १ 'श्रीमदुमास्वामिनः' इति नास्ति ३ अधोगति स आ० ४ भरती - ता० न० । ११ ३० । २ यस्वरु० ब० द०ज० २५ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थौ अattaमिकस्य भावस्य भेदद्वयसूचनपरं सूत्रमाहु: सम्यद्यत्वाद्वित्रे ॥औचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज सम्यक्त्वं च चारित्रं च सम्यक्त्यचारित्रे, औपशमिको भावो द्विभेदो भवति । अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायाको भाश्चत्वारः सम्यकस्वम्, मिध्यात्वम्, सम्यग्मिध्यात्व ५ एवासां समानां प्रकृतीनामुपशमादौ पशमिकं सम्यक्त्वमुत्पद्यते । अनादिकालमिध्यादृष्टिभव्यजीवस्य कर्मोहयोत्पादितकलुषतायां सत्यां कस्मादुपशमा भवतीति चेन् ? कालभ्यादिकारणादिति ब्रूमः । कासौ काललब्धिः ? कर्मवेष्टितो भन्य जीवोsर्थ पुल परिवर्तनकाल उद्धरिले सत्योपशमिकसम्यक्त्वमयोचितो भवति । अर्द्धपुलपरिवर्तनादधिकेकाले सति प्रथमसम्यक्त्वस्वीकारयोग्यो न स्यादित्यर्थः । एका काललब्धिरि१० यमुच्यते । द्वितीया काललधिः- यदा कर्मणामुत्कृष्टा स्थितिरात्मनि भवति जघन्या वा कर्मणां स्थितिरात्मनि भवति तदपशमिकसम्यक्त्वं नोत्पद्यते । तर्हि औपशमिकसम्यक्त्वं कोपयते ? या अन्तःकोटीको दिसागरोपमस्थितिकानि कर्माणि बन्धं प्राप्नुवन्ति भवन्ति । निर्मलपरिणामकारणात् सत्कर्माणि तेभ्यः कर्मभ्यः संख्येयसागरोपमसहस्त्रहीनानि अन्तः कोटि कोटि सागरीपनस्थितिकानि भवन्ति तदपशमिकसम्यक्त्वप्रणयोग्य आत्मा भवति । इयं द्वितीया काल२५ लब्धिः । तृतीया काललब्धिः कथ्यते सा काललब्धिर्भावमपेक्षते । कथम् ? भव्यजीवः पञ्चेन्द्रियः समनस्कः, पर्याप्रिपरपूर्णः सर्वविशुद्धः औपशमिकसम्यक्त्व मुत्यादयति । आदिशब्दाज्जातिस्मरणजिनमहिमा दिदर्शनादी पशमिकं सम्यक्त्वमुत्पादयति । षोडशपाया नवोकायाणां चोपशमादौ पशमिकं चारित्रमुत्पद्यते । ३ । ८२ २० " | २१३-८ अथ क्षायिकभावस्य नवभेदप्रतिपादनपरं सूत्रमुच्यते ज्ञानदर्शनदान लाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥ ४ ॥ ज्ञान दर्शन दानश्च लाभश्च भोगश्च उपभोगश्च वीर्यञ्च ज्ञानदर्शनदानलाभ भोगपभोगवीर्याणि सप्त चकारात् सम्यक्त्वचारित्रे च द्वे, इति नवविधः क्षायिको भावः । यामाचरणक्षात् क्षायिक केवलज्ञानम् । २ । केवलदर्शनावरणश्यात् क्षायिक केवलदर्शनम् | २ | दानान्तरायया श्रायिक्रमनन्तप्राणिगणानुमद्द करमभयदानम् । ३ । लाभान्त२५ रायक्षयात् क्षायिको लाभः ? कोऽसौ आयिको लाभः ? यस्य लाभस्य बलात् कबलाहाररहितानां केवलिनां शरीरंबलाधानहेतवोऽनन्यसाधारणाः परमशुभाः सूक्ष्मा अनन्ताः पुढला समयं समयं प्रति सम्बन्धमायान्ति । २ | भोगान्तरायस्य क्षयान क्षार्थिकोऽनन्तो भोगः । कोडली नायिको भोगः ? सकृद् भुज्यते भोगः, पुष्पवृष्टिगन्धोदकदृष्ट्यादिकः । ५। उपभोगाम्तरायक्षयात् क्षायिकोऽनन्त उपभोगः । कोऽसौ क्षायिक उपभोगः ! सिंहासनचामर३० छयादिकः । ६ । वीर्यान्तराययात् क्षायिकमनन्तवीर्यम् । किं तत् क्षायिकं बीर्यम् ? यलात् केवलज्ञानेन केवलदर्शनेन च कृत्वा सर्वद्रव्याणि सर्व पर्यायांश्च ज्ञातुं द्रष्टु ं च १ बलादान हे ब० । बलादाने हे आ० ०, ५०, ज० ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽध्यादर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज केवली शक्नोति । | अनन्तानुबन्धिकोषमानमायालोभसम्यक्त्वमिथ्यात्वसम्यस्मिथ्यात्वलक्षणसप्तप्रकृतिश्यात् माग्रिकं सम्यक्त्रम् । ८। षोडशकायनवनोकषायश्चयात् क्षायिक चारित्रम् । ५। अनाह कश्चित-नायिकमभयानलामभोगोपभोगादिकं मुक्तेष्वपि प्रसज्यते ; तन्नः शरीरनामतीर्थक्कर नामकर्मोदयात् तत्प्रसङ्गः, न सिद्धानां शरीरनामतीर्थकरनामकमंदियोऽस्ति ५ यंन तत्प्रसङ्गः स्यात् । तहि सिद्धपु तेषां वृत्तिः कथम् ? अनन्तयोर्याव्यात्राधमुखरूपेणव तेषां तत्र प्रवृत्तिः, केवलज्ञानरूपेण अनन्तवीर्यप्रवृत्तिवत् । उक्तं च "आनन्दो ज्ञानमैश्वर्यं वीर्य परमसक्षमता । एतदात्यन्तिकं यत्र स मोक्षः परिकीर्तितः ॥१॥" [ यश८ उ, पृ० २७३ ] अथ मिश्रो भावोऽष्टादशभेदः कथमिति निरूपयन्तिज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्व चारित्रसंयमासंयमाश्च ॥ ५॥ ज्ञानानि चाज्ञानानि च दर्शनानि च लब्धयश्च ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयः । कथम्भूना ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयः ? चतुषित्रिपञ्चभेदाः चत्वारश्च त्रयश्च त्रयश्च पञ्च च चतुखि. त्रिपञ्चने भंदा यासां ताश्चतुरित्रिपश्चभेदाः। सम्यक्यच चारित्रच संयमासंयमश्च सम्य- १५ क्त्यचारित्रसंयमासंयमाः । अस्यायमर्थः-चत्वारि ज्ञानानि त्रीणि अज्ञानानि त्रीणि दर्शनानि पश्च सन्धयः यथाक्रमं भवन्ति । सर्वस्य ज्ञानस्य घातकवीर्यान्तरायादिकर्मोदयस्य क्षये सति तस्यव सर्वस्य ज्ञानस्यैव घातिनः कर्मणोऽनुभूतस्ववीर्यवृत्सेरप्रादुर्भूतनिजशक्तिप्रवृत्तिनः नदबस्थासपोशमे सति विधमानावस्यास्वरूपप्रशमे सति देशघातिकर्मोदये च सति मतिश्रुनावधिमनःपर्ययाश्चत्वारो मिश्रभावा भवन्ति, क्षायोपशमिका भवन्तीत्यर्थः । मत्यज्ञानं श्रुता- २० ज्ञानं विभङ्गाधिश्च, एतानि त्रीणि सत्यासत्यरूपत्यादज्ञामानि भवन्ति । तेष्वपि मिश्री भावो दातव्यः । तद्वनचक्षुर्दशनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनश्च । एष्वपि दर्शनेषु मिश्रो भावो भवति । नथा दानलाभ भागोपभागवीर्यान्तरायसर्वघात्युदयस्य श्रये सति सदवस्थालक्षणापदामे सति नाघात्युदये च तति दानलामभागोपभोगवीर्यलक्षणा लब्धयः पञ्चमिश्रभावा भवन्ति, आयोपशमिका भवन्ति । अनन्तानुबन्धिचतुष्कमिथ्याचसम्यग्मिथ्यात्यानां षण्णामुदयक्ष- २५ का सपोपशमान सम्यक् बनाममिथ्यात्रस्य देशधातिनो न तु सर्वघातिन उदयात् मित्रं सभ्यर यं भवति, क्षायोपमिक सम्यक्त्वं स्यात् । तद्वदकमित्युच्यते । तस्यापि मिश्रो भावो भवनि । अनन्तानुवन्ध्यप्रत्यास्यानप्रत्याख्यानलक्षणानो द्वादशानां कपायाणामुदयस्य भये सति विद्यमानलक्षणापशमे सति सम्ज्वलनचतुष्काऽन्यतमस्य देशघातिनश्चोदये च सति हास्य १ -स्थारूप- आ०,०, द०, अ०।२ मिश्रलक्षणमा- भा०, १७, २०, जा। ३- स-पा०, वर, जल, व ! Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वाथवृत्ता [ रा६ रत्यरतिशोकभयजुगुप्साखीपुनपुंसकबंदलक्षणानां नवानां नोकपायाणां यथासम्भवमुदये च सति मिश्र चारित्रं भवति । अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानकषायाप्रकस्य उदयम्य क्षये सति तासतोपलक्षणोपशमे सति प्रयारल्यानसा ज्वलनायकम्योदये सति नोकषायनयकस्य यथासम्भवी दये च सति संयमासंयमः संजायते । सोऽपि मिश्री भावः कथ्यते । चकारात संज्ञित्वं ५ सम्यग्मिध्यात्वं च मिश्रौ भावौ ज्ञातव्यो । अथैचाविशतिभेदा औदायिकभावस्यांच्यन्गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानामयताऽसिद्धलेश्या श्चतुश्चतुस्यकैकैकैकषड्भेदाः ॥ ६ ॥ गतिश्च कपायश्च लिङ्गश्च मिञ्च अन्नयनका असंझुनवाला महाराज १. च गतिकपालिङ्गमिन्यादर्शनानानासंयतासिद्लेश्याः । चत्वारश्च चत्वारएच यश्च एकञ्च एकश्च एकश्च एकश्च पट् च चतुश्चतुत्येककैकपट , ते भदा यासां गतिकपालिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानाऽसंयता:सिद्धलेश्यानां ताः चतुश्चत्तुरव्यककककपभेदाः। "दिनवाटादर्शकविंशतित्रिभेदाः यथाक्रमम्" [त. सू० २।२] इत्यतो यथाक्रममिति ग्राह्यम् । तेना यमर्थः-आतिश्चतुर्भेदा । कपायश्चनुर्भेदः । लिङ्ग त्रिभेदम् । मिथ्यादर्शनमेकभेदम् । अज्ञान६५ मेकभदम् । असंयत एकभेदः । असिद्ध एकभेदः । लश्याः षड्भेदाः । एत एकविंशतिश्रृंदा औदयिकभावा भवन्ति । तत्र नरकगतिनामकर्मादयान्नारक भवतीति नरकातिरौयिकी । तथा तिर्यभगतिनामकर्मोदयात् तिवंग्गतिरौयिकी। तथा मनुष्यगतिनामकोदयान्मनुष्यगतिरोदयिकी। देवतिनामकर्मोदयाद् देवगतिरोयिकी। क्रोधोत्पादकमोहकर्मादयान क्रोध औदयिकः । मानोत्पादकमाकर्मोदयान्मान आंदयिकः । मायोत्पादकमाइकदियान्माया २, औदयिकी । लोभीपादकमोहकमंदियाल्लोभ आदयिकः । स्त्रीवेदजनकनोकपायमोहकर्मोदयान खीवेद औदायिकः । पुंवेदजनकनाकपायमोहकोदयात् 'वेद औदायिकः । नपुंसकवेदजनकनोकपायमोहकर्मोदयानपुंसकवेद औदकिः। तत्त्वार्थानामश्रद्धानलक्षणपरिणामनिवर्त्तकमिथ्यात्वमोहकर्मोदयान् मिथ्यादर्शनमौदयिकम् । बानावरणकादयान पदार्थाऽपरिज्ञानमज्ञानमी दथिकम् । चारित्रमाहस्य सर्व घातिस्पर्द्धकस्य उदयादसंयत्ता भवनि, स औदायको भावः । २५ कर्मोदयसाधारणापेक्ष' असिद्धः, सोऽपि ऑयिकभाव एव । रेश्या षड्विधापि द्विविधा घ्यलेण्या-भावलेश्याभेदात् । तन्न जीवभावाधिकारे द्रव्यलेश्या नाद्रियते। भावलेश्या नु आद्रियते । कपायोदयानुञ्जिता योगप्रवृत्तिर्भावसं.श्या । साप्यौदायकीति कथ्यते । सा षड्विधा कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापीतलश्या, तेजोलेश्या, पालश्या, शुक्ललश्या। तदुदाहरणार्थमियं गाथा । तथा हि १ भायन मार, द., ज., 4 ! २ -तिभे-ब, आ०, द. | ३ - अथाऽगि- भा., द. 40,जः । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81561 द्वितीयोऽध्यायः "उम्मूलखंधसाहा गुच्छा चुणिऊण तहस पडिदाओ। जह एदेसि भावा तहविह लेस्सा मुणेयच्या ॥" [ पंचसं १ । १९६] अत्राह कश्चिन्-उपशान्तकायायमीणकाशययोः सयोगकवलिनि च शुक्रन्टलेश्या वर्जन इति सिद्धान्तवचनमस्ति, तेषां कपायानुर जनभावामा३२ हावादादायको भावः कथं घटते ? सत्यम ; पूर्वभावप्रज्ञापनापश्या कपायानुरस्मिता योगप्रतिः मवेत्युच्यते । कम्मान ? मन- ५ पूर्वकस्तद्दषघारः इति परिभाषणान् । योगाभावादयोगवली अले.श्य इमि निर्णीयते । ६ । अथ पारिणामिकमावस्य भदन्नचमुच्यते-- जीवमव्याभव्यत्वानि च ॥ ७ ॥ जीवत्वं च चेतमत्वम् , भव्यत्वं च सम्यग्दर्शनशानचारिकरू पण भविस्यम् . अभव्यतां च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रम पेण अभविष्यत्वम् . जगभव्या भव्य वानीति | . एते त्रयो भावा अपरद्रव्याऽसमानाः पारिणामिका जीवस्य ज्ञानव्याः । कशिमक्ष शमभयानपेक्षत्वान् पारिणामिका इत्युच्यन्ते । चकारादस्तित्त्रं यन्तुल्यं द्रव्यत्वं प्रमेयत्वमगुरु लघुत्वं नित्यप्रदेशत्वं मूर्तस्त्रममूर्तत्वं चतनत्वमन्नतनत्यश्च । एतेऽति दश भावाः पारिणामि का अन्यद्रव्यसाधारणा वेदितव्याः । कथं पुलम्य चेतनत्वं जीवाचतनवनिति चन् ? उच्यतेयथा दीपकलिकया गृहीमार्गमा दीपशिखायाने, सविसावन शिहादाच्या गृहीनः । पुद्गलोऽपि उपचारात् जीव इत्युच्यते, तेन पुगलम्यापि चननत्वं भण्यते । तथा जीयोऽपि आत्मविवेकपराज-मुस्त्र उपचरिताऽसद्भूतव्यबहारनवापेक्षया अचेतन मृत्युपचयत । एवं मूर्तस्त्रमपि उपचारेण जीवस्य जातध्यम् । पुलस्य तूपचोरणापि अमूनत्यं नास्ति । अवाह कश्चिन-मूत्तकमै कत्वे आत्मनोऽपि मूतत्वे जीवम्य का विशेष ? सत्यम . मून न कर्मया सहकत्वेऽपि लक्षणभेदात जावम्य नानात्वं प्रतीयते । नयाह "बन्धं प्रत्येकत्वं लक्षणता भवति तस्य नानात्वम् । तस्मादमृतभावो नेकान्तो भवति जीयम्य ॥" { यदि लक्षणन आत्मनो भेदः, कि तहष्ण जीवस्य' नि प्रश्ने जायणस्वर पनिरूपणार्थ सूत्रमिदमाहुरूमास्वामिनः उपयोगो लक्षणम् ॥ ८ ॥ १ उम्मल-110 | GEक-घसान चिन यातनान । यथा 1-4] माया: नथापिटेवा मन्तध्याः ॥ २ -लिनच आद., ज.नाच प०।३गत.. आ०, २०, ७. ज. ४ कथं जवस्यान्तनत्वं पुलस्य चतनवांमात भा. ब०, द., ज..। ५ दीपाक्य या मा०,६०,०, ज०। ६ मूतनकस् आ०, २०, ३०,जा। ७ "उक्तञ्च--- पटि एयत्तं लक्षणदो हवा तस्स णाणा । तम्हा अतिभावाडणे यता माई जीयम्स " -स.सि. २७ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती [ २५९-१० उपयुज्यते वस्तु प्रति प्रेयंते यः वस्तुस्वरूपपरिज्ञानार्थम् इत्युपयोगः । “अकरि च कारके संज्ञायाम" [पासू०.३।३।१८ घञ्। अथवा आत्मन उप समीपे योजन उपयोग: "भावे [पा० सू० ३।२।१८] घन । उपयोग: सामान्येन ज्ञानं दर्शनश्चीच्यते । स जीत्रस्य लक्षणं भवति । कर्म-कर्मक्षयोभयनिमित्तवशादुत्पदामानश्चतन्यानुविधायी परिणाम इत्यधः । तेन उपयोगन लक्षणभूतेन कर्मबन्धबद्धोऽप्यात्मा लक्ष्यते दुवर्णसुषण योयन्धं प्रत्येकत्वेऽपि वर्णादिभवत् । एवं सति कश्चिदाह-लक्षणन आत्मा लक्ष्यते । तच लक्षणमात्मनः स्यरूपं तत्त्वमेव । स्वतत्त्व लक्षागयोः को भेदो वर्तते ? सत्यम् : स्वतत्त्वं लक्ष्य भवन , लक्षणं तु लक्ष्यं न भवेदिति स्त्रतत्वलनणयोमहान भेदः । । स विविधोऽप्रचतुर्भेदः ॥६॥ १. विधौ प्रकारों यम्य स द्विविधः। अष्ट च चत्वारश्च अष्टचत्वारः, ते भेदा यन्य उपयोगस्य स अपचतुर्भेदः । स उपयोगः संक्षेपण द्विविधो भवति झानदर्शनभेदात् । त्रिस्तरेण तु ज्ञानोपयोगोऽष्टभेदः। दर्शनोपयोगश्चतुर्भदः । के ते ज्ञानोपयोगस्य अg भेदाः के या दर्शनोपयोगस्य चत्वारा भेदाः इति चेत् ? उच्यते-मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मनःपर्य यज्ञानं केवलज्ञानं मत्वज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानं चेति ज्ञानोपयोगस्य अष्ट भेदाः । १५ चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमधिदर्शनं केवलदर्शनं चेनि दर्शनोपयोगस्य चत्वारो भेदाः। साकार ज्ञानं निराकारं दर्शनम् । कोऽर्थः ? वस्तुना विशेषपरिज्ञानं ज्ञानम् । विशेषमकृत्वा सत्तावलोकनमात्र दर्शनम् । नच मानं दर्शनं च । छद्मस्थानों पूर्व दर्शनं भवति पश्चात् ज्ञानमुत्पात । निराचरणानां तु अई सिद्धसयोगकेवलिनां दर्शनं ज्ञानश्च युगपद्भवति । यदि दर्शनं पूर्व भवति जानं पश्चान् भवति तर्हि ज्ञानस्य ग्रहाणं पूर्व कि क्रियते ? इत्याह-सत्यम् । “अल्पस्वरतरं नत्र पूर्वम् यच्चार्चित द्वयोः" [कातः २।३।१२, १३] इत्युभयप्रकारेणापि झानस्य पूर्वनिपातः । सम्यग्ज्ञानस्याधिकारे पूर्वं ज्ञानं पञ्चविधमुक्तम् । इह तु उपयोगनिरूपणे मत्यादिविपयोऽपि ज्ञानमुच्यते । इत्यविधी ज्ञानोपयोगः कथ्यते । तथा चोक्तं ज्ञानदर्शनयालक्षणम् “सत्तालोचनमात्रमित्याप निराकार मतं दर्शनं साकारं च विशंपीचरमिति ज्ञानं प्रवादीच्छया । तैनते क्रमवतिनी सरजसा प्रादशिके मवतः स्फूर्जन्ती युगपन्पुनबिरजसां युष्माकमङ्गातिगाः ॥ १॥" [प्रतिमा २।०] विध उपयोगी विदान यपो त उपयोगिनः । ते च कति प्रकारा भवन्तीति प्रश्ने सूमिदमाहुराचार्याः संसारिणी मुक्ताश्च ॥१०॥ रा नजा -ता, जल, भा.। सनति क्र-व० । ? ज्ञानन ,३०, ज ३ -मान्तिकाः आ० । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्याधायः आचार्य श्री सुविधिसागर जी सरणं संसारः प्रकार परिवर्तनमित्यर्थः । संसारो विद्यते येषां ते संसारिणः । पत्रकारान् परिवर्तनान्यन्ते स्म मुक्तः संसारान्निवृत्ता इत्यर्थः । चकारः परस्परसमुच्चये वर्तते । संसारिणश्च जीवा भवन्न, मुक्ता जीवा भवन्तीति समुच्चयस्यार्थः । ननु मुक्ताः पूज्याः संसारिणस्तु नाक्या न भवन्ति । नहि संसारिणां ग्रहणं प्राकू किमित्युपन्यस्तम् ? सत्यम्: पूर्व संसारिणी भवन्ति पञ्चान्मुक्ता भवन्तीति व्यवहार संसूचनार्थ संसारिणां म स्वामिना उमास्वामिना | स्वामीति संज्ञा कधम् ? उद्दि आचार्यादीनां लक्षणम्"पाचारतो नित्यं मूलाचारविदग्रणीः । चतुर्वर्णस्य संघस्य यः स आचार्य इष्यते || १ || अनेकपर्णशास्त्रार्थव्याकृतिक्षमः । રા पञ्चाचरतो ज्ञेय उपाध्यायः समाहितैः ॥ २ ॥ सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तो व्याख्यानादिषु कर्मसु । farm मौनवान् ध्यानी साधुरित्यभिधीयते || ३ || सर्वशास्त्रकलाभिज्ञो नानागच्छाभिवृद्ध कः । महातपःप्रभाभावी भट्टारक इतीष्यते ॥ ४ ॥ तस्वार्थसूत्रव्याख्याता स्वामीति परिपठ्यते । अथ क्रियाकलापस्य कर्त्ता वा सुनिसत्तमः ।। ५ ।।” महाराज प मांश-५ -दितो ७ एकन नावन आ०, ब० १ न्योति ब० । २ हतः भ० ब० ज०, ५०, ब० । ३ परि । ४ -काम०, ६०, ६० ज० ६ -नमुच्यते आ०, ब०, ३० ज०, ब० ० ० । १५ [नीतिसार श्लो १५-१] अथ किं कार परिवर्तनमिति चेत् ? उच्चते द्रव्यक्षेत्र कालमव भावपरिवर्तनदान परिवर्त्तनं पचविधम् । तत्र द्रव्यपरिवर्त्तनं द्विप्रकारम्-नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन द्रव्यकर्मपfrance as नोर्म द्रव्यपरिवर्तनमुच्यते - औदारिक क्रित्रिकाहार कशरीरचयस्य पय- २० किला एकेन जीवेन एकस्मिन्समये गृहीताः स्निग्धवर्णगन्धादि भिस्तोत्रमन्द्रमध्यमभावेन च यथावस्थिताः द्वितीयादिप समयेषु निर्जीर्णाः, अगृहीतान् अनन्तवारान् अदीत्य निश्रितश्च अनन्तवारान् अतीत्य मध्यनगृहीतांश्च अनन्तवारान अतीत्य त एव तेनैव स्निग्धादिभावेन तेनेव तोत्रादिभावेन च तथावस्थितप्रकारेण न तस्यैव fter नोकन्ते यावत् तावत् समुदितं सर्वं त्रैलोक्यस्थितं पुनकर्म २५ परिवर्तन करूयते । अथ कर्मद्रव्यपरिवर्त्तनमुच्यते - एकस्मिन् समये एकेन जीवेन अग्रप्रकारकत्वेन ये Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती । २०१० पुद्रला गृहीताः समयाधिकामालिकामतीत्य द्वितीयादिषु समय निर्जीर्णाः प्रागुतेन क्रमेण न एव पुदलाम्तेनैव प्रकारेण तस्य जीवस्य कर्मत्वमायान्ति समुदितं यावत्तावा कर्मद्रव्यपरिवर्तन कथ्यते । तथा चोक्तम् "सच्चे वि पुग्गला खलु कममो भुत्तुझिया य जीवेण । असइअणंतखुतो पुग्गलपरियट्टसंसारे 1।" [ बारसअणु. ६.५ ] तथा चेष्ट्रोपदेशः "भुक्ताज्झिता मुहुमोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः । उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य प्रम विज्ञस्य का स्पृहा ।" [ इष्टोप- श्लो. ३] इति नोकर्मद्रव्यपरिवत्तनं द्रव्यकर्मपरित्रगनं च विविध द्रव्यसंसार ज्ञात्वा तद्धेतुभूतं १. मोहकम न कर्तव्यमिति भावः । मार्गदर्शक क्षेत्राचा विकास तथा हि-सूर्मानगादजीवोऽपारकः सर्वजन्यप्रदशशरीरा लोकस्य अष्ट्रमध्यप्रदेशान स्वशरीरमध्ये कृया उत्पन्नः, क्षुद्रभवग्रहणं जीवित्वा मृतः म एव जीवः पुनस्तनय अवाहन हा बारावु-पन्नधान बारानुत्पन्नश्चतुवारानुत्पन्न इत्यत्रं याबदलस्य असंख्ययभागमिताकाशप्रदशास्तावता बारान् वयापय पुनः एकैकप्रदेशाधि. ४५ कचेन सर्वलोको निजजन्मक्षेत्रत्यमुपनीता भनि यावत्तायन क्षेत्रपरिवर्तनं कम्यते । तथा चोक्तम् "मव्वं हि लोगवतं कमसो तं गस्थि जंण उत्पणं । ओगाहणाए वही पम्भिमिदी ग्वत्तसंसारे ।" [ वारसअणु८ २६] नथा च परमात्मप्रकाशा-- "मो गतिथ को पएसी चउरानालखजोणिमझम्मि । जिणधम्मं अलहन्ली जाध ण इन्दुइल्लिो जीओ ॥ [ परमात्म. १।६५ ] इति क्षेत्र परिवर्तनमनन्तबारान जीवश्चकार । तथा ज्ञात्वा जिनधर्म मतिः कार्ये. नि भाषः। कालपरिवर्तन कम्पन उत्सर्पिणीकालप्रथमसमये कोऽपि जीव उत्पन्नो निजायु:२५ समाप्ती मृतः, स एव जीवो रितीयोत्सपिणीकालवितोयसमये पुनरुत्पन्ना निजायुमक्त्य' पुनमनः. तृतीयोत्सर्पिणीकालतृत यसमय पुनरुत्पनी निजायभुक्त्या पुनमतः. चतुर्थी १ पुलाः खल उमदा इलायन न। अमदानन्द, पालागंभार || २ अवगाहनेन । ३ -चत 5-आआ, ६., अ., ज1 महि. लोकसत्र क्रमास्त मान्ति यत्र नो पनन् । अवगाहनया बाझाः परिभ्रमन यमसारे || ५ मा नातिक प्रदेशः नगर. गोलायोनिमय । जिनधर्ममलमन् यत्र न परिभ्रमित जीवा ।।६ -यप पु- आ०.40. द. ज.. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽध्यायः कालच तुम पुनरुत्पन्नो निजायुर्भुक्त्वा पुनर्मृतः । एवं सर्वोत्सर्पिणीसमयेषु "जन्म गृह्णाति तथा सर्वोत्सर्पिणीसमयेषु मरणमपि गृह्णाति । यथा सर्वेषूत्सर्पिणीसमयेषु जन्ममरणानि गृह्णाति तथा सर्वेष्ववसर्पिणीसमयेषु जन्मानि मरणानि च गृह्णाति । एवाचाविशतेन : एका कालपी वापर जीवन कृतानि । तथा चोक्तम्- कालपरिवर्तनानि जीवेन २१ ८९ ५ "ओसपिणि-अवसप्पिणि-समयावलियासु णिरवसेसासु । जादो मरिदो बहुसो भ्रमणेण दु कालसंसारे || १||" [ बारस अणु० २९ ] एवंविधकालपरिवर्तनमपि जिनस्वामिसम्यक्त्वरहितेन जीवेन कियते । यदा तु निस्वामित्वं जीवो गृह्णाति तदा सर्वसामग्री प्राप्य मुक्तो भवति । तेन कारणेन जिनस्वामिसम्यक्त्वमुपादेयमिति भावार्थः । तथा चोक्तम् "कील अणाह अणाइ जिउ भवसायरु वि अणंतु । 1 जीव विष्णण पत्ताई जिसामिउ सम्मत्त ॥ १॥" [ परमात्मम० २।१४३ ] इदानीं भवपरिवर्तनोत्कीर्तनं क्रियते । भवपरिवर्त्तनं चतुर्गतिपरिभ्रमणम् । तत्र तावन्नरकगतिपरिवर्तनमुच्यते । नरकगतौ दशवर्षसहस्राणि जघन्यमायुः । केनचित् प्राणिना दशवर्षसहस्रप्रमितमायुः प्रथमनरके शुक्तम् । पुनभ्रमणं कृत्वा तादृशमायुस्तचैव नरके भुक्तम् १५ एवं पुनर्भ्रान्त्या तृतीयारेऽपि तादृशमायुर्भुक्तम एवं चतुर्थादिवारेषु तादृशमायुर्दशवर्षसहस्राणां यावन्तः समयास्तावतो वारान् स एव जीवस्तादृशमायुर्भुङ्क्ते । पश्चादेकैकसमयाकिमायुः पुनः पुनर्भ्रान्ता मुक्ते यावत्त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि परिपूर्णानि भवन्ति । समयाधिकतया यदि परिपूर्णान्यापि भवन्ति तदा गणनीयानि भवन्ति, अधिकतया तु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यपि न गणनीयानि भवन्ति । इदानीं तिर्यग्भवः सम्भाव्यते । स एष २० जीवस्तिर्य करवेऽन्तर्मुहूर्त्तायुधा उत्पन्नः पुनर्भ्रान्त्वा अन्तर्मुहूर्त्तायुरुत्पद्यते । एवं तृतीयचतुर्थपचमादित्रारान् तिर्यक्स्वेऽन्तर्मुहूर्तायुरुत्पद्यते यावदन्तर्मुहूर्तायुषः समयाः परिपूर्णा भवन्ति । तत्पश्चात् एकैकसमयाधिकायुरुत्पद्यते । यावत्त्रीणि पल्यानि परिपूर्णानि भवन्ति तावन्तिर्यग्भपरिवर्तनं परिपूर्ण भवति । तत्रापि समयाधिकवया या भवो गृहीतः स गण्यते, अन्यथागृहीतो भवो नगण्यत इत्यर्थः । यथा तिर्यग्भवपरिवर्त्तनं सूचितं तथा मनुष्यभवपरिवर्त्तनं २५ ज्ञातव्यम् । देवगति परिवर्त्तनं तु नरकगतिपरिवर्तनवत् बोद्धव्यम् । अत्रायं विशेषः - देवगतौ उपरिममैवेयकसम्बन्ध्ये कत्रिंशत्सागरोपमपर्यन्तसमयाधिकतया परिवर्तनं ज्ञातव्यम् । चोक्तम् तथा १ जन्ममरणं गृ- आ०, ब०, ६०, ज०, २ एवं आ०, ब० ज० सा० । ३ कालः परिवर्तति व० । ४ उत्सर्पि व्यवसर्पिणिसमयावलिकामु निरवशेषामु । जातो मृतो बहुशो भ्रमणेन तु फालसंसारे । ५ कालोऽनादिः अनादिर्जीवः भवसागरोऽध्यनन्तः । जीवेन द्वे न प्राप्ते जिनः स्वामी सम्यक्त्वम् | १२ १० Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्तौ [ १० "णिरयादिजहण्णादिसु जाचदि उवरिल्लिया दु गेवेला। मिच्छत्तसंसिदेण दु बहुसो वि भवहिदी भमिदा ।" [ बारस अशु० २८ } एवं भवपरिवर्त्तनं मिथ्यात्वमूलकारणं विज्ञाय परमानन्दपदं २यियासुना मिथ्यात्वं परिहत्य अनन्तसौख्यकारणमोक्षपदप्रदायकसम्यक्त्वादिकमाराधनीयम् । भवमध्ये तु किमप्य५ पूर्घ नास्तीति भावार्थः । उक्तश्चपारिवास्ति जीवाट अधिनमा राजया निखिलतः परिशीलनेन । तत्केवलं विगलिताखिलकर्मजालं स्पृष्टं कुतूहलधिया न हि जातु धाम ॥" [ यश. पू. पृ० २७१] इदं सुभाषितं क्षेत्रपरिवर्तनेऽपि योजनीयम् । १० इदानी भाबपरिवर्त्तनं कश्यते-पञ्चेन्द्रियसंक्षिपर्याप्त कुछष्टेर्जीवस्य सर्वजघन्यां स्वयोग्यां झानावरणप्रकृतेः स्थितिमन्तःकोटीकोटिसंज्ञा स्वीकुर्वतः कपायाभ्यवसायाथानान्य संख्येयलोकप्रमितानि संख्यातासंख्यातानन्तभागवृद्धि-संख्यातामख्यातानन्तगुणवृद्धिरूपपदस्थानपतितानि तस्थितियोग्यानि भवन्ति । तत्रान्तःकारिकोटिस्थिती सर्वजघन्यकषाया ध्यवसायस्थाननिमित्तानि, अनुभागाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकप्रमितानि भवन्ति । प्रकृति१५ स्थितिबन्धानुभागप्रदेशस्चर.पनिरूपणपरेयं गाथा "पैयडिटिदिअणुभागप्पदेशभेदादु चदुविधो बंधो । जोगा पडिपदेला हिदिअणुभागा कसायदो होति ॥१॥" [मूलाचा गा- १६२१] तथा चोक्तम् "प्रकृतिः परिणामः स्यात् स्थितिः कालाबधारणम् । अनुभागो रसो छेयः प्रदेशः प्रचयात्मकः ॥ २॥" [ ] एवमन्तःकोटीकोटि संज्ञा सर्वजघन्यो स्थिति स्वीकुर्वतः सर्वजघन्यं च कपायाध्यवसायस्थानं स्वीकुर्वतः सर्वजघन्यमेव अनुभागस्थानमनुभवस्थानं कर्मरसास्वादनस्थानन स्त्रीकुर्वतो मिथ्यादृष्टीवस्य सद्योग्यं ज्ञानाचरणस्थित्यनुभागांचितं सजग्रन्ययोगस्थान भवति । तेपामेव स्थितिरसकषायानुभागस्थानानां द्वितीयमसंख्येयभागवृद्धिसहितं योगस्थानं २५ भवति । एवन्द्र तृतीयादिपु अनन्तभागवृद्ध थचन्तगुणवृद्धिरहिनानि चतुःस्थानपतितानि श्रेण्यसंख्येयभागप्रमितानि योगस्थानानि भवन्ति । तथा तामेव स्थिति तदेव कपायाध्यवसायस्थानश्च स्वीकुर्वतः द्वितीयमर्नु बाध्यःसार स्थानं भवति । तस्य च द्वितीयानुभागाध्यवसायस्थानस्य योगरथानानि पूर्व बदितानि । एवं तृतीयाद्यनुभवाभ्यवसायस्थानेष्वपि आ असंख्ये १ नरकादिजधन्यादिषु यावत् उपरिमग वेबकानि । भिख्यास्यसंश्रितेन तु बहुशोऽपि भवस्थितिः भ्रमिता || २ पिपासतां मि- आ०, म., द०, ज.,। ३ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदात्तु चतुर्विधी बन्धः । योगान् प्रतिप्रदेशी रिश्त्यनुभागो कपायता भवन्ति ॥ ४ -मनुभाग- ता० । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ १] द्वितीयोऽध्यायः परिसमाप्ते योगस्थानानि भवन्ति । एवं तामेय स्थितिमापद्यमानस्य द्वितीयं कषायाभ्यवसाअनं भवति । तस्यापि द्वितीयस्यापि कषायाध्यवसायस्थानस्यापि अनुभवाध्यवसायस्थानानि योगस्थानानि च पूर्ववद्वेदितव्यानि । एवं तृतीयादिष्वपि कपायाध्यवसायस्थानेष्वपि (मा) संख्येयलोकपरिसमाप्तिवृद्धिक्रमो वेदितव्यः । उक्ताया जघन्यायाः स्थितेः समया कषायादिस्थानानि पूर्ववत् एकसमयाधिककमेण आ उत्कृष्टस्थितेत्रित्सागरोपमको ५ टीकोटिपरिमितायाः कषायादिस्थानानि वेदितव्यानि । अनन्तभागवृद्धिः असंख्येयभागवृद्धिः, संख्येयभागवृद्धिः संख्ये यगुणवृद्धिः असंख्येयगुणवृद्धिः अनन्तगुणवृद्धि, इमानि षट्स्थामानहानि मामवृष्टये नलगुफ्पृद्धिरहितानि चत्वारि स्थानि ज्ञातव्यानि । एवं यथा ज्ञानावरणकर्म परिवर्तनमुक्तं तथाऽन्येषामपि समानां कर्मणां मूलप्रकृतीनां परिवर्तनं ज्ञातव्यम् । उत्तरप्रकृतीनामपि परिवर्तनक्रमो ज्ञातव्यः । तदेतत्सर्वं १० समुदितं भावपरिवर्त्तनं भवति । तथा चोक्तम् " सव्वा पयडिडिदिओ अणुभागपदेसवंधठाणाणि । मिच्छत्तसंसिदेण य भमिदो पुण भावसंसारे ॥" [ बारस० गा० २९] एवं भावसंसारः सर्वोsपि मिथ्यात्वमूलः सूरिभिः सूचितो भवति । तदेषं ज्ञायते मिध्यात्व सदशमन्यरपापं नास्ति । च समन्तभद्रस्वामिना— "न सम्यक्त्वसमं किंश्चित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । user मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥" [रत्नक - श्लो० ३४] एवंविधात् पश्र्चप्रकारात् संसार परिवर्तनाचे मुन्नास्ते सिद्धाः प्रोच्यन्ते । अत्र कर्म सामसूचनार्थं दोहकमिदमुच्यते १५ "कॅम्प दिढघणचिकणहं गरुयई चज्जसमाई | २० ण णत्रियक्खणु जीवडउ उप्पहि पाडहिं ताई ॥" [ परमात्म (१७८ ] तदपि कान्तेन वर्तते । " स्थवि बलिओ जीव कत्यवि बलियाई होंति कम्माई । जीवस्स य कमस्स य पुब्वणिबद्धाई बैराई ||" [ } अथ ये संसारिणो जीवाः प्रोक्तास्ते कृति प्रकार। भवन्तीति प्रश्ने द्विप्रकारा भवन्तीति २५ द्विप्रकारसूचनार्थ सूत्रमिदमाहुराचार्याः समनस्कामनस्काः ॥ ११ ॥ १ सर्वमुदितं मा - भा० ० ० १० २ "जीवो मिच्छत्वा भमिदो पुण भावसंसारे ।" पारस० । ३ सर्वाः प्रकृतिस्थितयः अनुभाग प्रदेशअन्घस्थानानि । मिथ्यात्वसंश्रितेन च भ्रमितः पुनः भावसंसारे || ४ कर्माणि दृढधनचिक्कणानि गुरुकाणि वज्रसमानि । ज्ञानविचक्षणं जीवमुत्पथे पातयन्ति तानि ॥ ५ कुत्रापि बलवान् जीवो कुत्रापि बलवन्ति भवन्ति कर्माणि । जीवस्य च कर्मणश्च पूर्वनिय जानि वैराणि ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ९२ तत्त्वार्थवृत्ती [ २।१२-१३ मनचितं तदविमकारम् - द्रव्यभावमनोमेदान । मुदविपाकिकर्मोदयापेक्षं द्रव्यमनः । श्रीर्यान्तरायनो इन्द्रियावरणक्षयोपशमापेक्षया आत्मनो विशुद्धिर्भायमानः । ईद्रविवेन मनसा वर्तन्ते ये ते समनस्काः । न विद्यते पूर्वोक्तं द्विप्रकारं मनो येषां ते अमनस्काः । समनस्काश्च अमनस्काश्र समनस्काऽमनरका द्विप्रकाराः संसारिणो जीवा भवन्ति । अत्र द्वन्द्रसमासे ५ गुणदोपविघारकत्वात् समनरकशब्दस्य अचितत्वम् गुणदोर्पाविचारकत्वाभावात् अमनस्क शब्दस्य अनचितत्वम् । यच्चार्चितं द्वयोः " [कात २/५/१३ ] इति वचनात् समनस्क - शब्दस्य पूर्वनिपातः । भूयोऽपि संसारिजीवप्रकारपरिज्ञानार्थ सूत्रमिदमाचक्षते आचार्या:संसारिणस्त्रसस्थावराः ॥ १२ ॥ संसारो विद्यते येषां ते संसारिणः । चसनाम के मंडियापादितवृत्त यस्त्रसाः, न पुनः अस्यन्तीति त्रसाः मारुतादीनां सत्यप्रसक्तः गर्भादिषु स्थावरत्वप्रसक्तेश्च । स्थावरनामकर्मोदयोपज नितविशेषाः स्थावराः, न पुनः तिष्ठन्तीत्येवं शीलाः स्थावराः, तथा सति मारुतादीनामपि त्वप्रसक्तिः । “कसिपिसिभासीशस्था प्रमदाञ्च" [ कात० ४|४|४७ ] इत्यनेन वरप्रत्ययेन रूपमेवं सिद्धम् । सा स्थाचराश्च सस्थावराः संसारिणी जीवा भवन्ति । ननु 'संसारिणो मुक्ता' इत्यत्र संसारियहणं वर्त्तन एवं पुनः संसारिग्रहणमनर्थकम् ; इत्याह-सत्यम् । तेनैव पूर्वोक्तसंसारिग्रहणेनैव यदि संसारिणं सिद्धं तर्हि 'समगरकाऽमनस्का: ' अस्मिन्सूत्रे यथासंख्यत्वात् संसारिणः समनस्का भवन्ति मुका अमनरका भवन्ति इत्येवमर्थः सञ्जायते । तच्चार्थसम्भावनमनुपपन्नम् । तस्मात् समनस्कामनस्काञ्च ये संसारिणो बर्त्तते तदपेक्षया पुनः संसारिग्रहणम्, अन्यथा संसारिशब्दग्रहणमन्तरेण 'सस्थावराः' इति यदि २० सूत्रं क्रियते तथापि संसारिणस्त्रसाः मुक्ताः स्थावरा इत्यपि अनुपपन्नोऽर्थः समुत्पद्यते । तेन कारणेन 'संसारिणास स्थावरा:' इति सूत्रं कृतम् । ते संसारिणो द्विप्रकारा भवन्ति त्राः स्थावराव | द्वीन्द्रियादारभ्य अयोगकेवलिपर्यन्तास्त्रसाः । तस्मात्कारणात् चलनाऽचलनापेक्षं उ सस्थावरत्वं न भवति । किं तर्हि ? कर्मोदयापेक्षं सस्थावरत्वं भवति । तेन कारणेन वसनामकर्मदयवशीकृतास्त्रसाः, स्थावरनामकर्मोदयवशवर्तिनः स्थावर इत्युच्यन्ते । श्रसाणा२९१ मल्पस्वरत्वात् सर्वोपयोगसम्भवेन अर्चितत्वाच पूर्वनिपातः ! सस्थावरेषु सन पूर्व ग्रहणम्, स्वानराणां पञ्चाद्महणम् इत्यनुक्रम मुलध्य एकेन्द्रियाणामतिचहु वक्तव्यस्याभावात् स्थावरभेदात् (न्) पूर्वमेवाहु: १० १५ पृथिव्यतेजोवायु वनस्पतयः स्थावराः || १३ || पृथिवी च आपश्च तेजश्च वायुश्व वनस्पतिश्च पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः । तिष्ठन्ति ३० इत्येवं शीलाः स्थावराः । एते पृथिव्यादय एकेन्द्रियजीवविशेषाः स्थावरनामकर्मादियात् स्थावर!: १ कमदयोत्यादित- आ०, ब०, ६० ३ - पेक्षत्वं त्र- ०, ० ० ० ४ पूर्व ज० ॥ २ तथा मा- आ०, ब० द० ज० आ०, ब०, ६०, ता०, ब० । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज २०१३] द्वितीयोऽध्यायः कन्यन्ते । ते तु प्रत्येकं चतुर्विधाः-प्रथित्री, पृथिवीकारः, पृथिवीकाणिकः. पूधिवीजीयः । आपः, अपकाया, अकायिकः, अपजीयः । तेजः, तेजःकायः, तेजःकायिकः, तेजोजीवः । बायुः, वायुकावः, बायुयायिका. यायुजीवः । बनस्पतिः, वनस्पतिकायः. घनस्पनिकायिका, वनस्पतिजीव इति । तत्र अध्यादिश्यता धूलिः पृथित्री । इष्टकादिः पृथिवीकायः । पृथिवीकायिकजीवपरिहतत्वात् इयुकादिः पृथिवीकायः कथ्यत मृतमनुप्यादिकायवत् । नत्र स्थावर- ५ कायनामक्रमोदयो नास्ति, तेन तद्विराधनायामपि दोषो न भवति । पृथिवीकाचो वियते यस्य स पृथिवीकायिकः । इन् विपये इको वाच्यः । तनिराधनायो दोष उत्पद्यते । विग्रहगती प्रवृत्तो यो जीवोऽगापि पृथिवीमध्ये नोत्पन्नः समयेन समययन समयत्रयेण वा यावदनाहारकः पृथिवीं कायत्वेन यो गृहीष्यनि प्रामपृथिवीनामकदियः कार्मणकाययोगस्थः स पृथिवीजीवः कश्यते । पत्रिंशन् पृथिवीभदाः । तथाहि-- "मृत्तिका वालिका चैत्र शर्करा चोपल: शिला । लवणायस्तथा तानं त्रषु मीसकमेव च ॥ १॥ रूप्यं सुवर्ण वनञ्च हरितालं च हिङ्गुलम् । मनःशिला तथा तुत्थमञ्जनं च प्रवालकम् ॥ २ ॥ झीगेलकाभ्रकं चैव मणिभेदाच पादराः । गोमेदो रुजकोऽङ्कश्च स्फटिको लोहितप्रभः ॥ ३॥ वैटरी चन्द्रकान्तश्च जलकान्तो रविप्रभः । गैरिकश्चन्दनश्चैव वर्वरो चक एव च ॥ ४ ॥ मोचो मसारगल्पश्च सर्व एते प्रदर्शिताः । संरक्ष्याः पृथिवीजीवाः मुनिभिः ज्ञानपूर्वकम् ॥५॥" [ ] २० बालिका लक्षाङ्गा नाद्भया । शर्करा परुपरूपा, यस्रचतुरस्रादिरूपा । उपलो वृत्तपाषाणः। शिला बृहत्पाषाणः । ऋयु वङ्गम् । असनं सौवीराजनम् । झोरालका अभ्रवालुका चिक्यचिक्यरूपा 1 गोमेदः कर्केसनमणिः गोरोचनावर्णः। मलको राजवर्तमणिरतसीपुष्पवर्णः । "अक्कः १ इक आदेशः । २ “पुढची य सक्कर बालुगा य उबले सिला य लोंणूसे । अय तंव तउय सीसग, सप्प सुबन्ने य धेरै य !| हरियाले हिंगुलए, मणासित्ता सीसगऽजण पवाले । अब्भपडल भवालुय, वायरकार मणिविदाणा 11 गोमेज्जए. य क्यए, शके फ़लिहे. य लोहियक्से य। मरगय मसारगल्ले, भुयमाये। इंदनीले यचंदा भवेलिए, जलकंते चेत्र सूरकते य । एए खरपुढवीए मामें छत्तीसयं होति ॥' -भाचा नि० गा. ५३-७६ । "मृत्तिका वाणुका वैय"...''- तत्वार्थसा० को० ५८-६२ : ३ -आगगानग- भा.. ६०, ज., ब० । -श्वानायुता०४ सपा- जा. १५ डीरो- ज०, २० । क्रि । स०, सा० । ६ वत्तों म- भा०, २०, जा | -वर्तिम-। ७ अंजकः भा, ब०, दर, जल | Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वावृत्त । रा१४ पुलकमणिः प्रगलवर्णः । स्फटिकमणिः मच्छर पः । रोहितप्रभः पहारागः । वैचू यं मयूरकण्ठवणम् । जलकान्त उदकवर्णः । रविप्रभः सूर्यकान्तः। नको मधिरास्यमणिः गरिक णः । चन्दनः श्रीखण्डसमगन्धको माणः । वयंरो मरकनमणिः । यकः पुष्परागमणिः बकवर्ण: । माचा नीलमणि कदलीपत्राणः । मसारगल्पो मस्णयापाप्यमांगा, विद्रुममणिवर्गः । ५ शपलशिलाब जप्रवालवर्जिनाः शुद्ध प्रथिवी विकाराः। शेपाः खरपृथियी विकाराः । एतेष्वेव च पृथिव्यष्टकमन्नर्भवति । तत्किम् ? मेर्यादिशेलार, जीपाः, मानानि, भवनानि, वेदिकाः, प्रतिमाः, नोरणस्तृपचे अवृक्षजम्यशाल्मलिधानन्यः, रत्नाकरादयश्च । पर्न पिलोडिनं यत्र नन्न विनितं वयादिगालितं जलमाप उच्यते । अपकायिक जीवपरिहतमु च जलम् अपकायः प्रोच्यते । अपकाया विद्यते यस्य स अपकायिकः । अपः १. फायत्वेन यो गृहीप्यति त्रिग्रहगतिप्राप्तो जीवः स अपूजीवः कथ्यते । ___ इतस्ततो विक्षिानं जलादिसिन का प्रचुरभस्ममा या मनातजोमात्रं तेजः कथ्यते । भस्मादिक तेजसा परित्या शरीर तेजस्कायो निरूप्यते । तौलराधने दापो नास्ति. स्थाबरकायनाम:र्मोदयरहितत्वान् । तेजः कायस्वेन गृहीतं येन सः तेजकाधिकः । विग्रगती प्राप्ती जीवरतेजोमध्यऽसि जनजीविपनाले सुविधिसागर जी महाराज १५ घायुकायिकजीयसन्मूछ नाचिता वायुर्वायुमात्रं वायुकच्यते । वायुकायिक जीवपरिहतः सदा बिलोडिनो वायुयुकायः कन्यते । वायुः कायत्वेन गृहीतो येन स वायुकायिकः कथ्यते । वायुं काययेन गृहीतुं प्रस्थिती जीवा वायुजीक उच्यते । ___ साः छिन्ना भिन्नो मदितो वा लतादिवनस्पतिरून्यते । शुष्कादिवनस्पतिवनस्पतिकायः । जीवर्माहतो वृक्षादिनस्पसिका यकः । विग्रहगनी "सत्यां वनस्पनिर्जीवः वनस्पति२० जीवो भव्यते। ___ प्रत्येक चतुर्यु भदषु मध्यं पृथिव्यादिक कायत्वेन गृहीतधन्तो जीवा विग्रहगति प्रामाश्च प्राणिनः स्थावरा ज्ञानव्याः, तेपामेव पृथिव्यादिस्थावरकायनामकर्मोदय द्रावात् , न तु पृथिव्यादयः पृश्चिवीकायादयश्च स्थावराः कश्यन्ते, अजीवत्वात् कदियभावाभावाच । एतेषां कति प्राणाः ? स्पर्शनेन्द्रियप्राणः. काययलप्राणः, उच्छ्वास-निश्वासप्राणः, २५ आयुःप्राणश्र, चत्वारः प्राणाः मन्ति ! ते ते पञ्चतयेऽपि स्थानराः प्राणिन उफ्यन्ते | योते स्थावराः, तर्हि त्रसा उफ्यन्ताम् । ते के इति प्रश्ने सूत्रमिदमुमास्यामिनः प्रादुः दीन्द्रियादयस्त्रसाः ॥ १४ ॥ १ रुधिराकारम- आ०, ३०, द., ज.। २ -गल्ली म- ज.। ३ मेमपर्वतादि आ०, म.,द०, बा १-कमर्गह...ता, व01५ सत्यां बनस्पतिजीवा म. सा., प.|६ -दयाभावाच्च आ०, बा, ६०,०। ७ वरया- भा०,ब०, द. ता., ब.। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१४ ] द्वितीयोऽध्यायः ९५ द्वे इन्द्रिये स्पर्शनरसनलक्षणे यस्य स द्वीन्द्रियः । द्वीन्द्रिय आदियेषां ते द्वीन्द्रियादयः । त्रस्यन्तीति त्रसाः । द्रीन्द्रियादयः पब्चेन्द्रियपर्यन्तामसाः कथ्यन्ते । स्पर्शनरसनयुक्ता द्वीन्द्रियाः- कुक्षिक्रमयः । शङ्खा चादनद्देतवः । चुलकाः चुल्लक्शङ्काः । वराटकाः कपर्दकाः । अक्षा महाकपर्दकाः । अरिष्टबालकाः शरीरसमुद्भवतन्त्याकाश्वालकाः । गण्डुवालकाः किम्चुलंकाः । महालवा अलसका इति यावत् । शम्बूकाः सामान्यजलशुक्तयः । लघुशङ्खा इति प्रभाचन्द्रः । ५ शुकयो मुक्ताफलतयः, अन्याश्च शुक्तयः । पुलविका रकपण जलौकस इति यावत् । आदिशब्दात् व्रणकृमयः गुंथडकमयो नखादयो ज्ञातव्याः । त्रीन्द्रियाः स्पर्शनरसनप्राणसहिताः - कुत्थवः उद्देदिकाः । वृश्चिका गोभिकाः । खर्जूरकाः कर्णशलाकाः, शतपद्यपरनाम्नी (यः) । इन्द्रगोपकाः रक्तकीटाः, इन्द्रवधूटिका पर नाम्ना ( मानः) । यूका लिक्षाः । मत्कुणा: पिंपीलिंका: "सुः परनामिकाः । चतुरिन्द्रियाः स्पर्शनरसनघाणच दुः सहिताः - वंशा वनमक्षिका १० परनामानः । मशका मशकेतराश्च मक्षिकाः प्रसिद्धाः । पतङ्गात्र प्रसिद्धाः । कीटा गोर्ष रकीटाः रुधिरकीटदया । भ्रमशः पट्पदाः । मधुकयों मधुमक्षिकाः । गोमक्षिकाः बगायिकाः विश्वम्भराः । लूताः कोलिका इति यावत । पञ्चेन्द्रियाः स्पर्शनरसनत्राणचक्षुः श्रोत्रसहिताः - अण्डायिकाः सर्पगृहको किला: ब्राह्मव्यादयदर्शीतादिकार्यमतिविशेषः रात्र कर्मवशादुत्पत्त्यर्थमाय आग- १५ मनं पोतायः, पोताय विद्यते येषां ते पोतायिकाः, अस्त्यर्थ इको वाच्यः । श्रमार्जार सिंहव्याचित्रकादयो ऽनावरणजन्मानः । जरायिकाः- जालयत्याणिपरिवरणं विततमांसरुधिरं जरायुः कथ्यते, तत्र कर्मवशादुत्पत्त्यर्थमाय आगमनं जरायः, जरायुरेय जरः, नत्र आयः जरायो विद्यते येषान्ते जरायिकाः पृषोदरादित्वात् युलोपः । गोमहिषीमनुज्यादयः सावरणजन्मानः । रसायिकाः रसो घृतादिस्तत्र धर्मादियोगे आय आगमनं विद्यते २० येषां ते रसायिकाः । प्रथमध तुद्भवा वा रसायिकाः । जरायः, "समांसमेदोऽस्थिम आशुक्राणि धातवः ।" [अ०] १ । १३] " इति वचनात् रसः प्रथमो धातुः । ते सूक्ष्मत्वात् वक्तुं न शक्यन्ते । संस्वेदः प्रस्वेदः, तत्र भवाः संम्वेदिमाः "एवमादित्वात् " [ ] भावार्थे इमप्रत्ययः । चक्रवर्त्तिकक्षा त्पनास्तेऽपि सूक्ष्मत्वाद् वक्तुं न शक्यन्ते । सम्मूच्छिमाः समन्तात् पुद्गलानां मूर्च्छनं २५ संघातीभवनं संमूर्द्धः तत्र भयाः सम्मूर्च्छिताः । इमप्रत्ययः पूर्ववत् । सर्वोन्दुर गोर्रसुरमनुव्यादयोऽपि सम्मूर्च्छनादुत्पद्यन्ते । उ--- " शुक सिंघाणक श्लेष्म कर्णदन्तमलेषु च । अत्यन्ताशुचिदेशेषु सद्यः सम्मूर्च्छना भवेत् ॥” [ } मा १ - काः कर्शशलाका - बा०, ब०, ६० ज०१२ ३ मदाद्भ- खा० १४ तेन सू- आ०, ब०, ६०, ज० । ५ न्दुरदुरमो- ता० य० । ७ - देहेषु आ०, ब०, ६०, ० ८ नोभ- आ०, ब०, प०, ज० ब०, ६०, ६ गोखु Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती २।१५-१६ - भेदिमाः-उदभेदनमुदभेदः, भूमिक टपगपाणादिकं भित्त्या ऊर्ध्व निस्सरणमुभेदः, उभेदो विदाने यंपान्ते उभेदिमाः, अवास्त्यर्थे इमप्रत्ययः । यथा रन्धान भक्त्य! केनचिद् दुईरो निष्कासितः। उपपादिमा:-जपेत्य गन्या पद्यते जायते यस्मिन्नित्युपपादः, देवनारकाणां जन्मस्थानम् , तत्र भवा उपपादिमाः । प्रमादिना दुष्परिणामयशात तेपामनप. ५ वायुपामपि हिंसोत्पमोविक्तिते म्रिानचायतश्रा सेवाहासागर जी महाराज __"स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं हिनम्त्यात्मा कपायवान् । पूर्व प्राण्यन्तगणान्तु पश्चालयाद्वा न वा वः ॥" [ अन्यथा सालिसक्यो मत्स्यः कथं सप्तमं नरकं गतः ? "ग्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपर्ण हिंसा ।" [त. सू० ७.१३ } इति च वक्ष्यति । एते ब्रसाश्चतुर्विधा भवन्ति । १० एतेषां कति प्राणा भवन्ति ? दोन्द्रियस्य द्वे इन्द्रिये, आयुः, उच्छ्वासनिश्वासः कायबलं बाम्बलमेते पद्माणाः भवन्ति । त्रीन्द्रियस्य पट पूर्वाना प्रागन्द्रियाधिकाः समप्राणा भवन्ति । चतुरिन्द्रियस्य सप्त पूर्वो ना तुरिन्द्रियाधिकाः अष्टप्राणा भवन्ति । पञ्चेन्द्रियस्य तिरश्वोऽसंधि नोऽष्टी पूर्वोनाः श्रोन्द्रियाधिका नवप्राणा भन्ति । पञ्चेन्द्रियमंझितिर्य मनुष्यबनारकाणां नब पूर्वोना मनोबलाधिका देशप्राणा भवन्ति । १५ अथ "वीन्द्रियादयसमाः" इति सूत्र इन्द्रियसंख्या न कथिता, तानि कति भवन्तीति प्रश्ने सूत्रमिदमाहुराचार्याः पञ्चन्द्रियाणि ॥१५॥ कर्मसहितस्य जोयस्य स्वयमर्थान् गृहीतुमशन स्य अर्थग्रहणव्यापारे सहकारीणि इन्द्रियानि भवन्ति । तानि तु इन्द्रियाणि पश्चंत्र भन्नि नाधिकानि, न च न्यूनानीति । परिभाषा२. मुत्रमिदम् । पायूपस्थवच पामिणदास्यानि पश्च कमेन्द्रियाण्ययंत्रोच्यन्नाम् ? इत्याह सत्यम् । उपयोगप्रकरणे उपयोगसाधनाना स्पर्शनादीनामेव पश्यानां बुद्धीन्द्रियाणामेयात्र नङ्गम् , न क्रियामाधनाना पायवादीनां ग्रहणमत्र वर्तते, कर्मेन्द्रियाणां पञ्चति नियमाभात्राम् । अङ्गोपाङ्गनामकर्मनिष्पादितानां सार्वेषामपि झियासाधनत्यं वर्तत एच, तेन कर्मेन्द्रियाणि पञ्चव न भवन्ति किन्तु यहून्यपि वर्तते, तेन:नवस्थान पञ्चसख्यायाः । २५ स्पर्शनादीनां पश्चानामिन्द्रियाणामन्तर्भेदप्रकटनार्थ सूत्रमिदमाचक्षने घिचक्षणः विविधानि ॥ १६ ॥ हौ विधौ प्रकारौ येषामिन्द्रियाणां तनि द्विविधानि विप्रकाराणीत्यर्थः। की तो द्रौ प्रकारौ व्येन्द्रियं भावन्द्रियश्चेति । १ . यः उपमा ता। २ रत्नंग- 1 ३ ददुरको नि - २० । ४ प्रायान्त- आ०, , जा, ता, व० । ५ उद्धृताय स. सि. ७।१३ । ६ सांगः प्राह । "वाक्याणिगदपायूपस्यानि कर्मदियाप्याहुः ।" - सांधका० २६ । ७ -यो यताम् व०,ज. | ८ -साधकाना-भा०, २. ५०, जः । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१७-१९] द्वितीयोऽध्यायः तत्र द्रव्येन्द्रियस्वरूपनिरूपणार्थ सूत्रमिदं भणन्त्याचार्याः निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥ १७ ॥ 'निक्यते निष्पाद्यते कर्मणा या सा निवृत्तिः । बाह्याभ्यन्तरभेदात् सापि द्विविधा। तत्र थाहा निवृत्तिरुच्यते-चतुरादिषु मसूरिकादिसंस्थानरूप आमप्रदेशेषु इन्द्रियव्यपदशश्चानुषः प्रतिनियतसंस्थाननामकमोदयापादितावस्थाविशेपः पुनलप्रथयो यः सा बाहा ५ निवृत्तिरुच्यते । मसूरिकादिसंस्थानान् परतः उत्तेधाङ्गुलासंख्येयभागप्रमितानां शुखानामावरणक्षयोपशमविशिष्टानां सूक्ष्मपुद्गलप्रदेशसंश्लिष्टानां प्रतिनियतचतुरादीन्द्रियसंस्थानेनाऽवस्थि तानामात्मप्रदेशाना२ वृत्तिरभ्यन्तरनितिः कथ्यते । तथा उपक्रियते निवृत्तेपकारः क्रियते, येन तदुपकरणम् । तदपि द्विविधम् बाह्याभ्यन्तरभेदान् । तन्त्र वाह्यमुपकरणं शुकुकृष्णगोलकादीन्द्रियोपकारकं पक्षमपटलकर्णपालिकादिरूपं वाह्यमुपकरणम् । शुक्लकृष्णादि- १० रूपपरिणतन्द्रलमण्डलमभ्यन्तरमुपकरणम् । एवं बाह्याभ्यन्तरा च निवृत्तिः, बाह्यमभ्यन्तरं चोपकरण द्रव्येनियते । आचार्य श्री सा कि आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज इदानीं भावेन्द्रियस्वरूप निरूपयन्ति लब्ध्युपयोगी भावन्द्रियम् ॥ १८ ॥ लम्भनं- लब्धिः, लब्धिश्च उपयोगश्च लब्ध्युपयोगी, एतौ हौ भाषेन्द्रियं भवनः । १५ इन्द्रशब्देन आत्मा उच्यते तस्य लिङ्गमिन्द्रियमुच्यते । ज्ञानावरणक्षयोपशमे मत्यास्मनोऽर्थग्रहणे शक्तिः लब्धिरध्या । आत्मनोऽर्थग्रहण उनामोऽथग्रहण प्रवननमर्थग्रहणे व्यापरणमुपयोग उच्यते । ननु इन्द्रियकरटमुपयोगः , तस्य इन्द्रिग्रफलभूतस्य उपयोगस्य इन्द्रियत्वं कथम् ? इत्याइ-सत्यम् । कार्यस्य कारणोपचारान् । यथा घटपटायाकारपरिणनं विज्ञानमपि प्रदपटादिरुच्यते तथा इन्द्रियार्थग्राहक उपयोगाऽपि इन्द्रियगुरूयते । अथ इन्द्रियाणां संज्ञाप्रतिपादनार्थ सूत्रमिदमाहुः स्पर्शनरसन घाणचतुःश्रोत्राणि ॥ १६ ॥ आत्मना कत्तु भूतेन स्पृश्यतेऽर्थः कर्मतापन्नाऽनेन करणभूतेन स्पर्शनेन नत्म्पर्शनम् । अथवा स्पृशतीति स्पर्शनम् । “कृत्ययुटोऽन्यत्रापि" [क्रा सू० ४।५।९२ ] इति कर्तरि युट्। एवं रस्यत आस्वायतेऽधोऽनेनेति रसनम् । रसयत्यर्थमिति वा रसनम् । प्रायते गन्ध २५ उपादीयते आत्मना अनेनेति प्रणम् । जिप्रति गन्धमिति बा ब्रायम् । चष्टे पश्यत्यर्थान आत्मा अनेनेप्ति चक्षुः। चष्टे इति वा चक्षुः । श्रूयते आगना शब्दो गृह्यते अनेनेति प्रोत्रम् । शृणोतीति वा श्रोत्रम् । स्पर्शनश्च रसनश्च नाणञ्च चक्षुश्च श्रोत्रञ्च स्पर्शनरसनवाणचक्षुःश्रोत्राणि । एतानि इन्द्रियाणि पञ्च स्पर्शनादिसंझानि भवन्ति । - . १ निर्वृत्यते ताः | २ -नो प्रयु- आ०, जा, द. 41 ३ लभनं ता, व., आ., द.,ब। - - .- - -- . Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती [ २१२०-२३ अदानी पश्चानामिन्द्रियाणामनुक्रमेण विषयप्रदर्शनार्थ सूत्रमिदं त्रुवन्याचार्याः--- स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः ॥ २० ॥ स्पृश्यत इति स्पर्शः, स्पर्शयुक्तोऽर्थः। रस्यते रसः, रसयुक्तोऽर्थः । गन्ध्यते गन्धः, गन्धयुक्तोऽर्थः। वर्ण्यते वर्णः, वणयुक्तोऽर्थः। शब्दाते इति शब्दः, शब्दपरिणतपुद्गलः । अश्रया स्पर्शनं स्पर्शः, पाकिसः, आदिनों प्राधसुधिर्धवामी जी शयनाशब्दः इति भावमात्रेऽपि । स्पर्शश्च रसश्च गन्धश्च वर्णश्च शब्दश्च स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दाः । एते पञ्च तदर्थाः तपां स्पर्शनादीनामिन्द्रियाणामस्तिदर्था इन्द्रियविपया इत्यर्थः । अथ ईपदिन्द्रियग्राह्य विषयमुपदिशस्ति श्रुतमनिन्द्रियस्य । २१ ।। १. 'अस्पष्टावबोधनं श्रुतमुन्यते । तत् श्रुतमस्पष्टज्ञानम् । अनिन्द्रियस्य ईपदिन्द्रियस्य नाइन्द्रियाऽपरनाम्नश्चित्तस्य अर्थो विषया भवति । यस्येन्द्रियस्य योऽर्थो ग्राह्यो भवति स विपय उच्यते । समनस्कस्य आत्मनो मनस्तत्र प्रवर्तते । अथवा श्रुतज्ञानविषयाऽर्थः श्रुतमुच्यते । तत् श्रुतमनिन्द्रियस्य चेतसो विष यो भवति । अनिन्द्रियस्य स विषयः कस्माद् भवति ? श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमात् मनोऽवलम्बनज्ञानप्रवर्तनाच्च । अधया श्रुतज्ञानं १५ श्रुतमुच्यते । तत् श्रुतमनिन्द्रियस्य अर्थः प्रयोजनं भवति । तेन कारणेनेदं प्रयोजनं मनसः स्वतन्त्रतया साध्यमित्यर्थः। अदानी स्पर्शनादीनामिन्द्रियाणां स्वामिन उच्यन्ते वनस्पत्यन्तानामेकम् ॥ २२ ॥ वनस्पतिरन्ते येपां पृथिव्यभेजोबायूनां ते बनस्पत्यन्ताः, तेषां वनस्पत्यन्तानां पृथिव्यते२० जोवायुवनस्पतीनां पश्यानां स्थावराणामेकं स्पर्शनन्द्रियं भवति। कस्मात् ? वीर्यान्तरायस्पर्श नेन्द्रियावरणक्षयोपशमात् शेषेन्द्रियसर्वघातिस्पर्द्धकोदयात् शरीरनामकर्मलाभावष्टम्भादेकेन्द्रियजातिनामकर्मोदयवशाच्च । अथेदानी रसनादीनागिन्द्रियाणां स्वामिन उच्यन्तेकृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥ २३ ॥ आदिशब्दः प्रत्येक प्रयुज्यते । तेनायमर्थः-कृमिरादिर्येषां शवशुक्तिनवादीनां ते कृम्यादयः । पिपीलिका मुंगी आदिउँपां यूकालिक्षावृश्चिकगोभ्यादीनां ते पिपीलिकादयः । भ्रमर आदिर्येपो दंशमशककीटपतङ्गादीनां ते भ्रमरादयः । मनुष्य आदिउँपां गोमहिपमृगसिंहव्यानमत्र यसपश्यनादीनां ते मनुष्यादयः । कृम्यादयश्च पिपीलिका दयश्च भ्रमरादयश्च मनुवादयश्च कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादयः । तेपामेकैक वृद्धानि, ३. एकेन एकेन वृद्धानि अधिकानि एकैकवृद्धानि । “वीप्सायां पदस्य" [शा० ० २।३।८] १ अस्पृष्ठाव- भा..., द०।२ -नामला- ता० । ३ मुनी आ- ता० । ५ -श्येनकादी-द० | - दयेनकाकादी- अ, जा। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २।२४-२५ द्वितीयोऽध्यायः इति निर्वचनम् । कृम्यादीनां स्पर्शनं भवत्येव रसनमधिकं भवति । पिपीलिकादीनां स्पर्श नरसने भवत एव घाणमधिकं भवति । भ्रमरादीनां स्पर्शनरसनघ्राणानि भवन्त्येव चक्षुरधिकं भवति । मनु यादीनां स्पर्शनरसनप्राणचक्षु पि भवन्त्येव श्रोत्रमधिकं भवति । मार्गदर्शकाच स्थानिय निझभेमत हानिधेषु च संसारिजीवेषु ये पश्चन्द्रिया अनुक्तभेदाः तद्भेदसूचनार्थ सूत्रमिदमाहुराचार्या: संज्ञिनः समनस्काः ॥ २४ ॥ सह मनसा बर्तन्ते ये ते समनस्काः। सम्झानं सज्ञा। संज्ञा विद्यते चेपां ते संज्ञिनः। ये समनस्क.स्ते संझिन उन्यन्ते । ते तु पञ्चेन्द्रियय एव । अर्थादेकेन्द्रियादयश्चतुरिन्द्रियपर्यन्ताः संमूच्र्छनोत्पन्नाः पञ्चेन्द्रियाश्च असंजिनो भवन्ति । संज्ञिनां शिक्षालाप ग्रहणादिलक्षणा किया भवति । 'असंजिना शिक्षालापग्रहणादिकं न भवति । असंज्ञिनामपि अनादिकालविषया- १० नुभवनाभ्य सदा दाहारंभयमैथुनपरिग्रह लक्षणोपलक्षिताश्चतस्रः संज्ञाः अभिलाषप्रवृत्त्यादिकञ्च संगच्छत एब, किन्तु शिक्षालाप ग्रहणादिकं न घटते । 'अथ संसारियां "सर्वा गतिः शरीरसम्बन्धाद्' भवति । शरीरं च मुक्ते सति मृती प्राप्ताय मुत्तरशरीरर्थिनमनं जीवस्य न सङ्गच्छते शरीराभायात् सिद्धरत्' इत्यारेकायो सूत्रमिदमाहुराचार्याः विग्रहगनी कर्मयोगः ॥ २५ ॥ विग्रहः शरीरम् . तदर्थ गतिविग्रहगतिः, तस्यां विग्रहगती। कमभिर्योगः कर्मयोगः । यदा आमा एक शरीरं परित्यज्य उत्तरशरीरं प्रति गच्छति तदा कार्मणशरीरेण सह योगः सङ्गतिवत्तते । तेनायमर्थः-कार्मणशरीराधारण जीयो गत्यन्तरं गच्छति । अथवा विरुद्धो ग्रहो ग्रहणं विग्रहः, कर्मशरीरग्रहगेऽपि नोकर्मलक्षणशरीरपरित्याग इत्यर्थः। विग्रहेण गतिः २० विग्रहगतिः । एकस्य परिहारेण द्वितीयस्य प्रणेन गतिर्विग्रहगतिः, तस्यां विरहगती । तर्हि कर्मयोगः क इति चेत् ? उच्यते-निखिल शरीराकुरबीजभूतं कामगं वपुः कर्म इति कथ्यते । तहिं योगः कः ? वाङ्मनसकायवर्गणाकारणभूतं जीवप्रदेशपरिस्पन्दनं योगः कथ्यते । कर्मणा विहिता योगः कर्मयोगः स कर्मयोगो विग्रहगंतावुत्तरशरीरप्रहण भवति । तेन कमयोगेन कर्मकृतात्मप्रदेशस्पन्दनेन कृत्वा कर्मादानं देशान्तरसंक्रमणश्च भवतीति स्पष्टार्थः। २५ अत्राह कश्चिन्-जीवपुद्रलानां गतिं कुर्वतां देशान्तरसङक्रमणं किमाकाशप्रदेशक्रमवृत्त्या भवति, आहोस्विबिशेपेण अक्रमेणापि भवति इत्याशङ्कायां सूत्रमिदमाहुराचार्याः . ..---.. १ अन्यपापि नं- आ०, ५०, ज०, ६० | २ - रनिदान- प्रा. ब०, जरु. १ । ३ -हणल- आ०, ब, ज०,०। ४ सर्वगति - भा., वाद, ज . | ५ -न्याम-ता। ६ -गती म-ता। ७ अनुक्रो- आ.व., द, ज० । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० तत्त्वार्थवृत्ती मार्गदर्शक :- आचार्य श्री मीरा ॥ लोकस्य मध्यप्रदेशादारभ्य ऊर्ध्वमप्रस्तात्तिर्यक्च व्योमप्रदेशानामनुक्रमेण संस्थितानामावलिः श्रेणिर्भण्वते । अनु गरनतिक्रमेण अनुश्रेणि । अत्र अव्ययीभावः समासः । उक्त "पूर्व वयं भवेद्यम्य सोयीभाव इष्यते ।" [ का २/५/१४] जीवानां ५ पुद्गनाञ्च गतिर्गमनं भवति । कथं गतिर्भवति ? अनुश्रेणि श्रेण्यनतिक्रमेण इत्यर्थः । त्राधिकारापि नास्ति जीवाधिकारे मुद्गलस्य गतिः कथमत्र लभ्यते ? सत्यम् । नःयधिकारे ऽपि पुनर्गतिप्रहणं पुद्गलस्यापि गतिमणार्थम् । कोऽसौ गत्यधिकारः ? "विग्रहगत कर्मयोगः" [ सू] इत्यत्र गते वर्तते । तथा च आगामिनि सूत्रे जीवणा पुदगलग्रहणं लभ्यते । किं तदागमसूत्रम् ? "अविग्रहा जीवस्य " १० [सू०७ ] इति । तर्हि चन्द्रसूर्यादीनां ज्योतिष्काणां मेरुप्रदक्षिणावसरे श्रेणि रहिता गति । तथा देवावरचारयादीनां च त्रिश्रणवतिश्यते--- श्रेणि विनापि गतिविशिकवते. किमर्थमुख्यते श्रीमद्भिर्गतिरनुण भवतीति ? सत्यम् कालनियमेन देशनियमेन चात्र गतिर्वेदितव्या । कोऽखां कालनियमः को वा देशनियम इति चेत् ? उच्यते--प्राणिनां मरणकाले भवान्तरग्रहणार्थं वा गतिर्भवति सिद्धानाञ्चोर्ध्वगमनकाले या २५ गति सा गतिरनुप्रेष्वेव भवति । देशनियमस्तु - ऊध्र्वलोकाचा अधोगतिर्भवति, अबोलीकाचा ऊगतिर्भवति तिर्यग्लोकाचा अधोगतिर्भवति । तिर्यग्लेोकाद्या ऊर्ध्वभिसा अनुण्येव भवति । पुद्गलानाञ्च चा लोकान्तप्रापिका गतिर्भवति सापि चिचायेव भवति । इतरा तु गतिर्यथायोग्य भजनीया । पुनरपि गतिप्रकारपरिज्ञानार्थं श्रीमदुमास्वामिनः सूत्रमिदमाचक्षते - अविग्रहा जीवस्य ॥ २७ ॥ विग्रहो व्याघातः, वक्रता इत्यर्थः । न विद्यते विग्रहः कुटिलता यस्यां गत सावित्रा, सरदगतिरित्यर्थः । हसूविधा सरला गतिः कस्य भवति ? जीवस्य । जीवशब्दोऽवसामान्याय | यद्यपि जीवशब्देन संसारियो मुक्ताश्च जीवा लभ्यन्ते तयावत्र जीवशब्देन मुक्तात्मा जीवोऽत्र ज्ञायते । कुत इति चेत् ? आगामिसूत्रे २९ संसारिजीयग्रहणात् । किं तदागामिसूत्रम् ? "विग्रहवती च संसारिणः प्राकूचतुर्भ्यः” [ नः सूः ६२८ ] इति । ननु 'अनुश्रेणि गतिः' इत्यनेनेच सूत्रेण श्रेष्य श्रेण्यन्तरसङ्क्रमणभावाभावद्भावः कथितः किमनेन 'अविग्रहा जीवस्य' इति सूत्रेण प्रयोजनम् ? इत्याह कचित् सत्यम्, पूर्वसूचे विश्रेणिगतिरपि कचिद् भवतीति ज्ञापनार्थमिदं सूत्रं कृतम् । अब यदि नात्मनोऽविग्रहगतिर्भवतीति प्रतिज्ञा क्रियते भवदुभिस्तर्हि सशरी३० रस्य जीवस्य किं मुक्तात्मवद्प्रतिबन्धिनी गतिर्भवति, आहोस्वित् सप्रतिबन्धापि भवतीत्याशङ्कायां सूत्रं प्रतिपादयन्त्यु अस्वामिनः- १ - ना० द० ज० । [ २१२६-२७ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक: द्वितीयाओं सुविधिसागर जी महाराज विग्रहवती च संसारिणः प्राक्चतुर्भ्यः ॥ २८ ॥ विग्रहवती का गतिः । चकारादवका च । संसारिणः संसारिणो जीवस्य गती भवतः । अविप्रा या अवक्रा गतिः, सा एकसमयपर्यन्तं भवति, एकलमयिकी भवति “एकसमयाऽविग्रहा" [त सूत्र २० ] इति वचनात् । सा वा गतिदा संसारिणो भवति तदान्यैकसमविक्येव यदा तु सिद्धयतां ५ भवति तदाप्यैकसमयिक्येव । सा अबका गतिरिपुगतिनाम्नी भवति । यथा इषोर्वाणस्य गतिर्गमनं वैध्यपर्यन्तं ऋषी भवति तथा सिद्धानां संसारिणाञ्च अविग्रहा गतिरैकसमयिकी समानेव विग्रवतो का गतिः संसारिणामेव भवति । तस्यास्त्रयः प्रकार रा भवन्ति-पाणिमुलाङ्गलिका- गोमूत्रिकाभेदात् । पाणिमुक्ता यथा - पाणिना तिर्यक्प्रेचितस्य द्रव्यस्य गतिरेकत्रका, तथा संसारिणः पाणिमुक्तागतिरेकवका, द्वैसमयिकी भवति । लाङ्गलिका गतिविका १० यथा लाङ्गलं हलं किं भवति तथा संसारिणां द्विवका लाङ्गलिका गतिर्भवति । सा समfast | गोमूत्रका का त्रित्रका गतिर्भवति । सा गोमूत्रिका गतिः संसारिणां चातुःसमयिकी भवत । अत एव आह- प्राक्चतुर्भ्यः । सा विग्रहवती गतिश्चतुभ्यः समयेभ्य प्राक् पूर्वं भवति । चतुर्थसमयस्य मध्ये अन्ते वा चक्रा गतिर्न भवति, गोमूत्रापेक्षया मध्ये अन्ते या चक्रागतिर्न भवतीति ज्ञातव्यम् । सा चतुर्थ समन्ये प्राञ्जलं सरलं गावोत्पत्तिक्षेत्रे प्रथिशति । १५ समयस्य प्रणमत्र सूत्रे नास्ति, कस्मात् समयग्रहणं क्रियते ? सत्यम्; 'एकसमयाऽविग्रहा ' इत्युत्तरसूत्रे समयग्रहणं वर्तते तदुबलादत्रापि समयग्रहणं क्रियते इति । यथा षष्टिका श्रीहि विशेषाः पटचा दिनैर्निष्पद्यन्ते तथा सर्वोत्कृष्ट वा गतिः निष्कुट क्षेत्रे चातुःसमयिकयेव गतिर्भवति न अधिकसमया, स्वभावात् त्रिवका गतिश्चतुःसमया एव । अदानीं ऋजुंगतेः कालविशेषं दर्शयन्त्याचार्याः २१२८-३० ] १ तदा एक आ ० ० द्रव्यश्यग- द० प्रक्षिप्तद्रव्यग- आ ४ गतिका ० ० ५ हु ० १०१ एकसमयाऽविग्रहा ॥ २९ ॥ एकः समयो यस्याः सा एकसमया । न विद्यते विप्रो वक्रता यस्याः सा अविप्रा । अविप्रा अवगतिरेकसमया भवति । गतिं कुर्वतां जीवानां पुद्गलानाच्च व्याघातरहितत्वेन अविमा गतिलोकपर्यन्तमध्ये कसमयिकी भवति । अनमनादिकाले कर्मबन्धस्य सन्तत्यां सत्यां मिध्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोग- २५ लक्षणोपलक्षितप्रत्ययवशात् कर्माणि स्वीकुर्वाणोऽयमात्मा सर्वदा आहारको भवति, तहिं यिग्रह्ाताबस्याहारको भवतीत्याशङ्कायां तनिश्चयार्थं सूत्रमिदमाहुराचार्या: एक at श्रीयाsनाहारकः ॥ ३० ॥ एकं समयं ह्रौं वा समयी त्रीन्वा समयान् प्राप्य अयं जीवो विमहगतावनाहारको ० । २ सिद्धाना ० ब०, ६० ज० । ३ प्रक्षितप्रक्षितद्रव्यम- ज प्रक्षितस्य द्रव्यग- तर० । ० | २० Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्यार्थवृत्ती [ २।३१.३२ भवति । को नाम आहारः ? त्रयाणां शरीराणां पण्यां पामीनां योग्या ये गुल्लास्तेषां ग्रहण स्व कार आहार उच्यते । एवंविधस्य आहारस्य अभात्री यम्य म भनत्यनाहारकः । कर्मस्वीक रा हि जीवस्य निरन्तरं वर्तते । तेन कार्मणशरीर सद्भाचे विद्यमाने सति उपपाद क्षेत्र प्रति अविग्रहायां तो ऋज्यां गतानाहारकः, इन रेपु त्रिषु ममयेषु वक्रगनित्वादनाहारक ५ एव । सथा हि पाणिमुक्ताबामेकवकायों मनी प्रथमसमयेऽनाहारका, द्वितीयसभन्ने त्वाद्दारक एव । लाइलिकायां द्विवकायों गनां अश्मसमये द्वितीयसमये चानाहारक: तृतीयसमये ऋज्या गताबाहारक पत्र । गामूत्रिकायर्या नियकायां गतो प्रथमसमय वितीयसमथे तृतीयसमये च अनाहारकः, चतुर्थसमन्ये ऋज्वां गताबाहारक एव । गती बैकग्नमयिक यामाहारक एव । नथा च प्राप्तस्य यतेराहारकं शरीरनाहार कमिति । १० अथेदानी दारीरान्तरप्रादुर्भावलक्षणं जन्म उच्यते । तस्य जन्मनः प्रकारान प्रनिपाद मार्गदर्शक : याचियात्री सुविधिसागर जी महाराज - मम्मच्छेनगीपपादा जन्म ॥ ३१ ॥ त्रैलोक्यमध्ये ऊर्ध्वमधरनात्तिर्यक च शरीरस्य समन्तान्मन्छ नगवयवप्रकल्पनं मम्मूच्छंनमुच्यते । मातुम्दा रेतःशोणितयानरण मिश्रण जीयसंक्रमण गर्भ उच्यते । अथवा मात्रा ६५ गृहीतस्य आहारस्य या ग्रहणं भवति स गर्भ म्यने । उपन्य पद्यने सम्पूर्णा उत्पनाते यस्मिन् म उपपादः, देवनारकोत्पत्तिस्थानविशेष इत्यर्थः । मम्मृर्छनञ्च गर्भश्च उयपादश्च सम्मूर्छ नगोपपादाः । एते त्रयः संमारि जीवानां जन्म कथ्यते । पुण्यपाप :रिणामकारणकर्मप्रकारयि गकोर ना एते वयः पदार्था जन्नप्रकारा भवन्ति । अथेदानी संसाणां जन्माधारभूती योनिभेदी पतन्य इति प्रश्ने मूत्रमिदं २. अयन्त्याचार्याः मचित्तशीतमंता: सेनग मिश्राश्चैकशास्तयान यः ॥ ३२ ।। जीवस्य चननाप्रकारः परिणामश्चित्तमुच्यते । यित्तेन सह वतने सचित्तः । शीतः स्पर्शविशेषः । तेन युक्तं यद्न्यं तदपि शोत मुच्यते । सम्यक कारण वृनः प्रदेशः संघृती “दुरपलक्ष्य इत्यर्थः । सचिनश्च शीतश्च संवृनश्च मचित्तशीतसंवृताः । अथवा बहुवचनान्त२५ विग्रह मचिनाश्च शीताश्च संय॒ताश्च सचित्तशीनसंवृताः। इनरैचिनावित्रतः सह वर्तन्ते ये गानयस्ते सतराः । उभयात्मका योचया मिश्रा उच्यन्ते । के ले मिश्राः ? सचिनाऽचित्तशीतोष्णसंवृनविवृता इति । चकार उक्तसमुच्चयार्थः । नायमों लभ्यते-सचित्ताश्च मिश्रा भवन्ति चित्ताश्च मिश्रा भवन्ति, शीताश्च मिश्रा भवन्ति, उष्माश्च मिश्रा भवन्ति । संताश्च मिश्रा भवन्ति, त्रिवृताश्च मिश्रा भवन्ति, मिश्रा अप्यन्यैः सह मिश्रा भवन्ति । ३. एकमेकं जन्म प्रति एकशः नोनयस्तेषां सम्मुच्छ नगर्नोपपादलक्षणानां जन्मनां योनयस्त १ -ति ताह विग्रहगती का आ.. ब, द", ज० । २ तात्रा- आ., ता० | ३ उपेत्यंत ता | ४ दुग्पेश्य आ०. ब०, ज.1 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽध्यायः २०१३ ] १०३ योनयः । अनेन सूत्रेण नवविधा को भेदः ? आधाराधेयभेदः । कोऽसात्राधारः, "को बात्रेयः ? योनय आधाराः, जन्मविशेषा याः । यस्मात्कारणात् सचित्तादिप्रदेशे स्थित्वा जीव: सम्मूर्च्छनादिना जन्मना निजदोराहा रेन्द्रियोच्छ्वास भाषामनोयोग्यान् पुद्गलान् गृह्णाति । अनी चित्तायिोनीनां स्वामिन उच्यन्ते - सचिन्तयोनयः साधारणशरीरा वनस्पतिकायिकाः । कस्मात् ? अन्योन्याश्रयत्वात् । अचित्तयोनयो देवा नारकाश्च । देवनार काणामुपपादः प्रदेशपुद्गलप्रयोऽचित्तो वर्तते यस्मात् । सचित्ताचित्तयोनयां गर्भजा भवन्ति, मातुरुदरे शुक्रशोणितम चित्तं वर्तते, आत्मा सचित्तस्तेन मिश्रत्वात् । अथवा शुक्रशोणितं यत्र मातुरुदरे पतितं वर्त्तते तदुदरं सचित्तं वर्तते, तेन गर्भजाः सचित्ता चित्तलक्षणमिश्रयो नयः । नरपतेरितरे सम्मूर्च्छनजाः पृथिव्यादयोऽचित्तयोनयो मिश्रयोनयश्च । देवनारकाः १० शीतोष्णयोनयः यत उपपादस्थानानि कानिचिदुष्णानि वर्तन्ते, कानिचिच्छीतानि वर्तन्ते । तेजरफायिका उष्णयोनयः । अपरे पृथिव्यादयः केचिछीतयोनयः केचिदुष्णयोनयः केचिमीतोष्ण मिश्र योनयः । संवृतयोनयो देवा नारकारच पृथिव्यादयाः पञ्च च । विवृतयोनयः द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः । संवृतविवृत मिश्र योनयो गर्भजा भवन्ति । एता मूलभूता नव योनयो भवन्ति । तदन्तर्भेदाश्चतुरशीतिलक्षा भवन्ति । तदुक्तम्— "चिदधादुसत्त य तरुदह वियलिंदिएमु छचेव । सुरणियतिरिय चदुरो चउदस मणुये सदसहस्सा ||" ५. १५ [ बारस अशु गा० २५] अस्यायमर्थः – नित्यनिगोदा इतर निगोदारच पृथिव्यप्तेजोत्रायत्रश्च प्रत्येकं सप्तलक्षयोनयः । बनस्पतिकायिका दशलक्ष योनयः । द्वीन्द्रियात्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाश्च प्रत्येकं द्विलक्ष- २० T 1 योनयः । सुरा भारकारिताश्च पृथक् चनुर्हयोनयः । मनुष्याश्च चतुर्दशलक्ष योनयः । अथेदानीं पूर्वोक्तयोनीनां प्राणिनां केां कीदृशं जन्म भवति ? इत्याशङ्कार्या श्रमतस्तावद् गर्भव्लक्षणजन्मभेदं दर्शयन्त्या चार्याः । १ - यः केचिच्छीतोष्ण ता० ० । २ नित्येतस्थादाश निकलेन्द्रियेषु पटूचैव | सुरनरकतिर्यक्षु चत्वारः चतुर्दश मनुष्येातमखाणि ॥ ३ कलिल- आ०, ब० ० जे० । जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः ॥ ३३ ॥ यत्प्राणिनामानाच वज्ञालवदाचरणं प्रविनतं पिशितधिरं तद्वस्तु वस्त्राकारं जरायुरि- २५ युध्यते । कमित्वपरपर्यायः । चन्छुकीतिपरिवरणं परिमण्डलमुपात्तकाठिन्यं नखछल्लीदर्शनवत्वचा सक्षं तदण्डमित्युच्यते । यद् योनिनिर्गतमात्र एवं परिस्पन्दादि सामर्थ्योपेतः परिपूर्ण प्रतीक आवरणरहितः स पात इत्युच्यते जराथी जात जरायुजाः । अण्डे जा म अण्डजाः । जरायुजाश्च अण्डजाश्व पोताश्च जरायुजाण्डजपोताः तेषां जरायुजाण्डजपतानाम् । एतेषां त्रयाणां गर्भो भवति । एते त्रयो गर्भयानयो भवन्ति इत्यर्थः । ३० Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० १०४ तत्त्वार्थवृत्तौ [ २३४-३६ तंत्र जरायुजा मनुष्यादयः । अण्डजाः सर्पशकुन्तादयः । पोताः प्रकटयानयश्च मार्जारादयः । नेपां गर्भलक्षणं जन्मोच्यते तद्दु पपादः केषां सञ्जायत इति रतः सृत्रं माहुराचार्या:-- अथापरेषां प्राणिनां किं जन्म भवतीति प्रश्ने सूत्रमिदमाहुः सूरयःशेषाणां सम्मूर्च्छनम् ।। ३५ ।। गर्भस्य औपपादिकस्य ये अन्येत एकेन्द्रियविकलेन्द्रिया जरायुजादिवर्जितास्तिमनुष्याश्च शेपा इत्युच्यन्ते । तेषां सम्मूर्च्छनमेव जन्म भवति । एतानि श्रभ्यपि सूत्राणि उभयतो निर्णयकराणि ज्ञातव्यानि । कोऽसावुभयतो निर्णयः ? जरायुजाण्डजपोतानामेत्र गर्मी भवत, गर्भ एव च जरायुजाण्डजपोतानां भवतीति प्रथमयोगनिर्णयः । देवनारकाणा१५ मेवोपपादो भवति, उपपाद एव च देवनारकाणामेव भवतोति द्वितीययोग निर्णयः । शेषाणामेत्र सम्मूर्च्छनं भवति, सम्मूर्च्छनत्र शेषाणां भवतीति तृतीयसूत्रनिश्चयः । अथ तेषां निविवजन्मनां संसारिणां सङ्ग्रहीत बहुमंदनवयोनिविकल्पानां शुभनामकर्मोदयनिष्पादितानि कर्मबन्धफलमुक्याकरणानि शरीराणि कानि भवन्तीति प्रश्ने योगोऽयमुच्यते भगर्त्राद्भः— देवनारकाणामुपपादः ॥ ३४ ॥ देवानां भवनवासिनां व्यन्तरराणां ज्योतिष्काणां कल्पोपपन्नकल्पनातीतानाश्च चतुर्णि कायानां जन्म उपपादो भवति पसलमा हाय नाकाच जन्म उपपादो भवति । कण्डरकच्छन्नकच्छिंद्रसशस्थानेषु तेषामधोमुखानामुपरि पादानामुतत्तिर्भवति, ततस्तेऽधः पतन्ति । तत्स्वरूपमयं वक्ष्यते । मार्गदर्शक :- श्री २० औदारिकवैक्रियिकाहारकनैजमकार्मणानि शरीराणि ॥ ३६ ॥ औदारिकनामकर्मोदनिमित्तमोदारिकम् । चक्षुरादिग्रहणोचितं स्थूलं शरीरमदारिकशरोरमित्युच्यते । उदारं स्थूलमिति पर्यायः । उदरे भवं वा ओहारिकम् । उदार स्थूल प्रयोजनमस्येति वा औदारिकम् । त्रिविधं करणं विक्रिया। विक्रिया प्रयोजनं यस्य तद् चैक्रियिकम् । वैक्रियिकनाम कर्मदयनिमित्तम् 'अष्टगुणेश्वर्ययोगादेकानेक स्थूलसूक्ष्मशरीर२५ करणसमर्थमित्यर्थः । मूलशरीरं निवन्मादिकालेऽपि देवानां न कापि गच्छति । उत्तरशरीरं त्वनेकमेकं वा जिनोत्सवादी सर्वत्र गच्छति । आहारकनाम कर्मदयनिमित्तमाहारकम् । नस्येदं स्वरूपम् — सूक्ष्म पदार्थ परिज्ञानार्थमसंयमपरिहारार्थं वा प्रमत्तमयतेन आहियते उत्पाद्यते निष्पाद्यते निर्वर्त्यते यत् तदाहारकम् । आहारकशरीरं किल प्रमत्तसंयतेनंच निष्पाद्यते । प्रनत्तसंयतस्य यहा सूक्ष्मपदार्थ सन्देह उत्पद्यते संयमविनारे वा १ इत्यतः प्रा । 3-fazalting er 1, 4, o, ० -fem० ब०, ६०, ० ० ४ -कण में आ०, ब० ० ० ५ निर्णयः ० ० ०, ० । ६ आगममहिमादयोऽष्टगुणाः । ३ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयोऽध्यायः १०५ सन्देह तदा स चिन्तयति - 'तीर्थकर परम देवदर्शनं विनाऽयं सन्देहो न विनश्यति । भगवान् अत्र क्षेत्रे नास्ति । किं क्रियतेऽस्माभिः' इति चिन्तां कुर्वाणे प्रमत्तसंयते मुनौ सति तस्य तालुपदेशे रोमाग्रस्य अष्टमो भाग रिछद्रं वर्त्तते तस्मात् हस्तप्रमाणं घनघटितस्फटिकविम्बाकारं पुत्तलकं निर्गच्छति । तत्पुत्तलकं यत्र कुत्रापि क्षेत्रे तीर्थङ्कर रमदेवो गृहस्थ गच्छति । तच्छरीरं स्पृष्ट्वा पश्च/- ५ क्षपाति । तेनैव तालुछिद्रेण तस्मिन्मुनौ प्रविशति । तदा तस्य मुनेः सन्देहो विनश्यति सुखी भवति । इत्याहारकशरीरस्वरूपम् । तेजस नामकर्मेन्दियनिमित्तं वपुस्तेजः सम्पादकं यत् तेजसम् । तेजसि वा भवं तैजसम्, सर्वप्राणिषु वर्त्तते एव । कार्मणनामकर्मोदयनिमित्तं कार्मणम्, कर्मेण कार्य वा कार्मणम्। कर्मणां समूहो वा कार्मणम् । सर्वेपां शरीराणां कर्मच निमित्तं वर्त्तते यद्यपि तथापि प्रसिद्धिवशात् विशिष्टचिपये वृत्तिर्ज्ञातव्या । १० धर्मोऽपि निमित्तं कर्म इत्यर्थः । ३७-३९ ] अथौदारिकं शरीरं चक्षुरादिभिरिन्द्रियैरुपलभ्यते उदारत्वात्तथेतरेषां शरीराणां कस्मात लेधिनं भवतीति स्फुटं प्रष्टा इव स्वामिनः प्राहुः परं परं सूक्ष्मम् || ३७ ॥ 1 औदारिकात् स्थूलरूपात् परं वै क्रियिकं सूक्ष्मं भवति । वैकिविकान् परमाहारकं सूक्ष्मं १५ भवति । आहारकान् परं तैजसं सूक्ष्मं भवति । तैजसान् परं कार्मणं शरीरं सूक्ष्मं भवति । 'यदि परं परं सूक्ष्मं तहिं परं परं प्रदशैरपि हीनं भविष्यति' इत्याशाक्कायां सूत्रमिदमाहुरुमास्वामिनः - प्रदेशतोऽगुर्ण प्राक् तैजमात् ॥ ३८ ॥ प्रदेशेभ्यः प्रदेशतः परमाणुभ्यः परं परमसङ्ख्यातगुणं भवति । कथं प्राकू, कस्मात् २० प्राकू ? तैजसान् तैजसशरीरात् । औदारिकाद् असङ्ख्यगुणपरमाणुकं वैकियिकं भवति । बैकियिकादाहारकमं सख्येयगुणपरमाणुकं भवति । कोऽसौ गुणकारः ? पल्योपमासमूख्येयभागन श्रेण्यसंख्येयभागेन वा गुणकारो ज्ञातव्यः । उत्तरोत्तरस्य बहुप्रदेशत्वेऽपि सूक्ष्मत्वं छोद्दपिण्डवत् ज्ञातव्यम् । पूर्वपूर्वस्य अल्पप्रदेशत्वेऽपि स्थूलत्वं तूलंनिचयबद् बोध्यम् । तर्हि तेजसकार्मणयोः शरीरयोः प्रदेशाः किं समा वर्त्तन्ते, आहोस्वित् कश्विद् विशेषोऽस्ति ? इति प्रश्ने योगमेतं प्रतिपादयन्ति - པཱདྷ अनन्तगुणे परे || ३९ ॥ परे तेजसकार्मणे द्वे शरीरे अनन्तगुणे भवतः । आहारकशरीरात्तेजयं शरीरं प्रदेशरनन्तगुणं भवति । तैजसाच्छरीरात्कार्मणं शरीरं प्रदेशरनन्तगुणं जागर्ति । कोऽसौ ३० १ - मसंख्यातगु आ०, ब०, व० द० ज० । २ १०, ० ज० । १४ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती [ २।४०-४३ गुण-का : ? अभव्यानामनन्तगुणं तैजसम सिद्धानामनन्तभागं तेजसम् । तैजसाञ्च अनन्तगुण कामणमेवं ज्ञातव्यम् । ___ यदि तंजसकार्मणयोः शरीरयोरनन्ताः प्रदेशाः सन्ति तहि तैजसकामणशरीरसहितो । जीवो यदा विग्रहगनि करोति तदाऽपरेण रूपादिमता पदार्थान्तरेण जीवस्य गतिप्रतिबन्धो ५ भविष्यनि, गच्छत्तः कुम्भस्य कुड्यादिनाऽवरोधवत् ' इत्यारे कायां योगममुगाचक्षते अप्रतीधाते ।। ४० || _तैजसकामणे हे शारीरे यंत्रपटलादिना अप्रतिघाते प्रनिस्खलनरहित भवतः मूर्तिमताः पदार्थेन पावानरहित भवनः इद पर्थः । ननु क्रियिकाहारकोरपिं शरीरयोः प्रतिघानो न । वर्तने किमुरूयते तजसकार्मणयोरेव प्रतीघातरहितत्यम् ? इत्याह-सन्यम्; यथा तंजसकार्मणयोः १. शरीरधारालाकान्तादपि सर्वत्र प्रतीघातो न वर्तते, नथा वेक्रियिकाहारकयोरपि प्रतीमाता भावः सर्वत्र नास्तीति। . मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर जी महाराज अथ तजसकामणयोः शरीरयोरेनावानेव विशेषो वर्नते, आहोस्वित्, कश्चिदन्योऽपि । विशेषो वर्तते ? इत्यतः प्राहुराचार्याः अनादिसम्यन्धे च ॥ ४१ ॥ ५५५ अंनादावनादिकाले जीवेन सह सम्बन्धः संयोगो ययोस्तैजसकार्मणयोस्ते द्वे अनाहि. सम्बन्थे। चकारात् पूर्वपूर्वत जातकार्मणयोः शरीरयोविनाशाजुत्तरोत्तरयोस्तै जसकार्मणयो। शरीरयोकत्यादाच्च वृक्षाद् चीजवन् बीजेद् वृक्षवच्च कार्यकारणसद्भावः । सन्तत्या अनाहिमम्बन्ये विशेषापेक्षया सादिसम्बन्ये चेत्यर्थः । यथा हि-औदारिकवैक्रियिकाहारकाणि त्रीणि शरीराणि जीवस्य कादाचित्कानि भवन्ति, कदाचित् भवानि कादाचित्कानि, तथा तैजस२, कामगरे शरीरे जीवस्य कादाचिहके न भवनः ! कि तहि ? ते द्वे नित्यं भवत इत्यर्थः । किय कालपर्यन्तं नित्यं भवतः ? यावत् संसारो न श्रीयते तावत्पर्यन्तं भवत इत्यर्थः।। यथा जीवस्य कार्मणशरीरं नित्यं वर्तने तथा तैजसमपि शरीरं नित्यं वर्तत इति तात्पर्यम् । हिं त ते जसकार्मणे के शरीर कि कस्यचिन् भवतः, कि कस्यन्नि भवतः, आहोस्त्रिविशषेण सर्वस्यापि प्राणिवर्गस्य भवत इत्यारकायां सूत्रमिदमाहुः सर्वस्य ।। ४२॥ सर्वस्य निरवशेषस्य संसारिणो जीवस्य तजसकार्मण द्वे अपि शरीरे भवत इत्यर्थः । अथ संसारिजीवस्य सर्वशरीरसम्प्राप्तिसद्भावे विशेषोऽयमुच्यते भगवद्भिः तदादोनि माज्यानि युगपदेवस्याचतुर्यः ॥ ४३॥ १ भन्यानाम--- आ., या, द., ज | २ पर्जन्यमा . आ., ५०, द०, ज०। ३ अगदी जीवन ता । अनाश अनादिजान जी- व. । ४ थी जवृक्ष- भा०, २०, ५०, म.) ५ राहि तत्र-आः, ३० व., ज, द० । ६ -यस्मिनाच- भार । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४-४७ ] द्वितीयोऽध्यायः १०७ ते तेजसकार्मणे द्वे शरीरे आदिर्येषां तानि तदादीनि । भाग्यानि विकल्पनीयानि व कर्त्तव्यानि । युगपत् समकालम् । एकस्य जीवस्य । कियत् पर्यन्तम् ? आ चतुर्भ्यः स्वारि शरीराणि यावत् । कस्यचिज्जीवस्य विग्रद्गन्यवसरे तेजसकार्मणे द्वे शरीरे भवतः । कस्यचिज्जीवस्य तैजसकार्मणौदारिकाणि त्रीणि भवन्ति । कस्यचिज्जीयस्य तेजसकार्मणवैकियिकाणि त्रीणि शरीराणि भवन्ति । कस्यविज्जीवस्य तेजसकार्मणौदारिकाहारकाणि ५ चार शरीराणि भवन्ति । एकस्य युगपत् पश्च न भवन्तीत्यर्थः । यस्य आहारकं शरीरं भवति तस्य वै क्रियिकं न भवति, यस्य वैकिविकं भवति तस्याहारकं न भवतीति विशेषो शेयः । अथ पुनरपि शरीरविशेषपरिज्ञानार्थं वचनमिदमुच्यते निरु भोगमन्त्यम् ॥ ४४ ॥ इन्द्रियद्वारेण शब्दादिविषयाणामुपलब्धिरुपभोगः । उपभोगान्निष्क्रान्तं निरुपभोगम् । १० अन्ते भवन्त्यम्, कार्मणशरीरमित्यर्थः । विग्रहगतावपि कार्मणं दशरीरं सत्तारूपेण आत्मनि तिष्ठति, न तु शब्दादिविषयं गृह्णाति द्रव्येन्द्रियनिभावात भोगं वर्तते, किमुच्यते कार्मणं शरीरं निरुपभोगम् ? इत्याह- सत्यम् । तेजस शरीरं योगनिमितमपि न भवति कथमुपभोगनिमित्तं भविष्यतीत्यलमेतद्विचारेण । ननु वहासागर जी महाराज अथोक्तलक्षणेषु जन्मसु अमूनि पच शरीराणि प्रादुर्भवन्ति, ताई किमविशेषेण प्रादु- १५ आहोरिति कचिद्विशेषः ? इति प्रश्ने वचनमिदम् चुरुमास्वामिनः गर्भसम्मूर्च्छन जमाद्यम् ॥ ४५ ॥ 1 गर्भं ज्ञातं गर्भंजम् । सम्मूर्छनाज्जातं सम्मूर्छनजम् । गर्भजल सम्मूर्छ नजच गर्भसम्मूनजम् समाहारे द्वन्द्वः । यद् गर्भजं शरीरं यच्च सम्मूर्च्छनजं शरीरं तत्सर्वमाद्यमौदारिकं ज्ञातव्यम् । अथवा, गर्भश्च सम्मूर्छना गर्भसम्मूर्द्धने, ताभ्यां जातं गर्भसम्मूर्छ नजम् । तपपादिकं कीदृशं भवतीत्याशङ्कायामाह - औपपादिकं वैक्रियिकम् ॥ ४६ ॥ उपपदे भवमादिकं देवनारकशरीरम्, तत्सर्वं शरीरं वैक्रियिकं ज्ञातव्यम् । पपादिकं किं तनोपपादिकं शरीरं किं सर्वथा वैकियिकं न भवतीति प्रश्ने सूत्रमिदं प्रतिपादयन्ति सूरयः २० २५ लब्धिप्रत्ययश्च ॥ ४७ ॥ तपोविशेषात्सञ्जाता ऋद्धिप्राप्तिर्लब्धिरुच्यते । लब्धिः प्रत्ययः कारणं यस्य शरीरस्य समिधप्रत्ययं वैक्रियिकं शरीरं भवति । न केवलमोपपादिकं शरीरं वैक्रियिकं भवति, किन्तु लब्धप्रत्ययं लब्धिकारणोत्पन्नं शरीरं वैक्रियिकं कस्यचित् पष्ठगुणस्थानवर्त्तिनो मुनेभवतीति वेदितव्यम् उत्तरवै किविकशरीरस्य कालः स्थितिर्जघन्येनोत्कर्षेण चान्तर्मुहूतो ३० १ -मूचु:- ता०, ब० 1 २ गर्भान्जा ०, ज० ! ३ समाहारद्वन्द्वसमासः ज० । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज १०८ ___ तत्त्वार्थवृत्ती [ २१४८-५९ भवति। तहि तीर्थकरजन्मादी नन्दीश्वर चैत्यालयादिगमने बह्नों वेलां विना तत्सम्बन्धि कर्म कथं कर्तुं लभ्यत इत्याह-सत्यम् ; घटिकाद्वादपर्युपरि अन्यदन्या छरीरं क्रियिका उत्पादयन्ति , छिनपद्मिनीकन्दोभयपार्श्वलग्नतन्तुन्यायेनोत्तरशरीरेनात्मप्रदेशानन्तर्मुहूर्तेऽन्तर्मुहूर्ते पूरयन्ति, तेनोत्तरशरीरं यथेष्टकालं तिष्ठति । तद्युत्तरशरीरे क्रियमाणे देवानां किमपि कष्टं भविष्यति ? न भविष्यति, प्रत्युत सुखं भवति । उक्तञ्च"स्वभोगवर्गप्रसिताक्षवगोऽप्युदीच्यदेहाक्षसुखेः प्रसक्तः । अर्हत्प्रभौ व्यक्तविचित्रभावो भजत्विमा प्राणतजिष्णुरिज्याम् ॥” [प्रनि.सा.२।१२१] किमेतद्वैक्रियिकमेव लध्यपेक्षं भवति आहोस्पिदन्यदपि शरीरं लम्चिप्रत्ययं भवतीति प्रश्ने सूत्रमिदमाहुः-- १० सैजसमपि ॥४८॥ तेजसमपि शरीरं लब्धिप्रत्ययं भवति, लब्धिनिमित्तं स्यान् । तत्तैजसं शरीरं द्विप्रकारं भवति–निःसरणात्मकम , अनिःसरणात्मकञ्च । तत्र निःसरणात्मकम्य तेजसशरीरस्य स्वरूपं निरूप्यते---कश्चित् यत्तिमप्रचारित्रो वर्तते । स तु फेनचिन विराधितः सन यदाऽतिद्धो भवति तदा वामस्कन्धाजीवप्रदेशसहितं तैजसं शरीरं बहिनिर्गच्छति । तद् १५ द्वादशयोजनदीचे नवोजनविस्तीर्ण काइलाकार जाज्वल्यमानाग्निपुत्सदृशं दावं वस्तु परिवेष्टयावतिष्ठते । यदा तत्र चिरं निष्ठति तदा दाह्यं वस्तु भस्मसात्करोनि । व्याघुख्य अतिशरीरे प्रविशत् सत् तं यतिमपि विनाशयति । एतत्तैजसं शरीरं निःसरणात्मकमुच्यते । अनिःसरणात्मकं स्यौदारिकर्वक्रियिकाहारकशरीराभ्यन्तरबत्ति तेषां त्रयाणामपि दीप्तिहेतुकं भवति । अथेदानीमाहारकशरीरस्वरूपनिर्णयार्थ तत्स्वामिनिरूपणार्थ सूत्रमिदं प्रतिपादयन्तिशुभं विशुद्धमव्याघाति याहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ॥ ४९ ॥ आहरति गृह्णानि स्वीकरोति तत्त्वज्ञानमित्याहारकम् । आहारकं शरीरं शुभेन ऋद्धिशेपेणोत्पद्यते "इति कारणात् मनःप्रीतिकरं शुभमित्युच्यते । शुभकर्मथ आहारककाययोगस्य हेतुबाहा शुभमित्युच्यते । विशुद्धस्य पुण्यकर्मणः सन्दिग्धा निर्णयस्य अमिश्रस्य निरवहास्य कार्यस्य वा करणात संक्लेशरहित विशुद्धमिति कथ्यते, तन्तूना कार्पासव्यपदेशवत् । २५ उभयनी हि प्राणिबाधालक्षणव्याघाताभावाव्याघातीति भण्वते । आहारकशरीरेण अन्यस्य व्याघातो न क्रियते, अन्येन शरीरेण च आहारकशरीरस्य च व्याघातो न विधायत इत्यर्थः । चकार उक्तसमुच्चयार्थः। तेनायमर्थ:-कदाचित् संयमपरिपालनार्थम् , कदाचित्सूक्ष्मपदार्थनिर्णयार्थम् , कदाचिल्लब्धिविशंषसद्भावज्ञापनार्थमाहारकशरीरं भवति । ईदृग्विधमाहारकशरीरं कस्य भवति ? प्रमत्तसंयतस्यैव, पारगुणस्थानधतिना मुनेः । एवशब्दोऽवधारणार्थो - - ३ कार्यस्य कारणात १ -विस्तारं ता०, २०। २ अतः का- आऊ,०, ९०, ज । भार, ०, २०, ज० । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * :दाने श्री सुविधिसागर जी हिरियोऽध्यायः १०९ बसते । प्रमत्तसंयतस्यवाहारकं शरीरं भवति, नान्यस्य । प्रमत्तसंग्रतस्य आहारकशरीरमेव भवति इति न मन्तव्यम् । तथा सति औदारिकादिशरीरप्रतिषेध उत्पद्यने । अथ किन्नामाहारकशरीरमिति चेत् ? भरतरावसस्थितस्य कस्यचिन्मुनेः केवलज्ञानाभावे यदा सन्देह उत्पद्यतेसदा तस्वनिश्चयार्थं पञ्चमहाविदेहान्यतमविदेह केवालसमीपमौदारिकशरीरेण गच्छतो मुनेरसंयमो भवति इति विचिन्त्य आहारकशरीरमेकहस्तप्रमाणे रोमायाष्टमभागप्रमाणशिरोदशम- ५ द्वारच्छिद्रादाहारकं पुप्तलकं निर्गच्छति । तन्निर्गमनादेव स मुनिः प्रमत्तसंयतो भवति । मच्छरीरं तीर्थकरशरीरं स्पृष्ट्वा पश्चादायाति । तस्मिन्नागते सति मुनेस्तत्त्वसन्दहो विनश्यति । ईम्बिधानि शरीराणि धारयता संसारिणां प्राणिनां गति प्रति त्रीणि लिङ्गानि भवन्ति, आहोस्थिवस्ति कश्चिद् विशेषः' इति प्रश्ने सति लिङ्गनिर्णयार्थ सूत्रत्रयं भण्यते भगवद्भिः नारकसम्मृछिनो नपुंसकानि ॥ ५० ॥ वक्ष्यमाणलक्षणोपलक्षितेषु नरकेषु भवा नारकाः, सम्मूलनं सम्मूर्छ:, सम्मूछों विडते येषां ते सम्मच्छिनः, नारकाश्च सम्मूच्छिनश्च नारकसम्मूछिनः। एते नपुंसकानि भवन्ति । चारित्रमोह विशेषकषायविशेषस्य नपुंसकबेदस्य अशुभनामकर्मप्रकृतेरुदयाच्च न सियो न पुमांसः नपुंसकानील्युच्यन्ते । संप्पनरकोद्भवा नारकाः एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः सऽपि सम्मूछिनः, पश्शेन्द्रियाश्च नपुंसकानि भवन्ति इति निश्चयः । तेषु खलु स्त्रीपुंस- १५ सम्बन्धिनी मनोहोरिशब्दगन्धवर्णरसस्पर्शनिमित्ता ह्यल्पापि सुखमात्रा न विद्यते । __'यो निर्धार्यते तर्षर्थापत्तेरन्येषां संसारिणां त्रिलिङ्गी घटत इति सन्देहे यत्र नपुंसकलिङ्गस्याऽत्यन्ताभाषस्तत्स्वरूपनिरूपणार्थं वचनमिदमुच्यते न देवाः ॥५१॥ भवनवामिव्यन्तरज्योतिष्ककल्पोपपन्न(नाः)कल्पातीताश्च नपुंसकानि न भवन्ति । २० किन्त्यच्युतपर्यन्तं स्त्रीत्वं पुरस्वञ्च शुभगतिनामकर्मोदयजनितं स्त्रीपुंस्त्वनिरतिशयसुखं निर्विशन्ति | मानुषसुखादप्यतिशयस्त्री पुंस्त्यसुखं देवा भुञ्जते । 'अथेतरेषां कियन्ति लिङ्गानि भवन्ति' इति प्रश्ने योगोऽयमुच्यते-- शेषास्त्रिवेदाः ॥ ५२॥ शेषा गर्भजामिवेदा भवन्ति । त्रयो वेदा लिङ्गानि येषां ते त्रिवेदाः। तल्लिन २५ द्विप्रकारं भवति । नामकर्मोदयात् स्मरमन्दिरमेनादिकं द्रव्याला भवति, नोकषायमोहकर्मोदयाद् भावलिङ्ग स्यात् । कथम् ? स्त्रीवेदोदयात् स्त्री भवति, पुंवेदोदयात् पुमान् भवति, नपुंसकवेदोदयात् नपुंसको भवतीति तात्पर्यम् । १ मुनेः स-भा, ब०, द, ज०। २ सप्तमनर- आ०, य०, ६०, ज०। ३-कानि 1-4100,९०,ज. | ४-रिरवगन्ध- आ०, २०,६०,ज, ता० । ५ -वं घा- 4t.,., १०,०।६-शयं नि-मा०, ज०। ७ व्यलिङ्गानि भवन्ति भा०, ब०,९०, ज०। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० तस्वार्थवृत्तौ [ २/५३ मार्गदर्शक :- अनामन सामने कवि धनुष्यवाप के मंदियायत्ताश्चतुर्गतिषु शरीराणि धारयन्ति ते सम्पूर्णमायुर्भुक्त्वा शरीरान्तराण्याश्रयन्ति आहोस्विदसम्पूर्णमप्यायुर्भुक्त्वा गत्यन्तरं यान्तीति प्रश्ने सूनं सूचयन्ति सूरयः औपपादिक चरमोत्तमदेहा संख्येय वर्षायुषोऽमपवर्यायुषः ॥ ५३ ॥ - ५ उपपदे भवा औपपादिका देवनारकाः । चरमोऽन्स्य उत्तम उत्कृष्टो देहः शरीरं येषां ते चरमोत्तम देहाः तज्जन्म निर्वाणयोग्यास्तीर्थ र परमदेषा ज्ञातव्याः । गुरुदत्त पाण्डवादीनामु पसर्गेण मुक्तत्वदर्शनान्नास्त्यनश्वययुर्नियम इति न्यायकुमुदयचन्द्रोदये ( चन्द्रे) प्रभा चन्द्रेणोक्तमस्ति । तथा चोत्तमत्वेऽपि सुभौमब्रह्मदत्ता पवन्ययुर्दर्शनात् कृष्णस्य च जकुमाराणेनादर्शनात् सकलार्थचक्रवर्तिनामप्यनपवत्युर्नियमो नास्ति इति राज१० वार्तिकालङ्कारे प्रोक्तमस्ति । असंख्येयवर्षाणि उपमानेन कल्पोपमादिना गणितानि वर्षाणि आयुर्वेषां भांगभूमिजतिर्यङ्गमानवकुभोगभूमिजानां ते असंख्येयवर्षायुषः । औपपादिकाश्च चरमोत्तम देहाच्या संख्येयवर्षायुपश्च औपपादिकचरमोत्तदेहा संख्येयवर्षायुषः । एते अन पत्रपः । न अपवर्त्य विवशस्त्राग्निप्रभृतिसन्निधाने हस्वमायुर्येणं ते अनपवर्त्त्यायुषः । पापमायुर्न भवति तर्हि अर्थादन्येषां विपशस्त्रादिभिरायुरुदीरणानफलादिवद् १५ भवतीति तात्पर्यार्थः । अन्यथा दयाधर्मोपदेश चिकित्साशास्त्रं च व्यर्थं स्यात् । चरमोत्तमदेह इत्यस्मिन्स्थाने चरमदेड़ इति केचित्पठन्तीति; तन्न युक्तम् ; तथा सति संजयन्तादिमृत्यूपसर्ग मुक्ति संगच्छत इति भद्रम् । " इति सूरि श्री श्रुतसागरविरचितायां तात्पर्यसंज्ञायां तत्त्वार्थवृत्तौ द्वितीयः पादः समाप्तः । Stee १ - कर्माचा आ०, ब० ० ० ० २ मुद्रिते न्यायकुमुदचन्द्रे नेदमुपलभ्यते । ३ " अन्त्य चक्रथनानुदेवादीनामा युगोऽपवर्त दर्शनादव्याप्तिः । उत्तम देहावकधरादयो ऽपवर्त्यायुष इत्येतत् लचणमव्यापि । कुतः ? अन्यस्य चकबरस्य ब्रह्मदत्तस्य वामुदेवस्य च कृष्णस्य अन्येषाञ्च ताहशानां चाह्मनिमित्तवशादायुरपवर्तदर्शनात् ।" राजवा० २।५३ | ४ इत्यनवद्यगद्यपद्यविद्याविनोदितप्रमादयुपमानपावन मतिसभा जरत्न राजमतिसागर यतिराजराजितार्थनसमर्थन तर्कव्याकरण छन्दोऽलकारसाहित्यादिशास्त्रनिशितमतिना यतिश्रीमद्देवेन्द्र कीर्ति भट्टारकप्रशिष्येण च सकळविद्वज्जनविहितचरणसेवस्य श्रीविद्यानन्द्रिदेवस्य संदर्दि तमिध्यामतदुर्गंरेण श्रीश्रुतसागरसूरिणा विरचितायां श्लोककि जाति कसर्वार्थसिद्विन्यायकुमुदचन्द्रोदयप्रमेयक मलमार्तण्डप्रचण्डाय सहस्री प्रमुख प्रन्यसन्दर्भनिर्भरावलोकन बुद्धिविजितायां तत्त्वार्थटीकायां द्वितीयोऽध्यायः समासः । आ०, ब०, दु०, ज० । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः अथ “भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम्" इत्यादिपु नारकशब्द अ कर्णितः । 'के ते arce:' इति प्रश्ने नारकस्वरूपनिरूपणार्थं नारकाणामधिकरणभूताः सप्त भूमय उच्यन्ते रस्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोम हातमः प्रभा भूमयो घना - स्वाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताघोऽधः ॥ १ ॥ सप्तभूमयः सप्तनरकभूमयोऽघोषो भवन्ति नीचेनीचैर्भवन्ति । कथम्भूताः सप्तभूमयः ? रत्नशर्करवालुकापङ्कधूमत्तमो मद्दात्तमःप्रभाः । प्रभाशब्दः प्रत्येकं प्रयुज्यते । तेनायमर्थः – रत्नप्रभा च शर्कशप्रभा च बालुकाप्रभः च पङ्कप्रभा च धूमप्रभा च तमः प्रभा च महातमः प्रभा च । रत्नप्रभासहिता भूमी यात्रााशक सन्ताय श्री शुधसिंदी महाराज भूमिः शर्कशप्रभा, अतीपत्तेजस्का । बालुकाप्रभासहिता भूमिर्वालुकाप्रभा अन्धकारप्राया १० अतिमनाकूतेजस्का । पङ्कः कर्दमः पङ्कप्रभासहिता भूमिः पङ्कप्रभा, पक्केऽपि मलिना प्रभा वर्त्तते । धूमप्रभासहिता भूमिधू मप्रभा । धूमेऽपि पक्कादपि मलिनतरा प्रभा वर्तते । तमःप्रभासहिता भूमिस्तमः प्रभा । तमसोऽपि स्वकीया प्रभा वर्त्तते । महातमः प्रभासहिता भूमिः महातमः प्रभा, महान्धकारसहिता भूमिः । तमस्तमःप्रभाऽपरनाम्नी । अत्र वालुकास्थाने पालिका इति च पाठो दृश्यते । तथा सति वालुकाया वालिकेत्यभिधा ज्ञातव्या । पुनरपि १५ कथम्भूता भूमयः ? घनान्चुवाता काशप्रतिष्ठाः । घना अम्बु च वातश्च आकाशच घनाम्बुषाताकारशः, घनाम्बुचाताकाशाः प्रतिष्ठा आधारो यासां भूमीनां ता घनाम्बुवानाकाशप्रतिष्ठाः । घनवातः धनोदधिवाताऽपरनामको वातः । अम्चुवातः घनवाताऽपरनामको यातः । वातस्तनुपरनामको वातः । अस्यायमर्थः -- सर्वाः समापि भूमयों धनवानप्रतिष्ठा वर्तन्ते । स धनवातः अम्बुवानप्रतिष्ठोऽस्ति । स चाम्बुवातस्तनुवात प्रतिष्ठो वर्तते । स च तनुवात २० आकाशप्रतिष्ठो भवति । आकाशस्थालम्बनं किमपि नास्ति । सप्त भूमय इत्युक्ते अधिकोनसंख्यानिषेधः प्रतिपादितः । अधोऽधः इत्युक्ते तिर्यग् न वर्त्तन्ते, उपर्युपरि च न वर्तन्ते, रज्जुरज्जुप्रमाणाकाशान्तरे वर्तन्ते इत्यर्थः । यथैते त्रयो वाताः भूमीनां पर्यन्तेषु वर्तन्ते तथा सप्तानां भूमीनामधस्तलेषु च त्रयो वाताः प्रत्येकं वर्तन्त इति च ज्ञातव्यम् । अत्र प्रस्तावागत त्रैलोक्यबेष्टनवातस्त्ररूपनिरूपणार्थं श्लोकत्रयोदशकमुच्यते । तथा हि -कं यु- भा०, ब०, ३० ज० | २ महान्धकारा आ०, ब०, २० जे० । ३ अतीय तेजय० । अतीव तेन य० । अर्तवन्तेज- आ ब द० ४ समग्र आ०, ब०, ६०, ज० । २५ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ३१ मार्गदर्शक सविधिसागा हाराज तत्त्वार्थयुत्नी "घनोदधिजगत्प्राणः पूर्वो लोकस्य वेष्टनम् । घनः प्रभजनो नाम द्वितीयस्तदनन्तरम् ॥ १ ।। तनुवातमुपर्यस्य त्रैलोक्याधारशक्तिमत् । वाता एते, स्थितिस्तेषां कथ्यमाना निशम्यताम् ॥ २ ॥ धनोदधिमरुत्तस्य वर्णो गोमूत्रसन्निभः । घनाशुगस्य वर्णोऽस्ति मुद्गवर्णनिभः स च ।। ३ ।। तनुर्गन्धबहो नानावर्णवान् परिकीर्तितः । एते त्रयोपि वृक्षस्य त्वग्वा लोकोपरि स्थिताः ॥ ४ ॥ लोकमूले च पार्वेप याबाज मल्हये। विंशतिश्च सहस्रणि, बोहल्यं योजनैः पृथक् ॥ ५ ॥ सहस्राणि तु सप्तैव पञ्च चत्वारि च क्रमात् । चाहल्यं गन्धवाहानां प्रणिधौ सप्तमक्षितः ॥ ६ ।। नमस्वतां क्रमाद्धीयमानानां बाहलं मतम् । तिर्यग्लोके व्रताध्यग्निसहयोजनः पृथक् ।। ७॥ वर्धन्ते मातरिश्वानः क्रमाद् ब्रह्मसमाश्रयाः । वाहला; सप्त पश्चात्र तानि चत्वारि च स्मृताः ॥ ८ ।। सदागतित्रयं तस्माद्धीयमानं क्रमागतम् । पञ्च चत्वारि च त्रीणि तान्यूचे बहलाश्रितम् ।। ९॥ स्पशंनो लोकशिखरे, द्विक्रोशः स्याद् घनोदधिः । क्रोशैकबहलो विद्भिः धनश्वसन उच्यते ।। १०॥ चतुश्चापशतैश्चापि सपादैरून इष्यते ।। कोशैकस्तनुवातस्य बाहल्यं शल्यहन्मते ॥ ११ ।। तस्योपरितने भागे सिद्धा जन्मादिवर्जिताः । तिष्ठन्ति ते निजं स्थानं क्वचिद्यच्छन्तु मेऽचिताः ॥ १२ ॥ ..- - -- - - -- --- - १ याहुल्यै?- आ०, ब०, द। बाहल्यैयों- आ०, ज०, २०। २ क्रमानये मानाना आ०,२०,१०, जल। ३ तानि पञ्च, अध्यश्चत्वारः, अग्नयत्रयः। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ ३॥१] तृतीयोऽध्यायः स्वरूपमेतत्पवमानगोचरं विचारितं चौरुचरित्रतेजसाम् । मार्गदर्शक विनिवासिनामुमारिता विहारखित ते शं श्रुतसागरेडितम् ॥१३॥" अथ सप्तानां नारकाणां भूमियाहल्यमुच्यते । तथा हि "लक्षमेकमशीतिश्च सहस्राण्यादिमेदिनी । चाहल्य योजनानान्तु भागास्तत्र प्रयः स्मृताः ।। तत्वोडशसहस्राणि खरमाभाग उन्नतः । जम्बालबहुलो भागोऽप्यशीति चतुरुत्तरम् ॥ अशीतितत्सहस्राणि भागोऽम्युबहुलाभिधः । त्रिष्वधश्वोपरि त्याज्यं तत्सहसं च पश्चस् ॥ रक्षोऽसुरा द्वितीये स्युराधे स्युभीमभावनाः । इतरे तु तृतीये तु नारकाः प्रथमे मताः॥ द्वात्रिंशत्तत्सहस्राणि वंशा भूरुन्नता मता । शैलाष्टाविंशतिं घुचाश्चतुर्विंशतिमञ्जना ॥ अरिष्टा विशति तानि मघवी षोडश स्मृता । माधव्यष्टोन्मता वातस्त्रिभिः प्रत्येकमावृताः ।। 'कण्डरादिकजन्तूनां छत्र कच्छिद्रमन्निभाः । नारकोत्पादभूदेशाः पतन्तीतो ह्यधोमुखाः ॥" [ अथ सप्तनरकास्तारनामानि कध्यन्ते-तत्र तावत्प्रथमनरकप्रस्तारास्त्रयोदश-प्रथमः सीमन्तकः प्रस्तारः। द्वितीयो नरकनामा प्रस्तारः । तृतीयो रोरुकः प्रस्तारः । चतुर्थो भ्रान्तः । पश्चम उद्धान्तः। षष्ठः सम्भ्रान्तः । सप्तमोऽसम्भ्रान्तः । अष्टमो विभ्रान्तः। नवमलस्तः। २० दशमखसितः । एकादशः वक्रान्तः । द्वादशोऽवकान्तः। त्रयोदशी विक्रान्तः। द्वितीयनरकप्रस्तारा एकादश-प्रथमः स्तवकः । द्वितीयः स्तनकः । तृतीयो 'मनकः । चतुर्थोऽमनकः । पनमो घाटः । षष्ठोऽसंघाटः । सप्तमो जिह्वः । अष्टमा जिसकः । नवमो लोलः। दशमो लोलुकः" । एकादशः स्तनलालुकः" । "तृतीये नरके नत्र प्रस्ताराः-प्रथमस्ततः । विनीयस्तपितः । तृतीयस्तपनः । चतुर्थस्तापनः । पञ्चमो निदाघः । षष्ठः प्रज्वलितः । सप्तम २५ -- -- --- .. .. .. --. .. - - ... - १ - वामनरि- भार, ५, द.. ज० । २ -तिन गुरुत्तरः न. 1 -तिश्चानुरुत्तगः २० । ३ द्वात्रिशच्च स-भा०।४ - मञ्चमा आ०, ६०, बल, जे ५-शतिरूतानि भा। ६ कजराहा७ -मः सूरकः ता००। ८ संस्तानः ज० | मस्तनः आद०। ५ वनकः आ०,द०.ज. | १० लोटुपः ताव.११२ -लोपः०व०। १२ तृतीयनर - आ०,०,०००। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवृत्ती [३२ उज्ज्यलितः । अष्टमः संज्वलितः । नवमः सम्प्रज्वलितः । चतुर्धनरके सम प्रस्तारा:-प्रथम आरः । द्वितीयस्तारः। तृतीयो मारः। चतुर्थी वर्चरकः । पञ्चमम्तमकः । पाठः खडः । सप्तमः खडखडः । पञ्चमनरके पढ्न प्रस्तारा:--प्रथमम्तमः। द्वितीयो भ्रमः । तृतीचा झपः। चतुर्थोऽन्धः । पञ्चमस्तमिनः। पटनरके वय: प्रस्तारा:-प्रथमो हिमः । द्वितीयो बदलः। ५ तृतीयो लल्लकः । सपमनरके एकः प्रस्तार:- अप्रतिष्ठानः । इत्येकोनपञ्चाशत् प्रस्ताराः सप्त नरकाणां भवन्ति । एपां सतानाच नरकाणां नामान्तराणि च भवन्ति । प्रथमा भूमिः धर्मा | द्वितीया वंशा। तृतीया शैला शिला या | चतुर्थी अजना। पश्चमी अरिष्टा । पष्ठी मघवी । सप्तमी माघत्री। अश रत्नप्रभादिषु नरके ये स्थिताः प्रस्तारास्तेपु त्रयोदशादिसप्तसु स्थानेषु यानि १० बिलानि वर्तन्ते तेषां प्रतिनरकं संख्या कथ्यते तासु त्रिशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रिपञ्चोनैकनरकशत सहस्राणि पञ्च चैव यथाक्रमम् ।। २ ॥ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तासु रत्नप्रभादिपु सप्तसु भूमिपु यथाक्रमं यथासंख्वं त्रिंशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रिपञ्चानेकनरकशतमहमाणि भवन्ति । पन चैव भवन्ति । नरकशतसहनशब्दः प्रत्येक १५ प्रयुज्यते, तेनायमर्थः-त्रिंशच पञ्चविंशतिश्च पञ्चदश च वश च त्रीणि च पञ्चभिरूनमेकं च त्रिंशनपञ्चविंशतिपञ्चदशदत्रिपञ्चो कानि, तानि च तानि नरकाणां बिलानां शतसहस्राणि लक्षाणि नानि तथोक्तानि । तथा हि-त्रिंशन्नरकशतसहस्राणि त्रिशल्लक्षनरकाणि रत्नप्रभायां प्रथमभूमी भवन्ति । पञ्चविंशतिनरकशतसहस्राणि पश्चशितिलक्षाबलानि शर्कराप्रभायां वितीयभूमी भवन्ति । पञ्चदशशतसहस्राणि पश्चदशलक्षविलानि बालुकाप्रभायां २० तृतीयभूमी भवन्ति । दशनरकशतसहस्राणि दशलक्षाबलानि पङ्कमभायां चतुर्थभूमौ भवन्ति | त्रीणि नरकशतसहस्राणि विलक्षविलानि धूमप्रभायां पञ्चमभूमौ भवन्ति । पश्बोनमेकं नरकशतसहस्र पञ्चहीनेकविललक्षं तमःप्रभायां भूमौ भवन्ति । पञ्चैय च बिलानि महातमःप्रभायो तमस्तमःप्रभायां सप्तमभूमो भवन्ति । एवमेकन चतुरशीतिलक्षाणि भवन्ति" । भवति चात्र शोकः२५ "त्रिंशच्चैव तु पश्चविंशतिरतः पश्चाधिकाः स्युर्दश स्युस्तुर्ये दश पञ्चमे निरयके तिस्रश्च लक्षाः मताः । - -- .. - -- - -- .. . १ चर्चस्कः आद०,व०,ज० । २धम्मासाराअंजणारिद्वाणउन्भमघवीओ | माधक्यिा इय गागं पदवी गं गोराणामाणि ||" -तिलोया ६१५३ । "शर्मा बंशा शिलाख्या च जनारिष्टका तथा । मश्वी भाषची चति यथारश्यातनदाहताः ॥" -वराण. १३१२ । ३ पनत्र भा०, ५०, ब०, ज०, वः । ४ पाव चि- आ०, द ब०, ज० | ५ : न्ति त्रिंश- आ०, ५०, द., जा। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ तृतीयोऽध्यायः ११५ षष्ठे पञ्चसमुञ्झिता खलु भवेल्लक्ष्येत्र पञ्चान्तिमे सप्तस्येवमशीतिगस्पद भुवा लक्षाश्चतुभिर्युताः ।।" [ ] अथ सासु नरकभूमिपु नारकाणां प्रतिविशेष दर्शयन्तिनारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेह वेदनाधिक्रियाः ॥ ३ ॥ नारका नरकसत्त्वाः । कथम्भूताः ? नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः । ५ लेश्याश्च कापोतनीलकृष्याः, परिणामान स्पर्शरसगन्धवर्ण शन्दाः, देहाश्च शरीराय, वेदनाश्च शीतोष्णनित तीववावाः, त्रिक्रियाश्च शरीरविकृतयः, श्यापरिणामदेहवेदनानिक्रियाः । नित्यमनवरतम् , अशुभतरा अतिशयेन अशुभाः लश्यापरिणाम देह वेदनाविक्रिया पां नारकाणां ते नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः । प्रथमभूमी दिनोयभूमौ ध 'कापोती लेश्या वर्तते । तृतीयभूमावुपरिधान कापोती, अधो नीला लेश्या भत्रनि । चतुन्या १० भूमौ नीलब लेश्या भवति । पञ्चम्यां चितावुपरिष्ठात्रीला लेश्या अधस्तात् कृण्या । पाठयां धरायां कृष्णव । समम्यां क्षमायां परमाणकश्या भूधिावस्था सुविहारमारसिज प्राऽसातदेतत्रोऽशुभतराः स्पर्शरसगन्धवर्ण शब्दाः परिणामाः भवन्ति । अशुभनामकर्मोदयात. सतस्त्रपि भूमिपु विकृतिप्राप्ताः कुत्सितरूपा हुण्डकपम्याना अशुभर्नरकाया भवन्ति । तत्र प्रश्रमभूमौ प्रथमपटले हस्तत्रयोन्नता देहा भवन्ति । नतः क्रमेण वर्द्धमानास्त्रयोदशे पटले १५ सम थापानि त्रयो हस्ताः पडङ्गुलयोऽशुभतरा देहा भवन्ति । एवं द्वितीयभूमी क्रमवृद्धा एकादशे पटले पञ्चदश चापानि अर्धनीयौ करी अवतः । तृतीयभूमी नवमे पटल एकत्रिंशच्चापान्येकहस्ताधिकानि भवन्ति । चतुर्थभूमी सत्रम पटले हिपपिचापानि विहरताधिकानि भवन्ति । पञ्चम्या भूमौ पञ्चमे पटले पश्चविंशत्यधिकं शतं चापानां भवति । पठ्या भूमा नृतीये पटले साढ़े ट्रे शते धनुषां भयतः । सपन्यां मायां पञ्चशतचापोत्सेधानि शरीराणि २० नारकाणां भवन्ति । ____ अभ्यन्तराऽसदोदये सति चतस्पु भूमिपु नारकाणां बाह्ये उष्णे सति तीवा वेदना भवति । पञ्चम्यां भूमौ उपरि द्विलनविलेय उष्णवेदना भवति । अघ एकलमबिलपु तीन्ना शीतवेदना भवति । अत्र तु पञ्चम्यां भूमौ मतान्तरमस्ति । उपरि पञ्चविंशत्यधिकदिलाक्षविलेपूष्णवेदना, एकलक्षविलेषु पश्चविंशतिहीनेषु शीत वेदना भवति । पाभ्यां सप्तम् च २५ भूमौ तीया शीतव वेदना वर्तते । १ कापोतल- आ०, बा, ३०, ज । २ . भतरा का आ., 4, २०, जा । ३ “तरदेभा०, ब. २० ज० । ४-तीयकरो ता । ५ पंचमनू- आ..। ६. नमपुटपीए. तिनहक्कभागत। अदिउमा गिरप्रिया तद्रियजीवाण तिबदायकग'' –तिकोयप० २।२९ । ७ मा पञ्चभिशासिसहयाधिकद्विलक्षविता' इति पाठेन भाग्यम् । ८ अत्र ‘पानविंशतिसहस्रहीनेनु' इति पाठः सन्तिः । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती [ ३४ 'वयं शुभं करिष्यामः' इति उद्यमेऽप्यशुभैव विक्रियोत्पद्यते। 'वयं सुखहेत नुत्पादयामः' इत्युद्यमेऽपि सति दुःखहेतुमेवोत्पादयन्ति । एवमशुभतरा विक्रिया नारकेषु ज्ञातव्या। भवन्ति चात्र श्लोका: "कायोती तु द्वयोर्लेश्या तृतीये सा च नीलिका । नीला तुरीये नीला च कृष्णा च परतः स्मृता ॥ १॥ मार्गदर्शक :- आचार्य प्रारबागसहामाराससमे नरके मता । धनुः कराङ्गलीरुचाः समुत्रिषडपि क्रमात् ॥ २ ॥ द्विस्तितश्चतुर्वस्ति तेषूष्णा तीव्रवेदना । पश्चमे पञ्चविंशत्याऽधिकयोलक्षयोर्द्वयोः ॥ ३ ॥ मिलानां वेदनोष्णव ततोऽन्यत्र च शीतला । पष्टे च सप्तमे श्वभ्रे शीतैव खलु वेदना ॥४॥" [ ] अर्थतेषां नारकाणां शीतोष्णोत्पादितत्र वेदना वत्तंते, आहोस्विदन्यदपि दुःखं तेषां वर्नते न वेति प्रश्ने सूत्रमिदमाहुः परस्परोदीरितदुःखाः ॥ ४ ।। १५ परस्परस्य अन्योन्यस्य उदीरितमुत्पादितं दुःण्यं यस्ते परस्परोदीरितदुःस्वा नारका भवन्तीति सूत्रार्थः । केन प्रकारेण नारकाणां परस्परं दुःखोत्पादनमिति' चेन् ? उच्यतेभवप्रत्ययेन अवधिज्ञानेन सम्यादृष्टीनां मिध्यादर्शनोदयात् विभङ्गनाम्ना अवधिना विप्रकर्षादेव दुःखहेतुपरिज्ञानाद् दुःखमुत्पन्यते। समीपागमने चान्योन्यविलोकनात् प्रकोपग्निर्जा ज्वल्यते । पूर्व जन्मानुस्मरणाच्च अतिनीबानुवर्षैराश्च भवन्ति । कुर्कुरगोमायुप्रभृत्तिवत् २० स्वाभिघाते प्रवर्तन्ते । निजविक्रियाविहितलोपनकुन्ततोमरशक्तिभिण्डिमालपरशुबासीख गहलमुसलत्रिशुलशुलछुरिकाकट्टारिकातरवारिस्पषकुठारभुसुण्डिशकुनाराचप्रभृतिभिरायुधः निजपाणिपाददन्तश्च छेदनभेदनतक्षणकरटनश्च अन्योन्यस्य अतितोत्रमसातमुत्पादयन्ति । क्रकच विदारणशूलारोपणभ्राष्ट्रक्षेण्णयन्त्रपीलनतरणीनिमजमादिभिश्च दुःखयन्ति । कृत्तिम. त्पादा परिधानं ददति । कूटशाल्मलितरौ रोहावरोहणेन घट्टयन्ति । अङ्गारशय्यायां शाययन्ति । २५ तत्पलमुत्पाद्य तमेव खादयन्ति । ताम्रजपुसीसकादि उत्काल्य मुखे पादिकां दत्वा पाययन्ति | सन्देशलुञ्चन्ति । एवं महादुःखं जनयन्ति । अथ किमेतावदेव दुःखोत्पादनमाहोस्पिदन्योऽपि कोऽपि दुःखप्रकारलंपामस्तीति प्रश्ने योगोऽयमुच्यते २ -नऽन्यो - आ. व.. . ज. १ -मिल्युच्य- भा०, बा, ६०, जा। ३ लामियाते ताः, व० । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः संक्लिष्टासुरांदीरितदुःखाश्च प्राक्चतुर्थ्याः ॥ ५ ॥ प्राग्भवसंभावितानिनोत्रसंक्लेशपरिणामोपार्जितपापकर्मोदयात् सम् सम्बन सन्तन यस क्लिश्यन्ते स्म आर्तरोद्रध्यानसंप्राप्त। ये ते संक्लिष्टाः । असुरत्वापकदेवगतिनामकमप्रकारकर्मोदयादस्यन्ति क्षिपन्ति प्रेरयन्ति परानित्यसुराः। संक्लिष्टाश्च ते असुराश्च संक्लिष्टासुराः । संक्लिष्ट्रासुरैरुदीरितमुत्पादिनं दुःखमसास येषां ते संक्लिष्टासुरादीरितदुःखाः । प्राक ५ पूर्वमेव चतुर्थ्याः । पङ्कप्रभाभूमेः पूर्वमेव रत्नशर्करावालुकाप्रभारवेव तिसृषु नरकभूमिष्त्रसुरोवीरितं दुःखं भवतीति ज्ञातव्यम् । न वधश्चतसृषु असुरोदीरित दुःखमस्तीति ज्ञातव्यम् । सत्रापि ये केचनासुरा अम्बाम्बरीपादयः संक्लिप्टा असुग वर्नन्ने त एवं नारकाणां कु:खमुत्पाव्यन्ति । न तु सर्वेऽप्यसुरा नारकाणां दुःखमुत्पादन्ति । अम्बाम्बरोपादय एवं केचित्पूर्व रादिकं स्मारयित्वा तिष भूमिपु यात्वा नारकान् योधयन्ति । नेपां युद्धं दृष्ट्वा तेपो सुन- १० मुत्पद्यते । अन्येषु प्रोतिहेतुभूतेषु विनोदेषु सत्स्वपि युद्ध कारयतां पश्यतां च मुखमुत्पइते | तादृशः संक्लेशपरिणामः तैरूपार्जितः पूर्वजन्मनीति भावः । भवति चात्र श्लोकः "अम्बाम्बप्रमुखाचारस्मृतिप्रसागर जी म्हाराज योधयन्त्यसुरा भूपु तिसृषु क्लिष्टचेतसः ॥ १ ॥" [ तिलतिलप्रमाणशरीरखण्डनेऽपि तेषामपमृत्यर्न वर्तते । शरीरं पारदवत् पुनमिलति १५ अनपघायुष्ट्यात् । 'घकारः पूर्वक्तिदुःखसमुभयार्थः। तेन तातलोहपुत्तलिकालिङ्गनतप्ततलसेचनाऽयाकुम्भीपचनादिकं दुःखमुत्पादयन्ति ते असुरा इति तात्पथ्यम् । अर्थतेषां किलागुरकाले न त्रुट्यति इत्युक्ते कियस्फियत्परिमाणं तदायुतते इति प्रश्ने सूत्रमिदमाहुः-- तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा २० __ सत्त्वानां परा स्थितिः॥ ६ ॥ यथाक्रममिति पूर्वोक्तमत्र माझं "तासु त्रिंशत' इत्यादि सूत्रे प्राक्तम् । तेनायमधःतेपु नरकेपु सप्तभूम्यनुक्रमेण सत्त्वानां नारकाणां परा उत्कृष्टा स्थितिधेदितव्या । सघानामित्युक्त भूमीनां स्थितिरिति न प्राह्यम् , भूमोना शाश्वतत्वात् । कथम्भूता स्थितिः ? एकत्रिसादशसप्तदशद्वाविंशनित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा । सागरशब्दः प्रत्येक प्रयुज्यते । तेनाय- २५ मर्थः-एकसागरः निसागराः सप्तसागराः दशसागराः सप्तदश सागराः द्वाविंशतिसागराः भयस्त्रिंशत्सागराः उपमा यस्याः स्थितेः सा तथोक्ता । अस्यायमध:रत्नप्रभायां परा उत्कृष्ट स्थितिरकसागरोपमा । शर्करानभायां त्रिसागरोपमा परा स्थितिः । - -- -- -- - ५ ततश्चतस्। अमुरादोरितं दुखं नास्तीति ज । २ सूतवत् ता । ३ -युष्कात् भा०,०.जर, २०। ४ चयः सा- ता०,०। ५. तिः सा- ता०,० Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थवृत्ती मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज [ २६ वालुकाप्रमायां सप्तसागरोपमा परा स्थितिः । पैङ्कप्रभायो दशसागरोपमा परा स्थितिः । धूमप्रभायां सप्रदशसागरोपमा परा स्थितिः । तमःप्रभायां द्वाविंशतिसागरोपमा परा स्थितिः । महातम प्रभायां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा परा स्थितिरिति । अथ विस्तरेण स्थितिस्वरूपं निरूप्यते-रत्नप्रभायां सीमन्तकनाम्नि प्रथमपटले नवति५ वर्षसहस्राणि परा स्थितिवर्त्तते । नरकनाम्नि द्वितीयपटले नवतिलक्षवर्षाणि परा स्थितिरस्ति । रोरुकनाम्नि नृतीयपटले असंख्यातपूर्वकोटयः परा स्थितिर्भवति । भ्रान्तनाम्नि चतुर्थपटले एकसागरस्य दशमो भागः परा स्थितिबकास्ति । एका कोटीकोटिपल्योपमा इत्यर्थः। उद्धान्तनाम्नि पञ्चमे पटले एक सागरस्य पश्चमो भागो द्वे कोटीकोछ्यौ पल्लोपमे इत्यर्थः । सम्भ्रान्तनाम्नि पठे पटले सागरदशभागानां त्रयो भागाः परा स्थिति गति । असम्भ्रान्त१, नाम्नि सप्तमे पटले सागरदशभागानां चत्वारो भागाः परा स्थितिरुदेति । विभ्रान्तनाम्नि अनमे पटले सागराद्ध परा स्थितिः प्रवर्त्तते । त्रस्तनाम्नि नगमे पटले सागरदशभागानां पद् भागाः परा स्थिति आयते । सितनाम्नि दशमे पटले सागरदशभागानां सप्त भागाः परा स्थितिः सिध्यनि । वक्रान्तनाम्नि एकादशे पटले सागरदशभागानामष्ट भागाः परा स्थितिमत्स्यते । अग्रक्रान्तनामिज द्वादशे पटले सागरदशभागानां नव भागाः परा स्थितिः १५ सम्पद्यते। विकान्ननाम्नि बोदशे पटले एकसागरः परा स्थितिः फलति । द्वितीयपृथिव्यां सूरकनाम्नि प्रथमपटल सागरकः सागरकादशभागानां द्वौ भागीच परा स्थितिः फलति । स्तनकनाम्नि द्वितीयपटले सागरकः सागरकादशभागानां चत्वारा भागाश्च पर! स्थितिरास्ते । मनकनाम्नि तृतीयपटल सागरैक: सागर कादशभागानां पड़ भागाश्च परा स्थितिविद्यते। अमनकनाम्नि चतुर्धपटल सागरकः सागर कादशभागानामष्ट्री २० भागाश्च परा स्थितिर्धियते। घाटनाम्नि पश्चमपटले सागरैकः सागरकादशभागानां दश भागाश्च परी स्थितिः प्रभवति । असञ्चाटनाम्नि पप्ठे पटले. सागरी द्वी सारैकादशभा. गानामेको भागश्च पर! स्थितिः प्रादेति । जिह्वनाम्नि सप्तमे पटले सागरी द्रौ सागरकादशभागानां त्रयो भागाश्च पर स्थितिः प्रवर्तते । जिहिकनाम्न्याष्टमे पटल द्वौ सागरी सागर कादशभागानां पञ्च भागाश्च परा स्थितिः प्रजायते । लोलनाम्नि नवमे पटले द्वौ सागरौं २५ सागरकादशभागानां मस्त भागाश्च परा स्थितिः “प्रसि यति । लोलुपनाम्नि दशमे पटले द्वौ सागरी मागरकाशभागानां नव भागाश्च परा स्थितिः प्रोत्पद्यते । स्तनलालुपनाम्नि एकाददो पटले त्रयः सागराः परा स्थितिः प्रफलति । मृतीग्रपृथिव्यां तप्तनाम्नि प्रथमपटले त्रयः सागराः सागरनवभागानां चत्वारश्च परा स्थितिः सम्भवति । द्वितीये तपिननाम्नि पटले त्रयः सागराः सागरनवभागाना ... -- १ पनमा अ, ब, द०, ज० । २ -तिर्भव-- मा०, २०, दर, ज० । ३ . तिनंआ०, ५०. दर,०। ४ प्रसिध्यति ज । ५ प्रजायते ज०। ६ प्रतिपयने आ०, ६० । प्रपात जा । प्रिसध्यति । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ तृतीयोऽध्यायः १९९ मष्ट भागाञ्च परा स्थितिः समुदेति । तपननाम्नि तृतीयपटले वस्वारः सागराः सागरनवभागानां त्रयो भागाश्च परा स्थितिः सम्प्रवर्तते । तपननाम्नि चतुर्थपटले सागराश्रत्वारः भागात भागाच परा स्थितिः सम्प्रजायते । निदाघनाम्नि पञ्चमे पटले सागराः पञ्चगतिविभांगायाचार्य सम्बिति । प्रज्वलितनाम्नि पते पटले पञ्च सागराः सागरनवभागानां पद् भागाश्व परा स्थितिः समुत्पद्यते । उज्वलितनाम्नि सप्तमे पटले पसागराः सागरनवभागानामेको भागश्च परा स्थितिः 'सम्पद्यते । संज्वलितनाम्नि अष्टमे पटले षट् सागराः सागरनवभागानां पञ्च भागाश्च परा स्थितिः सनिष्पद्यते । संप्रज्वलितनाम्नि नवमे पटले सागराः सप्त परां स्थितिः संप्रफलति । चतुर्थथिव्याम् आरनाम्नि प्रथमपटले सप्त सागराः सागरसप्तभागानां प्रयो भागाश्च परा स्थितिः समस्ति । तारनाम्नि द्वितीयपटले सागराः सप्त सागरसमभागानां १० षड्भागाश्च परा स्थितिः समास्ते । मारनाम्नि तृतीये पटले सागरा अष्ट सागरसप्तभागानां द्वौ भागौ च परा स्थितिः संजागतिं । वर्चस्कनाम्नि चतुर्थपटले सागरा अष्ट सागर सप्तभागानां पञ्चभागाश्च परा स्थितिः संविद्यते । तमकनाम्नि पचमपटले सागरा नव सागर सप्तभागानामेका भागश्च परा स्थितिः सन्ध्रियते । खडनाम्नि षपटले सागरा नव सागर सप्तभागानां चत्वारो भागाश्च परा स्थितिः समुद्भवति । खडखडनाम्नि सप्तमे पटले दशसागराः १५ परा स्थितिरुज्जायते । ५. पञ्चमपृथिव्यां तमोनाम्नि प्रथमपटले एकादश सागराः सागरपचभागानां द्वौ भागौ च परा स्थिति: परिसिध्यति । भ्रमनाम्नि द्वितीयपटले सागरा द्वादश सागरपचभागानां चत्वारी भागाञ्च परा स्थितिः पर्युदेति । झषनाम्नि तृतीयपटले चतुर्दश सागराः सागरपश्र्चभागानामेकी भागश्च परा स्थितिः पर्युत्पद्यते । अन्धनानि चतुर्थ पटले पञ्चदश सागराः २० सागर पञ्चभागानां त्रयो भागाश्च परा स्थितिः परिसम्पद्यते । तमिस्रनाम्नि पञ्चमपटले सागराः सप्तदश परा स्थितिः परिनिष्पद्यते । पृथिव्यां हिमनाम्नि प्रथम पटलेादश सागराः सागरत्रिभागानां द्वौ भागौं च परा स्थितिः परिफलति । वद्द लनाम्नि द्वितीयपटले विशतिसागराः सागरत्रयभागानामेको भागश्च परा स्थितिः परिजागतिं । लल्लकनाम्नि तृतीयपदले द्वाविंशतिसागराः परा स्थितिः २५ परिविद्यते । सप्तमपृथिव्यामप्रतिष्ठाननाम्नि पदले सागरास्त्रयस्त्रिंशत् परा स्थितिबेोद्धव्या । “प्रथमभूप्रथम पटले वर्षसहस्राणि नवतिरुत्कृष्टा । स्थितिरेतावन्त्येवं द्वितीयके भवति लक्षाणि ॥ १ ॥ भवन्त्यत्रार्याः ? समुल - आ, ब०, ६० ज० । सम्प्रपद्यते ० २ तावत्येव भ० दु०, ब० ज० ३० Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 १० १२० १५. 2 २५ तत्वार्थवृत्तौ पूर्वाणां खलु कोट्योsसंख्याताः स्युस्तृतीयके | तुर्ये सागरदशमो भागः पञ्चमके पञ्चमश्चैव ॥ २॥ मार्गदश भगाम स्तुवन्ति । सप्तम चत्वारो भागा अष्टके || ३ || नचमे दशभागानां षड्भागा दशमके तु सप्तैव । एकादशेऽष्ट नव तु द्वादशकेऽब्धिस्त्रयोदशके ॥ ४ ॥ अथ कथयामि मुनीनां द्वितीयभूप्रथमपटकेऽपिच । एकादश भागानां द्वौ भागौ सागरस्यैव ॥ ५ ॥ पटले द्वितीयधर्भागात्वार एव च तृतीये । अब्धिः षड्भागयुतचतुर्थोऽब्धिः कलाचष्ट ॥ ६ ॥ पञ्चमधिर्दशके (?) पठेऽधिरेक एव भाग | सके द्वावन्धी त्रयश्च भागा भवन्त्येव ॥ ७ ॥ arat अष्टम भागाः पञ्चैव सागरौ नवमे । भागाः सप्त च दशमे नव भागाः सागरावपि च ॥ ८ ॥ उदय एकादशके त्रयस्तु तीयदमा प्रथमपदले | अधित्रयमपि भागा नवभागानां च चत्वारः ॥ ९ ॥ अधियाष्टभागाद्वितीय के सिन्धवस्तृतीये तु । त्रितयं तुर्ये ते चैव सप्त कलाः ॥ १० ॥ पञ्चपके द्वयंशयुताः शशध्वजाः पञ्च षठके पञ्च । भागाः षट् सप्तमके पब्यय शस्तथा चैकः ।। ११ ॥ अथ वीचिमालिनः स्युः पटष्टमे भागपञ्चकेन युताः । नव महार्णवानां सप्तकमिति साधुभिः कथितम् ।। १२॥ तुर्यभू प्रथम पटले शशध्वजाः सप्त सप्तभागानाम् । भागास्य द्वितीये सप्ताम्बुयश्च षड्भागाः ॥ १३ ॥ अष्ट तृतीयेऽधयो भागौ द्वौ तुर्य केऽष्टपञ्चकलाः | नव पञ्चमे च षष्ठे चतुरंशा दश तु सप्तमगाः ॥ १४ ॥ | ३/६ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घा] नृतीयोऽध्यायः पञ्चमभूप्रथमेऽस्मिन्नेकादशपञ्चभागभागयुगम् । द्वादशचतुरंशयुताः द्वितीयकेऽतश्चतुर्दशांशश्च ॥ १५ ॥ तुयें पञ्चदशांशास्त्रपः परं पञ्चमे तु सप्तदश । षष्ठभूप्रथमपर्टले सदशभगवर्थ यशवविहिवागर जी महाराज अम्युधिविंशतिरंशो द्वितीयके विंशतिम्वृताये तु । अर्णवयुगेन सप्तमभुवि त्रयस्त्रिंशदम्बुधयः ।। १७ ।" [ प्रथमे पटले जघन्यमायुर्दशवर्षसहस्राणि भवन्ति । उत्कृष्टं तु 'पूर्वमेयोक्तम् । यत्पथमपटले उत्कृष्टमायुस्तद्वितीयपदले जघन्यं ज्ञातव्यम् । एवं सतस्यपि नरकेब्वेकोनपञ्चाशत्पटलेघायुरनुक्रमी ज्ञातव्यो यावत सप्तमे नरके एकोनपञ्चाशत्तमे पटले द्वाविंशतिसागरोपमा जघन्या स्थितिरगन्तव्या । तेषु नरकेषु मद्यपायिनो मांसभक्षका मखादी प्राणिघातका असत्यवादिनः परद्रव्यापहारकाः परस्त्रीलम्पटा महालोभाभिभूता: रात्रिभोजिनः स्त्री-बाल-वृद्ध-ऋपिविश्वासघातका जिनधर्मनिन्दका रौद्रध्यानाविष्टा इ.यादिपापकर्मानुष्ठातारः समुत्पद्यन्ते । उपरिपादा अधोमस्तकाः सर्वेऽपि समुपद्य अधः पतन्ति । दीर्घकालं दुःयान्यनुभवन्ति । मामात्र भोजन मोतुमिच्छन्ति, आसुरीमात्रमपि न प्राप्नुवन्ति । समुद्र जलं पिपासन्ति, जलबिन्दुमात्रमपि १५ न प्राप्नुवन्ति । सदा सुखं वाञ्छन्ति, चक्षुरुन्मेषमात्रमपि कालं सुखं न लभन्ते । तथा पोक्तम् "च्छिणिमीलणमित्तं पत्थि सुहं दुक्खमेव अणुबद्धं । णिरये गेरइयाणं अहोणिसं पच्चमाणाणं ॥१॥" [तिलोयसा० गा० २०७] १० "अंसण्णि-सरिसव-पक्खी-भुजगा-सिंहि-स्थि मच्छ-मणुया य । पढमादिमु उप्पत्ती अडवारा दोण्णि वारुत्ति ॥" [ अस्यायमर्थः-असज्ञिनः प्रथमनरकमेव गच्छन्ति । सरीसृपा द्वितीयमेव नरकं गच्छन्ति । पक्षिणस्तृतीयमेव नरकं व्रजन्ति | भुजगाश्चतुर्थमेव नरकं यान्ति । सिंहाः पसममेव नरकं जिहते। स्त्रिय: षष्ठमेव । मत्स्याः मनुष्याश्च सप्तममेत्र नरकर्मि यून्ति । २५ १ पूर्वोक्तम् श्रा०, २०, य९, ज० । २ -नुष्ठान्नारकाः स- अ० । ३ अधोमखाः ०, व., 40,4e | ४ अक्षिनिमीलनमात्र नास्ति सुख दुख मेव अनुबद्धम् | नरके नारकाणामहर्निशं पच्यमानानाम् ॥ संज्ञिसरीसृपपक्षिभुजगसिंहस्त्रीमत्स्यमनुजाध । प्रथमादिषु उत्पत्तिरष्टवारान् द्विचार यावत् ।।६-यमेव तू-ता, प. ७ विरहन्ति आ०, १०, २०, ज.1८-मियन्ति मा., ०,०, मा। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज १२२ तत्त्वार्थवृत [०७ यदि प्रथम नरकं कचिदतिया निरन्तरं गच्छति सहि अष्टनारान । यदि द्वितीयं नरकं निरन्तरं गच्छति तहिं सप्तधारान् व्रजति । तृतीयं पड्वारान् व्रजति । चतुर्थ पवान् । पञ्चमं चतुर्वारान् । षष्टं त्रीन् वारान्। सप्तमं द्वौ वाराविति । सप्तमान्नर का - निर्गत स्तिर्यगेव भवति, पुनश्च नरकं गच्छति । पष्ठान्निर्गतो नरत्वं यदि प्राप्नोति तर्हि ५ देशप्रतित्वं न प्राप्नोति, सम्यक्त्वं तु न निषिध्यते । पचमान्निर्गतः देशप्रतित्वं लभते न महात्रत्वम् । चतुर्थान्निर्गतः कोऽपि निर्वाणमपि गच्छति । तृतीयाद् द्वितीयात्प्रथमा विनिर्गतः कचित्तीर्थङ्करोऽपि भवति । अथेदानीं तिर्यग्लोकस्वरूपनिरूपणार्थं सूत्रमिदमाहुराचार्याः जम्बूद्वीपलवणांदादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ॥ ७ ॥ जम्बूद्वीपश्च] जम्बुनामद्वीपः, लवणवत् क्षारमुदकं जलं यस्य स बोदः, जम्मूto जम्बूद्वीपवणादौ, तावादी येषां द्वीपसमुद्राणां ते जम्बूद्वीपलवणोदादयः । जम्बूद्रीपादयो द्वीपा लवणोदादयः समुद्राः द्वीपसमुद्राः । कथम्भूताः ? शुभनामानः शुभानि मनोज्ञानि यानि नामानि लोके वर्तन्ते तानि शुभानि नामानि येषां द्वीपसमुद्राणां ते शुभनामानः । तथा हि- जम्बुद्वीपनामा प्रथमो द्वीपः । लवणोदनामा प्रथमः समुद्रः । १५ आदिशब्दात् धातकीखण्डनामा द्वितीयो द्वीपः । कालोदनामा द्वितीयः समुद्रः । पुष्कर वरनामा तृतीयो द्वीपः । पुष्करवरनामा तृतीयः समुद्रः । वारुणीपरनामा चतुर्थो द्वीपः । वारुणीवरनामा चतुर्थः समुद्रः । क्षीरवरनामा पश्चमो द्वीपः । क्षीरवरनामा पमः समुद्रः । घृतवरनामा पष्ठों द्वीपः । वृतबरनामा षष्ठः समुद्रः । इतुवरनामा सप्तमो द्वीपः । इक्षु. वरनामा सप्तमः समुद्रः । नन्दीश्वरनामा अष्टमः समुद्रः, नन्दीश्वरनामा अष्टमो द्वीपः । २० अरुणवरनामा नवमो द्वीपः । अरुणवरनामा नवमः समुद्रः । एवं स्वयम्भूरमेणद्वीपपर्यन्ता असंख्येया' द्वीपाः स्वयम्भूरमणपर्यन्ता असंख्येयाः समुद्रा ज्ञातव्याः । असंख्येया इत्युक्ते कियन्तो द्वीपसमुद्राः ? पञ्चविंशत्युद्धार पल्यकाटीनां यावन्ति रोमखण्डानि भवन्ति तावन्तो द्वीपसमुद्रा ज्ञातव्याः । मयफल! मेरोकत्तरस्यां दिशि उत्तरकुरुनामोत्तमभोगभूमिमध्ये जम्बूवृक्षो वर्तते । स सदा २५ शाश्वतो नानारत्नमयो मरकतमणिमयस्कन्धशाखः स्फटिकमणिमयपुष्पमञ्जरी इन्द्रनीलमणि कृष्णफल इत्यर्थः रितमणिमयपत्रः । जम्बूने घोषितप्राक्शाखः तद्वृक्षस्य चतुर्दितु चत्वारः परिवार वृक्षाः । तथा रक्षक (कम् ) चत्वारिंशत्सहस्राणि एकं शतं पञ्चदश व परिवारवृक्षावर्त्तते । एवं सर्वेऽपि जम्बूवृक्षा मिलित्वा वृक्षाणामेकं लक्षं चत्वारिंशत्सहस्राणि एकं शतं एकोनविंशतिश्व, मूलवृक्षेण सह विंशतिश्च वृक्षा भवन्ति । ९४०१२० । १० १ - भुई ज ६० ज० त० ॥ २ - के प्रय- आ०, ब० द० ज० । ३-श्वरवरना ४ वरवरना सा०, ब० । ५ -- आ०, ब० ज०, प० । ६ - यढ़ी- वा०, व० अ० । ७ शप सा० आ० ज० । | C Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] तुतीयोऽध्यायः १२३ तथा चोकमार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज "चत्वारिंशत्सहस्राणि लक्षं चैकोनविंशतिः । शतं तदर्घोत्सेधाः स्युः जम्बोर्जम्बुतरोरिमाः ॥" [ ] पञ्चशतयोजनोत्सेधो मूलवृक्षः। एतेन जम्बूवृक्षेणोपलक्षितत्याजम्बूद्वीप इत्युच्यते । यादशो जम्मू क्षः तादृशो देवकुरुमध्ये शाल्मलिवृक्षोऽपि वर्तते । यावन्तो वृक्षास्तावन्तो ५ रत्नमया जिनप्रासादा सातव्याः। एवं धातकोवृक्षोपलक्षितो धातकीद्वीपः । पुष्करवृक्षोपलक्षितः पुष्करद्वीपः। अर्थतेषामसंख्येयद्वीपसमुद्राणां विस्ता सूचनार्थ सनिवेशकथनार्थ संस्थानविशेषनि रूपणार्थश्च सूत्रमिदं प्रतिपादयन्ति दिदि चिष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाऽऽकृतयः ॥ ८॥ १० द्विििर्षष्कम्भो द्विगुणद्विगुणविस्तारो येषां द्वीपसमुद्राणां ते वितिर्विष्कम्भा जातिक्रियाद्रव्यगुणैर्युगपत् प्रयोकुाप्तुमिच्छा वीप्सा वीप्सार्थे “पदस्य" [शाकटा० १।२।९२]। इति सूत्रेण द्विःसह द्विवचनम् । अत्र विष्कम्भस्य द्विगुणत्वव्याप्त्यर्थे वीप्सा वर्तते । तेन विष्कम्भस्य गुणवचनत्वात् एषा गुणधीप्सा वर्तते । उक्तश्च जात्यादिशब्दानां लक्षणम् "द्रष्यक्रियाजातिगुणप्रभेदैर्डविथकत द्विजपाटलादौ । शब्दप्रवृत्ति मुनयो वदन्ति चतुष्टयी शब्दविदः पुराणाः॥१॥" [ ] कया रीत्या द्विगुणद्विगुणविष्कम्भो द्वीपसमुद्राणां भवति ? इत्याह-एकलक्षयोजनविस्तारो जम्बुद्वीपः । तद्विगुणविस्तारः द्विलक्षयोजन बिस्तारो लवणोदसमुद्रः। तस्माद् द्विगुणविस्तारश्चतुर्लक्षयोजनविस्तारो धातकीद्वीपः। तस्माद् द्विगुणोऽष्टलक्षयोजनविस्तारः कालोदसमुद्रः। तस्माद् द्विगुणः षोडशलक्षयोजनविस्तारः पुष्करवरद्वीपः । तस्माद् द्विगुणो २० द्वात्रिशल्लक्षयोजनविस्तारः पुकरवरसमुद्रः। तस्माद् द्विगुण चतुःषष्टिलक्षयोजनविस्तारो थारुणीवरद्वीपः। तस्माद् द्विगुण एककोट्यष्टाविंशतिलक्षयोजनविस्तारो बारुणीवरसमुद्रः । तस्माद् द्विगुणो द्विकोटिषट्पञ्चाशलक्षयोजनविस्तारः क्षीरवरद्वीपः। तस्मात् द्विगुणः पञ्चकोटिद्वादशलक्षयोजनविस्तारः झीरवरसमुद्रः। तस्माद् द्विगुणो दशकोटिचतुविशतिलक्षयोजनविस्तारो घृतबरद्वीपः । तस्माद् द्विगुणो विशतिकोट्यष्टचत्वारिंशल्लक्षयोजन- २५ विस्तारो घृतवरसमुद्रः। तस्माद् द्विगुणश्चत्वारिंशत्कोटिषण्णवतिलक्षयोजनविस्तार इन्वरद्वीपः । तस्माद् द्विगुण एकाशीतिकोटिदिनविलक्षयोजनविस्तार इनुवरसमुद्रः । तस्माद् द्विगुण एकशतत्रिषष्टिकोटिचतुरशीतिलक्षयोजनविस्तारो नन्दीश्वरयर द्वीपः । तस्माद् १ लचा चै- आ०,०,०, ज०, ता । २ पंचविंशतिघा- म०, ५०, द, ज० । • "त्य पु- मा०, ब०, ३०, जः। ४ -योक्तव्यामिच्छा प्रा०, य०, २०, ज. । ५ -गोसR०, ५०, १०, ज०। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती १२४ [ $12 त्रिगुणः सप्तविंशतिकोट्यधिकत्रिशतकोटि अष्ट्रपप्रिलक्षयोजनविस्तारो नन्दीश्वरवर समुद्रः । तस्माद् द्विगुणः षटूत्रिंशल्लभाषिकाः पञ्चपञ्चाशत्कोटयः षट्शतकोटयः एतावद्योजन विस्तारः अरुणवरीपः । तस्माद् द्विगुणो द्वासमतिरक्षाधिकाः दशकोटयस्त्रयोदशशतकोटयः एवाबयोजनविस्तारोऽरुणवरसमुद्रः 'पर्यन्तं गहनं गणितशास्त्रम्' [ ] इति वचनात् ५. कियत्पर्यन्तं गण्यते ? अनया रीत्या स्वयम्भूरमणपर्यन्तं द्विगुणविष्कम्भाः द्वीपसमुद्राः असंख्येया ज्ञातव्याः । अत्रायं विशेष:-- यथा जम्बूद्वीपलवण समुद्रविस्तारो द्रयसमुदायात त्रिनयोजनप्रमिता घातकीखण्डद्वीपः एकलक्षेणाधिकस्तथा असंख्येयलीपसमुद्रवितारेभ्यः स्वयम्भूरमणसमुद्र विस्तार एकलक्षणाधिको ज्ञातव्यः । पुनरपि कथम्भूता द्वीपसमुद्राः ? पूर्वपूर्व परिक्षेपिणः । पूर्व पूर्व प्रथमं प्रथमं १० परिक्षिपन्ति समन्तात् वेष्टयन्तीत्येवंशीलाः पूर्व पूर्व परिक्षेपिणः । जम्बुद्वीपो लवणसमुद्रेण वेष्टितः । लवणसमुद्रः धातकीखण्डद्वोपेन बेष्टितः । धातकीखण्डद्वीपः कालोदसमुद्रेण वेष्टितः । कालोदसमुद्रः पुष्करवरद्वीपेन वेष्टितः । पुष्करवरद्वीपः पुष्करवरसमुद्रेण वेष्टितः । अनया रीत्या पूर्वपूर्व परिक्षेपिणः, न तु नगरग्रामपत्तनादिवत् यन्त्र तत्र स्थिताः । पुनरपि कथम्भूता द्वीपसमुद्राः ? वलयाकृतयः । गजदन्तकाचादिकृतानि कङ्कणानि स्वीकर भूषणानि १५ वयन्युच्यते । तद्वत्सर्वेऽपि द्वामुक्ति तुला कार्य भी सुधार नीलाः न पञ्चकोणाः, न पट्कोणाः इत्याद्याकाररहिताः, किन्तु वृत्ताकारा एव । अथ जम्बूद्रीपाद द्विगुणद्विगुणविस्ताराः किल लवणसमुद्रादयो वर्तन्ते स जम्बूद्दीप एक "कियद्विस्ता भवति, यद्विस्तारादन्यविस्तारो विज्ञायते ? इत्युक्ते तत्स्वरूपमाहुः - तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्ती योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः ॥ ६ ॥ तेषां द्वीपसमुद्राणां मध्यरतन्मध्यः तस्मिन् तन्मध्ये सर्वद्वीपसमुद्राणां मध्यप्रदेशे जम्बूद्वीपो वर्तत इत्यर्थः । कथम्भूतो जम्बूदीपः ? मेरुनाभिः, मेरुः सुदर्शननामा कनक पर्वतः एकसहस्रयोजनभूमिमध्ये स्थितः नवनवतिसहस्रयोजन बहिरुन्नतः । श्रीभद्रशालवनादुपरिपञ्चशतयोजनलभ्यनन्दनयनः नन्दनवनानिषष्टियोजन सहस्रं सम्प्राप्य सौमनसवनः । सौमनसवनात् सार्द्धपञ्चत्रिंशत्सहस्रयोजनराम्यपाण्डुकवनः । चत्वारिंशद्योजनोतचूलिकः, २५ सा चूलिका सार्द्ध पत्रिंशत्सहस्रयोजनमध्य एव गणनीया । स एवंविधो मेरुनाभिर्मध्यप्रदेशो यस्य जम्बूकीपस्य मेरुनाभिः । पुनरपि कथम्भूतो जम्बूद्रीपः ? वृत्तः वर्तुलः । आदित्यविम्वद्वर्तुलाकार इत्यर्थः । 'पुनरपि कथम्भूतो जम्बूद्वीपः १ योजनशतसहस्रविष्कम्मः । शतानां सहस्रं शतसहस्रम् योजनानां शतसहस्रं योजनशतसहस्रम् योजन 1 १ पन्त द० ज० च । २ यानि कथ्यन्ते ५० ज० । ४ किल-आ०, ब०, ६०, जय ६ पुनः कि विशिष्टी ज- आ० ० ० ० ० ० ० ज ३ न चतु- आ० ५ किंवान् वि आ०, ब० द० ज० Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृतीयोऽध्यायः १२५ झवसानं विष्कम्भो विस्तारो यस्य जम्बूद्वीपस्य स भवति योजनशतसहस्रविष्कम्भः, एक आयोजनविस्तार इत्यर्थः । उपरिस्थितवेदिकेन सालेन सह लक्षयोजनविष्कम्भः इति भाषः । स जम्बूतीपसालः अष्ट्रयोजनोच्चः, मूले द्वादशयोजनविस्तारः, मध्येऽष्टयोजन• बिस्वरः, उपरि चाष्टयोजनविस्तारः । तत्सालोपरि रत्नसुवर्णमयी वेदिका पोभयपाव बसते । सा वेदिका क्रोशद्वयोन्नता वर्तते । तस्या वेदिकाया विस्तारो योजनमेकं क्रोशश्चकः ५ धनुषां सहस्रं सप्तशतानि पश्चाशद्युतानि च। तद्वेदिकादयमध्ये सालस्योपरि महारगदेवसासादाः सन्ति। ते प्रासादाः रत्नमया बनवृक्षवापीतडागजिनभवनमण्डिता अनादिनिधनासिन्ति । तस्य दुर्गस्य पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरेषु चत्वारि द्वाराणि वर्तन्ते । तामानि-- विजयवैजयन्तजयन्तापराजितानि क्रमाद्विज्ञेयानि । तद्वारोच्चलमष्टयोजनानि, विस्ताश्चतुबोअनानि, चतुर्दारा जिनप्रतिमा अष्टनातिहार्यसंयुक्ता वर्तन्ते । तस्य जम्बू द्वीपस्य १० परिपत्रीणि योजनलक्षाणि सप्तविंशत्यमे द्वे शते च योजनानां यः क्रोशा अष्टा वरात्यग्रं धनु शतं घ अङ्गुलयस्त्रयोदश च किञ्चिाधिकम गुलं च । तस्मिन् जम्बूद्वाप पदकुलपवतात भर्गिदर्शक:-"आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज भगवान प्राह - भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकोरपणवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ॥१०॥ १५ ___ भरतश्च हैमवतश्च हरिश्च विदेहश्व रम्यकश्च हैरण्यातश्च ऐरावतश्च भरतहमयतहरिविदेहरम्यक हैरण्यवतैरावताः । ते च ते वर्ष भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकई रण्यवतैरावतवर्षाः । क्षेत्राणि क्षियन्ति अधिवसन्ति प्राणिन एध्विति क्षेत्राणि । तथा हि भरतवर्षी भरतक्षेत्रं प्रथम क्षेत्रम्। हिमवतो मध्ये भत्रो हैमवतवर्षो द्वितीय क्षेत्रम् । हरति जघन्यभोगभूमितयाऽऽर्याणां दुःखमिति हरियर्पस्तृतीय क्षेत्रम् । विगतदेहा मोक्षगामिनः २० प्रायेण मुनयो यत्र स विदेहबर्षश्चतुर्थ क्षेत्रम् । रम्यं मनोहरं मध्यमभोगभूमितयाऽऽर्याणां कं सुखं यस्मिन्निति रम्यकवर्षः पञ्चम क्षेत्रम। हिरण्यवान् सुवर्णमयत्वान्छिखरी पर्वतस्तस्य दक्षिणतो भयो हैरण्य प्रतवर्षो जघन्यभोगभूमिरूपं पान क्षेत्रम् । इरावान् समुद्रस्तस्य दक्षिणतो भव ऐरावतवर्षः सप्तमं क्षेत्रम् । एतान्यनादिसिद्धनामानि सप्त क्षेत्राणि भवन्ति । नथा हि हिमवत्पर्वतपूर्वसमुद्रदक्षिणसमुद्रपश्चिमसमुद्राणां चतुर्णा मध्ये गङ्गासिन्धुनदीद्वयेन २५ विजया पर्षतेन च प्रखण्डीकृतः चटापितचापाकारो भरतवर्षः कथ्यते । तस्य भरतवर्पस्य मध्ये पञ्चाशयोजनयिस्तारः पञ्चविंशतियोजनोत्सेधः क्रोशंकाधिकपट योजनभूमिमध्यगतो रजतमयो विजयार्धपर्वतोऽस्ति । तत्र विजयापर्वने भरतक्षेत्रसम्बन्धि रच्छखण्डेषु च तुर्वकालस्यान्तसदशकालो वर्तते । तेन तत्र उत्कर्षेण पश्चशत धनुरुत्मधमझ भवति । १-हसूत्रमिदम 10 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ तत्त्वार्थवृत्तो [३।१० जधन्येन तु सप्रहस्तप्रमाणां शरीरं भवति । उत्कण कोटिपूर्वमायुर्भवति । जघन्येन' विंशत्यप्रं शतं वर्षाणामायुर्भवति । उक्तश्च "भरते म्लेच्छखण्डेषु विजयार्द्धनगेषु च । चतुर्थप्तमयाद्यन्ततुल्यकालोऽस्ति नापरः ।।" [ विजया पर्वताइक्षिणस्यां दिशि गङ्गासिन्धुमहानदीद्वयमध्येऽयोध्या नगरी वर्तते । विजया पर्वतादुत्तरस्यां दिशि क्षुद्र हिमवनपर्वताद्दक्षिणस्यां दिशि गङ्गासिन्धुमहानदीद्रयमध्ये म्लेच्छखण्डमध्यवर्ती वृषभनामा गिरिः पर्यतोऽस्ति । स एकयोजनशतोन्नतः पञ्चाशद्योजनविष्कम्भायाम! सुवर्णरत्नमयो वनवेदिकातोरणसंयुक्तो जनचेत्यसहितश्च । तत्र पर्वते पक्रवर्ती निजप्रसिद्धिं लिखति । क्षुद्रहिमवत्पर्वतमहाहिमवत्पर्वतयोर्मध्ये पूर्व पश्चिमसमुद्रयोश्च १० मध्ये हैमत्रतं नाम क्षेत्रं वर्तते । तत्क्षेनं जधन्या भोगभूमितते । हैमवतक्षेत्रमध्यप्रदेशे शब्दवान नाम पर्वतो वर्तते । स पर्वतः पटहाकारो वर्तुलाकारः एकसहस्रयोजनोन्नतः सार्द्धद्विशतयोजनभूसिमध्यगतः परि मले बायोजनसहनविष्टासायामः किश्चिदधिकयोजनत्रिसहस्वपरिक्षेपः । तत्र गव्यूत्युत्सेधमङ्गम् । पल्यमेकमायुः। प्रियाश्यामं शरीरम् । एकान्तरेणा मलकप्रमाणं" भोजनम् । अन्स्यनयमासेषु गर्भ उ.पद्यते । स्त्रीपुरुपयुगलं जायते । १५ पूर्वयुगलं तुसेन जृम्भया च म्रियते । विद्युदिव तच्छरीरं विघटते । नबीनं युगलं सप्तदि यसान्निजागुष्ठापनेनोत्तानशयं तिष्ठति । तदनन्तरं सप्तदिवसान भूमी रिति । तृतीयसमाहेन मधुरभाषी स्खद्भिः पादैर्गच्छति । चतुर्थसप्ताहेन स्थिरपाजति । पञ्चमसप्ताहेन कलागुणान् धरति । षष्ठसप्ताहेन निर्विकल्प तारुण्यं प्राप्य भोगान् भुन्के । सप्तमसप्ताहेन सम्यक्त्वहणयोग्य भवति । तथा चोक्तम्२० "सप्तोत्तानशया लिहन्ति दिवसान् स्वाङ्गुष्ठमास्तितः को रिङ्गन्ति ततः पदैः कलगिरो यान्ति स्खलद्भिस्ततः । स्थेयोभिश्च ततः कलागुणभृतस्तारुण्यभोगोद्गताः सप्ताहेन ततो भवन्ति सुगादानेऽपि योग्यास्ततः॥१॥" [सागारध० २।६८] एवं सर्वाणि युगलानि दशगव्यूत्युन्नतदशविधकल्पवृक्षोत्पन्नभोगान् भुजते । पुरुषः २५ त्रियमायेति वक्ति । स्त्री पुरुषमार्य इत्युक्त्वा आह्वयति । तेन कारणेन ते भोगभूम्युद्भवाः मनुध्या आर्याः कथ्यन्ते । अथ के ते दशप्रकाराः कल्पवृक्षाः ? प्रथमे मद्याशाः कल्पवृक्षाः ते मा सन्ति । ममं १- पञ्चविंसत्यप्रशतन- श्रा, ९०, बा, ज । २-काली न वापर: t०, ६०, ब०, ज० । ३ परिधिक्षत्रः म । ४ -मन कल्पम- आ०, ६० ज०। ५ -जमा- ता., च | ६ -युगलेषु तेन आ०, १०.ज०,०। ७ रङ्गति सा०, ०। ८-स्पता-१० । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.] तृतीयोऽध्यायः नाम मद्यं न भवति । किं तर्हि ? क्षीरदधिसर्पिरादिसुगन्धसलिलपानकं भवति । कामशक्तिजनकत्वान्भवमित्युपचर्यते । द्वितीयाः कल्पवृक्षा वादिनाङ्गा भवन्ति । ते मृदङ्गपटहझल्लरीभेरीभम्मातालफंसतालघण्टावेणुवीणास्वरमण्डलादीनि बादित्राणि फलन्ति तृतीयाः । कल्पवृक्षाः भूपणाहुनामानः कटककंटिसूत्रहारन पुरमुफुटकुण्डलामुलीयकादीनि भूषणानि फलन्ति । चतुर्थाः कल्पवृक्षा माल्याङ्गनामानः अशोकचम्पकपारिजातशतपत्रकुमुदनीलोत्पल. ५ सौगन्धिकजातीकेतकीकुबनकनवमालिकाबकुलादिमालाः फलन्ति । ज्योतिरकल्पमा निजोद्योतेन सूर्यादीनामपि तेजो निस्तेजयन्ति । ज्योतिरहु द्योतेन भोगभूमिजाश्चन्द्रसूर्यादीन तु पश्यन्ति । दीपारकल्पवृक्षाः प्रवालकुसुमसदृशान् प्रदीपाम् फलन्ति । तेभ्यो दीपान गृहीत्या भोगभूमिजा निजगृहमध्येषु सान्धकारप्रदेशेषु प्रविशन्ति । गृहाङ्ग कल्पवृक्षाः प्राकारगोपुरसंयुक्तसमभूमरत्नमयप्रासादरूपेण परिणन्ति । भोजनाङ्गकल्पवृक्षाः परससंयुक्तम- १८ मृतमयं दिव्यमाहारं फलन्ति | भाजनारकल्पवृक्षा मणिसुवर्णमयभृङ्गारस्थालय लककरककुम्भादिकानि भाजनानि फलन्ति । वखाङ्गकल्पवृक्षा चीनाम्बरपट्टकूल नेत्रसूत्रमयकालीदेशायुद्भवसदशानि वस्त्राणि फलन्ति । ___ तत्र अमृतरसायनस्वादूनि चतुरङ्गुलप्रमाणानि बापच्छेद्यान्यतिकोमलानि तृणानि भवन्ति । तानि पञ्चवर्णनावश्चरन्ति । तत्र भूमिः पन्चरत्नमयी उद्गतिंतदर्पणसदशी वर्तते । १५ विद्रुममणिसुवर्णमयाः कचिकचिन् क्रीडापर्वता अपि सन्ति । पापीतहागनयो रममयसोपानाः सन्ति । नदीतटेपु रत्नमयचूर्णवालुका पर्तते । तत्र पम्चेन्द्रियास्तियब्धोऽविरोधिनोऽमांसाशिनोऽसादिकाः सन्ति। विकलत्रयं न वर्तते । तत्र मृदुहृदया अकुटिलपरिणामा मन्दकपायाः सुविनीताः शीलादिसंयुक्ताः मनुष्या ऋष्याहारदानेन तिर्यकचोऽपि वदनुमोदनेन चोत्पद्यन्ते । तत्रत्याः सदृष्टया मृताः सन्तः सौधर्मशानयोः कल्पयोरुत्पयन्त । २० पापीपुष्करणीसरोवरप्रभृतिषु जलचराः न सन्ति । महाहिमवत्पर्वतनिषधपर्वतयोर्मध्ये पूर्वापरसमुद्रयोश्चान्तराले हरिम वर्षः क्षेत्र यतते । तन्मध्ये शब्दवद्वेदान्यसरशो विकृतवान नाम वेदाच्यो बर्तते । सोऽपि पर्वतः पटहाकारवृत्तो ज्ञातव्यः । हरिक्षेत्र मध्यमा भोगभूमिः। तत्र भोगभूमिजा मनुष्या गन्यूतिद्वयोमताः पल्यद्वयजीवितव्याः पूर्णिमाचन्द्रवर्णतेजस्का दिनद्वयान्तरितविभीतकफलममाणभोजनाः । २५ सत्र विंशतिगव्यूत्युम्नताः कल्पवृक्षाः । अन्या वर्णनाः पूर्ववद् वेदितव्याः । निषधपर्वतनीलपर्वतयोर्मध्ये पूर्वापरसमुद्रयोश्च मध्ये विदहो नाम वर्षः क्षेत्रं वर्तते । तरक्षेत्रं चतुःप्रकारम्-मेरोः सकाशात्पूर्व क्षेत्रं पूर्वविदेहः । मेरोः सकाशान् पश्चिमायां दिश्यपरविदेहः। मेरोदक्षिणस्यां दिशि देवकुरवः। मेरोरुतरस्यां दिश्युत्तरकुरव इति । तत्र जिनधर्मविनाशाभावात् सदाधर्मप्रवर्तनात् विगतदेहा मनुष्याः प्रायेण सिद्धा भवन्ति । ३० झारी। २ -तरसम यानि स्वा- भा०, द०,००। -तमयानि स्वा-ज०। ३ शन्दपलाम-., ज०। - - - - - - - - Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ तत्त्वार्थवृत्ती [ ३३१० तेनायं वर्षो विदेह इत्युक्ष्यते । विदेहक्षेत्रेषु तीर्थङ्कराणां चतु वशतिरिति नियमो न वर्तते । विदेहमुनियोगाद् वर्षोऽपि विदेहः, आधारावेययोरक्योपचारान कृष्णकज्जलयोगात्कृष्णचक्षुर्चन , श्वेतद्रव्ययोगगन श्वेनप्रासादवन् । देवघुरूत्तरकुरुपूर्व विदेहाऽपरविदेहाना 'चतुर्यु कोणेषु चत्वारः पर्वता गजदन्तनामानः। तेषां देयं त्रिंशत्सहरू योजनानिदै योजनशते नवोत्तरे च। तेषामुन्नतिश्चत्वारि योजनशतानि । तेषां विस्तारः पञ्चयोजनशतानि | तेषां शिवराणि प्रत्येक चत्वारि ते गजदन्ता दिग्दन्तापरनामानो मेरोः समीप निर्गता द्वौ निषधं प्रति गती द्रौ नौलं प्रति गती। दक्षिणदियतिनोर्गजदन्तयोरन्तराले 'देवकुरवो नामोत्तमा भोगभूमितते । तन्मध्ये शाल्मलीवृक्षो वर्तते । तद्ना स्वकीयस्वरूपसहिता परिवारवृक्षादिका जग्थ्यक्ष टेदितव्या। उत्तर दिग्वतिनोर्गजदन्तयोरन्तगले उत्तरकुरवो नामोत्तमा भोगभूमिमार्गदर्शक नचायमाधिसमजनोहासानिनयोग्नता दिनत्रयान्तरितबदरीफलप्रमाणकल्प वृक्षो पन्नदिव्यभोजनाः, बालभास्करसमानदाः, तत्र त्रिंशत्गव्यूत्युन्नताः कल्पवृक्षाः सन्ति । अन्या वर्णना पूर्वबढ़े दतव्या। मेरोश्चतुदित श्रीभद्रशालनामधेय बनमस्ति । तस्य वनस्य पूर्व दिश्यपरदिशि च पर्यन्तयो वेदिके वेदितव्ये । ते ३ निषधनीलपर्वतयोलग्ने । पूर्व विदेहमध्ये सीतानदी १५ समागता । तया पूर्व विदेहो विभागः कृतः । तत्र एक उत्तरो भागो द्वितीयो दक्षिणो भागश्च । उत्तरभागमध्ये अष्टक्षेत्राणि सखातानि। कथम् ? पूर्व बेदी पश्चात् दक्षारनामा पर्वतः । वेदीपर्वतयोर्मध्ये एक क्षेत्रं वर्तने । वक्षारपर्वतावमङ्गनदीद्वयमध्ये द्वितीय क्षेत्रम् । विभङ्गनदीबश्नारपर्वतयोमध्चे तृतीय क्षेत्रम् | वक्षारपर्वतविभङ्गनदी यमध्ये चतुर्ध क्षेत्रम् । विभा नदीवक्षारपर्वतयोर्मध्ये एश्चम क्षेत्रम् । वक्षारपर्वतविभगनदीद्वयान्तराले पष्ठं क्षेत्रम् । २० विभङ्गनदीवक्षार पर्वतयोमध्ये सप्तमं क्षेत्रम् । यक्ष रपर्वतवनवेदिकामध्ये अष्टमं क्षेत्रम् । तदनन्तरं देवार पयं धनं समुद्रवेदिकापर्यन्तम् । एवं चतुर्भिर्व क्षारपर्वत स्तिसृभिर्विभङ्ग नदीभिद्वाभ्यां वैदिकाभ्याञ्च नभिः खण्ड रष्टक्षेत्राणि सनातनि । तेषामष्टानां क्षेत्राणां पश्चिमतः प्रारभ्य पूर्वपर्यन्तं नामान्यतयन्ते । "कच्छा मुकच्छा महाकच्छा चतुर्थी कच्छकावती। आवर्ता लागलावर्ती पुष्कला पुष्कलावती ॥ १॥" [हरि० ५।२४५] तेषां क्षेत्राणां मध्येऽनुक्रमेणाष्ट्री मूलपत्तनानि । तेषां नामानि-क्षेमा, क्षेमपुरी, अरिष्टा, अरिष्ट्रपुरी, वडगा, मनपा, ओषधी. पुण्डरी क्रिणी। एकैकस्य क्षेत्रत्य मध्ये नीलपर्वतानिर्गते सीतानीमध्ये प्रविष्टे उनरदक्षिणायामे गङ्गासिन्धुनामानी (म्न्यो) द द्वै नद्यौ वर्त्तते । एककस्य क्षेत्रस्य मध्ये एकको विजयाध पर्वतः पूर्वापरायामः 1 तथा एककस्य क्षेत्रस्य मध्ये ३० विजयाद्ध पर्वत.दुत्तरस्यां दिशि नीलपर्वताद् दक्षिणस्यां दिशि वृषभगिरि म पर्वतो यर्तते । १ देवगनाम्मानमः]- आ. द, वर, ज । २ द्वे वेनि कानि- आ०, १ , च०, ज० । ३ नमः ये अट- -कम्यन्त आ. व. द., जा। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१.] १२९ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सर तृतीयोऽध्यायः स पर्वतो वृत्तवेदान्यसदृशः म्लेच्छखण्डमध्ये स्थितः। तत्र पर्वते चक्रवर्ती स्वप्रसिद्धि लिखति । एवमष्टसु क्षेत्रेषु मध्ये अष्टपृषभगिरयो भवन्ति। एत्रमष्टायपि क्षेत्राणि षड्भिः षड्भिः खण्डेयुक्तानि भवन्ति । तत्र तत्र यो यश्चक्रवती समुत्पद्यते तस्य तस्य एककमार्यखण्डं पन्न पश्च म्लेच्छखण्डानि भाग्यानमवन्ति महास्वपि आर्यखण्डमध्येकक उपसमुद्रो भवति । स उपसमुद्रः सीतानदीसमीपेऽर्द्धचन्द्राकारो भवति । तस्य तस्य क्षेत्रस्य सम्बन्धिनश्चक्रवर्चि- ५ साध्याः सीतानान्तर्वासिनो मागधयरतनुप्रभासनामानो व्यन्तरदेवा भवन्ति । ____ अथेदानी सीताया दक्षिणस्यां दिशि यान्यष्टौ क्षेत्राणि वर्त्तन्ने तन्नामपूर्वकं तत्स्वरूपं निरूप्यते । तथा हि-पूर्व दिशं प्रारभ्य पूर्व वनवेदी पश्चाद् वक्षारपर्वतः । तृतीयस्थाने विभङ्गा नदी । चतुर्थस्थाने वक्षारपर्वतः । पञ्चमस्थाने विभङ्गा नदी । पष्ठस्थाने वक्षारपर्वतः । सप्तमस्थाने विभङ्गा नदी । अष्टमस्थाने वक्षारपर्वतः । नवमस्थाने 'वनवेदिका चेति मवभि- १० भित्तिभिदक्षिणोसराया (य) ताभिरष्ट क्षेत्राणि कृतानि । तेषां नामानि "वत्सा सुवरसा महावत्सा चतुर्थी वत्सकावती । रम्या च रम्यका चैव रमणीया मङ्गलावती ॥१॥" [ हरि० ५।२४० ] तेषामष्टानां क्षेत्राणां मध्येषु अष्टौ मूलपत्तनानि। तेषां नामानि पूर्वतः प्रारभ्य * पश्चिमदिग्(शं) यावरसुसीमा, कुण्टला, अपराजिता, प्रभङ्करी, अङ्कवती, पद्मावती, शुभा, १५ रत्नसष्नया चेति । तेषामष्टानां क्षेत्राणां मध्येपु पूर्वापरायता अष्टौ विजयाचपर्यता वर्तन्ते । तेषामवाना क्षेत्राणां मध्ये द्वे द्वे गलासिन्धुनामिके नद्यौ वर्तते । ते च नद्यौ निषधपर्वताप्तिर्गत्य विजय. न विभिद्य सीता नीं प्रविष्टे । या अष्टी नगर्यः कथितास्ता विजयार्द्धभ्य उत्तरासु दिक्षु सीताया दक्षिणासु दिक्षु गङ्गासिन्ध्वोच्च मध्येषु वर्तन्ते । तथा नगरीभ्य उत्तरतः सीताया दक्षिणपाश्वषु अष्टौ उपसमुद्राः वर्त्तन्ते । निफ्धपर्वतादुत्तरासु दिक्षु विजयाईभ्यो दक्षिणासु २० दिक्ष्यष्टौ वृषभगिरयः सन्ति । तत्र तत्र चक्रवतिनी "निजप्रसिद्धीलिस्खन्ति 1 गगासिन्धुनामानः पोडशनद्यस्तिस्रो विभङ्गनद्यश्च, एकोनविंशतिनधो निषधादुत्तीर्य विजयाभन् विभिद्य सीतायां प्रविष्टाः । एवं षड्भिः षभिः खण्डमण्डितान्यष्टौ क्षेत्राणि ज्ञातव्यानि । अनाना क्षेत्राणां सम्बन्धिनः सीतानिवासिनो मागधवरतनुप्रभासाश्च ज्ञातव्याः । एचं सीतोदा नदी अपरविदेहं विभिन्न पश्चिमसमुद्रं प्राप्ता । तया द्वौ विदेही कृतौ- २५ दक्षिण उत्तरश्च । तयोर्वर्णना पूर्व विदेहयद्वेदितव्या। अयन्तु विशेषः-सीतोदाइक्षिणतटेषु यानि क्षेत्राणि वर्तन्ते तेषां नामानि पूर्वतः पश्चिमं यावत्-- "पमा सुपमा महापया चतुर्थी पद्मावती । शङ्का च नलिना चैव कुमुदा सरितेति च ।। १॥" [इरि० ५।२४५ ] १ -न्तवीर, ज० । २ -त्रिववे-ता| ३ तेम्वष्टा-ता० । ४ पश्रिमदिक या-दः । ५ निजनिजा- भा., ०.०ज। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. मार्गदर्शक : अर्थी सुविधिसागर जी महाराज [ ३/११ तेषां क्षेत्राणां मध्येषु मूलनगरीणां नामानि अवपुरी, सिंहपुरी, महापुरी, विजयापुरी, क्षरजा, विरजा, अशोका, वीतशोका चेति । सीतोदोत्तरतटे यान्यष्टौ क्षेत्राणि वर्त्तन्ते तेर्पा नामानि पश्चिमतः पूर्वं यावत्- "वप्रा सुवमा महावमा चतुर्थी वकावती । गन्धा चैव सुगन्धा च गन्धिला गन्धमादिनी || १||" [ इरि० ५/२५१] मूलपुरीणां नामानि— १० १३० "विजया वैजयन्ती च जयन्ती चापराजिता । चक्का खड्गा अयोध्या च अवघ्या चेति ताः क्रमात् ॥” [हरि० ५/२६३ ] क्षत्र भूतारण्यं वनं क्षेत्रपश्चिम समुद्रवेदिकयोर्मध्ये ज्ञातव्यम् । एवं महाविद्दवर्णां कृत्वा पञ्चमो रम्यकवर्ष उच्यते । तद् रम्यकक्षेत्रं नील पर्वत रुक्मिपर्वतयोर्मध्ये पूर्वाऽपरसमुद्रयोश्च मध्ये ज्ञातव्यम् । तत्क्षेत्रं मध्यमा भोगभूमिः हरिक्षे त्रकथितस्वरूपा शातव्या । तस्य क्षेत्रस्य मध्ये गन्धवान् नाम वृत्तवेदादयः पर्वतो भवति । स विकृतवेदा कावद् बोद्धव्यः । अथ रुक्मिपर्वत शिखरपर्व तयोरन्तराले पूर्वापर समुद्र योश्च मध्ये हैरण्यवतो नाम षष्ठो वर्षो वर्त्तते । तद्वैरण्यवतं षष्ठं क्षेत्रं जघन्या भोगभूमि मचत क्षेत्र वर्णितस्त्ररूपा १५ ज्ञातव्या । हैरण्यवतक्षेत्रमध्ये माल्यवान् नाम वृत्तदाढ्यः पर्वतो वर्तते । स हैमवत क्षेत्रमध्यस्थितशब्दबद्धदाढ्य सदृशः । अथ शिखरिपर्वतपूर्वापरोत्तराणां त्रयाणां समुद्राणां च मध्ये rant नाम कारित । तस्मिन्त्रैरावतक्षेत्रे भरतक्षेत्र विजयार्द्धतुल्यो विजयार्द्धपर्वतोऽस्ति । तदक्षिणदिशि वृषभगिरिरस्ति । तस्य विजयार्द्धस्योत्तर दिशि अयोध्या नाम मूलनगस्ति । एवं पचमेरूणां सम्बन्धीनि पञ्चभरतानि पञ्चैरावतानि पञ्चमहाविदेहक्षेत्राणि च पञ्चो२० त्तरकुरवः पचदेवकुरवश्च त्रिंशद्धोगभूमयः जघन्यमध्यमोत्तमोत्तममध्यम जघन्य चिभागतव्याः । विकलत्रयजीवाः कर्मभूमिष्वेव भवन्ति, तत्रापि समवसरणेषु न भवन्ति । पाताले 'स्वर्गे चान्यत्र मर्त्यलोके च द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः प्राणिनो न वर्त्तन्ते । अथेदानीं पट्कुलपर्वतानां नामान्यव स्थितिचोच्यते— २५ तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलaftaraणां वर्षधर पर्चताः ॥ ११ ॥ तान भरत हैमवतरिचिदम्यक हैरण्यवत्तैरावतसञ्ज्ञानि क्षेत्राणि विभजन्ति विभागं प्रापयन्ति विभागहेतुत्वं गच्छन्तोत्येवं शीलास्तद्विभाजिनः “नाम्न्यजाती णिनिस्ता १ - नू- आ. ब. ६०, ज० । ० ६० ज० : ४ तं क्षे- भा०, ६०, ब० ६ वर्गेणान्यत्र मला आ द० ० ज० । २ - काशनी ६० ज०३ मध्यममो- आ०, ज० 1 तं ष्ठः क्षे त६० | ५ णि- भ० । स्वर्गो वान्यत्र मृत्युलो - ष० । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२-१३] तृतीयोऽध्यायः छील्ये" [ कात० ३।७६ ] ताच्छील्यं फलनिरपेक्षम् । अनादिकाले निजनिजस्थाने शिवाः हेतुनिरपेक्षनामान: पूर्व कोट्यपरकोटीभ्यां 'लवणोदसमुद्र, स्पर्शित्वात् पूर्वापरायता श्री सुचिरपर्वतारी महायाणां भरतादीनां सप्तानां क्षेत्राणां माणप्रत्ययत्वाद् वर्षधराः । वर्षधराश्व ते पर्वताञ्च वर्षधरपर्वताः । किन्नामानस्ते वर्ष घरपर्षताः ? हिमवन्मद्दा हिमवन्निषधनील रुक्मिशिखरिणः । हिमवांश्च महाहिमवांश्च ५ निष नीलश्च रुक्मी च शिखरी च ते हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिणः । इतरेतरद्वन्द्वः । तत्र भरतस्य हैमवतस्य च क्षेत्रस्य सीम्नि क्षुद्र हिमवान् स्थितो वर्तते । समुद्रमिवाम्य् एकशतयोजनोन्नतः पचविंशतियोजनभूमिमध्य स्थितः । हैमवतक्षेत्रस्य हरिक्षेत्र सीनि महाहिमवानवस्थितो वर्तते । स द्विशतयोजनोन्नतः पश्चाशद्योजनभूमिमध्यगतः | हरिक्षेत्रस्य विदेहक्षेत्रस्य च सीम्मि निषधनामा गिरिश्वस्थितो वर्त्तते । स चतुः १० शतयोजनोन्नतः एकशतयोजन भूमिमध्यगतः । विदेद्दक्षेत्रस्य रम्यकक्षेत्रस्य च सीम्नि नीलपतोऽस्थित वर्त्तते । स चतुः शतयोजनोन्नत एकशतयोजन भूमिमध्यगतः । रम्यकक्षेत्रहैरण्यवतक्षेत्रयोर्मध्ये रुक्मी नाम भूधरोऽवस्थितो वर्तते । स द्विशतयोजनोन्नतः पाशद्योजनभूमिमध्यगतः । द्देरण्यवतक्षे त्रैरावतक्षेत्रयोः सीम्नि शिखरी नाम शिलोबयो जागर्ति । अथेदानीं षण्णां कुलशिखरिणां वर्णविशेषपरिज्ञानार्थं सूत्रामदेमाहुःहेमार्जुनतनादपरे जतहेममयाः ।। १२ ।। १५ ૨ १३१ हे अर्जुनं च तपनीयं च वैडूर्य च रजतं च हेम च द्देमार्जुनतपनीय बैंडरजतमानि तैर्निवृत्ता हेमार्जुनत पनी यवैडूर्य र जतहेममयाः । “प्रकृते विकारेऽवयवे वाभक्षाच्छादनयोः " [का० सू० दौ० ० २२६४० ] च मयदिति साधु । हिमवान् हेममयः, श्रीपर्णः पीतवर्ण इत्यर्थः । महाहिमवान् अ 'नमयः रूप्यमयः, शुक्लवर्ण इत्यर्थः । २० निषभस्तपनीयमय स्तरुणादित्यवर्णः, तप्तकनकवर्ण इत्यर्थः । नीलो वैड्र्घ्यमयः, मयूरग्रीवाभः । रुक्मी रजतमयः, शुक्लवर्ण इत्यर्थः । शिखरी हेममयः, भर्म निर्माणः, चीनपवणं इत्यर्थः । अथेदार्नी भूयोऽपि तद्विशेषपरिज्ञानार्थं सूत्रमिदमूचुः— मणिविचित्रपण उपार मुले च तुल्यविस्ताराः ॥ १३ ॥ मणिभिः पञ्चत्रिरत्नं महातेजस्कैर्विचित्राणि कर्बुराणि देवविद्याधरचारणर्षीणामपि २५ चिचमत्कारकारीणि पावनि तटानि येषां कुलपर्वतानां ते मणिविचित्र पावः । पुनरपि कथम्भूतास्ते कुलपर्वताः १ उपरि मस्तके मूले "युम्नभाग चकारात् मध्ये च, तुल्यविस्ताराः तुम्यो विस्तारो येषां ते तुल्यविस्ताराः, अनिष्टसंस्थानरहिताः समानविस्तारा इत्यर्थः । १-आ०, ब० द० ज० २ त ३ – मिदभूत्रुः ० | ४ प्रकृतविकारोऽवयवावा आद० ज० । वामक्ष्याच्छादने म।" - शाकटा २/४/१६२ । ५ बुध्ने भागे ० ० ० ज Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ तत्त्वार्धवृत्ती [ २०१४-१८ तेषां फुलपर्वतानामुपरितनमध्यभागे ये हदा वर्तन्ते तान्प्रतिपादयन्ति भगवन्तः-- पद्ममहापद्मतिगिम्छ केसरिमहापुण्डरीकपुण्डरीका हृदास्तेषामुपरि॥१४॥ पध्नश्च महापद्मश्च तिगि छश्च केसरी च महापुण्डरीकश्च पुण्डरीकश्च पनमहापातिगिराछ केसरिमहापुण्डरीकपुण्डरोकाः । तेषां हिमक्दादिकुलपर्वतानामुपरि मस्तके प्रदा ५ बहुजलपरिपूर्ण सरोवराणि वरीवृत्यन्ते । अथेदानी प्रथमस्य 'हृदस्य संस्थान निरूपयन्त्याचार्याःपाधिमा योजनसहवागमतदुर्धविकाभो हृदः ॥ १५ ॥ प्रथमो हिमवत्पर्वतोपरिस्थितः पद्मो नाम यो हदः सरोबरं वर्तते । स कथम्भतः ? योजनसाहस्रायामः, एकसहस्रयोजनदीर्षः। पुनरपि कथम्भूतः १ तदर्धविष्कम्भा, तस्य १० एकयोजनसहनस्य अर्ध पञ्चशतयोजनानि विष्कम्भो विस्तारो यस्य स तदर्धविष्कम्भः । घनमयतलो नानारत्नकनविचित्रतदः पूर्वापरेण दीर्घः दक्षिणोत्तरविस्तार इत्यर्थः । अथ तस्यैव हिमवत्पर्वतोपरि स्थितस्यैव पद्मस्य हृदस्य अवगाइसूचनार्थ सूत्रमाहुः दशयोजनावगाहः ।। १६ ॥ दशयोजनान्यवगाहोऽधःप्रवेशो निम्नता गाम्भीयं यस्य स दशयोजनावगाहः । अथ पद्मदस्य मध्ये यद् अमयं कमलं वर्तते तत्प्रमाणपरिज्ञानार्थ सूत्रमिदमुचुः तन्मध्ये योजनं पुष्करम् ।। १७॥ तस्य पाइदस्य मध्ये योजनमेकयोजनप्रमाणं पद्म' पुष्कर वर्तते । तस्य परमोशायतानि दलानि पत्राणि चत्तन्ते । क्रोशद्वयविस्तारा कणिका मध्च अस्ति। कणिकामध्ये कोशंकप्रमाणः श्रीदेव्याः प्रासादो वर्तते वर्तुलाकारः। तत्कमलं क्रोशद्वयं जलं परित्यज्य २८ उपरि वर्तते । एवं पत्रकाणकासमुदायेन योजनप्रमाणं वेदितव्यम् । ____ अथेदानीमन्येषां हृदानां पुष्कराणाञ्च आयामविस्तारावगाहादिनिरूपणार्थं सूत्रमिदं ब्रुवन्ति-- . तद्धिगुणद्विगुणा हृदा पुष्कराणि च ॥ १८॥ ताभ्यां पश्मदपुष्कराभ्यां द्विगुणद्विगुणास्तद्विगुणद्विगुणा विस्तारायामावगाहा कदाः २५ सरोवाण भवन्ति । पुष्कराणि च पानि च द्विगुणद्विगुणविस्तारायामानि ज्ञातव्यानि । अत्र चशब्दः उक्तसमुच्चयार्थः। तेनायमर्थः-यथा पनान्महापनो द्विगुणो विशतियोजनावगाहः द्विसहनयोजनायामः सहस्रयोजनविस्तारः, द्वियोजनं तत्र पुष्करं वसते, तथा महापुण्डरीको हृदस्तत्पुष्करञ्च तादृशम्य ज्ञातव्यम् । यथा च महापद्माद् द्विगुणस्तिगिठच्छो हदश्चत्वारिंशद्योजनात्रगाहः पतुःसहस्रयोजनायामो द्विसहस्रयोजनचिस्तारश्चतुर्योजनं ता १ -स्य हस्वस्थ है- मा० | २ तत्र च- आ०, २०, द", जः | Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३॥१९-२० ] तृतीयोऽध्यायः १३३ ककर वर्तते, तथा केसरीनामा सदः तत्पुष्कररूच तत्सदृशं' ज्ञातव्यम् “उत्तरा दक्षिणतुस्था" [त० सू० ३१२६] इति वचनान् । तेन पद्मतत्पुष्करसदशे पुण्डरीकनर पुष्कर । महापातपदिसमाने महापुटरीकताकासागरतिगिम्हातसुष्करसमे केसरितत्पुष्करे इत्यर्थः । तथा महापद्मपुष्कर जलाश्चतुःकाशोन्नतं वर्तते । तिगिराष्टपुष्कर जलादष्टकोशान्नतं वर्तते । केसरिपुष्करं जलादष्टक्रोशोन्नतम् । महापुष्परीकपुष्करं जलालचतुःकाशोन्नतम् । ५ पुण्डरीकपुष्कर जलाद द्विक्रोशोन्नतमिति ।। अयेदानी तेषु पुष्करेषु या देव्यो वर्तन्ते तासां सज्ञास्तज्जीवितप्रमाणञ्च तत्परिवारसूचनार्थच सूत्रमिदं सूचयन्तितन्निवासिन्यो देव्यः श्रीह्रीधृतिकीर्तिवुद्धिलदम्यः पल्योपम स्थितयः ससामानिकपरिषत्काः ॥१९ ।। तेषु पुष्करेषु निवसन्तीत्येवंशीलास्तनिवासिन्यो देव्यो भवन्ति । किंत्रामानो देश्यः ? श्रीहीधृतिकीतिबुद्धिलक्ष्म्यः । श्रीश्च हीश्च धृतिश्च कीर्तिश्च बुद्धिश्च लक्ष्मीश्च श्रोहीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः । कथम्भूता देव्यः १ पल्योपमस्थितयः । उपल्येनोपमा यस्याः स्थितेः सा पल्योपमा। पल्योपमा एकपल्योपमा स्थितिर्जीवितकालो यासा ताः पल्योपमस्थितयः । पुनरपि कथम्भूता देव्यः ? ससामानिकपरिषरकाः। समाने स्थाने भवाः सामानिकाः पितृमह- १५ सरोपाध्यायसदृशाः। परिपदश्च व्यस्यादितुल्याः । सामानिकाच परिषदश्च सामानिकपरिषदः। सामानिकपरिषद्भिः सह वर्तन्ते या देव्यस्ताः ससामा नपरिपत्काः। पण्णो पुष्कराणां कर्णिकाणां मध्यप्रदेशेषु किल प्रासादा वर्तन्ते । ते तु प्रासादाः पूर्णनिर्मलशारदेन्दुप्रभातिरस्कारिण एककोशायामाः क्रोशार्द्धविस्ताराः किश्चिदूककोशसमुच्छिताः। ईदृशेषु प्रासादेषु श्रीप्रभृतयो दव्यो बसन्ति । पद्मदपुष्करप्रासादे श्रीमति । महापद्महदपुष्करप्रासादे २० हीर्वसति । तिगिच्छदपुष्करप्रासादे धृतिर्वसति । केसरिहदपुष्करप्रामादे कोचि सति । महापुण्डरीकहदप्रासादे बुद्धिर्वमति । पुण्डरोकहदप्रासादे लक्ष्मीर्वशति । तेषां पुष्कराणां परिवारपुष्करप्रासादेषु सामानिकाः परिषदश्च वसन्ति । तन्त्र श्रीलीधृतयस्तिस्रा देव्यो निजनिजपरिवारसहिताः सौधर्मेन्द्रस्य सम्बद्धाः सौधर्मेन्द्रसेवापरा वर्तन्ते । कीर्तिबुद्धिलदम्यस्तिनः सपरिषारा ईशानेन्द्रस्य सम्बद्धा वर्तन्ते । एवं पञ्चस्वपि मेरपु ये षट्पट कुलवंता वर्तन्ते २५ तेषु तेयु पटपड्देव्यो ज्ञातव्याः। अथेदानीं यामिनदीभिः क्षेत्राणि विभक्त्मनि ता उच्यन्तेगङ्गासिन्धुरोहिद्रोहितास्थाहरिद्धरिकान्तासीतासीनोदानारीनरका न्तासुवर्णरूप्यकलारक्तारक्तादाः सरितस्तन्मध्यगाः ॥२०॥ तेषां सप्तानां क्षेत्राणां मध्ये गच्छन्ति यहन्तीति तन्मध्यगाः, न तु सर्वा अपि सामीप्य- ३० सीमानः। एकैकसिमन् क्षेत्रे द्वे द्वे नद्यों वहत इत्यर्थः। तन्मध्यगाः काः ? सरितश्चतुर्दश १ -शन ज्ञा- आ., ब०, ब, ज० । २ --यं सू- श्रा०, व०१३ पल्योपमा स्थि- ताः | Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्त्वार्थवृत्तो [ ३।२१ महानयः, न तु वापिका इत्यर्थः । किन्नामानः सरितः ? गहेत्यादि । गङ्गा च' सिन्धुरच रएकच राहितास्या च रिच हरिकान्ता च सीता च सीतादा प नारी च नरकान्ता च सुवर्णकूला च रूप्यकूल्याक्कच रसाच काहीसाह छाहाराज अथ पृथक पृथक क्षेत्रे ट्रेने नयाँ भवन इति सूचनार्थ मेकस्मिन शेत्रे सई नद्यो न ५ भवन्तीति च प्रकटनार्थ कां दिशं का नदी गच्छ्रतीनि च निरूपणार्ध सूत्रमिदमाहुः योगोः पूर्वाः पूर्वगाः ॥ २१ ॥ द्वयो यार्गङ्गासिनोमध्ये गङ्गा पूर्वगा पूर्वसमुद्रगामिनी। रोहिंद्रादितास्पयोर्मध्ये रोहिन् पूर्वगा। हरिरिकान्तयोर्मध्ये हन्ति पूर्वगा। सीतासीतोदयोर्मध्ये सीता पूर्वगा। नारोनरकान्तयामध्ये नारो पूर्वगा। सुवर्ण कूलारूप्यकुलयोर्मध्ये सुवर्णकूला पूर्वगा। रक्का१० रक्तोदयोर्मध्ये रक्ता पूर्वंगा पूर्वसमुद्रगामिनो। एताः सप्त नद्यः पूर्वसमुद्रं गच्छन्ति । "शेपास्त्वपरगाः" इति बचनान् सिन्धुः पश्चिमसमुद्रगामिनी । रोहितास्या पश्चिमाधि गच्छति । हरिकान्ता परोदधि याति । सीतादा प्रत्यक्समुद्रं व्रजति । नरकान्ताऽपरार्णवं जिहोते । रूपकूला पश्चि. सरस्वन्तं भवति । रक्तोदा पश्चिमशशध्वज समेति । अथ एता यस्मानिर्गता यत्र क्षेत्र बहून्ति तदुच्यते-- हिमवतपर्वते ५प्रहदो यो वर्तते तस्मात् पूर्वतोरणद्वारेण निगत्य गङ्गा म्लेच्छत्व पतित्वा विजयाद्ध भित्वा पूर्वसमुद्रं प्रविष्टा । हिमवत्पर्वते यः प्रोक्तः पध्नदस्तस्य पश्चिमतोरणद्वारेण निर्गत्य म्लेच्छद्रखण्डे पतित्वा विजयाद्ध भित्या 'सिन्धुः पश्चिमसमुद्रं प्रविष्टा । एते २ नद्या भरतक्षेत्रे वहतः। हिमवत् बिते यः पद्मदस्तस्यात्तरतोरणद्वारेण निर्गत्य जघन्य भोगभूमौ पतित्वा राहिनाम्या पश्चिमसमुद्रं पविष्टा । महाहिमवत्पर्वतोपरिस्थिती योऽसो २८ महापद्मदस्तस्य दक्षिणारणद्वारेण निर्गत्य जघन्यभोगभूमौ पतित्वा रोहित पूर्ससमुद्र प्रविष्टा । एते के रोहिद्रोहितास्ये नद्यो हैमवतक्षेने वत्तते । अध महाहिमवन्पर्वतोपरि स्थितो याऽसौ महापग्रह दस्तस्योत्तरतोरणद्वारेण निर्गत्य मध्यमभोगभूमौ पतित्वा हरिकान्ता पश्चिमममुद्रं गच्छांतस्म । निषधकुलपर्वतोपर स्थितो थोऽसौ तिगिच्छदस्तस्य दक्षिणतोरणद्वारेण नित्य मध्यमभंगभूमी पतित्या हरित पूर्वसमुद्रं गता । एते द्वे हरिद्धारकान्ते नद्यौ हरिक्षेत्र२५५ मध्ये वर्तने । निपधपर्वतोपरि स्थिनो योऽसौ तिगिन्छहदस्तस्योत्तरतोरणद्वारेण निर्गस्य उत्तमभागभूमों पतित्वा सीतादा नदी अपरविंदहमध्ये गत्वा पश्चिमसमुद्रं गना । अथ नीलकुलपर्वतोपरि स्थिता योऽसौ फेमरिद्रदस्तस्य दक्षिणतो गाद्वारेण निर्गन्य उत्तमभोगभूमी पनित्ता पूर्वत्रिनबध्य गवा सीतानही पूर्वसमुद्रं प्रविष्टा । एते द्वे सीतासीतोदे नौ विदहक्षेत्रमध्व वत्तेत । नीलकुलपर्वतोपरि ग्थिना योऽसौ केसरिहृदस्तम्योत्तरतोरणद्वारेण ३.. निगन्य मध्यमभागभूनी पति या नरकान्ना पश्चिमसमुद्रं ययौ । मक्मिकुलपर्वतोपरि स्थितो यमी महापुण्डरीका दस्तस्य दक्षिणतारणारेण निर्गत्य मध्यमभोगभूमौ पतित्वा नारीनामा १ मिन्म दी श्राः, च". ज. । २ नि! भा.. ६०, ज। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः १३५ पूर्षसमुद्रं गता। एते द्वे नारोनरकान्त नद्यौ रम्यकक्षेत्रे वत्तेते । रुक्मिपर्वतोपर स्थितो से महापुण्डरीकहदस्तस्योत्तरतोरणद्वारेण निर्गत्य जघन्यभोगभूमौ पति वा रूप्यकुलानाम व पश्चिमसमुद्रं डॉकते स्म। शिखरिकुलपर्वतोपरि स्थिता योऽसौ पुण्डरीकनामा ह्रदस्तस्य तोरणद्वारेण निर्गत्य जघन्यभोगभूमौ पतित्वा सुवर्णकूलानाम्नी कूलकपा पूर्वसमुद्र एसे बोलवकलारूप्यकोचायौता नामावलमध्येमायोराज शिखरिकुलपर्वतोपरि ५ शोऽसौ पुण्डरीकहदस्तस्य पश्चिमद्वारेण निर्गल्य म्लेच्छखण्डमध्ये पतिरवा बिजयाद' तरकोदाना द्वीपवती पश्चिमसमुद्रं प्राप्नोति स्म । शिस्त्ररिकुलपर्वतोपरि स्थितो थोऽसौ a तस्य पूर्वद्वारेण निर्गत्य म्लेच्छखण्डमध्ये पतित्या विजयाच भित्वा रक्तानाम्नी मा पूर्वसमुद्रं जिहीतेस्म । एते द्वे रक्तारक्तोदानाम नद्यौ ऐरावतक्षेत्रमध्ये क्त्तते । स य सीतोदा नदी यत्र देवकुरुमध्ये बहत्ति तत्र पूर्वापरायता पञ्च ह्वदा वर्तन्ते । १० स्य उदस्य समीपे पूर्वापरतटे पु पञ्च पश्च दुद्रपर्वताः सन्ति । एवं पञ्चहदसम्बन्धिनः सूक्षुद्रपर्वता सन्ति ते सिद्धकटनामानः प्रत्येकं पञ्चाशद्योजनायताः पञ्चविंशतियोजनताराः सप्तत्रिंशद्योजनोन्नताः मणितोरणद्वारवेदिकासहिताः घण्टाभृङ्गारकलशलवाकुसुममादिसंयुक्तचतुर्दिकचतुस्तोरणद्वारसहिताः । तेषां पर्वतानामुपरितनप्रदेशे अष्टप्रातिहार्य का रत्नसुवर्णरूप्यनिर्मणाः पल्यङ्कासनस्थिताः पूर्वाभिमुखाः एकैका जिनप्रतिमा १५ बदन्ते । ततोऽप्रे गत्वा गन्यूतिद्वयं मेरुपर्वतमस्पृष्ट्वा सीतोहानदी अपरविदह' चलिता पादपर विदेह न प्राप्नोति तावदपरविदेहवेदिकायाः पूर्वदिशि सीतोदानदीसम्बन्धिनः दक्षितरायता अपरे पञ्च हुदाः वर्तन्ते । तेषां दक्षिणोत्तरत्तटेषु पच पच पूर्ववत् सिद्धयानि सन्ति । एवं तत्रापि पञ्चाशसिहफूटानि ज्ञातव्यानि । एवं नीलपर्वतादक्षिणस्यां शि पतिखा या सीता नदी तस्या अपि सम्बन्धिन उत्तरकुरुमध्ये पञ्च ह्रदाः पूर्धापरायताः २० सन्धि । तेषामपि पूर्वापरतटेषु पञ्चाशसिद्धकूटानि पूर्ववत् ज्ञातव्यानि । ततः गव्यूप्तिद्वयं पर्वत परिहत्य सीतामदी पूर्व विदेहं प्रति पूर्व विदेहवेदिकायाः पश्रिमदिशि सीवानदीसम्घवनः दक्षिणोत्तरायताः पञ्च दाः सन्ति । तेषामपि दक्षिणात्त तटेपु पश्चात्सद्धकूटानि सल्ल्यानि । एवमेकत्र सिद्धकूटानां द्विशती जम्बुद्धीपमेरुसम्बन्धिनी भवति। तथा पश्चामामपि मेरूणां सम्बन्धिना सिद्धकूटानामेकसहस्र भवति । शेपास्त्वपरगाः ॥ २२ ॥ अस्य सूत्रस्य व्याख्या पूर्वमेव निरूपिता । १-नामनदी आ०, ५०, द., ज. | २ पद्मङ्ग- ता० । ३ -तादे नाम- ता०, ६.। ४ -कलशध्वजकुसुममालिकासंयुक्त व तुदि चतुस्तारणद्वारेण स- भा०, ५०, ६०, ० । वसते मा०, ५०, ज०, ता. व । ६ -विदे च- भा०, २०, म०,०। ७ पतित्वा या द०, प०, न । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ तत्वार्थवृत्त अथेदानीं गङ्गादिनदीनां परिवार नदी परिज्ञानार्थं सूत्रमिदमाहु:चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गङ्गासिन्ध्यादयो नमः || २३ || नदीनां सहस्राणि नदीसहस्राणि चतुर्दश च तानि नदीसहस्राणि तैः परिवृता वेष्टिताः चतुर्दशन दीसहस्रपरिवृताः । गङ्गा च सिन्धुश्च गङ्गासिन्धू गङ्गासिन्धू आदिर्यासां रोहिद्रोह५ तास्यादीनां ताः गङ्गासिन्ध्यन्ति धमनुतात् पूर्व चतुर्थं सूत्रं यदुक्तमस्ति तस्मिन्सुत्रे 'सरितस्तन्मध्यगाः" इत्यनेनैव वाक्येन सरिच्छदेन नयः प्रकृता वर्तन्ते अधिकृताः सन्ति, तेनैव सरिच्छब्देन नद्यो लब्धाः पुनः 'नद्यः' इति प्रह किमर्थम् ? 'चतुर्दशनदी सहस्रपरिवृता गङ्गासिन्ध्यादयः' इतीदृशं सूत्रं क्रियतां किं पुनर्नदी शब्दग्रहणेन ? सत्यम् : नदीप्रहणं द्विगुणद्विगुणाः' इति सम्बन्धार्थम् । तईि गङ्गासिन्ध्यादि१० ग्रहणं किमर्थम् ? पूर्वोक्ता एव गङ्गासिन्ध्यादयो ज्ञास्यन्ते, तेन गङ्गासिन्ध्यादयः इति पदं व्यर्थम्, 'चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृताः नद्यः' इत्येव सूचं क्रियताम् सत्यम्; "अनन्तरस्य विधिः प्रतिषेधो वा [पात ११२१४७ ] इति व्याकरणपरिभाषासूत्र बलेन अपरगानामेच नदीनां ग्रहणं भवेत्, न तु पूर्वगानाम् । तर्हि चतुर्दशनदी सहस्रपरिवृता गङ्गादयो नयः' इत्येवं सूत्रं क्रियतां किं सिन्धुशब्दग्रहणेन ? सत्यम् एवं सति पूर्वगानामेव १५ नदीनां ग्रहणं भवेत् । अतः कारणादुभयीनां नदीनां ग्रहणार्थं गङ्गासिन्ध्वादिग्रहणं साधु | अस्य सूत्रस्यायमर्थः - भरत क्षेत्रमध्ये ये गङ्गासिन्धू द्वे नयौ वर्तेते ते " प्रत्येकं द्वे अपि 'चतुर्दश-दीसहस्रपरिवृते रतः । हैमवतनाम जघन्य भोगभूमि क्षेत्रमध्ये द्वे रोहिद्रोहितास्याभिषे नर्तेते ते प्रत्येकं अष्टाविंशतिनदीसहस्रपरिवृते भवतः । ये हरिक्षेत्रमध्यमभोगभूमिमध्ये हरिहरिकान्तास्ये वर्तते ते द्वे अपि प्रत्येकं षट्पञ्चाशन्नदीसहस्रपरिवृते स्याताम् । ये २० विदेहमध्ये सीवासीतादाह्वये के नद्यौ वर्तते ते प्रत्येकं है अपि द्वादशसहस्राधिकेन नदीलक्षण परिवृते चास्तः । ये रम्यक नाममध्यमभोग भूमिक्षेत्रमध्ये नारीनरकान्ताभिधाने नद्यौ वर्तेते ते प्रत्येकं द्वे अपि षट्पञ्चाशदीसहस्रसंयुक्ते जामतः । ये हैरण्यवत नाम जघन्यभोगभूमिक्षेत्रमध्ये सुवर्ण कूलारूप्यकूला सब्ज्ञके वर्तते, ते प्रत्येकं द्वे अपि अष्टाविंशतिनदीसहस्रपरिवृते स्याताम् । ये ऐरावत क्षेत्रमध्ये रक्तारतादानामिके द्वे नद्यौ बर्त्तेते ते प्रत्येक द्वे २५ अपि चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृते भवतः इति तात्पर्यम्। भोगभूमिबत्तियो नयस्त्रसजीवरहिताः सन्ति । जम्बूद्वीपसम्बन्धिन्यो मूलनद्योऽष्टसप्ततिर्भवन्ति । तासां परिवारनदीनां द्वादशस६सौधिकानि पञ्चदशलक्षाणि ज्ञातव्यानि । जम्बूलीपविभङ्गनयो द्वादश वर्त्तन्ते । तासां परिवारनद्यः परमागमाद् बोद्धव्याः । एवं पञ्चमेरूसम्बन्धिनीनां मूलनदोनों नवत्यधिकत्रिशतप्रमाणानां परिवारनदोनां षष्टिसहस्राधिकानि पञ्चसप्ततिलक्षाणि ज्ञातव्यानि । पांष्ट३० चिभङ्गनश्च ज्ञातव्याः । [ ३२३ १ - तस्मात्सू - आ०, ५०, १०, ० । २ नदीप्रणं भ० ६०, ब० ज० । ३ द्विगुणा इति आ०, ब०, ब० ४ सू- १० द० ० ० १ ५ ते द्वे अपि प्रत्येकं न द० । ६ - मिम व०, ६०१ ७ - साध्यधि- अज० १ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयोऽध्यायः अथेदानीं भरत क्षेत्रस्य प्रमाणनिरूपणार्थ सूत्रमिदमाहुः - भरतः 'षड् विंशपञ्च योजनशत विस्तारः षट् चैकोनविंशतिभागा योजनस्य ॥ २४ ॥ श२४-२६ ] १३७ विंशतिरधिका येषु पयोजनशतेषु षभिरधिका विंशतिः विंशतिः । तानि षडविंशानि, योजनानां शतानि योजनशतानि पञ्च च तानि योजनशतानि ५ पनयोजनशतानि षडविंशानि च तानि पश्र्चयोजनशतानि षडविंशपनयोजनशतानि । ] इत्यनेन अत्प्रत्ययः "संख्यया अजहोरन्त्यस्वरादिलोपश्च ।" [ "तेविंशतेरपि" [ का सू० २२६४३ ] इति अपिशब्दस्य बहुलार्थत्वात् तं लुप्वा पश्चादन्यस्वरादिलोपे कृते सति पक्शि इति निष्पद्यते । षडूविंशपञ्चयोजनशतानि विस्तारो यश्य भरतस्य स पविशपञ्चशतासवस्तासामार्ग क्षेत्र कासिमरा जनशत विस्तारो भरतवर्षो वर्तते, किन्तु एकोनविंशतिभागाः । एकोनविंशतिभागाः योजनस्य क्रियन्ते, तम्मध्ये पट् च भागाः गृह्यन्ते । तावत्प्रमाणविस्तारं भरतक्षेत्रं वर्तते इत्यर्थः । विंशत्यधिकपच्च योजनशतविस्तारः षट्कला विस्तारस्य (च) भरतो वर्तते, तहिं हिमवदादयः पर्वताः हैमवतादयो वर्णाश्व कियद्विवारा वर्तन्ते' इति प्रश्नसद्भावे सूत्रमिदमाहु:-- यदि १५ तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षभर वर्षा विदेहान्ता ॥ २५ ॥ 3 तस्माद् भरत विस्ताराद् द्विगुणद्विगुणविस्ताराः तद्विगुणद्विगुणविस्ताराः । के ते ? वर्षधरवर्पाः । वर्पंधराः हिमवदादयः कुलपर्वताः वर्षाः हैमवतादीनि क्षेत्राणि, वर्ष धराश्य च वर्षधरवर्षाः । कथम्भूताः वर्षघरवर्षाः ? विदेहान्ताः विदेहोऽन्ते येषां ते विदेहान्ताः विदेहपर्यन्तं द्विगुणा द्विगुणा गण्यन्ते, न तु परतः । विदेहात् परतः अर्द्धार्द्धविस्तारा इत्यर्थः । २० तेनायमर्थः -- भरतविस्ताराद् द्विगुणविस्तारो हिमवान् हिमचद् विस्ताराद् द्विगुणविस्तारो हैमवतवर्ष: । हैमवतवर्षविस्ताराद् द्विगुणविस्तारो महाहिमवान् वर्षधरः । मद्दाद्दिमयत्पर्वतविस्तारा द्विगुणविस्तारो हरिवर्ष: । हरिवर्षविस्ताराद् द्विगुणविस्तारो निषधपर्यंतः । निषधपताद द्विगुणविस्तारो विदेहः । विदेह विस्तारादर्द्धविस्तारो नीलपर्वतः । नीलपर्वतादर्श - विस्तारो रम्यकवर्षः । रम्यकपर्षविस्तारादर्द्धविस्तारो रुक्मिपर्वतः । रुक्मिपर्वतविस्तारादर्द्ध - २५ विस्तारो हैरण्यवतवर्ष: । हैरण्यवत्तवर्ष विस्तार दर्द्ध विस्तारः शिखरि पर्वतः । शिखरि पर्वतविस्तारादर्द्ध विस्तार ऐरावतवर्षः । भरतक्षेत्र | दारभ्य पेरावतक्षेत्रपर्यन्तम् एकयोजनलक्ष जम्बूद्वीपप्रमाणं ज्ञातव्यमित्यर्थः । उत्तरा दक्षिणतुल्याः ॥ २६ ॥ उत्तरा ऐरावतादयो वर्षवर्षधरा नीलपर्वतान्ता दक्षिणतुल्या दक्षिणैर्भरतादिभिर्वर्ष- ३० १ विंशतिप- आ०, द० ज०, ब०, ब० । २ विस्तारो भरतक्षेत्रस्य व आ०, ६०, ज० । ३ भरतात् आ०, ब०, स० | १८ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ तत्वार्थवृत्ती [ ३।२७ धरैः तुल्याः सदृशा भवन्ति । अस्यायमर्थः--भरतक्षेत्रस्य यावान् विस्तारः तावान् ऐरावतक्षेनविस्तारः। हिमवत्पर्यतस्य यावान् विस्तारस्तावान शिखरिपर्वतविस्तारः। हेमवतक्षेत्रस्य यावान विस्तारः तावान हैरण्यवतक्षेत्रबिस्तारः। महाहिमवत्पवंतस्य याचाच विस्तारः तावान् रुक्मिपर्वतविस्तारः। हरिक्षेत्रस्य यावान्यिस्तारस्तावान् रम्यकक्षेत्र विस्तारः । निषधपर्वतस्य ५ यावान्विस्तारस्तावान् नीलपर्वतविस्तारः । एवम् ऐरावतादिस्थित हदपुष्करादिकं भरतादिसरशं ज्ञातव्यम्। भरतयोजन ५.६ कला ६। हिमवत्पर्वतयोजन १०५२ कला १२ । हैमयतक्षेत्रयोजन २१०४ कला २४ । महाहिमवत्पर्वतयोजन १२८८ कला ४८ । हारक्षेत्रयोजन ८५१६ कल्ला १६। निषधपर्वतयोजन १६८३२, कला १५२ । विदेहयोजन ३३६६४ कला ३८४ । नीलयोजन १६८३२ कला १९३। रम्यकक्षेत्रयोजन ८४१६ कला ५६। सक्मिपर्वतयोजन १२८८ १८ कला १८ । हैरण्यवतक्षेत्रयोजन १४ कला २४ । शिखरिपर्वतयोजन २०५२ कला १२ । ऐरायतक्षेत्र योजन ५२६ कला ६ । एवमेकत्र योजनेकलक्षम् । अधेदानी भरतादिक्षेत्रमनुष्यविशेषप्रतिपत्त्यर्थ सूत्रमिदमाहुःभरतैरावतपोर्बुद्धिहासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ॥२७॥ भरतश्च ऐरावतश्च भरतराजतो तुयोः भरतेरावतयोः । सम्बन्धे पठी। तत्रायमर्थः मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज १५ भरतस्य ऐरावतस्य च सम्बन्धिना मनुष्याणा भोगापभोगसम्पदायुःपरिमाणाशोन्नतिप्रभृतिभिः वृद्धिहासौ भवतः। वृद्धिश्च हासश्च वृद्धिसासौं, उत्सर्पणावसर्पणे भोगादीनां भवतः न तु भरतक्षेत्रस्य वृद्धिहासौ भवतः, क्षेत्रयोर्वृद्धिहासयोरसंगाछमानत्वात् , तेन तस्थितमनुष्याणां भोगोपभोगादिपु वृद्धिवानी स्याताम् । 'भरतराबतयोः' इत्यत्र यत्प्रोक्त प्रतीद्विवचनं तत्केचिंदा चार्याः ‘नोररीकुर्वते । कि तहि उररीकुर्यन्ति ? सामीत्रिचनमुररीकुर्घन्ति । तेनायमधः-भरते २० ऐरावते च क्षेत्र मानवानमित्यध्याहारात वृद्धिहासौ भवतः, अनुभवायुःप्रमाणान वृद्धिहानी स्यातामित्यर्थः । कोऽसौ अनुभवः कि वा आयुः किं वा प्रमाणमिति चेत् ? उच्यते- अनुभयः सुखदुःखयोरुपयोगः, आयुः जीवितकालनमाणम् , प्रमाणं तु कायोत्सेधः, इत्येतेषां त्रयाणामपि वृद्धिहासौ पञ्चजनानां भवतः । काभ्यां हेतुभ्यां नृणां भीगोपभोगादीनां वृद्धिह्रासो भवतः इत्युक्त उत्सपिण्यवसर्पिणीभ्यां द्वाभ्यो कालाभ्यां वृद्धिहासौ भवतः । उसर्पयति वृद्धि २५ नयति भोगादीन् इत्येवंशीला उत्सर्पिणी, अघसर्पयति हानि नयति भोगादीन् इत्येवंशीला अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी च अवसर्पिणी च उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यौ ताभ्याम् उत्सपिण्यवसर्पिणीभ्याम् । कथम्भूताभ्यामुत्सपिण्यवसर्पिणीभ्याम् ? पट्समयाभ्यां पट् षट समयाः कालविशेषाः विद्यन्ते ययास्ते पट्समये ताभ्यां पद समयाभ्याम् । तत्र तायत् अवसर्पिणीका १ उत्सण्या अबसपिप्या भी- भा०, १०. ज। उत्सगावसभी-घ० । २ नारीकुर्वन्ति स- भा०, ब०, ३० ज०। ३ “अथवा अविकरणनिर्देशः, भरते पंगायत्त च मनुष्याणां शिष्टासाविति ।" -7: सि०, राजवा. ३।२७।५ - मालारिमा-आ, ब, द०, जर। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७] तृतीयोऽध्यायः १३९ लस्य सम्बन्धिनः षट्समया उच्यन्ते सुषम सुपमा प्रथमकालः । सुपमा द्वितीयकालः । सुषमदुःषमा तृतीयकालः । दुःपमसुपमा चतुर्थकालः । दुःपमा पश्चमकालः | अतिदुःपमा कालः । अथ उत्सर्पिण्या: सम्बन्धिनः पट्सभया निर्दिश्यन्ते - अतिदुःपमा प्रथमकालः । दुःषमा द्वितीयकालः । दुःषमसुषमा तृतीयकालः । सुषमदुःषमा चतुर्थकालः । सुपमा पश्चमकालः । सुषम सुबमा पष्ठकालः । अथ किमर्थ सूत्रे उत्सर्पिण्या: पूर्व ग्रहणम् इदानीमवस - ५ पिंण्या वर्तमानत्वात् ; सत्यम् ; "अल्पस्वरतरं तत्र पूर्वम्" [कात० २५|२१२] इति वचनात् यदल्पस्वरं पदं भर्यात तपूर्व निपततीति कारणात् । तत्रावसर्पिणी कालस्य यः प्रथमः कालः सुषमसुषमानामकः स 'चतुःसमाकिटात स . त्रिसागरकोटी कोटि प्रमितः । यः सुषमदुःपमा नामकस्तृतीयः कालः स द्विसागरकोटी कोटिसमितः । यो दुःपमसुषमानामकश्चतुर्थः कालः स एकसागरोपमं को टीकाटिप्रमाणः परं द्वाचत्वा १० रिशत्सहस्रवर्षानिः । यस्तु दुःषमानामकः पञ्चमः कालः स एकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणः । यस्तु अतिदुःषमानामकः पष्ठः कालः सोध्येकविंशतिवर्षसहस्रप्रभाणः । अथ योऽलो उत्सर्पिणीकालसम्बन्धी अतिदुःषमानामकः प्रथमः कालः स एकविंशतिवर्षसहस्रममाणः । यस्तु दुःपमानाम को द्वितीयः कालः सोऽप्येकविंशतिवर्ष सहस्रप्रमाणः । यस्तु दु:पमसुषमानामकस्तृतीयः कालः से एक सागरोपमकोटीकोटिप्रमाणः परं द्वाचत्वारिंशद्वर्षसहस्रहीनः । यस्तु सुषमदुःषमा २५ नामकचतुर्थः कालः स द्विसागरोपमकोटीको दिप्रमितः । यस्तु सुषमानामकः पञ्चमः कालः स त्रिसागरोपमकोटी कोटि सम्मितः । यस्तु सुप्रमसुषमानामकः पष्ठः कालः स चतु:सागरोपमकोटी कोटिप्रमाणः । अवसर्पिण्या सम्बन्धिनि प्रथमकाले आदौ पूर्वकोत्तमभोगभूमि चिह्नानि ज्ञातव्यानि । द्वितीयकाले आदौ पूर्वोक्तमध्यमभोगभूमि चिह्नानि वेदितव्यानि । तृतीयकाले आदी पूर्वी जघन्यभोगभूमिलक्षणानि लक्षितव्यानि । हानिरपि क्रमेण ज्ञातव्या । तृतीयकाले पल्यस्याष्टमे भागे स्थिते सति पोडश कुलकरा उत्पद्यन्ते । तत्र पोडशकुलकरेषु मध्ये पदशकुलकराणामष्टम एव भागे चिपत्तिर्भवति । षोडशस्तु कुलकरः उत्पद्यते अम एव भागे विनाशस्तु तस्य चतुर्थकाले भवति । तत्र प्रथमकुलकर एकपल्यस्य दशमभागाः ज्योतिर प्रकल्पवृक्षमन्दज्योतिस्त्वेन चन्द्रसूर्यदर्शनोपन्नं भयं युगलानां निवारयति । द्वितीयः कुलकरः पल्यशतभागेक [भाग ] जीवितो ज्योतिरङ्गकल्पवृक्षातिमन्द्रज्योतिस्त्वेन २५ तारकादिदर्शनोत्पन्नयुगलभयनिवारकः । तृतीयः कुलकरः पल्यसहस्रभाग कॅभागजीवितो विकृतिगतसिंहव्याघ्रादिकूरमृगपरिहारकारकः । चतुर्थः कुलकरः पल्यदशसहस्रभागक भागजीवितः अतिविकृतिगतसिंहव्याघ्नादिक्रूरमृगर । निमित्तलकुटादिस्त्री कारकारकः । पचमकुलकरः पल्यलक्षभागेकभागजीवितो विरलकल्पवृक्षत्वे अल्पफलत्वे च बाना कल्पवृक्ष - १ या तंत्र व ज०२ यः सुषमानामा ३ मकोयकी- ज० । ४ मकाआ० द० ज० ० ५ निज्ञात- अ१०, ० ० ० ६ सन्नभ आ०, ब०, ६० ज० | ७- जी- आ०, ०, ख० ज० । ८ - स्वीकारकः आ०, ब०, ६०, ब० । २० Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती । ३१२७ सीमाकारकः। पष्ठकुलकरः पल्पदशलनमागेकभागजीयितः अतिविरलकल्पवृक्षत्वे अत्यल्पफलत्वे च गुल्मादिचिह्नः कल्पवृक्ष सीमाकारकः । सप्तमकुलकरः पल्यकाटिभागकभागजीयितः शौर्याापकरणोपदेशगजाधरोहणकारकः । अष्टमकुलकरः पल्यदशकाटिभागैक भागजीवितः अपत्यमुस्वदर्शनमात्रोत्पन्नभयविनाशकः । नवमकुलकरः पल्यशतकोटिभागैक५ भागजीवितः अपत्याशीर्वाददायकः । दशमकुलकर, पल्यसहस्रकोटिभागकभागजीवितः अपत्यानां रोदने सति चन्द्रादिदर्शनक्रीडमोपायदर्शकः । एकादशंकुलकरः पल्यसहरकोटिभागेकभागजीवितः, तस्य काले युगलानि अपत्यैः सह कतिचिदिनानि जीवन्ति । द्वादश कुलकरः पल्यलक्षकोटि भौगैकभागजीवितः, तस्य काले युगलानि अपत्यैः सह बहुकालं मार्गदर्शयन्ति, सच्चुलामी जातिकापायप्रवहणादरचनाकारकः, तथा पर्वताद्यारोहणाऽवरोहणो१० पायसोपानादिकारकः । तस्य काले अत्यल्पमेधा अत्यल्पवृष्टि' कुर्वन्ति । तेनैव कारणेन कुनयः कुपर्वताश्चोत्पद्यन्ते । त्रयोदशकुलकरः पल्यदशलक्षकोदिभागकभागजीवितः, स कुलकरः अदृष्टपूर्वजरायुःप्रभृतिमलं निराकारयति । चतुर्दशकुलकरः पूर्वकोटिवर्षजीवितः, सोऽपन्यानामदृष्टपूर्व नाभिनालं झीतिजनकं कर्त्तयति । तस्य काले प्रचुरमेघाः प्रचुरवृष्टिं कुर्वन्ति, अकृष्टपच्यानि सस्यादीनि चोत्पद्यन्ते । तद्भक्षणोपायमजानानां युगलानां तद्भक्षणो१५ पायं दर्शयति । अभक्ष्याणामौषधीनामभक्ष्यवृक्षाणाश्च परिहारश्च कारयति । कल्पवृक्षविनाशे क्षुधितानां युगलानां सस्यादिभक्षणोणयं दर्शयति । पञ्चदशकुलकरस्तीर्थक्करः । तत्पुत्रः षोडेशकुलकरश्चक्रवर्ती भवति । तौ द्वावपि चतुरशीतिलक्षपूर्व जीवितौ । तच्चरित्र महापुराणप्रसिद्धं ज्ञातव्यम् । दुःषमसुषमानामकः चतुर्थः कालः स एकसागरोपमकोटीकोटिप्रमाणः द्विचत्वारिंशद्२० वर्षसहस्रोनः, तस्यादौ मानवा विदेहमानवसदृशाः पञ्चशतधनुरुन्नताः। तत्र त्रयोविंशतिस्ती र्थकरा उत्पद्यन्ते पनिन्ति च । एकादश चक्रवर्तिनः नव बलभद्राः नव वासुदेवाः नव प्रतिवासुदेवा उत्पद्यन्ते, एकादश रुद्राश्च । तदुक्तम् "दोरिसहअजियकाले सत्तंता पुष्फयंतआईहिं । उप्पणा अट्ठहरा एक्को चिय वीरकालमि ॥ [ २५ नव नारदाश्चोत्पद्यन्ते । तदुक्तम् "कलहपिया कयाचिय धम्मरया वासुण्वसमकालाः। १ .-फारः आ० ज०। २ -दामकु- आ० । ३ -भागजी- आ०, ज. | -भागेकजीद०। ४ -डशः कु- ता०, व० | ५ निर्वाणं यान्ति आ०, २, द, म, प० । ६ -दाः तता० । -हरणा ए- आ० । ८ तुलना-"उसहदुकाले पढभदु सत्तणेसत्तसुविहिपहुदीसु | पीढो रातिजिणिंदे वीरे सच्चसुद्रो जादा ।।" -सिलोयसा० गा० ८३७ । गौ ऋषभाजितकाले सप्टान्ताः पुष्पदन्तादिभिः । उत्पन्नाः अष्टधरा एकश्च वीरकाले । ९ फलहप्रियाः कदाचिद्धर्मरता वासुदेवसमकालाः । भव्या अपि च नरकगति हिंसाद पेण गच्छन्ति ।। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ नृतीयोऽध्यायः भव्वा वि य गिरयाई हिंसादोपण गच्छंति ॥" तिलोयसा गा० ८३५] तस्य चतुर्थकालस्यान्ते विंशत्यधिकशतवर्षायुपी मनुष्याः सप्तहस्तोन्नताञ्च । टुःपमानामकः पञ्चमः' काल एकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणः, तदादौ विंशत्यधिकशतवर्षायुपी मनुष्याः सप्तहस्तोत्रादिशकाते-बिंधिोधो सुनामसामयहाशाशवाश्च । ५ ततोऽतिदुःपमानामकः पष्ठः कालः स एकविंशतिवर्ष सहस्राणि प्रवर्तते । तदादौ विंशतिवर्पा ग्रुपो मनुष्याः, तदन्ते पोडशवर्षायुषो मनुष्या एकहस्तोन्नताश्च । तस्यान्ते प्रलयकालो भवति । तदुक्तम् "सरसं विरसं तीक्ष्णं रूक्षमुष्णविषं विषम् । क्षारमेघाः क्षरिष्यन्ति सप्तसप्तदिनान्यलम् ।।" [ ] १० सर्वमिन्नार्यखण्डे प्रलयं गते सति द्वासप्रतिकुलमनुष्ययुगलानि उध्रियन्ते । चित्राभूमिः समा प्रादुर्भवति । अत्रावसर्पिणी समामा दशकोटीकोटिसागरोपमप्रमाणा । तदनन्तरं दशकोटीकोटिसागरोपमप्रमाण उत्सर्पिणीकालः प्रवर्त्तते । तस्यादौ अतिदुःषमासंज्ञकः प्रथमः कालः प्रवर्तते । तस्यादो एकोनपञ्चाशदिनपर्यन्तं क्षोरमेघा अहर्निशं वर्षन्ति । तदनन्तरं तादिनपर्यन्तममृतमेघा वन्ति । पृथिवी रूक्षता मुञ्चति । तन्मेघमाहात्म्येन वर्णादिगुणो १५ भवति, औषधितरुगुल्मतृणादीनि सरसानि भवन्ति, पूर्वोक्तानि युगलानि बिलादिभ्यो निर्गत्य औपध्यादिसरयादीनि सरसान्युपजीव्य सहर्षाणि जीवन्ति । स कालः एकविंशतिवर्षसहस्राणि प्रवर्तते । तबादौ षोडशवर्पायुषो मनुःया एकहस्तोत्सेधाश्च । तस्य कालस्यान्ते विशतिवर्षायुपो मनुष्याः सार्द्धहस्तत्रयोन्नताश्च । तदनन्तरं दुःषमानामको द्वितीयः कालः । स एकविंशतिवर्षसहसप्रमाणः । तदादौ विंशतिवर्णयुषो मनुष्याः सार्द्धहस्तत्रयोत्सेधाः । २० तस्य द्वितीयकालस्यान्ते वर्षसहस्रावशेषे स्थिते सति चतुर्दशकुलकरा उत्पद्यन्ते । ते अवसर्पिणीपश्चमकारनृपसदृशाः । तद्रुर्षसहस्रमध्ये त्रयोदशानां नृपाणां विनाशो भवति । "चतुर्दशस्तु कुलकर' उत्पद्यते तदर्षसहस्रमध्ये, विपद्यते तु तृतीयकालमध्ये । तस्य चतुर्दशस्य कुलकरस्य पुत्ररतीर्थकरो भवति । तस्य तीर्थक्करस्य पुत्रश्चक्रवर्ती भवति । तद्यस्याप्यु. त्पत्तिर्दुःपमसुषमानाम्नि नृतीयकाले भवति, विनाशस्तु त्रयाणामपि भवति । तस्यादौ विंशत्य- २५ धिकशतवर्षायुषो मनुष्या भवन्ति, सप्तइ स्तोत्सेधाः भवन्ति । स काल एककोटीकोटिसागरोपमप्रमाणः प्रवर्तते, परं वाचत्वारिंशद्वर्षसहस्रोनः । तन्मध्ये शलाकापुरुषा उत्पद्यन्ते । तस्य कालस्यान्ते कोटिपूर्ववर्षायुषो मनुष्याः सपादपञ्चशतधनुरुत्सेधाः। तदनन्तरं सुषम १ -गका- भात,०, द०, जः। २ -नामा - मा०, २०, ३०, ज.। ३ वादि । मा०, द., जा । ४ - धास्त - ना० । ५ चतुर्दशाकु - आ०, ब०, २०, ज०। ६ -कग उत्पद्यन्ते आ०,द०। -कर उत्पद्यन्ते ज०,व०। ७ वाक्यमेतन्नास्ति आ०, ब०. ज०,व० ता० । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्धवृत्ती [ ३२८-२९ दुःषमानामकचतुर्थः कालः । स हि कोटी कोटिसागरोपम श्रमाणः जघन्यभोगभूमिस्वभावः । तथा सुपमानामकः पञ्चमः कालः त्रिसागरोपमकोटीकोटिप्रमाणः । तत्र मध्यमभोगभूमिस्वभावः । तथा सुपमसुषमा नामकः समुदित: १४२ महा चमभोगभूमिस्वभावः । एवं चतुर्थकाले ईतिरेकापि न भवति । अहोरात्र५ विभागोऽपि नास्ति । ज्योतिरङ्गकल्पवृक्षोयोतेन सदैव दिवसः । मेघवृष्टिस्ति । शीतबाधापि न वर्तते। आपकष्टं काचिदपि न वर्तते । क्रूरमृगवाधा नास्त्येव । अत्र दशसागरोपमकोटी कोटिप्रमाण उत्सर्पिणीकालः समाप्तः । तदनन्तरमवसर्पिणी कालः प्रवर्त्तते । स पूर्वोक्तलक्षणो ज्ञातव्यः । एवमष्टादशसागरोपमकोटीकाटिप्रमाणः कालः भोगभूमिमयो ज्ञातव्यः । उत्सर्पिण्यवसर्पिणीनामिकाभ्यां द्वाभ्यां कालाभ्यां कल्पः कथ्यते । भोगभूमिजा १० मनुष्याः स्वभावेन मधुरभाषिणो भवन्ति । "सर्व कलाकुशलाः सर्वेऽपि समभागा अरजोऽम्बरा निःस्वंदा इयमात्सर्यादिरहिता बलित्वामलित्वमुक्ता अनाचारकार्पण्यकोपाद्य रुचिग्लानिभयविषाद कामज्वरान्माद विरहुलाला शरीरमलनिद्रात्यु ( क्ष्यु ) न्मेपनि मेपन्यचिन्ताऽनिष्टयोगेटवियोगातङ्कजरारहिताः । 'चन्मात्रेण स्त्रियां म्रियन्ते । जृम्भितमात्रेण पुरुषाः पवत्मा१५ प्नुवन्ति । तत्र नपुंसकः कोऽपि नाति । मृगाः सर्वेऽपि विशिष्टतृणचारिणः समानायुपा भवन्तीति विशेषः । ܕ: अथ भरत रावतमनुध्यस्वरूपनिरूपणानन्तरं हैमवतश्विर्ष देवकुरुक्षेत्रत्रयस्वभावोद्धा चनार्थं सूत्रमिदमुच्यते— ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ॥ २८ ॥ ताभ्यां भरतैरचताभ्यां क्षेत्राभ्याम् अपरा अन्या भूमयः हैमवतक्षेत्र रिक्षेत्रदेवकुरुनामिकास्तिस्रो भूमयोऽवस्थिताः सर्वदेव एकः कश्चित्कालस्तासु वर्तते । हैमवतक्षेत्रे सदैव तृतीयः कालोऽस्ति, हरिक्षेत्रे द्वितीया, देवकुरुषु प्रथमः कालः । अवसर्पिण्याः कालेन सदृश इत्यर्थः । परं यंत्र उत्सर्पिण्यसपिण्यौ कालौं न वर्तेते | 'तर्हि विध्यपि क्षेत्रेषु मनुष्या आयुषा सदृशाः सन्ति, अथवा अस्ति कश्विद्विशेषः ' २५ इत्युक्ते त्रयाणामपि क्षेत्राणां मनुष्याणामायुविशेषप्रतिपत्यर्थं सूत्रमिद्माचछेएकदित्रिपल्योपस्थितयो हैमवतकहारि वर्षकदैव कुरवकाः ।। २९ ।। एकच द्वौ च त्रया एकत्रियः ते च ते पल्योपमा एकद्वित्रिपल्योपमाः कालविशेषाः, ते स्थितयः आयूषं येषां ते एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयः । ईदृशाः के ? हेमवतकहा रिवर्षक देवकुरवकाः । हैमवतक्षेत्रे भवा हैमवतकाः । हरिवर्षक्षेत्रे भवा हारि वर्षकाः । देवकुरुक्षेत्र २ नास्ति आ०, ६०, ज० । २ वृक्षघातेन । ४ - भूमयो ज्ञा- भ० भूमिजो ज्ञा- ज०५ कलामु कु प्राप्नु भ० ज० । ८ प्रथमका- आ०, ब०, ३ नास्ति श्र०, दु० ज०, ब० । वा० ब० । ६ शिक्कामात्रेण । ७ - स्वं ० ५ तत्र ता० आ० द० ज० Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ ३३.२१ । तृतीयोऽध्यायः भवा देवकुरपकाः । हैमयतकाश्च 'हारिवर्ष काश्च देवकुरवकाश्च हैमवतकहारिवर्षकदैवकुरथकाः । अस्यामर्थ:--पञ्चमेरुसम्बन्धिनां पञ्चानां हेमवतक्षेत्राणां सम्बन्धिना मनुष्याणां सदा सुषमदु.पमाकालानुभंवनम् , आयु.स्थितिरेकपल्योपमा द्विधनुःसहस्रोन्नतिः, एकान्तरेण मुक्तिश्च इन्दीवरवर्णवर्णश्च । पम्नानां हरिवर्प क्षेत्राणां सम्बन्धिना मनुष्याणां सदा सुषमाकालानुभवनम् , आयु स्थितिः द्विपल्योपमा, चतुश्चापसहस्रोन्नतिश्च द्विदिनान्तरेण भुक्तिश्च, ५ कुन्दावदातानि शरीराणि । पचानां देवकुरूणां सम्बन्धिना मनुष्याणां सदा सुषमसुषमाकालानु भवनम् , आयुःस्थितिः त्रिपल्योपमा, षट्धनुःसहस्रोत्रतिश्च, त्रिदिनान्तरेण भुक्तिः, काञ्चनवर्णानि शरीराणि । तहिं हैरण्यवतरम्यकोत्तरकुरूणां मनुष्याः कीदृशाः सन्तीति प्रश्ने सूत्रमिदमाचष्ठे तथोत्तराः ।। ३०॥ तथा तेनैष हैमवतादिक्षेत्रत्रयमनुष्यप्रकारेण उत्तराः हैरण्यवतरम्यकोत्तरकुरूणां मनुष्या ज्ञातव्याः । अस्यायमर्थः-हैमवतक्षेत्रमनुष्यसदृशा हेरण्यवतक्षेत्रमनुष्याः। हरिवर्षक्षेत्रमनुष्यसदशा रम्यकक्षेत्रमनुष्याः। देबकुरुक्षेत्रमनुष्यसदृशा उसरकुरुक्षेत्रमनुष्याः । तर्हि पूर्वविदेहाऽपरविमनष्याणां स्थितिः कीदृशी वर्तते इति प्रश्ने सुत्रमिदमाचः विदेहेषु संख्येयकालाः ॥ ३१ ॥ विगतो विनष्टो देहः शरीरं मुनीनां येषु ते विदेहाः प्रायेण गुक्तिपदप्राप्तिहेतुत्वात् , तेपु विदेहेषु पञ्चानां मेरूणां सम्बन्धिनः पञ्चपूर्वविदेहाः पञ्चापरविंदेहाः उभये मिलित्वा पञ्चमहाविदहाः कथ्यन्ते। तेषु मनुष्याः संख्येयकालाः, संख्यायते गणयितुं शक्यते, संख्येयः, उत्कर्षेण पूर्वकोटिलक्षण: जघन्येान्तमुहूर्तलक्षणः संख्येयः कालो जीवितं येषां ते संख्येयकालाः । अस्यायमर्थ:--सर्वेषु पञ्चसु महाविदेहेषु सदा सुपमदुःपमाकालान्तकाल- २० सदृशो दु.पमसुषमानामकः सदा निश्चलः कालो वर्तते । तत्र पञ्चजनाः पञ्चचापशतोन्नता भवन्ति, नित्यभोजनाश्च वर्तन्ते । किं ता पूर्व येन गणितं तेषामायुः ? तथा चोक्तम् "पुंन्यम्स दु परिमाणं सदरि खलु कोडिसदसहस्साई । छप्पण्णं च सहस्सा बोधवा वासकोडीणं ।।" [जम्चू: प० १३२१२] २५ अस्यायमर्थः-समतिलनकोटिवर्षाणि पटपञ्चाशत्सहस्रकोटिवणि या भवन्ति तदा एक पूर्वमुच्यते । तस्य पूर्वस्य अक्रमो यथा-दशश न्यानि तदुपरि षट्पञ्चाशत् तदुपरि सप्ततिः-७०५६००००००००००। ईदम्विधानि पूर्वाणि शतलक्षाणि तेषां मनुष्याणायुभवति । अधेदानों पुनरपि भरतक्षेवस्य प्रमाणं प्रकारान्तरेण निरूपयन्त्याचार्याः १ हारिधपांश्च भाछ, ज० । २ -नायनामा - ता०, 4 । ३ --युः पु-त। ४ पूर्वस्य नु परिमाणं सप्ततिः बढ़ काटिशतसहस्राणि । पपञ्चाशत् न सहस्राणि श्राद्धानि वर्षको टीनाम् ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ तत्त्वार्थवृत्ती [ १३२ भरतस्य विष्कम्मा जम्बूदीपस्य नवतिशतभागः ॥ ३२ ॥ भरतस्य भरनक्षेत्रस्य विष्कम्भो विस्तारः जम्बूद्वीपस्य जम्बुद्वीपविस्तारस्य एकलक्ष. योजनप्रमाणस्य नतिशतभागः--एकलक्षयोजनस्य नवत्यधिकाः शतभागाः क्रियन्ते, तेषां मोदीको भागलाणावर निखिासायेद सफाईन। स एको भागः पड्विंशत्यधिक पञ्चयोजनशतप्रमाणः पट कलाधिको भवतीति तात्पर्यम् । जम्प्रदीपस्यान्ते या वेदिका वर्तते सा लभयोजनमध्ये गणनीया, समुद्रयिस्तारमध्ये न गण्यते । एवं सर्वपा द्वीपाना या वेदिकाः सन्ति ताः सर्व अपि द्वीपविस्तारमध्ये गण्यन्ते न तु समुद्रविस्तारमध्ये गण्यन्ते । लवणोदसमुद्रमध्यप्रदेशेषु पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणेषु दिग्भागेषु चतुयुं चत्वारः पातालसनका यउवा नलाः सन्ति ते अलजलाकाराः प्रत्येक लक्षयोजनगम्भीराः, ते मध्यप्रदेश लक्षयोजद१० विस्ताराश्च भवन्ति । ते मुरवपु मलेपु च दशयोजनसह विस्तारा भवन्ति । तथा लत्रणसमुद्र मध्येषु चत्तमपु विदिक्षु क्षुद्रवडवानलाचत्वारः । ते चत्वारोऽपि प्रत्येक दशसहस्रयोजन गम्भीरा भवन्ति । मध्यप्रदेशेषु दशसहस्रयोजनविस्ताराश्च सन्ति । मुग्यपु मूलघु च एक. योजनसहस्रबिस्तारा भवन्ति । अष्टानामप्या णामष्टम्वाप्यन्तरालेषु एककरिमन्नन्तराले श्रेणिरूपस्थिवाः सपादशनसंख्या वाढवा भवन्ति । ते तु योजनसहनगम्भीराः, तथा १० मध्ये योजनसहस्रविस्ताराः, मुखपु मूलप च पञ्चयोजनशतविस्ताराः । एवमेकत्वे अनाधिकसहस्रसंख्याः प्रसिद्धा वडवानला वेदितव्याः । तेषाम अन्तरालेषु क्षुद्रक्षुद्र तरा और्वा अप्रसिद्धा बयः सन्ति । सर्वेपो बडवानलानां प्रयो भागाः । तत्राधस्तनभागेषु वायुरव वर्तते मध्यभागेपु वायुजले वर्तते । उपरितनभागेपु केवलं जलमेव । यदा वायुमन्द मन्दम धस्तनभागेभ्यो मध्यममागेषु चरति । तदा मध्यभागजलं मरुत्प्रेरितमुपरितनभागेषु चरति । २० ततः सार्वजलमिलितमब्धिजलं वेलादिरूपतया बद्धते । यदा पुनः मन्द मन्दं नमस्त्रानधो भागेषु गच्छति तदा वेलादिरूपग स्फीति निवर्तते । लवणोद एव वेला वर्तते नान्येपु समुद्रषु । अन्येषु समुन्द्रेषु वडवानला न सन्ति । यस्मात्सर्वेऽपि अन्धय एकयोजनसहगम्भीराः । लवणोदस्यैव जलमुन्नतं वर्तते, अन्येषां जलं समं प्रमृ तमस्ति । लवणोदो लवणस्वादः। वारुणी समुद्रो मद्यस्वादः । क्षीरोदो दुग्धस्वादः । पृतोदो वृतस्वादः । कालोदः पुष्करोदश्च स्वयम्भूर२५ मणोदश्च य एते अम्बुस्वादाः। शेषाः सर्वेऽपि इक्षुम्बादाः। लवणोदकालोदस्वयम्भूरम गोदास्त्रयः कच्छपमस्या दिजलचरसहिताः । अन्ये सर्वेऽपि निर्जलचराः । लवणोदे सरिन्मुखेपु मत्स्या नरयोजनाङ्गाः, अब्धिमध्ये तद्विगुणशरीराः। कालोद सरिन्मुखेषु १-यास आ७. ब०. द., ज.। २अन्जलाका- बा०,२०, जाय । ३- यो मा०, २०, ज०, 4० । ४ - शेषु ल- आ०, ३० ज० 20, 40 । ५ -न्ति तथा म- आ०, ६०, ज०, ब। ६ मीर्चः बाडवाग्निः । ७ -भयन्त - ज०। ८ च बी- भा.. यस. २०, ज० । च एकया - व०। ९ -तिनि वर्त- ज०, ३०। १० - एते यः अ- मा, द०, ज. । ११ -दः कालोदः स्वयम्भूमरणोदश्च एते त्रयः ज० | १२ -दिस- भा०, १०, ज० | Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६३-३४] तृतीयोऽध्यायः अष्टादशयोजनवपुषः, अब्धिमध्ये तद्रिगुणकायाः। स्त्रयम्भरमणादयस्तटवतिनो मत्स्याः पञ्चशतयोजनदेहाः, अब्धिमध्ये तद्विगुष्यमाणः । लवादकालादपुष्करोदे सरित्प्रवेमार्गदर्शक शक यशद्वारावतमधुरसमुन्द्र सागणिन्ति । तेषां वेदिका टोत्कीर्णभित्तिरिव वर्तते । अवेदानी धातकीखण्डद्वीपस्य भरतादिश्शेत्रसंख्या निगद्यने द्विर्धातकीम्बण्डे ।। ३३ ॥ धातकीखण्डे द्वीपे भरतादीनि क्षेत्राणि विर्भवन्ति दिगुणानि भवन्ति । कथम् ? धातकीखण्डद्वीपस्य दक्षिणस्यां दिशि इवाकारनामपर्यनो वर्तते । स पर्वतः लवणोदकालोदसमुद्रवेदिकास्पर्शी दक्षिणोत्तराग्रतः । तथा धातकीखण्डद्वीपम्योत्तरस्यां दिशि इक्ष्वाकारनामा द्वितीयः पर्वतोऽस्ति । सोऽपि लवणोदकालोदसमुद्रवेदिकास्पर्शी दक्षियोत्तरायतः । उभावपि इध्याकारी पर्यंतो प्रत्येक चतुर्लभयोजनायती । ताभ्यां दाभ्यामिध्वाकाराभ्यां पर्वताभ्यां १० विभक्तो धातकीस्खण्डद्वीपः पूर्वधातकीखण्डः अपरधातकोखण्डश्यति विभागीकृतः । द्रुयोहयोभीगयोमध्ययोः पूर्वस्यां दिशि पूर्व मेरुः, अपरस्यां दिशि अपरमेमः । तयोमेोः सम्बन्धीनि भरतादीनि क्षेत्राणि द्विगुणानि भवन्ति । तेन पूर्वघातकीभरतः अपरधान भरतश्च धातकीखण्डद्वीपे द्वौ भरतों वर्नेते। एवं पूर्वधातकीखण्डक्षुद्रहिमवान अपरधातकीखण्डक्षुर्लाहमांश्च धातकीखण्डद्वीपे नौ मुहिमवन्तौ पर्वती, पूर्वधातकीखण्ड हैमवतमपरधातकीखण्ड हैमबतञ्च १५५ हेमत्रते" क्षेत्रे, द्वौ महाहिमवन्तौ पर्वतो, हे हरिवर्ष क्षेत्र, द्वी निपधौ पर्वतो, द्वौ विही. द्वौ नीलपर्वती, हे रम्यकक्षेत्रे, द्रौ रुक्मिणी पर्वती, द्रं हैरण्यवतक्षेत्रं, हौ शिखरिणौ पर्वती, द्वे एरावतक्षेत्रे । जम्बद्वीपभरतरावतक्षेत्रमध्यस्थितविजयापर्वतवत् चत्वारो विजयाद्धपर्वताः । एवं दक्षिणत आरभ्य उत्तरपर्यन्तं जम्बुद्वीपक्षेत्रपर्वतवत् धातकीद्वीपक्षेत्रपर्वता उभयतो वेदितव्याः। जम्यूहीप हिमवदादीनां पर्वतानां यो विस्तार उक्तः स धातकीडीप-२५ हिमयदादीनां पर्वताना विस्तारोऽपि द्विगुणो वेदिनव्यः, उन्नत्यवगाही समानी। नथा विजयाद्ध वृत्तवेदान्यादयश्च समाना वर्तन्ते। ये हिमवदायो वर्पधरनामानः पर्वताः ते चक्रम्य अरवद्वस्थिता वर्तन्ते । वर्षधराणां मध्ये मध्ये बे यः क्षेत्राणि वर्तन्ते तानि अराणा विवराकाराणि सन्ति । अथ पुष्करार्धक्षेत्रादिस्वरूपमाह--- __ पुष्कराद च ।। ३४ ॥ पुष्कराद्धद्वीपे च जम्बूद्वीपक्षेत्रादिफान धातकीडीपक्षेत्रादिवत् दिदि गुणानि क्षेत्रादिद्रव्याणि भवन्ति । तेनायमर्थः-- यथा धातकीडीप द्वौ इक्ष्वाकारौ घणितो तथा पुष्कराद्धं च द्रौ इक्ष्वाकारौ पर्वती अष्टलक्षयोजनायतौ दक्षिणोत्तरयोः वर्नते । ताभ्यां पुष्करा? द्विधा १ -कायावर्भाणः भा०।२ -कराधैआ०, ३., ज.। ३ सर्वत. आ०, द. ज. । ४ -नि द्व्याणि द्वि-ता । ५ -बतक्षेत्रे सा० । ६ -वश्ववारा स-आ। ७ व्यत्ररा-ता. प, आ,५०। ८ -वत् द्वि-जा । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ तत्वार्थ वृत्ती [ ३३५-३६ विभक्तः । तत्रापि पूर्व मेरुरपर मेरुश्च हौ मेरू वर्त्तेते। तेन धातकीखण्डदीपवदत्रापि द्रौ पूर्वापरी भरती, हवन्तौ हो. हे चमक्षेत्रे, हो महाहिमवन्तो वर्षवरों ने हरिक्षेत्रे, द्वौ प महादे, नीलो, द्रे रम्यकक्षेत्रे, द्वौ रुक्मिणौ पर्वतों है हैरण्यक्षेत्रे, श्री शिखरिणो पर्वतों ने ऐरावतक्षेत्रे, भरतैरावतापेक्षया चत्वारो विजया, विदापेक्षया ५ अषष्टिविजयाद्धीः । एवं धातकी द्वीपविजयार्द्धाश्च वेदितव्याः । अयं तु विशेषः - यथा घातकीखण्डद्वीपे हिंमत्रदादीनां वराणां विस्तारो जम्बूद्वीप हिमवदादिभ्यो द्विगुणः प्रीतः तथा पुष्करार्धहिमवदादीनां पर्वतानां धातकी खण्डहमवदादिभ्यो वर्षघरेभ्यो द्विगुणो विस्तारो वेदितव्यः | अथ पुष्करार्धसंज्ञा इति कथम् ? अत्रोच्चाते- मानुपोचरपर्वतेन वलयाकारेण १० विभक्तार्द्धत्वात् पुष्करार्ध इति संज्ञा । 're genre इति प्रश्ने सूत्रमिदमुच्यते अर्धः पुष्करार्धः किमिति वर्णितः कस्माच्चार्द्धः पुष्करार्द्ध स्त्यक्तः ' मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज प्राङ मानुषोत्तरान्मनुष्याः ॥ ३५ ॥ • 1 मानुषोत्तरात्पर्वतात् पुष्करदीपचहुमध्यदेशभागवर्तिनः सकाशात् वलयाकारात् प्राक् १५ अर्वाक् मनुष्याः मानवा वर्त्तन्ते तेन कारणेन अर्ध एवं वर्णितः । मानुषोत्तराद्वहिर मानत्रा न सन्ति । बहिर्भागे भरतक्षेत्रादिहिमवत्पर्वतादिविभागोऽपि नास्ति । मानुषीत्तराद्रद्दिविद्याधरा न गच्छन्ति, ऋद्धिप्राता मुनयोऽपि न यान्ति, नयोऽपि बहिर्न गच्छन्ति किन्तु मानुषोत्तरं पर्वनमाश्रित्य तिष्ठन्ति । मानवक्षेत्रत्रसाश्च बहिर्न त्रजन्ति । यदा मानुषोतरपर्वताद्वहिर्भागे मृतो जीवः 'तियं देवो वा मानुषक्षेत्रमागच्छति तदा मानवधिप्रगत्यानु २० पूर्येण समागच्छन् मानुपोत्तराष्ट्र हिर्भागेऽपि मनुष्य इत्युपचर्यते । तथा दण्डकपाटमतरलोकपूरणलक्षण समुद्रातकाले मानुपोत्तरवहिर्भागे च मनुष्यो भवतीति लभ्यते । अथ प्राङ् मानुषोत्तरान्मनुष्याः प्रोक्ताः, ले तु मनुष्याः कतिप्रकारा भवन्ति इति प्रश्न गुत्रमिदमाहुः כוי आर्या म्लेच्छाश्च ॥ ३६ ॥ २५ आर्यन्ते सेव्यते गुणगुणद्भिर्वी इत्वार्याः । म्लेच्छन्ति निर्लज्जतया व्यक्तं ब्रुवन्ति इति म्लेच्छाः । चकारः परस्परममुच्चये वर्तते । तेनायमर्थः - आर्या म्लेच्छ चोभयेऽपि मनुष्याः कथयन्ते । तत्रार्याः द्विप्रकारा भवन्ति । कौ तौ दौ प्रकारौ ? एके ऋद्धिप्रातः आर्याः, अन्ये ऋद्धिरहिताश्च । ऋद्धिप्राप्ता आर्या अष्टविधाः । के ते अष्टो ነ ። ५५ १ : प-- ता० आ० २ अयोच्यते भा० द० ज० । ३ अर्ध- आ०, ० ० ० । २ -पु- आ, ३० ज०, ३० । ६ अवाकू ता० । ७ -चरपवा आ । ९ मनुष्या भवन्तोति आ०, ब०, ० | १० ते म १२ अन्ये च ऋ० । १३ ऋद्धिप्राप्तार्या वा०, ब० । ४ किमतः च । किमितः ता० । आदर,ज०, ब० । ८ तिर्यदेव आ० द० ज० | ११ परसरे Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ तृतीयोऽध्यायः विधाः १ बुद्धिः क्रिया विक्रिया तपो बलमौषधं रसा क्षेत्रं चेति ।। तत्र बुद्धि-ऋद्धिप्राप्ता अष्टादशभेदाः --अवधिज्ञानिनः, मनःपर्ययझानिनः, केवलशानिनः, बीजबुद्धयः, कोष्ठभुक्षयः, सम्भिन्नश्रोत्रिणः, पदानुसारिणः, दूरस्पर्शनसमर्थाः, दूररसनसमर्थाः, दूरघाणसमर्थाः, दूरश्रवणसमर्थाः, दूरावलोकनसमर्थाः, अभिन्नदशपूर्विणः, चतुर्दशपूर्षिणः, अष्टाङ्गमहानिमित्तोः , प्रत्येकयुद्धाः, वादिनः, प्रशाश्रमणाश्चेति । बीजबुद्धिरिति कोऽर्थः ? एकबीजाक्षरात् शेषशास्मशानं बीजबुद्धिः । कोष्ठयुद्धिरितिकोऽर्थः १ कोष्ठागारे संगृहीतविविधाकारधान्ययत् यस्यां बुद्धौ वर्णादीनि श्रुतानि बहुकालेऽपि न विनश्यन्ति मा कोषयुद्धिः। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी एड किया-ऋद्धिप्रिकारा-जच्यादिचारणत्वम् चारणत्वं भूम्युपरि चतुरङ्गुलान्तरिक्षगमनं 'जवाचारणत्वम् । श्रेणिचारणत्वं विद्याधर श्रेणिपर्यन्ता- १० काशगमनम् । “अग्निज्वालोपरि गमनम् अग्निशिखाचारणत्यम् । 'जलमस्पृश्य जलोपरि गमनं जलधारणत्वम् । पत्रमस्पृश्य पत्रोपरि गमनं पत्रधारणत्यम् । फलमस्पृश्य फलोपरि गमनं फलधारणत्वम् । पुष्पमस्पृश्य पुष्पोरि गमनं पुष्पचारणत्वम् । बीजमस्पृश्य बीजोपरि गमनं बीजधारणत्वम् । तन्तुमस्पृश्य तन्तूपरि गमनं तन्तुचारणत्वचेति जवादिचारणत्वं नवविधम्। ___ आकाशगामित्वं किम ? पर्यकासनेनोपविष्टः सन् आकाशे गच्छति । ऊर्ध्वस्थितो पा आकाशे गच्छति । सामान्यतयोपविष्टो वा आकाशे गच्छति । पादनिक्षेपोरक्षेपणं विना आकाशे गच्छति आकाशगामित्वम् । इति क्रियाऋद्धिर्द्विप्रकारा। विक्रियद्धिः अणिमादिभेदैरनेकप्रकारा । सूक्ष्मशरीरबिधानम् अणिमा । अथवा 'विशछिद्रेऽपि प्रविश्य चक्रवर्तिपरिवारविभूतिसर्जनमणिमोच्यते । महाशरीरविधान महिमा । लघु- २० शरीरविधान लधिमा । गुरुशरीरविधानं गरिमा । भूमिस्थितोऽप्य २ ( तस्याप्य ) कुल्यप्रेण मेरुशिखरचन्द्रसूर्यादिस्पर्शनसामर्थ्य प्राप्तिरुच्यते । जले भूमाविव गमनं भूमौ जल इव मज्जनोन्मज्जनविधानं प्राकाम्यम् । अथवर जातिक्रियागुणद्रव्य सैन्यादिकरण प्राकाम्यम् । त्रिभुवनप्रभुत्वमीशित्वम् । सर्वप्रापिगणवशीकरणशक्तिर्वशित्वम् । पर्वतमध्येऽपि आकाश इष .- - -... -. १ -भेदाः केवलिनः अवधिशानिनः मनःपर्य यज्ञानिनः बीज-ता०, ० | २ जीवबुद्धयः व० । ३ निमित्ताः आर, द०, ज०, प० । ४ गोठागा- भा०, २०, ब०, ०। ५ क्रियद्धिद्धिआ०.०, ०। ६ एतत्पदं पुनसक्तमस्ति । ७ -पर्यन्तमाका-१ | पन्तगताकाश-- भा० । ८ अग्निचारणम् अग्निज्वालोपरिगमनम् आ०, २०, म०, व. १ ९ बल चारणलं जल्दोपरिगमनम् मा०, व., ज०, ब. | १० आकाशगामित्वमिति सामान्यतयोपविष्यो आकाशे गच्छति पादनिक्षेपोरक्षेपणं विना आकाशमामित्वमिति मा०, द., ज.। ११ वंशहिद्रेण प्रषि-५० । विशस्तन्तु. नालः | १२ -स्थितोऽङगु-- मा०, २०, ०१० । १३ --द्रव्यं से-वा. ० । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती [ ६३६ गमनम् अप्रतीपातः । अनेकरूपकरणं मूंर्तामूर्तीकारकरणं वा कामरूपित्यम् । अष्टरूपताऽन्त‘नम् । इत्यादि विकिद्धिः । __घारतको महातप उपतरों दीप्रतपस्ताततपो घरगुणब्रह्मरिता धोरपराक्रमता चेति तप. ऋद्धिः सप्तधा । तत्र-जोरतपः सिंव्यायक्ष चित्रकतरक्षुप्रभृतिरश्वापदाकुलेषु गिरिकन्द५. रादिपु स्थानेषु भयानकश्मशानेषु च प्रचुरतर शीतवातातरादियुक्तेषु स्थानेषु स्थित्वा दुर्द्धरोप सर्गसहनपरा ये मुनमस्ते घोरतपसः। पक्षमासपण्मासवर्पोपवासविधातारो ये मुनयस्ते मामासाःआश्विासासागस्वाति महासानं बात्पद्यते, अराः परम् उपचासो न भवतीति निश्चयः । उप्रतपः-पश्चम्यामष्टम्यां चतुर्दश्याञ्च गृहीतोपवासघ्रता अलाभद्रये अलाभत्रये वा त्रिभिरूपवासश्चतुभिरुपवासः पश्चभिर्वोपवासः कालं निर्गमयन्ति इत्येवं १० प्रकारा उतपसः । शरीरदीप्त्वा द्वादशाकंतेजस्का दीप्ततपसः। तमायसपिण्डपतितजलबिन्दु वत् गृहोनाहारशोषणपरा नीहाररहिता ये ते तपतपसः। सिंहव्यावादिसे वितपादपद्मा घोरगुण ब्रह्मचारिणः । भूतप्रेतबेतालराक्षसशाकिनीप्रभृतयो यान् दृष्टया बिभ्यति ते घोरपराक्रमाः । बलद्धिस्त्रिप्रकारा । अन्तर्मुहुर्तेन निखिल श्रुतचिन्तनसमर्था ये ते मनोलिनः। अन्तमुंहूनाखिलश्रुतपाठशक्तयो ये ते वचोलिनः । मासचतुर्मासषण्मासवर्ण पर्यन्तकायोत्सर्ग१५ करणसमर्था अझुल्यनेणापि त्रिभुवनमप्युद्धृत्य अन्यत्र स्थापनसमर्थी ये ते कायलिनः । औषद्धिरष्टप्रकारा- "चिचिलपनेन, एकदेशमलस्पर्शनेन, अपक्काहारस्पर्शनेन, सर्वाङ्गमलस्पर्शनेन, निष्ठीबनस्पर्शनेन, दन्त केदानखमूत्रपुरीपादिसर्वेग (दिस्पर्शनेनी, कृपादृष्ट यवलोकनेन, कृपादन्तपीढनेन येषां मुनीनां प्राणिरोगाः नश्यन्ति ने अष्टप्रकारा औपधर्द्धयः । रमऋद्धिः पट प्रकारा । पोचला मुनयो यमक्षिगत प्राणिन म्रियस्वेति वदन्ति सोऽक्षिगतः २० प्राणी तत्क्षणादेव महाविपरीतो नियते एवं विध सामथ्य येषां ते आस्यविपाः वाग्विषा अपर नामानः कथ्यन्ते । तपोचला मुनयः क्रुद्धाः सन्तो यमक्षिगतमीक्षन्ते स पुमान् तरक्षणादेव "तीवासपरीतः पत्र प्राप्नोति एवं विघं सामध्य येषां ते दृष्टिविपा इत्युच्यन्ते । येषां पाणिपात्रगतं भोजनं नीरसमपि श्रीरपरिणामि भवति, वचनानि वा श्रीरवत् क्षीणसन्तर्प काणि भवन्ति ते क्षीरस्राविण उदयन्ते । । येषां पाणिपात्रगतमशन नीरसमपि 'मधुरसपरि. २५ णामि भवति, बचनानि वा श्रोतणां मधुस्यादं जनयन्ति ते मध्वास्राषिणः प्रोच्यन्ते। "येषां पाणिपात्रगतमन्नं रूक्षमपि घृतरसपरिणामि भवति, वचनानि वा श्रोतृणां धृतपामस्वाद जनयन्ति ते ५ सर्पिरास्राविणः । येषो पाणिपात्रगतमन्नं वचनञ्चामृतवद्भवति ते "अमृताचारिणः । १अनेकोप आ०।२ मा कारक-श्राद०।३ च्यानयाचि-व -तरक्षमल्लका - ज० । -तरशुभकाम- आ.द. १५ सर्वोचबासे आ०, द०, ज । ६ मोल-भार, द०, ज ६० । ७-सना ज० । वासा अ-दु।८-यस्तान् दृष्ट्वा येन विभ्वन्ति आ....ज०। ५ विलेपभा०, ६०, इ.! १० तीविषव्याप्तः । ११ उच्यन्ते श्रा०, द०, य० । १२ मधुररस- मा., ०, ज.। १३ मधुरस्ता- प्रा., १०, ज० । १४ मद्यसा- ता० । १५ श्रा, द०, ज० प्रतिषु अमतालाविलक्षण प्रथममस्ति । १६ घृतस्रावि- श्रा०, द०, ज० । १७ अमृतस्त्रा-मा०, २०, जा | Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३श३६ ] तृतीयोऽध्यायः १४९ क्षेत्रर्द्धिर्द्विप्रकारा - अक्षीणमहानसद्धिः अक्षीणालयर्द्धिश्च । तत्राक्षीणमहानसद्धिः यस्मिनमत्रे' अक्षीणमहान सैमुनिभिर्भुक्तं तस्मिन्नंमत्रे चक्रवत्तिपरिजन भोजनेऽपि तद्दिने अनं न क्षीयते ते मुनयः अक्षीणमद्दानसाः कथ्यन्ते । अक्षीणमहालयातु मुनयो यस्मिन् चतु:येsपि मन्दिरे निवसन्ति तस्मिन् मन्दिरे सर्वे देवाः सर्वे मनुष्याः सर्वे तिर्योऽपि यदि निवसन्ति तदा तेऽखिला अपि अन्योन्यं बाधारहितं सुखेन तिष्ठन्ति इति अक्षीणालयाः । ईशा ५ मनुष्या ऋद्धिप्राप्ता भवन्ति । ऋद्धिरहिता आर्यास्तु पचप्रकारा भवन्ति । के ते पचप्रकाराः ? सम्यक्त्वार्याः, चारित्रार्याः, कर्मार्याः, जात्यार्याः, क्षेत्रार्याश्चेति । तत्र सम्यक्त्वार्थाः सम्यग्दृष्टयो तर हिता इत्यर्थः । चारित्रार्या चारित्रप्रतिपालका यतयः । कर्मार्यास्त्रिप्रकारा - सावद्य कर्मार्याः, अल्पसावधकर्मार्याः, असावधकर्मार्याश्चेति । तत्र सावद्यकर्मार्या प्रतरहिताः षट्काराः असिमसि- १० कृषिविद्या शिल्प वाणिज्य कर्मार्य भेदात् । तत्र असितरवारिषनन्दक धनुर्वाणरिका कट्टारककुन्तपट्टिशहलमुशलगदाभिन्हिमालालो, घनशक्ति चक्राद्यायुधचवः असिकर्मार्या उच्यन्ते । औयव्ययादिलेखन वित्ता मधिकर्मार्याः कथ्यन्ते । इलेन भूमिकर्षणनिपुणाः कृषिकर्मार्या भण्यन्ते । गणितादिद्रासप्तति कलाप्रवीणा विद्याकर्मार्या 'उद्यन्ते । निर्णेजकदियाकीर्त्यादयः श्रीम LEG शिल्पकर्मार्या ध्वम्यन्ते । धान्यक (का) पालनन्दनं सुधा रातमा ५ संपकारिणो वाणिज्यकर्मात्रदाता वणिक्कर्मायी शब्द्यन्ते । एते षट् प्रकार अपि सावधकर्मा भवन्ति । अल्पसाद्य कर्मार्यास्तु श्रावकप्रभृतयः । असावधकर्मातु यतयः । वाक्य वरः, आत्यार्यस्तु इदयाकुवंशी युद्धवाः । अस्यामवसर्पिण्यादिवाकुवंशः स्वयं श्रीवृषभ| तस्य कुले भचा इक्ष्वाकुवंशाः । भरतसुतार्ककीर्त्तिकुले सञ्जाताः सूर्यवंशाः । बाहुबलिसुतसोमयशोवंशे भवाः सोमवंशाः । सोमप्रभ श्रेयांसकुले समुत्पन्नाः कुरुवंशाः । अकम्पन - २० महाराजकुले समुद्भवा नाथवंशाः । हरिकान्तनृपान्वये सम्भूता हरिवंशाः । हरिवंशेऽपि यदुनृपकुलजातः यादवाः । काश्यपनृपकुले सम्भवा मवंश इति । एवंविधा जात्यार्याः कथ्यन्ते । कौशल-काश्यत्रन्ति-अङ्ग-चङ्ग-तिलङ्ग-कटिङ-लाट कर्णाट भोट-गौड-गुर्जर-सौराष्ट्र-मकयाग्जे ́ड-मय्य-मालव-कुङ्कणाभीर-सौर मस-काश्मीर-जालंधरादिदेशोद्भवाः क्षेत्रार्या" इत्युच्यते । २५ म्लेच्छास्तु द्विप्रकाराः – अन्तरद्वीपोद्भवाः कर्मभूम्युत्राश्चेति । तत्र अन्तरद्वीपोद्भवा म्लेषाः कथ्यन्ते — लत्रणोदसमुद्रे असु दिशासु अष्टौ द्वीपाः, तदन्तरालेषु चाष्टौ द्वीपाः, हिमवत उभयपार्श्वयो द्वीपों, शिखरिण उभयपार्श्वयोश्च द्वौ द्वीपों, विजयाद्ध योरुभययोः -- १ पात्रे । -स्मिन्नन्ने प्रा०, इ० ज० ० । २ - नन्ने न- प्रा०, ६० ज०, ब० । ३ चतुष्टये ०, ६० ज० ॥ ४ तार्या व०६५ - यावव्य- ता० ६ उच्यन्ते च । उत्पयन्ते भा०, द० ज० । ७ रजकनापितादयः । ८ - शादुद्द्म- श्र० अ० । ९ श्यरकु श्रा० द० ज० । १० - जटवल- भा० द० ज० ११ - रभस आ० १२ श्रार्या उ ० ० ० Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० तत्त्वार्थवृत्त [ ७ पार्श्वेषु चत्वारो द्वीपाः । एवं लवणोदसमुद्रमध्ये अर्षा पार्श्वे चतुर्विंशतिद्वीपा भवन्ति । ते द्वीपाः कुत्सितभोगभूमयः कथ्यन्ते । तत्र चतुविंशतिद्वीपेषु चतुर्दिक्षु ये चत्वारो द्वीपा वर्तन्ते ते समुद्रवेदिकायाः सकाशात् पखशतयोजनानि गत्वा लभ्यन्ते । ये तु चतसृषु प्रदिक्षु चत्वारो द्वीपाः सन्ति अन्तरालेषु चाष्टौ द्वीपा वर्तन्ते ते द्वादशापि द्वीपाः पब्चशत५ योजनानि पञ्चाशद्योजनाधिकानि तद्वत्या लभ्यन्ते । ये तु पर्वतान्तेषु अष्टों द्वीपा वर्तन्ते से षट्शतयोजनानि गत्वा प्राप्यन्ते । चतुर्दिग्नीपाः शतयोजनविस्ताराः । चतुर्विदिकीपा अष्टान्तरालद्वीपाच, पते द्वादशद्वीपाः पञ्चाशयोजनविस्तारा वर्त्तन्ते । पर्वतान्तेषु येऽष्टीपा: सन्ति ते पचविंशतियोजनविष्कम्भा भवन्ति । तत्र पूर्वस्यां दिशि यो द्वीपो वर्तते तस्मिन् मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज द्वीपे एकोरुका छा भवन्ति । दक्षिणायां दिशि शृङ्गिणो मनुष्या भवन्ति । पश्चिमायां १० दिशि पुच्छ सहिता म्लेच्छाः सन्ति । उत्तरायां दिशि भूषा वर्त्तन्ते । चतुविर्दि अग्निकोणे शशकर्णाः नैऋत्यकोणे शष्कुलीकर्णीः, वायुकोणे कर्णप्रावरणाः, ईशानकोणे लम्बकर्णाः । पूर्वाग्न्यन्तराले अश्वमुखाः । अग्निदक्षिणान्तराले सिंहमुखाः । दक्षिणनैऋत्यान्तराले ५ भषणमुखाः, नैऋत्यपश्चिमान्तराले गर मुखाः । पश्चिम वातान्तरले शूकरमुखाः । वातोत्तरान्तराले व्याघ्रमुखाः । उत्तरेशानान्तराले काकवदनाः । ईशानपूर्वान्स१५ राले 'कपिलनाः । हिमवत्पूर्व पार्श्वे मत्स्यमुखाः । हिमवत्पश्चिमपार्श्वे कृष्णवदनाः । शिखरिंणः पूर्वपार्श्वे मेघमुखाः । शिखरिणः पश्चिमपार्श्वे तद्विदनाः । दक्षिण विजयार्द्धपूर्व पार्श्वे गोमुखाः । दक्षिणबिजयाद्ध पश्चिमपार्श्वे उभ्रवदनाः । उत्तर विजया पूर्व पार्श्वे गजाननाः । उत्तरविजयाद्ध पश्चिमपार्श्वे दर्पणास्याश्चेति । तत्र एकोरुकाः मृत्तिकाहार। गुहानिवासिनः । अन् सर्वेऽपि वृतलनिवासाः फलपुष्पभक्षिणः । विश्वेऽपि पल्योपम जीविताः द्विसहस्रधनु२० रुन्नतशरीशः । एवं लवणोदसमुद्रपरसीरेऽपि चतुर्विंशतिद्वीपा ज्ञातव्याः । तथा कालोद. समुद्रेऽपि अष्टचत्वारिंशद्वीपा भवन्ति । एवं घण्णय तिम्लेच्छट्टीपाः । ते सर्वेऽपि द्वीप‍ जलाइ योजनोन्नता बोद्धव्याः । एते सर्वेऽ । अन्तरद्वीपोद्रवा म्लेच्छा भवन्ति । कर्मभूम्युवाच म्लेच्छ पुलिन्दशरवनशकख संभरादयो ज्ञातव्याः । २५ अथ कास्ताः कर्मभूमयः ? भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः ॥ ३७ ॥ भरताश्च पञ्च ऐरावताञ्च पञ्च विदेहाश्च पश्च भरतैरावतविदेहाः, एते पचदशप्रदेशाः कर्मभूमयः कथ्यन्ते । तर्हि पञ्चसु विदेहेषु मध्ये पत्रदेवकुरवः पश्चोत्तरकुरवः सन्ति, तेऽपि किं कर्मभूमयः १ नैवम् देवकुरूत्तरकुरुभ्यः अन्यत्र, देवकुरून उत्तरकुरूम वर्जयित्वा इत्यर्थः । विदेहेषु स्थिता अपि देवकुरव उत्तरकुरवश्च कर्मभूमयो न भवन्ति किन्तु उत्तमभोगभूमयो भव १ चतसृषु दिक्षु दृ० । २ शेड बी- ज० । ३ भ० ज०५ ले मु० । ६ ले गोमु- ज० । ले ० ज० । ८ कपिलवदना ष० । ९ - स्वसरा ० णस्यां आ०, ब० ज० । ४ भवन्ति गर्गमु- द० ७ काकमुखाः १०, ० । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३।३८ ] मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तृतीयोऽध्यायः १५१ न्तीत्यर्थः । 'अन्न अन्यत्रशब्दो वर्जनायें ज्ञातव्यः । तेन " दिगितस्तेऽन्यैश्च" [ का०सू० २२४ २१] इत्यनेन सूत्रेण लिङ्गात् पचमी सञ्जाता । यद्येते पचदशप्रदेशाः कर्मभूमय इति व्यपदिश्यन्ते कर्मभूमयः कथ्यन्ते तर्हि देवकुरुत्तरकुरु है मक्त हरिवर्ष रम्यक है रण्यवतषण्णवत्यन्तरदीपा भोगभूमय इत्युच्यन्ते । तत्रायं तु विशेषः -- ये अन्तरद्वीपजास्ते कल्पवृक्षकल्पितभोगा न भवन्ति । तथा सर्वे भोगभूमिजा मृताः सन्तः देवत्वमेव प्राप्नुवन्ति । 'पूर्वपश्चिमदक्षिणोत्तरेषु ५ अन्तरद्वी पात्याः शुभकर्म भूमिसमीपवर्तित्वात् 'चातुर्गतिका भवन्ति' इति केचिदाहुः । मानुषोत्तरात्परतः स्वयम्भूरमणद्वीपमध्यस्थितस्वयम्प्रभ पर्वतं यावत् एकेन्द्रियपचेन्द्रियास्पदा एव द्वीपा कुत्सितभोगभूमय उच्यन्ते । तत्र पबेन्द्रियाः तिर्यन एव न तु मनुष्याः, असंख्येयवर्षायुषो गव्यत्युतशरीराः । तेषां चत्वारि गुणस्थानानि सम्भवन्ति । अथ मानुषोत्तर इति यः पर्वतः श्रुतः स कीदृशः १ एकविंशत्यधिकयो जनसप्तदश- १० शतोन्नतः, त्रिंशदधिक योजनचतुःशतभूमिमध्यगतः, द्वाविंशत्यधिकयोजन सहस्रबुध्न विस्तारः, त्रयस्त्रिंशदधिकयोजन सप्तशतमध्यविस्तारः, चतुर्विंशत्यधिकयोजन चतुःशतो परिविस्तारः । तदुपरि चतुर्दिक्षु चत्वारञ्चैत्यालया नन्दीश्वरी पचत्यालयसच्शा ज्ञातव्याः । अथ कैः कर्मभिः कर्मभूमिरुच्यते इति चेत् ? उच्यते - शुभं कर्म सर्वार्थसिद्ध्यादिनिमित्तम्, अशुभ कर्म सप्तमनरकादिहेतुभूतम् असिम षिकृषि विद्या शिल्प वाणिज्य- १५ लक्षणं षड् विधं कर्म जनजीवनोपायभूतम्, पात्रदानदेवपूजनादिककच कर्म, तैः कर्मभिरुपलक्षिताः कर्मभूमय इत्युच्यन्ते । 'ननु सर्वं जगत् कर्माधिष्ठानमेव, कथमेता एवं कर्मभूमयः ? इत्याइ - सत्यम् ; उत्कर्षेण शुभाशुभकर्माधिष्ठानात् कर्मभूमय इति । स्वयम्प्रभपर्वतान्मानुषोत्तराकारात्परत आलोकान्तं ये तिर्यञ्चः सन्ति तेषु पञ्च गुणस्थानानि सम्भवन्ति । ते च पूर्वकोयायुपः । तत्रत्या मत्स्याः सप्तमनरकहेतुकं पाप- २० मुपार्जयन्ति । स्थलचराश्च केचित् स्वर्गादिहेतुपुण्य में प्युपार्जयन्ति । तेन अर्द्धा द्वीपः सर्वः समुद्र समुद्राद्बहिश्चत्वारः कोणाश्च कर्मभूमिरित्युच्यते इति विशेषः । अथ उक्त भूमिषु नराणामायुः परिज्ञानार्थं सूत्रमिदमुच्यते भगवद्भिरुमास्वामिभिः-स्थिती परावरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते ॥ ३८ ॥ स्थितिच स्थितिश्व स्थिती, नृणां नृणां वा स्थिती नृस्थिती द्वौ आयुःकालौ इत्यर्थः । २५ कथम्भूते द्वे नृस्थिती ? परावरे पर उत्कृष्ट अवरा च निकृष्टा जघन्येति यावत् परावरे | पुनरपि कथम्भूते नृस्थिती ? त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्त्ते । त्रीणि पत्योपमानि यस्याः पराया उत्कृष्टायाः स्थितेः सा त्रिपल्योपमा अन्तर्गतोऽपरिपूर्णो मुहूर्त्तो घटिकाद्वयं यस्या अवराया जघन्यायाः साऽन्तर्मुहूर्ता, त्रिपल्योपमा चान्तर्मुहूर्ता च त्रिपक्ष्योपमान्तर्मुहूर्ते । अस्यायमर्थः— १ अथात्र आ० | २ यः कथ्यन्ते आ०, ब० ० ज० १३ सप्तनरका-०, ६०, ब०, प०, ० । ४ – विवाणिज्य विद्या शिलाल- भ० ० ज० । ५ पूजादिकं क भ ०. ज० । ६ न तु सर्व ता० आ०७ -यमुना- ० ज० । ८ - द्वयमस्या भ० ज० ॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्त [ ३३८ यथासंख्यत्वेन मानवानाम् उत्कृष्ठा स्थितिः त्रिपल्योपमा जघन्येन मानवानां स्थितिः अन्तर्मुहूर्त्ता मध्यस्थितिरनेकप्रकारा । किं तत्पल्योपममिति चेन ? उच्यते ""वहारुद्वारद्धा-पल्ला तिण्णेव होति बोधव्या । संखा दीवसमुद्दा कम्मदिदि वण्णिदा जेहिं ।" [ त्रिलोक गा० ९३ ] अस्यायमर्थः — व्यवहारश्च उद्धारश्च अद्धा च व्यवहारो द्वारा जाः पल्यानि कुशूलाः त्रीण्येव भवन्तीति बोद्धव्यानि । जेहि यैस्त्रिभिः पत्यैः वण्णिदा वर्णिता कथिता । का वर्णिता ? संखा संख्यामात्रम् । व्यवहारपल्येन उद्धारल्याद्धापत्ययोः संख्या ज्ञायते । तेन व्यवहारपल्थेन संख्या वर्णिता | उद्धारपत्येन तु द्वीपसमुद्रा श्रणिताः । श्रद्धापल्येन कर्मस्थितिर्वर्णिता । १० यथाक्रमं पल्यत्रयकार्यं ज्ञातव्यमिति संग्रहगाश्रार्थः । तेन व्यवहारपल्यम् उद्धारपल्यम् अद्धापत्यञ्चाप दर्शक त्रिप्रकोरीयन प्रमाणपरिमितं योजनमेकम् । किं तन प्रमाणाङ्गुलम् ? अवसर्पिण्या: सम्बन्धी प्रथमचक्रवर्ती, तस्याङ्गुलं प्रमाणाहुलम् | अथवा उत्सरिण्याः सम्बम्बी चरम चक्रवर्ती तस्याङ्गुलं प्रमाणाङ्गुटम्। तेन प्रमाणानुलेन मितः चतुर्विंशत्यो हस्तः । तैश्वतुभिः हस्तैर्मपित एको दण्डः । दिसहरु दण्डैर्मपिता १५ एका प्रमाणमतिः नाभिश्रतुर्गव्यूतिभिमंत्रितम् एकं प्रमाणयोजनम् । मानवानां पखशतयो जनरेकं प्रमाण योजनमित्यर्थः । किं तन्मानवयोजनं येन प्रमाणयोजनं दिव्वयोजनं ज्ञायते ? अष्टभिः परमाणुभिः एकस्त्रसरेणुः । अभिः त्रसरेणुभिः पिण्डिते रेकत्रीकृतैरेका रथ रेगुरुI अभी रथशुभिः पण्डितः भिरेकं चिकुराप्रमुच्यते । अभिचिकुरामैः पिण्डितेरेका लिया भण्यते । अभिः लिहाभिः पिण्डिताभिषेकः श्वेतसिद्धार्थ उच्यते । अनुभिः सिद्धार्थः २ पिण्डितैः को यब उच्यते । अष्टभिर्थः अमुध्यते । पभिरङ्गलैः पाद उच्यते । अभ्यां पादाभ्यां वितस्तिः कव्यते । द्वाभ्यां त्रितस्तिभ्यां रत्निरुच्यते । चतुर्भी रत्निभिः दण्डः कथ्यते । द्विसहस्रदण्डः गव्यूतिरुच्यते । चतुर्गव्यूतिभिर्मानवयोजनं भवति । पञ्चशतमा नवयोजन रेकं महायोजनं प्रमाणयोजनं दिव्ययोजनं भवति । नयोजनप्रमाणा खनिः क्रियते । मूले मध्ये उपरि च समाना वर्तुलाकार सातिरेक त्रिगुणपरिथिः । मा खनिः एकादिसमान्ताहो रात्र जाताऽवि२५ मणिगृहीत्वा खण्डितानि क्रियन्ते । ताशानि खण्डानि कियन्ते यादृशानि खण्डानि पुनः कर्त्त खण्डयितुं न शक्यन्ते । तेः सूक्ष्मे रोमखण्डे: महायोजनप्रमाया खनिः पूर्यते । कुट्ट यित्रा निचिडकियते । सा खनिः व्यवहारपल्पमिति कथ्यते । तदनन्तरमव्दशते शते रेकैकं रोमखण्डमपकृयते एवं सर्वेषु रामेदेषु यावत्कालेन सा खनिः रिक्ता भवति तावत्कालो व्यवहारपक्ष्योपम इत्युच्यते । तेन व्यवहार पस्योपमेन न किमपि गण्यते । तान्येव 1 १५२ 3 १ व्यवहाराद्वाराद्वाः पन्थान श्रीभवन्ति बोद्धव्यानि संख्या द्वीपसमुहार कर्मस्थांत वर्णिताः ॥ २ अद्धारा आ, ३० ज० ३ - प्रा. ० ० ४ मा परि आ० ० ० । ५ जन्यता Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ : तृतीयोऽध्यायः १५३ : शेमखण्डानि प्रत्येकम् असंख्येय कोटिं वर्प समयमात्रगुणितानि गृहीत्वा द्वितीया महाखनिस्तैः पूर्यते । सा खनः उद्धार पल्यमित्युच्यते । तदनन्तरं समये समये एकक रोमखण्डं निष्कास्वते, यावत्कालेन सा महाखनिः रिक्ता जायते सावान् काल उद्वारपल्योपमाह्वयः संसूच्यते । उद्धारपानी कोटिकोटय एकम उद्धार सागरोपममभिधीयते । अर्द्ध तृनीयोद्धारसागरोपमाणां पञ्चविंशतिकोटिकोटद्वारपल्योपमाना यावन्ति राशि ज्ञान भवन्ति तावन्तो५ द्वीपसमुद्रा ज्ञातव्याः । तदनन्तरम् उद्वारपत्यरोमखण्डानि वर्षशतसमयमात्रगुणितानि ग्रहीय ततोऽपि महती खनिः पूर्यते । सा खनिः अद्धापल्यमित्युच्यते । तदनन्तरं समये समये एक रोमखण्डं निष्कास्यते । यावत्कालेन सा महती खनिः रिक्ता सञ्जायते तावत्कालः अद्वापत्योपसज्ञः समुच्यते । अद्धापत्योपमदशकोटिकोट्यः अद्धासागरोपम उच्यते । दशकोटिको योद्धा सागरोपमाणामेका सर्विणी कान्हो अर्थात तावती उत्सर्पिणी च । १० are कल्प उच्यते । अद्धापल्योपमेन नारकाणां तिरवां देवानां मनुध्याणा कर्मस्थितिरास्थितिः कार्यस्थितिः भवस्थिति गम्यते । अथ यदि बिन अद्वापल्योपमेन अनयानामुत्कृष्टस्थितिणिता त्रिपल्योपमेति जघन्याऽन्तर्मुहूर्तेति च तहि तिरश्चां स्थिति की भवतीति प्रश्ने भगवान् उमास्वाम्याहतिर्यग्योनिजानाञ्च ॥ ३९ ॥ तिरश्चां योनिः तिर्यग्योनिः तस्यां जातास्तिर्यग्योनिजाः तेपां तिर्यग्योनिजानाम्, उत्कृष्ट भवस्थितिः त्रिपल्योपमा भवति, जघन्या च अन्तर्मुहूर्त वेदितव्या । चकारः परस्परसमुच्चय वर्तते । अस्मिनध्याये सप्तनरका द्वीपसमुद्राः कुलपर्वताः पद्मादयो हदा गङ्गादयो नमः मनुष्याणां भेदः नृपशूनामायुः स्थिति वर्णिता इति प्रसिद्ध ं ज्ञातव्यम् । ' इति सूरि श्रीश्रुतसागरविरचितायां तात्पर्य संज्ञायां तत्वार्थवृत्ती तृतीयः पादः समाप्तः । १ तावका०, ६०, ० ० ज० । संज्ञकः सन् ० ६० ज०१३ च्चयार्थे व- आ०, ६० ज० । ४ इत्यनवद्यद्यनिनादितानगन गतिमा जनरख्नराजमतिसागरचनराजराजितार्थनसमर्थेन तर्कव्याकरणः लङ्कारादत्यादिशास्त्रनिशिता यतिना श्रीमन्द्र कीर्ति भट्टारकप्रशिष्येण शिष्येण सकलनविहितचरमवयम्य श्रीविशनन्दित्य छ तिमिथ्यामतदुर्ग रेण श्रीश्रुतसागरसूरिया विरचितायां लोकयतिराजातिवाद्वन्यायकु दचन्द्रोदयत्रमेयक मलमार्तण्डप्रचण्डाष्ट सह स्त्रीप्रमुख प्रन्यसन्दर्भ निर्भरावलोकन बुद्धिनितामा तत्वार्थटीकायां तृतीयोऽध्यायः समासः । ०, ० ० ष । इति श्रीमदेवेन्द्र कीर्ति भट्टारक शिष्यस्य श्रीविद्यानन्दिदेवस्य शिष्यण श्रीश्रुतसागरसूरिणा विरचितायां तत्वार्थयकाया तृतीयोऽध्यायः समाप्तः । ज० । २८ १५ २० Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगतिनाम कर्म प्रकृत्युदयेऽभ्यन्तरे प्रत्यये कारणे हेतों सति बाह्येवनितादिसामग्रीमहितीपाधिपतनयादिषु प्रदेशेषु यदृच्छया दीव्यन्ति क्रीडन्ति ये ते देवशः । चतुर्णिकाचत्वारो निकायाः समूहाः भवमत्रासिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिक लक्षणाः सङ्घाता येषां ते चतुर्णिकायाः । जात्यपेक्षया 'देवश्रतुर्णिकायः' इति सूत्रे सिद्धे सति बहुवचननिर्देशः तदभ्यन्तर प्राप्ता ने कभेवसूचनार्थमित्यर्थः । अतिशयेन चीयन्ते पुष्टिं नीयन्ते इति निकायाः । १० " स चानौत्तराधर्ये" [ का० सू० ४/५/२६ ] इत्यनेन सूत्रेण धन्प्रत्ययः । चकारस्य सूत्र ४१५/३४ ] इत्यतः चिर्वर्तते । " शरीरनिवाकार्य श्री विधिसागर जी महाराज : इत्यतः ककारादेशः “चैस्तु हस्तादाने" [ का सयोः कञ्चादेः” [ का० सू० ४५३ कादेशश्च न भवति शूकरेषु उच्चावचरथं वर्तते तेन stry अणिमादीनां समानत्वादोत्तराधय्यं नास्ति | औत्तराधयं तत्रास्ति, चतुर्षु निजनिजनि १५ चतुर्थोऽध्यायः अथ भवप्रत्ययोवधिर्देवनारकाणाम्" [त सूः १ २१ ] इति प्रभृतिषु देवशब्दः श्रुतः । तत्र के देवाः कतिप्रकारा या ! तत्स्त्ररूपनिरूपणार्थं सूत्रमिदं श्रीमदुमास्वामिनः प्राहु:देवाचतुर्णिकायाः ॥ १ ॥ २५ अथेदानी देवनिकायानां लेश्याविशेषपरिज्ञानार्थं सूत्रमिदमुच्यते सूरिभिः आदितस्त्रिषु पोतान्मलेश्याः ॥ २ ॥ आदिवख भवनवासिन्यन्तरज्योतिष्केषु त्रिषु देवनिकायेषु पीता तेजोलेश्या अन्ते यासां लेश्यानां ताः पीतान्ताः कृष्णनीलकापोततेजोलेश्या इत्यर्थः पीतान्नाश्च सा लेश्याः पीतान्तलेयाः । कर्मधारय संज्ञे पुंवद्भावो विधीयते । अथवा त्रिपु आदितस्त्रिषु देव२० निकायेषु देवाः कथम्भूताः ? पीतान्तलक्ष्याः । पीतान्ता लेश्या येषान्ते पीतान्तस्याः । एवं सति "पुंवद्भाषितपुंस्का नृपूरणादिषु स्त्रियां तुल्याधिकरणे" [ का० सू० २५|१८ ] इत्यनेन मुंबद्भावः । षण्णां लेश्यानां मध्ये चतत्रो लेश्या आदितः आयात्रिषु देवनिकायेषु भवन्ति । आदित इति विशेषणं त्रिनु इत्यस्य पदस्य विशेषणं श्यानां वा विशेषणम् । अथ चतुर्णां देवनिकायानामन्तर्भेदसूचनार्थं सूत्रमिदं ब्रुवन्ति - दशा पञ्चद्वादशत्रिकल्पाः कल्पीपपन्नपर्यन्ताः ॥ ३ ॥ दश च अष्ट च पच च द्वादश च दशाष्ट्रपश्चद्वादश ते विकल्पाः प्रकाराः येषां देवानां ५ - नाम - ० ० ० । २ विवर्तते आ ० ज० । विवर्तते प० । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ चतुर्थोऽध्यायः ते दशाष्ठपश्चद्वादशयिकल्पाः । पुनरपि कथम्भूताः ? कल्पोपपन्नपर्यन्ताः कल्पेषु पोडशस्वर्गेषु उपपन्नाः उत्पन्नाः कल्पोपपन्नाः। कल्पोपपन्ना रैमानिकाः पर्यन्ताः येषान्ते कल्पोपपन्नपर्यन्ताः । अस्यायमर्थः--दविकल्पा भवनवासिनः, अष्टविकल्पा व्यन्तरदेवाः, पञ्चविकल्पा ज्योतिष्काः, द्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नाः । अवेयकादिषु अहमिन्द्रत्वं बिना कोऽपि विकल्पो नास्तीत्यर्थः । अथ भूयोऽपि तेपो विशेपपरिज्ञानार्थ सूत्रमिदमुच्यते स्वामिमि:-- न्सामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्ण कायापकिल्बिर्षकारचशिरसादजी महाराज इन्दन्ति परमेश्वर्य प्राप्नुवन्ति अपरामरासमानाऽणिमादिगुणयोगादिति इन्द्राः । १ । आज्ञाम् ऐश्वर्यश्च विहाय भागोपभोगपरिवारवीर्यायुरास्पदप्रभृतिक वद् वर्तते तन समानमित्युध्यते । समान भवाः सामानिकाः महप्सरपितृगुरूपाध्यायसदृशाः । २ । त्रयस्त्रिंशदेव संख्या १० येषां ते त्रायस्मिंशाः मन्त्रिपुरोहितसमानाः । ३ । परिपाद सभायां भवाः पारपदाः पीठमर्दमित्रतुल्याः । ४ । आत्मन इन्द्रस्य रक्षा बंभ्यस्ते आत्मरक्षा अङ्गरक्षशिरोरक्षसहशाः । ५ । लोकं पालयन्तीति लोकपाला आरक्षिकाथचरकोटपालसमानाः । आरनिका ग्रामादौ नियुक्ततलवराः । अर्धेपु चरन्ति पर्यटन्ति अर्थचराः कार्यनियुक्ताः कनकाध्यक्षादिसदृशाः। काट्टपाला पसनरक्षका महातलधराः दुर्गपालापरनामानः तत्समाना लोकपाला इत्यर्थः । ६। १५ अनीकाः हस्यश्वरथादातवृपभगन्धर्बनत कीलक्षणापलक्षिन मप्तसन्यानि ।। प्रकीर्णकाः पौरजनपदसमानाः । ८ । अभिचारी कर्मणि भवा अभियान्या दासकर्मकरकल्पाः ।। किल्विषं पापं विद्यते यधान्ते किल्विांपका: "इन विषये इको वाच्यः" [ का सूत्र २।६।१५, दो यू १६ श्लो. ] इनि व्युत्पत्तेः । किल्विपिका इति कोऽर्थः वाहनाधिकर्मसु नियुक्त : "दिवाकी तिसदृशा इत्यर्थः । इन्द्राश्च लामानिकाच प्रायस्त्रिंशाश्र पारिपदाश्च लोक-२० पालाश्च अनीकानि च प्रकीर्णका आभिन्चोग्याश्च किल्विपिकाश्च त तथोक्ताः । एकशः एकैकस्य दयनिकायस्य एकशः एते इन्द्रादयो दग भंदा वतु' निकायेषु प्रत्येक भवन्तीति उत्सर्गध्याख्यान झातव्यम् । अथापवादव्याख्यानसूत्रं सूत्रयन्ति सूत्रकारा: नास्त्रिशलाकपालवाव्यन्तरख्योतिषकाः ॥ ५ ॥ त्रयस्त्रिंशदेवाः वाचविंशाः वयस्यपीठमदनतुल्याः, लोकं पालयन्तीनि लोकपालाः २५ अर्थचारक्षिकतुल्याः, वायस्त्रिंशाच लोकपालाश्च वायस्त्रिंशलोकपालाः तान् वर्जयन्तीति प्रायस्त्रिंशलोकपालवाः । विविवमन्तरमेपा व्यन्तराः, ज्यातिःस्वभावस्थामातिष्काः, व्यन्तराश्च ज्यातिष्काश्च व्यन्तर ज्योतिकाः। अन्यायमर्थः-ज्यन्तरेषु ज्यातिष्केषु च ब्रायसिंशा लोकपालाश्च न वर्तन्ते इतर अष्टाविन्द्रादया भेदाः सन्त्येव। इन्द्रादयो दशाऽपि भेदा १ -शामना- प्रा०, २०, जः । २ . मदनमि- आ०, ६ , जल, ब.1 ३ -लमदृशाः भार। ४ -पदातित - आ०, द., जः । ५ नारित वाण्डालसमाना इत्यर्थः । ६ -कारकाः आ०, द. | बज्योः । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ भवनवासिषु कल्पवासिषु च वर्तन्ते । अथेदानी चतुर्षु निकायेषु शकाः किमेकैक एवं वर्तते अथान्योऽपि कश्चित् प्रतिनिय मोऽस्ति इति प्रश्ने सूत्रमिदमाचक्षते भगवन्तः--- पूर्वोन्द्राः ॥ ३ ॥ पूर्वयोर्भवनवासिव्यन्तराणां निकाययोर्दया द्वीन्द्राः द्वौ हो इन्द्रो येषान्ते हीन्द्राः, अन्तर्गत सार्थमिदं पदम् अष्टापदापर्णादिवत् । यथा पङ्क्तौ पङ्क्ता पदानि स्थानानि यस्यासावष्टापदः सारिफलकः चतुरङ्गद्यूतफलका, तथा पर्वणि पर्वणि सप्त साम पर्णानि यस्यासौ सप्तपर्णी वृक्षविशेषः । को को भवनवासिनां तावत् द्वौ द्वाचिन्द्र इति चेत् । उच्यते--असुर कुमाराणां द्वाबाखण्डलौ चमरो पैरोचनश्च । नागकुमाराणां द्रौ ऋभुक्षाणों १० धरणो भूतानन्दश्च । विद्युत्कुमाराणां द्व दुश्च्यवनौ हरिसिंह हरिकान्तश्च । सुपर्णकुमाराणां सुरपती 'वेणुदेवो वैताली च । अम्बिकुमाराणां द्वौ वृपाणी अग्निशिखोऽग्निमाणवरच | बातकुमाराणां ह्रौ गोत्रभिदौ बेलम्बः प्रभखनश्च । स्तनितकुमाराणां द्वौ सूत्रामाणौ सुत्रांपो महाघोषश्च । उदधिकुमाराणां द्वौ दिवस्पती जलकान्तो जलप्रभश्च । द्वीपकुमाराणां द्वौ शतमन्यू पूर्णोऽवशिष्टश्च | दिक्कुमाराणां द्वौ लेखर्पभौ अमितगति र मितवाहना । अथ व्यन्तराणां द्वौ द्वाविन्द्रावुच्येते -- किन्नराणां द्वौ जिष्णू किन्नरः किम्पुरुषा । किम्पुरुषाणां द्वौ पुरन्दरौ सत्पुरुषो महापुरुषञ्च । महोरगाणां द्वौ पुरुहूतौ अतिकायो महाकायश्च । गन्धर्वाणां शुनासीरी गीतर तिर्गीतयशाश्च । यक्षाणां हौ पाकशासनों पूर्णभद्रो माणिभद्रश्च । राक्षसानां द्रविडजसौ मीमो महाभीमश्च भूतानां द्वौ मथवानौ प्रतिरूपोऽप्रतिरूपश्च । पिशाचानां द्वौ मरुद्रन्त कालो महाकालश्च । अथेदानीं देवानां सौख्यं कीदृशं वर्तते इति प्रश्ने सुखपरिज्ञानसूचनार्थं सूत्रमिदं कथ्यते सूरिभिः- १५ १५ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्वार्थवृत्तौ २० [ ४/६-७ कायपत्रीवारा आ ऐशानात् ॥ ७ ॥ कायेन चारो मैथुनव्यवहारः सुरतोपसेवनं येषां ते कायप्रवीचाराः । ऐशानात् आ अभिविधेः अभिव्याप्तेः देवा वर्तन्ते इति शेषः । अस्यायमर्थः - भवनवासिनो २५ व्यन्त ज्योतिष्काः सौधम्मैशान स्वर्गयोश्च देवाः सङ्कक्लिकर्म्मत्वान मनुष्यादिवत् संवेश सुखमनुभवन्तीत्यर्थः । अन 'आ ऐशानान' इत्यत्र आहुपसर्गस्य ऐशब्देन सह सन्धिः किमिति न कृतः ? यतः कारणादाकारोद्विविधो वर्तते - एकस्तावदाङ् ङकारानुबन्धः द्वितीयस्तु आकारमात्र regarधः । तत्र द्वयोमध्ये यः सानुबन्धो कारानुबन्ध स मर्यादायाम् अभिविध क्रियायोगे ३० ईषदर्थे वर्तते । यस्तु वाक्ये स्मरणार्थे च वर्तते स निरनुबन्धः स्वरे परे सन्धि न १ वेणुदण्डी - ० ० ज० । २ प्रदेशनं आ०, ६०, ज० । ३ " किच्च दानुवि दो वेरेदस्य णं ण होदि देवाणं । संकल्पसुहं जायदि वेदस्सुदीरणाविगमे ॥" ता० हि० | Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री सुविधासागर जी महार ४८] चतुर्थोऽध्यायः प्राप्नोति । यस्तु मर्यादादिषु चतुर्वेष्वर्थेषु वर्तते स स्वरे पर साऽनुबन्धत्यान सन्धि प्राप्तोत्येव । अस्मिन्नर्थे इद सूत्रं वर्तते- इदं किम् ? "नाजोदन्तोऽनाङ निःप्लुश्च ।" अस्थायमर्थः-'न' इति सन्धि न प्राप्नोति । कोडी अच स्वरमात्रः यथा अ अईन् प्रसीद, इ इन्द्रं पश्य, उ उत्तिष्ठ । ओदन्त ओकारान्तो निपातः सन्धि न प्राप्नोति यथा अहो आईन्सं पश्य । तथा अनाज आतिः निः निपातः सन्धि न प्राप्नोति यथा आ एवं किल । स्वरूपमस्य इति वाक्ये आकारमात्रः स्मरणे तथा आ एवं तन्मया कृतम् । आज पुनः सन्धि प्राप्नोत्येव यथा आ आत्मज्ञानं मर्यादीकृत्य आत्मन्नाना] ; आ एकदेशम् अभिव्याज्य ऐकदेशा1 , क्रियायोगे यथा आ समन्तात् आलोकि आलोकि समन्तात् प्रा जिन इत्यर्थः । ईषदर्थे यथा आ ईषत् उपरतैः औपरतैः । प्लुतश्च सन्धि न प्राप्नोति यथा आगच्छ भो जिनदत्त अन्न । उक्तश्च-- __मर्यादायामभिविधौ क्रियायोगेपदर्थयोः । य आकारः स ङित् प्रोक्तो वाक्यस्मरणयोरडित् ॥" [ ] तदुदाहरणेषु श्लोकोऽयम् "आत्मज्ञानादेकदेशादालोक्यो(क्यौ)परतैजिनः । आ एवं तत्वमस्याथः आ एवं तत्कृतं मया ।" [ ] १५ इति युक्त्या आड सन्धिं प्राप्नोत्येव कथमुभास्वामिभिभगवद्भिः 'आ ऐशानात्त्' इत्यत्र सन्धिकार्य न कृतम् ? सत्यमुक्तं "भवता; असंहिततया सूत्र निर्देशः असन्दहार्थ इति । अथ यद्यैशानपर्यन्ता दवाः कायपत्रीचारसुखमहिता वर्तन्ते हि सनत्कुमारादारभ्य अच्युतपर्यन्ताः 'कोहरासुखा वर्तन्ते इति प्रश्ने सूत्रमिदमुच्यते ... शंषाः स्पशेरूपशब्दमन:प्रवाचाराः ॥ ८॥ शिष्यन्तेऽवशिष्यन्त इति शेपाः । स्पर्शश्च रूपश्च शब्दश्च मनश्च स्पर्शरूपशब्दमनांसि सरप या प्रवीचारः सुरतसौख्यानुभवनं यपा से स्पर्श पशब्दमनःप्रवीशराः । ईशा ( ऐशा ) नान्तान् देवान परिहत्य सानत्कुमारादयोऽच्युनस्वर्गपर्यन्ता अमराः शेपा इत्युच्यन्ते । अस्यायमर्थः- मानकुमारमाहन्द्रत्रिविष्टपोत्पन्ना दिवाकरसः शरीरसंस्पर्शमात्रेणंव स्त्रियः पुरुषाश्च मैथुनसुखमनुभवन्ति परां प्रीतिमाप्नुवन्ति, आलिङ्गनस्तानजधनमुखचुम्बनादिक्रियया प्रकृष्टां २५ मुदं भजन्ते । तथा ब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तयकापिष्टर तुःसुरलोकसम्भवा वृन्दारका रूपेण' दिवाअनामनोहरवेषबिलासपातुर्यशाराकारावलोकनमात्रेणैव परमानन्दमाप्नुवन्ति । तथा शुक्रमहाशुक्रशनारसहस्रारसक्षातत्रिदशालया दिव्याङ्गनानां भूपणकणनमुखकमलललितभाषणमूहसममधुरसंगानाकर्णनमात्रणेव परां प्रीति संजिहते । तथा आनतमाणतारणाच्युतत्रिदिव १ -नर्थे सूत्रमिदं व- आ०, २०, ज० । २ यथाईन् वर । यथा आ अईन् भार, द०, 4-1३ वथा आ०,९०, जा, व४ अत्रात्र उ- श्रा०। ५भगवता आ० । ६ कीदृशं सुखमनुवर्तन्ते आ०, १२, ज०। ७ - दिव्यं दि- श्रा, ५.१०। ८ --ररूपाव-श्रा, ६०,ज० | Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आर्चीच श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्त्वार्थवृत्तो [ ४/९-१० लब्धजनयः सुपर्वाणो निजाङ्गनाचित्तसङ्कल्पमात्रेणैव परमप्रीतिलक्षणं संसुखमास्कन्दन्ति । इत्याशास्त्राविशेवेन ज्ञातव्यं व्याख्यानम् । अथ यद्येवं तहिं मैवेयकादिसम्भवानामृक्षाणां कीदृग्विधं सुखं वर्तते ? इति प्रश्ने अहमिन्द्रसुखनिर्णयनिमित्तं सूत्रमिदमाहुः उमास्वामिनः— ५ परेऽप्रचाराः ॥ ९ ॥ परे नववेकन वानुदिशपञ्चानुत्तर सञ्जाताः सुमनसस्ते अप्रवीचाराः मनसापि मैथुनसुखानुभव नरहिता भवन्तीति भावः । तेषां कल्पवासिभ्योऽपि परमप्रकर्ष हर्षलक्षणं मुखमुत्कृष्टं वर्तते यतः प्रवीचारो हि कामसम्भववेदनाप्रतीकारः, स तु कामसम्भवस्तेषां कदाचिदपि न वर्तते तेनामिन्द्राणामनवच्छिन्नं सुखमेव सम्भवतीत्यायातम् । १० अथ ये दशप्रकाराः प्रथमनिकायविबुधाः तेषामुत्सर्गाऽपवादसंशाचापननिमित्तं सूत्र*मिदं ब्रुवते - भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवानस्तनितोदधि दीपकुमाराः || १० || I भवनेषु वसन्तीत्येवं स्वभावा भवनवासिनः असुरादयो दशप्रकारा अपि सुरा भवनवा१५ सिन इत्युच्यन्ते इत्युत्सर्गेण सामान्येन संज्ञा वर्तते । अथापवादेन विशेषतया तेषां निर्जराणां संज्ञा संज्ञाप्यते । तथा हि-असून् प्राणान् शन्ति गृह्णन्ति परस्परयोधनेन नारकाणां दुःखमुत्पादयन्तीत्यसुराः न सुरा वा असुराः प्रायेण सक्लिपरिणामत्याम् । नगेषु पर्वतेषु चन्दनादिषु वृक्षेषु वा भवा नागाः । विद्योतन्ते इति विद्युतः । सुष्ठु शोभनानि पर्णानि पक्षा पान्ते सुपर्णाः । अङ्गन्ति पातालं विहाय क्रीडार्थमूद्ध मागच्छन्तीति अग्नयः । वान्ति २० तीर्थकर विहारमार्ग शोधयन्ति ते वाताः । स्तनन्ति शब्दं कुर्वन्ति, स्तनः शब्दः सञ्जातो वा येषां ते स्तनिताः । उदानि उदकानि धीयन्ते येषु ते उदधयः, उदधिकीडायोगात्रिदशा अपि उदधयः । द्वीपक्क्रीडायोगात् " दिविपदोऽपि द्वीपाः । "दिशन्ति अतिसर्जयन्ति अवकाशमिति दिशः, दिक्क्रीडायोगादमृतान्धसोऽपि दिशः । असुराश्च नागाश्च विद्युतश्च सुपर्णाश्च अग्नयश्च वाताश्च स्तनिताश्च उदधयश्च द्वीपाश्च दिशश्च असुरनागविद्युत् सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वी२५ पदिशः ते च तं कुमारास्ते तथोक्ताः । अस्यायमर्थः - विशिष्टनामकम्र्मोदयजनित देवत्यस्वभावेऽपि वाहनायुधभूशवेषादिक्रीडारता नृपकुमारवत्प्रतिभासन्ते ये ते असुरकुमारादयो रूढिं गताः। असुरकुमाराणां पबहुलभागे भवनानि वर्तन्ते । शेषाणां नवान्नां स्वरबहुलभागे भवनानि सन्ति । खरबहुल-पङ्कबहुल अब्बहुल भागत्रयव्यवस्थितिस्तु पूर्वमेत्र वर्णितेति ज्ञातव्यम् । १ - कादीनां सम्भवानां देवानां कीट - अ० ० ० । २ णां सञ्ज्ञाशातनिमित्तमवश्र० । ३ - मिदमाहुः व० । ४ दिविषादोऽपि भा० द० ज० । ५ दिश्यन्ति ता०, घ० । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ ४१११-१२ ] चतुर्थोऽध्यायः दान द्वितीयस्य निकायस्य उत्सर्गापचादसंज्ञा विज्ञापनार्थ सूत्रमिदमाहुःव्यन्तराः किन्नर किम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ॥ ११ ॥ व्यन्तराः विविधदेशान्तराणि निवासा येषां ते व्यन्तराः, इयं सामान्यसंज्ञा अन्वर्था सत्यार्थी वर्तते । कानि देशान्तराणि तेषां निवास इति चेन् ? निरूपयामि – एतस्माजम्बूद्वीपान् असत्येयद्वीपसमुद्रात व्यतिक्रम्य स्थिते स्वरपृथ्वीभागे किन्नर किम्पुरुष - ५ महोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचानां सप्तप्रकाराणां व्यन्तराणां निवासाः सन्ति राक्षसानान्तु निवासाः तर्भात विभाग समवहुभागच कर कन्पुरुषाश्च महोरगाश्च गन्धर्वाञ्च यक्षाश्च राक्षसाश्च भूताश्च पिशाचाश्चेति द्वन्द्वः ते तथोक्ताः । एते अष्टप्रकारा व्यन्तरा विशेषसंज्ञा शातव्याः, देवगतिविशिष्टनामकम्मदियसमुत्पन्ना इत्यर्थः । अथ तृतीयनिकायस्य सामान्यविशेषसंज्ञासंज्ञापनार्थं सूत्रमिदमुच्यतेज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाच || १२ || ज्योतिःस्वभावत्वात् ज्योतिष्काः । सूर्यश्च चन्द्रमाश्च सूर्याचन्द्रमसौ “देवताद्वन्द्वे" इति सूत्रेण 'पूर्वपदस्याकारः । महाश्र नक्षत्राणि च प्रकीर्णकता काश्च प्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाः । चकारः परस्परसमुच्चये वर्तते । तेनायमर्थः - न केवलं सूर्याचन्द्रमसौ ज्योतिष्कों" किन्तु ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाञ्च ज्योतिष्का वर्तन्ते । सूर्याचन्द्रमसोः पृथगुपादानं प्रभादि- १५ कृतप्राधान्यनिमित्तम् । एषां स्थितिसूचनार्थं मयं गाथा वर्तले "नवदुत्तरसत्तसया दससीदीचउदुगं तु तिचउक्कम् | तारविससिरिक्खा बुहभग्गच अङ्गिरारसणी ||१||" [ जम्बू० १० १२/१३] १० अभ्यायमर्थः-नवत्युत्तर सप्तशतानि योजनानि समभूमिभागादूर्द्ध गत्वा पुष्पवत् प्रकीणीः तारका लभ्यन्ते । तास्तु तारकाः सर्वेषां ज्योतिष्काणामधोभागविन्यस्ताञ्चरन्ति । तारकाभ्य २० उपरि दश योजनानि गच्चा सूर्याश्चरन्ति । सूर्येभ्य उपरि अशीतियोजनानि गत्वा चन्द्रमसश्चरन्ति । चन्द्रमोभ्यः उपरि चत्वारि योजनानि गत्वा अश्विनीप्रभृतीनि नक्षत्राणि भ्रमन्ति । नक्षत्रेभ्य उपरि चत्वारि योजनानि गत्वा बुधा लभ्यन्ते । बुधेभ्य उपरि त्रीणि योजनानि गन्या भार्गवाः शुकाः सन्ति। शुक्रेभ्य उपरि त्रीणि योजनानि गत्वा अङ्गिरसो वृहस्पतयः सन्ति । अङ्गिरेभ्य उपरि त्रीणि योजनानि गत्वा आरा मङ्गल्य वर्तन्ते । आरेभ्य उपरि २५ श्रीणि योजनानि गत्वा शनयो जाप्रति । सूर्यादधः मनागूनयोजन केतुर्वर्तते । चन्द्रादधो भाग ईषदून योजनेच राहुरस्ति । एषां विमानाकार प्रतिपत्त्यर्थमयं गाया ५ निरूपयति आ०, ५०, ०२ - ग्रह- ता० । ३ - पूर्वपदस्य दीर्घः य० । ४ स्परं स ० ० ० ता० १५ तिष्काः कि भा० द० ज० । ६ नवत्युत्तरसप्तशतानि दश अतिश्वकिंतु त्रिचतुष्कम् । ताशरविशशिऋक्षा बुधभार्गवाङ्गिरारशनयः || Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ तत्त्वार्थवृत्ती " उभाणद्वियगोलगदलसहि सव्वजो इस विमाणा । चंदत्तिय वजिला सेसा हु चरति एक्कवहे ॥" [ तिलोग ७३७ ] उत्तानस्थितार्द्धगोलकाकाराः सर्वेषां ज्योतिष्काणां विमाना वर्तन्ते । चन्द्रसूर्यमहान् वर्जयित्वा शेषाः नक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च एकस्मिन् निजनिजमार्गे व्रजन्ति । अथेदानी ज्योतिष्कगतिविशेषप्रतिपत्यर्थं सूत्रमिदमुच्यते १६० २० प्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥ १३ ॥ 1 मेरोः प्रदक्षिणा मेरुप्रदक्षिणाः । नित्या अनवरता गतिर्गमनं येषां ज्योतिष्काणां ले नित्यगतयः । नृणां लोकः नृलोकस्तस्मिन् नृलोके । अस्यायमर्थः सर्वे ज्योतिका मेरुप्रदक्षिणेन कृत्वा भ्रमन्ति न तु षामगत्या भ्रमन्ति । नित्यगतयः क्षणमपि ज्योतिष्काणां गतिः १० केनापि भक्तुं न शक्यते । ते तु मनुष्यलोकोपरि स्थिता ज्योतिष्का सदागतयो भवन्ति । आधाराचययोजनकानज्योत्सना महाजीयेषु द्वीपेषु द्वयोश्च समुद्रयोरुपरि नित्यगतयो वर्तन्ते भानुपोत्तरपर्वताद्बहिः ज्योतिष्का न भ्रमन्तीत्यर्थः । अचेतना विमानाः कथं भ्रमन्ति ? सत्यम् प्रदक्षिणागत्यविरतैराभियोग्यदेवः प्रेरिता विमाना गतिं कुर्वन्ति कर्मोदयस्य वैचित्र्यवशात् | आभियोग्यानां देवानां विमानप्रेरणम्य कर्म १५ विषच्यते । ते तु ज्योतिषका एकविंशत्यधिकैकादशयोजनशतमेरुं परिहृत्य प्रदक्षिणाः सन्तश्चरन्ति । उक्तन [ ४८१३ " इगवी सेकारस्यं विहाय मेरुं चरंति जोदिगणा । चंदत्तिय वञ्जिता सेसा हु चरंति एक्कवहे ॥" [ त्रिलोकसा० ३४४ | जम्बू० १० १२ १०१ ] अथ विशेष:- जम्बूद्वीपोपरि ॐ सूर्यौ वर्तेने । षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि सन्ति । षट्सप्तत्यधिकमेकं शतं प्राणा वर्तते । लवणोदसमुद्रोपरि दिनमणयश्चत्वारः सन्ति । द्वादशाचिकं शतमुडूना चर्तते। द्वापञ्चाशदधिक" शतत्रयं महाणाथ वर्तते । धातकी खण्डोपरि प्रद्योतना द्वादश वर्तते । षत्रिंशदधिकं शतत्रयमृक्षाणां च वर्तते । पट्पचाशदधिकं सहस्रं महाणामस्ति । कालोदसमुद्रोपरि त्रयीतनवो द्वाचत्वारिंशत् सन्ति । षट्सप्तत्यधिकानि एका२५ दशशतानि नक्षत्राणां वर्तन्ते । पण्णवत्यधिकानि पत्रिंशच्छतानि ग्रहाणां सन्ति । पुष्कपोपरि सप्ततिरंशुमालिनो वर्तन्ते । षोडशाधिकं सहस्रद्वयं नक्षत्राणा वर्तते । शिद्धिकानि त्रिपष्टिशतानि महाणां वर्तन्ते । मानुषोत्तराद्बहिः पुष्करार्थे पुष्करसमुद्र I १ उत्तान स्थित गोलकदलसन्निभसर्वज्योतिष्कमानः । चन्द्रत्रयं वर्जयित्वा दोषा हि रन्ति एकपथे ॥ २ गत्वा ०. ०, ० ३ वैचित्रित्र भा० ज०, ६०, स० । ४ एक विशत्येकादशशतं विहाय मेरु चरन्ति ज्योतिर्गणाः । चन्द्रत्रयं वर्जयित्वा शेषा हि चरन्ति एकपथे ॥ ५- कश- आ०, ३० ज० । ६ -निं च मचत्राणि वर्तते द० । ७ - पाञ्च वर्तते ज०, भा Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽध्यायः १६१ च सूर्यादीनां संख्या परमागमाद् वेदितव्या' । यत्र यावन्तः सूर्यास्तत्र तावन्तश्चन्द्रमसोऽपि चेदितव्याः। यहुविधगणनानि नक्षत्राणि च ज्ञातव्यानि । अथवा सर्वत्र एकैकस्य कुमुबाम्यस्य सम्बन्धिनो ग्रहा अधाशीतिरष्ठाशीतिर्भवन्ति । एकैकस्य जकातकस्य अष्टाविंशतिरष्टाविशतिर्नक्षत्राणि भवन्ति । मानुषोत्तराऽभ्यन्तरेऽयं निर्णयः ।। __अदानी गतिमता ज्योतिकाणां सम्बन्धन पवहारकालः प्रवर्तते इति सूचयत्सू. ५ दिर्शक आचार्य श्री सुविधिसागर जी म्हाराज तस्कृतः कालविभागः ॥ १४॥ तज्योतिकैोत्तिष्कगत्या च कृतः तत्कृतः तरिक्रयाविशेपपरिच्छिन्नः' अन्यजातादेरपरिच्छिन्नस्य कालनयनानधारितस्य परिक्षानहेतुरित्यर्थः । कालस्य समयावलिकादिव्यवहारकालस्य विभागः कालविभागः । कालो द्विप्रकारः-मुख्यो व्यावहारिकश्च । मुग्न्यः कालः १० परमाणुरूपो निश्चलो व्यवहारकालहेतुभूतः सम्भृत्रिभुवनी वतने। मुख्यात्सब्जानो व्यावहारिकरच मभयानलिमाहिकादिलक्षणः । मुख्यस्य कालस्य च लक्षणं पञ्चमाध्याये विस्तरण सूचयि यन्स्याचार्याः । अथेदानी मानुपात्तराद् वहिये वर्तन्ते ज्योतिष्काः तेपां निश्चलत्यप्रतिपादक सूत्रमुच्यते बहिरवस्थिताः ॥१५॥ मनुष्यलोकाहिः "सर्वे ज्योतिषका अवस्थिता निश्चला एव वर्तन्ते । तदुक्तम्"दो दोवग्गं वारस बादालबहत्तर विउण (रिंदुइण) संखा । पुक्खरदलोत्ति परदो अवहिदा सबजोदिगणा ॥ [ ] चन्द्रसूर्यविमानविस्तार सूचना मियं गाथा-- "जोयणमेगद्विकए छप्पणअदालचंदवराणं । सुक्कगुरिंदरतियाणं कोसं किंचूणकोस कोसद्धं " || [ त्रिलोकसा८ गा० ३३७ ] अस्थायमधः-एकस्य प्रमाणोजास्य एकपष्टिर्भागाः क्रियन्ते तन्मध्ये पटपञ्चाशद् भागाः चन्द्रविमानस्य उपरितनवितारा वर्तते । सूर्धनिमानम्य तूपरितनभागोऽपचत्यारिंशद्भागमात्रा यतते । शुक्रश्मिानविस्तारस्तु क्रोशमानः। बृहस्पतेस्तु किश्चिदूनकोशः । मङ्गलबुधशनीनान्तु अर्जुकोशमात्र इत्यर्थः । ५ किलोकसा. गा. ३१ । सगान कराने वारिंशदधिकशतं सूर्याणां भवति । अन्ने वितुमा दिगमा बातम्या । २ ने आ., द., ज· । ३ -न्न अन्यजातादरपरिच्छिन्नः अन्य जा- भा. द., वा । ५ - : स- भा. द., ज, ताः । ५ सर्वव्यामा०, व, ज. । ६ -लाय- आग, द, जा। दो किया दाद द्वाचवारिंशत् प्रासमतिरिन्दिनसंख्याः । पुष्करदारान्त परतः आरिथताः गच्यातिया ।। ८ -नार्थी इवं ता०, २ | ९ योजन मेवांटते पालाशत् अप धारिदत् चन्द्रसूर्याणाम् | शुक्रगुदि तरत्रयाग कोशः किब्जिनकोदाः क्रीदाम् ।। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ तत्त्वार्थवृत्ती [ ४५१६-१८ अथेदानी चतुर्थस्य निकायस्य सामान्येन संज्ञां निरूपयन्ति वैमानिकाः ।। १६ ।।। विशेषेण आत्मस्थान पुण्यवतो जीवान् मानयन्ति यानि तानि विमानानि । बिमानेषु मार्गदर्शक :- आचाधवानो सुवातिापत समहलफन ये वर्ण यिन्यन्ते ते दवा वैमानिकसंज्ञा भवन्ति इत्यधि ५ कारसूत्रमिदं ज्ञातव्यम् । तानि विमानानि निप्रकाराणि भवन्ति-इन्द्रकविमानानि श्रेणियमा मानि प्रकीर्णकविमानानि चेति । यानि इन्द्रवत् मध्यस्थितानि तानि इन्दकत्रिमानानि । आकाशप्रदेशश्रेणिवत् यानि विमानानि चतुर्दिनु स्थितानि तानि श्रेणिविमानानि । प्रकीर्णकुसुमवत् यत्र तत्र विक्षितपुष्पाणीव यानि विमानानि प्रदिक्षु स्थितानि नानि मुष्पप्रकीर्णकानि । अत्र विशेषः-जैनचैत्यालया ये शाश्वता वर्तन्ते विमानेषु च ये देवप्रासादाः सन्ति ते सर्वेऽपि १० यद्यप्यकृत्रिमा वर्तन्ते तथापि तेषां मानं मानवयोजनक्रोशादिकृतं ज्ञातव्यम् । अन्यानि शाश्वतस्थानानि प्रमाणयोजनादिभिर्मातम्यानि इति परिभाषेलम् । परिभापति कोऽर्थः ? अनियमे नियमकारिणी परिभाषा। अथेदानी वैमानिकानां विध्यसूचनार्थ सूत्रमिदमाहुराचार्य्याः कल्पोपपन्ना; कल्पातीताश्च ॥ १७ ॥ १५ कल्पेषु "पोडशशु स्वर्गेषु उपपन्नाः सम्बद्धाः कल्पोपपन्नाः कल्पेभ्योऽतीता अतिक्रान्ता उपरितनक्षेत्रवर्तिनो नववेयकदेवा नवानुदिशामृताशनाश्च पञ्चानुत्तरनिवासिनो निर्जराश्च त्रिप्रकारा अपि अहमिन्द्राः कल्पातीताः क यन्ते । ननु भवनवासिपु व्यन्तरेषु ज्योति केषु च इन्द्रादीनां कल्पनं वर्तते तेऽपि कल्पापपन्नाः कथन्नोच्यन्ते ? इत्याह-सत्यम् ; यद्यपि तेषु इन्द्रादिकल्पो वर्तते तथापि वैमानिका एव कल्पोपपन्ना इति रूढिं गताः, यथा गच्छतीति २० गौः धेनुपम एव गौरुच्यते गमनक्रियापरिणतोऽपि अश्वादिर्न गौरुच्यत इति । अथेदानी वैमानिकानाम् अवस्थितिविशेषविज्ञापनार्थं सूत्रमिदमुच्यते उपर्युपरि ॥ १८ ॥ कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च वैमानिकाः उपर्युपरि ऊर्ध्वमूर्ध वर्तन्ते । तेषां विमानानि च पटलापेक्षया उपर्युपरि ऊर्ध्व ऊर्ध्वं सन्ति, ज्योतिष्यत्तिय॑गवस्थिता न वर्तन्ते, २५ व्यन्तरवदसमव्यवस्थितयश्च न सन्ति, इतस्ततो यत्र तत्र च न वर्तन्ते किन्तु उपर्युपरि वर्तन्ते । अथवा 'उपर्युपरि' इत्ययं शब्दः समीपवाची वर्तते । तत्रैवमर्थघटना कर्तव्या-यस्मिन पटले सौधर्मस्वर्गो दक्षिणदिशि वर्तते तस्मिन्नेव पटले उत्तरदिशि समीपवर्ती ईशानस्वर्गाऽस्ति । एवं प्रतिपटलं यथासम्भवं द्विद्विस्वर्गविचारः अच्युतान्ते कर्तव्यः।। अथ कियसु कल्पविमानेषु देवा भयन्तीति प्रश्ने सूत्रमिदमाहुः १ -पयति आरु, ज.। २ -वि- ताल, भा०, २., ज०। ३ - दा यतन्ते ते ०, द., ज०। ४ -मिर्जात-आ०, द., जा, व०। ५ शडदास्व-ब। ६ -मग भगवन्तः आ., १०, १०। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थोऽध्यायः सौधर्मेशानसानस्कु मारमा हेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरान्नव कापिष्टशुक्रमहाशुकशतारसहस्रारेण्वानतप्राणयोरारणाच्युतयोर्नवसु मैत्रेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥ १९ ॥ ५ :- श्री 1 सुधमी नाम्नी देवसभावर्तते सा चित्र यस्मिन्नसौ सौः स्वर्गः । तत्स्वर्गसाचर्यात् इन्द्रोऽपि सौधर्मः । ईशानां नाम इन्द्रः स्वभावात् ईशानम्य निवासः वर्ग ऐशानः । ऐशानस्वर्ग साहचर्यात शक्रोऽप्यज्ञानः । सनत्कुमारो नाम जिष्णुः स्वभावान्, तस्य निवासः स्वर्गः सानत्कुमारः । सानत्कुमारस्वर्ग सा मानपानकमार जी मजा मान् स्वभावात् तस्य निवासः स्वगी माहेन्द्रः । महिन्द्रस्वग साहचर्यात् विडौजा अपि माहेन्द्रः । नाम अखण्डः स्वभावान् तस्य निवासः स्वर्गेऽपि स्वर्गसाहचर्यात् पाकशास नोsपि ब्रह्मा । ब्रह्मोत्तरनामा ऋभुक्षा स्वभावान्, तस्य नित्रासः स्वर्गे ब्रह्मोत्तरः । ह्मोत्तर १० स्वर्ग साहचर्यात् सहस्रानोऽपि ब्रह्मोत्तरः । न्तवा नाम मेघवाहनः स्वभावात् तस्य निवासः स्वर्गः लान्तयः । लान्तत्र स्वर्गसाहचर्यात् तुराषाउपिलान्तवः । कापिष्ट नाम दुश्च्यवनः स्वभावात् तस्य निवासः स्वर्गः कापिष्टः । कापिस्वर्गसाहचर्यात् सङ्क्रन्दनोऽपि कापिः । शुक्रो नाम नमुचिसूदनः स्वभावात् तस्य निवासः स्वर्गः शुक्रः । शुकस्वर्ग साहचर्यात स्वाराsपि शुक्रः । महाशुक्रनामा हरिहयः स्वभावात् तस्य निवासः स्वर्गः महा १५ शुक्रः । महाशुकरवर्ग साहचर्यात् जम्भभेद्यपि महाशुक्रः । शतारनामा शचीपनि स्वभावातू वस्य निवासः स्वर्गः शतारः । शतारस्वर्गसाहधर्वान् वारातिरपि शतारः । सहस्रारनामा सुरपतिः स्वभावान नस्य निवासः स्वर्गेऽपि सहस्रारः । सहस्रारस्वर्गसाधयन् बास्ती:पतिरपि सहस्वारः । य समन्तात् सर्वज्ञचरणकमलपु नतः आनतो नृप। स्वभावात् तम्य निवासः स्वर्गः आनतः । आनतस्वर्ग साहचर्यात् वासवोऽपि आनतः । प्रकर्पेण आ २० समन्तान सर्वज्ञचरणकमलेषु नतः प्राणतः वत्री सभावान, तस्य निवासः स्वर्गः प्राणतः । प्राणतस्वर्ग साहचर्यान गोत्रभिदपि प्रायतः । गोत्राणि जिनसहस्रनामानि भिनत्ति अर्थपूर्व जानातीति गोत्रभित्, न तु पर्वतपक्षच्छेदकस्वान् पर्वतानां पक्षसद्भावाभावप्रतीतेः । आसमन्तात् रणः शब्दो यस्य स आरणः प्रसिद्ध नामकः, आरणस्य निवासः स्वर्गेऽपि आरणः । आरणस्वर्ग साहचर्यात् सन्नामाऽपि आरणः । न धर्माच्च्युतः अच्युतः शतमन्युः स्वभावात २५ तस्य निवासः स्वर्गः अच्युतः । अच्युतस्वर्गसाहचर्यात् दुश्च्यवनोऽपि अच्युतः । उपर्युपरि इति वचनात् सिद्धान्ताऽपेक्षा व्यवस्था अवति । कासो व्यवस्था ? पूर्वो सौधम्मैशानकल्पों, तयोरुपरि मानत्कुमारसाहेन्द्री तयोरुपरि ब्रह्मलोकोत्तरौ तयोपरि mar पर शुक्रमहाशुक्र, नयोपरि शतारसहस्रारी, तयोरुपरि आनतप्राणली, १९] १ न् सः मौआ, आखण्डला भा०, ३० ज० । २ ०६ र ०, ० ० ज श्रन्न स्व- आ । -क्षा तस्य ता 1 ० । २० ज० ० । ३ नाग ५ वर्गः सा १६३ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्तौ _ [११९ तयोरुपरि उशरणाच्युतौ । तथा नवसु प्रेयकेषु वैमानिका देवा भवन्ति । 'नवसु' इति पृथग्विभक्तिकरणात नवौवेयकानन्तरं नवानुदिशवेमानिका भवन्तीति बातव्यम् । तदनन्तरं विजयवैजयन्तजयन्तापराजितसधिसिद्धिपश्चानुत्तरवैमानिका भवन्ति । सर्वार्थसिद्भिशब्दस्य पृथक् विभक्तिदानंद मर्वनामोजाबEAनिल जीर्थनासखेति यथा । अथ विस्तार:-योजनलक्षोन्नतः किल मेरुपर्वतः। तन्मध्ये एक योजनानां सहलं भूमिमध्ये वर्तते । नवन्त्रतियोजनसहस्राणि पहिःस्थितोऽस्ति । तन्मध्ये चत्वारिंशद्योजनान्युन्नता नच्चूलिका वर्तते। सा चूलिका ऋतुयिमानं वालान्तरमात्रमप्राप्य स्थिता । मेरोरधस्तात् अधोलोकः । मे प्रमाणबाहुल्यः तिर्यकलोकः । मेरोरुपरि सर्वोऽपि ऊर्ध्वलोकः । सौधम्मै शानयोः सम्बन्धीनि एकत्रिंशत् पटलानि । तन्मध्ये प्रथमम् "तुपटलम् । १. ऋतुपदलस्योपरि मध्यप्रदेशे ऋतुविमानं नाम इन्द्रकं वर्तते । इन्द्रकमिति कोऽर्थः ? मध्यवि मानम् । तत्प्रथममिन्द्रकं पञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनविस्तृतं तस्मादिन्द्रकाश्चतुर्दिक्षु चतस्रो विमानश्रेणयो निर्गताः प्रत्येकं द्विषष्टिविमामसङ्ख्याः । चतुर्विदितु पुष्पप्रकीर्णविमानानि वर्तन्ते । एतस्मात् ऋतुपदलादुपरि एककस्य पटटस्य एकैकस्यां श्रेणी एक कं विमान हीनं भवति यावत् प्रभानामकमन्त्यमेकत्रिंशं पटलं वर्तते । प्रभापडलस्योपरि मध्यभागे प्रभासंझं यदिन्द्रकविमानं १५ यतते तस्य इन्द्रकस्य चतुर्दिनु चनस्रो विमानश्रेणयः सन्ति, ताः प्रत्येक द्वात्रिंशद्विमान सहाव्या वर्तन्ते । तासां चतमणां विमानश्रेणीनां मध्ये या विमानश्रेणिः दक्षिणां दिशं गता नस्यां श्रेणी यदष्टादशं विमानं वर्तते नदिमानं सौधर्मेन्द्राधिष्ठानम्। उत्तरश्रेणौ तु वदष्टादशं बिमानमस्ति तस्मिन् विमाने ऐशानेन्द्रो वति । द्वयोरपि विमानयोः प्रत्येकं त्रयः प्राकाराः। तेषु प्राकारेषु मध्ये यायप्राकाराभ्यन्तरे अनीकानि पारिषदाश्च देवा वसन्ति । मध्यप्राकारा२० भ्यन्तरे सचिवदेवा वसन्ति । आभ्यन्तरप्राकाराभ्यन्तरे इन्द्री वसति । एवं सर्वत्र इन्द्रादीनां स्थितियुक्तिर्ज्ञातव्या । पूर्व दक्षिणपश्चिमतिरः (मास्तिस्रः) श्रेणयः अग्निकोणनैऋत्यकोणयोः पुष्पप्रकीर्णकानि सौधर्मस्वर्ग उच्यते। उत्तरश्रेणिरेका वायुकोणेशानकोणयोः पुष्पप्रकीणविमानानि ऐशानस्वर्ग उच्यते । एवम् एकत्रिंशतपटले ध्वपि विभजनीयम् ।। नतः परं “सानकुमाग्माहेन्द्रनामानी स्वौँ वसेते। तयोः पटलानि सप्त भवन्ति । २५ तन्त्र प्रथम पटलमञ्चनं नाम । तम पदलस्य मध्यप्रदेशे अञ्जनं नाम इन्द्रकविमानं वर्तते । तस्तुदिक्षु चतस्रो विमानश्रेणयो निर्गनाः प्रत्येकम् एकत्रिंशद्विमानाः । प्रदिनु च चतामृध्वपि पुष्पप्रकीर्णकरिमानानि धन्ते । तनः परम् एकैकस्य पटलस्यकैकस्यां श्रेणावेककं विमान हीनं भवति । तेन सप्तमपटले इन्द्रविमानात् चतुर्दिक्षु चतस्रो विमानश्रेणयः पञ्चर्वि शतिविमानाः प्रत्येकं भवन्ति । तन्मध्ये दक्षिणश्रेणौ पञ्चदशं स्वर्गविमान सानत्कुमारेन्द्रो ३, भुनक्ति | उत्तदिशि तु पञ्चदर्श कल्पविमानं माहेन्द्रः प्रतिपालयति । मर्गनानीनम- ता०। २ प्रवि. आ. व., ६०, ज ० १ ३ -शानस- आ०, द, ज० । ४ ऋजप- ता० | नुप- आ०, द., ज० । ५ -क्षवि- ता०, ०। ६ -ति स्म मभा०, द, य० । ७ सनत्कु- आ., द०,ब०,व., ज । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.११ . चतुर्थोऽध्यायः तत उपरि ब्रह्मलोकनमोत्तरम्नगी यनंते 1 तयोश्चत्वारि पटलानि । तन्त्र प्रथम पदलमरिन नाम । तन्मध्यप्रदो अरिष्टनाममिन्द्रऋत्रिमानं वर्तते । तस्मादिमानाचतु. दिनु चननः श्रेणयः प्रत्येक बतुवतिथिभानाः । विदिक्षु पुटपप्रकोणकानि । प्रतिपटनं श्रेणी श्रेणौ एकक विमानं हीनं भवति । तेन चतुथ पटले ब्रह्मोत्तरनाम्नि औरणविमानानि प्रत्येकमेकविंशतिभवन्ति । तत्र चतुर्थ पटन दक्षिणश्रेणी बादशस्य ५ विमानस्व स्वामी ब्राह्मो नाम देवेन्द्रा बनते । उत्तर श्रेणी मु द्वादशस्य कल्पविमानस्य स्वामी ब्रामोत्तर इति । इत उत्तरं लान्तबकापिष्टसंज्ञका ही स्वगों वर्तते । तया पटक ब्रह्महइयलान्तवनामक। तत्र लान्नवपदले मध्यप्रदेश लान्त नामेन्द्रकविमानमस्ति । तस्य विमानस्य नुदिक्षु चतम्रः श्रेणयः प्रत्येकमेकोनविंशतिविमानाः । तत्र दक्षिणश्रेणी नत्रमं विमानं लान्तवेन्द्रा भुनक्ति। उत्तरश्रेणौ तु नवमं विमानं कापिणः प्रतिपास्यति । तन उपरि झुकमहाशुक्रनामानी हो स्वाँ वर्नेते । तयादयोरपि स्वर्गयोरेकमेव पटलं वर्तते तस्य नाम महाशुक्रं भवति । तस्य पटल्याशिवप्रदेश अधाश्या मावासागरजी म्हाराज बनते। नस्य बिमानस्य चतुदिन चनमः गन्त्रः सन्ति प्रत्येकमष्टादर्शोधमानाः । तन दक्षिणश्रेणी द्वादशं बिमा शुक्रन्द्रो भुनक्त। उत्तरश्रेणिगं द्वादशं कल्पविमानं महाशुतः ।। शास्ति । तदुपरि शतार नहस्रारनामानी स्वनी वर्तते । नबाई योरपि एकमेव पटलं वर्तते १५ सहस्रारनामकम् । तस्य पथ्यप्रदेश सहन्यारं नामेन्द्रधिमानम् । तस्माच्चतुर्दिनु, चताः श्रेणयो निर्गनाः प्रत्येक सनदशविमानाः । तत्र दक्षिणश्रेणों नत्रमं विमानं शतारेन्द्रम्य, तथोंत्तरश्रेणी नवम समान सहनारेन्द्रस्य ! ते अपि विमाने क्रमन शतारसहस्रार नाम के ! . सर्वत्र इन्द्रनाम्ना विमाननाम ज्ञातव्यम, विभजनन्तु पूर्ववद् वेदितव्यम् । ततः परम् आननवागतारणाच्युननामानश्चत्वारः स्दगो वर्तन्ते । तेषां चतुर्णामपि स्वर्गा- २० जां पटलानि पट् भवन्तीति सिद्धान्तवचनम् । तेषु पटसु पटलेषु चतुःदक्षु श्रेणित्रिमानानि प्रदिक्षु च प्रकीर्णकविमानानि । तब अन्त्यपटलमन्युतनामकम् । तरच मध्यप्रदेशे अच्युतं" नामेन्द्रकविमानं भवति । तस्मादिक्षु चतस्रः श्रेणयो निर्गनाः प्रत्यकमेकादविमानाः । तत्र दक्षिणश्रेणी पठं विमानं यद् वर्तते नस्व स्वामी आरणेन्द्रः । तथोत्तरश्रेणी 'पष्टं विमानम- २५ च्युतेन्द्रः पाति । किं क्रियते लोकानुयोगनाम्नि र सिद्धान्त आमतप्राणतेन्द्री नाती तन्मतानुसारण इन्द्राश्चतुर्दश भवन्ति । मया तुं द्वादशीच्यन्ते, यस्मात् ब्रह्मेन्द्रानुवती ब्रह्मात्तरन्द्रः, लान्तवेन्द्रानुवर्ती पापिठेन्द्रः, शुक्रन्द्रानुबती महाशुक्रन्द्रः, शतारेन्द्रानुवर्ती सहस्रारंन्द्रः । १ -न्द्रवि. आ. ६०, अ.। २ क - वः । ३ -यति श्रा, दे०. ज. । ४ नत्थर- आ०,९०,ज । ५ -स्य कि- आ०, द., ज०।६ का स-साद., ज० । महाशुक्रगुता०। ८ -का -द०। एनबमऋमिन्द्र- आ., जा, द. 10 दूरच्यन्निलोफरू या १६८। ११-तनाम-ब । १३ "सहमीसाणकारमाश्मि तवया । तह मुक्स सारा आगदपागद व आरगया | एवं भागमापा' 'सामाणी' । । " इस सारस.क.मित इशायरया पटान्तरम् -त्रिलोक प्रजः बैमानिकः । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती [४/२. सौधम्मशानसानत्कुमारमाहन्द्रेपु चत्वार इन्द्राः आन्तप्राणतारणान्युतेषु चत्वार इन्द्राः। तेन कल्पवासीन्द्रा बादश भवन्ति । सौधर्मस्वर्गस्य सम्बन्धीनि थिमानानि द्वात्रिशल्लक्षाणि भवन्ति । ऐशानस्वर्गस्याष्टाविंशतिलक्षाणि । सानत्कुमारस्य द्वादश लक्षाणि । माहेन्द्रस्व अष्टौ लक्षाणि । ब्रह्मलोकब्रह्मो५ त्तरयोः समुच्येन चत्वारिंशल्लक्षाणि कम्यन्ते । लान्तवकापिष्टयाः समुदायेन पञ्चाशनसह स्त्राणि मार्गदर्शकुक्रमहा पर्व समुदिशामिछायारिशम् सहाण स्युः । शतारसहकारयोरे कत्र पटू सहस्राणि वर्तन्ते । आनतप्राण्यतारणाच्युतानां चतुर्णामपि सप्तशतानि तिष्ठन्ति । प्रथमग्रेनेग्रक्रत्रिके श्रेणियद्धपुष्पप्रकीर्ण काश्च विमानाः समुदिताः तेषामेकादशोत्तरं शतं भवति । मध्यौधेयकत्रयम्य सप्तोनर शतं स्यात् । 'उपरिप्रेवेयकत्रयस्य विमानानि एकाधिका नवति१० भवन्ति । नत्रानुदिशपटलमध्ये इन्द्रकमष्टासु दिक्षु अठो बिमानानि समुदायेन नव भवन्ति । सर्वार्थसिद्धिपटल पच विमानानि सन्ति । तत्र मध्यविमानः सर्वार्थसिद्धिनामकः, पूर्वस्यां दिशि विजयः, दक्षिणस्यां दिशि चैंजयन्तः, पश्चिमायां दिशि जयन्तः, उत्तरस्यां दिशि अपराजितः । सौधम्मैं शानयोः विमानानि श्वेतपीतहारतारुणकृष्णवर्णानि । सानत्कुमारमाहे. १५ न्द्रयोः श्वेनपीतहरितारुणानि । ब्रह्मलोक ब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्टेषु श्वनपीतरक्तानि । शुक्र महाशुक्रशनारत हमारामतप्राणतारणार तेषु त्रिमानानि श्वेतपीतानि | नवगवेयकमवानुदिशानुत्तरेषु श्वेतान्येव । तत्र सर्वार्थसिद्धिविमानं परमाशुको जम्द्वीपप्रमाणञ्च वर्तते, अन्यानि तु चत्वारि विमानानि असण्येयकाटियोजनप्रमाणानि वर्तन्ते। एव त्रिपाठे : पटलानां परस्परमन्तरमसनलयेययोजनं ज्ञातव्यम् । ६. सौधम्मशानयोरुञ्चत्वं मार्दैन रज्जः मेरुयुध्नादू योद्धव्या । सानत्कुमारमाहेन्द्रयोरपि साका रजारित । ब्रह्मान प्रोत्तरलान्तवकापिष्टशुक्रामहाशुक्रशलारसहस्रारानतप्राणतारणाच्युतेषु दयो योः स्वर्गयोरुन्चता अद्धाञ रज्जुः । तेन सशाना स्वर्गाणां समुदितारितम्रो रजवः । ग्रेनेयवानिमुक्तिपर्यन्तमेका रज्जुमच्चति । अत्र चावन्ति विमानानि ऊर्ध्व लोकेऽपि तावन्नि जिनमन्दिराणि भवन्ति, तेषां नमस्कारबन्द नाऽस्तु । २५ अधदानी सर्वेषां वैमानिकानामन्योन्यविशेपपरिज्ञामार्थ सूत्रमिदमुच्चा भगवधिः स्थितिप्रभावमुग्नश्रुतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधि विषयतोऽधिकाः ॥ २० ॥ निजायुरुदयात् तद्भवे काचेन साहविस्थान स्थितिरुच्यते । निग्रहानुग्रहसामथ्र्य प्रभावः । इन्द्रियविषयानुभव मुत्रम्। शरीरत्रस्वाभरणादीनां युतिर्दीप्तिः । कपायानुञ्जिता ३. योगप्रवृत्तिलेश्या । लेश्यायाः विशुद्धिनिर्मलता लेश्याधिशुद्धिः । इन्द्रियाणि च स्पर्शनादीनि, अव____धिश्च तृतीयो बोधः, इन्द्रियावधयः । इन्द्रियावधीनां त्रिपयः गोचरः गम्यः पदार्थः इन्द्रिया ५ उपरिमन्ने द०, व., ज., ता. | २ सनस्चयेन - आ, द, ज ० । सनुदाये मन व० । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४।२१-२२ । चतुर्थोऽध्यायः १६७ अधिविषयः । स्थिति प्रभावाचा सावत्र स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविपयाः तेभ्यस्तैर्वा ततः वैमानिका अधिका भवन्ति । कुन ? उपर्युपरि प्रतिस्वर्ग प्रतिपदा । अथ यदि स्थित्यादिभिरुपर्युपरि अधिका वैमानिका भवन्ति तहिं गतिशरीरपरिमहाडभिमारा भविष्यन्तीत्यारे कायां योगोऽयमुच्यते- ར गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ॥ २१ ॥ देशाद् देशान्तरप्राप्तिहेतुर्गनिः । विक्रियाद्देतुभूतं वैकिचिक शरीरम् । लोभकषायस्योदयेन विप्रयेष्वासङ्गः परिग्रहः । मानकपाचश्योदयात् प्रादुर्भूतोऽहङ्कारोऽभिमानः । गतिश्च शरीर परिग्रहच अभिमान गतिशरीरपरिमाभिमानाः तेभ्यः तैर्वा ततः, वैमानिका उपर्युपरि प्रतिस्वर्गं प्रति पटलं च हीना: तुच्छाः भवन्ति । तथा हि- देशान्तरेषु विषयक्रीडा- १० रतिप्रकृताऽभावात् उपर्युपरि गतिहीना सयन्ति तथा उपर्युपरि वैमानिकाः शरीरेणापि हीना भवन्ति । तत्कथम् ? सौधन्मेशानयोः वैमानिकानामरस्किप्रमाणं शरीरम् । सानत्कुमारमहिन्द्रयोरर स्निपट्कप्रमाणमङ्गं भवति । ब्रह्म लोकोत्तरलान्तवकापिष्ठेषु अररिनपञ्चकप्रमाणं व स्वात् । शुक्रमद्दा शुक्रतारसहस्रारेष्वरस्निचतुष्कप्रमाणः काय भवति । आनतप्राणत चोर र निसार्द्धत्रियमाणो भवति । आरयाच्युतयोररनित्रयमाणो विग्रहो १५ भवति । प्रथममै थत्रिक अरत्निसार्द्धद्रयप्रमाणं गात्रं भवति । द्वितीय वैयक त्रिके अरनिय श्रमाप्पा तनुर्भवति । तृतीयमंत्रेयकत्रिके नवामुदिशविनानेषु साकारनिप्रमाणामूर्तिर्भवति । पचानुत्तरविपाने एकार्शनप्रमाणं वपुर्भवति । विमानपरिवारादिपरि हैरुपर्युपरि हीना भवन्ति अल्पकपायत्वात् । उपर्युपरि अभिमानेन च वैमानिका दीना भवन्ति । I हि वैमानिक लेश्या कीदृशी भवतीति प्रश्ने तत्परिज्ञानार्थ सूत्रमिदमुच्यते-- २० पद्मशुक्ललेश्या विशेषेषु ।। २२ ।। पीता पद्मा च शुक्ला च पीतपदाशुक्ला: । पीतपद्मशुक्ला लेश्या येषां वैमानिकानां ते पीताशुक्लेश्याः | अत्र स्वत्वं कथम् ? यद् उत्तरपादिकं तत् ह्रस्वं भवति यथा हुना मध्यविलम्बितामात्रा: हुतमध्यविलम्बितमात्रा इति सङ्गीते हरवत्वमस्ति तथावापि ह्रस्वत्वम् | अथवा पीलश्च पद्मश्र शुक्ला पीतपद्मशुक्ला, पीतपद्मशुक्लवर्णसंयुक्ताः केचित् २५ पार्थाः कानिचिनि तेषामित्र लेश्या येषां वैमानिकानां ते श्रीतपद्मशुक्लेश्याः । तत्र कस्य का लश्येति चेत् ? उच्यते--दिविशेषेषु च युगल त्रीणि च युगलानि शेषाणि च सर्वाणि स्थानानि विशेपाणि तेषु द्वित्रिशेषेषु । अस्यायमर्थः - सौधम्मेशानयोः सानत्कुमारमाहेन्द्रयो योर्युगयोर्वैमानिकाः पीतलेश्यास्तावद् धर्तन्ते एव, परमयं तु विशेपः - सानत्कु १ कृष्यानी ब० । कृष्टतामा आ० १०, ज० । २० । ३त्रिमहो आर, द० ज० | ५ वादक ० ज० ५ त्रीणि - आ०, ज Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ तत्त्वार्थवृत्ती [४१२३-२४ मारमाहेन्द्रयोः पीतपद्मलेश्यामिश्राः सन्ति । ब्रह्मलोकनबोत्तरलान्तयकापिष्ठशुक्रमहाशुक संबकेषु त्रिषु युगलेषु वैमानिकाः पालेश्यास्तावद् वर्तन्त एव, परमयं तु विशेष:--शुक्रमहामार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी म्हार शुक्रशतारसहस्रारेपु चमानिकाः पद्मशुक्लमिश्रलेश्या वसन्ते । आनतप्राणनारणाच्युतनवग्रेवे. यकनवानुदिशश्वानुस्तरेषु शेषशब्दलचे वैमानिकाः शुक्ललेश्यास्तावद् वर्नन्त एव, परमयं ५ तु विशेषः-नवानुदिशपञ्चानुत्तरविमानेषु चतुर्दशसु बैमानिकाः परमशुक्ललेश्या' वर्तन्ते । अग्रह सूत्रे-मिश्नस्य ग्रहणं न कृतं वर्तते कथं भवद्धिः मिश्रस्य प्रणं कृतम् ? सत्यम; साहचर्यात् लोकवत्। कोऽसौ लोकदृष्टान्तः ? यथा पताकिनी गरछन्ति छत्रिणो गच्छन्ति इत्युक्ते पताकिभिः सह ये पताकारहिता गच्छन्ति तेऽपि पताकिन इत्युच्यन्ते ये छत्रिभिः सह छत्ररहिता गच्छन्ति तेऽपि छत्रिण उच्यन्ते । कस्मान ? साहचर्यात् । एवं यथा अछत्रिपु छत्रि१० व्यवहारो लोके चनंते तथा अत्रापि सूत्रानुनमपि मित्रप्रवणं भवति । सूत्रतः कथं झाग्रते इति चेत् ? उच्यते--तन्त्रबमभिसम्बन्धः क्रियते । इयः स्वर्गयुगलयोः पीतलश्या तावद वर्तत, सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः पद्मलेश्यायाः अविवक्षातः पीनैव । ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरलान्तवकापिटशुक्रमहाशुक्रसंज्ञके निषु युगले.पु पालश्या तावदुध, शुक्रमहाशुक्रयोः शुक्लन्तेश्यामा: अविवक्षातः पालेश्यवोक्ता। शेषेषु शतारादिपु शुक्ललश्या तायदुनंब शनारसहस्रारयाः ५५ परालेश्याया अविवक्षातः शुक्लैयोक्ता । इत्यभिसम्बन्ध नास्ति दोपः। अथ कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्चेति सत्सूत्रमुन तन्न न ज्ञायते के करपा येषु कल्पेषु झातेषु कल्पातीताः स्वयमेव ज्ञायन्ते इति सन्द हे सूत्रमिदमुच्यते प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः ॥ २३ ॥ ग्रंयकेन्यो नव वेबकेश्यः सकाशान प्राक, पूर्व चे वर्तन्ते ते कल्पा भवन्ति, अच्यु. २८ तान्ताः सौधर्मादय इत्यर्थः । तर्हि कल्पातीताः के वर्तन्ते ? इत्याह-परिशेषमा इनरे मयप्रैवेबकाः नाऽनुदिशाः पश्चानुत्तराश्व कल्पातीता इति ज्ञातव्यम् । तदि, लौकान्तिका अमरा वैमानिकाः सन्तः के गृह्यन्तं कल्पोपपन्ने कल्पानी घु वा ? इति प्रश्ने सूत्रमिदमुच्यते--- ब्रह्मलोकाला लौशान्तिकाः ॥ २४ ॥ एत्य लीयन्ते तस्मिन्निगालयो निवासः, ब्रह्मलोकः पञ्चमः स्वगः तस्मिन्नालय! निकाया विमानानि येषां ते यमलोकातायाः । तहिं ये ब्रह्मालॉक वसन्ति ते सर्वेऽपि लौकान्तिका इत्युच्यन्ते ? नेवम् : लौकान्तिक इति संज्ञा अन्वर्था वर्तते सत्यार्थी वर्तते । तेनाचमर्थःलोकशब्देन ब्रह्मलोक उच्यते । "समुदायेषु निवृत्ताः - शब्दा अवययेष्वपि वर्तन्ते " ___] इति बननात लोकस्य ब्रह्मलोकस्य अन्नोऽवसानं लोकान्तः, लोकान्ते १ - या शायद् व-भा०, ६०, ज । २ मिश्रग्न- ता०, व । ३ -स्यन्धन ना- आ.. ०, ता. 2 मिनाम आ०, द०,जः । द. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ ४/१५-२६ ] चतुर्थोऽध्यायः भवा लौकान्तिकाः । न तु सर्वेऽपि लौकान्तिकाः कथ्यन्ते । तेषां विमानानि ब्रह्मलोकस्वर्गस्य अन्तेषु अवसानेषु वर्तन्ते । अथवा जन्मजरामरणव्यातो लोकः संसारस्तस्य अन्तः लोकान्तः, लोकान्ते परीतसंसारे भवा लौकान्तिकाः । ते हि त्रह्मलोकौन्ताच्च्युत्वा एकं गर्भवासं परिप्राप्य निर्वाणं गच्छन्ति तेन कारणेन लौकान्तिका उच्यन्ते । " अथ सामान्यतया लौकान्तिकाः प्रोक्ताः तेषां भेदप्रतिपत्त्यर्थं सूत्रमिदमाहुःसारस्वतादित्यवत्यरुण गर्दतोय तुषिताव्याबाधारिष्टाश्च ॥ २५ ॥ सरस्वती चतुर्दशपूर्वलक्षणां विदन्ति जानन्ति सारस्वताः । अदितेर्देवमातुरपत्यानि आदित्याः । वह्निद्देदीप्यमाना वह्नयः । अरुणः उद्यद्भास्करः तद्वत् तेजोविराजमाना अरुणाः । गर्दाः शब्दाः तोयवत् प्रवहन्ति 'लहरितरङ्गयत् प्रवर्तन्ते येषु ते गर्दतोयाः । तुष्यन्ति विषयमुखपराङ्मुखा भवन्ति तुषिताः । न विद्यते विविधा कामादिजनिता आ सम- १० न्तात् बाधा दुःखं येषान्ते अध्याबाथाः । न विद्यते रिष्मकल्याणं येषां ते अरिष्टाः । सारस्वताच आदित्याश्च वहयश्व अरुणाश्च गर्दतीयाञ्च तुषिताच अव्यावाधाव अरिष्टाश्च ते तोताः । तत्र सारस्वतानां विमानमीशानकोणे वर्तते । आदित्यानां विमानं पूर्वदिशि अस्ति । ari देवगणानां विमानम् अग्निकोणे सिष्ठति । अरुणानां विमानं दक्षिणदिश्यस्ति । गर्दतोयानां विमानं नैर्ऋर्ऋत्यकोणे आस्ते विमानं वायुकोणे विद्यते । अरिष्टानां विमानम् उत्तरदिश्यस्ति । चशब्दात् सारस्वतादित्यानामन्तराले अग्न्याभसूर्याभाणां विमाने वर्तेते । आदित्यवहीनामन्तराले चन्द्राभसत्यामाना विमाने स्तः । बह्ररुणानामन्तराले श्रेयस्कर क्षेमङ्कराणां विमाने तिष्ठतः । अरुणगर्दतोयानामन्तराले वृषभेष्टकामचराणां विमाने आसाते । गर्दतोय तुषितानामन्तराले निर्वाणरजोदिगन्तरक्षितानां विमाने विद्येते । तुषिताव्याचाधानामन्तराले आत्मरक्षितसर्यरक्षितानां विमाने २० भवतः । अव्यात्राधारिष्टानामन्तराले महदूद्वसूनां विमाने स्याताम् । अरिष्टसारस्वतानामन्तराले अश्वविश्वानां विमाने स्तः । सर्वेऽपि लौकान्तिकाः स्वाधीनवृत्तयो हीनाधिकत्व भावाभावात् विषयसुखपरराङ्मुखत्वाद् देवर्षयश्च कथ्यन्ते । अत एव देवानामर्चनीयाः चतुर्दशपूर्व धारिणः तीर्थङ्करपरमदेवानां निष्क्रमणकल्याणे स्वामिसम्बोधनसेवानियोगाः । "चतुर्लक्षास्तथा सप्तसहस्राणि शताष्टकम् । य १५ विंशतिमिलिता एते सर्वे लौकान्तिकाः स्मृताः ॥" [ 1 अथ यद्येते एकं भवं प्राप्य निर्वाणं गच्छन्ति तर्हि अन्येषामपि देवानामस्ति कश्चिनिर्याणप्राप्तिकालविभाग इति प्रश्ने सूत्रमिदमुच्यते विजयादिषु विरमाः ॥ २६ ॥ विजयो विजयनामा विमानः स आदिः प्रकारो येषां ते विजयादयः विजयवैजयन्त- ३० १ सारेण म आ०, ५०, ज० । २ -लोकाच्यु- आ० द० ज० ३ प्राप्ताः भ० 1 ४ लहरीत आ० ० ० ० ५ गम्बराक्ष आ० हु०, जै० । २२ A Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० तत्त्वार्थवृत्ती [ ४ २७-२८ जयन्ता पराजितानुदिशनामानो विमानाः तेषु विजयादिषु विमानेषु ये अहमिन्द्रदेवा वर्तन्ते ते farar: चरम अन्त्यौ मनुष्यभवो येषां ते विचरमा, उत्कर्षेण द्रौ मनुष्यभव सम्प्राप्य मोक्षं गच्छन्तोत्यर्थः । कथं द्विचरमाः । विजयादिषु विमानेषु उत्पद्य अपरित्यक्त सम्यक्त्याः ततः प्रत्युत्य मनुष्यभवे समुत्पद्य संयमं समाराध्य भूयो विजयादिषु समुत्पद्यन्ते ततः प्रच्युत्य ५ पुनरपि मनुष्यभवं प्राप्य सिद्धिं गच्छन्ति एवं मनुष्यभवापेक्षया द्विचरमदेद्दत्वं तेषां भवति । सर्वार्थसिद्धयनिन्द्रास्तु अन्वर्थसंज्ञत्वात् परमोत्कृष्टसुरत्वाच्च अर्थापत्तिबलादेव एकघरमा भवन्तीति ज्ञातव्यम् । “पशमिकक्षाfirst भावौ मिश्रस्य जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिको च [ ० सू० २१ ] इति सूत्र विवरणे तिर्य्यग्गतिरौदयिकी प्रोन्ध पुनरपि “तिर्यग्योनि१०० चौ श्री श्रीमत्यमुक्तम् जघन्यमन्तर्मुहूर्त मुक्तम् । तत्र च न ज्ञायते के जीवास्तिर्यग्योनयः इति सन्देहे तन्निरासार्थं तिर्य्यग्गतिः प्रतिपाद्यतेऔपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ॥ २७ ॥ उपपादे भाया औपपादिकाः, 'मनुभ्यः कुलकरेभ्यो भवा मनुष्याः । औपपादिकाश्च मनुष्याश्च औपपादिकमनुष्याः तेभ्यः औपपादिकमनुष्येभ्यः शेषाः अपरे संसारिजीवाः १५ तिर्यग्योनयः तिर्यन इति वेदितव्यम् । तत्र देवा नारका औपपादिका:-'दिवनारकाणामुपपाद:" [त० सू० २।३४] इति वचनात् । मनुष्याणामपि स्वरूपं ज्ञातमेव “प्रामानुषोचरान्मनुष्याः " [ त सू० ३।३५ ] इति वचनात् । एकयो ये अन्ये ते सर्वेऽपि प्राणिनः तिर्य्यो ज्ञातव्याः । तर्हि तिरक्षां क्षेत्रविभागो न प्रोक्तः ? तिर्यो वर्तन्त एव क क्षेत्रविभागः कथ्यते । सत्यम् ; सर्वस्मिन् त्रैलोक्ये २० तर्हि नारकतिर्यग्मनुष्याणामायुष्यं प्रोक्तं देवानां नोक्तं देवानामायुः कीटश मित्यु के प्रथमतस्तावन भवनवासिनामायुरुच्यते स्थितिरसुरनागसुपर्णदीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योप माई हीनमिताः ॥ २८ ॥ | स्थितिः आयुःप्रमाणम् । केषाम् ? असुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणाम् । असुराश्च नागाश्च २५ सुपर्णाश्च द्वीपाच शेषाच असुरनागसुपर्णं द्वीपशेपास्तेषामसुर नागसुपर्णद्वी पशेषाणाम् । कथम्भूता स्थितिः ? सागरोपम त्रिपल्योपमा र्द्धहीनमिता सागरोपमा चासौ त्रिपल्योपमा च सागरोपमत्रिपल्योपमा, सा चासौं अर्द्धद्दीनमिता च सागरोपमत्रिपत्त्योपमा र्द्धहीनमिताः । अथवा सागरोपमय त्रिपल्योपमानि च अर्द्धार्द्धपल्यहीनानि पत्यानि च सागरोपमत्रिपल्योमार्द्धहीनानि तैर्मितामपिता सागरोपमत्रिपल्योपमार्द्धहीनमिता । अस्यायमर्थः - असुराणाम् - १ मनुष्येभ्यः आ०, ६०, ज०, ब० । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१] चतुर्थोऽध्यायः १७१ उत्कृष्ट स्थितिः एकसागरोपमा । यथाक्रमचलानागानां त्रीणि पल्योपमानि उत्कृष्टा स्थितिः । सुपर्णानामुत्कृष्टा स्थितिः सार्द्धं पल्यद्वयम् । द्वीपानामुत्कृष्टा स्थितिः अर्द्धा हीनत्वात् पल्षयम् । शेषाणां विद्युत्कुमाराग्निकुमार वातकुमार स्तनितकुमारोदधिकुमारदिक्कुमारनामकानां षट् प्रकाराणां भवनवासिनां प्रत्येक सार्द्ध पल्योंपममेकम् उत्कृष्टा स्थितिर्भवति । जघन्यां स्थितिं तु भवनवासिनां कथयिष्यामीति ज्ञातव्यम् । अथेदानी व्यन्तरज्योतिष्क देवानां स्थितिमनुक्रमप्राप्तामुल्लस्य वैमानिकानां स्थिति सूचयन्ति । करमा व्यन्तरज्योतिष्कदेवानां स्थितेरनुक्रमप्राप्तायाः उल्लङ्घनं कृतमिति चेत् ? सत्यम्, लघुना सूत्रोपायेन तेषां स्थितिवचनं यथा भवति तदर्थमित्यर्थः । तत्र वैमानिकानां स्थितिनिरूपणं आययोः कल्पयोः सौधम्मैशाननाम्नोः स्थितिनिरूपणार्थं सूत्रमिदमाहुः - सौधर्मेशानयोः सागरोपमे अधिके ॥ २९ ॥ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज १ साप - आ० द० ज०, प० । २ अध्यही ० । ४ इति सा - आ० द० ज० व० ५ ते ७ इति नि श्र० ९० ज०८ कल्ययोर्वि भ० [ष० । ऋजुप - ० ०, ० । सौधर्म ऐशान सौधम्मैशानौ तयोः सौधम्मैशानयोः सप्तमीद्विवचनमिदम् "अधिकरणे ससt" [ का० सू० २/४/११ दौ० वृत्ति ] इति वचनात् । सौधम्मँशानयोः द्वयोः कल्पयोः स्थितिः द्वे सागरोपमे भवतः । 'सागरोपमे' इत्यत्र सामान्यापेक्षया नपुंसकत्वे द्विवचनं वर्तते । सागरोपम सागरोपमा सागरोपमे । कथम्भूते" सागरोपमे ? अधिके किनिदधिके सातिरेके इत्यर्थः । “द्विवचनमनौ" [ का० सू० ३२२] इत्यनेन १५ निषेधसन्धिः । अधिके इत्ययं शब्दः सहस्रारकल्प पर्यन्तमधिकारवान् ज्ञातव्यः । तेन सानत्कुमार माहेन्द्रयोरपि सप्तसागरोपमानि सातिरेकाणि ज्ञातव्यानि । तथा ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरयोरपि दश सागरोपमानि सातिरेकाणि ज्ञातव्यानि । एवं द्वयोर्द्वयोः कल्पयोरायुविशेषे सातिरेकः शब्दः प्रयोक्तव्यः । आ कुतः १ आ सहस्रारात् । आनताणत बोरारणायुयोवापि इत्यादिपु सातिरेकार्थो नास्ति । कस्मात् ? “ त्रिसनवैकादशत्रयोदशपञ्च- २० दशमिरधिकानि तु ।" [सू० ४।३१ ] इत्यत्र सूत्रे तुशब्दस्य ग्रहणात् । अथ विस्तरः – सौधम्मैशानयोः यानि एकत्रिंशत् पटलानि वर्तन्ते तेषु प्रत्येकं स्थितिविशेषः कथ्यते । तथाहि - ऋतुपटले पल्योपमकोटीनां षट्षष्टिक्षाणि षटूषष्टिसहस्राणि षट्शतानि षट्षष्टिः तथा पल्योपमानां पदषष्टिलक्षाणि षट्षष्टिसहस्राणि षट्शतानि षट्षष्टिस्तथा पल्योपमस्य कृतत्रिभागस्य भागद्वयम् ।१ । चन्द्र- २५ नाम्नि द्वितीयपटले पल्योपमकोटीनामेका कोटी त्र्यशिल्लक्षाणि त्रयस्त्रिंशत् सहस्राणि श्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशत् तथा पल्योपमानां त्रयस्त्रिंशलक्षाणि त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशत् तथा पल्योपमस्य भागत्रयस्य एको भागः । २ । चिमलनाम्नि - ५. ० ३ साप - आ, ० ज०, ०६ मानो ष० । सासा, द० ज० ५ ऋतुनाम्नि प्रथमप १० Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ तत्त्वार्थवृत्ती [ ४९९ तृतीयपटल पल्पोपमकोटीनां द्वे कोट्यौ । ३। बल गुनाम्नि चतुर्थपदले पल्योपमकोटीनां द्वे कोट्यौ पटष्टिलक्षाणि पटपष्टिसहस्राणि षट्शतानि घट्षष्टिः तथा पल्योपमानां पट्पष्टिलक्षाणि षट्षष्टिसहस्राणि षट्शतानि षट्षष्टिः तथा पल्यभागत्रयस्य द्वौ भागों । ४ । वीरनाम्नि पञ्चमे पटले पल्यकोटीना कोट्यः तिस्रः त्रयस्त्रिंशतलक्षाणि वयस्त्रिंशत्सहस्राणि ५ प्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशत् , तथा पल्यानां त्रयस्त्रिंशल्लक्षाणि त्रयस्त्रिंशात् सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशत् तथा पल्यभागत्रयस्य एको भागः । ५। अरुणनाम्नि षष्ठे पटले पल्यकोटीना कोट्यश्वतनः । ६मार्गदर्दननाम्भिाचसापालापस्यकाटीनी कोट्यश्चतस्रः पटवधिलक्षाणि षट्पष्टिसहस्राणि षट्शतानि षट्षष्टिः तथा पल्यानां पट्पटिलक्षाणि षट्षष्टिसहस्राणि पट्शतानि षट्पष्टिः पल्यभागत्रयस्य भागद्वयम् । ७ । नलिननाम्नि अष्टमे १० पटले पल्यकोटीनां कोट्यः पञ्च त्रयस्त्रिंशल्लक्षाणि त्रयस्त्रिंशत् सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयनि शत् तथा पल्यानां त्रयशिल्लक्षाणि त्रयस्त्रिंशतसहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशत् तथा पल्यभागत्रयस्य एको भागः । ८ । लोहितनाम्नि नवमे पटले पत्यकोटीना कोट्यः षट् । ९ । काश्चननाम्नि दशमे पटले पल्यकोटीनां कोट्यः षट् षट्षष्टिलक्षाणि षट्षष्टिसहस्राणि षट् शतानि षट्षष्टिः तथा पल्यानां षष्टिलक्षाणि षट्षष्टिसहस्राणि षट्शतानि पट्पष्टिः १५ पत्यभागत्रस्य भागद्वयम् ।१०। चनाम्नि एकादशे पटले पल्यकोटीनां कोट्यः सप्त प्रयस्त्रिंशल्लक्षाणि प्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशत् तथा पल्यानां प्रयस्त्रिंशल्लक्षाणि त्रयविशन्सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशत् , पल्यभागत्रयस्यको भागः । ११ । मारुतनाम्नि द्वादशे पटले पल्यकोदीना कोट्योऽष्ट । १२ । ऋद्धिनाम्नि त्रयोदशे पटले पल्यकोटीना कोट्योऽष्ट घट्यष्टिलक्षाणि पक्षष्टिसहस्राणि षट्शतानि षट्पष्टिः २० तथा पल्यानां षट्पष्टिलक्षाणि षट्षष्टिसहस्राणि पट्शतानि षट्षष्टिः पल्यभागत्रयस्य भाग द्वयम् । १३। ईशानाम्नि चतुर्दशे पटले पल्यकोटीनों कोटयो नय त्रयस्त्रिंशल्लक्षाणि त्रयस्त्रिशतसहस्राणि त्रीणि शतानि प्रयस्त्रिंशत् , तथा पल्यानां त्रयस्त्रिंशल्लक्षाणि त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि प्रीणि शतानि प्रयस्त्रिंशत् पल्यभागत्रयस्य भागकः । १४ । वैडूर्यनाम्नि पञ्चदशे पटले सागर एकः।१५। रुचकनाम्नि पोडशे पटले सागरैकः पल्यफोटीनां षट्षष्टिलक्षाणि षट्षष्टिसहस्राणि २५ पट्शतानि पट्पष्टिः तथा पल्यानां षट्पष्टिलक्षाणि षट्पष्टिसहस्राणि पटशतानि षट्षष्टिः पल्यभागत्रयस्य भागद्वयम् । १६ । रुचिरनाम्नि सप्तदशे पटले सागर एकः पल्यकोटीनामेका कोटी खिशल्लक्षाणि त्रयस्त्रिंशन्सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशत् तथा एल्याना यलिंशल्लक्षाणि त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशत् पल्यभागत्रयस्य भागैकः । १७ । ४ अङ्कनाम्नि अष्टादशे पटले पल्यकोटीनां कोट्यो द्वादश । १८ । स्फटिकनाम्नि एकोनविंशति२० तमे पटले पल्यकोटीना कोट्यो द्वादश षट्पष्टिलक्षाणि षट्षष्टिसहस्राणि षट्शतानि पटवधिः १ आरण- भा। आरुण-द.। २ प्रललितना- आ०, २०, ज०। ३ ईशानानामा। ईशानना-२० । ४ अकना- आ० | अकना- ता० । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४| ३० ] चतुर्थोऽध्यायः १७३ तथा पयानां पट्षष्टिक्षाणि पट्पटिसहस्राणि षट्शतानि षट्पष्टिस्तथा भागत्रयस्य भागयम् । १९ । तपनीयनाम्नि विंशतितमे पटले पल्यकोटीनां कोट्यः त्रयोदश, त्रयस्त्रिंशल्लक्षणि त्रयत्रिंशत्सहस्राणि । श्रोणि शतानि त्रयस्त्रिंशत् तथा पल्यानां त्रयस्त्रिंशल्लक्षाणि त्रयस्त्रिंशत् सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशत् पल्यभागत्रयस्य भागकः । २० मेवनाम्नि एकविंशतितमे पटले पल्यकोटीनां कोट्यचतुर्दश । २१ । भद्रनाम्नि द्वाविंशतितमे पटले पल्यकोटीनां ५ कोयतुर्दश षट्षष्टिलक्षाणि पट्षष्टिसहस्राणि पट्शतानि षट्षष्टिः तथा पल्यानां पट्षष्टिक्षाणि षट्षष्टिसहस्राणि षट्शतानि षट्षष्टिः पल्यभागत्रयस्य भागद्वयम् । २२ । हारिनाम्नि त्रयोविंशतितमे पटले पल्यकोटीनां कोटयः पश्वदश त्रयस्त्रिंशल्लक्षाणि त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि " शतानि" नारीणि यस्त्रिंशत्सहस्त्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशत् पल्यभागत्रयस्य भागेकः | २३ | पद्मनाम्नि चतुर्विंशतितमे पटले पल्य- १० कोटी कोट्यः षोडश । २४ । लोहितनाम्नि पचविशतितमे पटले पल्यकोटीनां कोट्यः पोश षट्षष्टिक्षाणि षष्टिसहस्राणि षट्शतानि षट्षष्टिः तथा पल्यानां षट्पक्षिणि षट्षष्टिसहस्राणि षट्शतानि षट्पटि पल्यभागत्रयस्य भागद्वयम् । २५ । श्रनाम्नि विंशतितमे पटले पल्यकोटीनां कोट्यः सप्तदश, त्रयत्रिशल्लक्षाणि त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि श्रीणि शतानि त्रयत्रिंशत् तथा पल्यानां त्रयस्त्रिंशल्लक्षाणि त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि श्रीणि शतानि १५ त्रयस्त्रिंशत्पत्त्यभागत्रयस्य भागेकः । २६ । नन्द्यावर्तनानि सप्तविंशतितमे पटले पल्यको - टीनां क्रोट्योऽष्टादश । २७ । प्रभहुरनाम्नि अष्टाविंशतितमे पटले पल्यकोटीनां कोयोऽष्टा दश षट्षष्टिक्षाणि षट्पष्टिसहस्राणि षट्शतानि षट्षष्टिः तथा पल्यानां पट्षष्टिलक्षणि षट्षष्टिसहस्राणि पट्शतानि पदूषष्टिः पल्यभागत्रयस्य भागद्वयम् । २८ । पिटकनाम्नि कोश पटले पल्यकोटीनां कोट्य एकोनविंशतिः त्रयस्त्रिंशल्लक्षाणि त्रयस्त्रिंशत्सह- २० खाणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशत् तथा पल्यानां त्रयस्त्रिंशल्लक्षाणि त्रयत्रिंशत्सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशत् पल्यभागत्रयस्य भागकः । २९ । गजमस्तकनाम्नि शितूतमे पटले पस्यकोटिकोट्यः विंशतिः । ३० । प्रभानाम्नि एकत्रिंशत्तमे पटले साधिको सागरी द्रौं । ३१ । सौधर्मेशानयो रेकत्रिंशत् प्रस्ताराणाम् उत्कृष्ठ स्थितिर्ज्ञातव्या । अथ सानत्कुमारमाहेन्द्रयोत्कृष्ट स्थितिप्रतिपत्त्यर्थं सूत्रमिदमाहु:सानत्कुमार माहेन्द्रयोः सप्त ॥ ३० ॥ सानत्कुमारश्च माहेन्द्रश्च सानत्कुमार माहेन्द्रौ तयोः सानत्कुमार माहेन्द्रयोः । अनयोर्द्वयोः कल्पयोः अमराणां सप्तसागरोपमानि साधिकानि उत्कृष्टा स्थितिर्भवति । तयोः सम्बन्धीनि पटलानि सम भवन्ति । तत्र अञ्जननाम्नि प्रथम पटले द्वौ सागरी सागरसप्तभागानां पञ्च भागाश्च । १ । बनमालनाम्नि द्वितीयपदले सागरास्त्रयः सागरसप्रभागानां ३० यो भागाश्च । २ । नागनाम्नि तृतीयपदले चत्वारः सागराः सागरसमभागानामेको १ हरिशना आ० ६० ज० २ नर्तिना ० ० ० ३ विष्टक- स० । ܝܐ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १७४ तत्त्वार्थवृत्तों [ ३।३१ भागश्च । ३ । गरुडनाम्नि चतुर्थ पटले चत्वारः सागराः सागरसप्तभागानां पड् भागाश्च 191 लाङ्ग लनाम्नि पचमे पटले सागराः पञ्च सागरसमभागानां चत्वारो भागाश्च । ५ । बलभद्रनाम्नि षष्ठे पटले सागराः पटू सागर सप्तभागानां द्वौ भागौ च । ६ । चक्रनाम्नि सप्तमे पटले साधिका अर्णवाः सप्त । इति सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्तप्रस्ताराणामुत्कृष्टा स्थितिर्ज्ञातव्या । अथ ब्रह्मलोकादिषु अच्युत्तपर्यन्तेषु कल्पेषु स्थितिविशेषपरिज्ञानार्थं सूत्रमिदमाहुः - त्रिसप्तनचैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि तु ।। ३१ ।। श्रयश्च सप्त च नव च 'एकादश च त्रयोदश च पञ्चदश च त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपञ्चदश तैस्तथोक्तः अधिकानि । कानि अधिकानि ? पूर्वसूत्रोक्तानि सप्तसागरोपमानि । अस्यायमर्थः -- ब्रह्मलोकोत्तरयोः सप्तसागरोपमानि त्रिभिः सागरोपमः अधिकानि दश १० सागरोपमानीत्यर्थः । लान्तबकापिष्टयोः सप्तसागरोपमानि सप्तभिः सागरोपमेरधिकानि चतुर्दश सागरोपमानीत्यर्थः । शुक्रमहाशुक्रयोः सप्तसागरोपमानि नवसागरोपमैरधिकानि षोडशसागरोपमानीत्यर्थः । शतारसहस्रारयोः सप्तसागरोपमानि एकादशसागरोपमैरधिकानि अष्टादश सागरोपमानीत्यर्थः । आनतप्राणतयोः सप्तसागरोपमानि त्रयोदशसागरोपमैरधिकानि विंशतिसागरोपमानीत्यर्थः । आरणाच्युत कोशिसे पामि परितापि १५ तिसागरोपमानीत्यर्थः । तुशब्दो विशेषणार्थः । कोऽसौ विशेषः ? 'सौधम्र्मेशानयोः सामरोपमे अधिके' इत्यत्र अधिकशब्दाधिकारः ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरलान्तषका पिष्टशुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारपर्यन्तेषु चतुर्षु युगलेषु प्रवर्तते न स्वानतादिषु वर्तते इत्यर्थं विशेषयति । तेन यत्र यत्र यावन्ति सागरोपमानि उक्तानि तत्र तत्र साधिकानि वक्तव्यानि आनतप्राणतयोः सागरोपमानि विंशतिरेष आरणाच्युतयोर्द्वाविंशतिरेव न साधिकानि । २० अथ विस्तरः- ह्मलोकमझोत्तरयोर्यानि चत्वारि पटलानि वर्तन्ते तेषां मध्ये अरिष्टनाम्नि प्रथमपदले पाहीनाः सरस्वन्तोऽष्टौ । देवसमितनाम्नि द्वितोयपटले जलधयः सार्धोऽ (२) श्रझनाम्नि तृतीयपटले पादाधिका उदधयो नय । ३ त्रह्मोत्तरनाम्नि चतुर्थ पटले शशध्या दश । यन्तवकापिष्टयोर्ते पटले वर्तेते । तत्र ब्रह्महृदयनाम्नि प्रथमपटले अपाम्पतयो द्वादश । लान्तवनाम्नि द्वितीयपटले नदीपतयश्चतुर्दश साधिकाः । शुक्रमहाशुक्रयो रेकमेव पटलम् । तत्र २५ शुक्रनाम्नि पटले जलनिघयः साधिकाः षोडश । शतारसहस्रारयोरेकमेष पटलं तत्र शतारनाम्नि पटले रत्नाकराः साधिका अष्टादश । आनतप्राणतारणाच्युतेषु षट् पटलानि । सत्र आनतनाम्नि प्रथमपटले उदन्वन्त एकोनविंशतिः सागरस्य तृतीयो भागः किञ्चिदधिकस्तत्र हीनो भवति । प्राणनाम्नि द्वितीय पटले सिन्धको विंशतिः । पुष्पकनाम्नि तृतीयपटले आकूपाराः विशतिः सागर भागत्रयस्य द्वौ भागौ च । शातकनाम्नि चतुर्थ पटले पारावारा एकविंशतिरेव । ३० आरणनाम्नि पक्षमपटले खनिपतयः एकविंशतिः सागरत्रिभागेकभागश्च । अच्युतनाति पछे पटले समुद्रा द्वाविंशतिरेव । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२-३४ ] मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज चतुर्थोऽध्यायः 'अथ प्रेयकादीनां पटलेषु आयुर्विशेषप्रतिपत्यर्थं सूत्रमिदं प्रतिपादयन्ति - आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥ ३२ ॥ भारणच अच्युतश्च आरणाच्युतं तस्मादारणाच्युतात् । आरणाच्युतयोर्द्वाविंशतिसागरोपमा उत्कृष्टा स्थितिरुक्का तत ऊर्ध्वम् उपरि नवसु चैवेयकेषु एकैकेन सागरोपमेन ५ अधिक स्थितिर्देवानां वेदितव्या । तेन अधोमैवेयकेषु प्रथमे मैवेयके सुदर्शननाम्नि त्रयोविंशतिसागरा भवन्ति । द्वितीये मैवेयके अमोघनाम्नि चतुर्विंशतिरन्धयः स्युः । तृतीये tree सुप्रनाम्नि पचविंशतिर्वार्धयो भवन्ति । "मध्यममैवेयकेषु प्रथम प्रवेयके यशोधरान विंशतिर्वारिधयो भवन्ति । द्वितीये मैचेयके सुभद्रनाम्नि सप्तविंशतिः पयोधयो भवन्ति । तृतीये प्रैवेयके सुबिशालनाम्नि अष्टाविंशतिरम्भोधयो भवन्ति । उपरिममैवेयकेषु १० प्रथमे मैवेयके सुमनसनाम्नि एकोनत्रिंशदम्बुधियो भवन्ति । द्वितीये मैवेयके सौमनसनान्नि त्रिंशत् पाथोधयो भवन्ति । तृतीये मैंवेयके प्रीतिङ्करनाम्नि एकत्रिंशदर्णोधयो सवन्ति । 'नवसु प्रैवेयकेषु' इत्यत्र नवशब्दग्रहणं प्रत्येकम् एकैकसागरवृद्धयर्थम्, अन्यथा कमात्र सर्वेषु वेयकेषु एक एव सागरो बर्द्धते तम्मा भूदिति । न केवलं नवसु केषु एकैकेन सागरोपमेन एकैकं सागरोपममधिकं स्यात् किन्तु विजयाविषु विजय- १५ प्रकारेषु च । तेनायमर्थः - नवानुदिशेषु द्वात्रिंशत्सागरोपमानि भवन्ति । विजयवैजयन्त जयन्ता - पवितेषु चतुर्षु विमानेषु श्रयत्रिंशत्सागरोपमानि उत्कृष्टा स्थितिर्भवति । 'सर्वार्थसिद्धौ च ' प्रति पृथकपदकरणं अन्यस्थितिप्रतिषेधार्थम् । सर्वार्थसिद्धिं गतो जीवः परिपूर्णानि त्रयस्त्रिझन् सागरोपमानि भुङ्क्ते । विजयादिषु तु जधन्यस्थितिद्वत्रिंशत् सागरोपमानि । * अथोकोत्कृष्ट युकेषु कल्पनासिषु निकृष्टस्थितिपरिज्ञानार्थं सूत्रमिदमाहुःअपरा पल्योपममधिकम् ॥ ३३ ॥ छपरा जघन्या स्थितिः एकं पन्योपमं किनिदधिकं भवति । तत्तु सौधम्मैशान प्रथमअत्वारे एष ज्ञातव्यम् । तत्कथं ज्ञायते ? उत्तरसूत्रे 'परतः परतः' इति वच्यमाणत्वात् । अथ प्रथमप्रस्तारादूयं जघन्यस्थितिपरिज्ञानार्थं सूत्रमिदमाहुःपरतः परतः पूर्वा पूर्वानन्तरा ॥ ३४ ॥ १७५ २५ - परतः परतः परस्मिम् परस्मिन देशे प्रस्तारे प्रस्तारे कल्पयुग्मकल्पयुम्मादिषु या खितिः पूर्णा पूर्षा प्रथमा प्रथमा वर्तते सा अनन्तरा उपर्युपरितनी अपरा जघन्या स्थिति। तत्रापि जघन्यापि साधिका वेदितया । तेन कारणेन स्थूलरूपतया जघन्या १ अथ नव- ब०, प०, ५० २ प्रथम व० [अ०, ६० ज० । ० ० ० ४ तृतीय- द० । ५. मध्यम- - भा० द० ज० । ० ७ अथोत्कृष्टस्थित्युक्तेषु आ०, ब०, ब० । ३ द्वितीय६- सिद्धिगतजी २० Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती [४।३५.३९ स्थितिरुस्यत-सौधम्मैशानयोः कल्पयोः । सागरोपमे साधिके उक्त ने तु सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः जघन्या स्थितिर्भवति । सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्तसागरोपमानि साधिकानि कथितानि तानि प्रह्मलोकब्रह्मोत्तरयोः जघन्या स्थितिः ज्ञातव्या। एवं विजयादिपर्यन्तेषु 'वेदितव्यम् । अथ नारकाणां पूर्व मुत्कृष्य स्थितिः प्रतिपादिता, जघन्या तु नोक्ता तत्परिज्ञानार्थ ५ लघूपायेन अनधिकृतमपि सूत्रमधिक्रियते। कोऽसौ लघूपायः ? 'अपरा' इत्यक्षरत्रयं वारद्वयं मा भूदिति । नारकाणाञ्च द्वितीयादिषु ।। ३५ ॥ नरके भवाः नारकास्तेषां नारकाणां द्वितीयादिषु भूमिषु प्रस्तारेषु च अपरा जपन्या स्थितिः भवति । चकारात् पूर्वापूर्वाऽनन्तरा इत्यनुकृष्यते । तेनायमर्थः-स्थूलतया रत्नप्रभायां १० प्रथमनरकभूमौ नारकाणामुत्कृष्टय स्थितिरेकसागरोपमं प्रोक्तं सा शर्करामभायां द्वितीयनरक भूमौ जघन्या वेदितव्या। शक्करामभायां त्रीणि सागरोपमानि उत्कृष्टा स्थितिः कथिता सा वालुकाप्रभायां तृतीयनरकभूमौ जघन्या स्थितिः बेदितव्या इत्यादि यावत् सप्तमनरके द्वाविंशतिसागरोपमानि जघन्या स्थितिर्भवति अथ द्वितीयादिषु भूमिषु जघन्या स्थितिः यदि प्रतिपादिता तईि प्रथमायां नरकभूमी १५ का जघन्या स्थितिरिति यते-आचारी दशवर्षसहस्राणि प्रथमायोमगारद महाराज वर्षणां सहस्राणि वर्षसहस्राणि, वश च तानि वर्षसहस्राणि दशवर्षसहस्राणि प्रथमायां प्रथमनरकभूमौ दशवर्षसहस्राणि अपरा जघन्या स्थितितिव्या । सा तु प्रथमपटले सीमन्तकनाम्न्येव । द्वितीयपटले नषति वर्षसहस्राणि जघन्या स्थितिः। सृतीयपटले नवति२० वर्षलक्षाणि इत्यादि सर्वत्र समयाधिका सती जघन्या स्थितिर्वातव्या । अथ भवनवासिना जघन्या स्थितिरुच्यते भवनेषु च ॥ ३७॥ भवनेषु भवनवासिषु देवेषु दशवर्षसहस्राणि जपन्या स्थितिर्भवति । पकारः अपरास्थितिरित्यस्यानुकर्षणार्थः। २५ अथ व्यन्तराणां जघन्या स्थितिरुच्यते-- व्यन्तराणाश्च ॥ ३८॥ न्यन्तराणां किन्नरादीनां दशवर्षसहस्राणि जघन्या स्थितिर्भवति । चकारः अपरास्थिति रित्यस्याऽनुकर्षणार्थः । तहि व्यन्तराणामुत्कृष्टा का स्थितिरिति चेत् ? उच्यते-- परा पल्योपममधिकम् ।। ३६ ।। परा उत्कृष्टय स्थितिय॑न्तराणाम् एकं पल्योपमं किञ्चिदधिकं भवति । १ -स्ते वेदितच्या क.। २ -रेक साग- आ०, २०,०, ०। ३ -तिवर्ष- ज.। ४ -तिर्दशवर्षसहस्राणि हत्यनु - ताल, प० । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४।४०-४२] ज्ञातव्यम् । चतुर्थोऽध्यायः १७७ अथ क्योतिष्काणामुत्कृष्टस्थितिपरिज्ञानार्थं योगोऽयमुच्यते ज्योतिष्काणाञ्च ॥ ४० ॥ चकारः प्रकृतसमुच्चयार्थः । तेन ज्योतिष्काणां परा स्थितिः पस्योपमाधिकमिति - मार्गदर्शक : अथ ज्योतिष्काणां जघन्य स्थितिपरिज्ञानार्थं सूत्रमिदं ब्रुवन्ति स्म - तदष्टभागोऽपरा || ४१ ॥ तस्य पल्योपमस्य अष्टसु भागेषु कृतेषु एको भागः तदष्टभागा, अपरा अनुत्कृष्टा जघन्या स्थितियों तिष्काणां भवतीति तात्पर्यम् । अत्र विशेषः कथ्यते – चन्द्राणां पत्यमेकं वर्ष लक्षाधिकम् । सूर्याणां पत्यमेकां वर्षसहस्राधिकम् । शुक्राणां वर्षशताधिकं पस्योपमम् । बृहस्पतीनां पल्योपममेकमेव । बुधानां पत्यार्द्धम् । नक्षत्राणा पल्यार्द्धम् । प्रकीर्णकतारकाणां १० पत्यचतुर्थभागः परा स्थितिर्वेदितव्या । प्रकीर्णकतारकाणां नक्षत्राणा जघन्या स्थितिः पत्योपमाऽमो भागः । सूर्यादीनां जघन्या स्थितिः पत्योपमचतुर्थभागः । तथा घ विशेष: लोकान्तिकानामष्टौ सागरोपमानि सर्वेषाम् ॥ ४२ ॥ आचाबे काम त्रिवेद्वेश्याः पश्चइस्तोन्नता अष्टसागरोपमस्थितय इति । १५ अस्मिन् चतुर्थेऽध्याये चतुर्णिकाय देवानां स्थानभेदाः सुखादिकचोत्कृष्टाऽनुत्कृट स्थिति लेश्याञ्च निरूपिता इति सिद्धम् । इति सूरिश्रीश्रुतसागरविरचितायां तात्पर्य संज्ञायां तत्त्वार्थवृत्तौ चतुर्थः पादः समाप्तः । १ -गः लोका- आ०, ६० ज० । २ - षः ये लौकान्तिकाः ता० । ३ सूत्रमेतन्नास्ति ता० प्रतौ । ४ इत्यनवद्यगद्यपद्यविद्याविनोदनोदितप्रमोदपीयूषरसपानपावनमतिसमाजरत्न राजमतिसागरयतिराजराजितार्थसमर्थेन तर्कव्याकरण छन्दो लङ्कारसाहित्यादिशास्त्र निशितमतिना यतिना श्रीमद्देवेन्द्रकीर्त्तिमहारकप्रशिष्येण शिष्येण न सकळविद्वज्जनविद्दितचरणसेवस्य श्रीविद्यानन्दिदेवस्य सञ्चदित मिथ्यामतदुर्गरेण श्रीभुतसागरेण सूरिणा विरचितायां श्लोकवर्ति फराजवाति कसर्वार्थसिद्धिन्याय कुमुदचन्द्रोदयप्रमेयकमलमार्तण्डप्रचण्डासह सीप्रमुख ग्रन्यसन्दर्भनिर्भरावलोकन बुद्धि विराजितायां तत्त्वार्थ टीकायां चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः । आ०, ६०, ० ० २३ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासाथ हाचमोऽध्यायः अदानी सम्यग्दर्शनविषया जीवादयः पदार्थास्तत्र जीवपदार्थः पूर्व व्याख्यातः, अजीवपदार्थस्तु व्याख्यातुमारब्धः तस्य नामविशेषकथनाथं श्रीमदुमास्वामिनः सूत्रमिदमाहुः ___ अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥ १॥ ५ न विद्यते जीव आत्मा येषां ते अजीवाः, कायबत् पुद्रलद्रव्यप्रचयात्मकशरीरवत् बहुप्रदेशा वर्तन्ते ये ते कायाः, अजीवाश्च ते कायाश्च अजीवकायाः, "विशेषर्ण विशेष्येण" [पा० सू० २।१।५७ ] इति सूत्रेण कर्मधारयसमासः । अत्र अजीवा इति विशेषणं काया इति विशेष्यं तेन विशेषणं विशेष्येण सह समस्यते कर्मधारयसमासो भवति । धर्मश्च अधर्मश्च आकाशश्च पुगलश्च धर्माधर्माकाशपुद्गलाः। एते चत्वारः पदार्थाः अजीवकाया भवन्ति । १० ननु "असङ्ख्ययाः प्रदेशा धर्माधर्मैकजीवानाम्" [ ५८ ] इत्यने बहुमदेशत्वं झापयि ष्यति किमर्थमत्र बहुप्रदेशत्वसूचनार्थ कायशब्दस्य ग्रहणम् ? साधूक्तं भवता अत्र बहुप्रदेशसूचनलक्षणो विधिः कायशब्देन गृहीतः तस्यैव विधेरवधारणममे करिष्यति । किमवधारणं करिष्यति ? असल्येयाः प्रदेशः धमाधम्मै कजीयानाम् । किमत्राबधारणम् १ एतेषां धर्मादीनां प्रयाणां प्रदेशा असख्येया भवन्ति अनन्ताः सख्येयाश्च न भवन्तीति निरि१५ यिष्यति । तथा च कालप्रदेशाः प्रचयात्मका न भवन्तीति नापनार्थ कायशब्दग्रहणम् । यथा पकस्याणोः प्रदेशमात्रत्वात् द्वितीयादयः प्रदेशा न भवन्ति तथा कालपरमाणोरपि द्वितीयादयः प्रदेशा न भवन्ति, तेन कालोऽकाय इत्युच्यते । पुद्गलपरमाणोः यद्यपि निश्रयेन 'अबहुप्रदेशत्वमुक्तं तथापि उपचारेण बहुप्रदेशत्वमस्त्येव, यतः पुद्गलपरमाणुः अन्यपुद्गलपर माणुभिः सह मिलति एकत्र कायवत् पिण्डीभवति, तेनोपचारेण काय उच्यते । काल २० परमाणुस्तु उपचारेणापि कालपरमाणुभिः सह न मिलति तेनोपचारेणापि काय इति नोच्यते । स तु स्वभावेन रत्नराशिवत् मुक्ताफलसमूहवन पृथक् तिष्ठति। धधिकिाशपुद्गला अजीव इति सामान्यसंज्ञा, धर्मोऽधर्म आकाशः पुद्रलश्चेति विशेषसंज्ञा । ननु नीलोत्पलादिषु व्यभिचारो वर्तते "उत्पलनीलम्' इत्यादि, कथं विशेषणं विशेष्येणेति घटते ? सत्यम् ; इहापि व्यभिचारो वर्तते अजीवशब्दः कायरहिते कालेऽप्यस्ति, २५ कायशब्दः जीवेऽप्यस्ति, सेन जीवकाय इत्यपि कथ्यते, नास्ति व्यभिचारस्य दोषः । अथ "सर्यद्रव्यपर्यायेषु केबलस्य" [१।२९ ] इत्यस्मिन सूत्रे द्रव्यशब्दः श्रुतः । कानि तानि द्रव्याणि इत्युक्ते सूत्रमिदमाहुः १-ति श्रस-भा०,०, ९०, ज०। २ -ते- भा.। ३ अबहुलप्र- भार,., ०,०। ४ उत्पले नील- आ०, २०, जा। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.२-३] पनमोऽध्यायः द्रव्याणि ॥२॥ द्र यन्ते गम्यन्ते प्राप्यन्ते यथास्वं यथायथं यथास्मीयपर्यायर्यानि तानि द्रव्याणि । प्रन्ति वा पर्यायैः प्रवर्तन्ते यानि तानि द्रव्याणि । 'द्रव्यत्वयोगत् द्रध्याणि' इति कथाम व्युत्पत्तिः १ एवं सति उभयोध्यपर्याययोरसिद्धिः स्यात् । दण्मुदण्डिनोः पृथसिद्धयोर्योगो भवति न तु द्रव्यपर्याययोः पृथक् सिद्धिरस्ति चेत्, अपृथसिद्धयोरपि द्रव्यपर्याययोर्योगो ५ भवेत , तर्हि आकाशकुसुमत्य "प्रकृतिपुरुषस्य द्वितीयशिरसश्च योगो भवेत् । यदि द्रव्यपर्याययोः पृथक् सिद्धिरङ्गीक्रियते, तहिं द्रष्यत्वकल्पना 'वृथैव । यदि गुणसमुदायो द्रव्यमुच्यते; सत्र गुणानां समुदायस्य च भेदाभावे तदन्यव्यपदेशो नोपपद्यते। यदि भेदोऽङ्गीक्रियते; तदा स एष दोषः। स क ? द्रन्यत्वकल्पनीवृथात्वलक्षणः । ननु गुणान् 'द्रवन्ति गुणा द्र यन्ते यानि तानि द्रव्याणि' इति चेत् विप्रहोऽभिधीयते तदा स एष दोषः किन्न १० भवति ? सत्यम ; गुणः सह कथविद् भेदाभेदौ वर्तेते तेन अनेन विग्रहेण व्यव्यपदेशो व्यनामसिद्धिरस्त्येव । कश्चिदुभेदः कश्चिदभेद इति कथं झायते १ यतः कारणात् व्यतिरेकेण अनुपलहिलेक, संभालतर्णप्रयोजयाशियपर ज सकाशपुद्रला इति चत्वारः पदार्था बहवः तेषां समानाधिकरणत्वं बहुत्वनिर्देशे सप्ति सस्यानुवृत्तिबस् सर्वेषामपि पुल्लिकत्वमेव द्रव्याणां प्राप्नोति, द्रव्याणीति कथम् ? तदसत् ; आविष्टलिङ्गत्यात् १५ शब्दाः कदाचिदपि लिङ्गन ५ जति न मुखान्ति न व्यभिचरन्तीति यावत् । अतः कारणात् धर्माधर्माकाशपुरला द्रव्याणि भवन्ति इति नैप नपुंसकलिङ्गत्यलक्षणो दोषः । अथ किं चत्वार एव पदार्थाः द्रव्याणीत्युच्यन्ते उताऽन्योऽपि कश्चित पदार्थो द्रव्यमुख्यते इति प्रश्ने सूत्रमिदमाछुः जीवाश्च ॥३॥ जीवन्ति जीविष्यन्ति जीयितपूर्वा षा जीयाः । जीवाश्च द्रव्याणि भवन्ति । चकारः न्यसंज्ञानुवर्तनार्थः । बहुवचनन्तु पूर्वव्याख्यातपर्यायादिभेदपरिज्ञानार्थम् । एवं कालोऽपि द्रव्यतया वक्ष्यते, तेन सह द्रव्याणि षट् भवन्तीति सातव्यम् । ननु "गणपक्वद्व्य म्" [५।३८ ] इत्यनेन वक्ष्यमाणसूत्रेण द्रव्यलक्षणकथनात्, सत्कथितलक्षणसंश्रयाच धर्माधर्माकाशपुदलजीवकालानां द्रव्यंज्यपदेशः सङ्गच्छत एष । २५ १ द्रध्यन्ते भा०,५०,। २ -ययं यथात्मीयं 4-सान्ययमात्मीयं प-२०, भा०,०। -यथमात्मीयप-ज। ३ द्रव्यन्ति ०, द०, ब०,०। ४ वैशेषिकमतापेक्षया । ५ प्रकृतिकुसुमस्य भा०, ६०, ०। ६ पृथमेव मा०, ६०, ज०। ७ गुणसहायो ता०,०, १०, ब, भा० | "अन्व स्वस्वपि गुणसन्द्रायो द्रव्यम् ।" -पाव- महा० १११९ | "गुणसमुदायो द्रव्यम्" -पास महा ४।१।१३। ८ -नापृथक्त्व- मा., १०, ज०। ९ दम्पन्ति वा १० जति नव्य- भा०, २०, ज० । ११ नैव भा०,१०,०। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज १८० ___तत्वार्थवृत्तो [५॥३ 'अर्थपरिगणनेन परिगणनं न पूर्यते यतोऽन्यवादिभिः द्रव्याणि नव परिगणितानि वर्तन्ते अत्र तु पडेय; सत्यम् ; अत एव ज्ञायते पृथिव्यादीनां परमादिकल्पितानां द्रव्यत्वे नि (त्वनि) वृत्तिः कृता भवति । तत् कमिति चेत् ? उत्त्यते-पृथिव्याप्तेजोवायुमनसा पुद्गलद्रव्येऽन्तर्भावः। उक्तन "पुढची जलं च छाया चउरिंदियविसयकम्मपाउमगं | छविहमेयं मणियं पुग्गलदय जिर्णिदेहि ॥ १ ॥ अइथूलधूलथूलं धूलं सुहुमं च सुडुमधूलं च । सुहुमं च सुहुमसुहुमं धराइयं होइ छन्भेयं ॥"[सु० सा० १८, १९] पुद्गलद्रव्ये रूपरसगन्धस्पर्शाश्च वर्तन्ते यतः सहि वायुमनसोर्न रूपादिगुणयोगोस्ति कथं १० पुदलद्रव्ये अन्तर्भावः ? सत्यम् , वायुः स्पर्शवान् वर्तते कथन्न रूपादिमान् ? घटपटादिवत् चक्षुरादिमिः प्रहीतुं न शक्यते वायुः कथं रूपादिमान ? तन्न; एवं सति परमाण्यादीनामपि रूपादिमत्त्वाभावः प्रसज्यते । आपस्तु गन्धवत्यः स्पर्शवत्वात् पृथिवीवत् वर्तन्ते । तेजोऽपि रसयुक्तं गन्धयुक्त वर्तते तदपि रूपादिमान् (मत्त) घटपटादिषत् । मनो द्विप्रकारं वर्तते द्रव्यमनो-भावमनोभेदात् । तत्र द्रव्यमनः रूपादियोगात् पुद्गलद्र न्यस्यैव विकारः रूपादिमद् १५ वर्तते, चक्षुरिन्द्रियचत् झानोपयोगकरणं वर्तते । भावमनस्तु ज्ञानम् , ज्ञानं तु जीवगुणः नस्य आत्मन्यन्तर्भावः । ननु अमूर्तोपि शब्दो शानोपयोगकारणं किन्न वर्तते यन्मूर्तस्य द्रव्यमनसः शानोपयोगकारणवमुच्यते भवद्भिः ? सत्यम् । शब्दः पौगलिकः, तस्यापि मूर्तिमत्त्वमस्त्येव श्रुतिस्पर्शवत्वात् । यथा सर्वेषां परमाणूनां रूपादिमत्कार्यत्वदर्शनान् रूपादिमत्त्वं विद्यते न तथा वायुमनसो रूपादिमत्कार्य दृश्यते कधं घायुमनसोः पुद्गल २० द्रव्येऽन्तर्भावः ? सत्यम् । तेषामपि वायुमनःपुद्रलानामपि तदुपपत्ते-दृश्यमानरूपादि मत्कार्योपपत्तेः, सर्वेषां परमाणूनां सर्वरूपादिमत्वकार्यत्वप्रानियोग्यताऽभ्युपगमात् । न च केचित परमाणवः पार्थिवादिजातिविशेषयुक्ताः सन्ति किन्तु "जातिसकरेण आरम्भदर्शनं तथा घायुमनसोरपि रूपादिमत्कार्यदर्शनम् । दिशोऽपि विहायस्यन्तर्भावः, आदि त्योदयापेक्षया आकाशप्रदेशपक्तिषु "अस इदम्' इति व्यवहारोपपत्तेः । २५ अथोक्तानां द्रव्याण्णां विशेषपरिज्ञानार्थ सूत्रमिदमाहुः-- - १ अर्थपरिगमनं मा०, २०,०। २ वैशेषिकैः । “पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं काली दिगामा मन इति द्रव्याणि ।' -वैशे० १।१५। ३ पृथ्वी जलं च छाया चतुरिन्द्रियविषयकर्मप्रायोग्याः । घविधभेद भणित पुद्गलद्रव्यं जिनेन्द्रः ।। अतिस्थूलस्थूलस्थूलानि स्थूल सूक्ष्मं च सूक्ष्मत्थूलं च । सूक्ष्मं च सूक्ष्मसूक्ष्म भरादिकं भवति पद भेदम् ॥ ४-कारणं मान, प०, ज०, व० । ५ काधादनलस्य चन्द्रकान्तापजलस्य जलान्मुक्ताफलादेः न्यजनाच्नानिलस्योत्पत्तिदर्शनात् । ६ अतः इदं पूर्व पश्चिममित्यादि व्यवहारोपपत्तेः। इत इदे ता०, प० । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० पञ्चमोऽध्यायः १८१ नित्याचस्थितान्यरूपाणि ॥ ४ ॥ नित्यानि ध्रुवाणि । "नै वे' [ जैने० या० ६।२।८२] इति साधु । अवस्थितानि सकरूयया अव्यभिचारीणि घटत्वसस्याया अपरिहारीणि, यथासम्भवं निजनिजप्रदेशाःनामत्यागीनि चेतनस्वाचितनत्वादिनिजामविपकिदाचिदपि यजमाति या अवस्थितानि ५ नित्यानि च तानि अवस्थितानि नित्यावस्थितानि | द्रव्याणां नित्यत्वमस्धितत्वश्च द्रध्यनयापेक्षया ज्ञातव्यमित्यभिप्रायः। न विद्यते रूपं येषां तानि अरूपाणि रूपरसादिरहितानि अमूर्वानीत्यर्थः । तर्हि यदि द्रव्याणि अरूपाणि भोक्तानि तन्मध्ये पुरला अपि च्यानिर्देशं प्राप्नुवन्तः अरूपा भविष्यन्तीत्युत्सर्गप्रतिषेधार्थमपवादसूत्रमाहुः रूपिणः पुद्गलाः॥५॥ रूपं रूपरसादिसंस्थानपरिणामलक्षणा' मूर्ति पिद्यते येषां ते रूपिणः । अन्न नित्ययोगे इम् प्रत्ययः । तदुक्तम् "भूमिनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने । संसर्गेऽस्ति विवधायाँ मन्त्वादयो भवन्त्यमी ॥१॥" । [का० सू० २।६।१५ दौ० वृ० १] पूरणगलनस्वभावत्वात् पुद्गलाः । अन बहुवचनं परमाणुस्कन्धाधनेकभेदपरिकल्पनार्थ विश्वरूपकार्यदर्शनाद् वेदितव्यम् । पुद्गला रूपिणो मूर्तिमन्तो भवन्तीति तात्पर्यार्थः । अथ यथा पुद्गलाः प्रत्येक भिन्ना वर्तन्ते तथा धमाधमाकाशा अपि प्रत्येक कि भिन्नत्वमाप्नुवन्ति उताभेदमित्यनुयोगे सूत्रभिदमाहुः-- आ आकाशादेकद्रव्याणि ॥ ६॥ आकाशमभिव्याप्य आ आकाशात् , सूत्रानुक्रमेण त्रीणि द्रव्याणि धर्मोऽधर्मः आकाशश्च एते त्रय पकद्रव्याणि अखण्डप्रदेशा भवन्ति न तु पुद्गलवन् भिन्नप्रदेशाः स्युः। धर्म एकद्रव्यम् अधर्मोपि एकद्रव्यम् आकाशोऽपि एकद्रव्यम् । बहुवचनं तु धर्मादीनां त्रयाणामपेक्षया । एकस्यापि अनेकार्थप्रतीत्युत्पादनसामथ्योयोगान बहुवचनं कृतं तर्हि 'आ आकाशादे. २५ कैकम्' इति लघुसूत्रं किमिति न कृतम् । एवं सति सूत्रे द्रव्यग्रहणमनर्थक किमिति कृतम् ? साधूतं भवता; द्रव्यग्रहणं द्रव्यापेक्षया एकत्वकथनार्थ क्षेत्रभावापेक्षया असंख्येयत्यानन्तस्वविकल्पप्रकटनाय च द्रव्यग्रहणं कृतं यथा जीवद्रव्यं नानाजीयापेक्षया भिन्न भिन्नं वर्तन पुद्गलद्रव्यच प्रदेशस्कन्धा पेक्षया भिन्न भिन्नमस्ति तथा धर्मोऽधर्मश्च आकाशच भिन्न भिन्नं न वर्तते। १ ख्य या आ०,९०,ज०। २ -शान्न स्यजन्ति चे- आ.,., ज० | ३-णमूमा०,१०, ज०। ४ -यामम्वादेशो भ-१० | ५-प्रत्यु- आ०,६०,ज। ६-ययोभा,द, ज०,०। ७ साधु कथितं श्रा०, ज०। ८ -स्कन्धत्वापे-ut.. .। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ तस्वार्थवृत्ती [५/-८ अथाधिकृतानां धर्माधर्माकाशंकद्रव्याणां विशेषपरिहानार्थ सूत्रमिदमुच्यते निष्क्रियाणि च ॥ ७॥ बायाभ्यन्तरकारणवशान् सञ्जायमानो द्रव्यस्य पर्यायः देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया कथ्यते । तस्याः क्रियाया निष्कान्तानि निष्क्रियाणि । चकारः समुपये वर्तते । तेनायमर्थःधर्माधर्माकाशद्रव्याणि न केवलमेकद्रव्याणि अपि निष्क्रियाणि च स्वस्थानं परित्यज्य जीव- ५ पुद्गलबत परक्षेत्र न गच्छन्तीय बाणिर्माकामानि द्रव्याणि निष्कियाणि वर्तन्ते चलनादिक्रियारहितानि सन्ति तहि तेषामुत्पादो न सङ्गच्छते । उत्पादो हि क्रियापूर्वको व्याख्यातः घटादिवन् । उत्पादाऽभावे व्ययोऽपि न स्यात् । एवञ्च सति धषिर्माकाशद्रव्याणाम् उत्पादळ्ययनौव्यत्रयकल्पना वृथा; युक्तमुक्तं भवता हास्येन कथयति-युकमुक्तमयुक्तमुक्तमित्यर्थः । एवं सर्वत्र चालनायां शातव्यम् । 'चलनादिक्रियाकारणोत्पादाऽभाषेऽपि १० धर्माधर्माकाशानामपरथाप्युत्पादो वर्तते एव । तत्कथमिति चेत् ? उच्यते-स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्चेदु(त्युत्पादो द्विविधः । तत्र स्वनिमित्तः आगमप्रमाणत्वात अगुरुलघुगुणानाम अनसानन्तानामङ्गीक्रियमाणानां षट्स्थानपतितया वृद्ध था षट्स्थानपतितया हान्या च वर्तमानानामेषामुत्पादो व्ययश्च स्वभावादेव वर्तते । परनिमित्तोऽप्यस्ति "नरकरभादिगविस्थित्यवगाहनिमित्तत्वान् समये समये तेषां भेदान तद्धेतुत्वमपि भिन्नभिन्नमिति परप्रत्ययापेक्ष' उत्पादो १५ व्ययश्चोपचर्यते । चञ्चितमा-यनुचर्च्यते-ननु धम्मोधर्माकाशानि चेक्रियारहितानि वर्तन्ते तर्हि जीवानां पुद्गलानाञ्च गतिस्थित्यवकाशहेतवः कथं भवन्ति ? यतः "सर्वतोमुखादीनि स्वयं क्रियावन्ति वर्तन्ते तानि तिम्यादीनां गतिस्थित्यवकाशदानकारणानि सङ्गच्छन्ते न निष्क्रियाणि धर्माधर्माकाशद्रव्याणि इति; सत्यम्; यथा चक्षु रूपाहणे निमित्तं तथा धर्मादीनि जीवानां श्लाधाननिमित्तमिति । अत्र धर्माधर्माकाशानां निष्क्रियत्यमङ्गोकतं जीष- २० पुद्गलानां सक्रियत्वमापते रेवायातम् , न तु कालस्य सक्रियत्वमस्ति जीवपुद्गलः सह अनधिकारात् तेन कालोऽपि निश्क्रियत्वं प्राप्त इत्यर्थः । पुद्गलानां रूपित्यं धर्माधर्माकाशानामेकद्रव्यत्वं निष्क्रियत्वञ्च त्रिभिः सूत्रैः प्रतिपादितम् , अर्थात् जीवानां यथायोग्यमरूपित्वमनेकद्रव्यत्वं सर्वक्रि(सक्रिीयत्वश्च सिद्धमिति । अथ "अजीवकाया धमाधमाकाशपुद्गला" [५।१] इत्यत्र कायशब्दमहणात् २५ प्रदेशानामस्तित्वं निश्चितम् , परं प्रदेशानामियत्ता न झायते-कस्य व्यस्य कियन्तः प्रदेशा इति तत्प्रदेशपरिज्ञानार्थ योगोऽयमुच्यते .- १ -व्यक- २० । २ चलना- k०, 40, ज्ञ० | ३ -यानिमित्तोत्पा-जा । -याकणामुत्पा- ०। ४ -ते त-ज., आ० | ५ नरकगर्भादि-व०।६ -क्षयाउ- श्रा०, अ, प० । ७ जलादीनि । ८ मत्स्यादीनाम् । -- -. -- --..--. Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ ५८-१० पञ्चमोऽध्यायः असा ध्येयाः प्रदेशा धर्माधम्मैकजीवानाम् ॥ ८ ॥ सम्स्यायन्ते संख्येयाः न समस्येया असङ्ख्येयाः "गातखनोरिच्च" [ का सू० ४।२।१२ ] प्रदिश्यन्ते प्रदेशाः । धर्मश्च अधर्मश्च एकजीयश्च धर्माधम्मैकजीवाः, तेषां धर्माधर्मंकजीवानाम् । धर्मादीनां त्रयाणामसख्येया सल्यामतीताः प्रदेशा भवन्ति। को नाम प्रदेशः ? यापति क्षेत्रे पुद्गलपरमाणुरवतिष्ठते तावदाकाशं प्रदेश इत्युच्यते । असङ्ख्येय- ५ खि प्रकारः-जघन्य उत्कृष्टः अजषयोमा अत्र जमायो ओयपाते तेष धर्माधर्मों निष्क्रियो लोकाकाशं व्याप्य स्थितौ । एकजीवस्तु तत्प्रमाणप्रदेशोपि सन् संहारविसर्पस्वभावात् निजफर्मनिर्मितं सूक्ष्म महद्वा शरीरमधितिष्ठन् तावन्मात्रमेवानगाह्म विति अग्यन लोकपूरणात् । यदा जीवो दण्डकपादप्रतरपूरणलक्षणं लोकपूरणं करोति पदा मेरोरधः चित्रवनपटलमध्ये अष्टौ मध्यप्रदेशान् परिहत्य सर्वत्र तिष्ठति । लोकपूरणं १० चतुर्मिी समयः करोति चतुर्भिः संहरति च । एवं लोकपूरणकरणे अष्ट समया लगन्ति । अथ आकाशस्य कियन्तः प्रवेशाः भवन्सीसि प्रश्ने सुत्रमिदमाहुः आकाशस्थानन्ताः ॥ ९ ॥ आ समन्तात् लोके अलोके च काशते तिष्ठति आकाशः, तस्य आकाशस्य । न विद्यते अन्योऽवसानं येषां प्रदेशानां ते अनन्ताः। आकाशस्य नभसः अनन्ताः प्रदेशा भवन्ति । १५ अथ चतुर्णाममूर्तानां प्रदेशपरिमाणं ज्ञातम् , मूर्तानां पुद्गलानान्तु प्रदेशपरिमाणं कम्यं तदर्थ सूत्रमिदमाहुः सहरूषेयासक रूपेयाश्च पुटुगलानाम् ॥ १० ॥ सख्येयाश्च असणस्येयाश्च सख्येयासख्येयाः। पुद्गलानां प्रदेशाः संस्येया असख्येयाश्च भवन्ति । चकारात् परीतानन्ताः युक्तानन्ता अनन्तानन्ताश्च त्रिविधानन्ताश्च २० भवम्ति । कस्यचित् पुद्गलद्रव्यस्य द्वथणुकादेः सङरल्येयाः प्रदेशा भवन्ति । ते तु आगमोक्तगणितशास्त्रपर्यन्तेपि सार्द्धशताङ्वपरिमिते अणुद्रयाधिके सति यावान् स्कन्ध एक उत्पद्यते बावान् स्कन्धः सख्येयप्रदेश उच्यते । कस्यचिन् पुलस्कन्धस्य असङ्ख्येयाः प्रदेश भवन्ति । ते तु यावन्तो लोकाकाशप्रदेशास्तावद्भिः पुद्गलपरमाणुभिर्मिलितर्य एक स्कन्ध त्पद्यते तत्परिमाणस्कन्ध असंख्येयप्रदेश उच्यते । तेन कश्चित् स्कन्ध असङ्ख्येयासव्येय- २५ प्रदेशश्च भवति, कश्चित् स्कन्धः परीतानान्तो भवति अपरः कोऽपि युक्तानन्तप्रदेशो भवति, मन्यतमः कोऽपि अनन्तानन्तप्रदेशश्च भवति । एतत् त्रिविधमप्यमन्तं चशब्देन सामान्येन हीतमिति ज्ञातव्यम् । ननु लोकस्तायत् असह्यातप्रदेशः, स लोक अनन्तप्रदेशस्य अनन्तामान्यप्रदेशस्य च स्कन्धस्य कथमाधार इति विरोधः, ततः पुद्गलस्य अनन्तप्रदेशता न युक्ता ; सत्यम् । परमाण्वादयः सूक्ष्मत्वेन परिणता एकैकस्मिन्नपि आकाशप्रदेशे अनन्तानन्तास्तिष्ठन्ति १० १ प्रदिश्यन्ति आ०. अ० १ २ -ति ए- ज०, आ० । ३ कारते ज०, ०। ४ -के 74-10, 10। ५.-माणवः सू- आ०, ज० । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्त्वार्थवृत्ती [५॥११-१२ सम्मान्ति । कस्मात् ? सूक्ष्मपरिणामावगाहनशक्तियोगात् । पुद्गलपरमाणू नामवगाइने या शक्तिर्वतते सा अव्याहता वर्तते, तां शक्ति कोऽपि व्याहन्तुं न शक्नोति । अतः कारणात एकस्मिन्नाकाशप्रदेशे अनन्तानन्तानां परमाणूनामवस्थानं न विरुद्धम् । अथ 'सङ्ख्येयाऽसत्येयाश्च पुदलानाम्' इति सूत्रे विशेषरहिताः पुद्रलाः प्रोक्का, ५ तेन अविशेषत्रचन्तया एकस्यापि परमाणोः तादृशाः 'प्रदेशा भविष्यन्तीत्याशङ्कायां तनिषेधार्थ सूत्रमिदमुच्यते नाणाः ॥ ११ ॥ ___अणोः एकस्य परमाणोः 'प्रदेशाः न भवन्ति' इति वाक्यशेषः। कुतो न भवन्तीति चेत् ? अणोः एकप्रदेशमानत्वान् । यथा एकाकाशप्रदेशस्य प्रदेशभेदाभावात् अप्रदेशत्वं १० वर्तते, तथा एकस्य अविभागस्याणोरपि अप्रदेशत्वं ज्ञातव्यमिति । अतः एकस्य परमाणोर्भेदः कतु केनापि न शक्यते । "परमाणोः परं नाल्पं नभसो न परं महत् ।" [ ] इति वचनात् अणोरध्यणीयानपरो न वर्तते कथमणोः प्रदेशाः भियन्ते ? अथ धर्माधर्मजीवपुगलादीनामधिकरणपरिज्ञानार्थ सूत्रमिदमुच्यते लोकाकाशेऽवगाहः ॥ १२॥ लोक्यन्ते विलोक्यन्ते धर्मादयः पदार्था यस्मिन्निति लोकः, लोकस्य सम्बन्धी आकाशो लोकाकाशः तस्मिन् लोकाकाशे । लोक इति "करणाधिकरणयोश्च" [ कात०४५९५] इत्यनेन अधिकरण घम् । अवगाहनमवगाहः अवकाश इत्यर्थः। धर्माधर्मजीवपुद्गल कालद्रव्याणां लोकाकाशे अवगाहोऽवकाशो भवति, अलोकाकाशे धर्मादीनां द्रव्याणां प्रवेशो २० न भवतीत्यर्थः । यदि धर्माधर्मजीवपुगलकालानां लोकाकाशमधिकरणमाधारो वर्तते ताई आकाशस्य किमधिकरणमिति चेत् ? तन्न; आकाशस्याधिकरणमन्यन्न वर्तते, आकाशः। स्वप्रतिष्ठो वर्तते । यद्याकाशः स्वप्रतिष्ठोऽस्ति तर्हि धर्मादयोऽपि स्वप्रतिष्ठा एष, यदि धर्मादीनामाधारोऽन्यः प्रकल्प्यते भवद्भिः तर्हि आकाशस्याप्याधारोऽन्यः करुप्यताम् , "एवश्च सति अनवस्थाप्रसङ्गो भवतीति ; तन्न ; आकाशाइधिकपरिमाणमन्यद् द्रव्यं न वर्तते यस्मिन् द्रव्ये २५ आकाशं स्थितमिति कथ्यते । आकाशो हि सर्वतोऽनन्तः। धर्मादीनां यत्पुनराधार आकाशः कल्प्यते तद्व्यवहारनयापेक्षया । एवम्भूतनयापेक्षया तु सायपि द्रव्याणि स्वप्रतिष्ठानि चर्तन्ते । एवम्भूत इति कोऽर्थः ? निश्चयनय इत्यर्थः । तथा चाभाणि "ते पुणु बंदउ सिद्धगण जे अप्पाणि वसंति । लोयालोउवि सयल इहु अच्छहि विमलु णियंत ।।" [परमात्मप्र० १५] २ शाः - सा० । २ कालद्रव्याणां लो- आ०, ० | ३ -झास्तु स्व- भाग, जः | ४ एवं सति अनवस्थाप्रसङ्गोपि भ-भा०,ज। ५ -भूतमिति सा०। ६ तान् पुनर्वन्दे सिद्धगणान् ये आत्मनि वसन्ति । लोकालोकपि सकलामह तिष्ठन्ति विमलं पश्यन्तः । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५।१३-१४] पञ्चमोऽध्यायः १८५ ___तथा च लोके केनचित् पूर्व क त्वं तिष्ठसि ? स चाह-अहमात्मनि तिष्यामि । अन्न आधाराधेयकल्पनायाः प्रयोजनं किम् ? इवमेव प्रयोजनं यल्लोकाकाशाद् बहिः न किमपि द्रव्यं वर्तते अन्यत्राकाशात् । अथ कश्चिदाह लोके घरतूनामाधारावेयभावः पूर्वोत्तरकालभावी दृश्यते। यथा पिटकः पूर्व स्थाप्यते पश्चात् बदरादीनि तनाधीयन्ते, तथा पूर्षकाले आकाशा स्थाप्यते उत्तरकाले तु धर्मादीन्याधीयन्ते, तेनोपचारेणापि आधाराधेयकल्पना न वर्तते; ५ सत्यम् ; समकालभाषिनामपि पदार्थानामाधाराधेयभावो दृष्ट एव घटयन , यथा घटे रूपादयः काये करादयो युगपद् दृश्यन्ते तथा आकाशे धर्मादयो युगपद् भवन्तीति नास्ति दोषः । आझिद्विप्रकारचाकावीशअिलकामाशी हास्मात् ? 'धर्माधर्मास्तिकायभावान । असति धर्मास्तिकाये जीवपुद्गलानां गति हेत्वभावो भवति, असति अधर्मास्तिकाये स्थितिहेत्वभावो भवति, नभयाऽभावे गतिस्थित्यभावे लोकालोकविभागो न भवेत् । अत १० एवं गतिस्थितिसद्भावे लोकालोकविभागः सिद्धः। अग धर्माधर्मयोः विशेषशक्तिसूचनार्थ सूत्रमिदं प्रसिगलयन्ति धर्माधर्मयोः कृस्ने ॥ १३ ॥ धर्माधर्मश्च धर्माधर्मों तयोः धर्माधर्मयोः। धर्मस्य अधर्मस्य च कृस्ने सर्वस्मिन् लोकाकाशे अवगाहो भवति, गृहस्थितस्य घटस्येव नियतोऽवगाहो नास्तीत्यर्थः फिन्तु सर्वत्र १५ लोकाकाश एतयोयोरवकाशोऽस्ति तिलघु तैलवा । स चावगाहः अवगाहनशक्तियोगाद् भवति, परस्परप्रवेशे सति परस्परस्य व्याघातो न भवति । अत्राह कश्चित्-स्थितिदानस्त्रभावस्य अधर्मद्रव्यस्य लोककाशे स्थितस्य परतोऽभावान कथमलोकाकाशः स्थितिं करोति ? तथा कालद्रव्यं विना कश्रमलोकाक्राशो वर्तते ? सत्यम ; यथा-तमायःपिण्डो जलपाश्र्षे स्थितः एकस्मिन् पायें जलायकपणं करोति तज्जलं सर्वत्र लोहपिण्डे व्याप्नोति तथा लोकस्य पाये २० स्थितमलोकाफाशम अधर्म कालद्रव्यन स्पृशत् स्थितिं करोति वर्तते च । अत: ( अथ) कारणात् विपरिणतानां मूर्तानाम् एकप्रदेशसख्येयासक्त्येयानन्तप्रदेशानामवगाहनविशेषपरिज्ञापनार्थ सूत्रमिदमातुः एकप्रदेशादिषु भाज्या पुदगलानाम् ॥ १४ ॥ एकश्चासौ प्रदेशः एकप्रदेशः, एकप्रदेश आदिर्येषां द्वित्र्यादिप्रदेशानां ते एकप्रदेशादयः २५ तेषु एकप्रदेशादिषु । पुद्गलानामेकप्रदेशादिषु अवगाहो भाज्यो बिकल्पनीयः भाषणोय इत्यर्थः । यथा व्याकरणे अवयवेन विग्रहो भवति समुदायः समासार्थो भवति तथा एकप्रदेशो. ऽपि गृह्यते बहबश्च प्रदेशा गृह्यन्ते । तथाहि—एकस्मिन् विहायःप्रदेशे एकस्य परमाणोरषगाहो भवति, एकस्मिन्नाकाशे द्वयोः परमाग्योश्चागाही भवति, एवमेकस्मिनाकाशप्रदेशे ज्यादीनामपि साख्येयासहसयेयानन्तप्रदेशानां स्कन्धानामघकाशो वेदितव्यः। तथा द्वयोराकाशप्रदेशयोः ३० १ वर्मास्तिकायभावात् ता धर्मास्तिकायाभावाभा-२० । २ -परल्या- मा० । ३ -नाम प्रदेश सं- ता०प० । ४ -यानन्त- ज., आ० । २४ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ तत्त्वाधवृत्त [५/१५ द्वौ परमाणू अत्रद्धौ अबकाशं प्राप्नुतः त्रिषु च आकाशप्रदेशेषु द्वौ च परमाणू यद्दवश्च परमाणो बद्धा अबद्धाश्चावगाहं लभन्ते । सोऽवगाहो लोकाकाशप्रदेशेष्वेव न परत इति प्रत्येतव्यम् । ननु धर्माधमा अमूर्ती बर्तेते तेन कारणेन यदि एकत्र अविशेघेनावरोधं लभेते अस्थानम् अवगाहं लभेते, तन युक्तम्, पुद्गलास्तु मूर्तिमन्तः ते एकसंख्येयासंख्येयप्रदे५ शेषु लोकाकाशेषु कथमेकसख्येयासन्ख्येयप्रदेशाश्च कारादनन्त प्रदेशाश्च पुद्गलस्कन्धा अवस्थानं लभन्ते इति ? अत आह-- सत्यम्; अवगाहनस्वभावान् सूक्ष्म परिणामाच्च तथाषि क्षेत्रे मूर्तिमन्तोष अवस्थानं लभमानाः पुद्गलस्कन्धा न विरुद्धयन्ते । यथा एकस्मिन्नपयर के अनेके प्रदीपार्यिका अव गाते वाश्च पुद्गल स्कन्धा अवकाशं लभन्त इति वेदितव्यम् । तथा प्रमाणभूतश्चागमोऽत्र वर्तते— १० "" ओगाढगादणिचिदो पुञ्गलकायेहिं सव्वदो लोगो ! सुमेहिं बादरेहिंय गंताणंतेहि विविहेहि ।।" [पवयणसा० २२७६ ] तत्र महाकपिण्डोपि दृष्टान्तः । अथ विज्ञातमेतम् पुद्गलानामवगाहनम् । जीवावगाहनं कीदृशमिति भण्यतेअसङ्ख्य भागादिषु जीवानाम् ।। १५ ।। संख्यायते संख्येयः न संख्येयः असंख्येयः असंख्येयो भाग आदियेषां भागानां ते असंख्येयभागादयस्तेषु असंख्येयभागादिषु । जीवन्ति जीविष्यन्ति जीवितपूर्वा वा जीवाः, तेषां जीवानाम्, लोकाकाशं असंख्येयभागादिपु अवगाहो भवति । कोऽर्थः ? लोकाकाशस्य असंख्येया भागाः क्रियन्ते तेषां मध्ये एको भागो गृह्यते, तस्मिन्नेकस्मिन् भागे एको जीवस्तिति | आदिशब्दान द्वयोर्भागयोरेको जीवस्तिष्ठति, तथा त्रिषु भागेष्वेको जीवस्तिष्ठति, तथा २० चतुर्षु भागेष्वेको जीवस्तिष्ठति । एवं पश्चादिष्वपि भागेषु एको जीवस्तिष्ठति तथा यावन सर्वानपि भागान् लोकपूरणापेक्षया व्याप्नोति । नानाजीवानां स्ववगाहः सर्व एव लोको वर्तते । अत्राह कश्चिन - - यथेकस्मिन् असंख्येयभागे एको जीवोऽवतिष्ठते तर्हि एकस्मिन् भागे द्रव्यप्रमाणतोऽनन्वानन्तो जीवराशिः शरीरसंयुक्तः कथमवतिष्ठते । सत्यम् ; लोकाका सूक्ष्मबादरभेदान अवस्थितिः प्रत्येतव्या । तत्र बादराः परकृतबाधया चोपघातं लभन्ते, २५ सूक्ष्मजीवास्तु सशरीरा अपि सूक्ष्मत्वान् एकस्मिन्निगोदजी बाड गाढ प्रदेशेऽनन्तानन्ता वसन्ति, ते सूक्ष्माः प्राणिनः परस्परेण प्रतिघातं न लभन्ते, वाइरंश्च नैव प्रतिहन्तुं शक्यन्ते तेनावगाह विरोधो नास्ति । अथ 'लोकाकाशतुल्यदेशे किल एको जीवोऽवतिष्ठते इत्युक्तं भवद्भिः, तस्य "लोका १५ १ णवश्च न आ ज०, ब० २ -स्थाने अवगाहनं ल- भ० ज० १० । ३ - मत्याच्च भ० ज० 1 ४ एकस्मिन्नेव आकाशे अनेके आ ज ० ५ अवगाढगाड निचितः पुद्गलकायैः सर्वता लोकः । सूक्ष्मैः बादरेश्व अनन्तानन्तः त्रिविधैः ॥ ६७ लोकसंख्येय- ० | लोकस्यासंख्येय- ज०, आ, To 1 भ० ज०, प० । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] पचमोऽध्यायः १८७ संयभागादिषु प्रवृत्तिः कथम् सर्वलोकव्याप्तिर्भवत्येकस्य जीवस्य' इति प्रश्ने सति लोकप्रसिद्धदृष्टान्तेन अल्पप्रदेशव्याप्तिरपि भवतीति प्रतिपादनार्थं सूत्रं स्वामिनः प्राहुः - प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥ १६ ॥ प्रदिश्यन्ते प्रसारयन्ते सङ्कोच्यन्ते या प्रदेशाः संहरणं सङ्कोचनं संहारः, विसर्पणं प्रसारणं विसर्पः, संहारा विसर्पश्च संहारविसर्पों, प्रदेशानां संहारविसर्पों प्रदेशसंहारविसर्पों ताभ्यां प्रदेशसंहारविसर्पाभ्याम् । अस्यायमर्थः — लोकस्य असख्येयभागादिषु जीवस्यावगाहः प्रवृत्तिर्भवति । कस्मात् ? प्रदेशानां संहारात् सङ्कोचात् अल्पक्षेत्रे जीवस्तिष्ठति, प्रदेशानां विसत् प्रसरणात् जीयो बहुषु भागेषु तिष्ठति । एवं व्याख्याने सति प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यामित्यत्र पञ्चमीद्विवचनं घटते । करणापेक्षया तृतीयाद्रिवचनं च घटते, तत्र प्रदेशसंहारेण प्रदेशविसर्पेण चेति व्याख्यातव्यम् । प्रदेशानां संहारः कथं विसर्पश्च कथं भवति ? प्रदीप- १० बत् यथा प्रदीपस्य प्रकाशः निरावरणाकाशप्रदेशे अनवधृतप्रकाशपरिमाणं भवति स एव दीपः यदा वर्द्धमानेन - शरावेण अत्रियते तदा तस्य प्रदीपप्रकाशस्य शरायमात्रक्षेत्रे प्रवृत्तिभवति । यदा तु मामिकार्शष्ठ कक पिकषार्य स्त्रीलिब्रिपादारावक्षेत्रात् कवित् बहुतरक्षेत्रे प्रदीपप्रकाशप्रवृत्तिः भवति । यदा तु स एवं प्रदीपः कुण्डेनाश्रियते तदा मानिकाक्षेत्रात् किचित् बहुतरक्षेत्रे प्रदीपप्रकाशप्रवृत्तिर्भवति । यदा स एव प्रदीपः अपवर- १५ कादिनाप्रियते तदा तस्मादपि अधिकप्रकाशो भवति । एवं जीयोऽपि यद्यपि अमूर्तस्वभात्रो वर्तते तथापि अनादिसम्बन्ध क्यान कथञ्जिन् मूर्ती भवन् कार्माणिशरीरवशात् अणुशरीरं मच्छरीरच्चाधितिष्ठन् तच्छरीरवशात् प्रदेशानां संहरणं विसर्पणं च करोति । तावन्प्रमाणतायाम् 'सत्याम् असङ्ख्येयभागादिषु प्रदेशप्रवृत्ति वस्योपपद्यते । ननु धर्मादीनां परस्परप्रदेशानुप्रवेशो यदा भवति तदा सङ्करः सञ्जायते व्यतिकरो भवति । कोऽर्थः ? एकत्वं प्राप्नोति ; २० सत्यम् ; धर्मादीनामन्योन्यमत्यन्तश्ले षेऽपि सति यामिश्रतायामपि सत्यां धर्मादीनि द्रव्याणि निजनिजस्वभावं न मुञ्चन्ति - धर्मो मिलितोऽपि गतिं ददाति, अधर्मो मिलितोऽपि स्थितिं ददाति, आकाशों मिलितोऽपि अवकाशं ददाति इत्यादि स्वभावस्यापरिहारो वेदतरूयः । तथा चाभाणि "अणोरणं पविसंता देता अवकासमण्णमण्णस्स ! मिल्लता व य णिच्चं सगसम्भावं ण विजयंति ॥" [ पंचास्ति गा० ७ ] अथ कस्तेषां स्वभाव इति प्रश्ने धम्र्म्माधर्मयोः स्वभावस्तावदुष्यते अ०, ३ न्यस्य प्र- श्र०, १ कजी व २ सूत्रमिदं स्वा- भ० ज० म० । ५० । ४ दृढं फणिकस्थळी कयावा आ अ० ज० ० १ ५ एव दोषः आ० ज०म० १ ६ सत्यम् आ०, ब० ज० । ८ - सति भ० ज०, ब० । ९ अन्योन्यं प्रविशन्तः ददन्तोऽवकाशभन्योन्यस्य । मिलन्तोऽपि च नित्यं स्वकस्वभाव न विजइन्ति ॥ २५ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८. तत्त्वार्थवृत्ती [१/१७ गतिस्थित्युपग्रही धर्माधर्मयोरुपकारः ॥ १७ ॥ गमनं गतिः, स्थान स्थितिः, उपगृह्यते इत्युपग्रहः । शब्दविग्रहः कृतः। इदानी समासविग्रहः क्रियते-देशान्तरप्राप्तिकारणं गतिः, देशान्तराप्राप्तिप्रत्यया स्थितिः, गतिश्च स्थितिश्च गतिस्थिती, ते एव उपग्रहोऽनुग्रहः' कारणावं गतिस्थित्युपग्रहः । धर्मश्च अधर्मश्च ५ धर्माधौं तयोः धर्माधर्मयोः । उपक्रियते इत्युपकारः । "कर्तृकर्मणोः कृति नित्यम्" [ का. सू० २।४।४१ ] इति वचनाः । धर्माधर्मयोरित्यत्र कतरि षष्ठी ज्ञातव्या । तेनायमर्थः--गत्युपग्रहो गतिकारणं धर्मेण फर्नुभूतेन जीवपुद्गलानाम् उपकारः कर्मतापनः क्रियते । स्थिन्युपग्रहः स्थितिकारणमधर्मेण कर्तृभूतेन जीवपुद्रलानामुपकारः फर्मतापनः क्रियते । गतिस्थितिकारणं धर्माधर्मयोः उपकारः कार्य भयतीत्यर्थः । एवं चेन 'गत्युपमहः' १० इत्यत्र द्विवचनं घटते, उपकारशब्देपि द्विवचनं घटते; तन्नाशङ्कनीयम् । सामान्येन व्युत्पादितः शब्दः उपात्तसल्या शब्दान्तरसम्बन्धेऽपि सति तत्पूर्वोपात्तसंख्यां न मुञ्चति । धर्माधर्मयोरित्यवाद्रिकासहितकाम्प्राधेशविनयशामसम्म मच द्वौ शब्दौ एकवचनत्यं न मुचत इत्यर्थः, यथा 'मुनेः कर्तव्यं तपःश्रुते' इति । अत्रायमर्थ:-तिपरिणामयुक्तानां जीवपुद्गलानाम् उभयेषां गतिकारणे कर्तव्ये धर्मास्तिकायः सामान्याश्रयो भवति मीनानां १५ गमनप्रयोजने तोयवत् । एवं स्थितिपरिणामयुक्तानां जीवपुद्गलानाम् उभयेषां स्थित्युपग्रहे स्थितिकारणे उपकारे कतध्ये सति अधर्मास्तिकायः सामान्याश्रयो भवति अश्वादीनां स्थितिप्रयोजने सति पृथिवीधातुवत । कोऽर्थः ? दधातीति धातुराधारः, पृथिव्येव धातुः पृथिवीधातुः, भूभ्याधार इवेत्यर्थः। ननु उपप्रहशब्दोऽप्रयोजनः, उपकारशब्देनैव सिद्धत्वात् , तेन ईदृशं सूत्रं क्रियताम् । ईदृशं कीदृशम् ? 'गतिस्थिती धर्माधर्मयोरुपकारः'; सत्यम् । २० यथासदयं मा भून इत्युपग्रहशब्दग्रहणम् । एवं सूत्रे सति धर्माधर्मयाः गतिस्थिल्योश्च यथासक्य जाते सति जीवपुलानामपि यथासङ्ख्यं जायते। तथा सत्ययं दोष उत्पद्यते । कोऽसी दोषः ? धर्मस्योपकारी गतिर्जीवानां भवति, अधर्मस्योपकारः स्थितिः पुद्गलानां भवति, एवं सति महान् दोपः सम्पनीपद्यते तदोपनिराकरणार्थम् उपमहशब्दो गृह्यते । ननु धर्माधर्मयोरुपकारः गतिस्थितिलक्षण आकाशस्य सङ्गच्छते, यत श्राफाशे जीवाश्च २५ पुद्गलाश्च गच्छन्ति च तिष्ठन्ति च किं धर्माधर्मद्रव्यद्वयग्रहणेन ? सत्यम ; आकाशस्यापरोप कारस्य विद्यमानत्वान ! कोऽसाघपरोपकारः ? धर्माधर्मजीवपुद्गलॅकालानामवगाहनमाकाशस्य प्रयोजनम "आकाशस्यावगाहा" [तक सू०५।१८ ] इति वचनात । एकस्य द्रव्यस्य अनेकप्रयोजनस्थापनायां लोकालोकभेदो न स्यात् । ननु पृथिवीतीयादीन्येव तदुपकारसमर्थानि कि प्रयोजनं धर्माधर्माभ्यामिति ? सत्यम् । पृथिवीजलादीनि असाधारणाश्रयः । कथमसाधारणाश्रयः ? पृथिवीमाश्रित्य कश्चित् गतिं करोति कस्यचित् ( कश्चित् ) गतिभङ्ग १ -का- आ, ज, म०, ० | २-ति योगवच- श्रा, ज., ब० । ३ -ग्रह स्वित्युपाइ-व। -संख्ये जा- भाव, ज.।५ -दलानामय-व० । ६ एकद्रव्य-'वर Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५।१८] पञ्चमोऽध्यायः करोति, जलमपि कस्यचित् गतिं ददाति कस्यचिद् गतेः प्रतिबन्धकं भवति, तेन पृथिवीजलादीनि विशेपोक्तानि एकम्य कार्यस्य अनेककारणसाध्यानि च तेन धर्माधर्मी साधारणाश्रयः गतिस्थित्योरिति तावेव प्रमाणम् । ननु धर्माधर्मी तुल्ययलौ वर्तते तेन धर्मः स्थितिप्रतिबन्धको भविष्यति अधर्मस्तु गतिप्रबन्धको भविष्यतीति चेन; न तो अप्रेरकाबुक्ती, धर्मो गतिकार्ये न प्रेरकः अधर्मश्च स्थितिकार्य न प्रेरकः तेन न परस्परं प्रतिबन्धकाविति । ननु धर्माधौं ५ नोपलभ्येते तेन तौ न स्त: खरविषाणवदिति चे] ; ; सर्वेपी प्रवादिनामविप्रतिपप्सेः धमाधम्मौ विद्यते एव। सर्वे हि प्रवादिनः प्रत्यक्षानम याश्च अर्थानभिवाञ्छन्ति, तेन अनुपलब्धिरिति हेतुः अस्मान् प्रति न सिद्ध्यति । यथा च निरतिशयप्रत्यक्ष केवलज्ञानलोचनेन सर्वज्ञवीतरागेण धर्मादयः पदार्थाः सर्वे उपलभ्यन्ते "सर्वदन्यसर्वपयायेषु केवलस्य" [ २० सू० १।२५ मानिसकनान आचार्य अपातजानिभिरपि धर्मादय १० उपलभ्यते । अधात्राह कश्चिन- उपकारसम्बन्धबोन अतीन्द्रिययोरपि धर्माधर्मयोरस्तित्वं भवद्भिरखधृतम् , ताभ्यामनन्तरं यदुक्तमाकाशं तस्य कः प्रवतेत उपकारो येनातीन्द्रियस्यापि तस्याधिगमः सञ्जायते विदुषामिति प्रश्ने सूत्रमिदमाहुः आकाशस्थावगाहः ॥ १८ ॥ आ समन्तात् काशते चमत्करोति इति आकाशः। अवगाहनमवगाहः जीवदलादीनाम् अघगहिनामवकाशदानमवगाह उच्यते । सः अवगाह आकाशस्य सम्बन्धी उपकारो भवति, जीवपुद्गलानाम् आकाशेन उपकारः क्रियते इत्यर्थः । ननु जीवपद्रला अक्गाहिनः क्रियावन्तो वर्तन्ते तेषामवकाशदानम् आकाशस्य साम्प्रतमेव युक्तमेव, घटत एव-सङ्गच्छत इति यावत् , परं निष्क्रियाणां नित्यसम्बन्धानां धर्मास्तिकायादीनामवगाहः कथं घटते ? २० सत्यम् ; निष्क्रियाणामपि धर्मादीनाम् उपचारादनगाहः सङ्गच्छते | यथा सर्व गच्छति इति सर्वगतः, आकाशस्तु गमनाऽभावे सर्वगत इत्युच्यते । कस्मात् ? न्यत्यक्षता विद्यमानत्वात् । तथा धर्माधर्मावपि सर्वत्र व्याप्तिदर्शनादवगाइनक्रियाऽभावेपि अवगाहिनौ इत्युपंचर्येते । ननु आकाशस्य अवकाशदानं श्रीमद्भिरुच्यते तर्हि कुलिशादिभिः लोप्टादीनां मृत्पिण्डादीनां व्याघातो न भविष्यति, तथा "एडुकादिभिरश्वादीनां च व्याथातो न भवि- २५ ध्यति; सत्यम; भिदुरपापाणादीनां स्थूलत्यं वर्तते तेन स्थूलेन स्थूलो व्याइन्यत एत्र | कुलिशादीनां शिलादिब्याहनने आकाशस्थावकाशदानसामर्थ्य न हीयते अवगाहिनामेव परस्परच्याघातात् । स्थूला वनादयोऽन्योन्यमवकाशदानं यदि न कुर्वन्ति तदा किमाकाशस्य दोषः ? ये खलु सूक्ष्मपुद्गलाः तेऽपि अन्योन्यमयकाशदानं विदधति कथं सूक्ष्ममाकाशं सूक्ष्माणां धर्मादीनामवकाशं न ददाति ? एवं चेत् आकाशस्यासाधारणम् अवकाशदानं लक्षणं न ३० ५ -पुद्गलाना भा०, ब०, ज०। २ युक्त - भा०, १०, ज०। ३ प्रत्या- आग, 4.ज.१४-पनयते बा०.ब०, ज०, ३० । ५एइका- आप, 0 | Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ५९१९ १९० तत्त्वार्थवृत्ती भवति । कस्मात् ? सवानियकाशसमसम्भवम् सुसिस्थागर बीकानयाधारण लक्षणमस्त्येव । कस्मात् ? सर्वेषां पदार्थानां साधारणावगाहनकारणत्वात् । ननु अलोकाकाशस्य अवगाहनदानाभाषान् स्वलक्षणपन्यवनान् आकाशस्याभाषः; सत्यम् । स्वभावस्य अपरित्यागात् कथमाकाशस्याऽभावः । अथेदानी पुद्गलानामुपकारो निरूप्यते-- शरीरथाइमन:प्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥१९॥ शीर्यन्ते विघटन्ते शरीराणि, उच्यते वाक् , मन्यते मनः, प्राणिति जीवति येन जीषः स प्राणः, २अपअनिति हर्षेण जीवति विकृत्या वा जीवति येन जीयः सः अपनः, कोष्ठात् बहिनिर्गपछति यः स प्राण उच्छयास इत्यर्थः, बहिर्वायुरभ्यन्तरमायाति यः सः अपानः १० निःश्वासः, प्राणश्च अपानश्च प्राणापानौं। शरीराणि च वाक् च मनश्च प्राणापानौ च शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः । पूर्व पूर्यन्ते पश्चाद् गलन्ति ये ते पुदलास्तेषां पुद्गलानाम् । पुद्गलानां सम्बन्धिनः एते शरीरादयः पञ्च उपकाराः जीवानां भवन्ति । तत्र तावत् औदारिकवक्रियिकाहारकतैजसकाम॑णानि शरीराणि पञ्च। तत्र पश्चसु शरीरेषु मध्ये यानि कार्मणानि तानि सूक्ष्माणि अप्रत्यक्षाणि तैरुत्पाद्यन्तेउपचयशरीराणि । १५ उपचयशरीराण्यपि कानिचित् प्रत्यक्षाणि भयन्ति कानिचित् अप्रत्यक्षाणि भवन्ति, तेषां सर्वेषां शरीराणां कारणं "कर्माणीति वातव्यम् । आत्मपरिणाम निमित्तमात्रं प्राप्य पुद्गलाः कर्मतया परिणमन्ते, तस्तु कर्मभिरौदारिकादीनि शरीराणि उत्पद्यन्ते । तेन सर्वाणि शरीराणि पौगलिकानि भवन्ति जीवानामुपकारेषु प्रवर्तन्ते । तथा चौतम् "जीयकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्थे । स्वयमेव परिणमन्तेत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥" [पुरुषार्थसि० श्लो० १२] ननु औदारिकादीनि शरीराणि आहारवन्ति तेषां पौगलिकत्वं सङ्गन्छत एव, कार्मणन्तु शरीरमनाहारकं तत्कथं पौद्गलिकमित्युच्यते ? सत्यम् ; कार्मणमपि शरीरं पौद्गलिकमेव, कर्मविपाकस्य मूर्तिमभिः सम्बन्ध सति उत्पत्तिनिमित्तत्वात् यथा श्रीमादीनां परिपाकः सलिलादिद्रव्यैः सम्बन्धे सति भवति तथा कार्मणमपि शरीरं सिताकण्टकादि२५ मूर्तिमद्रव्यसम्बन्धे सति विपश्यते बन्धमायाति तेन कार्मणमपि शरीरं पौगलिकमित्युच्यते । कथमन्यथा प्राणवल्लभं पश्यन्त्याः क्रमनीयकामिन्याः कञ्चकस्तुट्यति रोमाञ्चकनुकंवशात् । या वाक् पौगलिकी सा द्विप्रकारा-द्रव्यवाक्-भाववाक्प्रभेदात् । धीर्यान्तरायक्षयोपशमे सति मतिज्ञानावरणश्रुतज्ञानाधरणक्षयोपशमे सति च अङ्गोपाङ्गनामकर्मलाभे च सति भाववाक् उत्पद्यते । सापि पुद्गलाश्रयत्वात् पौलिकीत्युच्यते। यदि पूर्वोक्तकर्मपुद्गलक्षयोपशमो १ -शदानस्या- आ०, ५०, अ.। २. अपनिति भा०, व०, ज०, ३० 1 ३ -ना सभाल, ब., 4०, जा । ४ -न्ते पंचशरीराणि उम- आ., य०,व०। ५ कर्मणीति ता० । कामगीति २०। ६ -गु व- श्र०, ब० । ७ -कवत् मा०, २०, ज.। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज पचमोऽध्यायः १९१ ५१९] न भवति अङ्गोपाङ्गनामकर्मलाभश्च न स्यात् तदा षागुचारण उत्साहो नोत्पद्यते तेन भाववाक् पौद्गलिकी भवति । भाषवाकू सामर्थ्यसहितेन जीवेन चेावता चोथमानाः पुद्गलाः यचनत्वेन विविधं परिणमन्ते, तेन कारणेन द्रव्ययागपि स्फुटं पौद्रलिकी भवति । सा द्रव्यवाक् शब्दप्रहेन्द्रियगोचरा भवति । ननु पौड्रलिको वाक् कर्णेन्द्रियविषया यथा भवति तथाऽपरेन्द्रियविषया कथन्न स्यात् ? सत्यम् अपरेन्द्रियाणां वाचोयुक्तौ अनुचितत्वात् तद्विषया ५ न स्थान, गन्धप्राइकनासिकेन्द्रियस्य रसाद्यविषयत्ववत् । ननु बागमूर्ती कथं पौहलिकी भवद्भिरुच्यते १ सत्यम्; मूर्तिमहणावरोध व्याधाताभिभवादिसद्भावाद. वाग् मूर्तिमत्येव । अस्यायमर्थः वाकू मूर्तिमता कर्णेन्द्रियेण यदि गृह्यते तर्हि कथममूर्त्ता ? तथा मूर्तिमता कुड्यादिना यदि अवरुध्यते प्रतिबध्यते तर्हि कथं बागमूर्ती ? तथा, वागग्राद्दकमपि श्रोत्रेन्द्रियं काहलादिशब्देनान्तरितमपरं शब्द प्रहीतुं न १० शक्नोति वरित्व लक्षणो व्याघातो भवति वाक् कर्णेन्द्रियमागन्तुं न शक्नोति । शब्देन व्याहन्यमाना वाकू कथममूर्ती ? तथा मूर्तियुक्तेन प्रतिकूलेन मरुता वाक् व्याहन्यते कथममूर्ता ? तथाभिमतप्रदेशे गच्छतः पदार्थस्य व्यावर्तनम् अभिभव उच्यते । स कर्णेन्द्रियस्य झटिति शब्दग्रहण जननसामर्थ्यं घटादिशब्देः खण्ड्यते तिर्यग्ग्रातेन च शब्दोऽभिभूयते कथं वाकू अमूर्ता ? तथा पटहादिशब्देशकादिशब्दा अभिभूयन्ते । तदेतदसमीक्षाभिधानं वाचाममूर्तत्वं १५ भवद्भिः कृतमिति । मनोऽपि द्रव्यभाषभेदाभ्यां द्विप्रकारम् । तत्र द्रव्यमनः ज्ञानावरणत्री यन्तरायक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभद्देतवः मुद्गला जीवस्य गुणदोष विचारस्मरणादिप्रणिधानाभिमुखस्य उपकाएका मनस्त्वेन परिणताः द्रव्यमन: पौद्गलिकमेव । भावमनोऽपि लब्ध्युपयोगलक्षणम् । तदर्पि पुद्गलाबलम्बनं पौगलिकमेव जीवस्योपकारकं भवति । ननु मनोऽणुमात्रम् कोऽर्थः १२० सूक्ष्मम्, द्रव्यान्तररूपरसादिपरिणामरहितं पौद्गलिकं कथम् ? सत्यम् मन: पौद्गलिकमेव । अनुमानं मनो हृषीकेणात्मना च सम्बद्धम्, असम्बद्धं वा ? असम्बद्धं चेत् तत् आत्मन उपकारकं न भवति, हृपीकस्य च सहायत्वं न विद्धाति । यदि हृषीकेणात्मना च सम्बद्धं वर्तते तर्हि एकस्मिन् प्रदेशे सम्बद्धं सत् तन्मनः अणु सूक्ष्ममपरेषु प्रदेशेष्वामन उपकारं नो विदध्यात् ? अपि तु विध्यादेव । तेन पौद्गलिकेन इन्द्रियेण मिलितस्यात्मनः २५ उपकारं कुर्वन् पौद्गलिकमेव भवतु नाम उपकारकं मनः, अष्टवशादस्य मनसः आत्मा आलात चक्रवत् प्रमुक चक्रवत् परिभ्रमणं करोति; तन्नः परिभ्रमणसामर्थ्याभावात् । आत्मा मूर्तः निष्क्रिय वर्तते तस्यात्मनः अमूर्तस्वं निष्क्रियत्वञ्च गुणाऽदृष्टो वर्तते स आत्मा कियारहितः सन् मनसः क्रियारम्भं कर्तुमसमर्थः । मारुतद्रव्यविशेषस्य क्रियावतः स्पर्शतच गुणो वर्तते स मा (म)रुतो वनश्पतेश्च परिसन्दहेतुर्भवति तद्युक्तमेष, आत्मा तु ३० ९ गलाभ-आ०, ब० ज० २ अथ तु ब० । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ तस्वार्थवृत्ती ! ५१२० निष्क्रियः स्पर्शरहितश्च मनसः क्रियाहेतुर्न भवति । अत्र निश्चयनयो योजनीयः । उपचारेण तु क्रियाइतुरस्त्येव जीवः ।। अथ प्राणापानस्वरूपं निरूप्यते-बीर्यान्तरायस्य ज्ञानावरणस्य च क्षयोपशमम् अङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयं चापेक्षमाणो जीवोऽयं कोष्ठनातं बहिरुदस्यति प्रेरयति स यातः प्राणः उच्छ्वासा५ परनामधेयः । तथा, साइग्निधो जीवः बहिर्यातमभ्यन्तरे करोति गृणावि नासिकादिद्वारेण सोऽपानः निश्वासापरनामधेयः । तो द्वावपि जीवस्य जीवितकारणत्यास् अनुप्राहिणी उपकारको भवतः । ते मनःप्राणापानाः त्रयोऽपि प्रतिघातादिविलोकनात् मूर्तिमन्तो भवन्ति । मनःप्रतीघातो विद्युत्पातादिभिर्विलोक्यते, मनोऽभिभवो मद्यादिभिदृश्यते । प्राणा पानप्रतीघातः करतलपुदादिमुखसंवरणाद् भवति, प्राणापानाभिभवः सिध्मना निरीक्ष्यते । १० यदि मनःप्राणापाना अमूर्ता भवन्ति तर्हि मूर्तिमद्भिः अशन्यादिभिरभिघातायो न भवन्ति, ते च दृश्यन्ते, कथममी मूर्तिमन्तो न भवन्ति ? अत पय कारणात् जीवस्यास्तित्वं सिद्धम् । सन्त्रप्रतिमाक्रिया यथा प्रयोक्तुरदृश्यमानस्याप्यस्तित्वं कथयति तथा प्राणापानादिक्रियापि जीवस्य क्रियावतोऽस्तित्वं सिद्धमाख्याति । अथापरोऽपि जीवस्य पुलादुपकार उच्यतेगदर्शक :- आचार्य सुख जीविनमरणोपग्रहाश्च ॥ २० ॥ ___ सुस्त्यति सुखम् , दुःखयति दुःखम् , जीवनं जीवितम् , म्रियतेऽनेनेति मरणम् , उपग्रहणानि उपग्रहाः । सुखं च दुःखं च सुखदुःस्वम् समाहारे बन्छः, तच्च जीवितञ्च मरणश्च सुखदुःखजीवितमरणानि, तान्येत्र उपग्रहाः उपकाराः सुखदुःखजीधितमरणा पप्रज्ञाः । एते चत्वारोऽपि पुद्गलानामुपकारा जीवस्य भवन्ति । सवेद्यास गोरुदये अन्त२० रजती सति बहिर्द्रव्यादिपरिपाककारणवशादुरपद्यमानः प्रीतिपरितापलक्षणः परिणामः सुखदुःखमुच्यते । भवधारणकारणस्य आयुष्कर्मण उदयात भवस्थिति धरतो जीवस्य प्राणापानक्रियायाः अविच्छेदो जीवितम् । प्राणापानक्रियोच्छेदो मरणमुच्यते । एतचतुष्टयं पुहलकृतोपकारो जीवस्य वेदितव्यः । स मूर्तिमत्कारणसन्निधाने समुत्पद्यते यतस्ततः पोद्गलिक एव । ननु उपमहाशब्देनोपकार' इत्युच्यते । स उपकारः अधिकारादेव लभ्यते किमर्थं पुन२५ रुपमणम् ? इत्याह-सत्यम् पुनरुपग्रहह्मण पुगलानां पुदलकृतोपकारसूचनार्थम् । तथाहि दानादीनामम्लादिभिरुपकारः, उदकादीनां कतकादिभिरुपकारः, लोहादीनां जलादिभिरुप. कारो भवति । चकारः समुच्चये वर्तते । तेन चन्चुरादीनि इन्द्रियाण्यपि शरीरादियन् जीयोपकारकाणि भवन्ति । अथ झातो धर्माधर्माकाशपुनलोपकारः, जीवस्य क उपकार इति प्रश्ने ग्रहणमिद. ३० मुच्यते १ रोगविशेषेण किलासनाना । सिमाना नि- भा०. ५०, ०। २ -हारो द. ता.. ३ -प्रहाः सु-मार, ० ज०। ४ र उ-ता, व• । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५।२१-२२] पञ्चमोऽध्यायः परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥ २१ ॥ परस्परः अन्योन्यसम्बन्धी, यामार्यम्भाचविपासासगरमहा जीवानां प्राणिनाम् अन्योन्यस्य कार्यकरणम् उपकारो भवति । यथा 'बापः पुत्रस्य पीपणादिक करोति, पुत्रस्तु बप्तुरनुकूलतया देवार्चनादिकं कारयन् श्रीखण्डघर्पणादिकं करोति । तथा, यथा आचार्यः इहलोकपरलोकसौख्यदायकमुपदेशं दर्शयति तदुपदेशकृतक्रियानुष्ठानं कारयति, ५ शिष्यस्तु गुर्वानुकूल्यवृत्त्या तत्पादमर्दननमस्कारविधानगुणस्तव नाभीष्टवस्तुसमर्पणादिकमुप कारं करोति । तथा, यथा राजा किङ्करेभ्यो धनादिक ददाति, भृत्यास्तु स्वामिने हित प्रतिपादयन्ति अहितप्रतिषेधं च कुर्वन्ति, स्वामिनं च पृष्ठतः कृत्वा स्वयमले भूत्वा स्वामिशत्रु. भङ्गाय युद्ध्यन्ते । उपमहाधिकारे सत्यपि पुनरुपमहग्रहणं जीवानां परस्परं सुखदुःखजीवितमरणकरणोपकारसूचनार्थम् । तेन यथा सुखादिकं चतुष्टयं पुद्गलोपकारः तथा जीवाना- १० मप्युपकारः । यो जीबो यस्य जीवस्य सुस्खं करोति स जीवस्तं जीवं बहुबारान् सुखयत्ति, यो दुःखयति स तं बहुवारान दुःखयति, यो जीवयति स तं बढुवारान् जीवति, यो मारयति स तं बहुधारान् मारयति । तथा चाह योगीन्द्रो भगवान्-- "मारिवि चूरिवि जीवडा जं तुहुँ दुक्खु कसैसि । तं तह पासि अणंतगुण अक्से जीव लहोसि ।। १ ।। मारिवि जीवहँ लक्खडा जं तुहुँ पावकरीसि । पुत्तकलत्तहँ कारणेण तं तुहुँ एक्कु सहीसि ॥२॥" [परमात्मप्र० गा० १२५, १२६ अथ यदि सत्तारूपेण वस्तुना उपकारः क्रियते इति विद्यमानस्य यस्तुनाऽनुमितिर्विधी. यते भवद्भिः, तर्हि कालद्रव्यमपि सत्तारूपेण वर्तते कस्तस्योपकार " इत्याहुः वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ॥ २२ ॥ वर्तना इत्येक पदम् , परिणाम इति द्वितीयं पदम्, क्रियेति मृतीयं पदम , परत्यापरत्वे इति चतुर्थ पदम् , व इति पश्चमम् , कालस्येति पष्टं पदमिति पट्पदं सूत्रमिदम् । कैचिन् चतुष्पदश्च दृश्यते, तदा 'वर्तनापरिणामक्रियाः' इत्येक परत्वापरपरत्वे इति द्वितीय पदम , च इति तृतीयम्, कालस्येति चतुर्थम् । तदा ईदृग्विधः समासः बर्तना र परिणामश्च २५ क्रिया च वर्तनापरिणामक्रियाः । परत्यञ्चापरत्वं च परवापरत्वे इतरेतरद्धन्दः । कल्यते ज्ञायते १ विता। २ गुरोरनुकूल-मा०,०, ज| गुर्वानुकल-प.। ३ -* चतुसा० ज०। ४ मारयित्वा जीवयित्वा जीवान यवं दुःखं करिष्यसि । तत्तदपेक्षया भनन्तगुणमत्रस्य. मेव बीच लभसे || मारयित्वा जीवानां लक्षाणि यवं पापं करिष्यप्ति । पुत्रकलत्राणां कारणेन तत्वमेकः सहिप्यसे ।। ५ इत्यर्थः बस इत्याह वा. । ६ -मकि भा., ०१७ सत्रार्थसिद्धितत्त्वार्थवार्ति कादौ । २५ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ तत्वार्थवृत्त [ ५१२२ निश्चीयते सख्यायते समयादिभिः पर्यायः "मुख्यः कालो निर्णीयते यः सः कालः । “अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्" [ का० सू० ४।५।४ ] घन् । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज, वर्तन्त स्वयमेव स्वपयोः बाह्योपग्रह विन्ना पवार्थाः, तान् वर्तमानान् पदार्थान ४ अन्यान् प्रयुक्ते या सा वर्तना । धृतेरिनन्तात् कर्मणि भावे वा युट् स्त्रीलिङ्गे वर्तना इदि ५ भवति । वर्तते वर्तना इति कर्मणि विग्रहः । घर्तनं वर्तना इति भावे विग्रहः । अत्र लोकप्रसिद्धो दृष्टान्तः कध्यते- यथा तण्डुलानां विक्लेदनं पचनं पाक उच्यते ते तु तण्डुलाः पन्यमानाः शनैः शनैः ओनत्वेन परिणमन्ति तण्डुलानां स्थूलत्वदर्शनात् समयं समयं प्रति सूक्ष्मः पाको भनतीति निश्चीयते । यदि प्रतिक्षणं तण्डुलानां सूक्ष्मपाको न भवेत् तदा अनु अक्षतोचितस्थूलपाकैस्याभावो भवेत् । एवं सर्वेषां द्रव्याणां स्थूलपर्यायविलोकनात् स्वयमेव वर्तन्दस्वभावत्वेन बाह्य १० निश्चयकालं परमाणुरूपमपेच्य प्रतिक्षणमुत्तरोत्तर सूक्ष्मपर्यायेषु वर्तनं परिणमनं यद् भवति सा वर्तना निर्णीयते । चेत् द्रव्याणां प्रतिसमयं परिणामो नै भवेत् तर्हि द्रव्याणां स्थूल पर्यायोऽपि न स्यात् तेन सा वर्तना अणुरूपस्य मुख्यकालस्य निमित्तभूतेति कारणात् वर्तनया कृत्वां मुख्यकालोऽणुरूपोऽस्तीति निश्चीयते । वर्तनालक्षणो निश्चयकालस्योपकार इत्यायात्तम् । ननु यदि निश्चयकाल पर्यायाणां वर्तयिता वर्तते तर्हि स कालः क्रियावान् सञ्जातः निष्क्रियः १५ कथमुक्तः ? सत्यम् निमित्तमात्रेऽपि वस्तुनि हेतुकर्तृत्वं दृश्यते यथा भिक्षा वासयते कारीषोऽनिरध्यापयति इति हेतुकर्तृवाव्यपदेशो भिक्षाग्न्योर्दश्यते, तथा कालस्यापि हेतुकर्तृत्त्रमस्ति निष्क्रियत्वं च न विनश्यति कालस्य पर्यायोत्पादिका वर्तना तावत् विज्ञाता । इदानीं परिणामः कालस्योपकारः कथ्यते-- द्रव्यस्य स्वभावान्तरनिवृत्तिः स्त्रभावान्तरोलविश्व परिस्पन्दात्मकः पर्यायः परिणाम उच्यते । स परिणामः जोवस्य क्रोधमानमायालोभा२० दिकः । पुंद्गलस्य परिणामः वर्णगन्धरसस्पर्शादिकः । धर्मस्याधर्मस्य आकाशस्य व अगुरुलघुगुणवृद्धिहानिचिद्दितः परिणाम वेदितव्यः । विज्ञातस्तावत् पर्यायरूपः परिणामः कालस्योपकारः । sarat farmers aोपकारः कथ्यते - परिस्पन्दात्मकः चलनरूपः पर्यायः क्रिया कथ्यते । सा क्रिया द्विप्रकारा - प्रायोगिकी, वैनसिकी च । तत्र प्रायोगिकी क्रिया इलमुशलशकटादीनां भवति । वैश्रसिकी स्वाभाविकी मेघविद्युदादीनां भवति । सा द्विवापि २५ क्रिया कालव्योपकारः कथ्यते । विज्ञाता तावत् क्रिया । इदानीं परत्वापरत्वयोरवसरः । परत्वापरत्वे क्षेत्रकृते [ कालकृते ] व, कालोपकारप्रकरणात् सूत्रे कालकृते गृह्येते । तथाहि — अतिसमीपदेशवर्तिनि अतिवृद्ध व्रतादिगुणहीने चाण्डाले परत्वारो वर्तते, दूरदेशवर्तिनि गर्भरूपे व्रतादिगुणसहिते च अपरत्वव्यवहारो १ मुख्यका भा०, ब० ज० | २ वर्तते ताव० । ३ व पर्या- ६० अ० ज० । ४ अन्य प्रयुक्तता, आ०, ब०, ब० । ५ स्यादभी भ- ० ०, ० ६ न ता०, ० । द्रश्य परिणाम उच्यते पुद्गलस्य भा०, ब० ज० । पुलस्य परिणाम उच्यते वर्ण- ब० । ८ या द्वि- आ०, ब०, ० ९ - द्वे लक्षणकृते च भा ज०, ब० । स्त्रे क्षणकृतं च । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५।२३। पञ्चमोऽध्यायः १९५ वर्तते । ते द्वे अपि परत्वा उपरत्वे उक्तलक्षणे कालकृते ज्ञातव्ये । फालोपकार इत्यर्थः । परिणामादयश्चत्वारः सूर्यादिक्रियाकारण समयावलिकादिव्यवहारकालकृता ज्ञातव्याः। समयस्तु अणोरण्वन्तरविघटनलक्षणप्रमाणो मुखमालासोः चेक्षितमा । एतेनुविनायक महाराज पकाराः कालस्यास्तित्वं ज्ञापयन्ति । ननु वर्तनाग्रहणं यत् कृतं तेनैव पूर्यते परिणामादयस्तु पत्यारः वर्तनाया' भेदा एव किमिति परिणामादीनां ग्रह्ण पृथग विधीयते ? तद. ५ नर्थकम् । सत्यम ; परिणामादीनां प्रपश्नः कालद्वयसूचनार्थः। किन्तन कालद्वयम् ? निश्चयकालो व्यवहारकालश्च । तत्र निश्चयकालो वर्तनालक्षणः परिणामाविचतुर्लक्षणो व्यवहारकालः । उनल "दच्चपरियदृस्वो जो सो कालो हवेइ ववहारो। परिणामादी लाखो वट्टणलक्खो दु परमहो।" [द्रव्यसं० गा० २१] १० तत्र व्यवहारकाला भूतभविष्यत्वतमामलक्षणः गौणः निश्चयकाले, कालाभिधानं मुख्यम्। व्यवहारकाले भूतभविष्यत्वतंमानव्यपदेशो मुख्यः कालव्यपदेशस्तु गौणः । कस्मान्मुख्यः कस्माद् गौणः ? क्रियायुक्तसूर्यादिद्रव्यापेक्षत्वात् मुख्यः, कालकूतत्वात् च गौण इति । 'अथ धर्मस्याधर्मस्याकाशस्य पुदलम्य जीवस्य कालस्य चोपकाराः प्रोदिताः । १५ "उपयोगो लक्षणम्" [ त० सू० २।८ ] इत्यादिभिलक्षणञ्चोक्तम् , पुद्रलानां तु सामान्य'. लक्षणं प्रोक्तं विशेषलक्षणन्तु नोक्तं तदिदानी पुद्गलानां विशेषलक्षणमुच्यताम्' इत्युपन्याससम्भवे सूत्रमिदमाहुः-- स्पर्शरसगन्ध्रवर्णवन्तः पुद्गलाः ॥ २३ ॥ स्पृश्यते स्पर्शनं वा स्पर्शः । “अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्” [ का.. सू० ४।५।४ ] २० घश्य। पक्षे "भावे" [ का० सू. ४।५।३] घन् । रस्यते रसने वा रसः। गन्ध्यते गन्धनं या गन्धः । वर्ण्यते वर्णनं का वर्णः । स्पर्शश्च रसश्च गन्धश्च वर्णश्च स्पर्शरसगन्धवर्णाः, स्पर्शरसगन्धवर्णा विद्यन्ते येषां पुद्गलानां ते स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः । पूर्यन्ते गलन्ति घ पुद्गला, धातोस्तदतिशयेन यागः मयूरभ्रमरादिवत् । मन्तुरत्र नित्ययोगे यथा शीरिणी वृक्षाः वटादयः। पुद्गलाः स्पर्शादिगुणवन्तो भवन्ति । तत्र स्पर्शोऽप्रकार:-मृदुकर्कशगुरु. २५५ लघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षभेदान् । रसः पश्चप्रकार:-तिक्ताम्लकंटुमधुरकषायभेदात्। गन्धो द्विप्रकारः-सुरभिटुरभिभेदान् । वर्णः पञ्चप्रकार:-कृष्णानीलपीतशुक्ललोहितभेदात् । एते पुद्गलाना स्पर्शदयो मूलगुणभेदाः । ते च प्रत्येकं हिच्यादिसंयोगगुणभेदेन संख्येयासंख्येयानन्तभेदाश्च भवन्ति । लवणरसस्य मधुररसे अन्तर्भावो वेदितव्यः । अथषा सर्वेषां रसाना १ -या भवा एल आ०, २०, ज०६ -या भेद एव ता० | २ -मान्य ल- आर, घर, ज० | ३ -मरादिषुवत् आ०. व०, ज० । ४ चतुरन ताः। ५ - केदकम- भा०, २०, ज. | ६ संख्येयानन्तशो मे- आ, ब०, जे । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ तत्त्वार्थवृत्ती [५।२४ व्यञ्जको लवणरस इति कारणान् पञ्चस्वपि रसेष्वन्तर्भावः । येषु च जलादिषु एको द्वौ त्रयो या गन्धादयः प्रकटी न झायन्ते तत्र स्पर्शसद्भावात् अप्रकटाः सन्तीति निश्चीयते। ननु "रूपिणः पुद्गलाः" [५।५] इत्यत्र सूत्रे पुद्गलानां रूपगुणः प्रोक्तः, रूपगुणाविनाभावि नश्च रसादयो गुणाः तस्मिन्नेव सूत्रे संगृहीता इति कारणात् पुद्गलानां रूपादिमत्त्वं तेनैव ५ सूत्रेण सिद्धं किंमर्थमिदं सूत्रमनर्थकम ? इत्याह-सत्यम् ; "नित्यावस्थितान्यरूपाणि" [[४] इत्यस्मिन् सूत्रे धर्माधर्माकाशादीनां नित्यत्वादिनिरूपणे पुद्गलानामपि अरूपत्वप्राप्ती सत्यां तस्याः प्रतिषेधार्थ "रूपिणः पुद्गलाः" इति सूत्र तत्रोक्तम् "स्पर्शरसगन्धवर्णवन्ताः पुद्गलाः" इति तु सूत्रं पुद्गलानां परिपूर्णस्वरूपविशेषपरिमानार्थमुक्तं तेनानर्थक न भवति । १० अथ पुद्गलानां सम्पूर्णविशेषपरिज्ञाने सञ्जातेऽपि पुद्गलानां विकारपरिज्ञानमवशिष्टं मावर्तते, तदर्थ मन्त्रमिदमोविधिसागर जी महाराज शब्दवन्धसौदम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोधोतवन्तश्च ॥ २४ ॥ सूत्मस्य भावः सौक्ष्म्यम् , स्थूलस्य भावः स्थौल्यम् । शब्दश्च बन्धश्च सौदम्यं च स्थौल्यं घ संस्थानं च भेदश्च तमश्च छाया च आतपश्च उद्योतश्च शब्दबन्धसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थान१५ भेदतमश्छायातपोद्योताः, ते विद्यन्ते येषां पुद्गलानां ते शब्दधन्वसौदम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतयन्तः । एतर्दशभिः पुद्गलविकारः सहिता पुद्गला भवन्ति ।। तत्र तावच्छन्दस्वरूपं निरूप्यते । शब्दो ट्रिप्रकारः-भाषात्मकोऽभाषात्मकश्चेति । तत्र भाषात्मकोऽपि द्विप्रकार:--साक्षराऽनक्षरभेदान । तन्त्र साक्षरः शब्दः शास्त्रप्रकाशकः संस्कृताऽसंस्कृतात्मकः आर्यम्लेच्छव्यवहारप्रत्ययः। अनक्षरः शब्दो हीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरि२० न्द्रियपश्चेन्द्रियाणां प्राणिनां ज्ञानातिशयस्वभावकथामप्रत्ययः । ज्ञानातिश वस्तु एकेन्द्रियापेक्षया ज्ञातव्यः, एकेन्द्रियाणां तु ज्ञानमात्रं वर्तते अतिशयज्ञानं नास्ति अतिशयझानहेत्वभावात् । अतिशयज्ञानवता सर्वज्ञेन एकेन्द्रियाणां स्वरूपं निरूप्यते । स भगवान् परमातिशयज्ञानवान्, अन्यः पुमान् रथ्यापुरुषसदृशः नाममात्रेण सर्वशः हरिहरादिकः । अत्र केचित् सर्वक्षस्य अनक्षरात्मक शब्द प्रतिपादयन्ति', "नो वर्णात्मको २५ वनिः" [ ] इति वचनात् । तन्न सङ्गच्छते ; अनझरात्मकेन शब्देन अर्थप्रतीतरभावात् । तथा चोक्तम् "देवकृतो ध्वनिरित्यसदेतद् देवगुणस्य तथा विहतिः स्यात् । साक्षर एव च वर्णसमूहान्नैव विनार्थगतिर्जगति स्यात् ॥" [ ] भाषात्मकः सर्थोऽपि साक्षरानक्षररूप: प्रायोगिक इत्युच्यते पुरुषप्रयोगहेतुत्वात । १ प्रकटतया न शा-० । प्रकटज्ञानं शा- भा०, ब० 1 २ -ण प्रो-ता०, व.। ३ –न्ति नष्टयणात्मक शब्दं प्रतिपादयन्ति भा०प०, ज० । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचमोऽध्यायः १९७ भाषात्मकोपि द्विप्रकारः --- प्रायोगिक वैश्रसिकभेदात् । पुरुषप्रयोगे भवः प्रायोगिकः, विश्वसा भवभावेन सञ्जातः श्रसिकः । विश्वसा इत्ययं शब्दः आकारान्तोऽव्ययं स्वभावार्थवाची । रात्र प्रायोगिकश्चतुष्प्रकारः -- ततविततघनसुषिरभेदान् । तत्र ततः शब्दः चतननेन सञ्जातः । योऽसौ पुष्करः पटहः भेरी दुन्दुभिः दर्पुरो जवावादित्र विशेष: 'र बाध' इति दे श्याम्, इत्यादिकः तत इति कथ्यते । विततः शब्दः तन्त्री विहितवीणायुद्भवः । सुघोषैः ५ किमरैश्च उल्लपित इत्यादिको वितत उच्यते । घनः शब्दः तालकंसवाल 'नादिन्यायभिघातजातः । सुषिरः शब्दः कम्बुवेणुभंभाकालादिप्रभवः सुषिर उच्यते || १ || ५/२४ अथ बन्धसम्बन्धः । बन्धो द्विप्रकारः - प्रायोगिक वैश्रमिकभेदात् । तत्र प्रायोगिकः पुरुषयोः | अजीवविषयजीवाजीच विषयभेदात् सोऽपि द्विप्रकारः । तत्र अजीवविषय बन्धः दारुलाक्षादिलक्षणः । जीवाजीवविषयः कर्म नोकर्मबन्धः । श्रसिको बन्धः १० स्वाभाविको बन्धः स्निग्धरूक्षत्वगुणप्रत्ययः शक्रचापमे घोल्कातडिदादि विषयः ॥ २ ॥ अथ सौक्ष्म्यमुच्यते । वो शिकारम् अन्यक्षिकभेदात । तत्र परमाणुनां सौक्ष्म्बम् अन्त्यमुयते । अपेक्षायां भयमापेक्षिकम् । कपित्थबिल्वाद्यपेक्षया आमलकादीनि सूक्ष्माणि, आमलकारापेक्षया ब्रदरादीनि सूक्ष्माणि बदरायपेक्षया कक्कोलादीनि सूक्ष्माणि एवं मरिचसर्पपासुरीप्रभृतीनि सूक्ष्माणि ज्ञातव्यानि ॥ ३ ॥ अथ स्थस्यमुच्यते । तदपि द्विप्रकारम् अन्त्यापेक्षिकभेदात् । तत्र जगद्व्यापी महास्कधः अन्यस्थूलः । राजिका सर्वपमश्चिकको लबदरामलकबिल्व कपित्थादीनि अपेक्षा स्थूलानि ||४|| अथ संस्थानमुध्यते । तदपि द्विप्रकारम्-इत्थंलक्षणानिलक्षणभेदात् । तत्रस्थंलक्षणं संस्थानं वर्तुलत्रिकोणचतुःकोणदीर्घपरिमण्डलादिकम् । इदं वस्तु इत्थम्भूतं वर्तते इति वक्तुमशक्यत्वात् अनित्थंलक्षणं संस्थानमुच्यते । तत्तु मेघपदलादिषु अनेकविधं वेदितव्यम् ||५|| १५ 1 अथ तो निरूप्यते । प्रकाशविपरीतं चक्षुःप्रतिबन्धनिमित्तं तमोऽपि पुद्रलविकारः ||७|| प्रकाशावरणकारणभूता छाया द्विप्रकाश एका वर्णादिविकृतिपरिणता । कोऽर्थः ? गौरादिषर्ण परित्यज्य श्यामादिभावं गता । द्वितीया छाया प्रतिच्छन्दमात्रात्मिका ॥ ८ ॥ २० अथ भेदस्वरूपं निरुध्यते । भेदः पट्प्रकारः - उत्करः चूर्णः खण्डः चूर्णिका प्रतरोऽणु'नं चेति । दार्वादीनां क्रकचकुठारादिभिः उत्करणं भेदनम् उत्करः । यवगोधूमचणकादीनां कणिकादिकरणं चूर्णमुच्यते । घटकरकादीनां भित्तशर्करादिकरणं खण्डः प्रतिपाद्यते । अतिसूक्ष्मातिस्थूलवज्र्जितं मुद्रमापराजमापरिमन्थकादीनां ददनं चूर्णिका कथ्यते । मेघपटलादीनां विघटनं प्रतर उच्यते । अतितप्तलोह पिण्डादिषु द्रुघणादिभिः कृट्यमानेषु अग्निकणनि- २५ र्गमनम् अणुचदनमुच्यते ॥ ६ ॥ १ - नादिनाथ - ० ० ० २ प्रयोगाद्भवी आ० ० ० १ ३ -सुपारी० अमुरी कृष्णिका । ४ अपेक्ष्यस्यू और द० ज० । ५ दशको इरिमन्थकः । ६ प्रति forseer | real प्राकृतगाथायाः संस्कृतन्दरूपेण छाया वा । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ༥ १० तत्त्वार्थवृत प्रकाशलक्षणः सूर्यबहिः प्रभृतिनिमित्त आतप उच्यते ॥ ९ ॥ ज्योतिरङ्गणरत्नविधुजातः प्रकाश उद्योत उच्चते ॥ १० ॥ एते शब्दादयो दश दा पुद्गलद्रव्यविकारा वेदितव्याः । चकारात अभिघातचोदन मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज नादयः मुद्गल परिणामाः परमागमसिद्धाः समुचिता ज्ञातव्याः । अथेदानी पुलानां प्रकारः निरूप्यते--... १५ १९८ अणवः स्कन्धाश्च ।। २५ ।। प्रदेशमात्रभाविना स्पर्शादिपर्यायाणामुत्पत्ति सामर्थ्येन परमागमे अण्यन्ते शक्यन्ते कार्यलिङ्गं विलोक्य सद्रूपतया प्रतिपाद्यन्ते इति अणत्रः " सर्वधातुभ्यः जः " [ तथा चोक्तम् ] "अणवः कार्यलिङ्गाः स्युः द्विस्पर्शाः परिमण्डलाः | एकवर्णरसा नित्याः स्युरनित्याश्च पर्ययैः ॥” [ [ ५/२५ ] ननु येऽतिसूक्ष्मा अणst वर्तन्ते तेषांक आदि को मध्यः कश्चान्तः ? सत्यम् तेषां स्व एव आदिः स्व एव मध्यः स्व एवान्त “आद्यन्तवदेकस्मिन्" [ पा० सू० १ १/२४ ] इति परिभाषणात् । तथा चोक्तम् "अत्तादि अत्तमनं अतंतं व इंदिए गिज्झं । जं दव्वं अविभागी तं परमाणु वाणाहि ||" [नियमसाग० २६ ] स्थूलत्वेन प्रहृणनिक्षेपणादिव्यापारं स्कन्धन्ति गच्छन्ति ये ते कन्धा इत्युच्यन्ते । क्वचित् वर्तमाना किया उपलक्षणत्रशात् रुद्धिं प्राप्नोतीति कारणान ग्रहणनिक्षेपणादिव्याणामनुचितेष्वपि द्रयणुकादिषु स्कन्धेषु स्कन्धसंज्ञा वर्तते । ननु पुद्गलानामनन्ता २० भेदा वर्तन्ते अणुस्कन्धभेदतया शिकारत्वं कथम् ? सत्यम्; अणव इत्युक्त अणुजातितया सर्वेऽपि अणवो गृहीताः स्कन्धजातितथा सर्वेऽपि स्कन्धा गृहीताः । ननु जातावेकवचनं भवति बहुवचनं कथम् ? सत्यम्; अणून स्कन्धानां च अनेक भेदसंकथनार्थं बहुवचनं वर्तते । त 'अणुस्कन्धाश्च' इति एकमेव पदं किमिति न कृतम् ? अणयः स्कन्धाश्चेति दाभिधानं किमर्थम् ? सत्यम् मेदाभिधानं पूर्वोक्तसूत्रद्वयभेदसम्बन्धनार्थम् । तेनायमर्थ:२५ अत्रः स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः स्कन्धास्तु शब्दवन्ध सौम्यस्थौल्य संस्थानभेद तमश्छायातपो द्योतन्तश्च तथा स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तश्च स्कन्धा भवन्ति । चकारः परस्परं समुच्चये वर्तते । तेनायमर्थ:-न केवलम् अनय एत्र पुद्गलाः किन्तु स्कन्धाश्च पुद्गला भवन्ति १ समुदिता आ०, ब० ज० २ साध्यन्ते श्र० ज‍ | ४ यांमध्ये आज | ५ स्कन्दन्ति २० । ज० । ७ परस्परसनु ब० । ३ प्रतिपद्यन्ते आ०, ब०, ६ भेदाः अत्र आ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५।२६-२७] पञ्चमोऽध्यायः निश्चयव्यवहारनयद्वयकमादित्यर्थः । निश्चयनयादणव एव पुद्गलाः, व्यवहार नयात् स्कन्धा अपि पुद्गला भवन्तीत्यर्थः । अथ पुद्गलपरिणामः अशुरूपः स्कन्धरूपश्च वर्तते । असानादिवर्तते माहोम्बित् सादिरस्ति ? उत्पत्तिलक्षणत्वान सादिरजी क्रियते, तहिं किनिमित्तमाश्रिस्योत्पद्यन्तेऽयत्रश्च (णवः ) किनिमित्तमाश्रित्योत्पद्यन्ते स्कन्धाश्चेति प्रश्ने नत्र तावत् स्कन्धानामुत्पत्तिमिमित्त- ५ संसूचनार्थ सूत्रमिदमाहुः भेदसङ्घातेभ्य उत्पद्यन्ते ॥ २६ ॥ भेदश्च सयातश्च भेदसंघातश्च भेदसंघातास्तेभ्यः भेदसंघातेभ्यः, रूपे रूपं प्रविष्ट "सरूपाणामेकशेषः" [पा० सू. १।२।६४] इति वचनान् भेदसङ्घातशब्दलोपः । उत्पद्यन्ते जायन्ते स्कन्धा इत्यर्थः । संघातानां द्वितयनिमित्तवशात विदारणं भेदः । भिनानाम् एकत्र ? मेलापका संघातः । भेदात् संघातान् समच कन्धाच्वाईपी सविसमस्यामधीहाराज द्वयोरजोः मेलापकादेकत्रीभवनान् द्विप्रदेशः स्कन्धः साचते। द्विप्रदेशस्य स्कन्धस्य एकस्य चाणोर्मेलापकास्त्रिप्रदेशः स्कन्ध उत्पाते । बयाणां वा भिन्नानामागूनां मेलापकास्त्रिप्रदेशः स्कन्धो जायते । द्विप्रदेशस्य स्कन्धस्य अपरस्य च क्षिप्रदेशस्य' स्कन्धस्य मलापकाचतुःप्रदेशः स्कन्धः सजायते । अधया त्रिप्रदेशस्य स्कन्धम्य एकस्य चाणार्मेलापकाच्चतुःप्रदेशः १५ स्कन्धः सञ्जायते। अथया चतुर्णाम् अणूनां भिन्नानां मेलापकाच्चतुः प्रदेशः स्कन्धः सञ्जायते 1 त्रिप्रदेशस्य स्कन्धस्य विप्रदेशस्य च स्कन्धस्य एकत्रीभवनात् पञ्चप्रदेशः स्कन्ध उत्पद्यते । 'चतुःप्रदेशस्त्र स्कन्धस्य कस्य चाणोमें लापकान पञ्चप्रदेशः स्कन्धः सञ्जायते । पश्चानामणूनां या भिन्नानां मेलापकात् पञ्चप्रशः स्कन्धः सञ्जायते । इत्यादिसंख्येयानामणूनामसंख्येयानामनाम, अनन्तानाम् अणूनां च मेलापकान् संन्यप्रदेशः असंख्येयप्रदेशः २४ अनन्तप्रदेशः अनन्तामन्तप्रदेशश्च स्कन्ध उत्पयते । एतेषामेव स्कन्धानां पूर्वरीत्या भेदात् नाना स्कन्धा उत्पद्यन्ते द्व-यणुफः स्कन्धो यावत । यथा भेदान संघानाच स्फन्धोत्पत्तिनिगदिता तथा भेदसंघाताभ्याम् एकसमयोत्पन्नाभ्यां विप्रदेशादयः स्कन्धाः सम्प्रजायन्ते अन्यस्माद् भेदेन अन्यस्य मेलाप केन तदुभयप्रदशः स्कन्ध उत्पद्यते इत्यर्थः। अथ यदि स्कन्धा एवमुत्पद्यन्ते तहि अगुः कथमुत्पद्यते इति प्रश्ने सूत्रमिदमाहुः- २५ भेदादणुः ।। २७ ॥ अणुरु पहाते । कस्माद् ? भेदात् । न संघानात् न च भेदसंघाताभ्यामणुरु पद्यते किन्तु भेदादेवीगुरुत्पद्यते इति नियमार्थमिदं सूत्रम "सिद्ध सत्यारम्मो नियमाय" [ ] इति" वचनात् । १ -स्य न - भा०, ब०, ज०१२ मंजाय -- भा., १० ज०, व । ३ -नुत्व- भा०, प, जः । ४ -देवोत्य- प्रा०, म., ज० । ५ “सिद्ध सत्यारम्भी नियमार्थः” न्यायसं० ५० ५५ । "सिद्ध विधिरारभ्यमाणं। ज्ञापकायों भवति" -41. म. भा. १९१३ । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तार्थवृत्ती [ ५२८-३० अथ स्कन्धानामुतिः संघाताद् भवति, “मेदसंघातेभ्यः उत्पद्यन्ते" इत्यत्र भेदग्रहणं सार्गदर्शक :- अरचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज निरर्थकम् नैवम् दग्रहणे प्रयोजनमस्ति तदर्थमेव सूत्रमिदमुच्यत i ; १५ २०० भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः ॥ २८ ॥ भेदश्च संघाश्च भेदसंघातौ ताभ्यां भेदसंघात । भ्याम् । चक्षुषा गृह्यते चातुषः चक्षु५ प्रीः स्कन्ध इत्यर्थः । अनन्तानन्ताणु मेलापकजातोऽपि कश्चित् स्कन्धः चाचुषः चक्षुर्यायो भवति कश्चित् कन्धोऽचाचुषो भवति । तयोर्मध्ये योऽचाक्षुषः स चाक्षुषः कथं भवति ? सूक्ष्मपरिणामस्कन्धस्य भेदे सति सौक्ष्म्यस्यापरिहारात् एकत्र अचानुषत्वमेव द्वितीयस्तु अचाक्षुषः स्कन्धः अन्यसङ्घातेन चाक्षुषेण मिलितः सन् सूक्ष्मपरिणामपरित्यागे सति स्थूलत्वोत्पत्तौ सत्यामचाक्षुषोऽपि चानुषो भवति । तेन 'भेदसङ्घातेभ्यः उत्पद्यन्ते' इत्यत्र १० भेदग्रहणमनर्थकं न भवति । अत्रार्थ भावः - केवलात् भेदात् सूक्ष्मस्य स्कन्धस्य चानुपत्वं न भवति, किन्तु चानुषेण सह मिलितस्य सूक्ष्मस्य चाक्षुपत्वं भवति । अथ धर्माधर्मापुद्रलालजी द्रव्याणां निजनिजलक्षणानि विशेषभूतानि विद्विमास्वामिना प्रोक्तानि षण्णामपि सामान्यलक्षणमद्यापि नोकं वर्तते, तत्प्रतिपत्त्यर्थ सूत्रममिदं सूचयते सद् द्रव्यलक्षणम् ॥ २९ ॥ द्रव्याणां लक्षणं द्रव्यलक्षणं द्रव्यस्य वा लक्षणं द्रव्यलक्षणम् । सद् भवति । कोऽर्थः ? यन् सन् विद्यमानं सन् द्रव्यं भवति, यत् सत् नास्ति तत् द्रव्यं न भवति । तत्सत्वं सर्वेषामेव याणां वर्तत एव । अथ सदेव तावत् पूर्वं न ज्ञायते यत् द्रव्याणां लक्षणभूतं सामान्यतया वर्तते, तत्परि २० ज्ञानार्थं सूत्रं वक्तुमर्हन्ति भवन्त इति प्रश्ने सूत्रमिदमाद्दुः उत्पादव्ययौभ्ययुक्तं सत् ॥ ३० ॥ चेतनद्रव्यस्य अचेतनद्रव्यस्य वा निजां जातिममुखतः कारणवशात् भावान्तरप्राप्तिः उत्पादनमुत्पादः, यथा मृत्पिण्डविघटने घटपर्याय उत्पद्यते । पूर्वभावस्य व्ययनं विघटनं दिगमनं विनशनं व्यय उच्यते, यथा घटपर्यायोत्पत्तौ सत्यां मृत्पिण्डाकारस्य व्ययो भवति । २५ अनादिपरिणामिकस्त्रभावेन निश्चयनयेन वस्तु न व्येति न चोदेति किन्तु ध्रुवति स्थिरीसम्पयते यः स धुत्रः तस्य भावः कर्म वा श्रव्यमुच्यते यथा मृत्पिण्डस्य व्यये घटपर्यायोत्पत्ताaft मृत्तिका मृत्तिकान्वयं न मुद्धति, एवं पर्यायस्योत्पादे व्यये च जातेऽपि सति वस्तु भुषत्वं न मुञ्जति । उत्पादश्य व्ययश्च श्रव्यं च उत्पादव्ययतव्याणि तैर्युक्तमुत्पादव्ययत्रव्ययुक्तम् । यद्यस्तु उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं भवति तत् वस्तु सद् भण्यते । यद् वस्तु उत्पादव्ययधौन्ययुक्तं १ नैव मे १० । २ - मिदमुल्य आ०, ४०, ज० । ३ - वक्तु भ० ० ० । ४ -नं त्रिग- तार, ० ५ - व्यमित्युच्य- अ०, ब०, जे० । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५।३१] पञ्चमोऽध्यायः न भवति तद् वस्तु नास्ति। ननु भेद सति युक्तशब्दो दृश्यते यथा 'देवदासो दण्डेन युक्तो वर्तते' इत्युक्ते देवदत्तो दण्डाद्भिन्न इति ज्ञायते, तथा च सति उत्पादव्ययध्रौव्याणामभायो भवति व्यस्य या अभावः, युक्तमुकं भवता; उत्पादादीनामभेदेऽपि सति कश्चिद्भदेन येन युक्तशब्दोऽत्र दृष्टः, यथा 'स्तम्भः सारयुक्तः' इत्युक्ते न सर्वधा स्तम्भान मारो भिन्नो वर्तते किन्तु योरयविनाभावोऽस्ति । तेनायमर्थः-उत्पादव्ययध्रौव्यसहितं सभ्यते : ५ अथवा, 'युजिर योगे' इति रौधादिको धातुर्न भवति किं तईि 'युज समाधौ' इति देवादिकोऽयं धातुः । नथा सन्नि उत्पादन्वयध्रौव्ययुक्तम् उत्पादध्ययध्रौव्यसमाहितम् उपादच्ययत्रौव्यात्मकम उमानदाचोकमयमचाया यशाया बरसतत सुदुम्यते । तथा चोक्तम्-- "स्थितिजनननिरोधलक्षणं चरमचरं च जगत् प्रतिक्षणम् । इति जिन सकलनलाञ्छनं बचनमिदं वदनां बरस्य ते ॥" ५० बृहस्थ एलो११४] अस्मिन् सूत्रे उत्पादव्यन्यौव्याणि व्यस्य लक्षणानि उक्तानि । द्रव्यं तु लक्ष्यं प्रोक्तम् । पर्यायार्थिकमयेन उत्पादादीनां परस्परमर्थान्तरभावः, तेनैव च नयेन द्रव्यात् उत्पादादीनामर्थान्तरभावः । द्रव्याथिकनयेन तु परस्परं व्यानरेको नाम्नि किन्नु नन्मयन्यं वर्तते । अनया रीत्या लक्ष्यलक्षणयोर्भावाभावौ सिद्धाविति । ____ अथ "नित्यावस्थितान्यरूपाणि" [५।४) इति या पूर्षमुक्तं तन्त्र किं नित्यं तदस्माभिर्न ज्ञायते इति प्रश्ने नित्यलक्षणसूचनपरं "सूत्रमाहुः नद्भाचान्ययं नियम ॥ ३१ ।। भत्रनं मात्रः तस्य भाषस्तद्भावः, तद्भावेन अव्ययमविनाशं ध्रुव तद्भावाव्ययं नित्यमुध्यते । तद्भावः कः ? प्रत्प्रभिज्ञानहेतुता तद्भावः । प्रत्यभिन्ना नहेतुता का ? 'तवेदम्' इति २० विकल्पः प्रत्यभिज्ञानम् । तत्प्रत्यभिज्ञानमकस्मान्न भात निहें नुक न भवति । यो यस्य हेतुः स वझावः । येन स्वभावेन वस्तु पूर्व दृष्टं तेनैव स्वभावेन पुनरपि तदवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते उपचर्यते सक्कलप्यते, यथा 'मृपिण्डे दृष्टस्य द्रव्यमृत्तिकालक्षणस्य भावः मृत्पिण्डष्टरूपपावस्थानम-घटाकारकालेऽपि मृत्पिण्डद्रव्यस्याबस्थानम् , घटं दृष्ट्वा तदेवेदमिति-तदेव मृपिण्डद्रध्यमिनि प्रत्यभिज्ञानेन प्रतीयते । यथा वृद्धं कष्ट वा स एवायं शिशुः योऽस्माभिः २५ पूर्वमेव दृष्टः, अनया रोत्या यदःययं तन्नित्यमुच्यते । यदि अत्यन्त निरोधी भवति मिनाशः स्यान, तदा अभिनषप्रादुर्भावमात्रमेव स्यान मूलद्रव्यविलोपो भवति । घटाशीकारे १ -ति कस्माद् द्रव्यस्य चाभा-पः। -ति द्रव्वत्य चाभा-- ना० । परमय- आआ, Te, । ३ नया लभणयो-- श्रा०, २०, ०, व० । ४ नार्थ परं मृत्रमाहुर्भगवन्तः ०. जा। ५ -सूत्रमिदमाहुः वः । ६ -ति स्मरणमिति विक. ता', 'मा, म.. ज. । ७ मुस्विट-40 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ नवार्थवृत्ती माशिमृत्तिकाचावासाहजिम महाशीला बिलुप्यते । तस्मात् कारणात तभ वेन नित्यं निश्चीयते । मृत्पिण्डात् घटपर्यायस्तु उपसर्जनीभूतः अप्रधानभूतः, तद्भावस्तु प्रधानभूतः तेन नित्यमिति । नन्नित्यं कश्चिन वेदितव्यम्-केनचिन्मयप्रकारेण ज्ञातव्यम्-द्रव्यार्थिकनयन मातव्यमित्यर्थः । सर्वथा नित्यत्वे अन्यथाभाबस्याभावः त्यास , ५ तथा मति संसार-संसारनिनिवृत्तिहेतृभूतप्रक्रियाविरोधो भवति । अथ, ननु तव नित्यं नदेवानित्यमिनि बिरुद्धमेतत्-चेन्नित्यमङ्गीक्रियते तर्हि उत्पादव्यययोरभावः स्यात् , एवं सत्यनित्यताया विनाशः स्यात् , चेदनित्यमङ्गीक्रियते तहि स्थितेरभावः स्यात-ध्रौव्याभावो भवेन , तथा मनि नित्यतायाः विघातः स्यात्; युक्तमुक्तं भवत्ता; अस्येव एकवस्तुनि नित्यानित्ययोविरोधस्योच्छेदनार्थ स्यानादिभिरिदं सूत्रमुच्यते अर्पिमानपिनसिद्ध ।। ३२ .: अर्पणमपितम् , न अपंगमनम्पितम् , अर्पितं च अनर्पितं च अर्पितानर्पिते । अर्पितानर्पिताभ्यां सिद्धिः अर्पितानर्पितसिद्धिः नस्श अर्पित्तानपितसिद्धः कारणात् नित्यानित्ययोः कवनं भवति, तन्त्र नास्ति विरोध इत्यर्थः । अस्यायमर्थः-वस्तु तावदनेकान्तात्मकं वर्तते । तस्य बस्तुनः कार्यवशात् यस्य कस्यचित्स्वभावस्य प्रापितमर्पितं प्राधान्यम् उपनीतं विवक्षित१५ मिति यावत् , नापितं न प्रापितं न प्राधान्यं नोपनीतं न विवक्षितमनर्पितमुच्यते प्रयोजना भावात् , सतोऽपि स्वभावस्याविवक्षितत्वात । उपसर्जनीभूतमप्रधानभूतम् अपितमुच्यते, गथा क्रश्चिन् पुमान् पिता इत्युच्यते । स पिता कस्यचिन पुत्रस्य विवक्षया पिता भवति । स एव पिता पुत्र इत्युच्यते, नत्रापि पितुरपि कश्चित् पिता वर्तते, तदविवक्षया स पब पिता पुत्र इत्युच्यते । तथा स एव पुत्रत्वेन विवक्षितः पिता भ्रातापि कथ्यते । कस्मात ? तस्य (पुत्र२० स्वेन पितृ वेन विवक्षितस्य पुंसोऽन्यः कश्चिद् भ्राता वर्तते, तदपेक्षया स एव पुमान् भ्रातापि भवति । तथा भ्रातृत्वेन पुत्रत्वेन पितृत्वेन विवाहिस्तः पुमान् भागिनेय इत्युच्यते तस्य मातु. लापेक्षया। इत्यादयः सम्बन्धा एकस्यापि पुरुषस्य जनकरय जन्यत्वादिकारणाट बह्यो भवन्ति, नास्ति तत्र विरोधः, तथा द्रव्यमपि सामान्यचित्र क्षया अर्पणया नित्यमुच्यते, विशेषविवनया विशेषार्पणया नित्यमपि वस्तु अनियमिल्युच्यते, अनित्यताकारणसन्दर्शनान् २५ मृत इत्यादिवत् , तत्रापि नास्ति विरोधः । तौ च सामान्यविशेषी केनचिन्मयप्रकारेण कश्चिद् भेदा (भेदाभेदा) भ्यां व्यवहारकारणं भवतः । एवम् अर्पितानर्पितसिद्धिवशान्नित्यत्यानित्यत्वे नौलत्यानीलत्वे एक-यानेकत्वे भिन्नत्वाभिन्नत्वे अपेक्षितवानपेक्षितरवे दैवत्वपौरुषत्वे पुण्य १ लोकस्य व्य- भा., ब, ज, व० । २ -नोऽपि वि- आ°, ब०, ज०, ता० । ३ -ति संसारविनि- भा०, १०, ज०, २०। ४ -तक्रि- आ०, २०, ज०, व। ५ -चेहनिग्यमेवा-०।६ पुत्रवेन पितापितृत्वेन व० | पुत्रपितृस्वेन आ०, १०,०३७ -न भवति भा- आ०, २०,०। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०५३३-२४ ] पञ्चमोऽध्यायः पापले इत्यादयो धर्म्मा एकस्मिन् पदार्थों याजयितव्याः । अथ परमाणून परस्परं बन्धनिमित्तसूचनपरं सूत्रमुच्यतेस्निग्धरुत्वाद्वन्धः ॥ ३३ ॥ स्नियति स्म बहिरभ्यन्तरकारणयवशात् स्नेहपर्यायप्रादुर्भावाशिषः सञ्जातः स्निग्ध इत्युच्यते । तथा बहिरभ्यन्तर कारण दुयवशात् रूक्ष परिणाम प्रादुर्भावात् रुक्षयति परुषो भवति ५ रूक्षः । रुक्षणं वा रूम्नः । स्निग्धव रूक्षच स्निग्धरुक्षौ स्निग्धरुक्षयोर्भायः स्निग्धरूक्षत्वं तस्मात् स्निग्धरूक्षत्वात् — चिकणलक्षणपर्यायपरुपलक्षणपर्याय हेतुत्य । दित्यर्थः । बन्धो भवति-संश्लेष उत्पद्यते यणुकादिपरिणामः स्कन्ध उत्पद्यते । द्वयोर्द्वयोः परमाण्वोः स्निग्धरुक्षयोः अन्योन्य संश्लेपलक्षणेपवसति दयाभाति वा अण त्र्यणुकरऋन्धो भवति । इत्यादिरीत्या सङ्ख्येयास ह्येयानन्तानन्तप्रदेशस्कन्धो भवतीति वेदितव्यः । तत्र १० स्नेहगुण एकविकल्पों द्विविकल्प स्त्रिविकल्पचतुर्विकल्प इत्यादिसख्येयविकल्पः असङ्ख्येयविकल्पः अनन्तविकल्पः । एवं रूक्षगुण एकद्वित्रिचतुः सङ्ख्ये ग्रासख्येयानन्तविकल्पः | एवंविधगुणसंयुतः परमाणवो वर्तन्ते । यथा उदकस्नेहात् अजाक्षीरमधिकस्नेहम्, अजाक्षीरात् अजाघृतमधि करनेहम् एवं गोक्षीरघृते अधिकरने हे गोक्षीरान्महिषीरमधिकस्नेहम्, गोघृतान्महिषीघृतमधिकस्नेहम्, महिषी क्षीरात् क्रमेलिकाक्षीरमधिकः स्नेहम्, महिषीघृतान्मयी - १५ घृतमधिकस्नेहं वर्तते । तथा यथा पांशुकणिकाभ्यः शर्करोपला अधिकरूताः, तेभ्योऽपि पाषाणश्रादयोऽधिकरूक्षगुणाः, तथा पुद्गलपरमाणवोऽपि अधिकाधिक स्निग्धरूक्षगुणवृत्तयः कर्पेणानुमीयते । अथ स्निग्धरूक्षत्वगुणहेतुको अन्ध उक्तस्तत्र स्निग्ध रूक्षगुणयोविशेषो नोक्तः, सामायः प्रसक्ते सति अनिष्टगुणप्रतिषेधार्थं सूत्रमिदमुच्यते २०३ ——... न जघन्य गुणानाम् ॥ ३४ ॥ I 'fterrearers Te': इत्यत्र सामान्येन बन्ध उक्तः । 'न जघन्यगुणानाम्' इवं सूत्रन्तु अनिष्टगुण निवृत्त्यर्थं वर्तते । अस्यैव सूत्रस्य तावद् व्याख्यानं क्रियते तथाहि अघनमेव जघन्यम्, शरीरावयवेषु फिल जवमं निकृष्टोऽवयवः तथाऽन्योऽपि यो निकृष्टः स जघन्य उच्यते । " यदुगवादितः " [ का सू० २६/११ ] इत्यनेन सूत्रेण यत् प्रत्यये सति जधन्यशब्दः २५ सिद्ध | "केचित् शाखादित्वात् यं प्रत्ययं मन्यन्ते, यथा शाखायां भवः शाख्यस्तथा जघने भयो जघन्यः । गुणशब्दस्तु अनेकार्थः कचिदद्मधानेऽर्थे यथा “गुणप्रधानार्थमिदं हि वाक्यम्" [बृहत् श्लो०] अप्रधानार्थमित्यर्थः । यथा अस्मिन् राज्ये वयं गुणभूता अप्रधानभूता २० १ याजितव्याः अ० ०, ० 1 एतेषां स्वावादष्ट्या विशेषपरिज्ञानार्थम् आप्तमीमांसादयो विलोकनीयाः । २ - दिकारणनामस्क- आ०.०० । ३ संश्लेषणे वा० ० ४ षणु अo, ०ज० । ५ - ० ६ सूत्रमिदमाहुर चार्याः ० ७ पाणिनीयाः Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज नत्वार्थवृत्ती [५.३५ इत्यर्थः। कचित् 'राजो-द्विगुणा रज्जुः समावयवा इत्यर्थः। द्वे रज्जू एकत्र मेलिते बुनिते इत्यर्थः। कचित् द्रव्ये गुणशब्दो वर्तते यथा गुणवान् मालषो देशः, गोशस्यादिप्रचुरद्रव्यवानित्यर्थः । कचिदुपकारे गुणशब्दो वर्तते यथा गुणज्ञोऽयं विद्वान् कृतोपकौरज्ञ इत्यर्थः । कचित रूपादिषु गुणशब्दो वर्तते, यथा गुणा रूपरसादयः। कचिद् दोषविपरीतार्थ यथा गुणवान साधुः शानादिमानित्यर्थः । कचिद् विशेषणे किं गुणोऽयम् । कचिद् भागे यथा द्विगुणेषु चणफेषु च त्रिगुणा गोघूमाः, द्विभागेषु चणकेषु त्रिभागा गोधूमा इत्यर्थः । एवं शौर्यादिसन्ध्या दिसत्त्वादितन्तुर्मेपकारप्रत्यनादिपु गुणशब्दो ज्ञातव्यः । एतेष्वर्थेषु अत्र भागार्थो गुणशब्दो ज्ञातव्यः । तेनायं विग्रहः-जघन्या निकृष्टा गुणा भागा येषा: ण्वादीनां ते जघन्यगुणाः तेषां जयन्यगुणानाम् , बन्धो न भवति। तरकथम् ? एकगुणस्निग्धस्य एकगुणेन स्निग्धन द्विगुणेन त्रिगुणेन चतुर्गुणेन १० पञ्चगुणेन संख्येयगुगेन असम-ख्येयगुणेन अनन्तगुणेन वा स्निग्धेन बन्धो न भवति । तथा एकगुणस्निग्धस्य एकगुणेन रूक्षेपण अन्धो न भवति । एवं द्वित्रिचतुःपञ्चादिसंख्येयगुणासंस्थेयगुणानन्तगुणरूक्षेण वा बन्धो न भवति । एवमे कगुणरूक्षस्य एकगुणस्निग्धेन द्विगुणत्रिगुणचतुःपनादिसल्येयगुणासल्येयगुणानन्तगुणेन ग्निग्धेन वा अन्धो न भवति । अत्रा यमर्थ:-जबन्यगुणस्निग्धजघन्यगुणरूक्षी विहायापरेषा स्निग्धानां रूक्षाणां चान्योन्यं अन्धोऽ१५ स्तीति वेदितव्यम् । अथ अस्मिन्नपि सूत्रेऽविशेषप्रसङ्गोऽबन्धस्य, केषां बन्धप्रतिषेधो भवतीति विशेष. ज्ञापनार्थ सूत्रमिदमाहुः गुणसाम्ये सदृशानाम् ।। ३५ || गुणानां साम्यं गुणसाम्यं तस्मिन् गुणसाम्ये भागतुल्यत्वे सति, सहशानां तुल्यजाती२० यानां परमाणुनां बन्धो न भवतीति" शेषः। अस्यायमर्थ:-द्विगुणस्निग्धानाम् द्विभागस्नि ग्धानां परमाणूनां द्विगुणस-द्विभागरूः परमाणुभिः सह बन्धो न भवति । त्रिगुणस्निग्धानां त्रिभागस्निग्धानां परमाणूनां त्रिगुणरूक्षैत्रिभागरूः परमाणुभिः सह बन्धो न भवति । तथा द्विगुणस्निग्धानाम्-द्विभागस्निग्धानां द्विगुणस्निग्धानां द्विगुणस्निग्धः द्विभाग स्निग्धेः परमाणुभिः सह बन्धो न भवति । तथा द्विगुणहक्षाणां विभागरूक्षाणां द्विगुणरूक्षः २५ द्विभागरूतैः सह बन्धो न भवति ! ननु गुणसाम्ये भागतुल्यत्वे यदि बन्धो न भवति तर्हि 'सहशानाम्' इति पदं व्यर्थ साम्यशब्दनव सहशार्थप्रतिशदनात ; सत्यम् ; 'सदृशानाम् इति प्रणं गुणवैषम्ये बन्धो भवतीति परिज्ञानार्थम् । तेन गुणवैषम्ये बन्धो भवतीति सम्प्रत्ययः सम्यकप्रतीतिः उत्तरसूत्रे करिष्यते इति । अथ विषमभागानां तुल्पजातीयानामतुल्यजातीयानाम् अनियमात्, बन्धे प्रसक्ते सति ३० विशिष्टबन्धसम्प्रत्ययनिमित्तं सूत्रमिदं त्रुवन्त्याचार्या: १ रज्जी ता०,व। २ गोधूममस्या- मा०, ब०, जः। ३ कार - भा., 40, ज०। ४ - रूपकार-प। सुष्टु उपकारः सूपकारः । ५ -ति विशेषः आ०, ब, ज०, प० । ६ -वाक्यमेतन्नास्ति ता | ७ पदमेतदधिकं वर्तते । -- - -- - - - Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचमोऽध्यायः अधिकादिगुणानान्तु ॥ ३६ ॥ तु शब्दः पादपूरणावधारणविशेषणसमुचयेषु चतुर्ध्वर्थेषु यद्यपि वर्तते तथाप्यत्र सूत्रे विशेषणार्थे ज्ञातव्यः । किन्तदु विशेषणम् ? 'न जघन्यगुणानाम् ' 'गुणसाम्ये सहशानाम्' इति सूत्रद्वये यो बन्धप्रतिषेध उक्तस्तं प्रतिषेधाधिकारं प्रतिषिध्य बन्धं विशेषयति--' बन्धो भवति' इति कथयत्ययं तुशब्दः । द्वाभ्यां गुणाभ्याम् अधिकः द्र्यधिकः चतुर्गुण इत्यर्थः । द्वयधिक ५ आदिः प्रकारो येषां ते अधिकादयः, द्वयधिकादयः द्वधिकप्रकारा गुणा येषां परमाणून ते दूषिकादिगुणाः तेषां अधिकादिगुणानाम् । अधिकतायां त्रिगुणस्य पचगुणेन सह बन्ध भक्तीत्यादि सम्प्रत्ययः स्यान् तेन कारणेन दूत्यधिकादिगुणानां तुल्यजातीयानामतुल्य जातीखाना बन्धो भवति 'नो इतरेषाम् । के च तुल्यजातयः के च अतुल्यजातयः इति न शायते ? कथयामि - स्निग्धस्य स्निग्धस्तुल्यजातिः, स्निग्धस्य रूक्षोऽतुल्यजातिः, रुक्षस्य १० रूक्षस्तुल्यजातिः, रूक्षस्य स्निग्धोऽतुल्यजातिरिति । तथाहि-- हिंगुणस्निग्धस्य परमाणो रेकगुणतिन द्विगुण स्निग्वेन त्रिगुणस्निग्धेन वा बन्धो न भवति, चतुर्गुण स्निग्धेन तु बन्धो भवति । तस्यैव तु द्विगुणस्निग्धस्य पव गुणनिम्वेन यन्धो न भवति, पद्गुणभिश्वेन सप्तगुणस्निग्धन •मार्गदर्शक- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज अष्ठगुण स्निग्धेन था २ ५/३६ ] २०५ बन्धो न भवति । त्रिगुणस्निग्धस्य पञ्चगुणस्निग्धेन तु बन्धो भवति शेषः पूर्वोत्तरैः बन्धो न १५ बन्धः, भवति । के पूर्व के घोत्तरे च इति न ज्ञायते ? कथयामि - अन्धसम्बन्धान् यत् पूर्वमुक्तं तन भवति । तत् किम् ? द्विगुण स्निग्धस्य परमाणोः एकगुणस्निग्धेन द्विगुणस्निग्वेन त्रिगुणस्निग्न वा बन्धो न भवति इति पूर्वमुक्तम् । बन्धसम्बन्धात् यत् पञ्चादुक्तं तदपि न भति । तत् किम् ? तस्यैव तु द्विगुणस्निग्धस्य पञ्चगुणस्तम्भेन षड्गुणस्निग्धन समगुण स्निग्वेनाष्टगुण स्निग्धेन सख्येयगुणस्निग्लेन असंख्येयगुणस्निग्धेन अनन्तगुणस्निग्वन २० या अन्धो न भवति इत्युत्तरवचनम् । चतुर्गुणस्निग्धस्य पड्गुण स्निग्धेन भवति शेषः पूर्वोत्तरैः न भवति बन्धः । पूर्वोत्तरशब्दार्थपरिज्ञानार्थं पुनरुक्तमिदं व्याख्यानम् । एवं शेषेपि बधो योभ्यः । शेषेष्वपति किम् ? बन्धप्रकारेष्वपि बन्धो योज्यः । तथाहिद्विगुणरूक्षस्य एकगुणरूक्षेण: द्विगुणरूक्षेण त्रिगुणरूक्षेण न भवति बन्धः । द्विगुणरूक्षस्य 'चतुर्गुणरूक्षेण तु भवति बन्धः । तस्यैव द्विगुणरूक्षस्य पचगुणरूक्षादिभिर्न भवति बन्धः । २५ त्रिगुणरूक्षादीनां पचगुणादिरुक्षेर्भवति बन्धः द्विर्णाधिकत्वात् । एवं भिन्नजातीयेष्वपि बन्दो योजनीयः - रूक्षैः सह स्निग्धो योजनीय इत्यर्थः । तथा चोक्तं परमागमे“द्धिस्त निद्रेण दुराहिएण लुक्खस्स लक्खेण दुराद्दिएण | णिस्स लुक्खेण उदेदि बन्धो जण्णवजे विसमे समे वाँ ॥" [ गो० जीव० ० ६१४ (१)] २० १ नेतरेषाम् आ०, ब० ज० । २ संख्येयासंख्येयगुणस्निग्धेनानन्त- ५०। ३ त्रिगुण० म० ज० । ४-पि यो अ०म० ज० । ५ उद्धृतेयं प्राचीनगाया सर्वार्थसिद्धयादिषु । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्तौ [ ५०३७ अथ किमर्थमधिकगुणविषयो बन्धों निमपितः संमगुणविषयों बन्धो न व्याख्यात इति प्रश्ने सूत्रमिदमुच्यते २०६ rashant पारिणामिकी च ।। ३७ ।। भावान्तरोपादानं पारिणामिकत्वमुच्यते । बन्धे बन्धनिमित्ते बन्धकार्ये सति पारिणा५ मिकी यस्मात् कामको अभिभावकगुणविषयो बन्धो निरूपितः । समगुणविषये तु भेदः स्यात् विघटनं भवति तेन समगुणविषयो बन्धो न भवति । यथा आर्द्रा गुडा अधिकमधुररसः स पारिणामिकः, तदुपरि ये रेण्वादयः पतन्ति ते भावान्तरम् तेषामुपादानं क्लिन्नो गुडः करोति - अन्येषां रेण्यादीनां स्वगुणमुत्पादयतिपरिणामयतीति परिणामकः, परिणामक एक पारिणामिकः । स पारिणामिको गुडो यथा १० अधिकगुणो भवति तथा अन्योऽपि अधिकगुणोऽल्पीयसः -- अल्पगुणस्य परिणामक इत्युच्यते । अत्रायमर्थः - त्रिगुण. दिस्निग्धस्य चतुर्गुणादिस्निग्धः पारिणामिकः, द्विगुणादिस्निग्धस्य चतुर्गुणादिरूक्षः पारिणामिकः तथा द्विगुणादिरूक्षस्य चतुर्गुणादिरूक्षः पारिणामिकः तथा द्विगुणादिरुक्षस्य चतुर्गुण दिस्निग्धः पारिणामिकः । ततः पूर्वावस्था परिहरण पूर्व कं वार्तीविकमवस्थान्तरमाविर्भयति । कोऽर्थः ? एकत्वमुत्पद्यते इत्यर्थः । तृतीयमेव तार्तीयिक १५ तृतीयादिकण् स्वार्थे, ह्रस्वस्य दीर्घता । अभ्यथा, यदि अधिकगुणः पारिणामिको न भवति तदा श्वेतरदितन्तुयत् संयोगमात्रे सत्यपि सर्वं पृथगुरूपेण तिष्ठति अपारिणामि कत्यात् । यथा तन्तुवायेन आतम्यमाना बुन्यमानाश्च तन्तवः शुक्लतन्तुसमीपे मिलिता रक्तादयोऽपि तन्तवः समानगुणत्वात् परस्परं न मिलन्ति तथा अधिक गुणपारिणामिकत्वं बिना अल्पीयो गुणं विना च परमाणयोग मिलन्ति । एवमुक्तेन प्रकारेण बन्धे सति २० ज्ञानावरणदर्शनाचरण वेदनीयादीनां कर्मणां त्रिंशत्सागरोपमकोटी कोट्यादिकः * स्थितिअन्धोऽपि सङ्गच्छते जीवस्य स्निग्धादिगुणेनाधिकत्वात्। अत्र यथा गुडरेणुदृष्टान्तो दत्तस्तथा जलसत्यादिष्टन्तोऽपि ज्ञातव्यः । तत् कथम् ? यथा रूक्षाः सक्तवः जलकणान्तु स्निग्धा हाभ्यां गुणाभ्यामधिका भवन्ति ते जलकणाः पारिणामिकस्थानीया रूक्षगुणानां सक्तूनां frustre पारिणामिका विलोक्यन्ते, तथा परमाणवोsपि । तथा चोक्तं तत्त्वार्थश्लोक२५ वार्तिके 3 "easant गुणt यस्मादन्येषां पारिणामिकौ । सजलादीनां नान्यथेत्यत्र युक्तवाक् ॥” [ ० श्लो० ५३७ ] अथ द्रव्यलक्षणमुत्पादव्ययभौव्ययुक्तं सदिति पूर्वमेवामिदानीं तु पुनरपि अपरेण सूत्रेण द्रयलक्षणं लक्षयन्त्या चार्याः --- १ वाक्यमेतन्नास्ति ता २ वाक्यमेतनास्ति आ०, ब० ज० ३ -कस्थि- आ०, ब० अ० । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YIRC पञ्चमोऽध्यायः यम् ॥ ३८ ॥ गुण्यते विशिष्यते पृथक् क्रियते द्रव्यं हन्यात् यैस्ते गुणाः । गुणैर्विना द्रव्याणां सरव्यतिकरः स्थान । कोऽर्थः ? सङ्करस्य व्यामिश्रतायाः व्यतिकरः - प्रघट्टकः स्यादभवेदित्यर्थः । स्वभावविभाव पर्योयरूपतया परि-समन्तात् परिगच्छन्ति परिप्राप्नुवन्ति ये ते पर्यायाः । "दिहिलिडिलिपिश्व सिध्यध्यतीणश्याताञ्च ।" [ का सू० ४१२५८] मार्गदर्शच्चनेन उपयायं प्रातपर्ययशोऽस्ति तत्र पर्ययणं पर्यय: स्वभावविभात्रपर्यायरूपतया परिप्राप्तिरित्यर्थः । " स्वरपृड गमिग्रहामल" [ का० सू० ४१५१४२ ] गुणा पर्यया गुणपर्ययाः, गुणपर्यंयाः विद्यन्ते यस्य तत् गुणपर्ययवन । द्रषति गच्छति प्राप्नोति ब्रोष्यति गमिष्यति प्राप्स्यति, अदुदुवत् अगमत प्राप्तवान् (वत्) वाँस्तान पर्यायान् इति द्रव्यम् । "स्वराद्यः" [ का० सू० ४।२।१० ] इति साधुः । कथञ्चित् भेदापेक्षया नित्य- १० 'योगापेक्षया वन्तुर्मन्तव्यः । के गुणाः के पर्यया इति चेत् ? उच्यते-अन्वयिनो गुणाः । व्यतिरेकिणः कादाचित्काः पर्ययाः, तदपेक्षया संसर्गे मन्तुः तैरुभयेरपि युक्तं द्रव्यमुच्यते । तदुक्तम " द्रव्यविधानं हि गुणाः द्रव्यविकारोऽत्र पर्ययो भणित: तैरंन्पूनं द्रव्यं नित्यं स्यादयुतसिद्धमिति ॥" [ तदप्युक्तमस्ति - २०७ "अनाद्यधिने द्रव्ये स्त्रपर्यायाः प्रतिक्षणम् । उन्मञ्जन्ति निमज्जन्ति जलकल्लोल जले ||" [ ] १५ ] गुणेन द्रच्यं विशिष्यते यथा धर्मस्य गुणो गतिः, अधर्मस्य स्थितिरित्यादि । अविद्यमाने गुणे द्रव्यसङ्करप्रसङ्गः तथाहि--चेतनादिभिर्गुणैः जीवोऽचेतन, दिपुद्रले भ्यो विशिष्यते । २० रूपादिभिर्गुणैः पुद्रादयश्च जीवाद विशिष्यन्ते । तस्मात् कारणात् ज्ञानात् रूपादिभ्यश्च गुणेभ्योऽविशेषे सति सङ्करो व्यामिश्रता स्यात् । तेन सामान्यापेक्षया -- सर्व जीवापेक्ष या जीवस्य ज्ञानादयोऽन्ययिनो गुणाः । जीवगुणाः- जीवमया इत्यर्थः । मुद्रलादीनां तु रूपादयोऽन्यानो गुणाः । तेषां गुणानां विकाराः विशेषत्वेन भिद्यमानाः पर्याया उच्यन्ते । यथा जीवस्य ज्ञानगुणस्थ पर्यायशे घटज्ञानं पदज्ञानम् अम्भः स्तम्भकुम्भज्ञानं कोपो मदः रूपं २५ गः तीव्रो मन्दः इत्यादयो जीवस्य ज्ञानगुणस्य विकाराः पर्याया वेदितव्याः । तेभ्यो १ परिप्राप्नुवन्ति परिंगच्छन्ति ये ० २० ज० । २ प्राप्तं वा ता- ० १ ३ - नूनं ० ० ० ४ सुलना- "उक्तख गुण इदि दवविाणं दयविकारः य पज्जवी भणिदा । तेहि अपूर्ण दव्वं अजुदवसिद्धं एवं णिचं ||" स० स०५३७३५ 'रूपं गन्धस्तीत्रो मन्दः ' श्रस्यादयः पुद्रलद्रव्यस्य रूपगन्धादिगुणानां पर्यायाः शातव्याः, न तु ज्ञानगुणस्य । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ तरषार्थसौ । ५/३८ द्रव्येभ्यः कथञ्चित् अन्यत्वमाप्नुवन् घटज्ञानादिसमुदायः पर्यायो व्यवहारनयापेक्षया द्रव्यमुच्यते । यदि हि सर्वथकान्तेन घटज्ञानादिसमुदायोऽपि अनर्थान्तरभूत एवोच्यते द्रव्यमेव कथ्यते तदा सर्वाभात्रो भवेत् समुदाये विघटिने द्रव्यमपि विघटते यस्मा । अथ कालद्रव्यमुच्यते कालश्च ।। ३९ ॥ कलयतीति कालः । चकारः परस्परसमुचये । नायमर्थः न केवल धर्माधर्मावाशपुद्गला जीवाश्च द्रव्याणि भवन्ति किन्तु कालश्च द्रव्यं भवति द्रव्यलक्षणोपेतत्वात् । द्रव्यस्य लक्षणं द्विप्रकारमुक्तम्-'उत्पादव्ययधौव्ययक्तं सत' 'गुणपर्ययवत् द्रव्यम्' इति च । एतदुभयमपि लक्षणं कालस्य वर्तने, तेन कालोऽपि द्रव्यव्यपदेशभाग् भवति । कालस्य तावत्त १० धौव्यं स्वप्रत्ययं वर्तते स्वभाघव्यवस्थानात् ' ध्ययोत्पादौ तु कालस्य परप्रत्ययौ वर्तते । न केवलं व्ययोत्पादौ कालस्य परप्रत्ययौ यतेते अगुरुलगुणद्धिहान्यपक्षया रवप्रत्ययौ च वर्तते । तथा कालस्य गुणा अपि वर्तम्सर्गदर्शकप्रकासाचासारिनावितधारकाची मसाज साधारणा गुणा:-अचेतनत्वम् अभूतत्वं सूक्ष्मत्वम् अगुरुलघुत्ववेत्यादयः । असाधाणी गुणः कालस्य वर्तनहेतुत्यम् । कालस्य पर्यायास्तु व्ययोदयस्वरूपा वेदितव्याः । एवं द्विविधल१५ क्षणोपेतः काल आकाशादिवत् व्यव्यपदेशभाक सिद्धः । कालस्यास्तित्व लक्षणं वर्तना, धर्मादीनां गत्यादिवत् । ननु कालः पृथक किमित्युक्तः; 'अजीवकाया धम्माधर्माकाशकालपुद्गलाः [११] इत्येवं सूत्रं विधीयताम ? इत्याह, सत्यम ; यद्यचं सूत्रं क्रियते तदा कायस्वप्रसङ्गः कालस्य स्यात् । स तु कायप्रसङ्गः सिद्धान्ते नं वर्तते, मुख्यतया उपचारेण च कालस्य प्रदेशप्रचयकल्पनाया अभावान । धर्माधर्माकाशकजीवानां चेतनामा प्रदेशप्रथयो मुख्यतयोक्तः २० "असलयेयाः प्रदेशाः धर्माधर्मकजीवानाम्, आकाशस्यानन्ता:" [तःसू० ५८,९] इति वचनात् । एकप्रदेशस्याप्यणोः पूर्वोत्तरभावप्रज्ञापनमयेन व्यवहारनयन उपचारफल्पनेन प्रदेशपचय उपचरितः । "सत्येयासल्येयाश्च पुद्गलानाम्" [व. सू. ५।१०] इति वचन( नात् त्रिविधप्रदेशपचयकल्पनं तत्पूर्वोत्तरभावान । “भूतपूर्वकस्तद्वदुपचा" [न्याः सं० न्या० ८ पृ०.५] इति परिभाषणान् ‘भाविनि भूतवदुपचारः' इप्ति परियुन त्वाच २५ एकस्याप्यणोः सङ्ख्ययासङ्ख्येयामन्तप्रचयः सङ्गकछते । “अनेहसस्तु मुख्यतया उपचारेण प्रदेशप्रचय कल्पना न बरीवर्तते, तेन "दिष्टस्य अकायःयम्। तथा धर्माधर्माकाशानां निष्क्रियावं प्रतिपादितम् , जीरपुद्गलानां तु सक्रियत्वमुक्तम् , तथाविधसूत्रे सति कालस्यापि सक्रियत्वं प्राप्नोति, तन्न घटते 'अजीवकाया धर्माधर्मकालाकाशपुद्रला चेदेयं निर्दिश्यते तदा "आ आकाशादेकद्रव्याणि" [५६] इति वचनात् कालस्यैकद्रव्यत्वं प्राप्नोति, न च तथा 'तस्मासू, १ द्रव्यमेव फस्यो आ०, म० ज०1 प्रवर्तते भा०, ५०, ज.1 ३ प्रचयकलनाप० । -प्रवचनकल्पना- आ०, २०, ज०। ४ -करतवुप- आ०, व, ज०. प० । ५ कालस्य । ६ -स्वाश्व चेदेवं ज०। ७ यस्मा- आ०,०,जा। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५॥४०] पश्नमोऽध्यायः २०९ कारणात कालादेशः पृथग् विधीयते । यधनेकद्रव्यत्वं कालस्य भवद्भिः विधीयते तत् किंप्रमाणमनेकद्रव्यत्वं कालस्य १ उच्यते-लोकाकाशस्य यावन्तोऽसल्येयप्रदेशा वर्तन्ते तावन्तः कालाणयोऽपि सन्ति । ते तु कालाणवो निष्क्रिया वर्तन्ते एकैस्मिन् वियत्रदेशे एकैकवृत्त्या सर्व लोकं व्याप्य तं कालाणवः स्थिता वर्तन्ते, पृथक्तया रराशियत् । नथा चोक नेमिचन्द्रसिधान्तदेवेन भगवता माणदेशक- आचार्य श्री सुविहिासागर जी महायन.Ammar1 लोगासपदेसे एक्केक्के जे ट्ठिया हु एक्केका । रयणागं रासीविव ते कालाण असंखदव्याणि ॥ [गो जीव गा० ५८८] ते तु कालाणवोऽमूर्ता इति वक्तव्याः रूपादिगुणाभावात् । अध वर्तनालिङ्गस्य वरेण्यकालस्य प्रमाणं भणितं भवद्भिः, परिणामादिलक्षणस्य ध्यपहारविष्टस्य प्रमाणं कियन वर्तते इति प्रश्ने सूत्रमिदमाहुः-- सोऽनन्तसमयः ॥ ४०॥ व्यवहारलक्षणः कालोऽनन्तसमयो वर्तते । अनन्ताः समया यस्येति सोऽनन्तसमयः, यद्यपि धर्तमानव्यवहारकालापेक्ष्या कालस्यैका समयो यर्तते तथापि अतीतापेक्षया भविष्यद पेक्षया च अनन्ताः समयाः कालस्य वर्तन्ते । अथवा, एकोऽपि कालाणुर्मुख्यभूतः अनन्तसमय इत्युपचर्यते अनन्तपर्यायवर्तनाहेतुत्वात्। एवंविधे व्याख्याने तु वरेण्यस्यैब कालस्य १५ प्रमाणपरिमापनार्थमिदं सूत्रमुक्तम् । समयस्ताक्त परमजिरुः कालांशः उच्यते । परमनिगद्ध इति कोऽर्थः ? बुद्धपा अविभागभेदेन भेदितः परमाणुबत् भेत्तुं न शक्यते इत्यर्थः । अत्र तु समयशब्देन समयसमूहविशेषः आवलिकोछ्वासादिलक्षणो झातव्यः । उक्तव "आयलि असंखसमया संखिजात्रलिहि होइ उम्सासो। सत्तुस्सासो थोवो सत्तस्थोवो लवो भणिओ । १ ॥ अद्वतीसद्धलवा णाली दोणालिया मुहु तु । समऊणं तं भिन्नं अंतमुहुत्तं अणेयविहं ।' [जंथ, ५० १३।५,६ ] इत्यादिकोऽहोरात्र-पक्ष-मास-ऋतु-अयन-संवत्सर-युग-पल्योपम-सागरोपमादिकः कालः समयोऽत्र गम्यते । अथ गुणपर्ययवद्व्यमिति यदुक्तं तत्र न ज्ञायते के गुणा वर्तन्ते ? 'उध्यन्ताम् ' २५ इति प्रश्ने योगमिमं चक्रुः-- -...-..१ योक- मा०, ५०, ज०। २ उधृतेय स० सि० ५।३९ । ३ भावलि असंख्यसमया संख्पातायलिभिा भवति उच्छवासः । सप्लोच्छ्वासाः स्तोकः सप्तस्ताका लत्री भणितः । अभ्यत्रिशादलयाः नाली रेनालिके मुहूर्त तु । समयोनं तत् भिन्न अन्तर्मुहत्तमनेकविधम् ।। २७ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवृत्ती द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥ ४१ ॥ 1 द्रव्यमाश्रयो येषां ते द्रव्याश्रयाः । गुणेभ्यो निष्कान्ता निर्गता निर्गुणाः । एवं विशेषणद्वयविशिष्टा ये ते गुणा भवन्ति । निर्गुणा इति विशेषणं दु चणुकभ्यणुकादिस्कन्धनिषेधार्थम् तेन स्कन्धाश्रया गुणा गुणा नोच्यन्ते । कस्मात् ? कारणभूतपरमाणुद्रव्याश्रयत्वात् । ५ तस्मात् कारणात् निर्गुणा इति विशेषणात् स्कन्धगुणाः गुणा न भवन्ति पर्यायाश्रयत्वान् । ननु घटादिपर्यायाश्रिताः संस्थानादयो ये गुणा वर्तन्ते तेऽपि द्रव्याश्रया निर्गुणाश्च वर्तन्ते, तेामपि संस्थानादीनां गुणत्वमास्कन्दति द्रव्याश्रयत्वात् यतो घटपटादयोऽपि द्रव्याणी कयन्ते । साध्वभाणि भवताः ये नित्यं द्रव्यमाश्रित्य वर्तन्ते त एष गुणा भषन्ति न तु पर्यायाश्रया गुणा भवन्ति, पर्यायाश्रिता गुणाः कादाचित्काः कदाचित् भवाः वर्तन्ते इति । २१० १० अडसर्वेत्रवशिन्अ कार्यस्तिस्तथान ज्ञायते स वक्तुमवतारयितुं योग्य इति प्रश्ने अध्यायस्य समाप्तौ सूत्रमिदमुच्यते - तद्भावः परिणामः । अथवा अन्यकार्यसूचनार्थं तद्भावः परिणाम इति सूत्रमुभ्यते । किं तदन्यत् कार्यम् ? केचित् वदन्ति गुणा द्रव्यादर्थान्तरभूताः तत्किमाई तानामभीष्टम् ? नाभीष्टम् । यद्यपि व्यपदेशादिभेद हेतुना द्रव्यात् कथञ्चित् भिन्नाः वर्तन्ते -- अर्थान्तरभूताः सन्ति गुणाः, तथापि व्याव्यतिरेकाद् १५ द्रव्यमयत्वाद् द्रव्यपरिणामाच्च अर्थान्तरभूता गुणा न भवन्ति । एवं चेत सः कः परिणामः स एवोच्यतामिति प्रश्ने परिणामपरिज्ञानार्थं सूत्रमिदमुच्यते तद्भावः परिणामः || ४२ ॥ तेषां धर्मादीनां द्रव्याणां येन स्वरूपेण भवनं भावः तद्भावः । तद्भावः कोऽर्थः १ तेषां धर्मादीनां द्रव्याणां तत्त्वं स्वरूपं परिणाम इत्युच्यते । स परिणामः अनादिः सादिश्च २० भवति । गत्युपग्रहादिर्घ मदीनाम् अनादिः परिणामः । स अनादिपरिणामः सामान्यापेक्षया भवति । स एव सामान्यः परिणामः विशेषापेक्षया पर्यायरूपः सादिश्व भवति । तेनायमर्थःगुणाञ्च पर्यायाश्च द्रव्याणां परिणाम इति सिद्धः ॥ ४२ ॥ इति सूरश्रीश्रुतसागरविरचितायां तात्पर्य संज्ञायां तत्त्वार्थवृत्तौ पक्षमः पादः समाप्तः । [ १/४१-४२ 1 १ वः तन्द्रावति को य० । वः की भ० ज० ५०२ इत्यनवद्य गद्यपद्यविद्याविनोदित प्रमोद पीयूषपान पावनमतिसमाजरत्नराजमतिसागरयतिर । जरा जितार्थन समर्थेन तर्कव्याकरणच्छन्दोऽलङ्कारसाहित्यादिशास्त्रनिशितमतिना यतिना श्रीमद्देवेन्द्र कीर्ति भडारकप्रशिष्येण शिष्येण व सकलविद्वज्जनविद्दितचरणसेवस्य श्रीविद्यानन्ददेवस्य सञ्छर्दितमिध्या मतदुर्गरेण श्रुतसागरेण सूरिणा विचतायां श्लोकवातिंकराजनार्तिक सर्वार्थ सिद्धि न्यायकुमुदचन्द्रोदय प्रमेय कमल सार्तण्डप्रचण्डससी प्रमुखग्रन्यसन्दर्भनिर्भरावलोकनबुद्धि विराजितायां तत्वार्थटीकायां पञ्चमोऽध्यायः समाप्तः ॥ ५ ॥ ० ० ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठोऽध्यायः अथ अजीषपदार्थव्याख्यानन्तरम् आस्त्रचपदार्थव्याख्यानार्थं सूत्रमिदमुच्यते-काय वामनःकर्म योगः ॥ १ ॥ I चीयते कायः । उच्यते वाक् । मन्यते मनः । क्रियते यत्तत्कर्म योजनं योगः । कायश्च बाक् च मनश्च कायवाङ्मनांसि कायवाङ्मनसां कर्म कायषाङ्मनः कर्म-शरीरवचनमानसानां यत्कर्म क्रिया स योग इत्युच्यते आत्मनः प्रदेशचलनं योगः । योगो ५ निमित्तभेदात् त्रिप्रकारो भवति । ते के त्रयः प्रकाराः ? कायनिमित्तात् आत्मनः मार्गदर्शक कायधार्य श्रीमता । मनोनिमित्तादात्मनो मनोयोगः । तन्त्र काययोगो वीर्यान्तरायक्षयोपशमे सति औदारिक-औदारिकमिश्र - वैकियिक-वैकियिक मिश्राद्वारकाहारकमिश्र-कार्मणलक्षणसप्तप्रकारशरीरवर्गणानां मध्ये अन्यतम वर्ग णालम्बनापेक्षम् " आत्मप्रदेशचलनं परिस्पन्दनं परिस्फुरणं फाययोग उच्यते । शरीर नामकर्मोदयो - १० स्पादिताम्वर्गपालम्बने सति वीर्यान्तरायक्षयोपशमे सति मतिज्ञानावरणक्षयोपशमे सति अक्षरादिश्रुतज्ञानाचरणक्षयोपशमे सति अभ्यन्तरवचनलब्धिसामीप्ये च सति वचनपरिणामाभिमुखस्य जीवस्य प्रदेशानां परिस्पन्दनं चलनं परिस्फुरणं वचनयोग उच्यते । सत्यासत्योभयानुभयात् स चतुर्विधो भवति । अभ्यन्तरचीर्यान्तर समान सावरणक्षयोपशम स्वरूपमनोलब्धिको ससि बाह्यकारणमनोवर्माणावलम्बने च सति विसपरिणामसन्मुखस्य १५ जीवस्य प्रदेशानां परिस्पन्दनं परिचलनं परिस्फुरणं मनोयोग इति मन्यते । सत्यासत्योभयानु - भयभेदात् सोऽपि चतुःप्रकारः । कायादिचलनद्वारेण आत्मनश्चलनं योग इत्यर्थः । सयोग केष लिनस्तु वोर्यान्तरायादिक्षये सति त्रिप्रकारवर्गणाम्यनापेक्षम् आत्मप्रदेशपरिस्पन्दनं परिचलनं परिस्फुरणं योगो वेदितव्यः । सयोगकेषलिनो" योगोऽचिन्तनीयः । तथा चामाणि समन्तभद्रस्वामिना - २० “कायवाक्यमनसां प्रवृत्तयो नाभवंस्तव मुनेचिकीर्षया । नासमीच्य भवतः प्रवृत्तयो धीर तावकमचिन्त्यमीहितम् ॥ १ ॥" [ बृद्दत्स्व० श्लो० ७४ ] अभ्युपगतो योगस्तावत् त्रिविधः । प्रतिज्ञात आस्रव उच्यतामिति प्रश्ने सूत्रमिदमाहुःस आस्रवः ॥ २ ॥ पूर्वोक्तस्त्रिविधोऽपि योग आलयः कथ्यते । आस्रवति आगच्छति आत्मप्रदेशसमीपस्थोऽपि पुलपरमाणुसमूहः कर्मत्वेन परिणमतीत्यास्त्रयः । अत्र आवशध्दस्य सकारो १ - या आ- आ० ज० य० । २ - दिलक्षणद्वारेण आ०, १०, १० । सति ता० । ४ पेक्षाया आ०, ब०, प० । ५ नोड्यो वा० । ३ - येऽपि २५ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ तत्त्वाथवृत्ती [६३ दन्त्यो शातव्यः', न तालव्यः । "पुर द्रऋच्छगमृसृप गतौ"[ ] इति सूत्रोक्तम्धातोः प्रयोगात् । यथा सरोवर जलयाहक सरोचरवार जलानवणारे तुत्वात् प्रणालिका आसव उच्यते, तथा योगप्रणालिकया जीवस्य कर्म समानवतीति त्रिविधोऽपि योग आस्रव इति व्यपदिश्यते । दण्डकपाटप्रतरलोकपूरणलक्षणी' या मागीयतसविसिसामागोनानासाज. ५ ऽप्यस्ति भिन्नः। यथा आईमंशुकं समन्ताद् महदानीतं रजःसमूहं गृह्णाति, तथा कषायजलेनाो जीवः त्रिविघयोगादानीतं कर्म सर्वप्रदेशेरुपादते। अथवा, अन्योऽप्यस्ति दृष्टान्तः । यथा तप्तलोपिण्डः पयसि निक्षिप्तः समन्ताद्वारि गृहाति, सथा कायसन्तप्तात्मा विविधयोगानीतं कर्म परिगृहाति "मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा पन्ध हेतवः " [त० सू० ८.१ ] इति , उक्त आस्रवः स सर्वोऽपि विविधयोगेऽन्तर्भवतीति १० वेदितव्यम् । अथ कर्म द्विप्रकारम् -पुण्यं पापश्च । तस्य कर्मण आस्रवणहेतुर्योगः। सं किम् अविशेषेणाचवणहेतुरथवाऽस्ति कश्चितिशेष इति प्रश्ने सति आमवस्य विशेषसूचनार्थ सूत्रमिदमाहुः शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ॥३॥ १५ शोभते शुभः । पुनात्यात्मानमिति पुग्यम् , पूयते पवित्रीक्रियते आत्माऽनेनेति या पुण्यम् , सद्वेधशुभायु मगोत्रलक्षणम् , तस्य पुण्यस्य । न शोभते अशुभः । पात्यवति रक्षति आत्मानं कल्याणादिति पापम् , असदद्याशुभायुरशुभनामाशुभगोत्रलक्षणम् , तस्य पापस्य। शुभो योगः पुण्यस्य आस्रवहेतुः, अशुभो योगः पापस्यास्रबहेतुरिति विशेषः । तत्र प्राणिरक्षणाचौर्यग्रह्मचर्यादिः शुभः काययोगः । सत्यहिचमितमृटुभाषणादिः ‘शुभो वाग्२० योगः। अहंदादिभक्तिस्तपोरुचिःश्रुतविनयादिश्च शुभो मनोयोगवति । विशुद्धपरिणाम जनितात्रयः शुभयोगाः। तथा प्राणातिपाताऽदत्तादानमथुनादिकः अशुभः काययोगः । असत्याहिताभितकर्कशकर्णशूलप्रायभाषणादिः अर्जु भो घाग्योगः। धचिन्ताभिसूयादिकः अशुभो मनोयोगः। एते त्रयोऽप्यशुभयोगाः अशुभस क्लष्टपरिणामनिता भवन्ति पापकर्मोपार्जनहेतुभूतातरौद्रध्यानपरिणामरुत्पादिता भवन्तीत्यर्थः । शुभो योगः शुभफलकर्म२५ पुद्गलहेतुः । अणु भो योगः अशुभफलकर्मपुद्गलहेतुर्भवति । शुभपरिणामनिर्युसो निष्पन्नो योगः शुभः कथ्यते । अशुभपरिणामनिवृत्तो निष्पन्नो योगः अशुभः कथ्यते, न तु शुभाशुभकर्महेतुमात्रत्वेन शुभाशुभौ योगौ वर्तते। तथा सति सयोगकेवलिनोऽपि शुभाशुभकर्मप्रसङ्गः स्यात् , न च सथा। ननु शुभयोगोऽपि ज्ञानावरणादिबन्धहेतुर्वर्तते । यथा केनचिदुक्तम् १ - व्यः घु- भाा, ब०, ज० । २ -या सरोवरद्वा- भा०, ब०, ज• । ३ -णा योगी वआ०, २०, ज.! ४ -रिस तन मा०, १०, ज०। ५ -योगनी-पा० । ६ -गास्तवहे- भार, व०, ज०। ७ -तेऽने- आ०, ५०, ज०। ८ शुभवा- ता । ९ -का- भा०, ५०, शा। १० -शुभवा- आ०,०, ज०। ११ -शुभयो- 80, 40, ज.। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ ६।। पष्ठोऽध्यायः भी चिदन , त्वमुपापितो वर्तस तेन त्वं पठनं मा कुरु विश्रभ्यताम्' इति, तेन हितेऽप्युक्तेऽपि ज्ञानावरणादि प्रयोक्तुर्भवनि, तेन एक एवाशुभयोगोऽीक्रियताम् , शुभयोग एवं नास्ति; सत्यम ; स यदा हितेन परिणामेन पठन्नं विश्मयति तदा नस्य चेनस्येवेमभिप्रायो यतते'यदि इदानीमयं त्रिश्नाम्यति तदा में अस्य बहुत सपःश्रुतादिक भविष्यति' इत्यभिप्रायेण सपःश्रुतादिकं वारयन्नपि अशुभानवभाग न स्यात् विशुद्धिभशकपरिणामहेतुस्वादिति । तदुक्तम्- ५ मार्गदर्शक :- आशुद्धिसाविलशार चतहासबपरस्थं सुखासुखम् । पुण्यपापाची युक्ती न चेद् व्यर्थस्तवाहतः ॥१॥" {आप्तमी० श्लोक ९५] अथेदानी ग्रयोजीधयोः अयोः कर्मणाः आम्रयो भवति तावात्मनः ते कर्मणी च कश्यते सकषापाकपाययोः साम्परायिकर्यापधयोः ॥ ४ ॥ १० कपशिषजपझपपमपमपरिघयूषजूपहिसार्थाः । कति हिनस्त्यात्मानं दुर्गति प्रापयनीति कपायः । अथवा, कषायां न्यग्रोधवविभीतकहरीतकादिकः वस्त्रे मञ्जिष्ठाद्विरागश्लेषहेतुर्यथा तथा मोघमानमायालोभलक्षणः कषायः कषाय इस आत्मनः कर्म लेपहेतुः । सह कपायेण वर्नन य आत्मा मिथ्यादृष्टयानिः म सकषाय इत्युच्यते । पूर्वोक्तलक्षणः कपायों न विद्यते यस्य पशान्तकपायादः सोऽकपाय इत्युच्यते । सकपायश्च १५ अकपायश्च सकषायाकषायो तयाः सकपायाकपाययोः पट्रोति वचनमत्र ! सं सम्यक पर उत्कृष्टः अयो गतिः पर्यटनं प्राणिनां या भवति स सम्परायः संसार इत्यर्थः, सम्परायः प्रयोजन यस्य कर्मणः तत् कर्म माम्पराशिकम , संसारपर्यटनकारकं कर्म साम्परायिकमित्युच्यते । ईर गतौ कम्पने च। ईरणम् ईर्या। "वर्णव्यञ्जनान्ताद् व्यण" [ का सू० ४।२।३५ ] ईयेति कोऽर्थः ? योगो गतिः योगप्रवृत्तिः कायचाइमनोव्यापारः कायबाङ्मनोवर्गणाचलम्बी २० आत्मप्रवेशपरिस्पन्दो जीवप्रदेशचलमप ईयति भण्यते । तद्वारकं कर्म ईपिथमुच्यते । तदेव कषायादिकं द्वारमानवमार्गो यस्य कर्मणः तत्तद्वारकम् । साम्परायिकन्न ईपिथन माम्परायिकोपथे तयोः साम्परायियोपथयोः । अत्रापि षष्ठी वचनम् । अस्थायमर्थः सकपायस्य मिथ्या वस्य साम्परायिकस्य संसारपरिभ्रमणकारणस्य कर्मणः आस्रवो भवति । अकपायस्य उपशान्तकपायादिकस्यात्मनः र्यापथस्य संसारेऽपरिभ्रमणाहताः कर्मण आसवा २० भवति । ईर्यापथकर्मास्रवः मंसारापरिभ्रमणकारणं कथम् ? अषायस्य उपशान्तकापायादयोगवशादुपात्तस्य कर्मणः कषायाभावाद् बन्धाभावे सनि शुल्कःयतितलाष्ट्रवद् अनन्तरसमये निवर्तमानस्य ईपिथस्यास्रबः बन्धकारणं न भवति यस्मात् । सकपायस्य तु आत्मनो मिथ्यादृष्टयादेयोगवशादानीतस्य स्थित्यनुभागबन्धकारस्य साम्परायिकरय कर्मणः आसत्रो भन्नकारणं भवति यस्मात् । अत्र सकषायस्य साम्परायिकस्यानको भवति । अकषायस्य ३.. ईपिथस्य आस्रवो भवतीति यथाक्रम वेदितव्यम् । १ विश्राम-आरु, घ, ज०।२ विश्रभ्य-ताल। ३ -कारकसा- १०,०, ज. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ तत्त्वार्थवृत्ती अथ सकायस्य आम्रवस्य भेदपरिज्ञापनार्थ सूत्रमिदम् न्यतइन्द्रियकवायावतकिया पचनापनपञ्चविंशतिसङ्ग्याः पूर्वस्य भेदाः ।।५।। इन्द्रियाणि च कषायाश्च अवतानि च क्रियाश्र इन्द्रियकषायात्रतक्रियाः। पञ्च च चत्वारश्च पश्च च पश्चविंशतिः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतः ता सङख्या यासामु अनुक्रमेण ५ इन्द्रियकषायात्रतक्रियाणां ताः पश्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसमन्याः । अस्थायमर्थः-स्पर्शनरसन घ्राणचक्षुश्नोत्राणि निजनिजविषयव्याप्तानि पूर्वोक्तनि इन्द्रियाणि पश्च । क्रोधमानमायालोभलक्षणोपलक्षिता वक्ष्यमाणस्वरूपाः कषायाश्चत्वारः । हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्योऽविरतिलक्षणोपलक्षितानि वक्ष्यमाणानि अत्रतानि पछ । साम्प्रतं व्यावर्ण्यमानाः पश्चापिंशतिक्रियाः। एते चत्वारो राशयः पूर्वस्य साम्परायिकासवश्य भेदाः प्रकाराः भवन्ति । तत्र पश्चविंशतिक्रियास्वरूप निहायते-चैत्यगुरुप्रवचनार्चनादिस्वरूपा सम्यग्दर्शनयद्धिनी अन्यक्रियाभ्यो विशिष्ठः सम्यक्स्यक्रिया । । । परदेवतास्तुतिरूपा मिथ्यात्वप्रवृत्ति कारणभूता मिथ्यात्यक्रिया । २ । गमनागमनादिषु मनोवामायः परप्रयोजकत्वं प्रयोगक्रिया ।३। संयतस्य सतः अपिरत्याभिमुख्यं प्रयत्नेनोपकरणादिग्रहणं या समादानक्रिया । ४३ ईर्यापथकर्म हेतुका र्यापथक्रिया । ५ । क्रोधाविष्टस्य दुष्टत्वं प्रादोषिकी क्रिया । ६ । प्रदुष्टस्य ५५ सतः कायाभ्युद्यमः कायिकी क्रिया । । हिसोपकरणग्रहणात् आधिकारिणिकी क्रिया । ८ । दुःख.त्पत्ती परितप्तिपरवशत्वं पारितापिकी क्रिया । ५। दशप्राणवियोगकरणं प्राणातिपातिको क्रिया । १०। रागाद्रीकृतस्य प्रमादवतः हृद्यरूपविलोकनाभिनिवेशो दर्शनक्रिया । ११ । प्रमादपरतन्त्रस्य कमनीयकामिनीस्पर्शनानुबन्धः स्पर्शन किया। १२ । अपूर्वहिंसादिप्रत्ययविधान प्रतीतिजननं प्रात्यायिकी क्रिया ।१३। स्त्रीपुरुषपश्याद्यागमनप्रदे हो मलमूत्राद्युत्सर्जनं समन्तानु २० पातक्रिया ।१४। अप्रति स्विताऽनिरीक्षितप्रदेशे शरीरादिनिक्षेपणमनाभोगक्रिया ।१५। कर्म करादिकरणीयायाः क्रियायाः स्वयमेव करणं स्वकरक्रिया । १६ । पापप्रवृत्तौ परानुमतदान निसर्गक्रिया ।१७। परविहितगुतपापप्रकाशनं विदारणक्रिया । १८ । चारित्रमोहोदयात् जिनो. क्तावश्यकादिविधानासमर्थस्य अन्यथाकथनम् आज्ञाव्यापादनक्रिया ।१५। शठत्वेन अलसत्वेन व जिनसूत्रोपदिष्टविधिविधानेऽनादरः अनाकाङ्क्षा क्रिया ।२०। प्राणिच्छेदनभदनहिंसनादि२५ कर्मपरत्वं प्राणिच्छेदनादौ परेण विधीयमाने या प्रमोदनं प्रारम्भक्रिया । २१ । परिग्रहाणा मविनाशे प्रयत्नः पारिवाहिकी क्रिया । २२ । ज्ञानदर्शनचारित्रतपस्सु तद्वत्सु पुरुषेषु च मायावचनं बञ्चनाकरण मायाक्रिया । २६ । मिथ्यामतोक्कक्रियाविधानविधापनतत्परस्य साधु त्वं विदधासीति भिध्यामतदृढनं मिथ्यादर्शनक्रिया । २४। संयमघातककमषिपाक पारतन्त्र्यानिवृत्तौ अवर्तनम् अप्रत्याख्यानक्रिया ।२५। एताः पञ्चविंशतिक्रिया ज्ञातव्याः । ३० इन्द्रियाणि कषाया अत्रतानि च त्रयो राशयः कारणभूताः, पञ्चविंशतिस्तु क्रियाः कार्यरूपाः प्रवर्तन्त इति इन्द्रियादिभ्यः क्रियाणां भेदो वेदितव्यः। साम्परायिकासत्र उक्तः । १-नाथना- भार, ब, ज० । २ -तपयं प-- ता० |३-बादिव्युत्स-भा०,० ० । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ षष्ठोऽध्यायः ६:६-७ ] अथ योगत्रयं सर्वसाधारणम्, तदास्रवबन्धफलानुभवन्तं तु विशेषचद् वर्तते जीवपरिणामानन्तविकल्पत्वात् । स तु फलानुभवनलक्षणो विशेषः तत्सङ्क्षेपसूचनार्थ सूत्रमिदमुच्यतेतीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकर णवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ॥ ६ ॥ हिरन्तः कारणादीरणवशान तीवते स्थूलो भवति उद्रेकं प्राप्नोति उत्कटो भवति यः परिणामः स सीन इत्युच्यते । मन्दते अल्पो भवति अनुत्कटः सब्जायते यः परिणामः स ५ मन्द उच्यते । 'हनिष्यामि एतं पुमांसमिति ज्ञात्वा प्रवर्तनं ज्ञातमित्युच्यते । मदेन प्रसादेन 3 अनात्वा हननादी प्रवर्तनम् अज्ञातमिति भण्यते । अधिक्रियन्ते अर्थाः यस्मिन्निति अधिकरणं द्रव्यमित्यर्थः । द्रव्यस्य पुरुषादेर्निजशक्तिविशेषो वीर्यमुच्यते । भावशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, तेनायमर्थः - सीक्रभावश्च मन्दभावश्च ज्ञातभावश्च अज्ञातभावश्च अधिकरण वीर्यवतीत्रमन्दज्ञाता ज्ञात भायाधिकरणवीर्याणि तेषां विशेषा भेदाः सीत्रमन्द-१० ज्ञाताज्ञातभाचाधिकरणवीर्य विशेषाः, तेभ्यस्तीऽमन्दज्ञाता ज्ञात भावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यः । तस्य आस्त्रयस्य विशेषदर्श@शेषः आक्रोसग खुशिया प्रर्मास येारेवाकालाय नेक बहि: कारणवशात् इन्द्रियकषायात्रतक्रियाणां कुत्रचिदात्मनि तीम्रो भावो भवति तस्य तीन आस्रवः स्यात्, इन्द्रियकपायातक्रियाणां कुत्रचिदात्मनि मन्त्री भावो भवति निर्बलः परिणामः स्यात् तस्य मन्द आयो भवति । इन्द्रियकपायात्रतक्रियाप्रवर्तने कस्यचिदात्मनः शातत्वं भवति तस्य १५ महान् आस्रवः स्यात् । इन्द्रियादीनामज्ञातभावे प्रवृत्ती सत्याम् अल्पास्रवः स्यात् । तथा अधिकरणविशेषेऽपि सति आस्रवस्य विशेषो भवति, यथा वेश्यादीनामालिङ्गने अल्पास्रवः स्यात् राजपत्नी चिङ्गिनीमभृत्यालिङ्गने महान् आस्रवो भवति । वीर्यविशेषे च 'वर्षभनाराच संहननमण्डितपुरुष पोकादिव्यापारे महानास्रवो भवति, अपरसंहननसंयुक्त पुरुषपापकर्मकरणे अपात्रो भवति, असादग्यल्पो भवति, तत्रापि वीर्यविशेवर्भावात् । एवं २० क्षेत्रकालादपि विशेषो वेदितव्यः । गृहमाचर्यभजेऽल्पास्रवः स्यात्, देवभवनब्रह्मचर्यभङ्गे महानास्रवः स्यात्, तस्मादपि तीर्थमार्गे महानास्रवः स्यात् तीर्थमार्गादपि तीर्थ मद्दास्रवो” भवेत् । एवं कालानौ, देवबन्दनाकाले परकालात् महास्रवः स्यात् । एवं पुस्तकादिaorat aai मन्तव्यः । तस्य भेदा अनन्ता इति कारणभेदात् कार्यभेद इति । 1 2 अथ अधिकरणं यदुक्तं तत्स्वरूपं न ज्ञायते तत् कीदृशमिति प्रश्ने सूत्रमिदं २५ श्रमराचार्या:-- अधिकरणं जीवाजीयाः ॥ ७ ॥ अधिक्रियन्तेऽर्था अस्मिन्नित्यधिकरणं द्रव्यमुच्यते । यद्रव्यमाश्रित्य आस्रव उत्पद्यते १ हरिष्यामि रां अ० बज० । २ म आ०, ब० ज० । ४ रे सांभा, २० ज० ० ७ वज्र १० ज०१८ धारामा १० मानानां भा०, ब०, जर ! किया भा०, ब० ज० । ३ ज्ञातव्य ५ भिक्षुणी । ६ नेन म- आ०, ब०, आ० ब० ज० । ९ महास्रवः ता० । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नत्त्वार्थयुक्ता ६८ तद्रव्यमधिकरणमुच्यते। सर्यो:पि शुभाशुभलक्षण आम्नबा याप्यात्मनो भवति जीयम्य सञ्जायते तथापि य आस्रवो मुख्यभूोन जीवेन उत्पादयतं तस्यास्रवस्य जीवोऽधिकरणं जीव. द्रव्यमाश्रयो भवति । यस्तु आसत्रोऽजीवद्रव्यमाश्रित्य जीवस्योत्पाते तस्य आवस्याधिकरणमाश्रयोऽजीवद्रव्यमुच्यते । जीवाश्च अजीवाश्म जीवाजीवाः, तेपा लक्षणं पूर्वमेवोक्तम् "जीवा. जीवात्रश्यन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्" त० सू० १।४] इत्यधिकार। यदि जीवाजीवलक्षणं पूर्वमेवोक्तं तेनैवाधिकारेण जीवाजीया लभ्यन्तं किं पुनः जीवाजीवग्रहणेन ? साधूतं भवता; अधिकरणविशेषज्ञापनार्थम् पुनर्जीवाजीवग्रहणम्-अधिकरणविशेषस्तु ज्ञापनीय एव तेन पुनर्जीवाजोवग्रहणं कृतम् । कोऽसावधिकरणविशेषः ? हिंसाधुपकरणभाषः । भयतु नामे जीवश्चाजीवश्च जीवाजीवी एवं द्विवचने 'अUषप्राप्ते बहुवचनं किमर्थ १० कृतम् ? युक्तमुक्त भयता, द्विषचने प्रामे यद बहुवचनेन निर्दिश्यते तेन जोबाजीवयो. व्ययोर्य सन्ति पर्यायास्तेऽप्यास्रबस्याधिकरणं "अवन्ति तेन बहुवचनं युक्तमेव । मागअथ जीवाधिकरणाजीबाधिकरणयोमध्ये जीवाधिकरणभनपरिक्षापनार्थ योगीऽयमुच्यतेआचं संरम्भममारम्भारम्भयोगकनकारिसानुमनकषायविश स्त्रि स्विस्त्रिश्यतुश्चकशः ॥ ८ ॥ आदी भवं आयम् । संरम्भश्च समारम्भश्च आरम्भश्च संरम्भसमारम्भारम्भा यागाश्च ते कृतकारितानुमताश्च योगकृतकारितानुमताः, योगकृतकारितानुमताश्च कषायविशेषाश्च योगकृतकारिवानुमतकपायविशेषाः, संरम्भसमारम्भारम्भा योगकृतकारितानुमतकपाविशेषरुपल क्षिताः संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकपायविशेषास्तस्तथोक्तः । त्रिः त्रीन् यारान् , २० पुनश्व त्रिः त्रीन वारान् , पुनश्च त्रिः श्रीन वारान , चतुश्चतुरा वारान् , एकशः एकैकं प्रति संरम्भ समारम्भम् आरम्भं प्रति गणनं भवति । तेषामेव संरम्भादीनामेय चतुर्भिः कषायश्च गणनं भवति । आद्यं जीवाधिकरणम् आस्रवोत्पादकं भवति । अस्यायमर्थः-प्रमादवतो जीवस्य प्राणव्यपरोपणादिषु प्रयत्नावेशः संरम्भं उच्यते । प्राणन्यपरोपणादीनाम् उपकरणाभ्या सकरणं समारम्भः कथ्यते । प्राणव्यपरोपणादीनां प्रथमारम्भ एव आरम्भ उच्यते । काय२५ वाङ्मनोलक्षणत्रिविधो योगः । कृतः स्वतन्त्रेण विहितः। कारितः परप्रयोजकत्वम् । अनु मतः केनचिन् क्रियमाणे प्राणव्यरोपणादों अनुमोदनम् । कपायाः कोधमानमायालोभाः । अर्थोऽर्थान्तरादु विशिष्यते यः स विशेषः। स विशपशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते-संरम्भविशेषः समारम्भविशेषः आरम्भविशेष इत्यादि । चयः संरम्भसमारम्भारम्भाः। यो योगाः। त्रयः १ उत्पा- त, आ, ३० । २ -स्याधि- प्रा०, व.... । ३ न्यायप्राप्ते । ४ --योर्षे आ०, ब, ज.। ५ भवति आ.. ब., जः । ६ थ्यने आ०.३०, ज.। ७ -यः प्र- आ.. बाज। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ ] षष्ठोऽध्यायः मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज कृतकारितानुमताः । चत्वारः कषायाः । एतेषां गणनाया अभ्यावृत्तिः पुनःपुनर्गणना' सुमत्ययेन सूच्यते । एकमेकं प्रत्येकशः इति वीप्सावचनम् । एकैकं प्रति व्यादीन् प्रापयेदित्यर्थः । तथाहि — क्रोधकृतकाय संरम्भः मानकृतकायसंरम्भः मायाकृतकायसंरम्भः लोभकृतकायसंरम्भः क्रोधका रितकाय संरम्भः, मानकारितकाय संरम्भः, मायाका रितकायसंरम्भः, लोभकातिकायसंरम्भः क्रोधानुमतकाय संरम्भः, मानानुमतकाय संरम्भः, मायानुमतकायसंरम्भः ५ लोभानुमतका संरम्भइति द्वादशप्रकार: कायसंरम्भा भवति । एवं वाक्योगो द्वादशप्रकारः क्रोधकृतबाकूसंरम्भः, मानकृतवाकसंरम्भः माचाकृतवाक्क संरम्भः, लोभ कृतवाकसंरम्भः, क्रोधकारितासंरम्भः मानकारितवाक्संरम्भः, मायाका रितवाक्संरम्भः लोभकारितवाक्संरम्भः क्रोधानुमता संरम्भः, मानानुमतवाक्संरम्भः, मायानुमतवाक्संरम्भः, लोभानुमतवाक्संरम्भ इति द्वादशप्रकारो वाक्संरम्भः । क्रोधकृतमनः संरम्भः, मानकृतमनः संरम्भः १० मायाकृतमनःसंरम्भः, लोभकृतमनः संरम्भः क्रोधकारितमनः संरम्भः, मान कारितमनः संरम्भः, मायाकारितमनःसंरम्भः, लोभकारितमनः संरम्भः क्रोधानुमतमनः संरम्भः, मानानुमतमनः संरम्भः, मायानुमतमनः संरम्भः, लोभानुमतमनः संरम्भः इति द्वादशमकारो मन:संरम्भः । एवं षट्त्रिंशत्प्रकारः संरम्भः तथा पत्रिशत्मकारः समारम्भः तथा पत्रिंशत्प्रकार आरम्भः एवमष्टोत्तरशतप्रकारः जीवाधिकरणास्रवो भवति । चकारः किमर्थम् ? १२ अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान सञ्चलनकषाय भेदकृतान्तर्भेदसमुच्चयार्थः । २१७ अथाऽजीवाधिकरणभेदपरिज्ञानार्थं सूत्रं सूचयन्ति - निर्चतर्नानिक्षेप संयोगनिसर्गादिचतुर्द्वित्रिभेदाः परम् ॥ ९ ॥ च निवर्तते निष्पाद्यते निर्वर्तमा निष्पादना । निक्षिप्यते स्थाप्यते यः स निक्षेपः स्थापना | संयुज्यते मिश्रीक्रियते संयोगः । निःसृज्यते प्रवर्तते निसर्गः प्रवर्तनम् । निवर्तना २० निक्षेपश्च संयोगश्च निसर्गश्च निवर्तनानिक्षेप संयागनिसर्गाः । द्वौ च चत्वारश्च श्रयश्च द्विचतुर्द्वित्रयः ते भेदाः येषां निर्वर्तनानिक्षेप संयोगनिसर्गाणां ते द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः । पिपर्ति पूरयति परभागमिति परम् । अस्यायमर्थः - निना विभेदाद्विप्रकारा । निक्षेपरचतुर्भेदः चतुःप्रकारः । संयोगो द्विभेदो द्विप्रकारः । निसर्गस्त्रिभेदः त्रिप्रकारः । एते चत्वारो भेदाः परम् अजीवाधिकरणं भवन्ति । ननु पूर्व सूत्रे आद्यमित्युक्ते जीवाधिकरणं लब्धम्, २५ अजीवाधिकरणन्तु अवशिष्टं स्वयमेव लभ्यते, तेन 'निर्वर्तना निक्षेप संयोगनिसर्गाद्विचतुर्द्वि त्रिभेदाः' इत्येवं सूत्रं क्रियताम् किमनर्थकन परशब्दग्रहणेन ? इत्याह- सत्यमुक्तं भवताः परमित्युक्ते संरम्भादिभ्यो निर्वर्तनादिकचतुष्टयं परमन्यत् भिन्नम् इत्यर्थः, अन्यथा जीवाधिकरणाधिकारात् निर्वर्तनादयश्चत्वारोऽपि जीवपरिणामा भवन्तीति भ्रान्तिरुत्पद्यते, तदर्थ १ - जनं सुता । २त्याचार्या: आ० म० ज० । ३ करणं ननु आ०, ब०, ज० । २८ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज २१८ तत्वार्थवृत्तौ [ ६।१० परमिति गृहीतम् । तत्र निर्वर्तनाधिकरणं द्विभेद यदुक्तं तत्किम ? मूलगुणभिर्वर्तनाधिकरणम्, उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरणं चेति निर्वर्तना द्विभेदा । तत्र भूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणं पञ्चभेदम्—–शरीरं वाक् मनः प्राणाः अपानाश्चेति । उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरणं काष्ठपाषाणपुस्तकचित्रकर्मादिनिष्पादनं जीवरूपादिनिष्पादनं लेखनश्चेत्यनेकविधम् । निक्षेपश्चतुर्भेदः - अप्र५ त्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरणं दुष्प्रतिलेखितनिक्षेपाधिकरणं सहसा निक्षेपाधिकरणम् अनाभोगनिक्षेपाधिकरणं वेति । अनाभोग इति कोऽर्थः ? पुनरनालोकितरूपतया उपकरणादि "स्थापनम् अनाभोग इत्युच्यते । संयोगो द्विभेद:- अनपानसंयोगाधिकरणम् उपकरणसंयोगाधिकरणं वेति । निसर्गस्त्रिभेदः - कार्यनिसर्गाधिकरणं राहू निसर्गाधिकरणं मनोनिसर्गाधिकरणं चेति । एतचतुष्टयम् अजीवमाश्रित्य आत्मन आम्रक उत्पद्यते तेनाऽजीवाधिकरणमुच्यते । अथ सामान्यतया कर्मास्त्रच भेद उक्तः, अधुना सर्वकर्मणां विशेषेणास्रवा उच्यन्ते । तंत्रज्ञानावरणदर्शनावरण कर्मणोरात्रवभेदपरिज्ञानार्थं सूत्रमिदमाहुराचार्याःतत्प्रदोष निलव मात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥ १०॥ १० सम्यग्ज्ञानस्य सम्यग्दर्शनस्य च सम्यग्ज्ञानसम्यग्दर्शनयुक्तस्य पुरुषस्य वा त्रयाणां मध्ये अन्यतमस्य केनचित्पुरुषेण प्रशंसा विहिता, तां प्रशंसामाकर्ण्य अन्यः कोऽपि पुमान् पैशुन्य१५ दूषितः स्वयमपि ज्ञानदर्शनयोस्तद्युक्त पुरुषस्य वा प्रशंसां न करोति श्लाघनं न व्याहरति 'कत्थनं नोचारयते तदन्तः पैशुन्यम्, अन्तर्दृष्टत्वं प्रदोष उच्यते । यत् किमपि कारणं मनसि धृत्वा विद्यमानेऽपि ज्ञानाद एतदहं न वेद्मि एतत्पुस्तकादिकमस्मत्पार्श्वे न वर्तते इत्यादि ज्ञानस्य • यदलपनं विद्यमानेऽपि नास्तिकथनं निह्नष उच्यते । आत्मसदभ्यस्तमपि चानं दातुं योग्यमपि दानयोग्यायापि पुंसे केनापि हेतुना यन्न दीयते तन्मात्सर्यमुच्यते। विद्यमानस्य प्रबन्धेन प्रवर्त२० मानस्य मत्यादिज्ञानस्य विच्छेदविधानम् अन्तराय उच्यते । कायेन वचनेन च सतो ज्ञानस्य विनयप्रकाशनगुणकीर्तनादेरकरणमासादनमुच्यते । युक्तमपि ज्ञानं वर्तते तस्य युक्तस्य ज्ञानस्य अयुक्तमिदमशानमिति दूषणप्रदानम् उपघात उच्यते, सम्यग्ज्ञानविनाशाभिप्राय इत्यर्थः । ननु आसानमेव उपघातः कथ्यते, पुनरुपघातग्रहणं व्यर्थमिदम् युक्तमुक्तं भवता ; विद्यमानस्य ज्ञानस्य यद्विनयप्रकाश नगुणकीर्तनादेरकरणं तदासादनम् उपघातस्तु ज्ञानस्य अज्ञानकथनं २५ ज्ञाननाशाभिप्रायो वर्तते, कथमनयोर्महान् भेदो नास्ति ? प्रदोषश्च नितुरंश्च मात्सर्य श् अन्तरायश्च आसादन उपघातश्च प्रदोषनिह्नरमात्सर्यान्तर (यासाइनोपघाताः । तयोः ज्ञानदर्शनयोः । एते षट् पदार्थाः ज्ञानदर्शनावरणयोः ज्ञानावरणदर्शनायरणयोरा वा भवन्ति आस्रवकारणं भवन्ति । ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानदर्शने साकारनिराकाररूपे । अत्र विशेषज्ञापनं ज्ञानम्, सत्ताबलोकनमात्रं दर्शनम्, तयोरावरणे ज्ञानदर्शनावरणे तयोः ज्ञानदर्शनावरणयोः । i 1 1 १ - स्थापितमना ० ० ० ज० । ४ स्य अप- अ० ०, ० । ० १ २ कथनं नो भा०, ब० न० । ३ करणं भा०, Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६।११] षष्ठोऽध्यायः ननु तच्छन्देन ज्ञानदर्शने कथं लभ्यते पूर्व ज्ञानदर्शनयोरनिर्देशान् ? सत्यम् "श्रौतानुमितयोः श्रौतसम्बन्धो विधिबलवान्" [ ] इति' परिभाषासूत्रश्लान् तच्छन्दन ज्ञानं दर्शनं च लभ्यते । "ज्ञानदशनावरणयोरिति सूत्रे शब्दश्रवणात तेन पूर्वसूत्रोक्तनिवर्तनादिकं न शङ्कनीयम् । केनचिदुक्तम् शानदर्शनावरणयोराम्रवाः के इति प्रश्ने उत्तर दीयते तत्पदोपादय इति ज्ञानदर्शनयोः प्रदोषादय इति । एते प्रदोपादयः ज्ञाने ५ कुता अपि दर्शनावरणस्यापि कारणं भवन्ति एकहेतुलाध्यस्य कार्यस्य अनकस्य कार्यस्य दर्शनान । अथवा चे ज्ञानविपयाः प्रदोपादयः ते ज्ञानावरणस्य कारणं ये तु दर्शनविषयाः प्रतापादयस्ते तु दर्शनावरणहेतवो ज्ञानव्याः । तथा ज्ञानावरणस्य कारणम आचार्य शत्रुत्वम । आध्याये प्रत्यनीकत्वम , अकाले अध्ययनम् , अरुचिपूर्वकं पठनम् . पठतोऽन्यालस्यम् , अनादरण व्यायानश्रयणम् , प्रथमानुयोग वानग्रमाने अपरानुयोगवाचनम तीर्थोपरोध १० इत्यर्थः, बहुश्रुतपु गविधानम् , मिथ्योपदशश्च, बहुश्रुतापमाननम् , स्वपक्षपरिहरणं परपक्षपरिग्रहः-सदतयं ताकिकदर्शनार्थम् ख्यातिपूजालाभार्थम् , असम्बद्धः प्रलापः, उत्सूत्रवादः, कापटेन ज्ञानग्रहणम् , शास्त्रविक्रयः, प्राणातिपातादयश्च ज्ञानावरणस्य आम्रवाः । तथा दर्शनावरणस्य आम्रवाः देवगुर्वादिदर्शनमात्सर्यम् , दर्शनान्तरात्रा, चक्षुरुत्पाटनम् , इन्द्रियाभिमतित्वम् , निजदृष्टेगोर्रयम् , दीर्घनिद्रादिकम् , निद्रा, आलस्यम् , नास्तिकत्वप्रतिग्रहः, १५ सम्यादृष्टुः सन्दूषणम , कुशाखप्रशंसनम् , यतिवर्गजुगुप्सादिकम., प्राणातिपातादयश्च दर्शनावरणस्य आम्रवाः । __ अब वेदनीयं कर्म द्विविधं वर्तते सद्देद्यमसद्यं च । सदा सुखकरम् , असवेद्यं दुःखकरम् । तत्र असलेद्यस्य कारणानि सूचयत्सूत्रमिदमाहुःदुःस्त्रशोकनापाकन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थाय मद्यस्य ॥ ११॥ दुःखयतीति दुःख वेदनालक्षणः परिणामः, शौचनं शोकः चतनाचेतनोपकारकवस्तुसम्बन्धविनाशे वैकलव्यं दीनत्वमित्यर्थः, तापनं तापः निन्दाकारणात मानभङ्गविधानाच कर्कशवचनादेश्व सञ्जातः आत्रिलान्तःकरणस्य कलुषितचित्तस्य नीत्रानुशयोऽतिशयेन पश्चात्तापः खेद इत्यर्थः। आक्रन्द्यते आक्रन्दनं परितापसञ्जातत्राप्पपतनबहुलविलापादिभिर्व्यक्तं प्रकटम २५ अङ्गविकारादिभिर्युक्त क्रन्दनमित्यर्थः । हननं वधः । "पंच वि इंदियपाणा मनवचकारण तिषिण बलपाणा । आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होति दस पाणा ॥१॥" [बोधपा० ५३] इति १ "श्रुतानुस्तियोः श्रीता विधिबलीयान्"- म्यायसं. पृ० ६९ । परिभाषेन्दु परि० ११३ । २ च्याय प्रत्य- आ., ब, ज। ३ प्रापिनिपा- अ, प०, ०४ अविला-आ., ब०, ज० । ५ बहुविला- श्रा, बस, ज० । ६ दह पा- आ०, व, ज० | Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्यार्थवृत्त गावोक्तलक्षणदशप्राणवियोगकरणमित्यर्थः । परिदेव्यते परिदेवनं सकलेशपरिणामत्रिहिताबम्वनं स्वपरोपकाराकानालिङ्गम् अनुकम्पा भूयिष्ठं रोदनमित्यर्थः । दुःखं च शोकश्च तापश्चामार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज क्रन्दनं च आत्मा च परश्व उभयश्च आत्मपरोभयास्तेषु विन्तीति आत्मपरोभयस्थानि । एतानि पट् कर्माणि कोपाचा५. बेशवशात् आत्मस्थानि परस्थानि उभयस्थानि च असद्वेयस्य दुःखरूपस्य कर्मणः आस्रवनिमित्तानि भवन्तीति वेदितव्यम् । ननु शोकादयः पञ्चापि दुःखमेव तेन 'दुःखमात्मपरीभयस्थमसद्वेद्यस्य' इति सूत्रं क्रियतां किं शोकादिग्रहणेन ? इत्याह- साधुक्तं भवता यद्यपि शोकादयो दुःखमेव वर्तन्ते, तथापि कतिपयविशेषकथनेन दुःखजातेरनुविधानं विधीयते अनुकरणमुच्यते इत्यर्थः । यथा गौरित्यभिहिते अनिर्ज्ञाते विशेषे सति गोविशेषकथनार्थ १० खण्डमुण्डशुक्लकृष्णाद्युपादानं विधीयते तथा दुःखविषयाश्च विशेषा असंख्येयलोकसम्भवा अपि कतिपया अत्र निर्दिश्यन्ते तद्विवेकप्रतिपत्त्यर्थमित्यर्थः । २ २२० [६/११ अत्र किचि विधीयते चर्चनम् - चेद्र दुःखादीन्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वे द्यास्वकारणानि वर्तन्ते तहि आई तैः केशोत्पादनम् उपवासादिप्रदानम् आतापनयोगोपदेशनं सर्वमित्यादिकमादुःखकारणमेवास्थीयते प्रतिज्ञायते भवद्भिः तर्हि आत्मपरोभयान् प्रति किमित्युप १५ दिश्यते ? साधूक्तं भवता अन्तरङ्गकोधावेशपूर्वकाणि दुःखशोकादीनि असावकारणानि भवन्ति क्रोधाद्यावेशाभावान्न भवन्ति विशेषोक्तं त्वाम् । यथा कश्चिद्वैद्यः परम करुणाश्वित्तस्य माया मिथ्यादिनिदानशल्यरहितस्य संयमिनो सुनेरुपरि गण्डं पिटकं विस्फोट शस्त्रेण पादयति तच्छस्त्रपातनं यद्यपि दुःखहेतुरपि वर्त्तते तथापि भिषग्वरस्य बाह्यनिमित्तमात्रादेव कोपाचावेशं विना पापबन्धो न भवति, तथा संसारसम्बन्धिमहादुःखाद्भीतस्य मुनेः २० दु:खनिवृत्त्युपायं प्रति सावधान चित्तस्य शास्त्रोके कर्माणि प्रवर्तमानस्य सकलेशपरिणामरहितत्वात् केशोत्गटनोपवासादिदानदुःखकारणोपदेशेऽपि पापबन्धो न भवति । तथा चोक्तम्"" न दुःखं न सुखं यद्वद्वेतुष्टश्चिकित्सिते । ६ चिकित्सायां तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा सुखम् ॥ १ ॥ न दुःखं न सुखं तद्वद्धेतुमक्षस्य साधने । मोक्षोपाये तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा सुखम् ॥ २ ॥ [ ] तस्य लोकद्वयस्य व्याख्यानम् - यथा चिकित्सिते रोगचिकित्साकरणे हेतुः शस्त्रादिकः स्वयं दुःखं न भवति सुखं च न भवति कस्मादचेतनत्वादित्यर्थः चिकित्सायां तु प्रतीकारे प्रवृत्तस्य वैवस्य दुःखम् अथवा सुखं स्वादेव । कथम् ? यदि वैद्यः क्रोधादिना शस्त्रेण १- करका अ०म० ज० । २ विविधविषयस् च अ-आ०, ब० ज० । ३ तवान् य - आर, ब० ज० । ४ करुणानिचितस्य आ०, ब० ज० । ५टकं आ०, ब० ज० १ ६ - देशो आ०, ब० ज०७ उद्धृतौ इमौ स० स० ६।११ । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६।१२] पठाऽध्यायः २२१ शियहाराज बिस्फोट पचति वा [s] धर्मकर्म पार्जनाद भिषजो दुःखं भवति, यदा तु कारुण्यं कृत्वा ताधिविनाशार्थं मुनेः सुखजननार्थ विस्फोटं पाटयति तदा क्रोधाद्यभावाद् धर्मकर्मोपार्जनाद् वैt खमेव भवति । टान्तश्लोको गाकी साधनहेतुरुपवासलोचादिकः स स्वयमेव सुखदुःखरूपां न भवति किन्तु य उपवासादिकं करोति कारयति वा शिव्यं गुर्वादिकः तस्य दुःखं सुखं वा भवति, यदि गुरुः कोधादिना उपयासादिकं ५ करोति कारयति या तदा [s] धर्मकर्मापार्जनात् दुःखमेव प्राप्नोति यदा तु कारुण्येन संसारदुःखविनाशार्थमुपवासादिकं कारयति करोति वा तदा धर्मकर्मापार्जनात् सुखमेव प्राप्नोति । यथा दुःखादयः असचास्रवकारणानि पटू प्रोक्ता: २, तथा अन्यान्यपि भवन्ति । नथाहिअशुभ: प्रयोगः परनिन्दनम्, पिशुनता, अननुकम्पनम् अङ्गोपाङ्गच्छेदनभेदनादिकम् साउनम, त्रासनम् वर्जनम्, भर्सनम्, सर्जनम् अङ्गुल्यादिसन्या भर्त्सनं वचना- २० दिना, मारणम्, रोधनम्, बन्धनम्, मनम, दमनम्, परनिन्दनम्, आत्मप्रशंसनम्, संक्लेशोत्पादनम्, महारम्भः, महापरिग्रहः, मनोवाक्काययक्रशीलता, पापकर्मोपजीवित्वम्, अनर्थदण्डः, विषमिश्रणम् शरजालपाशवागुरारा पञ्जरमारण यन्त्रोपायसर्जनादिकम् एते पापमिश्राः पदार्थ आत्मनः परस्य उभयस्य वा क्रोधादिना क्रियमाणा असदेद्याखवा भवन्ति । अन सास्वरूपं निरूपयन्नाह भूतवत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगक्षान्तिशौचमिति " " १५ सस्य ।। १२ ।। नारकतिर्यङ्मनुष्वदेवपयरक्षणासु चतरुषु गतिषु निजनिजकर्मोदयवशाद् भव न्तीति भूतानि प्राणिवर्गाः | अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्योऽपरिग्रह दिवामुक्तलक्षणानि तानि एकदेशेन सर्वधा विशन्ते येषां ते निः श्रावका यतयश्च । परोपकारा चित्तस्य २० परपीडामात्मपीडामिच मन्यमानस्य पुरुषस्य अनुकम्पनम् अनुकम्पा कारुण्यपरिणामः । भूतानि प्रविन भूतनिनस्तेषु तेषां या अनुकम्पा भूतत्रत्यनुकम्पा । परोपकारार्थं निजद्रव्यव्ययो दानम् । संसारहेतुनिपेधं प्रति उद्यमपरः अश्रीयाशयञ्च सरागो भव्यते । षट्जी निकायेषु पडिन्द्रियेषु च पापप्रवृत्तनिवृत्तिः संयम उच्यते । सरागस्य पुरुषस्य संयमः सरागसंयमः सरागः संयमो वा यस्य स सरागसंयमः । सरागसंयम आदियेां २५ संयमासं यमाऽकामनिर्जरावातपः प्रभृतीनां ते सरागसंयमादयः । भूतत्रत्यनुकम्पा च दानं च सरागसंयमादयश्च भूतप्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादयः तेषां योगः सम्यक् प्रणिधानं सम्यक् चिन्तनादिकं भूतप्रत्यनुकम्पादान सरागसंयमादियोगः । क्रोधमानमायान निवृत्तिः क्षान्तिः । लोभप्रकाराणां चिरमणं शौचमित्युच्यते । भूतन्नत्यनुकम्पादानसरागसंयमादि ५ कारणं ० ० ० २ मतानि आ०, ब० ज० ३ -लतया पाप- आ०, ० ज०१४ राष्ट्रचि ता० । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ तत्त्वाथवृत्ती [ ६१३ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज योगश्च क्षान्तिश्च शौचं च भूतत्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगक्षान्तिशौचम् । समाहारो द्वन्द्वः। इति एवं प्रकार अहंतपूजाविधानतात्पर्यम् , चालवृद्धतपस्विनां च वैयावृत्त्यादिकं सर्वमेतत् सद्वेद्यस्य आम्नवाः सुखरूपस्य कर्मणः कारणं भवन्ति । ननु अतिनः किं भूतानि न भवन्ति यस्मृधग गृह्यन्ते ? युक्तमुक भवता ; भूतमहणात् सिद्धे ५ सति यद् प्रतिशब्दप्रणं तद् व्रतिनामनुकम्पा प्रधानतया कर्तव्येति सूचनार्थम् ।। अथ मोहकर्मास्रवसूचनार्थ सूत्रद्वयं मनसि धृत्वा सम्यक्त्यमोहाम्रबकारणसङ्कथनार्थ तत्रेद सूत्रमुच्यते फेवलिश्रुतसङ्घधर्मदेवावर्णवादी दर्शनमोहस्य ॥ १३ ॥ द्विपदमिदं सूत्रम् । "क्षायिकमेकमनन्तं त्रिकालसर्वार्थयुगपदवभासम् । सकलसुखधाम सततं वन्देऽहं केवलज्ञानम् ।।" [सं० श्रुतभ० श्लोक २९] इत्याक्ति (क्तं ) केवलं ज्ञानम् आवरणहयरहितं ज्ञानं विद्यते येषां ते केवलिनः । श्रूयते स्म श्रवणं वा श्रुतं सर्वज्ञवोतरागोपदिष्टम् , अतिशयवबुद्धिऋद्धिसमुपेतगणधरदेवानु१५ स्मृतमन्यगुम्फितं श्रुतमित्युच्यते । सम्यग्दर्शनज्ञानहारिनपात्राणां श्रमणानां परमदिगम्बराणां गणः समूहः सङ्घः उच्यते । अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्य निःसङ्गत्वमित्यादिलक्षणोपलक्षितः सर्वज्ञवीतरागकेवलिप्रणीतः धर्म इत्युच्यते, दुर्गतिदुःखाद्धृत्य इन्द्रादिपूजितपदे धरतीति धर्म इति निरुक्तः "अर्तिहसुक्षिणीपदभायास्तुभ्यो मः।" [ का० उ० ११५३ ] भवनवासिन्यन्तरज्यातिप्ककल्पवासिलक्षणोपलक्षिताः मनसा अमृताहाराः पूर्वोक्तलक्षणा २० दवाः । केवलिनश्च श्रुतं च सङ्घश्व धर्मश्च देवाच केलिश्रुतसाधर्मदेवाः, तेषां तेषु वा अवर्णवादो. निन्दावचनं केवलिश्रुतसङ्घधर्मदेवावर्णबादः । केवलिनामवर्णवादरतावत्-- केवलिनः किल केवलज्ञानिनः कवलाहारजीविनः, तेषां च रोगो भवति उपसर्गश्च सञ्जायते, नग्ना भवन्त्येव परं बखाभरणमण्डिता दृश्यन्ते इत्यादिकं सर्व केवलज्ञानिनां गुणवतां महतामसद्भूतदोषोद्भबनमवर्णवादो वेदितव्यः । मांसभक्षणं मद्यपानं मातृस्वस्रादिमथुनं २५ जलगालने महापापमित्यादिकमाचरणं किल शास्त्रोक्तं श्रुतस्यावर्णवादः । गुणवतो महतः श्रुतस्य असद्भूतदोषोद्भवनमपर्णवादः श्रुते धूर्तजनसम्मेलित्वात् । एते दिगम्बराः खलु झू द्रा अशुचयः अस्नानाः ब्रयीबहिनूताः कलिकालोत्पन्ना इत्यादि गुणवतां महतां दिगम्वराणाम् असद्भूतदोषोधनं सङ्घस्यावर्गवादः। अहंदुपदिष्टो धर्मः खलु निर्गुणः तद्विधायका १ भवति भा०, २०, २२ जलगालनकन्दमूलपक्षणमहा-०, प०३० | ३ -जनमेलिथा., ०, जः । ४-कालोद्भूताः आ०, २०, दछ । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज ६।१४ षष्ठोऽध्यायः ये पुरुषा वर्तन्ते ते सर्वेऽपि असुरा भविष्यन्ति इत्यादिकं गुणवति महति केलिप्रणीते धर्मेऽसद्भूतदोपोद्भवनम् अविद्यमानदोषकथनं धर्मस्यावर्णवादः । देवाः किल मांसोपसेवाप्रियाः सदर्थं तदुचनविधातार उर्वन्तरिक्षं लभन्ते इत्यादिको देवावर्णवादः। एतत्सर्वमदोषदोषोद्भवनं सम्यक्त्वमोहास्त्रत्रकारणं वेदितव्यम । अथ चरित्रमोहात्रवप्रकारप्रतिपादनार्थ समय॑ते सूत्रमेतत् - कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्थ ॥ १४ ॥ कषन्ति हिंसन्ति सम्यक्त्यादीनिति कषायाः कषायाणामुदयः कषायफलजननरूपः कषायोदयस्तस्मात्कषायोदयात् तीव्रपरिणामः अत्युत्कटमनरकारः चारित्रमोहस्य चारित्रावरणकर्मण आस्रयो भवति । ते कषाया द्विप्रकाराः कषायाः अकषायाश्च । तत्र कषायवेदनीयस्य आस्रवः परेषामात्मनश्च कषायोत्पादन व्रतशीलसंयुक्तयतिजनचारित्रदूषणप्रदानं १० धर्मध्वंसनं धर्मान्तरायकरणं देशसंयत्तगुणशीलसन्त्याजनं मात्सर्यादिना विरक्तचित्तानां विभ्रमोत्पादनम् आर्तरौद्रजनकलिङ्गत्रतादिधारणं कषायवेदनीयस्यानवा भवन्ति। अकपायवेदनीयं नवप्रकारम् -हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदभेदात् । तत्र सर्मजनोपहसनं दीनजनानामतिहसनं कन्दर्पहसनं बहुप्रलपनम् उपहसनशीलतादिक हास्यवेदनीयस्यालवा भवन्ति । नानाप्रकारक्रीडनतत्परत्वं विचित्रक्रीड नभायो देशाद्य- १५ नौत्सुक्यप्रीतिजननादिकं प्रतशीलादिष्यचिरित्येयमादिकं रतिवेदनीयस्याम्म्रया भवन्ति । परेषामरतेराधिर्भवनं परेषां रतेविनाशनं पापशीलजनानां संसर्गादिकं पापक्रियाप्रोत्साहनं चेत्यादयः अरतिवेदनीयस्य आस्रवा भवन्ति । आत्मनः शोकोत्पादनं परेषां शोककरणं शोकप्लुतानां जनानामभिनन्दनञ्चत्यादयः शोकवेदनीयस्यास्रया भवन्ति । स्वयं भये परिणमनं परेषां भयोत्पादनं निर्दयत्वं त्रासनादिकं चेत्यादयो भयवेदनीयस्यास्रथा २० भवन्ति । पुण्यक्रियाचारजुगुप्सनं परपरिबादशीलत्वं चेत्यादयः जुगु सावेदनीयस्यावा भवन्ति । पराङ्गनागमनं स्वरूपधारित्वम् असत्याभिधानं परवञ्चनपरत्वं परच्छिद्रप्रेक्षित्वं बृद्धरागत्यं चेत्यादयः स्त्रीवेदनीयस्यावा भवन्ति । अल्पकोपनम् अजिह्मवृत्तिरगर्वत्वं लोलाङ्गनासमवायाल्परागित्वम् अनीपत्वं स्नाने गन्धद्रव्ये सजि आभरणादौ च रागवस्तुनि अनादरः स्वदारसन्तोषः परदारपरिहरणं चेत्यादयः पुंवेदनीयस्य आम्रया भवन्ति । २५ प्रचुरकषायस्पं गुह्यन्द्रियविनाशनं पराङ्गनापमानावस्कन्दनं स्त्रीपुरुपाना व्यसनित्वं प्रतशीलादिधारिपुरुषप्रमथनं तीव्ररागश्चेत्यादयो नपुंसकवेदनीयस्यानवा भवन्ति । - - १ -क्रीडनं भावोद्देशा -म० । २ परिभ्रमनं आ., 4, ज.। ३ परवृद्ध-भा०, १०, ज०४ -रागत्व Te, ०,०। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्त [ ३+१५/१७ अायुकर्म चतुर्विधं वर्तते नारकतिर्यख मनुष्य देवायुर्वेदात् । तत्र तायंभारकायुः कारणप्रकाशनार्थ सूत्रमिवन्ति २२४ बह्रारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ॥ १५॥ आरभ्यते इत्यारम्भः प्राणिपीडाहेतुर्व्यापारः परिगृद्यत इति परिग्रहः 'ममेदम्' इति मार्गदर्शक म्भाचे परमहाची ५ बुद्धिलक्षण:, आरम्भाश्र आप, पहा प्रचुरा 'आरम्भपरिग्रहाः यस्य स बारम्भपरिग्रहः, श्रद्धारम्भपरिग्रहस्य भावः चारम्भपरिषत्वम् । नरके भवमुत्पन्नं येन् तन्नारकं तस्य नारकस्य । बारम्भपरित्रहत्यम् नारकस्य नरकसम्बन्धिनः आयुषः आयुःकर्मणः आवो भवति । विस्तरेण तु मिथ्यादर्शनं तीतरागः अनृतवचनं परद्रव्यहरणं नि:शीलता निश्चलबेरं परोपकारमतिरहितत्वं यतिभेद: समयभेदः कृष्णले श्यत्वं विषया तिवृद्धिः १० रौद्रध्यानं हिंसादि क्रूरकर्मनिरत्तरप्रवर्तनं बालवृद्ध स्त्रीहिंसनं चेत्यादय अशुभतीत्रपरिणामा नारायुरात्र वा भवन्ति । अथ तिर्यग्योन्या रात्र उच्यते माया तैर्यग्योनस्य ॥ १६ ॥ मिनोति प्रक्षिपति चतुर्गतिगर्त मध्ये प्राणिनं या सां माया, चारित्रमोहकमेडिया१५ विर्भूतात्मकुटिलतालक्षणा निकृतिरित्यर्थः । तिरश्चां योनिः तिर्यग्योनिः तिर्यग्योनौ भवं यदायुस्तत्तैर्यग्योनं तस्य तैर्यग्योनस्य । माया योगवक्रता स्वभाषः तैर्यग्योनस्यायुषः तिर्यक्योनिसम्बन्धिन आयुष्कर्मण आस्रवो भवति । विस्तरेण तु मिथ्यात्वसंयुक्तधर्मोपदेशकत्वम्. redोकारम्भपरित्वं निःशोलत्वं वञ्चनप्रियत्वं नीललेश्यत्वं कापोतलेश्यत्वं मरणकालाद्यार्त्त"श्यानत्वं कूटकर्मत्वं भूभेदसमानरोषत्वं भेदकरणत्वम् अनर्थोद्भावनं कनकवर्णिकान्यथाकथनं २० कृत्रिम चन्दनादिकरणं जातिकुलशीलसन्दूषणं सद्गुणलोपनमसद्गुणोद्भावनं चेत्यादयः तिर्यगात्रा भवन्ति । अथ मानुषाराव उच्यते अस्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ॥ १७ ॥ आरम्भाश्च परिप्रहाच आरम्भपरिग्रहाः, 'अल्पे आरम्भपरिग्रहा यस्य स अल्पा२५ रम्भपरिग्रहः, अल्पारम्भपरिग्रहस्य भावः अल्लारम्भपरिमहत्वं नारकायुः कारणविपरीतत्वमित्यर्थः । मानुपस्वेद मानुषं तस्य मानुपस्य । अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्यायुषः आयु:कर्मण आसवो भवति । विस्तरेण तु विनीतप्रकृत्तित्वं स्वभावभद्रत्वम् अङ्कुटिल व्यवहारत्वं १ आरम्भ - आ, व० ज० २ यदायु त आ०, ब० ज० । ३ - ताश्च निश्चलताआ०, ब०, ज० । ४-- खरक- भ० ज० ज०५ - कालातव्या - भ० ० ० १६ नानिकभार, ब०, ज ७ -सवा उच्यन्ते न ज ८-अला आ-आ०, ब० श० | Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज 4.७.२०] षष्ठोऽध्यायः २२५ तनुकवायत्वम् अन्तकालेऽसंक्लेशत्वं मिथ्यादर्शनसहितस्य विनीतत्वं सुखसंवोध्यत्वं धूलिरेखासमानरोपत्यं जन्तूपघातनिवृत्तिः पदोपरहितत्व विकर्मर्जितत्वं प्रकृत्यैव सर्वेषामागतस्वागतकरणं मधुरबचनता उदासीनत्वमनसूयत्वम् अल्पसङ्कलेशः गुर्वादिपूजनं कापोतपीतलश्यत्नश्चेत्यादयो मानुषायुरालवा भवन्ति । अथापरमपि मानुपायुरानवकारणमा स्वभावमाईवश्च ॥ १८ ॥ मृदो वो मार्दवं मानाभावः । स्वभावेन प्रकृत्या गुरूपदेशं विनाऽपि मार्दवं मृदुत्वं स्वभावमादव मानुपायुरानवो भवति । चकारः परस्परसमुच्चय । तेनायमर्थः-न केवलम अस्पारम्मपरिमहत्वं मानुषस्यायुप आयो भवति किंम्च स्वभावमार्दवत्वञ्च मानुषस्यायुष आस्रयो भवति । यो तहि 'अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमाईवश्च मानुषस्यायुपः' इत्येवमेकं १, सूत्रं किमिति न कृतम ? सत्यमेवैतत् ; किन्तु पृथग्योगविधानम् उत्तरायुरासयसम्बन्धार्थम् ! सेनायमर्थः स्वभाषमादवं सरागसंयमादिकञ्च वायुरानो भवतीति वेदितव्यम् । अल्पारम्भपरिग्रहत्त्रं स्वभाबमार्दधश्च एतव्यमेव कि मानुपस्यायुष आस्त्रयः ? नैवम् ; अपरमपि मानुपस्यायुष आस्रबो वर्तते । तत् किमिनि प्रश्ने सूत्रमिदं ब्रुवन्ति' भगवन्त: निःशीलवतत्वञ्च सर्वेषाम् ॥ १९ ॥ शोलानि च गुणवतत्रयं शिक्षाग्रतचतुष्टयं च शीलानीत्युच्यन्ते ब्रतानि अहिंसादीनि पश्च शीलप्रतानि, शीलवतेभ्यो निष्क्रान्तो मितिः निःशीलवतः शीलनतरहितः निःशील अवस्य भावः निःशीलनतत्वम् । चकारादलपारम्भपरिग्रहत्वञ्च सर्वेषां नारकतिर्यमनुष्यदेवानाम् आयुष आस्त्रवो भवति । ननु ये शीलबतरहितास्तेषां देवायुरासवः कथं सङ्गच्छते ? २० युक्तमुक्तं भवता; भोगभूमिजाः शीलवतरहिता अपि ईशानस्वर्गपर्यन्तं गच्छन्ति तदपेक्षया सर्वेषामिति ग्रहणम् । केचिदल्यारम्भपरिमहा अपि अन्यदुराचारसहिता नरकादिकं प्राप्नुवन्ति तदर्थश्च सर्वेपामिति गृहीतम् । अथ देवायुरासयकारणं प्राहुः-- सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जरापालतपांसि देवस्य ॥२०॥ २५ संसारकारणनिषेधं प्रत्युद्यतः अशीणाशयश्च सराग इत्युच्यते, प्राणोन्द्रियेषु अशुभ. प्रवृत्तेविरमणं संयमः, पूर्वोक्तस्य सरागस्य संयमः सरागसंयमः महाव्रतमित्यर्थः। अथवा सरागः संयमो यस्य स सरागसंयम इति बहुव्रीहिरपि । संयमश्चासायसंयमः संयमासंयमः श्रावक्रवतमित्यर्थः । अंकामेन निर्जरा अकामनिर्जरा, यः पुमान् चारकनिरोधबन्धनबद्धः। , ०, ज | १ -न्ति नि-शा० | २ शीलव- आ०, 40, ज.। ३ नारकादि प्रा- ४ अकामे नि- भा०, २०, ज.। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती | ६।२१-२२ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज कोऽर्थः ? चारकेण बन्धविशेषेण निरोधबन्धनबद्धो गाढबन्धनबद्धः चारकनिरोधबन्धनषद्धः, तादृशः पुमान् पराधीनपराक्रमः सन् बुभुक्षानिरोधं कृष्णादुःखं ब्रह्मचर्यकृच्छ भूशयनकष्टं मधारणं परितापादिका सहमान: सहतेच्छारहितः सन् दीपत् कर्म निर्जरयति सा अकामनिर्जरा इत्युच्यते । बालानां मिध्यादृष्टितापससान्यासिकपाशुपत परित्राजके कदण्ड५ ण्डिपरमहंसादीनां तपःकायक्लेशादिलक्षणं निकृतिबहुलत्रतधारणश्च बालतप उच्यते । सरागसंयमश्च संयमासंयमश्र अकामनिर्जरा च बालतपश्च सरागसंयम संयमासंयमाकामनिर्जरानातपांसि । देवेषु चतुर्णिकायेषु भवं यदायुस्तदेवं तस्य देवस्य । एतानि चत्वारि कर्माणि देवायुरात्रवकारणानि भवन्ति । अथ 'किमेतान्येव देवायुरास्रवाः भवन्ति, उताहोऽन्यदपि किमपि देवायुरात्रवनिमित्तं १० वर्तते न चा' इति प्रश्ने सूत्रमिदमाहु:--- २२६ सम्यक्त्वञ्च ॥ २१ ॥ सम्यक्त्वं तत्त्वश्रद्धानलक्षणं देवायुरात्रवकारणं भवति । किं भवनवास्यादिष्वपि देवेषु सम्यक्त्ववान् उत्पद्यते ? नैवम् यद्यपि सम्यक्त्वमिति देवायुरात्रवकारणमिति अविशेषेणोकं तथापि सम्यक्त्ववान् पुमान् सौधर्मादिविशेषस्वर्गदेवेषु उत्पद्यते न तु २५ भावनादिपु अभ्यत्र पूर्वायुष्कान् । एतदपि कस्मात् ? पृथग्योग्यात्, अन्यथा 'सम्यक्स्त्रसरागसंयम संयमानं यम । कामनिर्जरावालनपांसि देवस्य' इति सूत्रं कुर्यात् । यदा तु सम्यक्त्वहीनः पुमान् भवति तदा सरागसंयमादिमण्डिनाऽपि भवनवासित्रयं सौधर्मादिकञ्च यथागमम् उभयमपि प्राप्नोति । अथ नामकर्मास्रवसूचनार्थं सूत्रत्रयं मनसि श्रुत्वा तदाच अशुभनामकर्मा सूचनार्थ २० सूत्रमिदमाद्दुः यांगवक्रता विसंवादनञ्चाशुभस्य नाम्नः ॥ २२ ॥ कायवाङ्मनःकर्म योगः त्रिविधः, योगस्य वक्रता कौटिल्यं योगयकता कायेनान्यत् करोति वचसाऽन्यद् ब्रवीति मनसा न्यचिन्तयति एवंविना योगवकता । अन्यथास्थितेषु पदार्थेषु परेषामन्यथाकथनं विसंवादन मुख्यत । ननु योगवकताविसंवादनयोरर्थ भेदः कोऽपि २५ न वर्तते, तेन योगवकता एक वक्तव्या किं विसंवादनग्रहणेन ? इत्याह- साधूकं भवता : या आत्मगता वर्तत एव । तस्यां सत्यां परगतं विसंवादनम् तत्किमिति चेत् ? कश्चि त्पुमान् अभ्युदयनिःश्रेयसार्थासु क्रियासु सम्यक् स्वयं वर्तते तं तत्र वर्तमानमन्यं पुमांसम् अन्यः कोऽपि विपरीतकायवाङ्मनोभिः प्रयोजयति विसंवादर्यात मिध्याप्रेरयति - 'देववश, त्वमेवं मा कार्षीः, इदं कार्यं त्वमेवं कुरु इत्येवं परप्रेरणं विसंवादनमुच्यते । तेन योगाय ३० विसंबादनस्य च महान् भेदो वर्तते । एतदुभयमपि अशुभनामकर्मण आसवकारणं भवति । १ विरो-आ०, ब० ज० २ तदपि आ०, ब० ज० । ३ -हुराचार्याः आ०, ब०, जे० । ४ तस्यां तस्यां at | Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ सागर ६।२५-२४] पाष्ठोऽध्यायः चकारान् मिथ्यादर्शनम , पिशुनतायां स्थिरचित्तत्यम् : क्रूटमानतुलाकरणम् , कूटसाक्षित्वभरणम , परनिन्दनम् , आत्मप्रशंसनम , परद्रव्यमहणम् , असत्यभाषणम् , महारम्भमहापरिग्रहत्वम् , सदोचलवेषत्वम. , सुरूपतामदः, परुषभाषणम् , 'असदस्यप्रलपनम् , आक्रोशविधानम्, उपयोगेन सौभाग्योत्पादनम् , चूर्णादिप्रयोगन परवशीकरणम् , मन्त्रादिप्रयोगेण परकुतूहलोत्पादनम , देवगुर्वादिपूजामिषेण गन्धधूपपुप्पाद्यानयनम् , परविडम्बनम , ५ उपहास्यकरणम , इष्टकाययपाचनम् , दावानलप्रदानम् , प्रतिमाभञ्जनम् , पत्यायतनविध्वंसनम , आरामखण्डनादिकम् । तीवक्रोधमानमायालाभल्बम , पापकर्मोपजीवित्व त्यादयोऽशुभनामास्रवा भवन्ति । अथ शुभनामकर्मीसंवस्वरूपं निरूप्यते--- तद्विपरीतं शुभस्य ॥ २३ ॥ तस्याः कायचाइमनाचक्रताया विपरीतत्यम् ऋजुत्वम् । तद्विपरीतं यत्कर्म तत्तपिरीत तस्मात्पपातलक्षणाद्विसंवादनाविपरीत सादपरात'शुभस्य नाम्नाआस्रवकारणं वेदितव्यम् । यव पूर्वसूत्रे चकारेण गृहीतं तस्मादपि विपरीतं तद्धिपरीतम् । तथाहि-धार्मिकदर्शनसम्भ्रमसद्भावोपनयनम् । तत्किम् ? धार्मिकस्य यतिनाथादेः सम्भ्रमेण आदरसद्भावेन न तु मायया अपनयनं समीपे गमनम् । तथा संसारभीरुत्वम् प्रमादवर्जनम् , पिशुनतान्यामस्थिरचित्त- ५५ स्वम् : अकूटसाक्षित्वम् , परमर्शसनम , आत्मनिन्दनम , सत्यवचनभाषणम् , परद्रव्यापरिहरणम् , अल्पारम्भपरिग्रहत्यम् , अपरिग्रहत्वञ्च, अन्तरेऽन्तरे उज्ज्यलवेशत्वम् , रूपमदपरिहरणम् , मृदुभाषणम् , सदस्यजल्पनम् , शुभवचनभाषणम् , सहजसौभाग्यम् , स्वभावेन वशीकरणम , परेपामकुतूहलोत्पादनम् , अमिषेण पुष्पधूपगन्धपुष्पाद्यानयनम् , परेषामविडम्बनम, परवर्कराकरणम् , इष्टिकापाकदावानलप्रदाननतम् , प्रतिमानिर्मापणम् , २० तत्प्रासादकरणम् , आरामाखण्डनादिकम , मन्दक्रोधमानमायालोभत्वम् , अपापकर्मजीविस्वच्छेत्यादयः शुभनामकर्मानबा भवन्ति । ____ अथ यदनन्तनिरुपमप्रभावम् अचिन्त्यनीयैश्वर्यविशेषकारणं त्रिभुवनैकविजयकरें तीर्थकरनामकर्म वर्तते तस्यानवनिधिप्रकार सूचयन्ति सूरयःदर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलनतेष्वनतिचारोग्भीदणशानोपयोग- २५ संवेगी शरुितस्त्यागतपसी साधुसमाधियावश्यकरणमहदाचार्यबहुश्रुतप्रवचन भक्तिरावश्यकापरिहाणिमार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्थ ॥२४॥ दर्शनविशुद्धिा दर्शनस्य सम्यक्त्यस्य विशुद्धिनिर्मलता दर्शनविशुद्भिः। पृथनिर्देशः किमर्थम् ? सम्यक्त्वं किल जिनभक्तिरूपं तत्वार्थश्रद्धानरूपं या केवलमपि तीर्थकरत्वनाम- ३० १ असम्यभापणम् | २-धरु.- भा०,०,ज०।३ -करणं ती-बा०,०,ज। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ कर्माकारणं भवति । तदुक्तम् तत्त्वार्थवृत्त "एकाऽपि समर्थेयं जिनभक्तिदुर्गतिं निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रिये कृतिनः ॥ १ ॥ [ यश० ॐ० पृ० ८९] इति कारणाद्दर्शनविशुद्धेरश: तीय सूचनार्थं पृथनिर्देशः कृतः, यतस्तत्पूर्वा अन्याः पञ्जदश ५ भावना व्यस्ताः समस्ता या तीर्थ करत्वनामकारणं भवन्ति तेन रहिता तु एकाऽपि भावना कारणं न भवति । तदुक्तम् २० [ ६२४ “विद्यावृत्तस्य सम्भूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः । G न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोवि ।। १ ।।" [रत्नक: श्लो० ३२] अथ का दर्शनस्य विशुद्धिरिति चेन् ? उच्यते-- इहलोकभयं परलोकभयं पुरुषाच १० रक्षणमत्राणभयम् आत्मरक्षोपाय दुर्गाद्यभावाद्गुप्तिभयं वेदनाभयं विद्युत्पाताचोकस्मिकभयभिवि सप्तभयरहितत्वं जैनदर्शनं सत्यमिति निःशङ्कितत्वमुच्यते । इहपरलोकभोगोपभोगकाअक्षारहितत्वं निःकाङ्क्षितत्वम् । शरीरादिकं पवित्रमिति मिध्यासङ्कल्पनिरासो निर्विचिकित्सता । अमातष्टष्टतत्त्वेषु मोहरहितत्त्रम मूढदृष्टिता । उत्तम क्षमादिभिरात्मनो धर्मवृद्धिकरणं चतुविधसदोषम्पनं चोपगूहनम् उप हणमित्यपरनामधेयम्। क्रोधमानमायालोभादिषु धर्म१५ विध्वंस करणेषु नियुक्लिनिकरणम् जी खिशामने सदानुरागित्वं बात्सल्यम् । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपोभिरात्मप्रकाशनं जिनशासनोद्यतकरणं वा प्रभावना । तथा मूढन्त्रयरहितत्वं पचायत नवर्धनम् अष्टमदरहितत्वम् अजिन जलस्याऽनास्वादनं मूलकपद्मिनीकन्दपलाण्डुतुम्बकक लिङ्गसूरणकन्दसर्व पुष्प सन्वानकमञ्जण निराकरणश्चेत्यादिकं द र्शन विशुद्धिरुच्यते । १ । रत्नत्रयमण्डिते रत्नत्रये च महानादरः अकपायत्यञ्च विनयसम्पन्नता कथ्यते । २ अहिंसादिषु तेषु तत्प्रतिपालनार्थच क्रोधादिवर्जनलक्षणेषु शीलेषु अनवद्या वृत्तिः शीलत्रवेष्यनतिचार । ३ । जीयादिपदार्थनिरूपकात्मतत्कथक सम्यग्ज्ञानानवर तोयमः अभीक्ष्णज्ञानोपयोग उच्यते । ४ । भवदुःखादनिशं भीरुता संदेशः कथ्यते । ५ । आहाराभयज्ञानानां त्रयाणां विधिपूर्वकमात्मशक्त्यनुसारेण पात्राय दानं शक्तितरत्याग उच्यते । ६ । निजशक्ति२५ प्रकाशनपूर्वकं जैनमार्गाविरोधी कायक्लेशः शक्तितस्तप उच्यते । ७ । यथा भाण्डागारेऽग्नी समुत्थिते येन केनचिदुपायेन तदुपशमनं विधीयते बहूनामुपकारकत्वात् तथाऽनेकशीलसम वितस्य यतिजनस्य कुतश्चिद्विघ्ने समुत्पन्ने सति बिघ्ननिवारणं समाधिः साधूनां समाधिः साधुसमाधिः | ८ | अनवद्येन विधिना गुणचतां दुःखापनयनं वैयावृत्त्यमुच्यते । ५ । अर्हता स्नपनपूजनगुणस्तवननामजपनादिकमई द्भक्तिर्निगद्यते । १० । आचार्याणामपूर्वोपकरणदानं १ सहित ए० | २ आधर आ०, ब० ज० ३ ४ दव्यम- आ०, ब० ज० । ५ जिनचरणे स भा० ४०, ज० । चाक आ०, ब० ज० ॥ ६ - षु च शी- ता० । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टोऽध्यायः २२९ ६/२५ ] सन्मुखगमनं सम्भ्रमविधानं पादपूजनं दानसन्मानादिविधानं मनःशुद्धियुक्तोऽनुरागश्चाचार्य तिरुच्यते | ११ | तथा बहुश्रुतभक्तिरपि शातव्या । १२ तथा प्रवचने रत्नत्रयादिप्रतिपादक लक्षणे मनःशुद्धियुक्तोऽनुरागः प्रवचनभक्तिरुयते । १३ । सामायिके चतुर्विंशतितवे एकतीर्थकर वन्दनायां कृतदोषनिराकरणलक्षणप्रतिक्रमणे नियतकालागामिदोषपरिहरणलक्षणे प्रत्याख्याने शरीरममत्व परिहरणलक्षणे कार्योत्सर्गे च एवंविधे षढावश्यके यथाकाल - १९ प्रवर्तनम् आवश्यकापरिहाणिरुच्यते | १४ | ज्ञानेन दाने जिनपूजन विधानेन तपोऽनुष्ठानेन जिनधर्मप्रकाशनं मार्गप्रभावना भण्यते । ११५ । यथा सद्यःप्रसूता धेनुः स्वयत्मे स्नेहं करोति तथा प्रवचने धर्मणि ने स्नेहलत्वं प्रवचनधी अवेचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज अत्र समासशुद्धिः - दर्शनस्य विशुद्धिः दर्शनविशुद्धिः । विनयेन सम्पन्नता परिपूर्णता विनयसम्पन्नता । शीलानि च व्रतानि च शीतानि तेषु शीलवतेषु न अतिचारः अनविचारः । १० अभीक्ष्णमविच्छिन्नं ज्ञानस्य उपयोगोऽभ्यासः अभीक्ष्णज्ञानोपयोगः, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग संवेगश्च अभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगी । शक्तितस्त्यागश्च तपश्च शक्तितरत्यागतपसी | साधूनां साधुपु वा समाधिः साधुसमाधिः । व्यावृत्तेर्भाया वैयावृत्त्यं वैयावृत्त्यस्य करणं विधानं वैयावृस्थकरणम् | अर्हन्तश्च आचार्याश्च बहुश्रुताश्च प्रवचनश्च अर्हदाचार्य बहुश्रुतप्रवचनानि तेषां तेषु वा भक्तिः अर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिः । सुमुहूर्तीद्यनपेक्षम् अवश्यं निश्चयेन कर्तव्या - १५ नि आवश्यकानि तेषामपरिहाणिः आवश्यकाऽपरिहाणिः । मार्गस्य प्रभावना मार्गप्रभावना | प्रवचने वत्सलत्वं प्रवचनवत्सलत्वम् । आवश्यका परिहाणिश्च मार्गप्रभावना च प्रवचनवत्सलcasa आवश्यकपरिहाणिमार्ग प्रभावनाप्रवचनवत्सवत्वं समाहारो द्वन्द्रः । इति पोडश प्रत्ययाः । एतानि षोडश कारणानि तीर्थंकरत्वस्य तीथकरनामकर्मण आस्रवकारणानि भवन्ति । अथ उच्चनीचगोत्रद्वयस्यास्त्रवसूचनपरं सूत्रद्वयं मनसि वृत्या तत्र तावन्नी त्रिस्य २० आवकारणं निरूपयन्तः सूत्रमिदमाहुःपरात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैमंत्रिस्प ||२५|| परश्य आत्मा च परात्मानौ निन्दा च प्रशंसा च निन्दाप्रशंसे, परात्मनोः निन्दाप्रशंसे परात्मनिन्दा प्रशंसे परस्य निन्दा आत्मनः प्रशंसा इत्यर्थः । सन्तो विद्यमानाः असन्तोऽविद्यमानाः सदसन्तः ते च ते च गुणाः ज्ञानतपःप्रभृतयः सदसद्गुणाः उच्छादन २५ लोपनम् षद्भाबनश्च प्रकाशनम् उच्छादनोद्भावने, सदसद्गुणानामुच्छादनोद्भावने सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने सद्गुणोच्छादनमसद्गुणोद्भावनमित्यर्थः । एतानि चत्वारि कर्माणि नीचेगौत्रस्य मलिनगोत्रस्य आस्वकारणानि कर्मागमनहेतवो भवन्ति । चकाराज्जातिमत्रः कुलमदः बलमदः रूपमदः श्रुतमदः आज्ञामदः ऐश्वर्यमदः तपोमदश्चेत्यष्ट्र मदाः, परंपमपमाननम्, १ त्रयलक्षणे ता० । २ - तिमस्तवने ती आर ० ज० । ३ समानसे विधी आ०, ब०, प० । ४ बिनये स आ०, ब० ज० | Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० तत्त्वार्थवृत्तों [६।२६-२७ परोप्रहसनम् मागदविवादनाचाच चितिशासामार माहाशानदानम् , गुरूणामवमाननम् , गुरूणां निर्भर्त्सनम् , गुरूप,मजल्प्ययोटनम् , गुरूणां स्तुतेरकरणम् , गुरूणामनभ्युत्थानश्चेत्यादीनि नीचर्गोत्रस्यास्रवा भवन्ति । ____अथोच्चोत्रानबा उच्च्यन्ते तद्विपर्ययो नीचत्य नुस्सेको चोत्तरस्य ॥२६॥ तस्य पूर्वोक्तार्थस्य विपर्ययो विपर्यासः आत्मनिन्दापरप्रशंसारूपः सद्गुणोद्भावनाऽ सद्गुणोच्छादनरूपश्च तद्विपर्ययः । गुणोत्कृष्टेषु विनयेन प्रह्वीभाषः नीचत्तिरुच्यते | ज्ञानतपःप्रभृतिगुणैर्यदुत्कृष्टोऽपि सन् ज्ञानतपःप्रभृतिभिर्मदमहङ्कारं यन्न करोति सोऽनुसेक इत्युच्यते। नीतिअनुत्सेकश्च नीचेर्वृत्त्यनुत्सेको । एतानि षटकार्याणि उत्तरस्य नीचोप्राद१० परस्य उच्चैगोत्रस्यास्रया भवन्ति । चकारान पूर्वसूत्रोक्तचकारगृहीतविपर्ययश्चात्र गृह्यते । तथाहि "ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धिं तपो वपुः। अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥१॥ [ रत्न क० श्लो० २५ ] इति श्लोकोक्ताष्टमदपरिहरणम् परेषामनपमाननम् , अनुत्प्रहसनम् अपरीवादनम् , गुरूणामपरिभवनमनुट्टन गुणस्यापनम् , अभेदविधानं स्थानार्पण सम्माननं मृदुभाषणं १५ चाटुभाषणश्चेत्यादयः उच्चैर्गोत्रस्यानवा भवन्ति । अथान्तरान्यस्यास्वत्र उच्यते विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥२७॥ विहननं विघ्नः दानलाभभोगोपभोगयीर्याणां प्रत्यूहः, विघ्नस्य करणं विघ्नकरणम् , अन्तरायस्य दातृपात्रयोरन्तर मध्ये एत्यागच्छतीत्यन्तरायः तस्यान्तरायस्य, यद्विघ्नकरणं तन् २० अन्तरायस्यास्रयो भवति । चकाराधिकाराद् दाननिन्दाकरणम् , द्रव्यसयोगः, देवनैवेद्यभक्ष णम् , परवीर्यापहरणम् , धर्मच्छेदनम् , अधर्माचरणम् , परेषां निरोधनम् , बन्धनम् , कर्णच्छेदनम् , गुह्यच्छेदनम, नासाकर्तनम्, चक्षुरुत्पाटन त्यादय अन्तरायस्यास्रवा भवन्ति। ये तत्पदोपादय आस्रवा उक्तास्ते निजनिजफर्मणः निजा निजा आस्रवाः स्थित्यनुभागबन्धकारणं भवन्ति, प्रकृतिप्रदेशबन्धयोस्तु कारणानि सर्वेऽपि आस्रया भवन्ति अन्यत्रायुष्कबन्धादिति ।। २७ ।।। २५ इति सूरिश्रीश्रुतसागरचिरचितायो तात्पर्यसंज्ञायां तत्त्वार्थवृत्तौ षष्ठः पादः समाप्तः । १वभेदनम् ता । २ न्ययोगः ०,०, ज | ३ -युष्कर्मब - मा०, २०, ज० | ४ इत्यनवद्याद्यविद्यात्रिगे:दनोदितप्रमादपी सुपरसपानपानमतिसमाजरत्नराजमतिसागरयतिराजराजितानसमर्थन तकव्याकरणछन्दोऽलङ्कारसाहित्यादिशास्त्रनिशितमसिना यतिना श्रीमद्देवेन्द्रकीर्तिमहारमप्रशिष्येण शिध्येण च सकलाबदजना-हिताचणजेवल्य विद्यानन्दि देवस्य सम्छद्दि तामथ्यामतदुर्गरंग भुतसागरेण सूरिणा विरचिताया इलेकवाति कराजवाति कसर्वार्थसिद्विन्यायकुमुदचन्द्रोदयप्रमेयकमलमार्तण्डप्रचण्डाष्टसहस्रीप्रमुखमन्यसन्दर्भनिर्भरावलोकनबुद्धिविराजितायां तत्वार्थटीकायां षष्ठः पादः समातः । -आऊ, य० । - -- Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PM सप्तमोऽध्यायः •मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज अथ षष्टाध्याये आस्रवपदार्थो यो व्याकृतः तस्याध्यायस्य प्रारम्भसनये यत्सूत्रमुक्तम्"शुमः पुण्यस्याशुभः पापस्य" [६.३] इति सूत्रे शुभी योगः पुण्यस्यास्रथा भवनि अशुभो योगः पापस्यास्रयो भवति, तदेतत् शुभाशुभयोगद्यं सामान्यतयोक्तम् । नत्र शुभयोगस्य विशेषपरिज्ञानार्थ का शुभो योग इति प्रश्ने सूत्रमिदमाहुः हिंसानृतस्तेषान्तह्मपरिग्रहेभ्यो विरतितम् ॥ १॥ ५ हिंसनं हिंसा प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरायणमित्यर्थः । न ऋतं न सत्यम् अनृतम् असदभिधानमित्यर्थः । सन्यते स्तेयम् , "ऋवर्णव्यञ्जनान्ताद्ध्यण" [ का० सू० ४।२।३५ ] इति ध्यणि प्राप्ने "म्तेनाद्यन्तलोपश्च" [ ] यत्प्रत्ययः, अन्तलोपश्चेति नकारलोपः स्तेयम् अदत्तादानम् । बृहन्ति अहिंसादयो गुणा यस्मिन् सति तद् ब्रह्म ब्रह्मचर्यम् , न ब्रह्म अब्रह्म मथुनमित्यर्थः। परि समन्ताद् गृहाते परिग्रहः मनोमू लक्षणः प्रणेच्छालक्षणः परिग्रह १० प्रख्यते । हिंसा चानृतञ्च स्तेयञ्च अब्राय च परिप्रधश्च हिसानृतस्तयाब्रह्मपरिग्रहास्तेभ्यः हिंसामृतस्ते यात्रापरिग्रहेभ्यः । विश्मणं विरतिः हिंसादिपञ्चपातकेभ्यो या विरतिः विमणम् अभिमन्धिकृतो नियमः प्रत उच्चते । अथवा, इदं मया कार्यमिदं मया न कार्यमिति प्रां कथ्यते । ननु "ध्रयमपायेऽपादानम" [पा सू० १४ा. ] इति वचनाद अपाये मति गद् ध्रुवं तदपादानं भवति, हिंसानृतस्तेयाब्रह्मरिग्रहपरिणामास्तु अध्रुवाः १५ वर्तन्ते कथं तत्र 'पञ्चमीविभक्तिघंटते ? सत्यमेवैतत् ; परन्तु हिंसादिभ्यो बुद्धेरपाचे सति शिरमणलक्षणे बिश्लपे सति हिंसादीनामाचार्येण ध्रुवत्वं चित्रक्ष्यते वक्तुर्विवक्षितपत्रिका शब्दार्थप्रतिपत्तिः" [ ] इति परिभाषणाइन पञ्चमी घटते । यथा--'कचिन पुमान् धर्माविरमति' इत्यत्रायं पुमान् सम्भिन्नबुद्धिविपरीतमतिः सन मनमा धर्म पनि पश्च'चारयति—'अयं धर्मो दुष्करो बनते अस्य धर्मस्य च फलं श्रद्धामावगम्यं वर्तते' एवं पर्यालोच्य स पुमान् बुद्धगा धर्म संप्राप्य तम्माः ध्रुवम्पादपि धर्मावर्तते, पश्चलते उघ यथा पञ्चपी तथाऽत्रापि एप मानः प्रेक्षापूर्यकारी विचारपूर्वकारीक्षते-एते हिंसादयः परिणामाः पापापाजनहेतुभूना वतन्ते, ये तु पापकर्मणि प्रयतन्ते ते नृपरिव दण्ड्यन्ते परन च दुःखिनो भवन्ति इति स बुद्धया हिसादीन् सम्प्राप्य तभ्या निवर्तते, ततस्तस्माना. कारणाद् बुद्ध या ध्रुवत्वधियक्षायां हिसादीनामपादानत्वं घटते । तेनायमर्थः-हिंसाया २५ पिरतिः अनूताद्विरतिः स्तेयाद् विरतिः अब मणो विरतिः परिग्रहाहिरतिश्चेति विरतिशब्दः श्येकं प्रयुज्यते । तस्मिन् सति अहिंसावतमादौ घियते सत्यादीनां मुख्यत्वात् , सत्यादीनि Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ तत्वार्थवृत्त [ 017-3 तानि द्दि अहिंसाप्रतिपालनार्थं वर्तन्ते धान्यस्य वृतिवेष्टनवत्। व्रतं हि सर्व सावद्ययोगनिवृत्तिलक्षणमेकं सामायिकमेव छेदोपस्थापनाद्यपेक्षया तु पञ्चविधमुच्यते । अत्राह कञ्चित्—व्रतस्यास्तवकारणत्वं न घटते संत्ररकारणेसु अन्तर्भावान् "सगुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीप हजयचारित्र:" [२] इति वक्ष्यमाणत्वात्, तत्र दशलक्षणे ५ धर्मे चारित्रे वा व्रतानामन्तर्भावो वर्तते, कथमास्रवतो प्रतानि भवन्तीति ? साधूकं भवता । वक्ष्यमाणः संत्ररः निवृत्तिलक्षणो वर्तते, अत्र तु अहिंसासत्यदत्तादानब्रह्मचर्य स्वीकारपरिमहत्वाङ्गीकारतया प्रवृत्तिर्वर्तते तेनास्रवतो घटन्ते तानि । गुप्तिसमित्यादयः संवरस्य परिकर्म वर्तयामशिखेऽस्ति वा विहितानुष्नो भवति स सुखेन संवरं विवाति तेन कारणेन व्रतानां पृथकृतया उपदेशो विधीयते । वि १० i अवाह कश्चित् -- ननु रात्रिभोजनविरमणं षठमणुखतं वर्तते तस्येहोपसङ्ख्यानं नास्ति कथनं न वर्तते तदृ वक्तव्यम् ? युक्तमुक्तं भवता अहिंसाप्रतस्य पश्र्च भावना वक्ष्यन्ते – “वाङ्मनोगुतीर्यादाननिक्षेपण समित्यालोकित पानभोजनानि पञ्च" [७/४ ] इति पचसु अहिंसा प्रभावनासु यदुक्तम् आलोकितपानभोजनं तत् आलोकित पानभोजनं रात्र न घटते, सद्भावनाग्रहणेन रात्रिभोजनविरमणं सङ्गृहीतमेबाचायैः । २५ ९. २५ 3 अथ पञ्चकारतस्य भेदपरिज्ञानार्थं सूत्रमिदमुच्यते - देश सर्वतोऽणुमहती ॥ २ ॥ देशश्व एकदेशः सर्वश्व परिपूर्णः समस्त इत्यर्थः देशसव देश सर्वाभ्यां देशसर्वतः । अणु च महा अणुमती । अस्याममर्थः - देशतो विरतिरबतं भवति सर्वतो विरतिर्महाव्रतं भवति । अत्रतं गृहिणां व्रतम्, महात्रतं निर्मन्थानां भवति इत्यनेन श्रावकाचारो यत्याचारा २० सूचितो भवति । अथ यथा उत्तममौषधं लिकुचफलरसादिभिर्भावित रुग्दुःखविनाशकं भवति तथा तमपि भावनाभिर्भाचिनं सत् कैमरोगदुःखविनाशकं भवति, तेन कारणेन एकैकस्य व्रतस्य पच पच भावना भवन्ति । 'किमर्थं भवन्ति' इत्युक्ते सूत्रमिदमुच्यते तत्स्थैर्यार्थ भावना पञ्च पञ्च ॥ ३ ॥ स्थिरस्य भावः स्थैर्य तेषां व्रतानां स्थेयं तत्स्थेयं तत्स्थैर्यस्य अर्थः प्रयोजनं यस्मिन् "भावनक्रमं तत्तत्स्थेयोर्थ पचानां स्थिरीकरणार्थ मित्यर्थः । एकैकस्य व्रतस्य पञ्च पच भावना भवन्ति । समुदिताः पचविंशतिर्भवन्ति । १ सन्नि - भा०, ब० · ज० । २ सद्भाव सा० । ३ - ते स्वामिना देश आ०, ब०, जर | ज० । ५ भावक- ता० । ४ कर्मभोगदुःख - आ०, ब० Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७|४-६] सप्तमोऽध्यायः तत्र तावत् अहिंसाव्रतस्य पच भावना उच्यतेवामनोगुसर्यादाननिक्षेपणस मित्यालोकित पानभोजनानि पञ्च ॥ ४ ॥ मिशः द्वयोः प्रत्येकं प्रयुज्यते, वाग्गुप्तिश्च मनोगुप्तिश्च वाङ्मनोगुनी । समिति शब्दः प्रत्येकं द्वयोः सम्बद्धयते, ईर्यासमितिश्व आदाननिक्षेपणसमितिश्च ईर्यादान निक्षेपणसमिती | पान भोजन पानभोजने आलोकिते सूर्यप्रत्यक्षेण पुनः पुनर्निरीक्षिते ये ५ पानभोजने ते आलोकितपानभोजने, अथवा पान भोजन पानभोजनं समाहारो हुन्छ, आलोकितञ्च तत् पानभोजनश्च आलोक्तिपानभोजनम् । ततः वाङ्मनोगुप्सी च ईश्रदाननिक्षेपण समितीच आलोकितपानभाजनञ्च वाङ्मनोगुतीर्थादाननिक्षेपण समित्यालोकित पानभोजनानि । एताः पञ्च अहिंसात्रतभावना वेदितव्याः | १० अथ सत्यत्रतभावनापचक्रमुच्यते दर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज कीलोभमोरुस्वास्थप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणञ्च पञ्च ॥ ५ ॥ 1 भीरोर्भावो मरुत्वम् इसस्य भावो हास्यम्, क्रोधश्च लोभश्रा भीरुत्व हास्यश्च कोलोभभीस्यानि तेषां प्रत्याख्यानानि वर्जनानि कोष लोभभीरुत्व हास्यप्रत्याख्यानानि चत्वारि । अनुवीचिभाषणं चिचार्य भाषणमनवद्यभाषणं वा पश्चमम् । अस्यायमर्थः क्रोधप्रत्याख्यानं क्रोधपरिहरणम्, लोभप्रत्याख्यानं 'लोभविवर्जनम् मीत्व- १५ प्रत्याख्यानं भयत्यजनम् हास्यप्रत्याख्यानं वर्करपरिहरणम्, एतानि चत्वारि निषेधरूपाणि, अनुभाषणं विधिरूपं कर्त्तव्यतयाऽनुष्ठानम् । चकारः परस्परसमुच्चये वर्तते । एताः पञ्च भावनाः सत्यव्रतस्य वेदितव्याः । ३० 3 अथाऽचर्य व्रत भावनाः पच्यन्ते शून्यागार विमोचितावासपरोपरोधाकरण भैक्षशुद्धिमधर्मा १ भरिव भ० ५०, न० । २३३ विसंवादाः पञ्च ॥ ६॥ शून्यानि च तानि आगाराणि शून्यागाराणि पर्वतगुहावृक्ष कोटर नदीतट प्रभृतीनि अस्वामिकानि स्थानानि शून्यागाराण्युच्यन्ते । विमोचितानि उद्धसग्रामनगर पत्तनानि शत्रुfreaासितानि स्थानानि विमोचितान्युच्यन्ते तेषु आवासौ शुन्यागारविमोचितावासौ । परेषामुपरोधस्य ठस्य अकरणं परोपरोधाकरणम् भिक्षाणां समूहो भैक्षं समूहे अणू २५ art शुद्धिः भैrशुद्धिः, उत्पातनादिदोषरहितता । समानो धर्मो जैनधर्मो येषां ते सधमाणः "धर्मादनिच् (१) केवलात् " [ पा० सू० ५/४/१२४ ] । विरूपकं सम्मुखीभूय बदनं वेदं ममेदमिति भाषणं दिसंवादः न विसंवादः अविसंवादः, सघर्मभिः सह अविसंवादः सधर्माविसंवादः । शुन्यागार विमोचितावासौ च परोपरोधाकरणञ्च भैभशुद्धिश्र सधर्माविसंवादश्च शून्यागारविमोचिताचा सपरोपरोधाकरण भैक्षशुद्धिसधर्माबि संवादाः पश्च भावना ३० " २० Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थ वृत्ती [819-6 "असादानविरमणत्रतस्य भवन्ति । शून्यागारेषु यस्यावासो भवति स निस्पृहः स्यात् तस्य अदत्तादानविरमणव्रतं स्थिरीभवति । यच विमोचितेषु स्थानेषु आवासं करोति तस्यापि मनः परिग्रहेषु rिeg भवति तेनापि अदत्तादानविरतिव्रतस्य परमं स्थेयं स्यात् । एवं द्रे भावने भवतः । परोपरोधाकरणो ऽपि पराग्रहणान् तत् स्थिरं स्यात् । तथान्तरायादि५ प्रतिपालने मनसा सह चौर्य न भवति तेनापि तं स्थिरीभवति । समभिः सह विसं बादे जिनवचनस्त्यैन्यं भवति, तदभावे तत् स्थिरं स्यात् । २३४ ૨૦ स्त्रीणां रतावत्रदशवन्धिनी।वीरवहानम् । तासां स्त्रीणां मनोहराणि हृदयानुरञ्जकानि यानि अङ्गानि षदनस्तनजघनादीनि तेषां निरीक्षणमवलोकन तन्मनोहराङ्गनिरीक्षणम् । पूर्वश्व तत् तच पूर्वशर्त पूर्वकालभुक्तभोगः तस्य अनुस्मरणमनुचिन्तनं पूर्वरतानुस्मरणम् । वृषे वृषभे साधवो वृष्याः येषु रसेषु भुषु पुमान् वृषभवद् उन्मत्तकामो भवति ते रसा वृष्या इत्युच्यन्ते, उपलक्षणत्वात् येषु रसेषु १५ भुक्तेषु वाजीष अश्ववदुन्मत्तकामो मयति ते वाजीकरणरसाः वृषशब्देन उपलक्षकेनोपलक्ष्यते, इष्टामनोरसनानुरञ्जकाः, वृष्याश्च ते इद्राच ते च ते रसाः वृष्येष्टरसाः इन्द्रियाणामुत्कटल सम्पादका उत्कटरसा इत्यर्थः । स्वमात्मीयं तच तच्छरीरच स्वशरीरं निजशरीरं तस्य संस्कारः दन्तनखकेशादिष्टङ्गारः स्वशरीरसंस्कारः । स्त्रीरागकथाश्रवणश्च तन्मनोहराङ्गनिरीक्षणच पूर्वरतानुस्मरण वृष्येष्टरसाच स्वशरीरसंस्कारच स्त्रीरागकथाश्रवण तन्मनोहराङ्ग निरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणष्षृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्काराः तेषां त्यागाः वर्जनानि ते तथोक्ताः । एताः पञ्च भावना ब्रह्मचर्यव्रतस्य स्थिरीकरणार्थं भवन्ति । अदानीं ब्रह्मचर्यव्रतस्य पश्च भावना उच्यन्तेस्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्ग निरीक्षण पूर्वरतानुस्मरण वृष्येष्ट रसस्वशरीरसंस्कारस्थागाः पञ्च ॥ ७ ॥ २० अथ परिग्रहविरमणव्रतस्य पञ्च भावना उच्यन्ते मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रिय विषय रागद्वेषवर्जनानि पञ्च ||८|| मनो जानन्तीति मनोज्ञाश्चित्तानुरञ्जकाः । तद्वपरीता अमनोशाः । मनोशाच अमनो २५ शाश्च मनोज्ञामनोज्ञाः से च ते इन्द्रियाणां स्पर्शनर सनत्राणचक्षुः श्रोत्राणां विषयाः स्पर्शरस शन्दरूपाः तेषु राग द्वेषश्च तयोर्वर्जनानि परित्यागाः पञ्चानामिन्द्रियाणामिष्टेषु विषयेषु रागो न विधीयते अनिष्टेषु च विषयेषु द्वेषो न क्रियते । एताः पश्न भावनाः परिग्रहपरित्यागतस्य स्थैर्यार्थं भवन्ति । १- दानत्रतस्य आ०, ब० ज० । २ तस्य म आ०, ब० ज० । ३ स्पस्थे - तto | ४- णेऽपि ग्रह-आ०, ब० ज०५ सवतं ता० ६ - पलभ्यन्ते भा०, प०, ज० । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] सप्तमोऽध्यायः २३५ भावना क्रियन्ते तथा व्रतस्थेयोर्थ व्रतविरोधिष्यधि भावना अथ यथा त्रतस्थ विन्स इत्यभिधेयसुखकं सूत्रमुथते हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥ ९ ॥ हिंसा आदिर्येषाम् अनृतस्तेयात्रापरिमाणां ते हिंसादय: तेषु हिंसादिषु इह अस्मिन् जन्मनि अमुत्र च भविष्यद्भवान्तरे, अपायश्चाभ्युदयनिःश्रेयसार्थं क्रियाविध्वंसकप्रयोगः ५ सप्तभयानि वा अवयं न उदितं (तुं ) योग्यम् अवयं निन्दनमित्यर्थः । अपायश्चावचश्व अपायावद्दिष्ट क्रिया यावन के परलोके च अपायावद्यदर्शनं जीवस्य भवति । हिंसादिषु पञ्चपातकेषु कृतेष्विति भावनीयम् । तथाहि हिंसकः पुमान् लोकानां नित्यमेव उद्वेजनीयो भवति, नित्यानुबद्ध वरश्च रुजायते । इह भवेऽपि बधबन्धनादिक्लेशा- १० दीन् परिप्राप्नोति मृतोऽपि सन् नरकादिगतिं प्रतिलभते । लोके निन्दनीयश्च भवति । #मात्कारणात् केनापि हेतुना हिंसा न कर्तव्या । हिंसाविरमणं श्रेयस्कर भवति अजगजजादीनां हवनं च महानरकपातकं भवति परेषां दुःखजनकत्वान् । F असत्यवादी पुमान् अविश्वसनीयों भवति । जिह्वाकर्णनासिकादिच्छेदन प्रतितेति । मिध्यावचनदुःखिताश्च पुरुषा बद्धवैराः सन्तः प्रचुराणि व्यसनानि मिथ्यावादिन १५ यति गईण कुर्वन्ति । तस्मात्कारणाद सत्यवचनादुपरमणं श्रेयस्करम् । परद्रव्यापहारी पुमान् कर्मचाण्डालानामप्युत्रे जनीयो भवति । इहलोकेऽपि निष्ठुरद्वार बधबन्ध-करचरणश्रवणरसनात्तरन्तच्छदच्छेदन - सर्वस्वापहरण "अबालवलियारोहलादिकं प्रतिप्राप्नोति । मृतोऽपि सन्नरकादिगतिगर्तेषु पतति । सर्वलोकनिन्दनीयच भवति । वो कोनोपजीवनं न श्रेयस्कर मिति भावनीयम् । Sn ५ ब्रह्मचारी पुमान् मदोन्मत्तो भवति । विभ्रमोपेत उद्यान्नमना यूवनाथ इव रिषितः परवशः सन् वधबन्धपरिक्लेशान् प्राप्नोति । मोहकर्माभिभूतश्च सन् कार्य नो जानीते। स्त्रीलम्पटः सम् दानपूजनजिनस्तवनोपवसनादिकं किमपि नैवाचरति । परपरिमद्दाश्लेषण सङ्गतिकृतर तिच अस्मिन्नपि भत्रे वैरानुबन्धिहाम्रोफोविकर्तन - तदादितर्कादिप्रवेश-बध-बन्ध सर्व स्वापहणादिकमपायं प्रतिलभते । २५ सि नरकादिगतिगर्त दुःखकई मनिमज्जनं प्रतिलभते । सर्वलोकनिन्दनीयश्च भवति । मन्दिर विविरतिर/क्ष्मनः श्रेयस्करीति भावनीयम् । सुपरिमइः पुमान् परिग्रहार्थिनां परिभवनीयो भयति पक्षिणां परिगृहीतमांसखण्ड १- ष्वपि भा भा० निर्भरण - भा०, ब० ज० -नीयो म- बा०, ब० ज० । ७ लिङ्गच्छेद- लिङ्गामभागे शल्यकाप्रवेश | ० ० २ प्रतिप्रा० । ३ वा व्यसनिन उ अ१०, ब० ज० । ५ मुण्डितः सन् गईभारीहणादिकम् । अवलवाले - भा०, म० ज० । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती [ ७/१०-११ पक्षिवत्। परिग्रहोपार्जने तद्रक्षणे तत्क्षये च प्रचुराम्यादीनयानं समन्तात् लभते । धनैस्तु इन्धनैरिव चपिः तृप्तिर्न भवति । लोभाभिभूतः सन् उचितमनुचितं न जानीते । पात्रे - प्यागतेषु मध्योत्तरं ददाति । कपाटपुटसन्धिबन्धं विधते ददाति चेदर्द्धचन्द्रम् | मृतोऽपि सन्निरयादिगति सरिदशात जलावगाहनं भृशं कुस्ते, लोकनिन्दनीयश्च भवति । ५ तेन परिग्रहविरमणं नराणां श्रेयस्करम् । इत्यादिकं दिसादिपपातकेषु अपायाऽयद्यदर्शनं नित्यमेव भावितव्यम् । २३६ अथ हिंसादिपू पपात के अन्य सवार आचार्य दुःखमेव वा ॥ १०॥ なり महाराज नीतिसूत्रमुच्यते- वा अथवा हिंसादयः पञ्च पावकाः दुःखमेव भवन्ति दुःखस्वरूपाण्येवेति भावना १० भावनीया । नतु हिंसादयो दुःखमेव कथं भवन्ति । सत्यम् ; दुःखकारणात् दुःखम, यस्तु यस्य कारणं तत्तदेवोच्यते उपचारात् अन्नं खलु प्राणा इति यथा प्राणानां कारणत्वात् अन्नमपि प्राणा इत्युच्यन्ते । अथवा दुःखकारणस्य कारणत्वात् हिंसादयो दुःखमुच्यन्ते, तथाहि – हिंसादय असातावेदनीयकर्मणः कारणम्, असातावेदनीयञ्च कर्म दुःखस्य कारणं तेन दुःखकारणकारणत्वाद् वा दुःखमित्युपचर्यन्ते । यथा 'प्राणिनां धनं प्राणः' इत्युक्ते वनं १५ द्दि अन्नपानकारणम् अन्नपानच प्राणकारणं तत्र यथा धनं प्राणकारणकारणं प्राणा इत्युपचर्यते तथा दुःखकारणकारणाऽसद्वेश कारणत्वाद् हिंसादयोऽपि दुःखमुपचर्यन्ते । इत्येवमपि भावना स्थैर्यार्थं भवति । ननु विषयेषु रतिसुखसद्भाषान् सर्वमेव कथं दुःखम् ? सत्यम् विषयरतिसुखं सुखं न भवति वेदनामनीकारत्वात् खर्जून खादिमार्जनवत् । भूयोऽपि तानां स्थिरीकरणार्थ भावनाविशेषात् सूत्रेणानेन भगवानाह - मैत्री प्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु ॥११॥ मित्रस्य भावः कर्म वा मैत्री । "यत्स्त्रीनपुंसकाख्या" [ ] इति वचनात् स्त्रीत्वम्, नपुंसके तु मध्यमित्यपि भवति । कायवाङ्मनोभिः कृतकारितानुमतैरन्येषां कृच्छ्रानुत्पत्तिकाला मैत्रीत्युच्यते । मनोनयनवदनप्रसन्नतया विक्रियमाणोऽन्तर्भक्तिरागः २५ प्रमोद इत्युच्यते । हीनदी नकानीनानयनजनानुमत्वं कारुण्यमुच्यते । करुणाया भावः कर्म वा कारुण्यम् । मध्यस्थस्य भावः कर्म वा माध्ययम् रागद्वेषजनितपक्ष पातस्याभाषः माध्यस्यमुच्यते | मैत्री च प्रमोदश्च कारुण्यच्च माध्यध्यक्ष मैत्री प्रमोद कारुण्यमाध्यस्यानि । पापकर्मोदयवशात् नाना योनिषु सीदन्ति दुःखीभवन्तीति सत्त्वाः प्राणिनः । ज्ञानतपःसंयमादिभिर्गुणैरधिकाः प्रकृष्टा गुणाधिकाः । असदेद्य कर्म विपाकोत्पादितदुःखाः क्लिश्यन्ते इति १ आदीनवो दोषः । २ मैत्रभि-आ०, ब० ज० । 3 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १/र ] सप्तमोऽध्यायः २३७ क्लिश्यमानाः । तत्स्वार्था कर्ण नस्त्रीकरण, स्यामृते अनुत्पन्नसम्यत्र वादिगुणा न विजेतुं शिक्षयितुं शक्यन्ते ये ते अविनेयाः । सत्त्वाश्च गुणाधिकाश्च क्लिश्यमानाश्च अविलेया सगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयास्तेषु तथोकेषु । अस्यायमर्थः - सत्त्वेषु सर्व जीवेषु मैत्री भावनीया गुणाधिकेषु सद्ध्यादिपु प्रमोदो विधेयः । क्लिश्यमानेषु दुःखीभवत्सु मर्यादर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसा मादिषु जिनधर्म- ५ arry निर्गुणेषु प्राणित्रु माध्यस्थ्यं मध्यस्थता औदासीन्यं भावनीयम् । एतासु भावनासु भायमानासु अहिंसादयो व्रताः मनागूना अपि परिपूर्णा भवन्ति । चकारः परस्परसमुच्चये ते पूर्वोक्तसूत्रार्थेषु अत्र च । 1 अथ भूयोऽपि भावना विशेषप्रतिपादनार्थ सूत्रमिदमाहुः- जगस्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥ १२ ॥ १० गच्छतीति जगद् “द्युतिगमो च" [ का० सू० ४|४|१८ ] इति साधुः । जगरुच काय जगत्कायो जगत्काययोः स्वभावौ जगत्का यस्वभाव | संवेजनं संवेगः, विरागस्य कर्म चाभ्यम् । संवेगश्च संसारभीरुता धर्मानुरागो वा वैराग्यञ्च शरीरभोगादिनिर्वेदः संवेगवेराग्ये, तयोरर्थः प्रयोजनं यस्मिन् भावनकर्मणि तत् संवेगवैराग्यार्थम् । जगत्स्वभावः संसारस्वरूप चिन्तनं लोकस्वरूपभावनम् कायस्वभावः अशुचित्वादिस्वरूप- १५ चिन्तनम् । एतद् भावनाद्वयं संवेगवेराग्यार्थं भवति । वाशब्दः पक्षान्तरं सूचयति तेनाहिंसादितानां रथं च वेदितव्यम् । ." तत्र तावज्जगत्स्वभावः उच्यते जगत् त्रैलोक्यम् अनादिनिधनम् अधोजगत् वेत्रासनाकारं मध्य जगत् झहरीसदृशम् ऊर्ध्वजगत मृदङ्गसन्निभम् ऊदूर्ध्वमर्दलाकारम् । अस्मि अगति अनादिसंसारे अनादिकाले चतुरशीतिलक्ष योनिषु प्राणिनः शारीरमानसागन्तुक - २० दुःखनसावं भोजं भोजं भुक्त्वा भुक्त्वा पर्यदन्ति परिभ्रमन्ति । अत्र जगति किंचिदपि यौवनादिकं नियतं न वर्तते शाश्वतं नास्ति, आयुर्जलबुद्बुदसमानं भोगसम्पदः तडिन्मे पेन्द्रचापादिविकृति चञ्चलाः । अस्मिञ्जगति जीवस्य इन्द्रधर गन्द्रचक्रवत्यादिकः कोऽपि विपदि जाता न वर्तते । इदं जगज्जन्मजरामरणस्थानं वर्तते । इत्यादि भावनायाः संसारसंवेगो भवभीरुता भवति, अहिंसादयो वाच स्थिरत्वं प्रतिलभन्ते । २५ कायस्वभाव उच्यते — कायः खलु अधुवः दुःखहेतुः निःसारोऽशुचिः बीभत्सुदुर्गन्धः मूत्रनिधानं मन्तापहेतुः पापोपार्जन पण्डितः येन केनचित् पदेन पतनशीलः इत्येवं कायस्वभावभावना विपरागनिवृत्ति संचति, वैराग्यमुलद्यते, व्रतानां स्थेयं भवति, तेनंतौ जगarrera भावनीयो । अथ हिंसादीनां पञ्चपातकानां स्वरूपनिरूपणार्थं सूत्राणि मनसि धृत्वा युगपद् वक्तु- ३० १ दृष्टिषु आ०, ब० ० २ सुत्रे च ० ० ० १ ३ ससार आ०, ब० ज० । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्तौ मशक्यत्वात् तत्र तावत् हिंसालक्षणप्रतिपादकं सूत्रमिदमुच्यतेप्रमत्तयोगात प्राणव्यपरोपणं हिमा ॥ १३ ॥ प्रमाद्यति स्म प्रमत्तः प्रमायुक्तः पुमान् काय संयुक्तात्मपरिणाम इत्यर्थः । अथवा इन्द्रियाणां प्रचारमनवधार्य अनिवार्य यः पुमान् प्रवर्तते स प्रमत्तः । अथवा प्रवृद्धकषायोदय - ५ प्रविः प्राणातिपातादिहेतुषु स्थित अहिंसायां शायेन यतते कपटेन यनं करोति न परमार्थेन स प्रमत्त उच्यते । अथवा पञ्चदशप्रमादयुक्तः प्रमत्तः । के ते पञ्चदश प्रमाशः ? 'चतस्रो विकथाः चत्वारः कपायाः पचेन्द्रियाणि निद्रा प्रेमा च । तथा चोक्तम २३८ "विका तह य कसाया इंदियणिहा तहेच पणओ य । चदुचदुपणमेगेगे होति पमादाय पण्णरस ॥१॥" [ पंचसं० १।१५ | प्रमत्तस्य योगः काय वामनः कर्मरूपः प्रमत्तयोगः, तस्मात् प्रमत्त योगान । "पंच वि इंदियपाणा मणवचकारण तिष्णि बलपाणा । आणपाणपाणा आउगपायेण होंति दस पाणा ॥" [ बोधवा गा० २५ ] मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज इति गाथा कथितक्रमेण ये प्राणिनां दस प्राणास्तेषां यथासम्भवं व्यपरोपणं वियोग१५ करणं व्यपरोपणचिन्तनं व्यपरोपणाभिमुख्यं वा हिंसेत्युच्यते । प्रमत्त योगाभावे प्राणव्यपरी १. हिंसा न भवति । सा हिंसा प्राणिनां दुःखहेतुत्वाद धर्मकारणं ज्ञातव्या । चेत्प्रमत्तयांगों न भवति तदा केवलं प्राणव्यपरोपणमात्रम् अधर्माय न भवति । “वियोजयति चासुभिर्न च बधेन संयुज्यते ।" [द्वात्रिंशद्वा० ३४२६ ] इत्यभिधानात् । तथा चोक्तम्— २० [ ७/१३ ३० उच्चालिदम्मि पादे इरियासमिदस्स णिग्गमट्ठाणे 1 आवादज्ज कुलिंगो मरेज तजोगमासे || १ | ण हि तस्स तणिमित्तं बंधी सुमो विदेसिदो समए । मुच्छा परिणाहोच्चि य अज्झप्पपमाणदो भणिदो || 11" [यस क्षे० ३३१६, १७ ] एतयोर्गाथयोरर्थसूचनं यथा----पादे चरण उच्चादिग्मि गमने प्रवृत्ते सति इरिय:समिदस्य ईयसमितियुक्रः स्य मुनेः निगमणहाग निर्गमनस्थाने पादारोपणस्थाने आवादेज यदि आपतेत् आगच्छेत् पादन चम्पिते कुलितो सूक्ष्मजोवो मरेज त्रियेत वा तब्जोंगमासेज्ज पादसंयोगमाश्रित्य । ण हि तरस तणिमिते न हि नैव न भवति तस्य जन्तु चम्पकस्य १ - प्रतिष्ठः भ०, ब० ज० । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमोऽध्यायः २३९ मुराणिमित्तं मरणादिकारणमात्रेऽपि सति । किन्न भवति ? बंधो कर्मबन्धः । कियान १ मुझे षि स्वोकोऽपि समये जिनसूत्रे न हि देसिदो नैव कथितः । अमुमेवार्थं दृन्तेन द्रढयति मूर्छा परिप्रइणाकाङ्क्षा परिग्रहो शिय परिग्रहश्चैव किल परिग्रहमणाकाङ्क्षा परिमद्दमुच्यते कुतः ? अपपमापदो अध्यात्मप्रमाणतः अन्तः सङ्कल्पानतिक्रमेणेत्यर्थः दो परिमः कथितः । एतेन किमुक्तं भवति प्राणातिपाताभावेऽपि श्रमत्तयांगमात्रात् ५ हिंसा भवत्येव । तथा चोक्तम्- ult "मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा | मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराजू पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामत्तण समिदस्स ॥ १ ॥ [ पयणसा० ३।१७ ] अस्थायमर्थः - म्रियतां या जीवतु वा जीवः अयदाचारस्स अयत्नपरस्य जीवस्य १० निश्चित्ता हिंसा भवति । हिंसायाम कृतायामपि अयत्नक्तः पुरुषस्य पापं लगत्येव । पयदस्स प्रयत्नपरस्य ' पुंसः बन्धो न भवति । केन ? हिंसामतेण हिंसामात्रेण समिदस्स समितिपरस्य । अत्र परिणामस्य प्राधान्यमुक्तम् । तथा चोक्तम्- "अननपि भवेत्पापी निघ्नमपि न पापभाक् । परिणामविशेषेण यथा धीवर कर्षकौ ॥ १ ॥” [यश० उ० प्र० ३३५] १५ अन्यच -- "स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वधः ||२|| [ अथ अनृतलक्षणमुच्यते मा०, प०, ज० } असदभिधानमनृतम् ॥ १४ ॥ अस्तीति सन् न सत् असत् अप्रशस्तमित्यर्थः । “वर्तमाने शत्तङ्” [का० सू० ४।४।२] असतः असत्यवचनस्य अभिधानम् अनृतमुच्यते । न ऋतं न सत्यमनृतं यत् असदभिधान सत्यकथनं तत् अनृतं भवति । विद्यमानार्थस्य अविद्यमानार्थस्य वा प्राणिपीडाकरस्य वचनस्य चत् कथनं तत् अनृतं भवति । यत्प्रमत्त योगादुच्यते तदनृतमित्यर्थः । अहिंसाव्रत प्रतिपावनार्थं सत्यादीनि व्रतानि इति प्रागेवोकम तेन यत् हिंसाकरं वचनं तदनृतमिति निश्चितम् । अत्र २५ दृष्टान्तः सुनृपः यथा धनश्री हिंसायाम् । तथा यद्वचनं कर्णकर्कशं कर्णशुलप्रायं हृदयनिष्ठुरं मनःपीडाकरं विप्रापप्रायं बिरुद्धप्रलापप्रायं विरोधवचनमिति यावत्, प्राणिवध १३- स्य प्राधान्यपुंसः आ०, ब०, ज० । २ उद्घृताभ्यं स०सि ३ | १३ | ३ - मानस्य Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज २४० तत्त्वार्थवृत्ती बन्धनादिका वैरकर कलहादिकरम् उल्लासकरं गुर्वान्यवज्ञाकर तसत्रमनृतमित्युच्यते । अमृतस्य विवक्षापि अनृनवचनोपायचिन्तनमपि प्रमत्तयोगादनृतमुच्यते । त्याच्यानुष्ठानाद्यनुबदनमपि नानृतं प्रमत्तयोगाभावात् । एवं प्रमत्तयोगादिनि उत्तरत्रापि योज्यम् । अथ स्तेयलक्षणमुच्यते अदत्तादानं स्तेयम् ||१५॥ दीयते स्म दत्तं न दत्तम् अदत्तम् , अदत्तस्य आदानं ग्रहणम् अदनादानं स्तेयं चौर्य भवति । यल्लोकः स्वीकृतं सर्वलोकाप्रवृत्तिगोचरः तदुस्तु अदत्तम् , तस्य ग्रहणं जिघृक्षा वा ग्रहणोपायचिन्तनं च स्ते यमुच्यते । ननु यदि अदत्तादानं स्तेयम् तहिं कर्म नोकर्मग्रहणमपि स्तेयं भवेत परैरदत्तत्वात : साधूक्तं भवता; यत्र दानमादानं च सम्भवति तत्रैव स्तेयन्यब१० हृतिर्भवति अदत्त प्रणवचनस्य सामान , दातृसद्भावे प्राहकास्तित्वात , कर्म-नोकर्मग्रहण दायकः कोऽपि नास्नि अन्यत्रात्मपरिणामात् , त्रिभुवनभृततयोग्याणुवर्गणानामस्वामिकत्यात नैष दोषः। नन्वेवं सति मुनीमां ग्रामनगरादिपर्यटनावसरे रथ्याद्वारादिप्रवेश अदत्तादानं सजायते तेपां सस्वामिकत्वात् मुनीनामनभिहितत्वाच्च, इदमपि साधूतं भवता; नगरपामादिषु रयाद्वारादिप्रवेशादिषु च सर्वजनसामान्यतया तत्र प्रवृत्तिर्मुक्तंव वर्तते । करमात् ? अर्थापत्ति१५ प्रमाणात् । कार्थापत्तिरत्र घर्तते इति चेत् ? उच्यते-पिहितहाररादिषु मुनिनं प्रविशन् अपिहितद्वारादिषु प्रत्रिशेदित्यर्था पादनात् । पिहितद्वारादिपु यदि मुनीनाममुक्तिः अपिहितद्वारादिषु मुक्तिरापद्यत एव । अथवा प्रमत्तयोगाददत्तादानं स्तेयं भवति, न रथ्यादिषु प्रविशता मुनीनां प्रमत्सयोगो वर्तते, तेन वाह्यवस्तुमहण तदग्रहण च सरकलेशचरिणामसद्भावात स्तेयं तदभावे न स्नेयमिति । २० अथाब्राभलक्षणमुच्यते-- मैथुनमत्रम || १६॥ मिथुनस्य कर्म मैथुनम् । किं तत् मिथुनस्य कर्म ? स्त्रीपुरुपयोश्चारित्रमोहविधा के रागपरिणतिप्राप्तयोरनन्योन्यपर्वणं (स्पर्शन) प्रति अभिलापः स्पर्शी गायचिन्तनं च मिथुनकों च्यते । रागपरिणतेरभावे न स्पर्शनमात्रमप्रमोच्यते । लोकेऽप्याबालगोपालादिप्रसिद्धमेतन् यन् २५ सीपुंसयोः रागपरिणामकारणं चेष्टित मैथुनम् । शास्त्रे च "अश्ववृषभयोमथुनेच्छा [ ]" मिथुनकर्म । ततः कारणात् प्रमत्तयोगान् स्त्रीपुंस-पुरुपपुरुषादिमिथुनगोचरं रतिसुखार्थचेपनं मैथुनमित्यायातम् । अहिंसादयो गुणा यस्मिन् परिरश्नमाणे बृंहन्ति वृद्धि प्रयान्ति तनोच्यते । न ब्रह्म अनझ। यन्मथुनं तदब्रह्म इति सूत्रार्थः । मैथुने प्रवर्त्तमानो जीयः हिंसादिकं करोति, स्थावरजङ्गमान जीयान् विध्वंसयति । तथा चोक्तम् "मैथुनाचरणे मूढ नियन्ते जन्तुकोटयः । योनिरन्ध्रसमुत्पमा लिङ्गसंघट्टपीडिताः" ॥१" [ ज्ञानार्ण८ १३५२ ] १-पीउनात् भाः, व०, ज.। ३० Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७|१७ ] मार्गदर्शक :- आचार्य श्री समुपरि जी महाराज २४१ वाघाऽसंख्याः कोटयो जन्तवो म्रियन्ते इत्यर्थः । तथा कक्षद्रये स्तनान्तरे नाभौ स्मरमन्दिरे व स्त्रीणां प्राणिन उत्पद्यन्ते तत्र करादिव्यापारे ते त्रियन्ते । मैथुनार्थं मृषावादं वि असमप्यादत्ते, बाह्याभ्यन्तरं परिमश्च । rs आरक्षकोपाख्यानमुद्भावनीयं स्तेये सस्यघोषवत् । अथ परिग्रहलक्षणसूत्रमुच्यते ५ मूर्द्धा परिग्रहः ।। १७ ।। मूर्च्छनं मूर्च्छा, परिगृह्यते परिग्रहः । या मूर्च्छा सा परिग्रह इत्युच्यते । काऽसौ मूर्छा ? अध्याबलीवर्द गर्व गरीया जिबडवादासीदास कलत्र पुत्रप्रभृतिश्चेतनः परिग्रहः । शौकिकेयमाणिक्य पुष्प ( गवैडूर्य्यपझर गही र केन्द्र मीलगरुडोद्वाराश्म गर्भ दुर्वर्णसुवर्णपट्टकूलची नाताम्रपिव्यघृततैलगुडशरास्वापतेयप्रभृतिरचेतनो बाह्यपरिग्रहः । रागद्वेषमदमाह १० कषायप्रभृतिरभ्यन्तर उपधिः | तस्योभयप्रकारस्यापि परिमस्य संरक्षणे उर्जने संस्करणे वर्द्धनादौ व्यापारो मनोऽभिलाषः मूर्च्छा प्रतिपाद्यते, न तु वातपित्तश्लेष्प्राद्युत्पादितोऽचेतनस्वभावो मूर्च्छा भण्यते "मूर्च्छा मोहसमुच्छ्राययोः” [ पा धातुपा ४० २१९ ] इति वचनात् । मूच्छिरयं सामान्येन मोहपरिणामे वर्तते । यः सामान्येनोक्तोऽर्थः विशेषेपि वर्तते, तेन सामान्यार्थमाश्रित्याचेतनत्वलक्षणोऽर्थी नाश्रयणीयः, किन्तु विशेष- १५ लक्षणोऽर्थो मनोऽभिलाषक्षणोऽर्थी मूच्छिधात्वर्थोऽत्र गृह्यते । एवं चेदू बाह्याः परिमद्दाः न भवन्ति मनोऽभिलार मात्राभ्यन्तर परिग्रहार्थ परिग्रहात् तन्न युक्तमुक्तं भवता; मनोऽभिलाषस्य प्रधानत्वात् अभ्यन्तर एव परिग्रहः सङ्गृहीतः, जाह्मपरिमहश्य गौणत्वात् । तेन ममत्वमेव परिग्रह उक्तः । तर्हि नाह्यः परित्रहो न भवत्येषः सत्यम्: बाह्यः परिग्रहो हेतुत्वान सोऽपि परिग्रह उपध्यते । तेन आहारभयमैथुनादियुक्तः पुमान् सपरिप्रहो भवति सम्झा- २० नामपि ममेदमिति सङ्कल्पाश्रयत्वात् रागद्वेपमोहादिपरिणाभवन्नास्ति दोषः । प्रमत्त योगादिति पदमनुवर्तते तेन यस्य प्रमत्तयोगः स सपरिभह: यस्य तु प्रमत्त योगो न वर्तते सोऽपरिग्रहः । सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रतपोयुक्तः प्रमादरहितो निर्मोह: तस्य मनोऽभिलापलक्षणा मूर्च्छा नास्ति निःपरिमद्दत्वा तस्य सिद्धम् । ननु ज्ञानदर्शनचारित्रत पोलक्षणः किं परिग्रहो न भषति ? न भवत्येव, ज्ञानादीनाम् आत्मस्वभावानाम हेयत्वादपरिग्रहवं सिद्धम् । “यस्त्यक्तु २५ I 2 शक्यते स एव परिग्रहः" [ ] इत्यभिधानात् । रागद्वेषादयस्तु कर्मोदयाधीनाः । अनात्मस्वभावा हेयरूपास्तेषु सङ्कल्पः परिग्रह इति सङ्गच्छते । तत्र प्राणातिपानोऽवश्यम्भावी तदर्थं चासत्यं वदति स्तैन्यञ्च विदधाति अब्रह्मकर्मणि नियतं यत्नवान् भवति । पूर्वोः पातकैस्तु नरकादिषु उत्पयते तत्र तु पश्चप्रकारादि दुःखं भुङ्क्ते । तेन मुख्यतया रागादिमनोऽभिलाषः परिमह इत्यायातम् । तथा चोक्तम् ३१ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ २४२ १० मार्गदर्शक :- आचार्य श्रीसंत सागर जी महाराज "बाह्यग्रन्थ विहीना दरिद्रमनुजाः स्वपापतः सन्ति । पुनरभ्यन्तरसङ्गत्यागी लोकेषु दुर्लभो जीवः || १ ||" [ अभ्यन्तर परिमाश्चतुर्दश बाह्यपरिग्रहास्तु दश । तथा चोकम “मिथ्यात्ववेदहास्यादिषट्कषाय चतुष्टयम् । रागद्वेषौ तु सङ्गाः स्युरन्तरङ्गाश्चतुर्दश || १ || क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं द्विपदश्च चतुष्पदम् । यानं शयनासनं कुप्यं भाण्डञ्चेति बहिदेश || २ ||" [] अथ हिंसादिव्रतसम्पन्नः पुमान् कीदृशो भवतीति प्रश्ने सूत्रमिदमाहु:निःशल्यां व्रती || १८ || शृणाति विश्वंसयति निस्तीति शल्यमुच्यते । वपुरनुप्रविश्य दुःखमुत्पादयत त्राणायायुधशल्यम् । शल्यमित्र शल्यं प्राणिनां बाधाकरत्वात् शारीरमानस दुःखकारणत्वात् । कर्मोदयविकृतिः शल्यमुपचारात् । तच्छल्यं विप्रकारम् — मायाशल्यं मिथ्यादर्शनशल्यं निदानशल्यचेति । तत्र भावा परवनम् । मिथ्यादर्शनं तवार्थश्रद्धानाभावः । निदानं विषयसुखाभिलाषः । एवंविधात्रिप्रकारात् शल्यात् निष्क्रान्तो निर्गतो निःशल्यः । १५ योऽसौ निःशल्यः स एव त्रतीत्युच्यते । अत्र किनिबोधते मीमांस्यते विचार्यत इति यावत् । निःशल्यः किल शल्याभावाद् भवति, बताश्रयणाहूती भवति, न हि निःशल्यो ती भवितुमर्हति यथा देवदत्तः केवलदण्डधारी छत्रीति नोच्यते तथा निःशल्यो व्रती न भवति; अयुक्तमेवोक्तं भवता निःशल्यमात्र अव न भवति किन्तु उभयविशेषणविशिष्टः पुमान् ती भवति । निःशल्यो व्रतोपपन्नश्च व्रतीत्युच्यते । हिंसादिविरमणमात्राहूनी न भवति किन्तु २० हिंसादिविरमणयुनः शल्यरहितश्च व्रती कथ्यते । अत्रान्तः प्रभूतदुग्धघृतसहितः पुमान् गोमानित्युच्यते श्रस्य तु पुरुह (ह) दुग्खाज्यादिकं नास्ति स विद्यमानास्वपि अध्यासु गोमन नोच्यते, तथा शल्यमंयुक्तः पुमान् तेषु विद्यमानेष्वपि ती न कथ्यते, अहिंसादितानां विशिष्टं फलं शल्यवान् न विन्दति । निःशल्यस्तु भी सन् अहिंसादितानां विशिष्टं फलं लभत इत्यर्थः । अथ व्रतोपपन्नः पुमान् कतिभेदो भवतीति प्रश्ने सूत्रमिदमुच्यते । — ०७११८-१२ ] अगार्य्यनगारश्च ||१९|| अजयते गम्यते प्रतिश्रयाभिः पुरुपैः गृहप्रयोजनवद्भिः पुरुपेरिक्ष्यगारं गृहयते । अगारं गृहं पत्यमावासो विद्यते यस्य स अगारी । न विद्यते अगारं यस्य सोनगारः । अगारी च अनगार किती भवति । चकारः परस्परसमुचयार्थः । एवञ्चेहि जिनगेह १ पुरुपस्य दु- ज० । पुरुहूतदुआ ' | २ शिफ आ०, ब० ज० ॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ ७/२०-२१] मोऽध्यायः शुभ्यागारमाद्यायासेषु वरून मुनिरयगारी भवति तस्यागारसद्भावात् तथा च अनिवृत्तविषयसृष्णः केनचिद्धेतुना गृहं परिहृत्य बने तिष्टम् गृहस्थोऽप्यननारो भवति, साधूक्तं भवता; अगारना भावगृह सूचितं ज्ञातव्यम्, चारित्रमोहोदये सतिं गृहसम्बन्धं प्रति अनियमपरिणामः भाषागारमभिधीयते । सोऽनियम परिणामः यभ्य पुरुषस्य विद्यते स पुमान् नन्नोग्रामदेवतेवर महारा परिणामभावान जिनचैन्ययाद वसन्नपि अनगार उच्यते । ननु अगारी व्रती न भवति अपरिपूर्णत्वात् तदयुक्तम् नगमसंग्रहव्यव हारनयत्रयापेक्षया अगारी तो भवत्येवपत्तनावासनन् । क्या कश्चित्पुमान् गृहे अपवर के वा वसति स पतनावास उच्यते स किं सर्वस्मिन् पत्तने वसति ? किन्तु पत्तनमध्यस्थितनियतगृहादौ वसति तथा परिपूर्णानि तानि प्रतिपालयन्नपि एकदेशताश्रितः पुमान् व्रतीत्युच्यते । एहिं हिंसादीनां पञ्चपातकानां मध्ये किमन्यतमा प्रतिनिवृत्तः खल्वगारी ती कश्यते; १८ कयते ; किन्तु पञ्चकारामपि विरतिमपरिपूर्णा प्रतिपालयन् ती कध्यते । अमुमेवार्थ मुत्तरसूत्रेण समयांत— अणुवतोऽगारी ॥२०॥ अणूनि अल्पानि तानि यस्य सोऽणुतः सर्वानिवृत्तेरयोगात् । य ईदृशः पुमान स अगारीति कथ्यते । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायान् जीवान् अनन्तकायवर्जान् स्वकार्ये १५ विराधयति, द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियान् जन्तून् न विराधयति तदादिममणुत्रतमुच्यते । लोभेन मोहेन स्नेहादिना गृह विनाशहेतुना ग्रामवासादिकारणेन चा जीवोऽनृतं वक्ति वस्मादन्तान्निवृत्तो योऽगारी भवति तस्य द्वितीयमशुत्रतं भवति । यद्धनं निजमपि संक्लेशेन गृह्यते तत्परपीडाकरम, यश्च नृपभीतिवशान्निश्चयेन परिहृतमपि यद्दत्तं धनं तस्मिन् धने परिहृतादरो यः पुमान् स श्राचकस्तृतीयमणुन्नतं प्राप्नोति । पुमानित्युक्ते योषिदपि लभ्यते तस्या अपि तृतीय- २० मतं भवति । एवं यथासम्भवं शब्दस्यार्थो वेदितव्यः । स्वीकृता स्वीकृता च या परस्त्री भवति तस्यां यो गृही रतिं न करोति स चतुर्थमणुव्रतं प्राप्नोति । क्षेत्रवास्तु धनधान्यहिरण्यसुपर्णदासी दासादीनां निजेच्छावशाद्येन गृहिणा परिमाणं कृतं स गृही पञ्चममणुव्रतं प्राप्नोति । अथ महाव्रतिनः गृहस्थस्य च किमेतावानेव विशेषः किं वाऽन्योऽपि कश्चिद् विशेबोऽस्ति इति प्रश्ने सूत्रमिदमाहुः - दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपचासोपभोग परिभोगपरिमाणातिथिसंविभागयत सम्पन्नश्च ॥२१॥ दिशश्च देशाश्व अर्थदण्डा दिग्देशानर्थदण्डाः तेभ्यो विरतिः दिग्देशानर्थं दण्डविरतिः । विरतिशब्दः प्रत्येकं प्रयुज्यते । तेनायं विग्रहः - दिग्विरतित्रतं च देशविर तिव्रतं च ३० अर्थदण्डविरतिव्रतं च सामायिकत्रतं च प्रोषधोपवासत्रतं च उपभोगपरिभोगपरिमाणश्रतं च १ तदुक्तम् आ०, ब०, ज०२ - कायावर्जनात् - ०, ब०, ज० ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती [ ७/२१ अतिथिसंविभागवतश्च तानि दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिक प्रोष थोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागतानि तैः सम्पन्नः संयुक्तो यो गृही भवति स विश्ता विरतोऽगारी ति कव्यते । चकारोऽनुक्तसमुचयार्थः । तेन वक्ष्यमाण सल्लेखनादियुक्तः अगारीति कथ्यते । अस्यायमर्थ:- पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तराचतम्रो दिशः, अग्निकोणनैर्ऋत्यकोणवायुकोणेशान५ कोणलक्षणास्त्रो विदिशः प्रतिदिशश्च कथयन्ते, ना अपि दिक्शन लभ्यन्ते तासु दिक्षु प्रचि हिमाचलविन्ध्यपर्वतादिकम् अभिज्ञानपूर्वकं मर्यादां कृत्वा परतो नियमप्रहणं दिग्वितंत्रतमुच्यते । तेन च दिग्त्रिरतित्रतेन वहिः स्थितस्थावरजङ्गमप्राणिनां सर्वत्राविराधनाभायाद गृहस्थस्यापि महात्रतत्यमायाति । तस्माद्बहिः क्षेत्रे मुक्त दिम्बाश्रप्रदेशे धनादिलाभ सत्यपि मनोदयापार निषेधात् लोभनिषेधागारिणो भवति । २४४ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज १० गन्तव्यायामपि दिशि नियतदशाद् ग्रामनदीक्षेत्र योजनवन गृहकटकादिलक्षणात् परतो विरमणं देशविरतिव्रतमुच्यते । इदं हि व्रतं दिग्विरनित्रतमध्ये अन्तर्व्रतमुत्पन्नम् । विशेषेण तु पापस्थाने भङ्गमेद्धावस्थाने खुरासानमूलस्थानम स्वस्थानहिर मज स्थानादिगमनधर्जनं देशविरतित्रतमुच्यते । तेनापि व्रतेन सस्थावर हिंसा निवर्तनाद् गृहस्थस्यापि महात्रतत्वं लोभनिवृत्तिपचर्यते । १५ अनर्थदण्डः पञ्चप्रकाशः -- अपध्यानपा पोपदेशप्रमादम्वरित हिंसामदानदुः श्रुतिभेदात् । तत्रापध्यानलक्षणं कथ्यते - परप्राणिनां जयपराजयहननबन्धनप्रतीकविध्वंसनस्वापतेयाऽपह ताडनादिकं द्वेषात् परकलत्राद्युद्दालनं रागात् कथं भवेदिति मनःपरिणामप्रवर्तनम् अपध्यानमुच्यते । द्वितीयोऽनर्थदण्डः पात्रोपदेशनामा । स चतुः प्रकारः -- तथाहि अस्मात्पूर्वादिदेशाद् दासीदासान् अल्पमूल्यसुलभानादाय अन्यस्मिन गुर्जरादिदेशे तक्रियां यदि कियते २० हा महान् धनलाभो भवेदिति क्लेशणिज्या कथ्यते ||१|| अस्माद्देशात् सुरभिमहिषीबलीबढ़ें मेलकन्वर्वादीन् यदि अन्यत्र देशे विक्रीणीते तदा महान् लाभो भवतीति तिर्यग्वणिज्यानामका दिन: पापदेशो भवति ।। २ ।। शाकुनिकाः पक्षिमारकाः, वागुरिका: मृगवराहादिमारकाः, धीराः मत्स्यमारकाः, इत्यादीनां पापोपक्रमोपजीविनाम, ईश वार्ता कथयतिअस्मिन् प्रदेशे धनजदाद्युपलक्षिते मृगवराहतित्तिरमत्स्यादयो बहवः सन्तीति कथनं कोप२५ देशनामा तृतीयः पापोपदेशः कथ्यते ||३|| पामरादीनाम एवं कथयति भूखं कृप्यते उदकमेचं तिः कास्यते तदाह एवं क्रियते क्षुपाद एवं चिकित्स्यन्ते इत्याद्यारम्भः अनेनोपायेन क्रियते कथनम् आरम्भपदेशनामा चतुर्थः पापापदेशो भवति || || अथ प्रसादचरितताना तृतीयोऽनर्थदण्डः कथ्य - प्रयोजनं विना भूमिकुट्टनं जलसेचनम् अपि सन्धुक्षणं व्यजनविवक्षेपणं वृक्षवल्लीदलमूलकुसुमादिछेदनम् इत्याद्यत्रद्य कर्म२० निर्माणं प्रमादचरितमुच्यते । अथ हिंसामदाननामा चतुर्थोऽनर्थदण्डो निरूप्यते -- परप्राणिहेतून शुनकमाजोरस पश्येनादीनां विषकुठारखङ्गखनित्रज्ञ लनरज्ज्यानिबन्धनशृङ्खला अ०, ब० ज० । २ मन:पर्ययपरिणा- आ०, ब०, जर | १ - सद्भावे स्थानेषु ६ तनिक्षे- आर ० ज | Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७/२१] सप्तमोऽध्यायः २४५ दीनां हिंसोपकरणानां यो विक्रयः क्रियते व्यवहारच क्रियते स्वयं वा सङ्ग्रहो विधीयते तत् हिंसाप्रदानमुच्यते । अध हिंसाप्रवर्तक शास्त्रम् अश्वमेधादि, रागप्रवर्तकं शास्त्र कुशोकनामादि, द्वेषप्रवर्तकं शाखं नानाप्रकार, मधुमांसादिप्रवर्तकं शास्त्रं स्मृत्यादि तेषां शास्त्राणां कथनं श्रवणं शिक्षणं व्यापारश्च दुःश्रुतिरुच्यते । तथाऽनर्थकं पर्यटनं पर्यटनविषयोपसेवनम् अनर्थदण्ड उच्यते । तस्य सर्वस्यापि परिहरणम् अनर्थदण्डविरतित्रतनामकं तृतीयं घ्रतं भवति । एतानि ५ श्रीणि व्रतानि पञ्चानामत्रतानां गुणादकत्वादपरतीहाराज सामायिकम् - समशब्दः एकत्वे एकीभावे वर्तते, यथा सङ्गतं घृतं सङ्गतं तैलम् एकीभूतमित्यर्थः । अयनमयः सम एकत्वेन अयनं गमनं परिणमनं समयः, समय एव सामायिकम् स्वार्थे इण् । अथवा समयः प्रयोजनमस्येति सामायिक प्रयोजनार्थे इकण् । कोऽर्थः १ देववन्दनायां निःसंक्लेशं सर्वप्राणिसमताचिन्तनं सामायिकमित्यर्थः । एतावति देशे एतावति १० काले अहं सामायिके स्थास्यामीति या कृता प्रतिज्ञा वर्तते तावति काले सर्वसावद्ययोगविरतस्वाद गृहस्थोऽपि महाव्रतीत्युपचर्यते । तर्हि स गृहस्थः तस्मिन् काले किं संयमी भवति ? नैवम्, संयम घातकर्मोदय सभाषात्। उक्तन- "प्रत्याख्यानतनुत्वान्मन्दतरराश्चरणमोहपरिणामाः । सवेन दुखधारा महाव्रताय प्रकल्पन्ते ॥ १ ॥ " [ रत्नक० ३१२५] १५ प्रत्याख्यानशब्देन संयमघातस्तृतीयकषायचतुष्कं ज्ञातव्यम् । तर्हि तस्मिन् सामायिकपरिणते गृहस्थे महाव्रतत्वाभावः; तन्न उपचारान्महात्रतत्वाभावो न भवति, यथा राजत्वं विनापि सामान्योऽपि क्षत्रियः राजकुल इत्युच्यते यथा च बहुदेशे प्राप्तो देवदत्तः कचित्कचिदमनोऽपि सर्वगत इत्युच्यते, तथा च चैत्राभिधानोऽयं पुमान् चित्रावसद्भावेऽपि चैत्र इत्युच्यते सामायिक प्रत परिणतोऽगारी परिपूर्ण संयमं विनापि महात्रतीत्युपचर्यते । अष्टमी चतुर्दशी पर्वद्वयं प्रोषध इत्युपचर्यते । प्रोषवं उपवासः - स्पर्शरसगन्धवर्ण शब्दगेषु पञ्चसु विषयेषु परिनत्सुक्यानि पश्चापि इन्द्रियाणि उपेत्य आगत्य तस्मिन् 'उपवासे सन्ति हत्युपवासः । अशनपानखाद्य लेह्य लक्षण चतुर्विधाहारपरिहार इत्यर्थः । सर्वसाधार २० शरीरसंस्कार करणस्नान गन्धमाल्याभरणनस्यादिविवर्जितः पवित्रप्रदेशे मुनिवासे चैत्यालये कोषोपवासमन्दिरे वा धर्मकथां कथयन् शृण्वन् चिन्तयन् वा अवहितान्तकरण एकाम- २५ अमाः सन् उपवासं कुर्यात् । स श्रावकः प्रोषधोपवासव्रतो भवति । उपभोगपरिभागपरिमाणतं कथ्यते--अशन पानगन्धमाल्यताम्बूलादिक उपभोगः आच्छादनप्रावरणभूषणशय्यासनगृह्यानवाह नवनितादिकः परिभोग उच्यते । उपपरिभोगश्च उपभोगपरिभोगों तयोः परिमाणम् उपभोगपरिभोगपरिमाणम् । भोगोपभोरिमाणमिति च कचित्पाठो वर्तते । तत्र अशनादिक यत्सकृद्भुज्यते स भोगः, वस्त्रवनि- ३० १ न् काले उन आ०, ब० ज० | २ - रणादिनि आ०, ब०, अ० । विदेशे आ སྐ? ज० । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ तस्वार्थवृत्ती [ ७१२२ तादिकं यत् पुनः पुनर्भुज्यते स उपभोगः । उपभोगपरिभोगपरिमाणते नियतकालसम्भवेऽपि मद्यं मांसं मधु च सर्दष परिहरणीयं वसघातनिवृत्तचित्तेन पुंखा | केतकि निम्चकुसुमाक मूलक सर्वपुष्पानन्तकायिक छिद्रशा कनाली नलादिकं जन्तुयोनिस्थानं तदपि यावज्जीव भीमवंशक बहुगुणायत महाराज 'अन्पफलबहुविघातान्मूलकमार्द्राणि शृङ्गवेराणि । नवनीतनिम्बकुसुमं कैतकमित्येवमवहेयम् ॥" [ रत्नक० ३।३९ ] अथोपभोग विचारः - यानवाह्नभूपवसनादिकमेतावन्मात्रमेव ममेष्टमन्यदनिष्टमिति ज्ञात्या अनिष्टपरिहारः कालमर्यादा याञ्जीवं वा कर्तव्यः । संयमविराश्रयम् अति भोजनार्थ गच्छति यः सोऽतिथिः । अथवा न विद्यते तिथिः १० प्रतिपद्वितीयतृतीयादिका यस्य सः अतिथिः अनियतकाटभिक्षागमन इत्यर्थः । अतिथये समीचीनो विभागः निजभोजनाद् विशिष्टभोजनप्रदानमतिथिसंविभागः । स चतुर्विधा भवति - भिक्षादानम् उपकरणवितरणमपि वविआणनमा वासप्रदानमिति । यो मोक्षार्थं चतः संयमतत्परः शुद्धच भवति तस्मं निर्मलेन चेतसा अनवद्या भिक्षा दातव्या, धर्मोपकरणानि च पिच्छपुस्तकपट्टकमण्डल्या' (ल्वा) दीनि रत्नत्रयवद्ध कानि प्रदेयानि औषधमपिं योग्यमेव देयम् १५ आवासश्च परमधर्मश्रद्धया प्रदातव्यः | अन्न च जिनस्नपनपूजादिकं वक्तव्यम् । एतानि चत्वारि शिक्षात्रतानि भवन्ति । मातृपित्रादिवचनबदपत्यानामणुव्रतानां शिक्षाप्रदायका नि अविनाश कारकाणीत्यर्थः । अथ चशन्देन गृहीतम् अपरमपि श्रावकत्रतं प्रतिपादयन् सूत्रमिदमाचष्टे - मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता ॥२२॥ २० निजपरिणामेन पूर्वभवादुपार्जितमायुः इन्द्रियाणि च बलानि च तेषां कारणवशेन योऽसौ विनाशः संक्षयः तन्मरणमुच्यते । "मृडू प्राणत्यागे" [ ] इति वचनात् । मरणमेवान्तः सद्भवावसानं मरणान्तः, मरणान्तः प्रयोजनं यस्याः सल्लेखनायाः सा मारणान्तिकी तां मारणान्तिकीम । सत् शब्दः सम्यगर्थवाचकः । तेनायगर्थेः-सत् सम्यक लेखना कायस्य कपायाणां च कृशीकरणं तनूकरणं सल्लेखना | कायस्थ सल्लेखना श्राह्यसल्लेखना | २५ कषायाणां सल्लेखना अभ्यन्तरा सल्लेखना । क्रमेण कायकरणहापना कषायाच हापना सल्लेखनेत्युच्यते । तां सल्लेखनां जोषिता प्रीत्या सेविता पुमान् अगारी गृही भवति । पूर्वोककारान् मारणान्तिकीं सल्लेखनां जपिता यतिश्च भवति । ननु 'प्रीत्या लेविता!' इति किमर्थमुच्यते ? अर्धविशेषोपपादनार्थम् । कोऽसो अर्थविशेषः ? यः पुमान् सल्लेखनां प्रीत्या सेवते प्रकटं भजते, यस्तु प्रीतावसत्यां भजते स तेषु अनादरः कथ्यते तेन बलात्कारेण ३० सल्लेखना न कार्यते, सन्न्यासस्य प्रीतो सत्यां स्वयमेव सल्लेखनां करोति । तेन सूरिणा जुषी घातुः प्रयुक्तः । ननु स्वयमेव क्रियमाणायां सल्लेखनायाम् अभिसन्धिपूर्वकं प्राणविसर्जनादात्म१ - मण्डलादी - भा०, ब० ज० १ १ वंभये दुपा- ता० । २ भावावसानं आ०, ३०, प० । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२३] लतमोऽध्यायः २४७ वधदोषो भविष्यति हिंसासद्भावात : तन्न "प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा" [त. सू० ॥१३ ] इति जिनसूत्रे प्रामकियस्तु मनानाका सल्लेविमायारात जी याप्रमत्तस्तस्य प्रमादयोगो नास्ति । कस्मात् ? रागद्वेपमोहावभावात् । यस्तु पुमान् राग पमोहादिभिरविस्पृष्ट' म्लष्टः सन् विषेण शस्त्रेण गलपाशकेन दहनप्रवेशेन कूपादी निमज्जनेन भृगुपातेन रसनाखण्डादिना प्रयोगेण आत्मानमाइते स स्वघातपातकी भवत्येव । तथा च श्रुतिः-- ५ "असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसा घृताः। तास्ते मेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ।। १ ॥ [ ईशाचा० ३ ] तेन सल्लेखनां प्रतिपन्नस्य पुंसः आत्मघातपातको नास्ति । तथा चोक्तम् “रागादीणमणुप्पा अहिंसगतंति देसियं समये । तेसिं चेदुप्पत्ती हिंसेति जिणेहि णिदिवा ।। १ ।" | रागादीनामनुत्पादादहिंसकत्वमिति देशितं समये । तेपो चंदुत्पत्तिः हिंसेति जिनेरुद्दिष्टा ।। अत्र स्खलु मरणमनिष्टं वर्तने वणिगृहविनाशवत । यथा वणिजः नानाप्रकारपण्यानो भाण्डानां दाने आदाने सन्दये च तत्परस्य पण्यभृतगृहविनाशो निष्ठो भवति पण्यभृतगृहस्य कुतश्चिन् कारणान् विनाशे समायाते सति स वणिक् शक्ल्यनुसारेण पण्यभृतं गृह परित्यजति । परिहर्तुमशक्ये च पण्यगृह यथा पण्यविनाशो न स्यात्तथा यत्नं विधत्ते । १५ एवमगार्यपि व्रतशीललक्षणपण्यसञ्चये प्रवर्तमानः प्रतशीला श्रयस्य कायस्य पतनं नाकाक्षति । कायपतनकारणे चागते सति निजगुणानामविरोवेन निजकार्य शनैः शनैःपरिहरति । तथा परिहर्तुमशक्ये च निजकाये कदलीघातवत् युगपष्टुपस्थिते च निकायविनाशे सति निजगुणानां विनाशो यथा न भवति तथा कायविनाशे प्रयत्नं विधत्ते कथमात्मघातपानकी भवति । तथा चोक्तम् "अन्तःक्रियाधिकरणं तफाफलं सकलदर्शिनः स्तुयते । तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरण प्रयतितव्यम् ." [ रत्नकः ५। २] अथ निःशल्यः खलु अतो, शल्यानि तु मायामित्यानिदानलक्षणानि तेन मिध्यादशनं शल्यमुच्यते; तेन कारणेन सम्यम्टष्टिवती भवति 'तत्सम्यग्दर्शन सदापं निर्दोष या भवति' इति प्रश्ने कस्यचित् सदापं सम्यग्दर्शन भवतीति प्रतिपादनाथ सूत्रमिदमाचक्षते विचक्षयाः- २५ शङ्काकासाविचिकिमान्यष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्पदृष्टेरनीचाराः ॥ २३ ॥ शाङ्कनं शला, कारण काझा, विचिकित्सनं विचिकित्सा, प्रशंसनं प्रशंसा, संस्तवनं संस्तवः। प्रशंसा च संस्तवश्च प्रशंसासंस्तयों, अन्यदृष्टीनां मिथ्याधीनां प्रशंसास्तयों १--विस्पष्टः तार। -उद्धृतेयम्-१. सिं० ७॥२२ । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ तत्त्वार्थवृत्ती [७/२४-२५ अन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तयो । शङ्का च काक्षा च बिचिकित्सा च अन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तयौ च शक्काकाक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः । एते पश्चातिचाराः पञ्च दोषाः सम्यग्दृष्टेः जीवस्य भवन्ति । तत्र शक्का-यथा निर्मन्थानां मुक्तिरुक्ता तथा सग्रन्थानामपि गृहस्थादीनां किं मुक्ति भवति इति शङ्का । अथवा, भयप्रकृतिः शङ्का । इहपरलोकभोगकांक्षणं काक्षा । रबत्रयमण्डित५ शरीरापां जुगुप्सनं स्नानायभावदोषोद्भावनं विचिकित्सा | मिध्यादृष्टीनां मनसा ज्ञानचारित्रगुणोद्भावनं प्रशंसा, विद्यमानानामविद्यमानानां मिथ्यादष्टिगुणानां वचनेन प्रकटनं संस्तव उच्यते । ननु सम्यग्दर्शनमष्टा प्रोक्तम्, अतिचारा अपि तस्याष्टो भवन्ति कथमाचार्येण पञ्चतिचाराः प्रोका ? सत्यमुक्तं भवता; शीलतेषु पञ्च पञ्चतिचाररान वक्तुमिच्छराचार्यः । [अतः ] अष्टस्यतिचारेषु सत्यपि सम्यग्दृष्टः पञ्चातिचाराः प्रोक्ताः, इतरेषां प्रयाणा मतिचाराणाम् अन्तभांवितत्वात् अधातिचारा बेदितव्याः । कथमिति चेत् ? उच्यते-यः पुमान १० मिध्यादृष्टीनां मनसा प्रशंसां करोति स तावन्मूढदृष्टिश्चतुर्थातिचारवान् भवत्येव । यस्तथाविधो मूढष्टिः स 'प्रमादाशकन कारणोद्भवं रनवयमण्डिताना दोष नोपगृहति तेषां स्थितीकरणच न करोति वात्सल्यं तु दूरे तिष्ठतु शासनप्रभावनां च कथं कुरुते तेन अन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवयोमध्ये अनुपईदणादयो दोपा अन्तर्गभिता भवन्तीति वेदितव्यम् । ते निःशहितादीनामष्टानां गुणानां मार्गदर्शक :- आचारतिप्रसुविधासागर साताराज १५ अथ यथा पञ्चातिचाराः सम्यग्दृष्टेभवन्ति तथा [ किं ] तशीलेष्वपि भवन्तीति प्रश्ने ओमित्युक्त्वा असशीलातिचारसङ्खयानिरूपणार्थं सूत्रमिदमाहुराचार्याः-ओमिति कोऽर्थः ? ओमित्यङ्गीकारे। व्रतशोलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ।। २४ ॥ · प्रतानि च शीलानि च प्रतशीलानि तेषु व्रतशीलेषु । पञ्चसु अणुव्रतेषु-दिम्विरति२० प्रतादिषु सप्तसु शीलेषु पञ्च पचातिचाराः, द्वादशसु तेषु यथाक्रममनुक्रमेण भवन्तीति संग्रहसूत्रमिदम् । ननु प्रताहणेनैव द्वादशव्रतानि सिद्धानि शीलपहामनर्थकम्; इत्याहयुक्तमुक्तं भवता; ब्रतग्रहणेनं द्वादशव्रतसिद्धौ यच्छीलग्रहणं तद्विशेषज्ञापनार्थम् । शीलं हि नाम व्रतपरिरक्षणम् । तेन दिग्विरतिब्रतादिभिः सप्तभिः प्रतैः पन्चानामणुवताना परिरक्षणं भवतीति शीलग्रहणे नास्ति दोषः। एते द्वादशन्नतानां प्रत्येकं पञ्च पधातिचाराः २५ मिलित्वा अगारिणः षष्टिरतिचारा भवन्ति अगाधिकारात् । तत्र तावदहिंसात्रतस्य पञ्चातिचारानाह बन्धवर्धच्छेदातिभारारोपणान्न पाननिरौधाः ॥२५॥ मिजेष्टदेशगमनप्रतिबन्धकारणं बन्धनं बन्धः। यष्टितर्जनकवेत्रदण्डादिभिः प्राणिनां ___ ताडनं हननं वधः, न तु अब प्राणव्यपरोपणं वध उच्यते तस्य पूर्वमेध निषिद्धत्वात् । शब्दमह३० नासिकाङ्गुलिवराङ्गचक्षुरादीनामवययानां विनाशनं छेद उच्यते । न्याय्याद्धारादधिक १ अशकनम् असामर्थ्यम् । २ अनुफ्यूहनादयो भा०, प., ज. । ३ कर्णम् । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६-२७] . सम्माऽध्यायः भारवाहनं राजदानादिलोभात् अतिभारारोपणम् । गौमहिषीवलीबईवाजिगजमहिषमानयशकुन्नादीनां क्षुत्तृष्णादिपीडोत्पादनम् अन्नपाननिरोधः । बन्धश्च वधश्च छेदश्च आतभारारोपणच अन्नपाननिरोधश्च बन्धबधछेनातिभारारोपणानपाननिरोधाः । एते फचातिचारा अहिंसाणुवतस्य भवन्ति । अदानी सल्याणुव्रतस्य पञ्चातिचारा उन्यन्तेदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर जी महाराज मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूट लेग्यक्रियान्यासापहारमाकारमन्त्रभेदाः ॥२६॥ इन्द्रपदं नीर्थकरगभावतारजन्माभिपेकसाम्राज्यचक्रवर्तिपदनिःक्रमणकल्याणमहामन्डलेश्वरादिराज्यादिकं सर्वार्थ सिद्धिपर्यन्तमहमिन्द्रं पदं सत्र सांसारिक विशिष्टमविशिष्टं सुस्यमभ्युदयमित्युच्यते । करल ज्ञानकल्याणं निर्वाण कल्याणमनन्त चतुष्टयं परमनिर्याणपदं च निःश्रेयसमुच्यते। तयारभ्युदयनिःश्रेयसयोनिमित्तं या क्रिया सत्यरूपा वर्तते तस्याः क्रियायाः मुग्धलोकस्य १८ अन्यथाकथनमः यथासक्त नं धनादिनिमित्तं परवञ्चनच मिश्योपदंश उच्यते । स्त्रीपुंसाभ्यां रहसि एकान्ते यः क्रियाविशेपोऽनुष्ठित कृत उक्ती वा स क्रियाविशेष गुप्तवृत्त्या गृहीत्वा अन्येषां प्रकाश्यने तद् रहोऽभ्याख्यानमुच्यते । केनचित्पुरुषेण अथितम् अनुक्तं यत् किञ्चित् कार्य द्वेषवशात परपीटनार्थम् एवमनेनोक्तमेयमनेन कृतम इति परवञ्चना, यल्लिख्यते राजादी दार्यसे सा कूटलेखक्रिया, पैशुन्यमित्यर्थः । केचित् पुरुषेण निजमन्दिरे · हिरण्यादिकं १५ दज्य न्यासीकृतं निक्षिप्तमित्यर्थः, तस्य द्रव्यस्थ ग्रहणकाले सङ्ख्या विस्मृता यिस्मरणप्रत्ययादल्पं द्रव्यं गृहाति, न्यासवान् पुमान् अज्ञावचनं ददाति-देवदत्त. यावन्मानं द्रव्यं ते वर्तते नावन्मानं त्वं गृहाण किमत्र प्रष्टव्यमिति, जाननमि परिपूर्ण तस्य न ददाति न्यासापहार उच्यते । कार्यकरणमङ्गविकार भ्रक्षेपादिकं परेषां दृष्ट्वा पराकूतं पराभिप्रायमुपलभ्य ज्ञात्वा असूयादिकारणेन तस्य पराकूतस्य पराभिप्रायम्य अन्वेषामने आविष्करणं प्रकटनं यम् क्रियते २० स साकारमन्त्रभेद इत्युच्यते । मिथ्योपदेशश्च रहाभ्यास्यानच कूटलेखक्रिया च न्यासापहा. रश्च साकारमन्त्रभेदश्च मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियासाकारमन्त्रभेदाः । एते पञ्चानिचाराः सत्याणुव्रतस्य भवन्ति । अथाचौर्याणुव्रतस्य पक्रचातिचारा उन्यन्तेस्तेनप्रयोगतदातादानविरुद्धराज्यातिकमहीनाधिक मानांन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः ॥ २७ ।। कश्चित्पुमान् चौरों करोति, अन्यस्तु कश्चित्तं चोरयन्तं स्वयं प्रेरयति मनसा वाचा कार्यन, अन्येन वा केनचित्{सा तं चोरयन्तं प्रेरयति मनसा वाचा कायेन, स्वयमन्येन वा प्रेर्यमाणं चौरी कुर्वन्तम् अनुमन्यते मनसा वाचा कायेन, एवं विधाः सर्वेऽपि प्रकाराः स्तेनप्रयोगशब्देन लभ्यन्ते । चौरेण चोराभ्यां कौरवों यद्वस्तु चोरयित्वा आनीनं तस्तु मूल्यादिना गृह्णाति तत् ३० १ तमोऽभ्यु- आ. व., ज०। ६ तदस्तु यन् मू- आ०, व., म. । ३२ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तार्थवृत्त [ ७२८ २५० तदाहृतादानम् । बहुमूल्यानि वस्तूनि अल्पमूल्येन नैव गृहीतच्यानि, अल्पभूल्यानि वस्तूनि बहुमूल्येन नैव दातव्यानि । राज्ञ 'आज्ञाधिकरणं यदविरुद्धं कर्म तद् राज्यमुच्यते । उचितमूल्यादनुचितं दानम् अनुचितं ग्रहणञ्च अतिक्रम उच्यते । विरुद्ध राज्ये अतिक्रमः विरुद्धराज्यातिक्रमः । यस्मात्कारणात् राज्ञा घोषणा अन्यथा दापिता दानमादानं च अन्यथा करोति स ५ विरुद्धराज्यातिक्रमः । अथवा, राजघोषणां विनापि यहणिजो व्यवहरन्ति तं व्यवहारं यदि राजा तथैव मन्यते तदा तु विरुद्धराव्यातिक्रमा न भवति । प्रस्थः चतुः सेरमानम्, तत्काष्टा दिना घटितं मानमुच्यते, उन्मानं तु तुलामानम् मानं चोन्मानञ्च मानोन्मानम्, एताभ्यां न्यूनाभ्यां ददाति अधिकाभ्यां गृहाति हीनाधिकमानोन्मानमुच्यते । तात्रेण वटिंता रूप्येण च सुवर्णेन घटिता ताम्ररूप्याभ्यां च घटिता ये द्रम्माः तत् हिरण्यमुच्यते, तत्सदृशाः केनचित् लोक१० वचनार्थं घटिता द्रम्माः प्रतिरूपका उच्यन्ते, तैव्र्व्यवहारः क्रयविक्रयः प्रतिरूपकव्यवहारः कथ्यते । प्रयोगश्च तदाहृतादानं च तेनानीतग्रहणम् - विरुद्धराज्यातिक्रमश्च हीनाधिकमार्गदर्शक:- आचार्य श्री. सविधिसागर जी महाराज मानोन्मानच प्रतिरूपकव्यवहारश्च स्तेनप्रयागत दाहतादानविरुद्ध ज्योतिकमहीनाधिकमा नोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः । एते पश्चातिचारा अचौर्याणुत्रतस्य भवन्ति । अवान ब्रह्मचर्यस्य पञ्चाविचारानाह - परचियाकरणत्वरिकापरिगृहीताऽपरिगृहीतागमनानङ्गक्रीडा कामतीवाभिनिवेशाः २८ ॥ कन्यादानं विवाह उच्यते परस्य स्वपुत्राद्विकादन्यस्य विवाहः परविवाहः, परविवाहस्य करणं परविबाहकरणम् । एवि गच्छति परपुरुषानित्येवं शीला इत्वरी, कुत्सिता इत्वरी इत्वरिका । एकपुरुषभर्तृका या स्त्री भवति सधवा विधवा वा सा परिगृहीता सम्बद्धा २० कथ्यते । या 'याराङ्गनात्वेन पुंश्चलीभावेन्द्र वा परपुरुषानुभवनशीला निःस्वामिका सा अपरिगृहीता असम्बद्धा कथ्यते । परिगृहीता च अपरिगृहीता च परिगृहीवाऽपरिगृहीते, इत्यरिके च ते परिगृहीतापरिगृहीते इत्वरिकापरिगृहीताऽपरिगृहीते, इत्वरिकापरिगृहीताऽपरिगृहीतयोगमने प्रवृत्तीद्वे इत्यरिकापरिगृहीताऽपरिगृहीतागमने । गमने इति कोऽर्थः ? जघनस्तनवदनादिनिरीक्षणं" सम्भाषणं पाणिचक्षुरन्तादिसन्ज्ञाविधानमित्येवमादिकं निखिलं रागित्वेन २५ तुश्चेष्टितं गमनमित्युच्यते । अङ्गं स्मरमन्दिरं स्मरलता च ताभ्यामन्यत्र करकक्ष कुचादिप्रदेशेषु क्रीडनमनङ्गक्रीडा कथ्यते । न अङ्गाभ्यां क्रीडा अनङ्गक्रीडेति विग्रहात् । कामस्थ कन्दर्पस्य तीव्रः प्रवृद्धः अभिनिवेशः अनुपरतप्रवृत्तिपरिणामः कामतीत्राभिनिवेशः, यस्मिन् काले स्त्रियां प्रवृत्तिका तस्मिन्नपि काले कामतीत्राभिनिवेश इत्यर्थः । दीक्षिताऽवित्रालातिर्यग्योन्यादिगमनमपि कामती ग्राभिनिवेश इत्यर्थः । परविवाह करणञ्च इत्वरिकापरिगृहीवा १ राशा आशादिक-आ०, ब० ज० । २ - चितादा आ०, ब० ज० ३ द्रम्नाः अह०, ब०, अ० । ४ वशनात्वेन भा०, ब० ज० । ५ - क्षणसंभाषणपा ता० ३ अनका- आ०, ब०ज० ॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ ७।२९-३०] सप्तमोऽध्यायः परिगृहीतागमने द्वे अनङ्गक्रीडा च सांबारीमाभिनिगाध प्राविलापाससारिकापमिहाराज गृहीताऽपरिगृहीतागमनामङ्गक्रीडाकामतीत्राभिनिवेशाः। स्थदारसन्तोष-परदारनिवृत्यणुवनस्य एते पञ्चातिचाराः भवन्ति । अथेदानी परिग्रहपरिमाणाणुव्रतस्यातिचारान् वदन्ति-- क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिकमा: ।।२६।। ५ क्षेत्र धान्योत्पत्तिस्थानम् । वास्तु च गृहम् । हिरण्यञ्च रूप्यादिद्रम्म'व्यवहारप्रवर्तनम्। सुवर्ण कनकम । धनऊ च गामहिपीगजवाजिबडवोट्राजादिकम् । धान्यच' श्रीमाधष्टादशभेदसुशस्यम् , तदुक्तम"गोधूमशालियवसर्षप्रमाषमुद्गाः श्यामाककङ्गुतिलकोद्रवराजमापा । कीनाशनालमठौणवमाढकी च सिंघाकुलत्थचणकादिषु बीजधान्यम् ॥१॥" १० कीनाशो लाङ्गस्त्रिपुट इति यावत् । नालं मकुष्टः । मठौणयं. ज्वारी । आवकी तुवरी। ___ “तुवर्यश्चणका माषा मुद्गा गोधूमशालयः ।। __ यवाश्च मिश्रिताः सप्त धान्यमाहुर्मनीषिणः ॥"[ ] तिलशालियबानिधान्यम् । दासी च चेटी, दासश्च चेटः। कुप्यं च ौमकोशेय- १५ कर्पासचन्दनादिकम् । तत्र झौमं शुभ्रपटोलकम् । कौशेयं टसरिचीरम् । क्षेत्रच वास्तु च क्षेत्रवास्तु, हिरण्यञ्च सुवर्णब्ध हिरण्यसुवर्णम्, धनञ्च धान्यच धनधान्यम् , दासी च दासश्च दासीदासम् , क्षेत्रवास्तु च हिरण्यसुवर्ण च धनधान्यं च दासीदासं च कुप्यन्च क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यानि, चत्वारि द्वे द्वे मिलित्वा पञ्चम केवलं सातव्यम , तेषां प्रमाणानि तेषामतिकमा अतिरेका अतीव लोभवशात् प्रमाणातिरुवनानि । २० एते पञ्चातिचाराः परिग्रहपरिमाणवतस्य वेदितव्याः। पञ्चाणुप्रतानां व्यतिलकनानि कथितानि । अथेदानी शीलसप्तकव्यतिक्रमा उच्यन्ते । तथाहि जास्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि ।। ३० ॥ व्यतिक्रमो "विशेषेणातिलकनं व्यतिपात इति यावत् । व्यतिक्रमशब्दः तिर्यगन्तेषु ६५. त्रिषु शब्देषु प्रत्येक प्रयुज्यते । तेनायमर्थः-ऊर्मव्यतिक्रमः अधोव्यतिक्रमः तिर्यग्व्यतिक्रमः । शैलाधारोहणमूर्ध्यव्यतिक्रमः। अवटाद्यवतरणमधोव्यतिक्रमः। सुरङ्गादिप्रवेशस्तियम्ध्यतिकमः। व्यासङ्गमोहप्रमादादिवशेन लोभावेशाद् योजनादिपरिच्छिन्नदिक्सन्यायाः अधिकाकालक्षणं क्षेत्रवृशिरुरूयते । यथा "मन्याखेटावस्थितेन केनचिन् श्रावण क्षेत्रपरिमाणं कृतं यद् 'धारापुरीलानं मया न कर्त्तव्यम्' इति, पश्चाद् उज्जयिन्याम अन्येन ३० १ -द्रम्न- ता०।२ मठः - ता.1३ -ते ऊ-मा..,ज०।४-मोऽति--ता। ५ -मान्याक्षेत्राब- आ०, ब, ज०। ६ -केन परि- प्रा., २०, ज० । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ तत्त्वार्थवृत्तो [७:३१-३२ भाण्डेन महान् लाभो भवतीति तत्र गमनाकाङ्क्षा 'गमनं वा क्षेत्रवृद्धिः । दक्षिणापथागतस्य धाराया 3उज्जयिनी पञ्चविंशतिगव्यूतिभिः किञ्चिन्यूनाधिकाभिः परतो वर्तते। स्मृतेरन्तरं विच्छित्तिः स्मृत्यन्तरं तस्य आधानं विधानं स्मृत्यन्तराधानम् अननुस्मरणं योजनादिकृतावधेविस्मरणमित्यर्थः। ऊध्वंच अधश्च तिर्यक्च ऊर्ध्वाधस्तियश्चस्तेषां व्यतिक्रमास्त्रयोऽ. तिचाराः, क्षेत्रवृद्धिश्च स्मृत्यन्तराधानञ्च ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि । एते पन्चातिचाराः दिग्विरतेभवन्ति । अथ देशविरत्यतिचारान् प्रथयति आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः ॥ ३१ ॥ आत्मसङ्कल्पितदेशस्थितोऽपि प्रतिषिद्धदेशस्थितानि वस्तूनि कार्यवशात् तद्वस्तु१० स्वामिनं कथयित्वा निजदेशमध्ये आनाय्य क्रयविक्रयादिकं यत्करोति तदानयनमुच्यते । एवं विधेहीति नियोगः प्रध्यप्रयोगः । कोऽर्थः ? प्रतिषिद्धदेशे प्रेष्यप्रयोगेणैव अभिप्रेतव्यापारसाधनम् । निषिद्धदेशस्थितार्न कर्मकरादीन् पुरुषान् प्रत्युद्दिश्य अभ्युत्कासिकादिकरणम्, काठसमये कुल्सिनशाइन काल महायुत्कासिका कथ्यते, तं शब्दं श्रुत्वा ते कर्मकरादयो व्यापार शीघ्रं साधयन्ति इति शब्दानुपातः । स्वशरीरदर्शनं रूपानुपातः । पुद्रलस्य लोष्टादेः क्षेपो १५ निपातः पुगलक्षेपः। आनयनच प्रेष्यप्रयोगश्च शब्दरूपानुपातौ च पुद्गलक्षेपश्च आनयन प्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपाः। एते पञ्चातिचाराः देशविरतेभवन्ति । अथानर्थदण्डविरतेरतिचारानाहकन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्याऽसमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगा नर्थक्यानि ॥३२॥ रागाधिक्यात् वर्करसंवलिताऽशिष्टवचनप्रयोगः कन्दर्प उच्यते। प्रहासवागशिष्टवाकप्रयोगौ पूर्वोक्तौ द्वावपि तृतीयेन दुष्टेन कायकर्मणा संयुक्तौ "कौत्कुच्यमुच्यते । धृष्टत्वप्रायो बहुप्रलापो यत्किञ्चिदनर्थकं वचनं यद्वा तद्वा तद्वचनं मौखर्यमुच्यते । असमीक्ष्य अविचार्य अधिकस्य करणम् "असमीक्ष्याधिकरणम् । तत्रिधा भवति-मनोगतं वागतं कायगतञ्चेति । तत्र मनोगतं मिथ्यादृष्टीनामनर्थकं काव्यादिचिन्तनं मनोगतम्। निष्प्रयो२५ 'जनकथा परपीडावचनं यत्किञ्चिद्वक्तृत्वादिकं वाग्गतम् । निःप्रयोजनं सचित्ताचित्तदल फलपुष्पादिछेदनादिकम् अग्निविषक्षारादिप्रदानादिकं कायगतम् । एवं त्रिविधम् असमीक्षा(क्ष्या ) धिकरणम् । न विद्यते अर्थः प्रयोजनं ययोस्तौ अनर्थको, अनर्थकयोभीवः कर्म वा आनर्थक्यम् , उपभोगपरिभोगयोरानर्थक्यम् उपभोगपरिभोगानर्थक्यम्, अधिकमूल्यं १ गमनं च क्षे- बा०, ब०, ज०। २ -गतधारायाम् ता०।३ऊयि- ता। ४ कौत्कुच्य उ-- आ०, ३०, २०,ज०। ५ -क्षाधि- आ०, २०, २०, ज०। ६ -जनकथनं प- भा०, २०,६०, ज० । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ ७-३३-३४] सप्तमोऽध्यायः दत्वा उपभोगपरिभोगग्रहणमित्यर्थः। कन्दर्पश्च कौत्कुच्यच मौखर्यच असमीक्ष्याधिकरणञ्च उपभोगपरिभोगानर्थक्यच कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि । एते पञ्चातिचारा अनर्थदण्डविरमणस्य भवन्ति । अथ सामायिकातिचारानाह योगदुःप्रणिधानानादिरस्मृत्यर्नुपस्थामानि मारा३ ॥ ५ कायवाङ्मनसां यत्कर्म स योग उच्यते, योगस्य दुष्टानि प्रणिधानानि प्रवृत्तयः योगदुःप्रणिधानानि, योगस्य अन्यथा प्रणिधानानि प्रवृत्तयः योगदःप्रणिधानानि त्रयोऽतिचाराः । सामायिकावसरे क्रोधमानमायालोभसहिताः कायवाङ्मनसां प्रवृत्तयः दुष्टप्रवृत्तयः, शरीरावयवानामनिभृतत्वं कायस्यान्यथाप्रवृत्तिः संस्काररहितार्थागमकवर्णप्रयोगो वचोऽन्यथाप्रवृत्तिा, उदासीनत्वं मनोऽन्यथाप्रवृत्तिः । एवं द्विप्रकारमपि कायदुःप्रणिधानं वाग्दुःप्रणि- १० धानं मनोदुःप्रणिधानञ्चेति त्रयोऽतिचाग भवन्ति । चतुर्थोऽतिचार अनादरः अनुत्साहः अनुद्यम इति यावत् । पञ्चमोऽतिचारः स्मृत्यनुपस्थानं स्मृतेरनुपस्थानं विस्मृतिः-न ज्ञायते किं मया पठितं किं वा न पठितम् , एकाग्रतारहितत्त्वमित्यर्थः। योगदुःप्रणिधानानि च अनादरश्च स्मृत्यनुपस्थानञ्च योगदुःप्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि । एते पञ्चातिचाराः सामायिकस्य वेदितव्याः। अथ प्रोषधोपवासातिचारानाहअप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणा नादस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३४ ।। अत्र प्राणिनो विद्यन्ते न वा विद्यन्ते इति बुद्धया निजचक्षुषा पुनर्निरीक्षणं प्रत्यवेक्षितमुच्यते, कोमलोपकरगेन यत्प्रतिलेखनं क्रियते तत्प्रमार्जितमुच्यते, न विद्यते प्रत्यवेक्षितं २० येषु तानि अप्रत्यवेक्षितानि, न विद्यते प्रमार्जितं येषु तानि अप्रमार्जितानि, अप्रत्यवेक्षितानि च तानि अप्रमाणितानि अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितानि । अथवा, प्रत्यवेक्षन्ते स्म प्रत्यवेक्षितानि, न प्रत्यवेक्षितानि अप्रत्यवेक्षितानि, प्रमार्जन्ते स्म प्रमार्जितानि, न प्रमार्जितानि अप्रमार्जितानि, अप्रत्यवेक्षितानि च तानि अप्रमार्जितानि अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितानि । मूत्रपुरीषादीनामुत्सर्जनं त्यजनम् उत्सर्गः । अहंदाचार्यपूजोपकरणस्य गन्धपुष्पधूपादेरात्मपरिधानोपधानादि- २५ वस्तुनश्च प्रहणमादानमुच्यते । संस्तरस्य प्रच्छदपटादेः५ उपक्रमणमारोहणं संस्तरोपक्रमणं प्रस्तरणस्वीकरणमित्यर्थः । उत्सर्गश्च आदानश्च संस्तरोपक्रमणञ्च उत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानि । अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितानि च तानि उत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानि अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजिंतोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानि । कोऽर्थः ? अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितभूभौ मूत्रपुरीषादेरुत्सर्गः, अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितस्य पूजाधुपकरणस्य आदानम् , अप्रत्यवेक्षिताऽप्रमार्जितस्य संस्तरस्य ३० १ प्रच्छपुटादेः ढ०, भा०, ब०, ज० । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती [७/३५-३६ उपक्रगणम् । एते त्रयोऽतिचाराः । क्षुधातृषाद्यभ्यदितस्य पीडितस्य आवश्यकेष्वनुत्साहः अनादर उच्यते । स्मृतेरनुपस्थापनम् विस्मरणं स्मृत्यनुपस्थानम् । ततः अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानि च अनादरश्च स्मृत्यनुपस्थानञ्च अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसस्त पक्रमणानीदरस्मृत्यनुपस्थानानि । एते पञ्चातिचाराः प्रोषधोपवासस्य भवन्ति । ५ अथ उपभोगपरिभोगातिचारानाह सचित्तसम्बन्धसन्मिभाभिषवदुःपक्काहाराः ॥ ३५ ॥ चेतनं चित्तम् चित्तेन सह वर्तते सचित्तः, तेन सचित्तेन उपसंसृष्ट उपश्लिष्टः शक्यभेदकरणः संसर्गमात्रसहितः स्वयं शुद्धोऽपि सचित्तसञ्चट्टमात्रेण दूषित आहारः सम्बन्धा हारः। सचित्तव्यतिकीर्णः सम्मिलितः सचित्तद्रव्यसूक्ष्मप्राण्यतिमिश्रः अशक्यभेदकरण आहारः १० सन्मिश्राहारः । सङ्ग-अतिसङ्गौ सम्बन्धसन्मियोर्भेदः । कथमस्य शीलवतः सचित्तादिषु प्रवृत्तिरिति चेत् ? उच्यते-मोहेन प्रमादेन वा बुभुक्षापिपासातुरः पुमान् अन्नपानलेपनाच्छादनादिषु सचित्तादिविशिष्टेषु द्रव्येषु वर्तते । रात्रिचतुःप्रहरैः क्लिन्न ओदनो द्रव उच्यते. इन्द्रियबलवर्द्धनो माषविकारादिष्यः कथ्यते- वृषवत्कामी भवति येनाहारेण स वृष्यः, द्रवो वृष्यश्च उभयोऽभिषवः कथ्यते, अभिषवस्याहारः अभिषवाहारः। असम्यक् पक्को दुःपका १५ अस्विनः, अतिक्लेदनेन वा दुष्टः पक्को दग्धपक्कः दुःपक्का,तस्य आहारः दुःपकाहारः । वृष्यदुः पक्कयोः सेवने सति इन्द्रियमवृद्धिः सचित्तोपयोगः वातादिप्रकोपोदरपीडादिप्रतीकारे अग्न्यादिप्रज्वालने महानसंयमः स्यादिति तत्परिहार एव श्रेयान् । आहारशब्दः प्रत्येकं प्रयुज्यते । तेन सचित्ताहारश्च सम्बन्धाहारश्च सन्मिश्राहारश्च अभिषवाहारश्च दुःपक्काहारश्च सचित्त सम्बन्धसन्मिश्राभिषवदुःपकाहाराः । एते पञ्चातिचारा उपभोगपरिभोगपरिसङ्खथानस्य भोगो२० पभोगसङ्ख्यापरनाम्नः शीलस्य भवन्ति । अथातिथिसंविभागस्यातिचारानाह-- सचित्तनिशेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिकमाः ॥ ३६ ।। चित्तेन सह वर्तते सचित्तम्, सचित्ते कदलीदलोलूकपर्णपद्मपत्रादौ निक्षेपः सचित्तनिक्षेपः । सचित्तेन अपिधानम् आवरणं सचित्तापिधानम् । “अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामः" २५ [ ] इति परिभाषणात् सचित्तशब्दात् सप्तमीतृतीये निक्षेपापिधानविग्रहे भक्तः । अपरदातुर्देयस्यार्पणं मम कार्य वर्तते त्वं दहीति परव्यपदेशः, परस्य व्यपदेशः कथनं परव्यपदेशः । अथवा परेऽत्र दातारो वर्तन्ते नाहमत्र दायको वर्ते इति व्यपदेशः परव्यपदेशः । अथवा परस्येदं भक्त याद्यासंदेयं न मया इदमीदृशं वा देयमिति परव्यपदेशः । ननु परव्यपदेशा १ कथमवश्यं शी- आ०, २०, २०, ज० | २ -नेन म- आ०, २०, द०, ज.। ३ -ख्यानना- आ०, ब०, ६०, ज०१४ -हेण भ- आ०, १०, २०, ज० ।५ -भक्तधाभासं ता० । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ सप्तमोऽध्यायः '७३७-३८ ] प्रथमतिवार इति चेन ? उच्यते- धनादिलाभाकाङ्क्षया अतिथिवेलायामपि द्रव्यापार्जनं परिहर्तुमशक्नुवन् परदाहस्तेन योग्यो ऽपि सन् दानं दापयतीति महान् अतीवारः । तदुक्तम्"आत्मवित्तपरित्यागाद परैर्धर्मविधापने अवश्यमेव प्राप्नोति परभोगाय तत्फलम् ॥ १ ॥ भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर्वरस्त्रियः । विभवो दानशक्ति स्वयं धर्मकृतेः फलम् || २ ||[ यश० उ० पृ० ४०५ ] नप आदरं न कुरुते, अपरदातृगुणान् न क्षमते वा तन्मात्सर्यमुच्यते । अकाले भोजनम् अनगाराऽयोग्यकाले दानं क्षुधिते नगारे विमर्द्दकरणच कालातिक्रमः । सचित्तनिक्षेपश्च सचितापिधान परव्यपदेशश्च मात्सर्यच कालातिक्रमश्च सचित्तनिक्षेपापिधान परव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः । एते पचाविचाराः अतिथि संविभागशीलस्य भवन्ति । . अथ सल्लेखनाविचारानाह मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज, जीवितमरणाशंसा मिश्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि ॥ २७ ॥ ५ जीवित मरण जीवितमरणं तस्य आशंसने आशंसे जीवितमरणाशंसे । जीसस्य मरणस्य चाभिलाषों द्वावतीचारों । कथम् ? निश्चितमधुवं हेयं चेदं तदवस्थितावाद जीविताशा | रुगादिभीते जीवत्यासट्रक्लेशेन मरण मनोरथ मरणाशंसा । चिरन्तनमित्रेण १५ सह की नानुस्मरणं कथमनेन ममाभीष्टेन मित्रेण मया सह पांशुक्रीडनादिकं कृतम्, कयमनेन ममाभीष्टेन व्यसनसहायत्वमाचरितम् कथमनेन ममाभीष्टेन मदुत्सवे सम्भ्रमो मितिः नृत्यायनुस्मरणं मित्रानुरागः । एवं मया शयनवसनवस्त्रादिकं भुक्तम्, एवं मया हंसतू परि दुकुलाच्छादितायां शय्यायां वरवनितया आलिङ्गितेन सुखं शयितम् एवं पुरुषरतव निवया सह क्रीडित चेत्यादीनि सुखानि मम सम्पन्नानीत्यनुभूतभीतिप्रकाररमृतिसमन्वाहारः २० सुखानुबन्धः-पूर्वभुक्तसुखानुभ्मरणमित्यर्थः । भोगा का क्षणेन निश्चित दीयते मनी यस्मिन् बेन या तमिदानम् " करणाधिकरणयोव युट् ” [ ] इति साधुः । जीवितमरणाशंसेच मित्रानुरागश्च सुखानुबन्धश्च निदानञ्च जीवितमरणाशंसा मिश्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि । एते पञ्च व्यतिपाताः सल्लेखनाया भवन्ति । १ कृते फ- आ, ३० द०, ब० । २ प्रदददपि ता | ३ पुरुष रत आ० द०, , ४ भोगका भा०, ५०, ० ज० | १० अथाह कश्चित् - तोर्धकरत्वाद्देतुकर्मास्रव निरूपणे शक्तितस्यागतपसीति त्यागशब्द- २५ यं वानमुक्तम्, शीलसप्तकनिरूपणे व अतिथि संविभागशब्दवाच्यं पुनर्दानमुक्तम, तस्य दानस्य लक्षणमस्माभिर्नं ज्ञातमस्ति अतस्तल्लक्षणमुच्यतामिति प्रश्ने सूत्रमिदमाहुः— अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥ ३८ ॥ ० 1 पुरुष तरवनि- द० । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७३९ २५६ तत्त्वार्थवृत्ती आत्मनः परस्य च उपकारः अनुग्रह उच्यते, सोऽर्थः प्रयोजनं यस्मिन् दानकर्मणि तत् अनुग्रहार्थम् । खोपकाराय विशिष्टपुण्यसञ्चयलक्षणाय परोपकाराय सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रादिवृद्धये स्वस्य धनस्य असिसोऽतिसर्जनं विश्राणनं प्रदानं दानमुच्यते । कथं सम्यग्दर्शनादिवृद्धिराहारादिना पानस्य भवतीति चेत् ? सरसाहारेण यतेर्वपुषि शक्तिर्भवति, आरोग्यादिकाच ग्यात्, तेन 'तु ज्ञानाभ्यासोपवासतीर्थयात्राधर्मोपदेशादिकं सुखेन प्रवर्तते । तथा पुस्तकापस्त्यजायुसंयमशौचोपकरणादिदाने परोपकारः स्यात् । तञ्च दानं योग्येन दात्रा स्वहस्तेन विशदातव्याचद्धिमा सुविधिसागर जी महाराज "धर्मेषु स्वामिसेवायां सुतोत्पत्तौ च क; सुधीः । अन्यत्र कार्यदैवाभ्यां प्रतिहस्तं समादिशेत् ॥१॥" [ यश०३० पृ० ५०५ ] १. विज्ञानवतो लक्षणम् । तदुक्तम् "विवर्ण विरसं विद्धमसात्म्यं प्रमृतश्च यत् । मुनिभ्योऽन्नं न तद्देयं यच्च भुक्तं गदावहम् ॥ २ ॥ *उच्छिष्टं नीचलोकार्हमन्योद्दिष्टं "विगर्हितम् । न देयं दुर्जनस्पृष्टं देवयक्षादिकल्पितम् ॥ ३ ॥ ग्रामान्तरान्समानीतं मन्त्रानीतमूपापनम् । न देयमापणक्रोतं विरुद्धं वाऽयथतुकम् ॥ ४ ॥ दधिसप्पि]पयोभन्यप्रायं पयुषितं मतम् । गन्धवर्णरसम्रष्टमन्यत्सर्वश्च निन्दितम् ॥ ५॥" [ यशज० पृ० ४०४ ] अथैवं दानलक्षणमुकम् , तदानं किमविशिष्टफलमेव भवति उतस्विदस्ति कश्चिद्विशेष २. इति प्रश्ने विशिष्ट्राविशिष्टफलनिरूपणार्थं सूत्रसिद्धिरुच्यते विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषानविशेषः ।। ३९ ॥ सुपात्रप्रतिमहणं समुन्नतासनस्थापनं तच्चरणप्रक्षालनं तत्पादपूजनं तनमस्कारकरणं निजमनःशुद्धिविधानं यचनमल्यं कायशुद्धिर्भक्तपानशुद्धिश्चेति नविधपुण्योपार्जनं विधि रुच्यते । तस्य विधेविशेष आदरोऽनादरश्च, आदरेण विशिष्ट पुण्यं भवति, अनादरेण २५ अविशिष्टमिति । द्रव्यं "मकारप्रयरहितं तण्डलगोधूमविकृतिघृतादिक शुद्ध चर्मपात्रास्पृष्टम् , तस्य विशेषः गृहीतुस्तपःस्वाध्यायशुद्धपरिणामादिवृद्धिहेतुः विशिष्टपुण्यकारणम्, अन्यथा - १ विशिष्टगुणस - आ०, २०, जा, १० १ २ तेन शा- आ०, बल, जा, द. । ३ उत्सृष्टं नाब०, ज..९० । ४-मनादि-आ,०, ज०, द०५मद्यमांसमधुत्रयरहितम् । - : Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज सप्तमोऽध्यायः २५७ ७३९] अन्यादृशकारणम् । दाता द्विजनृपवणिश्वर्णवर्णनीयः, तस्य विशेषः - पात्रे ऽनसूया त्यागे. विषादरहितः दित्सत्-ददत् दत्तवत्प्रीतियोगः शुभपरिणामः दृष्टफलानपेक्षकः । तथा चोक्तम्"श्रद्धा तुष्टिर्भक्तिर्विज्ञानमलुब्धता क्षमा शक्तिः । यत्रैते सप्तगुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ॥ १ ॥” [ यश० उ० पृ० ४०४ ] पात्रम् — उत्तममध्यम जघन्यभेदम् । तत्रोत्तमं पात्रं महाव्रतविराजितम् । मध्यमं पात्रं ५ श्रावकव्रतपवित्रम् । जघन्यं पात्रं सम्यक्त्वेन निर्मलीकृतम् । त्रिविधमपि पात्रमुत्तममिति केचित् । तस्य विशेषः सम्यग्दर्शनादिशुद्धयशुद्धी । विधिश्च द्रव्यश्च दाता च पात्रश्च विधिद्रव्यदातृपात्राणि तेषां विशेषः विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषः तस्माद्विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात् । तद्विशेषः तस्य दानस्य पुण्यफलविशेषस्तद्विशेषः । तथा घोक्तम् " क्षितिगतमिव वटवीजं पात्रगतं दानमल्पमपि काले । १० फलति च्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृताम् ||" [ रत्नक० ४।२६ ] इति सिद्धिः । "इति सूरिश्रीश्रुतसागरविरचितायां तात्पर्यसंज्ञायां तत्त्वार्थवृत्तौ सप्तमः पादः समाप्तः । दु० । इत्यनवद्यगद्यपद्यविद्या१ इति श्रुतसागरसूरिणा विरचितायां तत्त्वार्थटीकायां सतर्कव्याविनोदितप्रमोदपीयूषरसपानपावनम तिसभा जर राजमतिसागर यतिराजराजितार्थन समर्थेन करणछन्दोलङ्कारसाहित्यादिशास्त्रनिशितमतिना यतिना च सकलविद्वज्जनविहितचरणसेवस्य श्रीमद्देवेन्द्र कीर्ति भट्टारकप्रशिष्येण शिष्येण विद्यानन्दिदेवस्य संच्छर्दितमिथ्यामतदुर्गरेण श्रुतसागरेण सूरिणा विरचितायां श्लोक वार्तिकरा जवार्तिकसर्वार्थसिद्धि न्यायकुमुदचन्द्रोदयप्रमेय कमलमार्तण्डप्रचण्ड ष्टसहस्रीप्रमुखग्रन्थसन्दर्भनिर्भरावलोकन बुद्धिविराजितायां तत्त्वार्थटीकायां सप्तमोऽध्यायः समाप्तः ॥७॥ आ०, ब० । ३३ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज अष्टमोऽध्यायः 950 अथेदानीम् आस्रवपदार्थ सूचनानन्तरं बन्धपदार्थं सूचयन्ति सूरयः । स तु बन्धः निजतुपूर्वको भवति, अत एवादौ बन्धहेतून् पञ्चप्रकारान् प्रतिपादयन्ति- मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ॥ १ ॥ मिथ्यादर्शनं तावदुक्तमेव | कस्मिन् स्थाने उक्तम् ? “तत्स्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् " ५ [ त० सू० १२ ] इत्यस्मिन् सूत्रे सम्यग्दर्शन सूचनेन तत्त्वार्थानामश्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्श नस्य प्रतिपक्षभूतं मिथ्यादर्शनं सूचितमेव ज्ञातव्यम् । तथा च "इन्द्रियकपायात्रतक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसङ्ख्याः पूर्वस्य भेदा:" [ त० सू० ६।५ ] इत्यस्मिन् सूत्रे पश्चविंशतिक्रियानिरूपणावसरे मिथ्यादर्शनक्रियानिरूपणेन मिध्यादर्शनं सूचितं भवति । “हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम्” [ त० सू० ७/१ ] इत्यस्मिन् सूत्रे व्रतप्रति१० पक्षभूता अविरतिरपि सूचिता भवति । पुण्यकर्मस्वनादरः प्रमाद उच्यते । आज्ञाव्यापादनक्रिया अनाकाङ्क्षाक्रिया एते द्वे क्रिये पञ्चविंशतिक्रियासु यदा सूचिते तदा प्रमादोऽपि सूचितो भवति तयोः प्रमादेऽन्तर्भावात् । " इन्द्रियकषायावत क्रियाः “पञ्चचतुःपश्चपञ्चविंशतिसङ्ख्याः पूर्वस्य भेदा:" [ त० सू० ६१५] अस्मिन्नेव सूत्रे कषाया अपि अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्ञलनविकल्पाः प्रोक्ता भवन्ति । "कायवाङ्मनः कर्म१५ योगः " [ त० सू० ६ । १ ] इत्यस्मिन् सूत्रे योगोऽपि निरूपित एव वेदितव्यः । तत्र मिथ्यादर्शनं द्विप्रकारं भवति नैसर्गिकपरोपदेशपूर्वकभेदात् । तत्र नैसर्गिकं मिथ्यादर्शनं मिथ्यात्वकर्मोदयात् तत्त्वार्थानामश्रद्धानलक्षणं परोपदेशं विनापि समाविर्भवति । अत्र मरीचिर्भरतपुत्रो दृष्टान्ततया वेदितव्यः । परोपदेशपूर्वकं मिध्यादर्शनं चतुःप्रकारं ज्ञातव्यं क्रियावादि-अक्रियावादि-अज्ञानिकवैकिभेदात् । एकान्त विपरीत संशय-विनय-अज्ञानभेदात् पञ्चविधश्च मिथ्यादर्शनं भवति । २० तत्र इदमेव इत्थमेवेति धर्मिधर्मयोर्विषयेऽभिप्रायः पुमानेवेदं सर्वमिति नित्य एवानित्य एबेति वाऽभिनिवेश एकान्तमिध्यादर्शनम् । १ । सपरिग्रहो निष्परिग्रहः पुमान् वा स्त्री वा कवलाहारी केवली भवतीति विपरीतमिथ्यादर्शनं विपर्ययमिध्यादर्शनापरनामकम् । तदुक्तम्--- ""सेयंवरो य आसंवरो य बुद्धो य तह य अण्णो य । समभावभावियप्पा लहेइ मोक्खं ण संदेहो ||" १ - प्रमादान्तर्भावात् आ० ज० ५० १ - पूर्वमेदात् आ० ज० द० । २-देशनं विना-आ० ज० द० । ३ : वेताम्बरच आशाम्बरध बुद्धध तथा चान्यश्च । समभावभावितात्मा लभते मोक्षं न सन्देहः ॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१] अष्टमोऽध्यायः २५१ सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः किं भवेन्नो वा भवेदित्यन्यतरपक्षस्यापरिमहा संशयमिथ्यादर्शनम् । ३। सर्वे देवाः 'सर्वसमयाश्च समानतया द्रष्टव्या वन्दनीया एव न च मार्गदर्शवनन्दनीबाइस्वैवं सर्वसिनियमाशार्क नविमग्मिध्यादर्शनम् । ४ । हितमहितं वा यत्र न परी. क्ष्यते तदज्ञानिकमिथ्यादर्शनम् ।५। तदुत्तरभेदसूचिकेयं गाथा____ असिदिसदं फिरियाणं अकिरियाणं वह होदि चुलसीदी। सतहिण्णाणोणं घेणयियाणं तु यत्तीसं ॥" [ गो० क० ८७६ ] पृथिव्यतजोवायुवनस्पतिकायिका जीवाः पञ्चप्रकाराः स्थावरा उच्यन्ते । हीन्द्रियश्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रिया जीवास्त्रसाः कथ्यन्ते । उपञ्चस्थावराणां बसषष्ठाना हननादिक यत् क्रियते तत् षट्प्रकारः प्राण्यसंयमः। स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणां पश्चानामिन्द्रियाणां मनःषष्ठानामसंयमन मिन्द्रियासंयमः घट्मकारः । एवमविरतिदशप्रकारा । पञ्चसु १० समितिषु तिसृषु गुप्तिषु विनयकायवासमनईर्यापथव्युत्सर्गभैक्ष्यशयनासमशुद्धिलक्षणास्वष्टसु शुद्धिषु दशलक्षणधर्मेषु चानुपमः प्रमादोऽनेकप्रकारः।। विकहा तहा कसाया इंदिय णिहा तहेव पणयो य । चदु चदु पणमेगेग्गे होति पमादा य पण्णरस" [ गो० जी० गा० ३४ ] इति गाथाकथितक्रमेण प्रमादः पञ्चदशप्रकारो वा" । षोडशपाया नवनोकषायाश्चेति १५ पञ्चविंशतिकषायाः । सत्यासत्योभयानुभयलक्षणो मनोयोगश्चतुःप्रकारः, सत्यासत्योभयानुभयवाग्लक्षणो वाग्योगोऽपि चतुःप्रकारः, औदारिक-औदारिकमिश्रवे क्रियिकवक्रियिकमिश्रआहारक-श्राहारकमिश्रकार्मणकाययोगलक्षण: काययोगः समप्रकारः | आहारककाययोगद्यस्य प्रमतसंयत एव सद्भावात् योगत्रयोदशप्रकारः । मिथ्याः पश्चान्यानवा बन्धहेतवो भवन्ति । सासादनसम्यग्दृष्टः सम्यग्मिथ्यापटेरसंयतसम्यष्टेश्चाविरतिप्रमादकषाययोगल- २० अण्णाश्चत्वार आस्रवा बन्धहेतयो भवन्ति । संयतासंयतस्य आश्रिावक श्राविकालक्षणस्य विरतिमिमा स्वविरतिराम्तयो भवति, प्रमादकपाययोगाश्च त्रय आम्रवा भवन्ति । प्रमत्तसंयतस्य प्रमादकपाययोगलक्षणा आसवामयो भवन्ति । अप्रमत्तापूर्वकरणबादरसाम्परायसूममाम्प. रायाणां चतुओं कषायो योगश्चालकद्वयं भवति । उपशान्तकपायतीपाकापाययोगकेलिनामेको योग पवाखषः । अयोगकेवलिनस्तु आस्रवो नास्ति । अत्र समासशुद्धिविधीयते-मिथ्यादर्शन- २५ प्राविरतिश्च प्रमादरच कषायाश्च योगाश्च मिध्यादर्शनाविरतिंप्रमादकपाययोगाः। बन्धस्य हेतयो बन्धहेतषः । एते पश्च पदार्थाः बन्धहेतवः कर्मबन्धकारणानि भवन्ति । ......... १ सर्वसमयश्च ता. । २भशीतिशतं क्रियाणामक्रियाणा तथा च भवन्ति चतुरशीतिः । सप्तषष्टिरशानिनां वैनयिकानां तु द्वात्रिंशत् ।। ३ –पञ्चधास्था- ता० । ४ विकथालया कराया इन्द्रियनिद्रास्तथैव प्रणयश्च । चतुःचतुःपञ्चककं भवन्ति प्रमादा चदश || ५ वा इति निरर्थकम । ६ -प्रकारो वा भि-सा । .... . .......... . Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |८/२ तत्त्वार्थवृनौ अथेदानी बन्धस्वरूपनिरूपणार्थ सूत्रमिदमाहुःसकषायस्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद गलानादत्ते स बन्धः ॥२॥ कपन्तीति कपाया:, दुर्गतिमानक्षण हिंसुजबचावा या इयर्थः स्पासह वर्मत सकपायः राजदन्तादिवत्कृते समासे सइशब्दस्य पूर्वनिपातः । सकषायस्य भावः ५ सकपायत्वं तस्मात् सकपायत्वात् । ननु "मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगा पन्ध हेतवः" [त० सू० ८।१] इत्यस्मिन सूत्रे कषायाणां बन्धहेतुत्वं पूर्वमेयोनं पुनः सकषायत्वादिति हतुकथनं किमर्थम् ? सत्यम्, उदरान्याशयानुसाराहारस्वीकारवत् तोत्रमन्दमध्यमकायानुसारस्थित्यनुभागविशेषपरिझानार्धं पुनः कषायनिर्देशः । तेन तीत्रमन्दमध्यमकषायकारणवशान् स्थित्यनुभागबन्धोऽपि तीब्रमन्दमध्यमरूपो भवति । ननु बन्धो जीवस्यैव भवति किमर्थ १० पुनर्जीवग्रहणम् ? सत्यमः कश्चिदाह-आत्मा मूर्तिरहितत्वादकरः पाणिरहितः कथं कर्म गृहाति कथं बन्धवान भवति इति चर्चितः सन्नुमास्वामिदेवः प्राणधारणायुःसम्बन्धसहितो जीवः कर्म गृह्णाति न त्यायुःसम्बन्ध बिना कर्म आदते इति सूचनार्थ जीवनाज्जीवस्तेन जीवशब्दस्य अहणं चकार । आयुःसम्बन्धविरह जीवस्यानाहारकत्वादेकद्वित्रिसमयपर्यन्तं कर्म ( नोकर्म ) नादचे जीवः "एक द्वौ श्रीन वानाहारक" [प्त० सू० २०६० ] इति वचनान् । २५ ननु कर्मयोग्यान् पुद्रलानादत्ते इसि लयो निर्देशे सिद्ध कर्मणो योग्यानिति भिन्न विभक्तिनिर्देशः किमर्थम् ? युक्तमुक्तं भवता; पृथग्विभक्त्युच्चारणं वाक्यान्तरस्य परिज्ञापनार्थम् । "किं तद् वाक्यान्तरम् ? कर्मणो हेतुभूताज्जीवः सकपायो भवति इत्येक वाक्यम्, अकर्मकस्य जीवस्य कषायलेपाभावात्। एतेन वाक्येन जीवकर्मणोरनादिसम्बन्ध उक्तः । तेन मूर्तिरहितो जीवः मूर्तकर्मणा कथ बध्यते इति चर्चिताप निराकृतम् । २० अन्यथा 'सम्बन्धस्यादिमत्वे सति तत्पूर्वमत्यन्तशुद्धिं दधानस्य जीवस्य मुक्तवद्घन्धा भावः सङ्गच्छेत् । तेन कमबद्धो जीवो न कर्मरहितः। द्वितीयं तु वाक्यं कर्मणो योग्यान् पुगालानादत्ते इति षष्ठीनिर्देशः। "अर्थवशाद विभक्तिपरिणामः" [ ] इति परिभाषणान् कर्मण इति पञ्चम्यन्तं परिहत्य षष्ठी दत्त्वा व्याख्याति । तेन कर्मणो योग्यानिति कोऽर्थः ? कर्मनिधयस्योधितान पुद्गलानादत्ते इति सम्बन्धो भवति। पुद्गलानादत्त २५ इति पुदलशब्दः किमर्थम् ? पुद्गलस्य कर्मणा सह तन्मयत्वसूचनार्थ फर्मणश्च पुद्रलेन सह तन्मयत्वसूचनार्थम् । तेन पुद्गलकर्म आत्मगुणो न भवति आत्मगुणस्य संसारकारणत्वाघटनात् । आदते इति क्रियावचनं हेतुहेतुमद्भायसूचनार्थम् । मिथ्यादर्शनादिकं हेतुः तयुक्त आत्मा हतुमान, तेन मिथ्यादर्शनादिभिराकृतस्य जीवस्य सर्धतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहा - नामनन्तानन्तप्रदेशानां कर्मभावयोग्यानां मुगलानामविभाग आख्यायते जीवप्रदेशः सहान्योन्य ३० प्रदेशः कथयते न तु उपश्लेषो बन्ध इत्यर्थः । तदुक्तम् १ 'किम्' मास्ति ना० । २ ग्रन्धस्य ता । ३ -गाहस्थितानाम- ० । ४ - माविर्भाव बा- श्रा०, जा, द.। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८|३ अष्टमोऽध्याच: ६६५ “पथडिट्ठिदिअणुभागध्पदेसभेदादु चदुविधो गंधो । जोगा पर्यापदेला ठिदिअणुभागा कसायदो होंति ।" [ द्रव्यसं०गा० ३३ ] पुतलानां कर्मत्वेन परिणतिः केन दृष्टान्तेन भवति ? यथा भाण्डविशेषे स्थापितानि नानामार्गदर्शक :- आचार्य श्री या पुला रसवीर्याणि मधूकधातुकीपुष्याणि खजू रद्राक्षादिफलानि च महात्वेन अध्यात्मनि स्थिताः कषाय योगवशेन कर्मत्वेन परिणमन्तीति दृष्टान्तदान्तो वेदितव्यो । 'कर्मणो यो ५ ग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः' इत्यत्र सशब्दस्य प्रहणं किमर्थम् ? सशब्द अपरनिवृत्त्यर्थम् । ल एक बन्यो भवति नापरी बस्तीति ज्ञापनार्थम् । तेन कारणेन गुणगुणियन्धो न भवति । यस्मिन्नेव प्रदेशे जीवस्तिष्ठति तस्मिन्नेव प्रदेशे केवलज्ञानादिकं न भवति किन्तु अपरत्रापि प्रसरति । बन्धशब्दस्तु अत्र सूत्रे व्याख्येयो वर्तते । स तु बन्धः कर्मादिसाधनः, अनादिकर्मणा मिध्यादर्शनादिभिश्व साध्यत इत्यर्थः । तेन सकषायत्वात् कषायसहितत्याज्जीष आत्मा कर्मणो १० योग्यान् कर्मोचितान् पुगलान् सूक्ष्म पुगलानादत्ते गृह्णाति स एव वन्धः कथ्यत इति क्रियाकारकसम्बन्धः । अथेदानीं वन्धप्रकारनिरूपणार्थं सूत्रमिदमाहुः - प्रकृतिस्थित्यनुभव प्रदेशास्तद्विधयः ॥ ३ ॥ प्रक्रियते प्रभवति उत्पद्यते ज्ञानावरणादिकमस्या इति प्रकृतिः स्वभावः स्वरूपमिति यावत् । यथा पिचुमन्दस्य प्रकृतिः कटुकता भवति गुडस्य प्रकृतिर्मधुरता भवति तथा ज्ञानावर- १५ णस्य कर्मणः प्रकृतिः अर्थापरिज्ञानं भवति, दर्शनावरणस्य प्रकृतिरर्थानाक नवलोकनं भवति, सयस्यासद्यस्य च द्विप्रकारस्यापि वेद्यस्य कर्मणः क्रमेण सुखसंवेद नम सुखसंवेदन प्रकृतिर्भवति, दर्शननाइस्य प्रकृतिस्तत्त्वार्थानामश्रद्धानकारित्वममचिविधायित्वं भवति, चारित्रमोहस्य प्रकृतिर संयम हेतुर्भवति, आयुः कर्म प्रकृतिभवधारणकारणं भवति, नामकर्मप्रकृतिर्गति जात्यादिनामविधायिनी भवति, गोत्रकर्मप्रकृतिरुच्चचनीच गात्रोत्पादिका भवति, अन्तरायकमंप्रकृतिदलाभादि २० प्रत्यूहहेतुर्भवति । अष्टकम ष्टिप्रकृतिभ्योऽन्युतिः स्थितिरुच्यते यथा अजाक्षीरस्य निजमाधुर्यस्वभावादप्रच्युतिः स्थितिभवति गोक्षीरस्य निजमाधुर्यस्वभावादप्रच्युतिः स्थितिर्भवति महिषीश्रीरस्य निजमाधुर्यस्वभावादप्रच्युतिः । एवं ज्ञानावरणादिकर्मणामर्थापरिज्ञानादिस्वरूपाद प्रस्वलतिः स्थितिरुच्यते। अर्थापरिज्ञानादिकार्यविश्वायित्वरूपेणाप्रच्युतेजंतावत्कालमेते बध्यन्ते बद्धास्तिष्ठन्ति इत्यर्थाः । स्थितां सत्यां प्रकृतीनां तीश्रमन्दमध्यमरूपेण रसविशेषः अनुमघोनुभाग २५ उच्यते । अजागांमहिष्यादिदुग्धानां तीव्रमन्दमध्यात्वेन र सविशेषषत् कर्मपुद्रलानां स्वगतसामविशेषः स्वकार्यकरणं समर्थाः परमाणयो बध्यन्त इत्यर्थः । कर्मत्वपरिणतपुद्गलःकन्धान परिमाण परिच्छेदनेन इयत्तावधारणं प्रदेश उच्यते । प्रकृतिश्च स्थितिश्च अनुभव प्रदेशच प्रकृतिस्थित्यनुभव प्रदेशाः तस्य बन्धस्त्र विधयः प्रकाराश्चत्वारो भेदास्तद्द्धियः । उक्त I बन्धात् प्रकृतिस्थित्यनुभाग ३। १ अतिस्थित्यनुभाग देश मेदाच नतु कामतो चक्तः ।। २ कर्मक- आर ज०० Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९ तस्वार्थ वृत्ती "प्रकृतिः परिणामः स्यात् स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो रसो ज्ञेयः प्रदेशः प्रचयात्मकः ॥ [ ] मार्गदर्शकेत्र प्रकृतिवन्धः श्रप्रकृतौ भवतः स्थित्यनुभवौ तु कषायकारणों वेदितव्यौ । योगकषायाणामुत्कृष्टानुत्कृष्टभेदात् बन्धस्थापि वैचित्र्यं वेदितव्यम् । तथा ५ चाभ्यधायि— [ cle "जोगा' पयडिपदेसा ठिदिअणुभागं कसायदो कुणदि । अपरिणदुच्छिष्णेमु य बंघट्ठिदिकारणं णत्थि ॥१॥" [गो०क०मा० २५७] अस्यायमर्थः– योगात् प्रकृतिप्रदेशसंज्ञिनौ बन्धों जीवः कुणदि करोति । द्विदिअणुभागं स्थितिश्च अनुभागश्च स्थित्यनुभागं समाहारो द्वन्द्वः, एतद्वन्धद्वयं कसायदो कपायतः जीवः १० कुणदि करोति । अपरिणदुच्छिष्णेसु य अपरिणतश्च उच्छिन्नश्च अपरिणतोच्छौ तयोरपरिणतोमियोः प्राकृते द्विवचनाभावाद् बहुवचनमत्र । अपरिणत उपशान्तकषायः, नित्यैकान्तवादरहितो या, उच्छिन्नः क्षीणकपायादिकः एतयोर्द्वयोः बंधद्विदिकारणं णत्थि स्थितिबन्धहेतुर्न भवतीत्यर्थः । अदानी प्रकृतिबन्धस्य प्रकारनिरूपणार्थं सूत्रमिदमाहुः १५ आयो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः । ४ । युट् पूर्ववत् । आश्रिययुट् पूर्ववत् । वेदयते वेदनीयं आदौ भवः आद्यः ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम्, "करणाधिकरणयोव" [ ] युमत्ययः । जानातीति वा ज्ञानम् "कृत्ययुटोऽन्यत्रापि च" [ ] इति कर्तरि युद्ध, दृश्यते अनेनेति दर्शनं पश्यतीति वा दर्शनम् उभयथापि dsति आवरणम् आवृणोतीति वा आवरणम् । अत्रापि २० "कुस्ययुटो ऽन्यत्रापि च" [ ] कर्तरि अनीयः देवतेवा वेदनीयम्, “शव्यानीयौ " [ ] कर्मणि अनीयः । विदू वेदनाख्याननिवासनेषु चुरादायात्मनेपदी । विद् ज्ञाने चेद् ताविन्प्रत्ययस्तु पूर्ववत् । बिल लाभ तुदादौ विभाषितः तत्र विन्दति विन्दते वा वेदनीयमित्यपि भवति, विंद विचारणे रुधादाघात्मनेपदी तत्र विन्ते वेदनीयमित्यपि स्यात्, विद् सत्तायां दिवादावात्मनेपदी तत्र विद्यते वेदनीयमित्यपि स्यात् वेदयतीति वेदनीयमिति वाक्ये २५ हेताबिन “इनल् यजादेरुभयम्" [ ] इत्यपेक्षायां परस्मैपदम् । मोहयतीति मोहनीयं मुह्यते चाऽनेनेति मोहनीयम् । नरनार कादिर्भवान्तराणि एति गच्छत्यनेनेत्यायुः । अत्रायमायुः शब्दः सकारान्तो नपुंसके दर्शितः कचिदन्यत्र उकारान्तोऽपि दृश्यते यथा "वितरतु दीर्घमायु कुरुताद् १- योगात् प्रकृतिप्रदेशौ स्थित्यनुभागों कवायतः करोति । अपरिच्छिन्नयां - स्थितिकारणं नास्ति ॥ स्य कारणानि आज ६० । ३ - पेक्षया । ४-भवान्तरम् अ० ज० ६० । 1 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽध्यायः २६३ "नमत्यात्मानमिति नाम नम्यते चात्माऽनेनेति नाम । गूयते शब्द मार्गदर्शक आचार्य श्री सविधिसागर उच्चा 'नीचश्चेत्यनेन पाययोश्च अन्तरं मध्यम् एति गच्छतीत्यन्तरायः । ज्ञानञ्च दर्शनञ्च ज्ञानदर्शने ज्ञानदर्शनयोरावरणे ज्ञानदर्शनावरणे - ज्ञानावरणं दर्शनावरणञ्चेत्यर्थः । ते च वेदनीयञ्च मोहनीयन आयुश्च नाम च गोत्र अन्तरायश्च ज्ञानदर्शनावरण वेदनीय मोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः । एते अम्रो मिलित्वा आद्यः ५ प्रकृतिबन्धो भवति । आत्मपरिणामेन केवलेन सङ्गृह्यमाणाः मुद्राः ज्ञानावरणादिबहुभेदान् प्राप्नुवन्ति एकत्रारभुक्तभोजनपरिणामरसासूमांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रवत् अनेकविकारसमर्थ वातपित्तश्लेष्मखलर सलालाभाववच्च । कर्मसामान्यादेकं कर्म । पुण्यपापभेदात् द्विधा कर्म । प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेश भेदाच्चतुर्थी कर्म । ज्ञानावरणादिभेदादष्टधा कर्म, इत्यादि संख्येयासंख्येग्रानन्तभेदञ्ज कर्म भवति । मूलप्रकृतित्रन्धोऽष्टविधः प्रोक्तः । अथेदानोमुत्तरप्रकृतिबन्धः कतिप्रकार इति प्रश्ने सूत्रमिदमुच्यतेपञ्चनवदचष्टाविंशत्तिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपञ्चभेदा यथाक्रमम् ॥ ५ ॥ भेदशब्दः पञ्चादिभिः शब्दः प्रत्येकं प्रयुज्यते । तेनायमर्थ:-- पखभेदं ज्ञानावरणीयं नवभेद दर्शनावरणीयं द्विभेदं वेदनीयम् अष्टाविंशतिभेदं मोहनीयं चतुर्भेदमायुः द्विचत्वारिं शद्भेदं नाम द्विभेदं गोत्रं पञ्चभेदोऽन्तरायः । पञ्चभेदञ्च नवभेद द्विभेदश्च अष्टा- १५ विंशतिभेदञ्च चतुर्भेद द्विचत्वारिंशद्भेदख विभेदपभेदच पचनबद्वष्टाविंशतिचतु चत्वारिंशद्विपचभेदाः । एते भेदाः अप्रप्रकारस्य प्रकृतिबन्धस्य यथाक्रममनुक्रमेण भवन्ति । ननु उत्तरप्रकृतिबन्ध एवं विकल्से वर्तते इत्यस्मिन् सूत्रे सूचितं न वर्तते कस्मादुच्यते प्रकृतिबन्धोऽयम् ! साधूक्तं भवता, पूर्वसूत्रे "आद्यो ज्ञानदर्शन" इत्यादावाद्यशब्दो गृहीतो वर्तते । यद्ययं प्रकृतिबन्ध आधस्तर्हि पचभेदादिभेद उत्तरप्रकृतिबन्धोऽयं भवति । २० उत्तरप्रकृतिबन्धस्य भेदाः किं सूत्रपर्यन्तं वक्ष्यन्ते ? “आदितस्तिसृणाम् ” . इत्यादि बन्धत्रयस्य सूत्राणि यावन्नायान्ति तावदुत्तरप्रकृतिबन्धो वेदितव्यः पारिशेष्यात् स्थित्यनुभवप्रदेशब वेभ्य उद्धरितत्वात् । अथ ज्ञानावरणं यचभेदमुक्तं तन्निरूपणार्थं योगोऽयमुच्यते- ८/५-६ ] १० मतिश्रुतावधिमनःपर्य केवलानाम् ॥ ६ ॥ 效 मतिश्च श्रुतच अवधिश्च मनःपर्ययश्व केवलन मतिश्रुताबधिमनः पर्ययकेवलानि तेषां मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलानाम्, एतेपामुक्तस्वरूपाणां पश्वानां मत्यादीनां ज्ञानानामावरणानि पच भवन्तीति ज्ञानावरणस्योत्तरःकृतयः पञ्च भवन्तीति ज्ञातव्यम् । इह किश्विद्विचार्यते मन:पर्ययज्ञानशक्तिः केवलज्ञानशक्तिश्चाभव्यप्राणिनि वर्तते न वा वर्तते ? वर्तत इति १ शय्यते आ ज० ० २थूल- भ० ज० द० 1३ - प्राणिव आ०, ज० ० । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ तत्वार्थवृत्तौ चेत्; तईि अभव्यः कथमुच्यते ? यदि न वर्तते; तहिं मनः पर्ययज्ञानावरणं केवलज्ञानावरणत्यावरणद्वयं तत्र वृथैवोच्यते ? युक्तमुक्तं भवता; आदेशवचनान्न तत्र दोषो वर्तते । किं तदादेशवचनम् ? द्रव्यार्थिकनयस्यादेशान्मनः पर्ययकेवलज्ञानशक्तिरस्त्येव पर्यायार्थिकनयस्यादेशान्मन:पर्ययकेवलज्ञानशक्तिद्वयमभव्ये न वर्तते । एवचेतर्हि भव्या भव्य विकल्पद्वयं न सङ्ग५ छते तद्वयोरपि तच्छक्तिसम्भवात् ? सत्यम शक्तिसद्भावापेक्षया भव्याभव्यविकल्पों न बतें । किं तर्हि ? व्यक्तिसम्भवासम्भवापेक्षया भव्यामव्यौ स्तः । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्यस्य जन्तोः व्यक्तिर्भविष्यति स भवति भव्यः । यस्य तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेर्व्यतिर्न भविष्यति स अभव्य इत्युच्यते कनकपाषाणान्धपापाणवत् । यथा कनकपाषाणस्य कनकं व्यक्तं भवति इतर तु-शक्तिकमेरीकन आति । अथ दर्शनावरणस्य का नोत्तर प्रकृतयः इत्यनुयोगे सूत्रमुच्यते स्वामिना -- १० {८७ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा-निद्रानिद्राप्रचला प्रचलाप्रचला स्थानगृद्यश्च ॥ ७ ॥ चक्षुश्च लोचनद्वयम् । अचक्षुश्च अपरेन्द्रियाणि अवधिश्च अवधिदर्शनम्, केबल केवलदर्शनं चक्षुश्चक्षुरधिकेवलानि तेषां चक्षुरचक्षुरधिकेबलानाम् । एतेषां चतुर्णा दर्शना१५ नामावरणानि चत्वारि भवन्ति चक्षुर्दर्शनावरणम् अचक्षुर्दर्शनाबरणम्, अवधिदर्शनावरणं केवलदर्शनावरणति । तथा निद्रा च निद्रानिद्रा च प्रचलाच प्रचलाप्रचला व त्यानगृखिश्च निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धयः एताः पञ्च निद्रा दर्शनावरणानि पच भवन्ति समुदितानि तु नव स्युः । चकारातुभिः पञ्चभिश्व आवरणैः समुच्चीयते । तत्र तावन्निद्रा लक्षणम् - "मदवेदक मविनाशार्थं स्वपर्न निद्रा उच्यते । निद्राधान् २० पुमान् सुखेनैव जायते । निद्रायाः पुनःपुनः प्रवृत्तिर्निद्रानिंद्रा कथ्यते । निद्रानिद्रावाम् पुमान् दुःखेन प्रतिबोध्यते । यत्कर्म आत्मानं अचलयति सा प्रचलेत्युच्यते । प्रचलानान् पुमान् उपविष्टोऽपि स्वपिति, शोकश्रममद खेदादिभिः प्रचला उत्पद्यते सा नेत्रगात्रविक्रियाभिः सूच्यते । प्रचलैव पुनः पुनरागच्छन्ती प्रचलाप्रचला उच्यते । यस्यां बलविशेषप्रादुर्भावः स्वप्ने भवति सा स्त्यानगृद्धिरुच्यते । धातूनामनेकार्थत्वात् स्त्यायतिर्घातुः २५ स्वपनार्थ इह वेदितव्यः । गृद्धिरपि दीप्त्यर्थे ज्ञातव्यः । तेनायमर्थः - स्त्याने स्वप्ने गृद्ध्यति trer यो निद्राविशेषः सा स्स्यानगृद्धिरित्युच्यते । स्वप्नदोप्तिरिति यावत् । दीप्तिरपि किम् ? तेजः संघुक्षणमित्यर्थः । यदुदयाज्जीवो बहुतरं दिवाकृत्यं रौद्रं कर्म करोति सा स्त्यानगृद्धिच्यते । निद्रादीनां कारणानि आवरणरूपाणि कर्माणि वेदितव्यानि । उन ९ - मदस्वेद - भा० द० । २ - जागति आ०, ५० अ० ३ मदस्वेदा- भ०, द० । ४ स्वश्रमेत्र भ- आ० ० ज० | Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ अष्टमोऽध्यायः "यीशुदयेणुहविदो सोवदि कम्मं करेदि जप्पदि य । णिहाणिदुदयेण य ण दिद्विमुग्धादिदु सक्को ॥ पयलापयलुदयेण य वहदि लाला चलंति अंगाई । णिदये गच्छंतो ठाइ पुणो वहसदि पडेई ।। पपलुदयेण य जीवो ईसुम्मीलिय सुवेदि सुशोचि । ईसं ईसं जाणा मुई मुहूं सोवदे मंद ॥" [ गो८ क गा० २३-२५ ] अथ वेदनीयोत्तरप्रकृती आवेदयति यार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुद्धिसागर जी महाराज - सकप असाच सदसती तेच ते वेचे सदसद्वेधे । सद्वेचं प्रशस्तं वेद्यम् असद्वेधमप्रशस्त कम् । यदुदयाद् देवमनुध्यतिर्यमातिषु शारीरं मानसश्च सुखं लभते तद्भवति सद्वेद्यम् । १० सुबमारकादिगतिषु शारीरमानसादिदुःषं नानाप्रकारं प्राप्नोति तदसद्वेश्यम् । एते तृतीयस्याः माते उत्तरप्रकृती भवतः। । अथ मोहनीयप्रकृतेहत्तरप्रकृतीनिरूपयतिविचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्याम्रिधिनवषोडशभेदाः सम्पस्वमिथ्यात्वत्ताभयान्यकषापकषायौ हास्यरत्यरतिशोकभयजुगु. १५ साखीपुंनपुंसकवेदा अनन्तानुषन्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्या नसज्वलनविकल्पाश्चैकशः झोधमानमायालोमाः ॥९॥ मोहनीयशब्दः प्रत्येकं प्रयुज्यते । तेनायमर्थः-दर्शनमोहनीयच चारित्रमोहनीय। च । वेदनीयशब्दश्च प्रत्येक प्रयुज्यते । तेनायमर्थः-अकषाय वेदनीयच कषायवेदनीयच । पूर्वनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयानि तानि आख्या नामानि यासां मोहनीयोत्तरप्रक- २ बिना सा दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्याः । मोहनीयस्य कर्मणश्चतन उत्तरप्रकृवव एवं भवन्ति । कथम्भूतास्ताश्चतस्रोऽपि ? त्रिद्विनवघोडशभेदाः । भेदशब्दः प्रत्येक प्रयुमाते । तेनायमर्थ:-त्रिभेदाश्च द्विभेदे च नवभेदाश्च षोडशभेदाश्च यासां चतुर्णीमुत्तरप्रकतीनां ताखिदिनवषोडशभेदाः । अस्य विशेषणस्यायमर्थ:-दर्शनमोहनीयं त्रिभेदं चारित्रमोह नोपं विभेदम् अकषायवेदनीयं नवभेदं कषायवेदनीयं षोडशभेदमिति यथासल यं वेदितव्यम् । २५ १ त्यानगम्युदयेन उत्थापिते स्वपिति कर्म करोति जल्पति च । निद्रानिद्रोदयेन च न दृष्टिमुदायितुं शक्यः ।। प्रचलापचलोदयेन च वहति लाला चलन्ति अङ्गानि । निद्रोदये गच्छन् तिष्ठति पुनः सति पतति ।। प्रचलोदयेन च जीव ईषदुन्माल्य स्वपिति मुप्तोऽपि । इषदीपज्जानाति मुहुमुहुः खपिति मन्दम् । प्रत्येक प्रत्येक प्र-श्रा०. ज... Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्तों [८९ न तावद् दर्शनमोहनीयं त्रिभेद निरूपयति-सम्यकस्वमिथ्यात्वतदुभयानि । सम्यक्त्याच मिथ्यात्वञ्च तदुभयञ्च सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयानि तत्रिविधमपि दर्शनमोहनीयं बन्धं प्रति एक भूत्वा सत्कर्मापेक्षया कर्मसत्तामात्रापेक्षया द्रव्यरूपेण त्रिविधं व्यवतिष्ठते । शुभपरिणामसंरुद्धनिजरसम् , कोऽर्थः ? शुभपरिणामनिराकृतफलदानसामथ्य मिथ्यात्वमेवोदासीनत्वेन स्थितमा५ मनः श्रद्धानं नव निरुणद्धि, मिथ्यात्वञ्च वेदयमानमात्मस्वरूपं लोकमध्ये आत्मानं सम्यग्दृष्टि ख्यापयत् सम्यक्स्वाभिवयं मिथ्यात्वमुच्यते । यदि सम्यक्त्वं नाम दर्शनमोहनीयमीशं वर्तते ताई मिथ्यावं नाम दशनमोहनीय कीटमिति चेत् ? उच्यते; यदु दयान् सर्वधीतरागमणीतसम्यग्दर्शनशानचाPिPोपलक्षितमोरयाग परामनामनामाहातवार्थश्रद्धाननिरुत्सुकः नवार्थश्रद्धानपराङ्मुखः अशुद्धतत्त्वपरिणामः सन् हिताहितविवेकविकलः जादिरूपतयाऽव१. तिष्टते नन्मिथ्यात्वं नाम दर्शनमोहनीयमुच्यते । तहिं तदुभयं किं कथ्यते ? मिथ्यात्वमेव सामि शुद्धस्वरसम् , ईपग्निराकृतफलदानसामर्थ्य सम्यम्मिथ्यात्वापरनामधेयं तदुभयमुच्यते । सामिशशब्द ईषदर्थे वर्तते । अर्धार्थे इति केचित् । तेन सामिशुखस्वरममिति कोऽर्थः? ईषत्प्रक्षालिताद्धप्रक्षालिसकोद्रवयत् क्षोणाक्षीणस्वरसमित्यर्थः । अथ चारित्रमोहनीयस्य को दो भेदौ ? अकषायकषायौ । अकपायश्च कषायश्च २५ अपायकषायौं । अकषाय इति कोऽर्थः ? ईषत्कपाय अकषायवेदनीयमित्यर्थः । तस्य नव भेदा भवन्ति । ते के नव भेदाः ? हात्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदाः । हास्यन्ना रतिश्चारतिश्च शोकश्च भयञ्च जुगुप्सा च स्त्रीवेदश्च पुवेदश्च नपुंसकवेदश्च हास्यरत्यरतिशांकभयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदाः । तत्र हास्यं वर्करादिस्वरूपं यदुदयादाविभवति तद्धास्यम् । यदुदयाहेशपुरमाममन्दिरादिषु तिष्ठन् जीवः परदेशादिंगमने च औत्सुक्यं न करोति सा रनि० रुच्यते । रतेविपरीता अरतिः । यदुदयाद् अनुशेते शोचनं करोति स शोक उच्यते । यदुदयात् त्रासलक्षण उद्वेग उत्पद्यते तद् भयमुच्यते । यदुदयात्परदोपानाविष्करोति आत्मदोषान मवृणोति सा जुगुप्सा कथ्यते । यदुदयास्त्रीपरिणामानकीकरोति स स्त्रीवेदः । यहुदयात् पुं-त्वपरिणामान् प्राप्नोति म पुंवेदः । यदुदयान्न सकभायान् प्रतिपद्यते स नपुंसकवेदः । उक्त त्रिवेदानां लक्षणम् "श्रोणिमार्दवभीतत्वमुग्धत्वक्लीयतास्तमाः । पुंस्कामेन समं सप्त लिङ्गानि स्त्रैणसूचने ॥ 'खरत्वं मोहनं स्ताब्ध्यं शौडीय श्मश्रु धृष्टता । स्त्रीकामेन समं सप्त लिङ्गानि नरवेदने । माक्षसन्माना-भाज.. |२-श्रद्धानप्रत्यनीका आ०, १०,जा। पामनेन मैं-मादाज1 ४ स्वग्भभडनम् आ०...जा। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज अष्टमोऽध्यायः यानि स्त्रीपुंसलिङ्गानि पूर्वाणीति चतुर्दश । शक्तानि तानि मिश्राणि षण्ढभावनिवेदने ।।। । कषायवेदनीयं षोडशप्रकार कस्मात् ? एकशः एकैकं प्रति अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसरू ज्वलनविकल्पा यतः कारणात् । के ते क्रोधमानमायालोमाश्चत्वारः । तदायाअनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभाश्चत्वारः अप्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोभाश्च- ५ खारः प्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालीभाश्चत्वारः सज्वलनाः क्रोधमानमायालोभाश्चस्वारः । अनन्तानुवन्धिन इति कोऽर्थः ? अनन्त मिथ्यादर्शनमुच्यते, अनन्तभवभ्रमणहदुत्वात्। अनन्तं मिथ्यात्वम् अनुयध्नन्ति सम्बन्धयन्ति इत्येवंशीला ये क्रोधमानमायालोभास्ते अनन्ता. नुवन्धिनः । अनन्तानुबन्धिषु कपायेषु सत्सु जीवः सम्यक्त्वं न प्रतिपद्यते तेन ते सम्यक्त्वघातकाः भवन्ति । येषामुदयात् स्तोकमपि देशप्रतं संयमासंयमनामक जीयो धर्तुं न क्षमते ते १० अप्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोभास्तेपु विध्वस्तेषु श्रावकवतम् अधिकाणां च तं जीवः प्राप्नोति तेन ते देशप्रत्याख्यानमावृण्वन्तः अप्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोमा उच्यन्ते । येपामुदयाजीवो महाप्रतं पालयितुं न शक्नोति ते प्रत्याख्यानायरणाः क्रोधमानमायालोमा अच्यन्ते । तेषु विध्यस्तेषु जीवः संयम सर्वविरति नामक प्राप्नोति षष्ठादिगुणस्थानान्यहति । सज्वलना इति कोऽर्थः ? संशब्द एकीभावे वर्तते । तेनायमर्थः-संयमेन सह अवस्थानतया १५ एकीभूनतया ज्वलन्ति नोकषायवत् यथाख्यातचारित्रं विश्वंसयन्ति ये ते सज्वलनाः क्रोधमानमायालोमाः । अथषा येषु सत्स्यपि संयमो ज्वलति दीप्ति प्राप्नोति प्रतिबन्धं न लभते ते संचलनाः क्रोधमानमायालोमा उद्यन्ते । एवमेते समुदिताः षोडशकपाया भवन्ति तेषां स्वभावप्रकटनाथं दृष्टान्तगाथा एता:'सिलपुढविभेदधली जलराइसमाणवी हवे कोहो । २० णारयतिरियणरामरगईसु उप्पायओ कमसो ।। सिलअट्टिकट्ठवेत्ते णियभेएणणुहरंतवो माणो । णारयतिरियणरामरगईसु उप्पायओ कमसो ।। घेणुयमूलोरभयसिंगे गोमुत्तएवखोरपि । सरिसी मायाणारयतिरियणरामरगईसु खियदि जी । किमिरायचकतणुमलहरिहराएण सरिसओ लोहो । णारयतिरियमाणुसदेवेसुप्पायओ कमसो ॥" [ गो० जी० गा- २८३-८६ ] १ शिलापृथिवीभदधूलि जलराशिसमानको भवेट क्रोधः ! मारकरियगारामरगतिषत्पादक क्रमशः ।। शैलास्थिकाष्ठ वेत्रान् निज देगानहरन् मानः । नारकतिग्म।मरगतिरत्वादकः कमश:। वेगूपमूलोरभ्रकशनंग गोमूत्रेण च अरप्रेश ! सहझी माया नारकतियानगमति अपत जीवा । क्रिमिरागच ऋतमलहरिद्वारा पहलोभः । नारऋतियम्मानपदेवत्यादकः क्रमशः || Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६८ तत्त्वार्थवृत्त मार्गदर्शक :- आचार्य अमुक उत्तरप्रकृतयोऽष्टाविंशतिर्भवन्ति । कर्मणः जी अथेदानीमायुः कर्मोत्तरप्रकृतीराह [ ८१--११ वारकर्यग्योनमानुषर्देवानि । १० । नरकेषु भवं नारकं तिर्यग्योनिषु भवं तैर्यग्योनं मानुषेषु मनुष्येषु वा भयं मानुषं देवेषु ५ भवं देवम् । नारका तैयग्यानञ्च मानुपन देकञ्च नारकीयोनानुपदेवानि । यदुदयात् तीशीतोष्णदुःख नरके जीवः दीर्घकालं जीवति तत् नारकमायुः | यन्निमित्तं तिर्यग्योनिषु जीवति जीवः तत्यग्योनम् । यत्प्रत्ययात् मनुष्येषु जीवति जीवः तत् मानुषमायुः । यद्धेतुकं देवेषु दीर्घकालं जीवति जीवश्वमायुः । एत्रमायुः प्रकृतेश्वतन्त्र उत्तरप्रकृतयो भवति । अथेदानी नामकर्मप्रकृतेरुत्तर प्रकृती राहु १० गतिजा निशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणधन्धनसवात संस्थान संहनन स्पर्शरसगन्धवर्णानुपूर्व्यागुरुलधूपघातपरघातात पोचतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येक शरीरत्रससुभगसुस्वरशु भक्ष्मपर्याप्तिस्थिरा देवयशःकीर्तितरां तीर्थंकरत्वञ्च ॥ ११ ॥ गतिश्च जातिश्व शरीर अङ्गोपाङ्ग निर्माणश्च बन्धनञ्च सङ्घातश्च संस्थानच ५५ संहननश्व स्पर्शश्व रसश्च गन्धश्च वर्णश्च आनुपूर्व्यख अगुरुलघु च उपघातश्च परघातश्च आतपश्च उद्योतश्च उच्छ्वासश्च विहायोगतिश्च ताः गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्ग निर्माणयन्वनसङ्घःतसंस्थानसंहननस्पर्शर सगन्धवर्णानुपूर्व्यागुरुलधूपघात परघातात पोशोतोच्छ्वासविहायोगतयः । एता एकविंशतिप्रकृतयः । तथा प्रत्येकशरीरच सच सुभगश्च सुवरका शुभश्च सूक्ष्मश्च पर्यातिश्च स्थिरा आदेयश्च यशः कीर्तिश्च येषु दशसु नामसु तानि प्रत्येक शरीरससुभ२० सुवर शुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययशः कीर्तीनि तानि च तानि सेतराणि इतरनामसहितानि तानि प्रत्येकशरीरत्र ससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरा देययशः कीर्ति सेतराणि विंशतिसङ्ख्यानि भ यन्ति । कथम् ? प्रत्येकशरीरादितरत्साधारणशरीरं प्रसादितरः स्थावरः सुभगादितर: दुर्भगः । सुरवरादिवरः दुःस्वरः शुभादितरः अशुभः सूक्ष्मादितरो बादरः पर्यामेरितरा अपर्याप्तः स्थिरादितर: अस्थिरः आयादितरः अनादेयः यशः कीर्ते रितरा अयशः कीर्तिः तोर्थकरस्य भावः २५ कर्म वा तीर्थकत्वं एताः समुदिताः द्विचत्वारिंशन्नामकर्मण उत्तरप्रकृतयो भवन्ति । अन्तर्भेदेस्तु मिलि प्रकृतयो भवन्ति । तथैवोच्यते — यदुदय ज्जीवो भवान्तरं गच्छति सा गतिः शरीरनिष्पत्तिः सा चतुःप्रकारा भवति नरकगतिः तिर्यग्गतिः मनुष्यगतिः देवगतिश्चेति । यदुदयाज्जीवो नारकभावो नारकशरीरनिष्पत्तिको भवति तन्नरकगतिनाम | यडुदयाज्जीवस्तिर्यनाम | यदुद्द्याज्जीवो मनुष्यभावस्तन्मनुष्यगतिनाम | यदुद्याज्जीयो देवभाव१ नरके भवम् भ० ज०, ३० । नरकास्तन्नर- आ० ० ज० । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽध्यायः २६९ स्तरेषगतिनाम । नरकाविगतिषु अव्यभिचारिणा सशस्वेन एकीकृतोऽर्थात्मा' जातिहच्यते । सा पश्चपकारा-एकेन्द्रियजातिनाम द्वीन्द्रियजातिनाम श्रीन्द्रियजातिनाम चतुरिन्द्रियजाति. नाम पश्चन्द्रियजातिनाम । यदुदयाज्जीय एकेन्द्रिय इत्युच्यते तदेकेन्द्रियजातिनाम । यदुदयादात्मा द्वीन्द्रिय इत्यभिधीयते तद्वीन्द्रियजातिनाम । यदुदयाजीवस्त्रीन्द्रियः इति शब्यते तत्त्रीन्द्रियजातिनाम । खरयाजमी पतुरिन्द्रिय इत्यभिधीयते तच्चतुरिन्द्रियवासिनाम। यदयान्- ५ पाणी पञ्चेन्द्रिय इति कथ्यते तत्पश्चन्द्रियजासिनाम । यदुदयाजीवस्य कायनिवृत्तिवति तरछमीरं पनप्रकारम्-औदारिकवक्रियिकाहारकतैजसकार्मणशरीरभेदात् । यहुद्यादगोपागव्यक्तिभवति तवकोपाई त्रिप्रकारम्-औदारिकशरीराङ्गोपाङ्ग नाम। बैक्रियिकशरीराङ्गोपालनाम। आहारकशरीराङ्गोपाङ्गनाम । तेजैसकामणयाः शिरचारमापाशीनिमारसान्त तेन अगोपाळ विप्रकारम् । किमङ्गं किमुपाङ्गमिति चेत् ? उच्यते-- "णलया वाहू य तहा णियंगपुट्ठी उरो य सीसं च । अठेव दु अंगाई सेप्त उवंगाई देहस्स ॥" [ कम्मप०७४ ] ललाटकर्ण नासिकानेत्रोत्तराधरोष्टालिनखादीनि अपाङ्गान्युच्यन्ते । यदुदयात्परिनिष्पतिर्भवति-तनिर्माणं द्विप्रकार जातिनामकर्मोवयापेक्षं झातव्यम् । स्थाननिर्माण प्रमागनिर्माण चक्षुरादीनां स्थानं साधाञ्च निर्मापति । निर्मीयतेऽनेनेति निर्माणम् । “यथा नासि. १५ का नासिकास्थाने एकैक (व) भवति नेत्रे नेत्रयोः स्थाने द्वे एव भषतः कर्णो कर्णयोः स्थाने द्वादेव भवतः । एवं' मेहनस्तनजयनादिषु ज्ञातव्यम् । शरीरनामकम्मोदयाद् गृहीताना पुगलानां परस्परप्रदेशसंश्लेषणं बन्धनमुच्यते । तदपि पचप्रकारम्-औदारिकशरीरबंधनं नाम । वैक्रियिकशरीरबन्धनं नाम । आहारकशरीरबन्धनं नाम। तैजसशरीरबन्धनं नाम । कर्मणशरीरबन्धनं नाम । यन्निमित्ताच्छरीराणां छिद्ररहितपरस्परप्रदेशप्रवेशदेकत्वभवनं भवति स सञ्चातः २० पब्धप्रकार:-औदारिकशरीरसतनाम । बैक्रियकशरीरसाहनतनाम | आहारकशरीरसवातनाम । तेजसशरोरसवातनाम । कार्मणशरीरसमातनाम । यत्प्रत्ययात् शरीराविनिष्पत्तिर्भवति सस्संस्थान ब्दप्रकारम् । अर्ध्व मध्ये ( ऊर्ध्वमध्ये ) मध्ये च समशरीरावयवसनिवेशव्यवस्थाविधायक समचतुरस्र संस्थानं नाम । नाभेरूद्धर्व प्रचुरशरीरसप्रिवेशः अधस्तु अल्पशरीरसंनिवेशो न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानं नाम । तस्माद्विपरीतसंस्थान विधायक स्वातिसंस्थानं कश्मीकापरनामधेयम् । २५ 'पृधाशे बहुपुद्गलपचयनिर्मापकं 'कुब्जसंस्थानं नाम । विश्वाङ्गोपाङ्गाल्पत्वजन स्वत्वकारकंवामनसंस्थानं नाम । अवच्छिन्नाथय "हुण्डसंस्थानं नाम । यदुदयात् अस्थ्नो बन्धनविशेषो भवति तत्संहननं षट्प्रकारम् । वत्राकारोभयास्थिसन्धिमध्ये सबलयबन्धनं सनाराचं बनवृषभ १ अर्थो जीवपदार्यः - हि० । २ जन्तुस्त्री-ता० । ३ नलको बाहू च तथा नितम्बपृष्ठे अरश्च शोषश्च । अष्टव तु अनानि शेषाणि आङ्गानि देहस्य ।। ४ -नात्युच्यन्ते आ०, द०, ज० । ५ तथा , २०. न । ६ एवं स्तन- आ०, द०, म० । ७ स्वाप्तिकर- था, द० ज०। ८ पृष्ठदेशे प्रा०, २०, ज०। ९ कुजकसं-भाः, १०, ज०११०९टकम-द० । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती 14.११. नाराचसंहननं नाम । तद्रलयरहितं वनगाराचसंहननं नाम । बनाकारण वलयेन च रहितं सनाराचं नाराचसंहननं नाम। एकास्थिसनाराचमन्यत्रानाराचमर्धनाराचसंहननं नाम । उभयास्थिपयन्ते कीलकसहितं कीलिकासंहननं नाम । अन्तरनवाप्लान्योन्यान्थिसन्धिकं बाह्ये सिरास्नायुमासवेष्टितमसंप्राप्तासपाटिकासंहननं नाम। असंप्राप्तानुपाटिकासंहननः आदितश्चतुःस्वर्गयुगलान्तं 7. छति । कीलिकानाराचसंहनन: शपचतुर्युगलपर्यन्नं गच्छति । नाराघसंहननो नववेककपर्यन्तं गच्छति । यमनाराचसंहननो नवानुदिशपर्यन्तं गाछन । वयनाराचसंहननो नयानुदिशपर्यन्तं गच्छति । वर्षभनाराचसंहननः पश्चानुत्तरं मोक्षश्च गर्छन । घर्मा वंशा मेघा अं. जना अरिष्टा मघत्री माधवी इति समनरकनामानि । तत्र मेघायाः शिला इत्यपर नाम । तत्र पटसंह ननः संज्ञो जीवः मेघान्तं ब्रजति । सप्तमनरक वर्षभनाराचसंहननोगच्छति। पष्ठं नरक१. मर्धनाराचपर्यन्तो गच्छनि । कीलिकान्त संहननः पञ्चमं चतुर्थच नरकं गच्छति । एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु असंप्राप्तामुपाटिकामंहननं भवति । वअर्पभना राचसंहननं त्यसंङ्ख्येयवर्षायुष्कंषु भवति । चतुर्थकाले. षट्संहननानि भवन्ति । मार्गदर्मचमकालेधीनि प्रसंचालनिसामयी म्हारपाकाले एकमसंप्राप्तासृपाटिकासंहननं भवति । विदेहेषु विद्याधरक्षेत्रेषु म्लेच्छखण्डेषु च मनुष्याणां तिरश्वाञ्च षट् संहननानि १५ वेदितव्यानि । नागेन्द्रपर्वतातू परतस्तिरश्नां च षट्सहननानि भवन्ति । कर्मभूमिजाना स्त्रीणा मर्धनाराचकीलिकासंप्राप्तामृपाटिकासंहननत्रयं भवति, आदिसंहननत्रयं न भवतीति निश्चयः । आदिसप्तगुणस्थानेषु पटसंहननानि भवन्ति । अपूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसाम्परायोपशान्तकषायलक्षणेषु च चतुर्दा उपशमणिसम्बन्धिगुणस्थानेषु आदिसंहननत्रयं भवति । क्षपकनेणी अपूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसाम्परायक्षीणकषायसयोगकेवलिलक्षणेषु पञ्चगुण२८ स्थानेषु आदिसंहननमेव भवति । "अब स्पर्शादिप्रकृतिविचारः क्रियते यत्पान स्पर्श उत्पद्यते स स्पर्श अष्टप्रकारोभवति कर्कशनाम कोमलनाम गुरुनान लघुनाम स्निग्धनाम रूक्षनाम शीतनाम उष्णनाम । यदुदयेन रसभेदो भवप्ति स रसः पनप्रकार:-तितनाम कटुकनाम कषायनाम अग्लनाम मधुरनाम । यदुक्येन गन्धो भवति सगन्धो द्विप्रकार:-सुरभिगन्धनाम दुरभिगन्धनाम । यदुदयेनवर्णभेदो २५ भवति स वर्णः पञ्चप्रकार:-कृष्णवर्णनाम नीलवर्णनाम रक्तवर्णनाम पीतवर्ण नाम शुक्लवर्ण नाम । यदुदयेन पूर्वशरीराकार ( कारा ) नाशो भवति तदानुपूर्व्य चतुःप्रकारम्-नरकपतिप्रायोम्यानुपूर्यनाम तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्यनाम मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्यनाम देवगतिप्रायोग्यानुपूय॑नाम । यदुनयेन लोहपिण्डवत् गुरुत्वेनाधो न भ्रश्यति अर्कतूलवल्लघुत्वेन यत्र तत्र नोड् डीयते च तत् अगुरुलघुनाम । यदुदयेन स्वयमेव गले पाय बघा वृक्षादौ अवलम्ब्य उद्वे३, गान्मरणं करोति प्राणापाननिरोधं कृत्वा म्रियते इत्येवमादिभिरनेकप्रकार शस्त्रयातभृगुराताग्निझम्पापात जलनिमज्जनयिषभक्षणादिभिरात्मघातं करोति तदुपघातनाम । यदुदयेन परशस्त्रादिना सक्षम न-द। २ षष्टं नरकपर्यन्तमद्धनाराचसंहननः गति द" : 2 7 गम्नि दा .,एननामिण आद०।५अद्य आ०. द६उत्पाद्यते आ०.दः । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Itt] अष्टमोऽध्यायः २७१ पातो भवसि तत्परपातनाम। यदुदयेन आदित्यवदातापो भवति तदातपनाम । यदुदयेन चन्द्रज्योसिरिङ्गपादिवत् उद्योतो भवति तदुद्योतनाम । यदुदयेन इच्छासो भवति तदुन्छ्वासनाम | यदुन्ग्रेन आकाशे गमनं भवति सा बिहायोगतिः द्विप्रकारा-गजवृपभहसमयूरादिवत् प्रशास्तविहायोगतिनाम। खरोष्ट्रमार्जारकुकरसपादिवत् अप्रशस्तविहायोगतिनाम । शरीरनामको. दयेन निष्पाद्यमानं शरीरमेकजीयोपभोगकरण यदुदन भवति तत्प्रत्येकशरीरमाम ! यदुदयेन ५ बहूना जीवानामुपभोगहेतुः शरीरं भवति तत्साधारणशरीरनाम । उक्तम्च मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ""साहारणमाहारो साहारणआणपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्षणं एवं ॥" [फचसं० १।८२] "गूढसिरसंधिपय समभंगमहीरुहं च छिपणहं । साहारणं सरीरं तबिबरीयं च यसेयं ॥ कंदे मूले बल्लीपवालसदुलयकुसुमफलवीय । समभंगे तदर्णता विसमे सदि होति पत्तेया ॥" [ गो० जी० गा८ १८६-८७ ] यदुदयेन द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियेषु जन्म भवति तत्वसनाम । यदुदयन पृथिव्यानेजोवायुवनस्पविकायेषु एकेन्द्रियेषूत्पद्यते तत्स्थावरनाम । यदुदयेन जीवः परप्रीतिजनको भवति दृष्टः श्रुतो वा तत्सुभगनाम | यदुदयेन रूपलावण्यगुणसहितोऽपि दृष्टः श्रुतो वा परेषाम- १५ प्रीतिजनको भवति तदुर्भगनाम । यदुयेन चित्तानुरञ्जकस्वर उत्पद्यते तत्सुस्यरनाम। यदुदयेन समरमारिकाकादिस्वरषत् कर्णशूलपायः स्वर उत्पश्यते तदुःस्वरनाम ) यदुदयेन रमणीयो भात सक्छुभनाम। यदुवयेन विरूपको भवति तदशुभनाम । यदुदयेन सूक्ष्म शरीरं भवति तत्सूक्ष्मनाम। यदुदन परेषां षाधाकर बाध्यश्च शरीरं भवति सद्बादरनाम । यदुदयेन आहारकशरीरेन्द्रियामपालभाषामनोलक्षणाः पदपर्याप्तयः उत्पद्यन्ते तत्पर्याप्तिनाम । यदुदयेन अपरिपूर्णोऽपि जीयो २० म्रियते तदपर्याप्तिनाम । स्थिरत्वकारक स्थिरनाम। अस्थिरभावकारकमस्थिरनाम प्रभाषयुक्तशरीरफारकमादेयनाम । प्रभारहितशरीरकारकमानादेयनाम | पुण्यगुणकीर्तनकारणं यश कीर्सिनाम । पापदोषप्रकटन कारणमयश कीर्तिनाम । आर्हन्त्यकारण तीर्थकरत्मनाम । एवं वाचत्वारिंशन पिण्यप्रकृतयः नामकर्मणो भवन्ति विस्तरतस्त्रिनवतिः । अत्र विविधमपि निर्माणनाम कर्म एका प्रकृतिरिति ज्ञातव्यमेवं त्रिनवतिर्भवन्ति । साधारणमाहारःसाधारणमामापानमहान । माधारणजीवाना माधारणलश्नर एतत् ।। गडशिरतविपर्ये समभामही कह च डिनरूहम । साधारण भरीर तद्विपरीत प्रत्येकाः । काटे मूले स्वपशलशाखादलकुममफालचीजे । समभङ्गे तदनन्ताः विष सति भवन्ति प्रत्येकाः । ६ -2 उपमा०. ० , ज.। ३ -कारण आ०.१०, ज - कारकम् प्रा., १०, 'म । ५ न्नता कारकमा०,२०, ज० । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्वार्थवृत्ती [८।१२.१४. अथ गोत्रस्योत्तरप्रकृती उच्यते--- उच्चैश्च ॥१२॥ यदुदयेन सर्वलोकपुजिते इक्ष्वाकुवंशे सूर्यवंशे सोमवंशे नाथशे कुरुवंशे हरिवंशे उग्रवंशे इत्यादिवंशे जीवस्य जन्म भवति तदुच्चैोत्रमुच्यते । यदुदयेन निन्दिते दरिने ५ भ्रष् इत्यादिकुले जीवस्य जन्म भवति तन्नीचर्गोत्रम् । चकारः परस्परसमुच्चये वर्तते । तेनायमर्थ:-न केवलमुच्चैर्गोत्रं नीचैश्च गोत्रम् | गोत्रप्रकृतेरुत्तरप्रकृती द्वे भक्तः । अदानीमन्तरायप्रकृतेरुत्तरप्रकृतय उच्यन्ते दानलामभोगोपभोगवीर्याणाम् ॥१३॥ दानस्यान्तराये दातुमिच्छुरपि दातुं न शक्नोति लाभस्यान्सराये लब्धुमना अपि न लभ१० ते भोगस्यान्तराये भोक्तुकामोऽपि न भुक्ते उपभोगस्यान्तराये उपभोक्तुमिच्छपि नोपभुरले वीर्यस्यान्तराये उत्साहमुधर्म चिकीर्षुरपि नोत्साहते । एते पश्च भेदा अन्तरायप्रकृतेरुतरप्रकृतिभेदाः भवन्ति । अत्र समासशुद्धिः । दानश्च लाभश्च भोगचोपभोगश्च वीर्यश्च दानलपभमोगोपभोगवीर्याणि तेषां दानलाभभोगोपभोगवीर्याणां पनानां पश्चान्तरायाः पत्रोतरमकृतयो भवन्तीति क्रियाकारकसम्बन्धः । इति प्रकृतिबन्धस्वरूपं समानम् । १५ अथ स्थितिबन्धस्वरूप मुच्यते आदितस्तिमणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपम कोटीकोट यः परा स्थितिः ॥१४॥ आदितः झानावरणमारभ्य वेदनीयं यावत् तिसृणां शानायरणदर्शनावरणवेवनीयलक्षणानां प्रकृतीनामन्तरायस्य चाष्टमस्य कर्मणः सागरोपमानां कोटीना कोट्यः त्रिंशत् २० परा उत्कृष्टा स्थितिर्भवति । सा स्थितिः कीदृशस्य जीवस्य भवति ? मिथ्याटष्टे पञ्चेन्द्रियस्य सब्जिनः पर्याप्तकस्य झातव्या । अन्येषामेकेन्द्रियादीनां परमागमा सम्प्रत्ययो विधातव्यः सम्पप्रतीतिया । परमागमे एकेन्द्रियादीनां कीदृशी स्थितिः चतुण्णां कर्मणमिति चेस ? उच्यते, एकेन्द्रियपर्याप्तकस्य लग्नानामेकसागरोपमस्य सप्तभागीकृतस्य त्रयो भागा भवन्ति । द्वीन्द्रियपर्याप्तकस्य पञ्चविंशतिसागरोपमानां सप्तभागीकृताना त्रयो भागा भवन्ति । श्रीन्द्रि. २५ यपर्याप्तकस्य पञ्चाशनसागरोपमाणां सप्तभागीकृतानां त्रयो भागा भवन्ति । चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकस्य सागरोपमशतस्य सप्तभागीकृतस्य त्रयो भागा भवन्ति । असज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तकाय सागरोपमसहस्रस्य सप्तभागीकृतस्य श्रयो भागा भवन्ति । समिपञ्चेन्द्रियापर्याप्तकस्य 'अन्तःत्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः भवन्ति । अपर्याप्केन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियासमिपञ्चेन्द्रियाणां पर्याप्त केन्द्रियादिदत्ता एबर भागा भवन्ति । परन्तु ३०. पल्योपमाऽसल्य यभागोना वेदितव्याः इति परमागमात् सम्प्रत्ययः । उत्तम्च १ अन्तासा-भा०,१०, ज०। एकभागा ता। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।१५मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविद्यासागर जी महाराज अष्टमोऽध्यायः २७३ "'एइंदियवियलिंदियसयलिंदियासण्णिअपज्जसयाण बोधच्चा । एकं तहप्पणवीस पंचासं तह सयं सहस्सं च ॥ "तिहयं सत्तविहत्त सायरसंखा ठिदी एसा ।" पश्चसं० १।१८६] अथेदानी मोहनी यस्योत्कृष्ट स्थिति प्राह सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥ १५ ॥ __ मियाष्टेः पञ्चेन्द्रियस्य सम्झिनः मोहनीयस्य कर्मणः सप्ततिः सागरोपमकोटो. कोटयः परा उत्कृष्टा स्थितिर्भवति । एषा स्थितिश्चारित्रमोहनीयापेक्षया भवति । दर्शनमोहनीयापेक्षया तु चत्वारिंशत्मागरोपमकोटीकोटयो वेदितव्याः। परेषां परमागमादबसेयम् । कोऽसौं परमागम इति चेद् ? उच्यते ; पर्याप्तकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणामेकपञ्चविंशतिषश्चाशत् शतसागरोपमाणि । तेषामपर्याप्तानामपि तान्येव, परन्तु एल्योपमाऽस- १० श्वेयभागोनानि । पर्याप्तासब्ज़िपञ्चेन्द्रियस्य सागरोपमसहवं तस्यैवापर्याप्तस्य तदेव परन्तु पल्योपमासङ्ख्येयभागोनम् । तथा चोक्तम् "एक पणवीसंपि य पंचासं तह सयं सहस्सं च । ताणं सायरसंखा ठिदी एसा मोहणीयस्स ॥" [ ] अयन्तु विशेषो मोहनीयस्येयं स्थितिः सप्तगुणा सप्तता च कर्तव्या। कोऽर्थः? पूर्ववत १५ सागराणां सप्तभागान् कृत्वा त्रयो भागा न गृहीतव्याः किन्तु एकसागरः परिपूर्णः पञ्चविंशतिसागराः परिपूर्णाः पञ्चाशत्सागराः परिपूर्णाः शतसागरा: परिपूर्णाः सहस्रसागराश्च परिपूर्णाः गृह्यन्ते इत्यर्थः । __ अथेदानी नामगोत्रयारपस्थितिरुच्यते-- विंशतिर्नामगोत्रयोः ॥ १६ ॥ नाम च गानञ्च नामगोत्रे तयोनीमगोत्रयोः नामगोत्रयोः प्रकृत्योधि शतिः सागरोपमकोटीकोटयः परा उत्कृष्टा स्थितिर्भवति । गपापि मिथ्याहः पञ्चेन्द्रियम्य पर्यायस्य सझिनो वेदितव्याः । पर्याप्त केन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाऽसब्जिपचेन्द्रियाणामेकं पश्चविंशतिः पञ्चाशत् शतं सहस्रञ्चानुक्रमेण सागरापमानि यानि पूर्वमुक्तानि तेषां सप्तसनभागीतानां द्रौ द्वौ भागौ गृह्यते । तथाहि-एकसागरोपमस्य सतभागाः क्रियन्ते तेषां मध्ये २५ दो भागों एकेन्द्रियाणां नामगोत्रयोः परा स्थितिर्भवति । पञ्चविंशतिसागराणत सप्तभागाः क्रियन्ते तन्मध्ये द्वौ भागौ गृह्यते । द्वीन्द्रियाणां नामगोत्रयोः परा स्थितिर्भवति । पञ्चाशत्सागरो १ एकेन्द्रियविकलेन्द्रियसकलेन्द्रियासंध्यपर्यास काना भोद्धच्या। एकं तथा पञ्चविंशतिः पञ्चाशत् तथा शतं महस च ॥ त्रिशतं सप्तविभक्त सागरसंख्या स्थितिरेषा || २ एकं पञ्चविंश तिच पञ्चाशत तथा त सहलञ्च । तासा सागरसंख्या स्थितिरपा मोहनीयस्य ।। ३५ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवृत्तौ [ ८१७-२० २७४ पाणां समभागाः क्रियन्ते तन्मध्ये द्वौ भागौ गृहोते त्रीन्द्रियाणां नामगोत्रयोः परा स्थितिर्भवति शतसागर णां सप्तभागाः क्रियन्ते तन्मध्ये द्वौ भागौ गृह्येते । चतुरिन्द्रियाणां नामगंः त्रयोः परा स्थितिर्भवति । सहस्रसागराणां सप्तभागाः क्रियन्ते तन्मध्ये हौ भागौ गृझेते अस द्रियाणां नामगोत्रयोः परा स्थितिर्भवति । अपर्याप्त कद्वित्रिचतुरसञ्चिपञ्चेन्द्रियाणां द्वौ द्वावेव ५ भाग परं पयोपमा सयभागद्दीनां वेदितव्यौ । अथायुषः प्रकृतेरुत्कृष्टा स्थितिः प्रतिपाद्यते— " त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥ १७ ॥ श्रयशिव तानि सागरोपमाणि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि आयुषः परा उत्कृष्टा स्थितिर्भवति । कोटी कोटथ इति न माझ पुनः सागरोपमग्रहणात् । एपापि स्थितिः पब्चे१० न्द्रियस्य सन्निः पर्याप्तकस्य वेदितव्या । असशिनः आयुषः स्थितिः पल्योपमासङ्घ भागो भवति । कस्मात् ? यतः असशिपचेन्द्रियः तिर्यङ् स्वर्गे नरके वा पल्योपमास्ययभागमायुर्वध्नाति । एकेन्द्रियचिक न्द्रियास्तु पूर्वकोटीप्रमाणमायुबद्ध्वा 'पश्चाद्विदादावुत्पद्यन्ते । अथेदानीमष्टानां प्रकृतीनां जघन्या स्थितिरुच्यते अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य || १८ || १५ वेदनीया कर्मणः अपाची तिचतुर्विशतिघटिका प्रमाण इत्यर्थः । एतां स्थिति सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थाने बनातीति वेदितव्यम् । प्रकृतीनामनुक्रमोन्नं सूत्राणां लघुत्वार्थं ज्ञातव्यम् । अथ नामगोत्रयोः जयन्यस्थितिप्रतिपत्यर्थं सूत्रमिदमुच्यते- नामगोत्रयोर टौ ॥ १९ ॥ नाम च गोत्र नामगोत्रे तयोर्नामगोत्रयोरष्ट मुहूर्ताः षोडशघटिका जघन्या स्थितिभवति । इयमणि स्थितिदशमगुणस्थाने वेदितव्या । अथेदानीमुनिकृतीनां जघन्यस्थितिकथनार्थ सूत्रमिदमाडु:-- २० शेषाणामन्तर्मुहूर्ताः ॥ २० ॥ ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायमोहनीयायुषां घोषाणां जघन्या स्थितिरन्त हूर्ना २५ अन्तर्मुहूर्तप्रमाणा भवति । तत्र ज्ञानदर्शनावरणान्तरायाणां निकृष्टा स्थिति: सूक्ष्मसाम्परा ज्ञातव्या । मोहनीयस्य अनिवृत्तिकरणगुणस्थाने चादर साम्पराय गुणस्थानाऽपरनाम्नि बोया। आयुष जघन्या स्थितिः सङ्ख्य यवर्षायुःषु तिर्यक्ष, मनुष्येषु चाबसेया । अर्थैशनी तृतीयस्य बन्धस्य अनुभवताम्नः स्वरूपनिरूपणार्थं सूत्रमिदमुच्यते१ प्रतिपद्यते आ०, २०, ५० । २ - देहे उत्प- भा०, ज०. ६० । ३ स्थाने व वेदि - भ० ज० ० ४वावसेया अ० ज० ० Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमोऽध्यायः विपाकोऽनुभवः | २१ मार्गविशिष्ट विषयी हा विपाकः स अनुभव इत्युच्यते अनुभागसञ्ज्ञकश्च' । तत्र विशिष्ट: पाक आतवाध्यायप्रोक्ततीत्रमन्दमध्यमभावास्त्रषविशेषात्रेदितव्यः । त्र्यक्षेत्र कालभ प्रभाव लक्षण कारण मे शेत्पादित नानात्वो विविधोऽनुभवो ज्ञातव्यः | अनुभव इति कोऽर्थः ? आत्मनि फलस्य दानं कर्मदत्तफलानामात्मना स्वीकर- ५ णमित्यर्थः । यदा शुभपरिणामानां प्रकर्षो भवति तदा शुभप्रकृतीनां प्रकृष्टोऽनुभवो भवति, अशुभप्रकृतीनां तु निकृष्टोऽनुभवो भवति । यदा अशुभ परिणामानां प्रकर्षो भवति तदा अशुभप्रकृतीनां प्रकृष्टोऽनुभवो भवति, शुभप्रकृतीनां तु निकृष्टोऽनुभवो भवति । सोऽनुभवोऽमुना प्रकारेण प्रत्ययवशात् परिणामकारणवशात् स्वीकृतो द्विप्रकारो भवति स्वमुखपरमुखभेदात् । तत्र सर्वमूलप्रकृतीनामनुभव: स्वमुखेनैव भर्षात । कथम् ? मतिज्ञानावरणं मतिज्ञाना- १० रणरूपेणैव भवति । उत्तर प्रकृतीनां सहजातीयानां परमुखेनापि भवति परन्तु आयु:कर्मदर्शनमोह चारित्रमोद्दान् वर्जयित्वा । कथम् ? यदा जीवो नरकायुर्भुक्ते तदा तिर्यगाथुमनुव्यायुर्देवायुर्धा न भुङ्क्ते । तेन आयुः प्रकृतयः तुल्या अपि स्वमुखेनैव भुज्यन्ते न तु परमुखेन । तथा दर्शनमोहं भुजानः पुमान् चारित्रमोहं न भुङ्क्ते । चारित्रमोह भुजानः पुमान् दर्शनमोहं न भुङ्के । एवं तिसृणां प्रकृतीनां तुल्यजातीयानामपि पर मुखेनानुभवो न भवति । ५५ २ अत्राह कश्चित् -- पूर्वोपार्जितानेकविधकर्म विपाकोऽनुभव इत्युच्यते तं जानीमो वयम्, एतसु न विद्मो वयम् । एतत् किम् ? अयमनुभवः किंप्रयातोऽन्वर्थो वर्तते अमरु पावो ऽनन्वर्थी वा इति प्रश्ने आचार्यः प्राह प्रसङ्ख्यातः प्रकृतीनां नामानुसारेणानुभवो भुज्यते इश्वर्धप्रकटनार्थं सूत्रमिदमाहु: _८२१-२३ ] २७५ स यथानाम ॥ २२ ॥ स अनुभवः प्रकृतिफलं जीवस्य भवति । कथम् ? यथानाम प्रकृतिनामानुसारेण । तेन ज्ञानावरणस्य फलं शानाभावो भवति सविकल्पस्यापि । एवं सर्वत्र सविकल्पस्य कर्मणः फलं विकरूपं ज्ञातथ्यम् । दर्शनावरणस्य फलं दर्शनशक्तिप्रच्छादनता | वेदनीयस्य फलं सुखदुःखप्रदानम् | मोहनीयस्य फलं मोहोत्पादनम्। आयुषः फलं भवधारणलक्षणम् । नाम्नः फलं नानानामानुभवनम् । गोत्रस्य फलं नीचत्वोच्चत्वानुभवनम् । अन्तरायस्य फलं विघ्नानु- २५ भवनम् । एवमष्टानामपि कर्मप्रकृतीनां सविकल्पानां रसानुभवनसम्प्रत्ययः सञ्जायते । अथाह कश्चित् – विपाकः खलु अनुभवः आक्षिप्यते अङ्गीकियते प्रतिज्ञायते भवद्भिः तच्च कर्म अनुभूतमास्यादितं सत् किमाभरणमियावतिष्ठने अथवा निष्पीतसारमारबादितसामभ्यं सत् गलति पतवि प्रच्यवते इति प्रश्ने सूत्रमिदमुच्यते— ततश्च निर्जरा || २३ ॥ १ -संज्ञरन भ० ज०, ६० । २ अथाह ताल | 1 २० ३० Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदशीवार्थबोचार्य श्री सुविधिसागर जी म्हारा ततस्तस्माद्विपापादनन्तरमात्मने पीसानुग्रहदानानन्तरं दुःखसुखदानानन्तरं निर्जरा भवति पूर्व स्थितेः प्रक्षयात् अवस्थानाभावात्कर्मणो निवृत्तिभयति उपार्जितकर्मत्यागो भवति एकदेशेन भयो भवतीत्यर्थः । अथवा ततस्तस्मात्फलदानलक्षणात्कारणान्निर्जरा भवति । किंवत् ? भुक्तानपानादिविकारवत् । विण्भूत्रादिविकारवत् पततीत्यर्थः। सा निर्जरा द्विधा ५ भवति-सविपाका अविपाका चेति । तत्र चतुर्गतिभवमहासमुद्रे एकेन्द्रियादिजीयविशेषः अवर्णिते नानाजातिभेदैः सम्भृते दीर्घकालं पर्यटतो जीयस्य शुभाशुभस्य क्रमपरिपाककालप्राप्तस्य कर्मोदयापलिप्रवाहानुप्रविष्टस्य आरब्धफलस्य कर्मणो या निवृत्तिः सा सविपाकनिर्जरा कथ्यते । यच्च कर्म विपाककालमप्राप्तमनुदीर्णमुदयमनागतम्, उपक्रमकियाविशेषालादुदीर्य उदयमानीय आस्वाद्यते सहकारफलकदलीफलकटकिफलादिपाकवत् बलाद्विपाच्य भुज्यते सा १० अविपकनिर्जरा कथ्यते । चकारात् "तपसा निर्जरा च" [ त० सू० ५।३ ] इति वक्ष्यमाण सूत्रार्थो गृह्यते । अयमत्र भाव-निर्जरा स्वतः परतश्च भवतीति सूत्रार्थो चेदितव्यः। संघरादनम्तर वक्ष्यमाणाऽपि निर्जरा उद्देशलध्यमिह गृह्यते । अन्यथा "विपाकोऽनुभव" [१० सू० ८।२१ ] इति सूत्रं पुनरप्यनुवदितुं योग्यं भवति । अथ प्रवेशबन्धस्वरूपं निरूप्यते-- नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषारसूकमैकक्षेपारगाह स्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्नानन्तमदेशाः ॥ २४ ॥ नामेत्युक्त विश्वकर्मप्रकृतय उच्यन्ते । नाम्नः सर्वकर्मप्रकृतिसमूहस्य प्रत्ययाः हेतवः नामप्रत्ययाः ईग्विधाः । के ? अनन्तानन्तप्रदेशाः। अनन्नाः सन्तः अनन्तगुणाः अनन्ता नन्ताः अनन्तानन्ताश्च ते प्रदेशा अष्टधा कर्मप्रकृप्तियोग्यपुद्गलस्कन्धाः अनन्तानन्तप्रदेशाते २८ स्खलु अभन्येभ्योऽनन्तगुणाः । कोऽर्थः ? अभन्न्यास्तावदनम्ता वर्तन्ते तेभ्य अनन्तगुणा अनन्तानन्ता इत्युच्यन्ते। परन्तु सिद्धानामनन्तभागप्रमाणा वजन्ते । ईग्विधाः कर्मयोग्यपुद्रस्कन्धाः क वर्तन्ते ? सर्भरमप्रदेशेषु । सर्वे च ते आत्मनः प्रदेशाः सर्वात्मप्रदेशास्तेषु सर्वात्मप्रदेशेषु । एकैकस्मिन्नात्मनः प्रदेशे अनन्तानन्ताः कर्मप्रकृतियोग्यपुदलस्कन्धा वर्तन्ते इत्यर्थः । ईड. ग्विधाः कर्मप्रदेशाः आत्मप्रदेशान्तमूर्ध्वमधस्तातिर्यक च वर्तन्त इत्यर्थः। ईग्विधाः कर्मप्रदेशाः २५ केषु कालेषु वर्तन्ते ? सर्वतः । सर्वेषु भवेषु सर्वतः । 'सार्वविभक्तिकस्तस इत्येके' [ ! इति वचनात् पञ्चम्यास्तस् इति नाशङ्कनीयम् । तेनात्र सप्तम्यर्थे तसप्रत्ययो वेदितव्यः । तेनायमर्थः-- एककस्य प्राणिनोऽतीता भवा अनन्तानन्ता भवन्ति भविष्यन्तस्तु भवा कस्यचित् स्क्लच या भवन्ति कस्यचिदसख्ये या भवन्ति कस्यचिदनन्ताश्च भवा भवन्ति । तेषु सर्वेध्यपि भवेषु प्रत्येकमनन्तानन्ताः कापने शा. प्रतिप्राणि प्रत्यात्मप्रदेशं भवन्तीति सर्वतःशब्देन १ -स्थितिप्र- भा. ज...। २ चतर्गतौ भव-- ना० । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२५] अमोऽध्यायः कालविशेषो ज्ञातव्यः । ईम्विधाः प्रदेशाः कस्माद् भवन्ति ? योगविशेषात् । कायवाल्मनःकर्मलक्षणात् योगविशेषात् योगविशेषकारणान जीवेन पुद्गलाः कर्मस्वेन गृह्यन्ते । "जोगा पयडिपदेशा ठिदिअणुभागा कसायदो होति" [ गो: क० गा० २५७] इति वचनात । पुनरपि कथम्भूतास्ते अनन्तानन्तप्रदेशाः १ सूक्ष्मैकक्षेत्रायगाहस्थिताः। एक क्षेत्रमात्मन एकप्रदेशलक्षणं तस्मिन्नवगाह अवकाशो येषां ते एकक्षेत्रावगाहाः, सूक्ष्माश्च ते एकक्षेत्रावगाहा- ५ श्न सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहाः सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहाश्च ते स्थिताः सूक्ष्मफक्षेत्राबगाह स्थिताः । अस्थायमर्थः-कर्मप्रदेशाः सूक्ष्मा घर्तन्ते न तु स्थूलाः। यस्मिन्नाकाशप्रदेशे आत्मप्रदेशो पर्वते तस्मिन्नेवाऽकाशप्रदेशेऽनन्तानन्ताः कर्मप्रदेशाः वर्तते नाकक्षेत्रागाहा इत्युच्यन्ते । स्थिता इत्युक्ते तस्मिन्नेव प्रदेशे कर्मयोग्यपुद्गलस्कन्धाः स्थिता वर्तन्ते न तु गच्छन्तः । अनन्तानन्तप्रदेशा इत्युक्त सङ्खये याच असलयेयाश्च अनन्ताश्च न भवन्ति । किन्तर्हि ? अनन्ता- १० नन्ताः । एकक्षेत्रावगाहा इत्युक्ते धनागुलस्यासल यभागक्षेत्रागाहिनो वर्तन्ते । अयन्तु विशेषः एकसमयद्विसमयत्रिसमयचतुःसमयेत्यादिसङ्घयसमयासमयसमयस्थितिका भवन्ति । पञ्चवर्णा भवन्ति । लवणरसस्य मधुररसान्तर्भावात् मधुराम्लकटुतिककषायलक्षणाः पञ्चरसाः भवन्ति । सुरभिदुरभिद्विर्गन्धा भवन्ति । पूर्वोक्ताष्टस्पर्शाश्च भवन्ति । अथात्राह कश्चित्-पन्धपदार्थानन्तरं पुण्यपापपदार्थद्रयकथनं पूर्व चर्चितं तत्तु बन्ध. १५ पदार्थमध्ये अन्तर्गर्भितमिति समाहितमुत्तरप्रदानविषयोकृतम् । तत्र पुण्यबन्धः को वर्तते, कश्च पापबन्ध इति प्रश्ने पुण्यप्रकृतिपरिज्ञानार्थं सूत्रमिदमुच्यते-- सवेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥ २५॥ आयुश्च नाम प गोत्रञ्च आयुनीमगोत्राणि. शुभानि प्रशस्तानि तानि च तानि आयुर्नामगोत्राणि शुभायुर्नामगोत्राणि । सञ्च समीचीनं सुखप्रदानसमर्थ वेद्यं सद्वेचम् । २० सद्वेधश्च शुभायुर्नामगोत्राणि च सद्वेयशुभायुर्नामगोत्राणि । एतानि चत्वारि फर्माणि पुण्यं भवन्ति । तथाहि-तिर्यगायुमनुष्यायुर्दैवायुस्त्रितयं शुभायुः । मनुष्यदेवगतिद्वयं पञ्चेन्द्रियजातिः पञ्चशरीराणि अङ्गोपाङ्गत्रितयं समचतुरस्रसंस्थानं बनपभमाराच. संहननं प्रशस्तवर्णः प्रशस्तो रसः प्रशस्तो गन्धः प्रशस्तः स्पर्शः मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वमगुरुलधुः परघात उच्छवास आतप उद्योतः प्रशस्तविहायो- २५ गतिः सो बादरः पर्याप्तिः प्रत्येकशरीरं स्थिरः शुभः सुभगः सुस्वरः आदेयो यश कीर्ति निर्माणं तीर्थकरनाम एताः सप्तत्रिंशन्नामप्रकृतयः पुण्यमुच्यन्ते । उच्चर्गोत्रं सद्वेयञ्चेति द्वाचस्वारिंशन प्रकृतयः पुण्यं पुण्यसंज्ञा भवन्ति । ____ अथ पापपदार्थपरिज्ञानार्थ सूत्रमिदमुच्यते १ योगास प्रकृतिप्रदेशौ स्थित्यनुभागों मचायतो भवतः। २-गाहे अव- आ. ज०, ३० । ३ -स्पर्गा भवन्ति भा०, ज०, द०१४ --लत्ता प्रदानं वि- HT, 0 | Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ तस्वार्थवृत्ती [दा२६ अतोऽन्यत्पापम् ॥ २६ ॥ अत एतस्मात् पुण्याभिधानकर्मप्रकृतिकृन्दास् यदन्यत् अन्यतरत् सत्कर्म पापं पापपदार्थ इत्यभिधीयते स द्वपशीतिप्रकार:-पश्च ज्ञानावरणानि नव दर्शनावरणानि षट्विंशतिमोहनीयानि पञ्चान्तराया नरकगतितिर्यमगती ? एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातयश्चततः प्रथमसंस्थानव नि पत्र संस्थानानि प्रथमसंइननवर्जानि पञ्चसंहनन्तनि अप्रशस्तवर्णोऽयशस्वगन्धोऽप्रशस्तरसोऽ ५ प्रशस्वस्पर्शे नरकगतिप्रायोग्यानुधूय॑ तिर्यगातिप्रायोग्यानुपूर्व्य मुपघातोऽप्रशस्तषिहायोगशि: स्थावरः सूश्मः अपर्याप्तिः साधारणशरीरमस्थिरः अशुभो दुर्भगो दु:स्वर अनादेयोऽयश-कीर्तिरिति चतुर्विंशनामप्रकृतयः। असदेयं नरकायुनींचगोत्रम्चेसि पापं पापपदार्थो भवति । स उभयप्रकारोऽपि पुण्यपापपदार्थोऽववेमनःपर्ययस्य केवलज्ञानस्य च प्रत्यक्षप्रमाणत्रयस्य गोचरो गम्यो भवति तत्कथिवागमस्य चानुमेयः स्यादिति भद्रम। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी म्हाराज १० इति सूरीश्रीश्रुतसागरविरचितायां तात्पर्यसंझार्या तत्त्वार्थवृत्तौ अष्टमः पादः समाप्तः । १ हश्यमवगगद्यविद्यायिनोदनोदितप्रमोदपीयूषरसपानपावनमतिसमाजरत्मराजमतिसागरपतिराजराजितार्थनसमर्थन तर्कव्याकरणछन्दोलकारसाहित्यादिशास्त्रनिशितमतिना यतिना श्रीदेवेन्द्रकीतिमद्वारकाशिष्येण शिष्येण च सकलविद्वज्जनविहित चरणसेवस्य विद्यानन्दिदेवस्य संछदितमिथ्यामतिदुर्गरेण मतसागरेण सूरिणा विरचितायां श्लोकवार्तिकराजवात कसर्वार्थसिद्धि न्यायकुमुदचन्द्रोदयप्रमेयकमलमार्तण्डप्रचण्डादसहस्त्रोप्रमुखमन्यसन्दर्भनिर्भरावलोकनबुद्धिविराजिताया तत्त्वार्धटीका यामष्टमोऽध्यायः समाप्तः। ८। श्रा०, २०, जा Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज नवमोऽध्यायः अथोमास्वामिनंनत्वा पूज्यपादश्च योगिनम् । विद्यानन्दिनमाभ्याय संयर विकृणोम्यहम् ॥ १ ॥ आस्रवनिरोधः संवरः ॥ १ ॥ नूतनकर्ममणकारणमानव अकराते | आखवस्य निरोधः प्रतिषेधः आम्रवनिरोधः संबरो भवति । भाषद्रव्यसंवरभेदात् संवरो द्विप्रकारः। तत्र भावसंघरः भवकारणपापक्रिया- ५ निरोधः । तथा चाऽभ्यधायि ""वेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू । ___ सो भावसंवरो खलु दवासवरोहणे अण्णो ।" [ द्रव्यसं५ गा८ ३४] संसारकारणक्रियानिरोधे सति संसारकारणक्रियानिरोधलक्षणभावसंघरः। भाषसंवरपूर्वको द्रव्यसंयरः। कर्मपुद्गलमहविच्छेद इत्यर्थः। स भयप्रकारोऽपि १० संघर: गुणस्थानापेक्षया पच्यते-मिथ्यात्वगुणस्थाने यत्कर्म आझवति तस्य कर्मणः सासादनसम्यग्दृष्टथादिशेषगुणस्थाने संरो भवति । मिध्यादर्शनप्रधात्वेन यत्कर्म भावति, तकिम् ? तत्षोडशप्रकृतिलक्षणम् । तत्रैक तावन्मिथ्यात्वं द्वितीयो नपुंसकवेदः तृतीयं नरकायुः चतुर्थी नरकातिः पञ्चमी एकेन्द्रियजातिः षष्ठी द्वीन्द्रियजाति: सप्तनी प्रीन्द्रियजातिः अष्टमी चतुरिन्द्रियजातिः नवमं हुण्डकसंस्थानं दशममसम्प्राप्ता- १५ सपाटिकासंइननमेकादशं नरकगतिमायोग्यानुपूज्य द्वादश आतपः त्रयोदशः स्यावरः चतुर्दशः सूक्ष्मः पञ्चदशः अपर्याप्तकः पोखशं साधारणशरीरम् । असंयमस्तावत् त्रिविधो भवति । ते के प्रयो विधा ? अनन्तानुवन्धिकषायोदयः अप्रत्याख्यानकषायोदयः प्रत्याख्यानकषायोदयश्चेति त्रिविधासंयमहेतुकस्य कर्मणः संवरो ज्ञातव्यः । करिमन् सति ? तदभावे त्रिविधा. संयमाभावे सति । स एव निरूप्यते-अनन्तानुबन्धिकषायोदयकल्पितासंयमास्त्रवाणां २० पश्चर्षिशतिप्रकृतीनामे केन्द्रियादयः सासादनसम्याट्रिपर्यन्ता बन्धका भवन्ति । बन्धकामावे वासामुत्तरत्र संवरो भयति । कास्ताः पञ्चविंशतिप्रकृतयः ? एका निद्रानिद्रा तिीया प्रचलनचला तृतीया स्त्यानगृद्धिः अनन्तानुवन्धिक्रोधमानमायालाभाश्चत्वारः अष्टमः स्त्रीवेदः नवमं तिव्यगायुः दशमी तिर्यग्गतिः चत्वारि मध्यसंस्थानानि चत्वारि मध्यसंहननानि एकोनविंशतितमा तिव्यग्गतिप्रायोग्य नुपूर्वी विंशतितम उद्योतः एकविंशतितमी अप्रशस्तविहा- २५ १चेतनपरिणामो यः कर्मण मानवनिरोधने हेतुः । स मावसंवरः खल द्वण्यासवरोधनेऽन्यः ॥ २ -भावेऽपि आए, जा, द । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ता २८० योगतिः द्वाविंशतितमो दुभंगः त्रयोविंशो दुःस्वरः चतुर्विंशतितममनादेयं पञ्चविंशतितमं freeमिति । अप्रत्याख्यानावर णकषायोदयकल्पितासंयमकारणानां दशानां प्रकृतीनामेके न्द्रियादयां जीवा असंयतसम्यग्दृष्टिपर्यन्ता बन्धका भवन्ति । बन्धकाभावात् तदुपरि तासां दशानां प्रकृतीनां संवरो भवति । कास्ताः इस प्रकृतयः ? अप्रत्याख्यानावरण कोषमा नमायालो५ भारः पञ्चमं मनुष्यायुः पत्री मनुष्यगतिः सप्तम नौदारिकशरीरम् अष्टम मौदा रिकशरीरापाङ्गं नवमं वमनाराचसंहननं वशमं मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूव्यम् । सम्यग्मिध्यात्वगुणेन आयुर्न बध्यते । प्रत्याख्यानावरणको वमानमायालोभानां चतसृणां प्रकृतीनां प्रत्याख्यान कथायोदय हेतुका संयमास्त्रयाणामे केन्द्रियादयो देशसंयत पर्यन्ता बन्धका भवन्ति । यन्धकाभावात्तदुपरि तासां संवरो भवति । प्रमादानीतस्य कर्मणः प्रमत्तसंयतादुपरि संघरी सर्वात । कस्मात् ? - १० भाषान् बन्धकाभावात् । किं तत् कर्म ? असद्वेधमरतिः शोकः अस्थिरः अशुभः अयशः कीर्तिः । देवायु-धारम्भस्य हेतुः प्रमाद एष तत्प्रत्यासन्नोऽप्रमादोऽपि हेतुः । तदुपरि तस्य संघ भवति कषाय वास्त्रयो यस्य कर्मणो न प्रमादादिस्तस्य कर्मणः प्रमादनिरोधनिरास्त्रघो ज्ञातव्यः | सच मदन हमाद्राधित्रिये यवस्थितः । तत्र अपूर्वकरणगुणस्थानस्यादौ सख्येयभागं निद्राप्रच द्वे कर्मप्रकृती बध्यते तदुपरि सङ्ख्येये भागे त्रिंश१५ स्प्रकृतयो बध्यन्ते । कास्ताः प्रकृतयः ? देवगतिः पचेन्द्रियजातिः वैक्रियिकाहारकते जसकामंपानि चत्वारि शरीराणि समचतुरस्र संस्थानं वैकिचिकशरोराङ्गोपाङ्गम् आहारकशरीराङ्गोपाङ्गम् । वर्णो गन्धो रसः स्पर्शः देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यम् अगुरुलघुः उपघातः परधानः उच्छ्वासः प्रश स्तविहायोगति सो बादरः पर्याप्तः प्रत्येकशरीरं स्थिरः शुभः सुभगः सुस्वरः आदेयं निर्माण तीर्थकरोति । अपूर्वकरणस्यान्तसमये चतस्रः प्रकृतयो बन्धमायान्ति । कास्ताः १ २० दास्यं रतिर्भयं जुगुप्सा चेति । एताः पत्रिंशत्प्रकृतयः तीव्रकपायास्रवा भवन्ति । तद्भायात् कथिताद्भागादुपरि संवरो भवति । अनिवृत्तिवादरसाम्परायस्य नत्रमस्य गुणस्थानस्य प्रथम समयादारभ्य संख्येयेषु भागेषु पुंवेदः क्रोधसज्वलनश्च द्वौ बध्येते । तदुपरि सस्येयेषु भागेषु मानमायासञ्चलनौ वध्येते । अनिवृत्तिवाद र साम्परायस्यान्तसमये लोभसवउनो वक्ष्यते । एताः पञ्चप्रकृतयः मध्यमकषायानघाः । तदभावे कथितस्य भागस्योपरि संवरो ६५ भवति । सूक्ष्म साम्पराये षोडशानां प्रकृतीनां चन्धो भवति । तदुपरि तासां संवरः । कास्ताः पोडशप्रकृतयः १ प ज्ञानावरणानि चत्वारि दर्शनावरणानि यशः कीर्तिः उच्चैगोत्रं पचान्त रायाः । एताः मन्दकषायास्रवः पोडरा । उपशान्तकषायक्षीणकषायसयोगकेवलिनामेकेनंब योगेन एकस्या एव प्रकृतेर्बन्धो भवति । तदभावात अयोगकेवलिनस्तस्याः संवसे भवति । काऽसाचेका प्रकृतिः ? सद्यमिति ! अथाह कश्चित् - गुणस्थानेषु 'संबर स्वरूपं निरूपितं भवद्भिः परन्तु गुणस्थानानां स्वरूप पूर्वी० ० ० । ३ तीर्थकरने ३. १ चतुर्विंशम - ता० । ३० । ४ संघररूपम् आ० ६० ज०, Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोर्गदर्शक :- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज ९।१] नवमोऽध्यायः २८१ तापन्न विज्ञायते तत्त्वरूपं विज्ञापयितुं योग्यमिति गुणस्थानानां स्वरूप निरूप्यते-तत्त्वार्थचिपरीतरुचिः मिथ्याष्टिः प्रथमं गुणस्थानं भवति । दर्शनमोहस्व भेदास्त्रयः-सम्यक्तचमिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वविकल्पान्। तेपामुदयाभावेऽनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभाना 'चोदयाभावे सति प्रथम सम्यक्त्वमौ पशमिक नाम समुत्पद्यते । तस्य कालोऽन्तर्मुहूर्तः। तस्यान्तर्मुहूर्तस्य मध्ये उत्कर्षेण आवलिकापट्के उद्धरिते सति जघन्येनैकस्मिन् समये चोद्धरिते सति अनन्ता- ५ नुबन्धिक्रोधमानमायालोभाना मध्ये अन्यतमस्योदये सति शेषस्य मिथ्यादर्शनकारणस्यानुदये सति सासादनसम्यग्दृष्टिर्जीव उच्यते । तद् द्वितीयं गुणस्थानं भवति । सासादनसम्यग्दृष्टेः मिथ्यादर्शनानुदयेऽपि अनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदयान यत् ज्ञानत्रयं तदज्ञानत्रयमेव । कथमिति चेत् ? यस्मात्कारणात्तेऽनन्तानुवन्धिनः कपाया अनन्तमिध्यादर्शनानुबन्धनान्मध्यादर्शनोदयलक्षणं फलमुत्पादयन्ति मिथ्यादर्शनमेवात्मनि प्रवेशयन्ति । परिहतसासादनगुणः पुमानवश्यमेव १० 'मिथ्यात्वगुणस्थानं गचछनीति सासानवर्णनम् । अथ मिश्रगुणस्थानस्वरूप कथ्यते-सम्यग्मिथ्यात्वकर्मोदयात् मनाककलुषपरिणामः पुमान् भवति क्षीणाक्षीणमयशक्तिकोद्रवोत्पादितमनाककलुषपरिणामवत् । तेन कारणेन सम्यग्मिध्यादृष्टिीवस्तत्त्वार्थरुच्यरुचिरूपो भवति । सम्यग्मिध्यादृष्टेः' पुरुपस्य यदहानत्रयं तत्सत्यासत्यरूप दितव्यम् । चारित्रमोहकर्मोदयाज्जीवोऽतीवाविरतो भवति सोऽसंयतसम्यग्दृष्टिहच्यते । श्रावकब्रतानि प्रतिपालयन् पुमान १५ देशविरतो भवति तत्पश्चमं गुणस्थानम् । अप्रमत्तोऽपि सन् अन्तर्मुहूर्त प्रमादं भजन् प्रमत्तसंयतो भवति तत् षष्ठं गुणस्थानम् । यो जवासेचनादिनिद्रादिप्रमादं न भजते स पुमान् अप्रमत्तसंयतो भवति तत् सप्तमं गुणस्थानम्। अपूर्वकरणमनितिबादरसाम्परायसंझं. सूक्ष्मसाम्परायसंशश्च एतानि त्रीणि गुणस्थानानि अष्टमनवमदशमगुणस्थानानि भवन्ति । तेषु त्रिषु गुणस्थानेषु द्वे श्रेणी वर्तेते । उपशमकोणिः क्षप, २० कोणिश्च । यस्यामात्मा मोहनीयं कर्म उपशमयन आरोहति सा उपशमकश्रेणिः । यस्यामात्मा मोहनीयं कर्म अपयन आरोति सा क्षपकणि रुच्यते । तत्रोपशमणिमान् पुमान् अष्टमं नवमं दशममेकादशश्च गुणस्थानं गत्वा पतति । क्षपकश्रेणिमान् पुमान् अष्टम नवमं दशमन गुणस्थानं गत्या एकादशं गुणस्थानं वर्जयित्वा द्वादशं भोणकपायसंहमारे इति । अपूर्वकरणे अष्टमगुणस्थाने य उपशमकः क्षपकश्च वर्तते स जन्मापूर्वान् करणान् २५ परिणामान प्राप्नोति तेन तदष्टमं गुणस्थानमपूर्वकरणमित्युच्यते । अस्मिन् गुणस्थाने कर्मोपशमः कर्मक्षयो म वर्तते किन्तु सप्तमनवमगुणस्थानयोर्मध्ये पतितत्वात् उपशमः क्षपकोपचारेणोच्यते घृतघटयत् । यथा मृन्मयोऽपि घदो घृतघट उच्यते घृतसमीपतित्वात् । अस्मिन् गुणस्थाने नानाजीवाऽपेक्षया अन्तर्मुहूर्तस्य एकस्मिन्नपि क्षणेऽन्योन्यमवश्यमेव परिणामा विपमा भवन्ति, प्रथमक्षणे ये परिणामा उत्पन्नास्ते परिणामाश्च अपूर्वाः परिणामाः द्वितीया- ३० -. - १-दृष्टिपु- श्रा, ज०, ३० । २ उपशमणिः मा०, २०, ज. ३ परिणामा अपूर्वाश्च परि-सा। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ तत्वार्थवृत्तों दिपु क्षणेषु उत्पद्यन्ते तेनेद गुणस्थानमपूर्व करणमित्यन्यर्थसंज्ञं भवति । अथ अनिवृत्तिबादरसाम्परायगुणस्थानस्वरूपमुच्यते-साम्परायशब्देन कपायो लभ्यते यत्र साम्परायस्य कपायस्थ स्थूलत्वेनोपशमः भयश्च वर्तते तदनिवृत्तवादरसाम्परायसंजं गुणस्थानमुच्यते । तत्र जीवा रुपशमकाः क्षपकाश्च भवन्ति । एकस्मिन् समये नानाजीवापेक्षयापि एकरूपाः परिणामाः ५ भवन्ति । यतः परिणामानां परस्परं स्वरूपानिवृत्तिस्तेन कारणेनानिवृप्तिकरणबादरसाम्पराय संज्ञं नवमगुणस्थानमुच्यते । साम्परायस्य कषायस्य सूक्ष्मतया उपशमात् श्रपणाश्च सूक्ष्मसाम्यंरायसंजं दशमं गुणस्थानं भवति । तत्रोपशमकाः क्षपकाश्च जीवा भवन्ति । 'उपशान्तमाहसंच खेकादशं गुणस्थानं तस्योपशमात् । क्षीणमोहसंबं द्वादशन्तु गुणस्थानं सर्वस्य मोहस्य क्षपणात् भवति । सम्प्रात केवलज्ञानदर्शनो जीयो यत्र भवति तत्सयोगिजिनसंज्ञं त्रयोदशं १० गुणस्थानं भवति । पश्चल यक्षरकालस्थितिकमयोगिजिनसंज्ञं चतुर्दशं गुणस्थानं वेदितम् । अपूर्वकरणगुणस्थानमादिं कृत्वा क्षीणकपायगुणस्थानपर्यन्तेषु गुणस्थानेषु उत्तरोत्तरक्षणेपु जीवस्योत्कृष्टोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिर्वेदितव्या। निकृष्टत्वेन मिथ्यात्वगुणस्थानस्य कालोऽन्तर्मुबोधिकि । अभुत्याक्षमिशन कष्ट अनादानन्तः, भन्यस्य मिथ्या स्वगुणस्थाने कालोऽनादिसान्तः । सासादनस्य कालः उपशमसम्यक्त्यकालस्यान्तर्मुहूर्तलक्षणस्य १५ प्रान्ते निकृष्ट एक समयः उत्कृष्ट आवलिपट्कम् । मिश्रस्य कालोऽन्तर्मुहूर्तः । असंयतसम्यग्दष्टेनि कृष्टः कालोऽन्तर्मुहूर्तः उत्कृष्टकालः परष्टिसागरोपमाणि । देशसंयतस्य कालो निकृष्टो मुहूर्त मात्रः उत्कृष्टस्तु पूर्वकोटी किञ्चिदूना | प्रमत्तसंयतादिक्षीणकषायपर्यन्तानामुत्कृष्टः कालोऽन्तमुहर्तः । सयोगिजिनकालः पूत्रकोटी किंचिदूना । जघन्यकालस्तु परमागमाद् वेदितव्यः। उपशमश्रेणी सर्वत्रोत्कृष्टः कालोऽन्तर्मुहूर्तमात्रः । अदानी संघरस्य हेतुभूतान भायसंवरविशेषान् संवित्रक्षुः सूत्रमिदमाह स मुप्तिममितिधर्मानुभक्षा परीषद जयचारित्रैः ॥ २ ॥ भवकारणात् मनोवारकायच्यापारात् आत्मनो गोपनं रक्षणं गुप्तिः । सम्यगत्यनं जन्तुपीडापरित्यागार्थ वर्तन समितिः । संसारसागरादुद्धृत्य इन्द्रनरेन्द्रधरणेन्द्रचन्द्रादिबन्दिते पदे आत्मानं धरतीति धर्मः । "कायादिस्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा । क्षुधातृषादिवेदना२५ समुत्पत्ती उपार्जितकर्मनिरणार्थं परि समन्तात् सहनं परीपहः तस्य जयः परीपहजनः । सामाथिकादिपञ्चभेदसहितं चारित्रम् । गुप्तिश्च समितिश्च धर्मश्च अनुप्रेक्षा च परीपहजयश्च चारित्रच गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीपङ्जयचारित्राणि तैर्गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः। एतैः षभिः सान्त दैः संयमपरिणामः कृत्वा स पूर्वोकः संघरो भवति । करणनिर्दे शेनैव पूर्वोक्तः संवरो विज्ञायते । स इति प्राइणं किमर्थमिति चेत् ? स ग्रहणं निर्धारणार्थम् । ३० तेनायमर्थः गुस्यादिभिः कृत्वध संघरोभवत्ति जलनिमज्जनकपालग्रहशिरोमुण्डनशिग्वाधारणा १ उपशान्तपायमोह- आ-, द., ज७ । २ सर्वस्योप- ता । ३ क्षीणकपायप- आ०, ६०, ज०। ४-मात्रम् ना० । ५ कायादिस्वभावादिचि- १०, द०, जा। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ / ३-५ ] नवमाऽध्यायः २८३ संवरो विवक्षाचिद्धोदन निजमस्तकच्छेदन देवादि पूजनरागढ़ पादिमलिनदेवताराधनादिभिः न भवतीत्यर्थः । कस्मात् । रागद्रेषमोहादिभिरुपार्जितस्य कर्मणोऽपरथा निवर्तनाभावात् । अथ संवरस्य निर्जरायाञ्च कारणविशेषकथनार्थं सूत्रमिदमाचतपसा निर्जरा च ॥३॥ तपसा कृत्या निर्जरा एकदेशकर्मगलनं भवति चकारात्संवरश्च भवति । नतु दशलानfree मध्येऽपि तपो वर्तते तेनेव संवरनिर्जरे भविष्यतः किमर्थमत्र तपोमणसूत्रम् ? युकमुकं भवताः अत्र तो नूरनकर्म संवरणपूर्वक कर्मक्ष्यकारणत्वप्रतिपादनार्थं प्रधानear संविधायकत्वकथनार्थं च तपोषणमन्त्र वर्तते । ननु तपः खल्वभ्युदयदायकमागने प्रतिपादितं संवर निर्जरासाधकं कथम् ? तथा चोक्तम् " दाणे लब्भव भोउ पर इंदत्तणु विवेण । १८ जम्मणमरणविवज्जियउ उ लब्भह णाणेणे ||" [ परमात्मप्र २ ] साधूकं भवतामार्ग कमनि तप तप अन्यापि विरनिकेोति । यथैकमपि छायां करोति धर्मजलनिषेध कुर्यात् एकस्याप्यनेककार्यावलोकनाद्वहित। यथा एकोप वह्निर्षिक्लेदनादिकरणात् पावको भवति भस्मसात्करणाद् दाइकोच्यते तथा तपोऽप्यभ्युदयकर्मक्षयकारणं भवतीति नास्त्या गमविरोधः । दव 'श्री' I अथ गुन्यादीनां संवरतूनां स्वरूपनिरूपणार्थं प्रबन्धः कथ्यते । तत्रादौ गुप्तिस्वरूपनिरूपणार्थं सूत्रमिदमाद्दुः ईर्ष्या भाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥५॥ ईर्या च भाषा च एषणा च आदाननिक्षेपों च उत्सर्ग ईर्ष्या भाषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः । एते पञ्च समितयो भवन्ति । सम्यक्शब्दः पूर्वसूत्रोक्तोऽत्रापि प्रायः । तेनैवं सम्बन्धो भवति । 4 सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥४॥ सम्यक्प्रकारेण लोकसत्कार ख्यातिपूजा लामाकाङ्क्षारहितप्रकारेण योगस्य कायवाट मनः कर्म लक्षणस्य निमो निरोधः सम्यग्योगनिमो विषयसुखाभिलापार्थप्रवृत्तिनिपेध इत्यर्थः । २० यः सम्यग्योगनिग्रहो मनोवाक्कायव्यापार निषेधनं सा गुप्तिरित्युच्यते । योगनिम सति आत्तरौद्रध्यानलक्षणसंक्लेशप्रादुर्भावो न भवति तस्मिंश्च सति कर्म नास्रवति तेन गुप्तिः संवर प्रसिद्धयर्थं वेदितव्या । सा त्रिप्रकारा - काय गुप्तिवाग्गुप्तिमनोगुप्तिविकल्पात् । अथ गुतिषु यो मुनिरसमर्थो भवति तस्य मुनेः निष्पापप्रवृत्तिप्रतिपादनार्थ समितिसूत्रमुच्यते- १५ १ ननु वरं तपः अ० द० ज० २ "दानेन लभ्यते भोगः परं इन्द्रत्वमपि तपखा । जन्ममरणविवर्जितं पदं लभ्यते ज्ञानेन ॥ ३ निषेचन ता० । ४ रच्यते ता० । -- ८५ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थवृत्ती १ [ ९५-६ सम्यगीयसमितिः सम्यम्भापासमितिः सम्यगेषणासमितिः सम्यगादाननिक्षेपसमितिः सम्यगुत्सर्गसमितिश्चेति । तत्र सम्यगीय समितिरुच्यते - तीर्थयात्राधर्मकार्यार्थ गच्छतो मुनेश्वतुःकरमात्रमार्ग निरीक्षणपूर्वकं सावधानदृष्टेरव्यमचेतसः सम्यक विज्ञातजीवस्थानस्वरूपस्य सम्यगीय समितिर्भवति । कानि तानि जीवस्थानानि ? तत्स्वरूपनिरूपणार्थमियं गाथा - "बादरहमे गिंदियवितिचउरिदियअसणसण्णी य । पत्तापञ्जता भूदा ये चोहसा होंति ।" [ गो० जीव० ० ७२] सम्यग्भापास मिनिरुच्यते - हितं परिमितमसन्दिग्धं सत्यमनसूयं प्रियं कर्णी मृतप्रायमशङ्काक कषायानुत्पादकं सभास्थानयाग्यं मृदु धर्माविरोधि देशकालावुचितं हास्यादिरहितं वचोऽभिधानं सम्यक भाषा समितिर्भवति । सम्यगेषणासमितिरुच्यते - शरीरदर्शनमात्रेण प्राप्तमयाचितममृत१० संज्ञमुद्गमोत्पादनादिदोषरहितमजेनद्दिवादिभिरस्पृष्टं परार्थ निष्य काले भोजनमपूर्ण मार्गदर्शक :-“आचार्य ग्राभ्यविधिसागर सन्यादाननिक्षेप समितिरुच्यते — धर्मोपकरणग्रहण बिसर्जने सम्यगवलोक्य मयूरवण प्रतिलिख्य तदभावे वस्त्रादिना प्रतिलिख्य स्वीकारणं विस जनश्च सम्यगादाननिक्षेपसमितिर्भवति । एतेन गोपुच्छ मे परोमादिभिः प्रतिलेखनं मुनेः . प्रतिषिद्धं भवति । सम्यगुत्सर्ग समितिरुच्यते--प्राणिनामवरोधेनाङ्ग मलत्यजनं शरीरस्य च १५ स्थापनं दिगम्बरस्योत्सर्गसमितिर्भवति । एते पञ्च प्राणिनां पीडापरिहारस्याभ्युपाया " अव सातव्याः । इत्थं प्रवर्तमानस्यासंयमपरिणामनिमित्तस्य कर्मण आaarभाषो भवति तेन च संवरः समाठौंकते । अथ संवरकारणस्य धर्मस्व विकल्पपरिज्ञानार्थं सूत्रमिदं ब्रुवन्तिउत्तमचमामार्दवार्जवसस्यशौचसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ॥ ६ ॥ कार्यस्थितिकारणविष्वाणाद्यन्वेषणाय परगृहान् पर्यटतो मुनेः दुष्टपापिष्ठपञ्चजनानामसहागालिप्रदान' वर्करवचनात्र हेलनपीडाजननकायविनाशनादीनां समुत्पत्ती "मनोऽनच्छतानुत्पादः क्षमा कभ्यते । ५ २० २५ २८४ "ज्ञानं पूजां कुलं जातिं चलमृद्धिं तपो वपुः । अष्टाचाश्रित्य मानित्वं स्मयमा हुर्गतस्मयाः ॥" [ रत्नक० श्लो० २५] इति श्लोक कथितस्याष्टविधस्य मदस्य समावेशात् परकृत पराभिभवनिमित्ताभिमानमुक्तिर्भार्दवमुच्यते । मृदोभीवः कर्म वा मार्दवमिति निरुक्तेः । मनोवचनकायकर्मणामकौटिल्यमार्जवमभिधीयते । सत्सु दिगम्बरेषु महामुनिषु तदुपासकेषुच श्रेष्ठेषु लोकेषु साधु यद्र्घनं तत्सत्यमित्य 1 १ - निक्षेपणासमितिः भा० द० ज० । २ बादरसूक्ष्मै केन्द्रियद्वित्रिचहरिन्द्रियासंज्ञिसचिनश्च । पर्यात भूता ये चतुर्दश भवन्ति ॥ ३गालोक्य भा० द० ज० । ४ -लोक्यदोपकरणेन प्रति- आ, द० ज० । ५ अवस्थातव्याः आ०, ६०, ०६ वर्वर आए, द० ज० ॥ ७ मनोऽनवस्थानु- भ० द० ज०, Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १।६] नवमोऽध्यायः २८५ भिलप्यते । ननु सत्यवचनं भाषासमितावन्त भितं वर्मत एव किमर्थमत्र तद्ग्रहणम् ? साधूक्त भवता , भाषासमिती प्रवर्तमानो यतिः सायुमुखमधुषु मामायावीरसविधाहत लिममहाराज बृयात् , अन्यथा असाधुषु अहितभापणेऽमितभाषणे च रागानर्थदण्डदोपो भवेत् , तदा तस्य का भाषासमितिः न कापीत्यर्थः । सत्यवचने त्वयं विशेषः-सन्तः प्रत्यज्यां प्राप्तास्तद्भक्ताः वा ये वर्तन्ते तेषु यदचनं साधु तत् सत्यम् , तथा च ज्ञानचारित्रादिशिक्षणे प्रचुरमपि अमितमपि ५ वचनं वक्तव्यम्। इतीहशो भाषासमितिसत्यवचनयाविशेपो वर्तते । उत्कृष्टतासमागतगाद्धयपरिहरणं शौचमुच्यते । मनोगुतो मानसः परिस्पन्दः सर्वोऽपि निषिध्यते तन्निपेवे योऽसमर्थस्तस्व परकीयवस्तुषु अनिप्रप्रणिधानपरिहरणं शौचमिति मनगुप्तिशौचयोर्महान् भेदः । भगवती-आराधनायां तु" शौचस्य लाघवमित्यपरसंज्ञा वर्तते । धर्मोपचया धर्मापबृंहणार्थ समितिषु प्रवर्तमानस्य पुरुषस्य तत्प्रतिपालनार्थ प्राणव्यपरोपणपडिन्द्रियविषयपरिहरणं १० संयम उच्यते । स संयमो द्विविधः-अपनसज्ञक उपेक्षासंज्ञकश्च । नव अपहतसंज्ञकत्रिविधः । तद्यथा-प्रासुकवसतिभोजनादिभाववाशसाधनस्य म्वाधीनज्ञानादिकस्य मुनेर्जन्तूपनिपाते आत्मानं ततोऽपहत्य दूरीकृत्य जीवान् पालयत उत्कृष्टः संयमो भवति । मृटुना" मयूरपिच्छेण प्रमृज्य परिहरतो मध्यमः संयमः । उपकरणान्तरेण प्रमृज्य परिहरतो निकृष्टः संयमः इन्यपतसंग्रमस्त्रिविधः । अथोपेक्षासंयम उच्यते-देशकालविधानज्ञस्य परेपामनुरोधेन १५ व्युत्सृष्टकायस्य त्रिगुप्तिगुप्तस्य मुनेः रागद्वेपयोनिभिष्यम उपेक्षासंयमः । उपार्जितकर्मक्षयार्थ तपस्विना तप्यते इति तपः,तद् द्वादशविधं वक्ष्यमाणविस्तर ज्ञातव्यम्। संयमिना योग्यं ज्ञानसंयमशाँचोपकरणादिद्वानं त्याग उच्यते । नास्ति अस्य किञ्चन किमपि अकिञ्चन निष्परिग्रहः तस्य भावः कर्म वा आकिञ्चन्यम् । निजशरीरादिपु संस्कारपरिहाराय ममेदमित्यभिसन्धिनिषेधनमित्यर्थः । तदाकिञ्चन्यं चतुःप्रकार भवति-स्त्रस्य परस्य च जीवितलोभपरिहरणं श्वस्य परस्य २० च आरोग्यलाभपरिहणं स्वस्य परस्य च इन्द्रियलोभपरित्यजनं स्वस्य परस्य पापभोगलोमोझनञ्चति । पूर्वानुभुक्तनितान्भरण वनिताकथास्मरणं वनितासगासत्तस्य शय्यासनादिकञ्च अब्रह्म तद्वर्जनात् ब्रह्मपथ परिपूर्ण भवति । स्वेच्छाचारप्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थ मुस्कुलबासो वा ब्रह्मचर्यमुच्यते । गुप्तिसूत्र प्रवृत्तिनिग्रहार्थम्, बवासमीना प्रवृत्त्या युपायप्रदर्शनार्थ द्वितीयं समितिमूत्रम् । इदन्तु तृतीयं सूत्रं दशविधधमकथकं पञ्चसमितिपु प्रयर्तमानस्य मुनेः प्रमाद- २५ परिहरणार्थ बोद्धव्यम् । क्षमा च मादवञ्च आर्जत्रच सत्यच शौचञ्च संयमश्व तपश्च त्यागश्च आकिकचन्यच ब्रह्मचर्यच क्षमामार्दवार्जबसत्यशीच संयमतपरत्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि । उनमानि प्रयोजनपरिवर्जनानि च तानि क्षमादीनि तानि तथोक्तानि, एतानि दश धर्म इति धर्मसंज्ञानि संत्ररकारणानि बेदितव्यानीति क्रियाकारकसम्बन्धः । तप्तलोह पिण्डः बत् कोवादिपराभूतेन मुनिना उनमक्षमादीनि स्वपरहितैषिणा कर्तव्यानि । ३० १ अन्यथा साधुर ता । उत्कृष्टसमा- आ०, ८० ज० । ३ नियते आ०, २०. ज. । ५ "अन्जवमद्दबन्लाघवतुही पल्हादणं च गुणा" भग आरा. गा० ४०० | ५ मृदुना दोपकरणेन प्र- आ द्र०, ज०। ६ प्रवृत्तिनिवृत्त्या - आ०, द, ज० | Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थ अदानीमनुप्रेानिरूपणार्थं सूत्रमिदमुच्यते अनिवारण संसारकत्वान्यत्वाशुच्याच संदर निर्जरालोको दुर्लभधर्माख्यातत्वातु चिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥ ७ ॥ अनित्य अशरणश्च संसारच एकच अन्यत्वञ्च अशुचित्रा आम्रवश्च निर्जरा ५ व लोकश्च बोधिदुर्लभा च धर्मश्च अनित्याहारण संसार कल्यान्यत्याशुच्या म्रच संवरनिर्जरालोकःवोधिदुर्लभधर्मास्तेषां स्वाख्याः निजनिजनामानि वासां तत्त्वमर्थस्तस्यानुचिन्तनं पुनः पुनः स्मरणमनुप्रेक्षा भवति । न नित्यमनित्यम् । न शरणमशरणम् । संसरन्ति पर्यटन्ति यस्मि निति संसारः । एकस्यात्मना मात्र एकत्वम् । शरीरादेरन्यस्य भावोऽन्यत्वम् । न शुचिः कायोशुचि: । आवतीति आस्रवः । कर्मागमनं संवृणाति अभिनवकमंप्रवेशं कर्तुं न ददाति इति १० संवरः । एकदेशेन कर्मणां निर्जरणं गलनमधःपतनं शटनं निर्जरा । लोकयन्ते जीवादयः पदार्था यस्मिन् इत्ति लोकः । बोधनं बाधिः संसार भोगवैराग्यमित्यर्थः । बोधिवासों दुर्लभा बोधिदुर्लभा । उत्तमपदे धरतीति धर्मः । इति निजनिजनामानुसारेण तत्रानुचिन्तनम तुप्रेक्षा भवतीति संक्षेपेणानुप्रेक्षार्थी ज्ञातव्यः । I २८६ अथ किञ्चिद् विस्तरेणार्थ: कभ्यते - काय इन्द्रियविषया भोगोपभोग१५ स्तूनि समुदायप्राप्तानि यानि वर्त-सोर्गति सगियार्थविस्थादिविधिमाणि जीवराज स्थितस्वरूपाणि ते । किंचन् ? मेघजालवत् इन्द्रचापवत् विद्युदुन्मेषवत् जलबुद् बुदवत् गिरिनदीप्रवाह वन् खलजनमैत्रीचत् चेत्यादयो दृष्टान्तास्तन बहवः सन्ति । गर्भाद्यवस्थाविशेष सदोपलभ्यमानसंयोगविपर्ययत्वात् पूर्वोच्षु जडो जीवो ध्रुवत्वं मनुते, न च किञ्चित् संसारे समुत्पन्नं वस्तु ध्रुवं विलोक्यते जीवस्य ज्ञानदर्शनोपयोग २० स्वरूपान्यत्रेति चिन्तनमनित्यत्वानुप्रेक्षा भवति । तां चिन्तयतो भव्यजीवस्य शरीर पुत्रकल त्रादिषु भोगोपभोगेषु अनुचन्धो न भवति, त्रियोगावसरेऽपि दुःखं नोत्पद्यते, भुक्तोज्झितत्रकूचन्दनादिषु यथाविरको भवति तथा शरीरादिषु विरको भवति । १ । यथा मृगालकस्य निर्जने वने वलयता मांसाकाङ्क्षिणा क्षुधितेन द्वीपिना गृहीतस्य किञ्चिच्हरणं न वर्तते तथा जन्मजरामरणरोगादिदुःसमध्ये पर्यटतो जीवस्य किमपि शरणं न वर्तते, सम्पुष्टोऽपि २५ कायः सहायो न भवति भोजनादन्यत्र दुःखागमने । प्रयत्नेन सहिता अपि रायो भवान्तरं नानुगच्छन्ति | संविभकखा अपि सुहृदो मरणकालेन परिरक्षन्ति । रोगग्रस्तं पुमांसं सङ्गता अपि बान्धवा न प्रतिपालयन्ति । सुचरितो जिनधर्मो दुःखमहासमुद्र सन्तरणोपायो भयति । यमेन नीयमानमात्मानमिन्द्रधरणेन्द्रचक्रयर्त्यादयोऽपि शरणं न भवन्ति, तत्र जिनधर्म | ९/७ -- १ भवन्तीति भा० द० ज० २ श्वत् भ० ० ० ३ - मदन आ ० ज० । ४ संसारस- आर ४० ज० । ५ न्यत्वेति सा १६ रोगादिषु दुः- आ०, ३० न० । ७ दुःखागमे भा० द० ज० । ८ धनानि । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसा मार्गदर्शक:- आचार्यश्री सर्विाहासागर जी महाराज ग्य जायत ९।१] नबमोऽध्यायः २८७ एष शरणम् । एवं भावना अशरणानुप्रक्षा भवति। एतां भावनां भावयतो भव्यजीवस्य भवसमुद्भवभावेषु ममता न भवति, रत्नत्रयमार्गे सर्वज्ञवीसरागप्रणीते निश्चलो भवति ।२। पूर्वोक्तपश्चप्रकारे' संसारे नानाकुयोनिकुलकोटयनेकशतसहस्रसकटे पर्यटम् जीवो विधियन्त्रचोदितो यः पिता स कदाचिद् भ्राता स एव पुत्रः पौत्रश्च सज्जायते । या जननी सा भगिनी भवति कदाचिद् भार्या कदाचित् पुत्री कदाचित् पौत्री च भवति । य: स्वामी वर्तते सः दासोऽपि ५ भवति यो दासो वर्तते स स्वामी चकास्ति । एवं रङ्गगतशेलूषवज्जीवो नानावेषान् धरति । किमन्यदुन्यते, स्वस्य स्वयं पुत्रो भवनि । बं संसारस्वरूपानुचिन्तनं कुर्वतो भव्यजीवस्य तेन तु संसारसमुद्रतरण प्रयत्न कुरुत इति संसारानुप्रेक्षा ।३। आत्मा एक एक जन्म प्राप्नोति तथा जरां मरणञ्च । तदुःखमेंक एव भुक्ते जोबस्य परमार्थतो न कश्चिद् बन्धुर्वर्तते न शत्रुर्जागर्ति एक एव जायसे एक १८ एवं म्रियते । च्याधिजरामरणादिदुःखानि स्वजनो परजनो वा न सहते' पन्धुवर्गो मित्रवर्गश्च पितृवनात् परतो नानुगच्छति । अधिनश्वरो जिनधर्म एव जीवस्य सर्वदा सहायो भवतीति चिन्तयतो मध्यजीवस्य स्वजनपर जनेषु प्रीत्यप्रीती नोत्पयेते तस्माञ्च निस्सङ्गो भवति ततश्च मुक्तावोत्तिष्ठते इत्येकत्वानुमक्षा ।४। जीवात् कारादिकस्य पृथक्त्वानुचिन्तनमन्यत्वानुमक्षा भवति । तथाहि-जीयस्य" बन्धं प्रति एकत्वे सत्यपि लक्षणभेदात् काय १५ इन्द्रियमय आत्माऽनिन्द्रियोऽन्यो वर्तते, कायोऽक्ष आत्मा ज्ञानवान्,कायोऽनित्य आत्मा नित्यः काय आद्यन्तवान् आत्मा अनाद्यन्तवान् , कायानां बहूनि कोटिलक्षाणि अतिक्रान्तानि आत्मा संसारे निरन्तरं परिभ्रमन् स य तेभ्योऽन्यो वर्तते । एवं यदि जीवस्य कायादपि पृथक्वं वर्तते तर्हि कलत्रपुत्र चाहनादिभ्यः पृथत्तच कथं न बोभोति अपि तु बोभवीत्येव । एवं भव्यजीवस्य समाहितचेतसः कायादिषु निःस्पृहस्य तत्त्वज्ञानभावनापरस्य कायादेभिन्नत्वं २० चिन्तयतो वैराग्योत्कृष्टता भवति । तेन तु अनन्तस्य मुक्तिसौख्यस्य प्राप्तिर्भवतीत्यन्यत्वानुप्रेक्षा | ५। अयं कायोऽतीवाशुच्युत्पत्तिस्थानं दुर्गन्धोऽपचित्रो मृदुधातुरुधिरसमेधितो चर्चागृहवदशुचिभाण्ड मश्किापक्षसदशच्छविमात्रप्रच्छादितोऽतिदुर्गन्धरसनिस्यन्दिस्रोतोबिलसमाकुलः पवित्रमपि वन्तु समाश्रितं तरक्षणमेव निजत्वं प्रापति अङ्गारयत् । अस्य कायस्य जलादिप्रक्षालनचन्दनकर्पूरकुमाद्यनुलेपनराजा दिधूपनेष्टकादिप्रघर्षणचूर्णादिवासनपुष्पादिभि- २५ रधिवासनादिभिरशुचित्रमपाकर्तुं न शक्यते । सम्यग्दर्शनज्ञानाचारित्राणि पुनर्भाव्यमानानि जीवस्यातिविशुद्धिं कुर्वन्तीति चिन्तयतो भव्यजीवस्य' "वर्मणि वैराग्यं समुत्पश्चते, तेन तु संसारसमुःसन्तरणाय मनः सावधान भवतीत्यशुचिस्यानुप्रेक्षा । ६ । इह जन्मनि परत्रच आस्रघा जीवस्यापायं कुर्वन्ति । इन्द्रियकषायानतक्रिया महानदीप्रवाहवेगवत्तीना भवन्ति । १ प्रकारसं- आ०, द, ज०।२ कुरु इति भा०, द., ज० । ३ नापहरति सा | ४ स्वजने पर-भा.द...। ५ -स्य सम्बन्ध- आ. द..ज० ६-गृहगवादि भ्य सा०। ७वमंमिः भा०,५०,ज०। ८ पखवा आद०,ज० । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ती [15 स्पर्शनरसनप्राणचक्षुःश्रोत्राणि इन्द्रियाणि यथासंख्यं गजमत्स्यभ्रमर शलभमृगादीन् दुःखावे पातयन्ति को मानमायालोमाश्च शिपिविष्टबाहुबलिकृष्णचमरादिवन बधबन्धापकीर्तिपरिक्लेशप्रभृतीन् प्रतिपादयन्ति । इह जन्मनि परत्र च नरकादिगतिगर्तषु नानादुःखाग्नि प्रज्वलितेषु पर्यायन्ति । एवमाद्यान्नयदोषानुचिन्तने भव्यजीवस्य उत्तमक्ष्मादिभिः शुभम५ तिर्न परिस्खलतीत्याखवानुप्रेक्षा | ७ | यः पुमान् कच्छपवत् संवृतात्मा भवति तस्यापदो न भवन्ति विकृता इव । यथा महासमुद्रे नौकायाः छिद्रपिधाने विद्यमाने कमेण प्रजन नायो निमज्जनांचा भवदिधाने तु निर्विघ्न बाञ्छित देशान्तरप्राप्तिर्भवति तथा कर्मागमनद्वारसंवरणे सति श्रेयः प्रतिबन्धो न भवति । " एवमाभ्यायतो जीवस्य संवरणे नित्यमेवोद्यम उत्पद्यते संत्रराक्ष निर्वाणपदप्राप्तिर्भवतीति १० संवरानुप्रेक्षा ।८१ अबुद्धिपूर्वा कुशलमूला च निर्जरा द्विप्रकारा भवति । तत्रा, बुद्धिपूर्वी अकुशलानुबन्धापरनामिका नरकादिषु कर्म फलोदयजा जायते । परीपसदने तु शुभानुबन्धा निरनुबन्धा च द्विप्रकारापि कुशलमूला निर्जरा उच्यते । एवं निर्जरायाः दोषान् गुणांच भावयतो rorate कर्मनिर्जरणार्थं प्रवृत्तिर्भवतोति निर्जराऽनुप्रं क्षा || अधरतादुपरि तिर्यक् च सर्वत्राकाशोऽनन्तो वर्तते तस्यानन्ताकाशस्यालोका काशापर संज्ञस्यातिशयेन मध्यप्रदेश लोको वर्तते १५ तस्य लोकस्य स्वभावसंस्थानाद्यनुचिन्तनं कुर्वतो भव्यजीवस्य तत्वज्ञानस्य विशुद्धिर्भवतीति लोकक्षा । १० । एकस्मिन् निगोताङ्गे सिद्धानामनन्तगुणा जीवा भवन्ति एवं विश्वोऽपि लोकः स्थावरैः प्राणिभिर्निरन्तरम्भृतो वर्तते तस्मिन् लोके सत्वं दुर्लभम् । किंवत् ? महार्णवे पतितं वचसिकता या एकं रजोवत् । तत्र च त्रसेषु विकलत्रयं भूयिष्ठं वर्तते । तत्र पञ्चाक्षयमतिदुर्लभम् । किंवत् ? सर्वगुणेषु कृतज्ञतावत् । तत्रापि पचेद्रियाः पशवो मृगाः पक्षिणः २० करकेन्दुकादयो बहवो वर्तन्ते तेषु पचेन्द्रियेध्वपि मनुष्यजन्मातीवदुर्लभम् । किंवत् ? मार्गे पतितरत्नोच्चयवत् । मनुष्यजन्मनिर्गमने तु पुनर्मनुष्यजन्मप्राप्तिर तीच दुर्लभा । किंवनू ? भस्मीभूतवृक्षस्य भश्मनः पुनः तरुभवनवत् । मनुष्यजन्म प्राप्ती घ सुदेशी दुर्लभस्तस्मिन् सुकुलं दुर्लभ तस्मिन्निन्द्रियाणि दुर्लभानि तेषु सम्पदो दुर्लभास्तासु आरोग्यताऽतिदुर्लभा एतेषु विश्वेष्वपि सामग्रचेषु प्राप्तेषु जैनधमंश्चेन्न मत्तर्हि मनुष्यजन्म २५ निरर्थकं भवति । किंवत् ? लोचनविहीनवदनवत् । एवं कष्टलभ्यं जिनधर्मं प्राप्य यो विषयसुखे रज्जति स पुमान् भस्मने गन्धसारतरुवरं वहति । यस्तु विषयसुखेभ्यो विरकरतस्य तपाभावनाधर्मभावना सुखमरणादिलक्षणोपलक्षिता समाधिरतीय दुर्लभः । समाधौ च सति विषयसुखविरक्ततालक्षणो बोधिलाभः सफलो भवति । एवं भावयतो भव्यजीवस्य बोधि लब्ध्वा कदाचिदपि प्रमादो न भवतीति बोधिदुर्लभानुप्रक्षा | ११ | सर्वज्ञवीतरागप्रणीतः ३० सर्वजीवद्यालक्षणः सत्याधिष्ठानो धिनयमूल उत्तम क्षमावलः ब्रह्मचर्यगुप्त उपशमप्रधानो २८८ to | चा १ विकृता । २ एवाध्याय ध्यायता ना० । ३ प्रकृति- स० । ४ सत्कुलम् Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९-७ ] नवमोऽध्यायः २८५ नियतिलक्षणो विषयव्यावृत्तिरूप इत्यर्थः निष्परिग्रद्दतालम्बनो धर्मो भवति, अस्य धर्मस्यालाभान् प्राणिनोऽनादिकाले संसारे पर्यटन्ति पापकर्मोदयसमुत्पन्नमसातं भुञ्जते, धर्मस्य तु प्राप्तौ नानाभ्युदयसुखं भुक्त्वा परमनिर्वाणं लभन्ते इति चिन्तनं कुर्वतो मन्यजीवस्य धर्मे अकृत्रिमः स्नेो भवति तेन' तु सदा तं प्रतिपद्यते इति धर्मानुप्रेक्षा । १२३ एवं द्वादशानुप्रेक्षा सन्निधाने जीव उत्तमक्षमादीन् धरति तेन त्वतिशयेन संवरो भवति । अनुप्रेक्षां भावयन् ५ पुमान् उत्तमक्षमादीन् प्रतिपालयति परीषहांश्च सहते तेन द्वयोर्मध्येऽनुप्रेक्षाग्रहणम् । भवन्ति चात्र काव्यानि -- to भुषने न कोपि शरणं दृष्टो भवश्चैकता मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधियतया इस स्तिरियं कर्मास्त्रत्रः संवरः । सारं निर्जरणं विवेरसुखकृल्लोको दुरापा भवे बोधिदुर्लभधर्मं यत्र सदनुप्रेक्षा इति द्वादश ॥ ४ सदुहम्बोधचरित्ररननिचयं मुक्त्या शरीरादिकं न स्थेयोऽतडित सुरेन्द्रवनुरम्भोबुदबुदाभं कचित् । एवं चिन्तयतोऽभिपङ्ग विगमः स्याद्भुतमुक्ताशने यसलियेऽपि नोचितमिदं संशोधनं श्रेयसे || नो कश्चिच्छरणं नरस्य मरणे जन्मादिदुः खोत्करे व्याघ्राघातमृगात्मजस्य विजने बान्धौ पतत्रेरिव । पोताद् भ्रष्टतनोर्धनं तंतुरमा जीवेन पुत्रादयो नो यान्त्यन्यभवं परन्तु शरणं धर्मः सतामतः ॥ जीवः कर्मवशाद् भ्रमन् भववने भूत्वा पिता जायते पुत्रश्चापि निजेन मातृभगिनीभार्यादुहित्रादिकः । राजा पतिरसौ नृपः पुनरिहाप्यन्यत्र शैलूपवत् नानावेषधरः कुलादिकथितो दुःख्येव मोक्षाहते || संसारप्रभवं सुखासुखमथो निर्वाण सि भुजेऽहं खलु केवलो न च परो बन्धुः श्मशानात् परम् । नात्येव सहायता जति मे धर्मः सुशर्मद्रुमः स्फूर्जज्जीवनदः सदाऽस्तु महतामेकत्वमेतच्छ्रिये ।1 नोऽनित्यं जडरूपमेन्द्रियमान्ताश्रितं वयत् सोऽहं तानि बहूनि चाश्रयमयं खेदोऽस्ति सङ्गादतः । .. १० १५ ܐ १ तेन सदा ० ० ० २ भवति चात्र काव्यम् आ० द० ज० २०. ६० ज० । ४ ० . इ० अ० प्रतिपु न सन्ति पते लाकाः । ५ तनुः शरीरम् जीवेन अमा-मह इत्यर्थः । ३७ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० [९/ तत्त्वार्थवृत्ती नीरक्षीरवदङ्गतोऽपि यदिमेऽन्यत्वं ततोऽन्यद्शं साक्षात्पुत्रकलत्रमित्रगृहरैरमादिकं मत्परम् ॥ अझं शोणितशुक्रसम्भवमिदं विण्मूत्रपात्रं न च स्नानालेपनधूपनादिभिरदः पुतं भवेज्जातुचित् । कर्पूरादिपवित्रमत्र निहितं तशापवित्रं यथा । पीयूषं विषमङ्गनाधरगतं रखत्रयं शुद्धये ॥ स्पर्शानागपती रसात्तिमिरगाद् गन्धात् क्षयं षट्पदो रूपाच्चैव पतङ्गको मृगततिर्गीतात् कषायापदाम् । शों दोलिधर्मपुत्रचमरा दृष्टान्तभाजः क्रमा द्धिसादेर्धनसम्पदादिकगणः कर्मास्रषः किं मुदेः ।। धाराशौ जलयानपात्र विवरप्रच्छादने तद्गतो यद्वत् पारमियति विघ्नविगतः सत्संवरः स्यात्तथा । मार्गदर्शकृत चरित्रानामावविक्षिणादार जी महाराज बैराग्येण परीपक्षमतया संपद्यतेऽसौ चिरात् ।। श्वभ्रादौ विधियोगतो भवति या पापातुबन्धा च सा तामाप्नोति कुधीरबुद्धिकलितः पुण्यानुबन्धा परा। गुप्त्यादिश्च परीपहादिविजयाद्या सत्तपोभिः कृता सद्भिः सा प्रविधीयते मुनियरः चेत्थं द्विधा निर्जरा । पाताले नरका निकोनिलयो मध्ये त्वसंख्ये मताः सहिपमहार्णवाश्च गिरयो नद्यो मनुष्यादयः । सूर्याचन्द्रमसादयश्च गगने देवा दिवीत्थं विधा लोको वातनिवेशितोऽस्ति न कृतो रुद्रादिभिः शाश्वतः ।। सिद्धानन्तगुणा निकोतयपुषि स्युः प्राणिनः स्थावरैः लोकोऽयं निचितस्त्रसत्यवरपश्चाझवदेशान्षयम् । दुःप्रापं खबिहकसुधर्मविषया भाव विराग तपो धर्मद्योतसुरखा मुमोचनमियं बोधिर्भवेद् दुर्लभा ।। लक्ष्म प्राणियादि सद्विनयता मूलं क्षमादि स्मृतम् स्वालम्बस्तु परिग्रहत्यजनता धर्मस्य सोऽयं जिनैः । प्रोक्तोऽनेन विना भ्रमन्ति भविनः संसारघोराणवे तस्मिन्नभ्युदयं भजन्ति सुक्षियो निःश्रेयस जाति ॥ २० Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९/८- ९] मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज नवमोऽध्यायः एता द्वादश भावना विरचिता वैराग्यसंवृद्धये विधानन्दिभुवानुरागवतो धर्मस्य धीमच्छ्रिये । दोषश्रुतसागरेण विदुषां दोषौघविच्छित्तये येऽन्तः सम्यगनुस्मरन्ति मुनयो नित्यं पदं यान्ति ते ॥ अथ परीषद्दसन फलप्रदर्शनेनोत्साहनार्थं सूत्रमिदमाहुः - मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः ||८|| २९१ I मार्गात् संवरणलक्षणादच्यवनमप्रच्युतिर स्खलनमिति यावत् मार्गाच्यवनम् | निर्जरा : कर्मणां गलनं पतनं शटनमेकदेशेन क्षयकरणमित्यर्थः । मार्गाच्यवनं निर्जरा च मार्गाच्यवन निर्जरे तयोरर्थः प्रयोजनं यस्मिन् परो पहनकर्मणि तत् मार्गाच्यवननिर्जरार्थम् । परिषोढव्याः परि समन्तात् सहनीया सर्पिणीयाः क्षमितव्या इत्यर्थः । ते के ? परीषदाः । १० मक्ष्यमाणलक्षणोपलक्षिताः क्षुधादयो द्वाविंशतिः । अथवा मार्गः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण तस्मादच्यवनं तदनुशीलनं तदभ्यसनम्, तदर्थं निर्जरार्थच्च परीपहाः षोढव्याः । तेषां सहनेन कर्मणामागमनद्वाराणि पिहितानि भवन्ति । तच संवर एव कथ्यते । औपक्रमिकं कर्मणां फलं सुजाना मुनयो निर्जीणकर्माणञ्च क्रमान्मोक्षं लभन्ते । तेनायमर्थ:-संवरनिर्जरामोक्षाणां साधनं परीषद्दनमित्यर्थः । अथ परीषह्स्वरूपं परीषद्दसङ्ख्याश्च परिज्ञापयितुं सूत्रमिदमाद्दुःक्षुत्पिपासाशीतोष्पदंशमशकनाग्न्यार तिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याको शवधयाचनाऽलाभरोगतृ एस्पर्श मल सत्कार पुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ॥ ९ ॥ १५ क्षु बुभुक्षा, पिपासा च उदकादिपानेच्छा, शीत "शैशिर्यम् उप्णश्च परिताप- २० लक्षणः, दंशमशकाच वनमक्षिकाः क्षुद्रजन्तुविशेषाः, नग्नस्य भावः कर्म वा माग्न्यम्, नाभ्यञ्च मरतिंध स्त्री च चर्या च निषया च शय्या च आक्रोश वधा याचना च अलाभश्च रोग तृपस्पर्शश्च मला सत्कारपुरस्कारश्च प्रज्ञा च अज्ञानच अदर्शनच तानि रायोकानि । इतरेतरद्वन्द्रः । एते सर्वे वेदनाविशेषाः द्रविंशतिपरीषदाः मुमुक्षुणा सहनीयाः । सख्या निरूपिता । इदानीं श्वरूपं निरूप्यते-यो मुनिर्निरवद्यमाहारं मार्गयति तस्याहारस्याप्राप्तौ २५ वारा वा अप्रनष्टवेदनोऽपि सन् अकालेऽयोग्यदेशे च भुक्तिं नेच्छति, डावश्यकपरिणमीषदपि न सहते, ज्ञानध्यानभावनापरो भवति, बहून वारान् स्वयमेवानशनम मौदर्य कृतवान् वर्तते, अनेकवारांश्च परकारितमनशनमवमौदर्यञ्च कृतवान् वर्तते, १ शैार्यम् आ० ० ० २ उष्णञ्च परितापलक्षणम आ०, ५०, ज० । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविहिसागर जी महाराज २९२ तत्त्वार्थवृत्ती [ ९९ रसहीनभोजनञ्च विधत्तं, तेन च शीघ्रमेव परिशुष्यच्छरीरो भवति । किंवत् ? तप्ताम्बरीषनिपतितकतिपयाम्बुबिन्दुयत् । समुद्भूतबुभुक्षावेदनोऽपि सहनशीलः सन् पुरुषो यो भिक्षालाभादलामं बहुगुणं मन्यो, 'क्षुधावाधां प्रति चिन्तां न कुरुते, तस्य क्षुत्परोप,विजयो वेदितव्यः ।१। यो मुनिन्दीतबागवापीप्रमुखजलमजनजलाचगाहनजलपरिषेचनपरित्यागी ५ भवति, अनियतोपवेशनस्थाना ( नोड) नियतवसतिश्च भवति । किंवात् ? पक्षिवत् । अतिक्षा रातिस्निग्धातिरूक्षातिविरुद्धभोजने सति ग्रीष्मत्वातपदाहज्वरोपवासादिभिः कायेन्द्रियोन्माथिनी समुद्भूनां तृषं न प्रतिचिकीपति, तृड्वह्निज्वाला सन्तोषेणाभिनव मृदुनिपपूर्ण शिशिरसुरमिपानीयेन यः प्रशमयति स पिपासापरीषहविजयं लभते ।२। यो मुनिः परिहत्तपछ्यवस्रो भवति अनियताबासश्च भवति । किंयन् ? पक्षिवत् । वृशमूले चतुष्पथे पर्वताने 'वर्षादित्रिषु १० कालेपु तिष्ठति, भूम्झावातसम्पातं महद्धिम"भातपक्षच सहते, त प्रतीकार प्राप्तिव्यपगतकाक्षो भवति, पूर्वानुभूतपावकादिशीतप्रतीकारहतुभूतद्रव्याणां नाध्येति, सम्यग्ज्ञानभावनागभंगृहे यो यसति तस्य शीतपरीयविजयो वेदितव्यः । ३ । यो मुनिनिर्मरुति निरम्भसि तपतपनरश्मिपरिशुष्कनिपतितच्छदरहितच्छायवृक्षे विपिनान्तरे स्वेच्छया स्थितो भवति, असाध्यपि तोत्पादितान्तर्दाहश्च भवति, दावानलदाह्परुषमारुतागमनसञ्जनितकण्ठकाकुदसंशोषञ्च १५ भवति, उष्णप्रतीकारहेतुभूतबहनुभूत चूनपानकादिकस्य न स्मरति, जन्तुपीडापरिहतिसावधान मनाश्च यो भवति तस्योष्णापरीषहजयो भवति, पवित्रचारित्ररक्षणं भवति । ४ । दंशग्रहणेन सिद्धं मशकमहणं किमर्थम, ? उपलक्षणार्थम् । यथा काकेभ्यो घृतं रक्षणीयम् कथं श्वमार्जारादिभ्यो 'न रक्षणीयं रक्षणीयमेव तथा दंशमशकोपद्रवं यो मुनिः सहते सः पिशुकत्तिकापिपीलिकाकीट मक्षिकामत्कुणवृश्चिकाद्युपद्रवमपि सहते इत्यर्थः । पर तेषां २० स्वयं बाधां न कुरुते केवलं मुक्तिलामसकल्पमात्रं वस्त्रं परिदधाति तस्य मुनेदंशमशकपरीषह विजयो भवति । ५ । नाग्म्यं नाम जात्यसुवर्णवदकलङ्क पर विषयिभिरशक्तकः १ शेफविकारबद्भिश्च धतु न शक्यते । तद्धरतां परप्रार्थनं न भवति । नान्यं हि नाम याचनावनजन्तु. घातादिदोषरहितमपरिग्रहत्वात् मुखिपापणाद्वितीयकारणं परेषा बाधाया अकारकम् । यो मुन्स्तिन्नाम्न्यं विभर्ति तस्य मनसि विकृतिनोत्पद्यते, स्त्रीरूपमतीवापवित्रं मृतक रूपसमानम२५ हर्निशं भावयति । ब्रह्मचर्यमाणं तस्य भवति । एवमचेलनतधारणं नाग्न्यं निष्पापं ज्ञातव्यम् । ६ । यो मुनिः हुपीकविषयेषु निरुद्यमो भवति, सङ्गीतादिरहितशून्यगृहदेवमन्दिरवृक्षकोदरशिलाकन्दरादिपु वसति, स्वाध्यायध्यानभावनासु रति करोति, सर्वप्राणिषु सर्वदा १ विश्वते आ.,द, ज. ! २ क्षुधो बाधाम् ता | ३ मृदना पूर्ण--आ०,८०,ज० । ४ वर्षादिषु त्रिषु आऊ, द, ज । '५ · मताप स१० । ६ -प्राप्त व्य- आ०, १०. ज. । ७ -पूतगवा०, आ., ज । ८ कथक मार्जारादि- भा०, ३०, जल | १. न रक्षणीयमेव ता.: ८-मशका. मर्ग-ताः । ११ झोकवि- आ., ३०, ज० । १२ -रूपकम-आ०, दु., ज० ! Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९] नवमोऽध्यायः २९३ परमकारुणिको भवति, दृष्टश्रुतानुभूतभोगस्मरणभोग 'कथाकर्णनविपमेषुशरप्रवेशनिच्छिन्द्रहृदयो भवति तस्य मुनेररतिपरीषहविजयो वेदितव्यः । ७ । यो मुनिः रगणशीलेषु स्थानेषु भारामेषु गृहादिपु तेषु च स्थानेषु अभिनवतारुण्यविलासः मधुपानमदचपललोचनः पीजयन्तीषु स्त्रीषु विद्यमानास्वपि कच्छपयत् संवृतान्तःकरणकरणोऽतिमनोहरेपद्धसन कोमलालापविलासविभ्रमसमीक्षणवर्करविधान मदमन्थरगतिकामेपुठयापारनिरर्थीकरणचारित्रो ५ भवति, नेत्रवासियामारपसहेलविविवाहीनोमतस्तरमपनोरुमूलकक्षानाभिनिरीक्षणादिभिरनुपछ तचित्तो भयति तस्य मुनेः स्त्रीपरीषद्दविजयो" भवति । ८ । यो मुनिः चिरकालसे वितगुरुकुलममचर्यो भवति, बन्धमोक्षपदार्थमर्म जानाति, संयमायतन यतिजनविनयभक्त्यर्थ गुरुजनेमानुज्ञातो देशान्तरं गच्छति, नभस्वानिव निस्सङ्गो भवति, उपवाससामिभोजनगृहवस्तुसहस्याघृतादिरसपरिहरणादिकायक्लेशसहनशीलकायो भवति, १० वेशकालानुसारेण संयमाविरोधिगमनं करोति, चरणावरणरहितः किठिनशक रोपल. कण्टकमृतखण्डपीडनसब्जातपादबाधोऽपि बाधां न मन्यते, गृहस्थावस्थोचितवाहनयानादिकानां न स्मरति, कालानुसारेण षडावश्यकानां परिहाणि न करोति तस्य मुनेश्वोपरीषड्जयो वेदितव्यः । ५ । यो मुनिः पितृवनशून्यागारपर्वतगुहागहरादिषु पूर्वानभ्यस्तेषु निवास करोति, भास्करनिजेन्द्रियज्ञानोद्योतपरीक्षितप्रदेशे क्रियाकाण्डकरणार्थं नियतकाला निषद्यामा- १५ श्रयति, तत्र च दूरक्षहर्यक्षतरक्षुद्वीपिंगजादि नानाभयानकपाकसत्त्वशब्दश्रवणादिनापि निर्भयो भवति, देवतिर्यम्मनुष्याचेतनकृतोपसर्गान् यथासम्भवं सहमानोऽपि वीरासनकुक्कुटासनादिषु अविघटमानशरीरो भवति, मोक्षमार्गान प्रच्यवते, मन्त्रविद्यादिप्रतीकारं न करोति, पूर्वोक्तदुश्वापदवाधारूच सहते तस्य मुनिषशापरीषहजयो भवति । १० | यो मुनि नानुशीलनव्यानविधानमार्गगमनादिखेदवान् भवति, मुहूर्तमेकं निद्रानुभवनार्थमुच्चाबचपरुपभूमिषु २० भूरिशर्करोपलकपालसङ्कटेषु शीतोष्गेषु स्थानकेषु शय्यां करोति, एकपार्श्वे दण्डवन पतित्या अन्नुपीद्धा परिहरन काष्ठयन् मृतकवत् पार्श्वमपरिवर्तमानः शेते, ज्ञानभावनानुरजितचेताः भूवप्रेतादिविहिननानोपसर्गोऽपि अचलिताङ्गोऽअमितकाल (लं) तनिहितयाध क्षमते, शार्दूलादिमानयं प्रदेशोऽचिरादस्मात् पलायनं श्रेयस्कर विभावयन्तः कदा भविष्यतीत्यविहितस्वदः शय्यापरीषहजयं लभते । ११ । यो मुनिर्मिथ्यादर्शनोद्धततीवक्रोधसहितानामज्ञानिजमानाम- २५ पक्षानं निन्दामसभ्यवचनानि च लम्भितोऽपि शृण्यन्नपि धग्निज्वाला न प्रकटयति, आक्रोशेषु अकृतचेतास्तत्प्रतीकारं विधातुं शीघ्रं शक्नुवन्नपि निजपापकर्मोदयं परिचिन्तयन् सवाक्यान्यश्रुत्वा तपोभावनापरान्तरको निजह्रदये कपाविषमविषकणिकामपि न करोति स मुनिराक्रोशपरीषविजयी भवित । १२ । यो मुनिर्निशातशस्त्रमुपंढिमुद्गरमुशलकुन्तगो: १-कथावर्णन आ०, ६०, जः | २ मुनिरषडक्षीणेशु स्था-ता० । ३ - करणः आः. १०,०। ४ -धानपदम- आ०, ६०, ०। ५-यो वेदितव्या सा० | ६ कठिनकर्करामलभा. द. जः । ७ -दिना भया- मा०, व० ज०। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ तत्त्वार्थवृत्तो [ ८९ फणागोलकप्रदरपर्दूपकम्बातर्जनकपाषाणादिभिस्ताड्यमानपीड्यमानशरीरोऽपि वधकेषु ईष. दपि मनःकलुषतां न करोति, पूर्वकृनपापकर्मणः फलमिदमायातममी 'चर्पटकाः किं कर्तुं समर्थाः कायोऽप्यर्य तोयबुद्बुदयविघटनस्वरूपो दुःखहेतुरेतर्वाध्यते सम्यग्दर्शनशानचारि त्राणि मम केनचिदपि इन्तु न शक्वन्ते इति विचिन्तयन् काठकद्दालतक्षणगन्धसारट्वानुले ५ पनाविषु समानमानसो भवति स वधपरीपहजयं लभते । एतदुक्तम् "अज्ञानभावादशुभाशयादा करोति चेत् कोपि नरः खलस्वम् । तथापि सद्भिः शुभमेव चिन्त्यं न मध्यमानेऽप्यमृते विषं हि ॥[ । अन्यश्च"आकृष्टोऽहं हतो नैव तो वा न द्विधाकृतः ॥ मारितो न हतो श्रमों मदीयोऽनेन बन्धुना ॥" । ] १३१ यो मुनिः बहिरभ्यन्तरतपोविधानभावनाकृतकृशतरशरीरः तपतपनतापशोषिताहो विध्यापिताकार इव निश्छायकामः अस्थिशिराजालत्वग्डमात्र शेषशरीरयन्त्रोऽपि विधावसथजायुप्रभृत्यर्थ दीनवचनवदनववर्ण्यकरसंज्ञादिकरणनं किमपि याचते, भिक्षासमये पि विधु झोतव मलप्रवाहासामनापीहागभवति । १४ । यो मुनिरङ्गीकनैकबार निर्दोष. १५ भोजनः चरण्युरिवानेकदेशचारी मौनवान् वाचंयमः समो वा सकृत् निजशरीरदर्शनमात्र तन्त्रः करयुगलमात्राऽमत्रः बहुभिर्दिवसैरप्यनेकमन्दिरेपु भोजनमलदम्वापि सनातरौद्रचेताः दान्यदानृपरीक्षणपराजमुस्खो लाभादलाभो वरं तपोवृद्धिहेतुः परमं तप इति सन्तुष्टचेता भवति स मुनिरलाभविजयी वेदितव्यः । १५ । यो मुनिर्विश्वाशुचिनिधानं परित्राणवर्जितमध्रुवं शरीरं जानाति, तत्संस्कारं न करोति, गुणमाणिक्या चपनसङ्ग्रहणवर्द्धनावनकारणं विनाय २० इस्य स्थितिनिमित्त भोजनाङ्गीकारं प्रचुरोपकारं करोति कुर्वन्नपि भोजनमक्षम्रक्षणप्रणविलेपन गर्त पुरणवदतत्परतया करोति । सकृदुपभोगस्य सेवा, मुहुर्मुहुरूपभोगस्यासेवा विरुद्धाहार उच्यते । अपथ्याहारपेवनं वैषम्यमुच्यते । तादृशाहारपानसेवनसमुत्पन्नएबनादिविकाररोगोऽपि सन् समकालसमुत्पन्नव्याधिशतसहस्रोऽपि सद्वशवती न भवति, जल्मलसर्वोपर्द्धि प्रभृतिसम्प्राप्ततपऋद्धिसंयोगेऽपि कानिस्पृहः सन् रोगप्रतीकारं नापेक्षते स रोगपरीषह२५ विजयी भवति । १६। यो मुनिः शुष्कतृणपत्रपरुषशर्करोपलनिशितकण्टकमृत्तिकाशूलकटफल कशिलादिष्यधनविहितपादवेदनोऽपि सन् तत्राविहितचेताः 'चर्यायां शय्यायां निषद्यायाच जन्तुपीडां परिहरन् निरन्तरमेवाप्रमन्तचेताः तृणस्पर्शपरीपहसह! *स हि वेदितव्यः । १७ । यो मुनिरम्बुकायिकप्राणिपीडापरिहरणचेताः मरणपर्यन्तमस्नानघ्रतधारी भवति तीव्रतपन १ वर्षटकाः चा० । २ -दाललक्षण- भा०, द०, ज०। ३ नैवं प्रा०, दे०. ज० । ४ -कृतकशतश ता० ।५ विधायसथ- आ०.दस.ज०।६ -क्यावसन-२० । ७ स वेदि- ०६, ज० । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽध्यायः २५५ भानुसब्जनितपरितापसमुत्पन्नप्रस्वेदवशम हदानी तपांशुनिचयोऽपिं किलासकच्छूद्र कण्डूया - दि विकारे समुत्पन्नेऽपि सङ्घट्टनप्रमर्दनकण्डूयनादिकं तदुत्पन्नजन्तुपीडापरिहारार्थं न करोति, ममाझें मलं वर्तते अस्य भिक्षोरने की नैर्मल्यं वर्तत इति सङ्कल्पनं न करोति, अवगमचरित्रपूतपानीयप्रधावनेन कर्ममलक मापनयनार्थं च सदेवोद्यतमतिर्भवति केशलोचासंस्कारखेदं न गणयति स मुनिर्मलपरीषहस हनशीलो भवति । १८ । यो मुनिः ५ पूजनप्रशंसनात्मके सत्कारे क्रियारम्भाथमतः करणामन्त्रणालक्षणे पुरस्कारे केनाप्यविहिते सति एवं मनसि न करोति यदहं चिरतरतपस्वी महातपोऽनुष्ठाता च स्वसमय पर समयनिर्णयविधायकः अनेकवार परवादिविजयी ईदृशस्यापि मम न कश्चित् प्रणामं करोति न कोपि प ९॥१] विधानापि सम्भ्रमं सृजति नाप्यासनादिप्रदानं विधत्तं वरं मिध्याष्टयो शादर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज शाखमपि निजपक्षीय तपस्विनं गृहस्थं चाती भक्तिमन्तः सकलञ्चसम्भावनेन सम्मानयन्ति १० निजसमयप्रभावनार्थं नैते तत्त्वज्ञानपरा अपि परमाहताः, वरं व्यन्तरादयः किल पूर्वमतितीत्रतपसां झटिति चच्चनं कुर्वन्तीति श्रुतिर्मिथ्या वर्तते, यदि न मिथ्या तर्हि माशानां तपस्विनां पूजादिकं व्यन्तरादयः किमिति न कुर्वन्तीति दुर्थ्यानपरो न भवति स मुनिः सत्कार पुरस्कारपरीसहनशीलो भवति । १४ । यो मुनिस्तर्कव्याकरणच्छन्दोल 'ङ्कारसारसाहित्याध्यात्मशास्त्रादिनिधानाङ्ग पूर्व प्रकीर्णकनिपुणोऽपि सन् ज्ञानमदं न करोति, ममामतः प्रवादिनः सिंह- १५ शब्दश्रवणात् वनगजा इव पलायन्ते भास्करप्रभायां ज्योतिरिङ्गणा इव न प्रभासन्ते इति च मदं नाते स मुनिः प्रज्ञापरीष विजयी भवति । २० । यो मुनिः सकलशास्त्रार्थसुवर्णपरीक्षाकपपट्टसमानधिषणोऽपि मूर्खोरसहिष्णुभिर्वा मूर्खोऽयं बलीवर्द इत्याद्यवक्षेपचचनमा प्यमानोऽपि सहते, अत्युत्कष्टदुश्वरतपोविधानच विधत्ते, सदा अप्रमत्त चेताश्च सन् ब्रह्मवर्चसं नापेक्षते स मुनिद्दज्ञानपरीषद्दजयं लभते । २१ । यो मुनिरत्युत्कृष्टवैराग्यभावनाविशुद्धान्तरङ्गो भवति, विज्ञात- २० समस्तवस्तुतत्त्वश्च स्यात्, जिनायतनत्रिविधसाधुजिनधर्म पूजनसम्माननतम्निष्ठो भति, चिरदीक्षितोऽपि सन्नैवं न चिन्तयति अद्यापि ममातिशयबद्बोधनं न सब्जायते उत्कृश्रुतव्रतादिविघायिनां किल प्रातिहार्यविशेषाः प्रादुर्भवन्ति इति श्रुतिमिथ्या वर्तते दीक्षेयं निष्फला व्रतधारण फल्गु एव वर्तते इति सम्यग्दर्शनविशुद्धिसन्निधानादेवं न मनसि करोति तस्य मुनेरदर्शनपरीषड्जयो भवतीत्यवसानीयम् | २२ । इत्थं सङ्कल्पप्राप्तान् परपद्दान् सल्किष्ट २५ चेताः क्षममाणः रागद्रेषमोहादिपरिणामोत्पन्नास्रव निरोधे सति महान्तं संवरं लभते । अथामी परिषदाः भवारण्यमतिकमितुमुद्यतस्य मुनेः किं सर्वे भवन्ति आहोवित् किमस्ति कचिद् विशेषः इति प्रश्ने सति उत्तरं दीयते । एते पूर्वोक्तलक्षणद्वाविंशतिपरीपहाचा १ - बहशीलो ता० २वातीय आ०, ब० ज० । ३ लङ्कारसादि भ० द०, १० । ४ - पदसमानाधिकरणोऽपि ज० | पदज्ञानाधि- द० Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬ तत्त्वार्थवृत्तौ [ ९/१०-११ रित्रान्तरमुद्दिश्य भाज्याः भवन्ति योजनीयाः स्युरित्यर्थः । तत्र सूक्ष्मसाम्परायच्छत्थवीत रागयोः कति भवन्तीति प्रश्ने सूत्रमिदमुच्यते सूक्ष्मसाम्परायच्छुद्द्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ॥ १० ॥ सूक्ष्मसाम्परायो दशमगुणस्थानवर्ती मुनिः । केवलज्ञानकेवलदर्शनावरणद्वयं छद्मशब्दे५ नोच्यते । छद्मनि तिष्ठतीति छद्मस्थः । छद्मस्थश्वासों वीतरागः बद्मस्थवीतरागः अन्तमुहूर्तेन समुत्पत्स्यमानकेवलज्ञानः, क्षीणकषायो ( ये ) द्वादशे गुणस्थाने वर्तमानः साधुः छद्मस्थापीत मार्गदर्शकयते, तद्यच्यते सा 1 सूक्ष्मसाम्परायश्च छद्मस्थवीतरागव सूक्ष्मसाम्परायच्छद्मस्थघी तरागौ तयोः सूक्ष्मसाम्परायछद्मस्थषीतरागयोः । अधिकरणे समी द्विवचनम् । तेनायमर्थः सूक्ष्मसाम्पराये मुनौ छद्मत्थवीतरागे च साधौ चतुर्दशपरीषा १० भवन्ति । के ते चतुर्दश परीषदाः सम्भवन्ति ? क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्याशस्यावधाला - भरोगतृणस्पर्शमलप्रज्ञाज्ञानानीति चतुर्दशेति निर्द्धारणादपरे परीषहा न भवन्तीति ज्ञातव्यम् । ननु छद्मस्थवीतरागे मोहनीयस्य कर्मणोऽभावो वर्तते तेन मोहनीयकृताष्टपरीषा नाम्म्याइतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कार पुरस्कारादर्शनलक्षणा न भवन्तीति युक्तमेव, सूक्ष्मसाम्पराये तु मोहनीयोयो वर्तते तत्सद्भावात् तत्सम्बन्धिनोऽप्यष्ठापि परीषद्दाः कथं न भवन्तीति १५ चतुर्दशं भवन्तीति कथमुच्यते ? साधूक्तं भवता; सूक्ष्मसाम्पराये सर्व एव मोहोक्यो न वर्तते । किन्तर्हि ? सम्बलनलोभकषायोदयोऽस्ति । सोऽपि बादशे न वर्तते किन्त्वतिसूक्ष्मो बर्तते तेन सूक्ष्मसाम्परायोऽपि वीतरागास्थसदृशो वर्तते तेन तस्मिन्नपि चतुर्दशपरीषदा भवन्तीति घटते । ननु छद्मस्थवीतरागे मोहोदयस्याभावो वर्तते सूक्ष्मसाम्पराये 'व तस्य मोहोदयस्य मन्दयमस्ति तेन द्वयोरपि क्षुपिपासादीनाचतुर्दशानामपि परीषद्दानामभावो वर्तते २० तत्सहनं कथमुच्यते भवद्भिरिति ? आह साधूक्तं भवता; यद्यपि अनयोश्चतुर्दशपरीषा न वर्तन्त एव तथापि तत्सहनशक्तिमात्रं वर्तते तेन वयोस्ते दीयन्ते, यथा सर्वार्थसिद्धिदेवानां मद्द्तमःप्रभापृथ्वीगमनं यद्यपि न वर्तते तथापि तद्गमनशकित्वात्तेषां तद्गति रुपयुज्यते । 1 अथाह कश्चित् शरीरयुक्तात्मनि परिषहसहनं प्रतिज्ञातं भवद्भः घातिसातघातने समुत्पन्न केवलज्ञानेऽचानिकर्म चतुकफलानुभवनपरिचरति भगवति सयोगिजिने शरीरवति २५ क्रियन्तः परया उत्पद्यन्त इति पर्यनुयोगे तत्परीषह कथनार्थं सूत्रमिदमुच्यते एकादश जिने ॥। ११ ॥ एकेनाधिका दश एकादश । शाकपार्थिवादिदर्शनाधिकशब्दलोपः । यथा शाकप्रियः पार्थिवः शाकपार्थिवः प्रियशब्दो सुप्यते तथानाधिकशब्दलोपः । अथवा एकश्र दश च एकावश हस्वस्य दीर्घता । एकादशपरीपहाः जिने जितघातिकर्मणि भगवति भवन्ति वेदनीय कर्म सद्भावाम २ पातिसंवातने सत्यु - 5 | ३ कियन्त्रः १ - मुख्यते भवद्भिरित्या सा किवन्तः परी- आर द । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१२] 3 वेदना यास्ते उपचर्यते । ते के? श्रुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्याशय्याबधरोगणस्पर्शमलसंज्ञका एकादश । ननु मोहनीयोदयसहायभावाभावात श्रुत् पिपासादिवेदनाऽभावे कथमेते उत्पद्यन्ते ? साधूक्तं भवता, वेदनाया अभावेऽपि वेदनाद्रव्यकर्म सद्भावो वर्तते तदपेक्षया परीषोपचारो विधीयते । कथमिति चेत् ? निश्शेषज्ञानावरणकर्मणि नष्टे सति करणकमव्यवधानरहित समस्तवस्तुप्रद्योतक सफल विमल केवलज्ञाने विद्यमाने भगवति चिन्तानिरोधलक्षणं ५ ध्यानं यद्यपि न वर्तते तथापि चिन्ताकार्यकर्माभावफलापेक्षया ध्यानं भगवति यथोपचर्यते तथा परीषा अपि उपचारमात्रेण दीयन्ते, अन्यथा वेदनासद्भावे कबलाद्दारस्यापि प्रसङ्गः सञ्जायते । तेन बुभुक्षादिलक्षणो वेदनोदयों भगवति न वर्तते कथं कवलाहारः स्यात् ? तथा घोक्तमा— नवमोऽध्यायः "न भुक्तिः क्षीणमोहस्य तवानन्तसुखोदयात् । तोडत जाहारभुग्भवेत् ॥ दर्शक :- आचार्य २९७ असद्वद्योदयाद् भुक्तिं त्वयि यो योजयेदधीः । मोहानिलप्रतीकारे तस्यान्वेष्यं जरदुघृतम् || असद्वेद्यवि घातिविध्वंसध्वस्तशक्तिकम् । त्वय्यकिञ्चिरं (स्करं ) मन्त्रशक्तये वापवनं (बलं) विषम् ॥ अवेद्योदय घाति सहकारिव्यपायतः । त्वय्यकिञ्चित्करो नाथ सोमय्या हि फलोदयः ||" [आदिपु० २५ ३९-४५ ] अथ सूक्ष्मसाम्परायादिषु गुणस्थानेषु व्यस्ताः परीपहा योजिता भवद्भिः । करिम चिद्गुणस्थाने समस्ता अपि वर्तन्ते इति प्रश्नसद्भावे सूत्रमाहुराचार्य: बादरसाम्पराये सर्वे ॥ १२ ॥ यादरः स्थूलः साम्परायः कषायो यस्मिन् गुणस्थाने सदादरसाम्परायः तद्योगान्मुनिरपि आदरसाम्परायस्तस्मिन् सर्वे परीपद्दा भवन्ति । अस्थायमर्थ:- बाइरसाम्पराय इत्युक्ते नवममेत्र गुण १० पञ्चविंशतितमे पर्वणि श्लोकचतुष्टयमिदम् । taar " साध्याहाराणि वाक्यानि भवन्ति" [ ] इति वचनादत्र सूत्रे सोपस्कारतया व्याख्यानं क्रियते । एकादशजिने 'न सन्ति' इति वर्णत्रयं प्रक्षिप्यते । तेनायमर्थ २० उत्पद्यते - जिने केलिनि एकादश क्षुद्रादयः परीपहा न सन्ति न वर्तन्ते । अथवा " एकेन अधिकान दश परिषहा जिने, एकादश जिने " इति व्याख्यानन्तु प्रमेयकमलमार्तण्डे [पृ० ३०७] वर्तते । १ तदुपर्यन्ते खा० । २ बायं वियम् सा० । अवलम् - अपशतशक्तिकभित्यर्थः । ३ सामायादिफली- आ० द० ० ४ संक्षिप्यते आ० द० ज० | ३८ १५ २५ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 तत्त्वार्थवृत्तौ ६९८ स्थानं केवलं न गृहीतव्यं किन्त्वर्थं बलेन प्रमत्तसंयताप्रमत्तसंयतापूर्वकरणानिवृत्तिकरणगुणस्थानचतुमाह्यं तेषु सर्व परीपहाः सहन्छन्ते अक्षीणाशयदोपत्वात् । तथा च सामायिकवारि छेदोपस्थापनायाञ्च परिहारविशुद्वियमे च त्रिषु चारित्रेषु सर्वे परीपाः प्रत्येकं सम्भवन्ति पारिशेषान् । २८ [ ९१३-१५ अथ ज्ञातमेतत् परीषाणां गुणास्थानदानम् । कस्याः प्रकृतेः के परीपहाः कर्तव्या भवन्तीति न ज्ञायते इति प्रश्ने सूत्रमिदमुच्यते ज्ञानावर प्रज्ञाज्ञाने ॥ १३ ॥ ज्ञानस्यावराणं यस्य मुनः स ज्ञानावरणस्तस्मिन् ज्ञानावरणे । अथवा ज्ञानस्यावरणं ज्ञानावरणं तस्मिन् ज्ञानावरणे कर्मणि सति प्रज्ञा च अज्ञानश्च प्रज्ञाज्ञाने द्वौ परीपहौ भवतः । १० ननु ज्ञानावरणे सति अज्ञानपरीषहो भवतीति युक्तमेव, परमिंदं न युक्तम्, प्रज्ञापरीपो ज्ञानावरणविनाशे खलु जायते, ज्ञानमदो भवति, स प्रज्ञापरीपो ज्ञानावरणे सति कथमुत्पद्यते ? साधूक्तं भवता प्रज्ञा हि क्षायोपशमिकी वर्तते तेन प्रज्ञामदो मतिश्रुतावरणक्षयोपशमे सति सञ्जायते अवधिमन:पर्ययकेवलज्ञानावरणे सति प्रज्ञा मदं जनयत्येव सर्वावरणक्षये तु मदो नद्यते । मार्गदर्शक : अथाह प्रायसूचनार्थं सूत्रमुच्यतेदर्शन मोहान्तराययोर दर्शनाला भी ॥ १४ ॥ दर्श मोहश्च अन्तरायश्य दर्शनमोहान्तरायौ तयोदर्शनमोहान्तराययोः, अदर्शन अलाभश्चादर्शनालाभौ । दर्शनमोड़े कर्मणिरुति अदर्शनपरीपो भवति अन्तराये कर्मणि लाभान्तराये कर्मणि सति अलाभपरीपो भवत्येवं यथाक्रमं ज्ञातव्यम् । अथ मोहनीयं कर्म कारं वर्तते दर्शन मोहश्चारित्र मोहश्चेति । तत्र दर्शनमोहे अद नपरी भवद्भिरुक्तञ्चारित्रमा कति परीपहाः भवन्तीत्यनुयोगे सति सूत्रमिदमुच्यतेचारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषयाक्क्रांशयाचना मस्कार पुरस्काराः ।। १५ । नम्नस्य भावी नाग्म्यम्, न रतिररतिः स्तृणाति आच्छादयति परगुणान् निजदोपान् २५ इति स्त्री, निषीदन्त्युपविशन्ति यस्यां सा निपधा, आक्रोशनमाक्रोशः, याचतिर्याचना, नाम्यव अतश्व स्त्री च निषद्या च आकोशश्च याचना च सत्कारपुरस्कारञ्च नाग्न्या रतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कार पुरस्काराः । चारित्रमोहे कर्मणि उदिते सति एते सप्त परीपाः पुंवेदोदयादिनिमत्ता भवन्तीति वेदितव्यम् । मोहोदये सति प्राणिपीडा भवति प्राणिपीडापरिहारार्थं निपा परीषह उत्पद्यते इति वेदितव्यम् । अथापरपरीषद्दनिमित्तकर्मविशेषपरिज्ञानार्थ सूत्रमिदमुच्यते २० Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९।१५.१८] नमोऽध्यायः वेदनीय शेषाः ॥ १६ ॥ वेदनीये कमणि सति शिष्यन्ते ध्रियन्ते इति शेपा एकादश परीपहा भवन्ति "ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने" [२० स० ९ । १३ ] इति शो परीषहायुक्तौ । “दर्शनमोहान्तराययोदर्शनाला भी तिचाळू-श्री विइिलिमिनबहारकारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः' [तः सू० ५।१५ ] इति सप्त परीपहाः सम्भाषिताः, ५ एवं सूत्रत्रयेण समुदिता एकादशोक्तास्तेभ्यो ये उधारतास्ते शेषा इत्युच्यन्ते । ते के क्षुत्पिपासाशीतोष्पदंशमशकचर्याशय्यावधरोगसृष्णस्पर्शमलसंज्ञका एकादश परीपहाः वेदनीय भवन्ति जिने योजिता इत्यर्थः । अथ पूर्वोक्ताः परीपहा एकस्मिन् पुरुषे युगपत् कति भवन्तीति प्रश्ने सूत्रमिदमुच्यते स्वामिना एकादया भाज्या युगपदेकस्मिन्कान्नविंशति': (ते)॥१७॥ एक आदिपा ते एकादयः । कस्मिंश्चिदात्मनि एकः परीषद्दो कस्मिंश्चिद् द्वौ कमिश्चित्त्रयः इत्यादिकृत्वा एकोनविंशतिपर्यन्तमेकस्मिन्नामान युगपत् समकालं भवन्तीति भाज्याः यथासम्भवं योजनीयाः। अत्र आ एकान्नविंशतिरिति शब्दो वर्तते स तु आङ् अभिविध्यर्थः। अभिविधिरिति कोऽर्थः ? अभिव्याप्तिः । एकोनविंशतिमभिव्याप्येत्यर्थः । कथम् ? शीतोष्ण- १५ परीषड्योमध्ये अन्यतरो भवति शीतगुष्णो घा। शय्यापरीपहे सति निषद्याचर्ये न भवतः, निपद्यापरीपहे शय्याचर्य द्रो न भवतः, चर्यापरीपहे शल्यानिषद्ये द्वौ न भवतः । इति त्रयाणामसम्भवे एकान्नविशतिरेकस्मिन् युगपद् भवति । ननु प्रज्ञाज्ञाने परस्परविरुद्ध तत्राप्येकत्य हानिः कथं न भवति ? साधूक्तं भवता; श्रुतज्ञानापेक्षया प्रशामद उत्पद्यते अवधिमनःपयकेवलज्ञानापेक्षया अज्ञानपरीपहोऽपि भवतीति को विराधः । अथ गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीपहजयलक्षणाः पञ्च संवर हेतव उक्ताः । इदानी चारित्रं संघरहेतुर्वक्तव्यस्तछेदपरिज्ञानार्थ योगोऽयमुद्यतेसामायिकच्छंदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसमसाम्प राययथाख्यानमिति चारित्रम् ॥१८॥ सामाविकछ छेदोपस्थापना च परिहारविशुद्धिश्च सूक्ष्मसाम्परायश्च यथाख्यातञ्च २५ सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्रिसूक्ष्म साम्परायथास्यानम् । समाहारो द्वन्धः । एतत्सामाथिकादिकं पञ्चकं चारित्रं भवतीति वेदितव्यम् । इति शब्दः समाप्त्यर्थं वर्तते तेन यथाख्यातेन चारित्रेण परिपूर्णः कर्मक्षयो भवतीति ज्ञातव्यम् । यद्यपि दशलाक्षणिके धर्मे यः संयम उक्तः स चारित्रमेव तथाप्यत्र पर्यन्ते चारित्रनिरूपणं साक्षात्परमनिर्वाणकारणं चारित्रं भवतीति ज्ञापनार्थ येदितव्यम् । तत्र सामायिकस्य लक्षणं दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिक- ३० १ एकोनविंशतिः भा०, ८०, जा। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० तत्त्वार्थवृत्ती ९।११ प्रोषधोपवासेत्यधिकारे प्रोक्तमेव । 'अपरेषां चतुर्णा लक्षणं कथयिष्यामः । तत्र सामायिक द्विप्रकारम्-परिमितकालमपरिमितकालनेति । स्वाध्यायादौ सामायिकमहर्ण परिमित्तकालम् । ईपिथावावपरिमितकालं वेदितव्यम् । प्रमादेन कृतो योऽत्यर्थः प्रबन्धो हि हिंसादीनाममार्गदर्शनामवृक्षावार्यतस्वी जिलोपोसमयाजीमागेज सम्यगागमोक्तविधिना प्रतिक्रिया पुनर्वता५ रोपणं छेदोपस्थापना, छेदेन दिवसपक्षमासादिप्रतज्याहापनेनोपस्थापना व्रतारोपणं छेदोपस्था पना । सकल्पविकल्पनिषेधो वा छेदोपस्थापना भवति। परिहरणं परिहारः प्राणिनित्तिरित्यर्थः। परिहारेण विशिष्टा शुद्धिः २कर्ममलकलङ्कप्रक्षालनं यस्मिन् चारित्रे तत्परिहारषिशुद्धिः चारित्रमिति वा विप्रहः। तल्लक्षणं यथा-द्वात्रिंशद्वर्षजातस्य बहुकालतीर्थकरपादसेविनः प्रत्याख्याननामधेयनवमपूर्वप्रोक्तसम्यगाचारवेदिनः प्रमादरहितस्य अतिपुष्कर१० चर्यानुष्ठायिनस्तिस्रः सन्ध्या वर्जयित्वा द्विगम्यूतिगामिनो मुनेः परिहारविशुद्धिचारित्रं भवति । तथा चोक्तम् -- "पत्तीसवासजम्मो वासपुर च तिस्थयरमूले । पञ्चकखाणं पढिदो संझूणदुगाऊअविहारो॥" [ ] त्रियर्षादुपरि नवघर्षाभ्यन्तरे वर्षपृथक्त्वमुच्यते। अतीव सूक्ष्मलोभो यस्मिन चारित्रे तम् १५ सूक्ष्मसाम्परायं चारित्रम् । सर्वस्य मोहनीयस्योपशमः भयो वा वर्तते यस्मिन् तत् परमौदासीन्यल क्षणं जीवस्वभावदशं यथाख्यातचारित्रम् । यथा स्वभावः स्थितस्तथ वाख्यातः कथित आत्मनो यस्मिन् 'चारित्रे तद् यथाख्यातमिति निरुक्तेः । यथाख्यातस्य अथाण्यातमिति च द्वितीया संज्ञा वर्तते । तत्रायमर्थः-चिरन्तनचारित्रविधायिभिर्यदुत्कुष्ठं चारित्रमाख्यातं कथितं तादृशं चारित्रं पूर्व जीवेन न प्राप्तम्, अथ अनन्तरं मोहक्षयोपशमाभ्यां तु प्राप्तं यच्चारित्रं तत् अथाख्यास२० मुच्यते । सामायिकाच्छेदोपस्थानाचारित्रं गुणः प्रकृष्टं छेदोपस्थापनाचारित्रात् परिहारविशुद्धि चारित्रं गुणः प्रकृष्ट परिहारविशुद्धिचारित्रात्सूक्ष्मसाम्परायचारित्रं गुणः प्रकृष्टं सूक्ष्म साम्परायचारित्रात् यथाख्यातचारित्रं गुणः प्रकृष्टं तेन कारणेनोत्तरगुणप्रकर्षज्ञापनार्थं सामायिकादीनामनुक्रमेण वचनम् । __ अथ संवरस्य निर्जरायाश्च हेतुभूतस्य तपसः स्वरूपनिरूपणार्थं प्रबन्धोरच्यते । तत्तपो २५ द्विप्रकारम्-बाह्यमाभ्यन्तरश्च । तत्र बाह्यं षट्प्रकारमाभ्यन्तरश्च षट्प्रकारम् । तत्र बाह्यषटप्रकारस्य तपसः सूचनार्थ सूत्रमिदमुच्यते भगवद्भिःअनशनावमौर्यधृत्तिपरिसङ्ख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासन कायक्लेशा बाह्यं तपः ॥ १९ ॥ १ परेषाम् आ०, २०, य० । २ कर्मफल- आ०, व, ज० । ३ “तीस वासो जन्मे वासांधत्तं च तित्थयरमूले । पच्चस्खाणं पदिदो संझूणदुगाऊयविहारो ।।" -गो० जी० गा० ४७२ । त्रिंशद्वर्षजन्मा वर्षपृथक्त्वं खलु तीर्थकरमूले। प्रत्याख्यानं पटितः संध्योनद्विगव्यूतिविहारः ॥ ४ तथैव ख्यातः भा०, २०, ० । ५ सूच्यते ता। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमोऽध्यायः अनशन अवमौदर्य वृत्तिपरिसङख्यान रसपरित्यागश्च विविकशय्यासनश्च कायक्लेशश्च अनशनावमौद ये वृत्तिपरिसङ्ख्या नरस परित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशाः । एते षट् संयमविशेषा बाह्य तपो भवति । तत्र तावदनशनस्य स्वरूपं निरूप्यते - तदास्त्रफल - मनपेच्य संयमप्राप्तिनिमित्तं रागविध्वंसनार्थं कर्मणां चूर्णीकरणार्थं सद्ध्यानप्राप्त्यर्थं शास्त्राभ्यासार्थं यत् क्रियते उपवासस्तदनशनमुच्यते । संयमे साबधानार्थं वातपित्तश्लेष्मादिदोषो ५ पशमनार्थ ज्ञानध्यानादिसुखसिद्धयर्थं यत्स्तोकं भुज्यते तदषमौदर्यम् । आशानिरासार्थमेकमन्दिरादिप्रवृत्तिविधानं तद्विषये सङ्कल्पचिकल्पचिन्तानियन्त्रणं वृत्तेर्भोजनप्रवृत्तेः परि समन्तात् सङ्घख्यानं मर्यादाणणनमिति यावद् वृत्तिपरिसङ्ख्यानमुच्यते । हृपीकमदनिग्रहनिमित्तं निद्राविपर्ययवाध्यायादिसुखारी कृष्णः परित्यागः परिहरणं रसपरि त्यागः । विविक्तेषु शून्येषु गृहगुहागिरिकन्दरादिषु पाणिपीडारहितेषु शय्यासनं विविक्तशय्या १० सनं पञ्चमं तपः । किमर्थम् ? आवाधाविरहार्थं ब्रह्मचर्यसिद्धयर्थं स्वाध्यायध्यानादिप्राप्त्यर्थं तद्विधातव्यम् । कायस्य क्लेशो दुःखं कायक्लेशः । उष्णत आत स्थितिः वर्पत नमूलनिवासित्वं शीतर्ती निवारणस्थाने शयनं नानाप्रकारप्रतिमा स्थानवेत्येवमादिकः कायक्लेशः पाठं तपः : कुते क्रियते ? शरीरदुःखसनार्थ शरीरसुखानमिवाञ्छार्थं जिनधर्मप्रभावनाद्यर्थञ्च । यह च्छया समागतः परीषद्दः, स्वयमेव कृतः कायक्लेशः इति परीषह्कायक्लेशयोविंशेषः । यस्माद् १५ बाह्यपेक्षया 'अदः षट्कारं तपो भवति परेषामध्यक्षेण च भवति तेनेदं तशे यासमुध्यते । ९२०] अथेदानीमाभ्यन्तरतपःप्रकार सूचनार्थं सूत्रमिदमुच्यते-प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायच्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥ २० ॥ ३०१ प्रकृष्टो यः शुभावहो विधिर्यस्य साधुलोकस्य स प्रायः प्रकृष्टचारित्रः । प्रायस्य साधु- २० लोकस्य चित्तं यस्मिन् कर्मणि तत् प्रायश्चित्तमात्मशुद्धिकरं कर्म । अथवा प्रगतः प्रणष्टः अयः प्रायः अपराधस्तस्य चित्तं शुद्धिः प्रायश्चित्तम् | कौरस्करादित्वात्सकारागमः । "प्राय इत्युच्यते लोकविशं तस्य मनो भवेत् । तस्य शुद्धिकरं कर्म प्रायश्चित्तं तदुच्यते ॥ " ! } प्रायश्चित विनयश्च चैयावृत्त्यन्न स्वाध्यायञ्च व्युत्सर्गश्च ध्यान प्रायश्चित्तविनयवैया- २५ वृत्त्यस्वाप्यायन्युत्सर्गंध्यानानि एतानि पद् संयमस्थानानि उत्तरमभ्यन्तरं तपो भवति । अभ्यवरस्य मनसो नियमनार्थत्वात्तत्र प्रमादोत्पन्नदोषनिषेधनं प्रायश्चित्तम् । ज्येष्ठेषु मुनिषु आदरो विनय उच्यते । शरीरप्रवृत्त्या यात्रादिगमनेन द्रव्यान्तरेण वा यो ग्लानो मुनिस्तस्य पादमदेनादिभिराराधनं वैयावृस्य मुच्यते । ज्ञानभावनायामलसत्वपरिहारः स्वाध्याय उच्यते । इदं शरीरं मदीयमिति सङ्कल्पस्य परिहतिर्व्युत्सर्गः । मनोविभ्रमपरिहरणं ध्यानमुच्यते । 2 १ - या तु षट् आ०, द० ज० | २- मध्यक्षणे व अ० द० जे० । ३ किरस्कराता १ रावना आ०, ज० । ३० Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्त [ ९/२१-२२ अथेदानीमुक्तानां प्रायश्चित्तादीनां प्रकार सख्याप्रतिपादनार्थ सूत्रमिदमाहुः नवचतुर्दशपञ्चविभेदा यथाक्रमं -आचार्य श्री सुना? ॥ चचत्वा दश च पञ्च च द्वौ च नवचतुर्दशव्र्यस्ते भेदा येषां ध्यानात् प्रावर्तिनां प्रायश्चित्तादिन्युत्सर्गान्तानां ते नवचतुर्दशपञ्चद्विभेदाः यथाक्रमं यथासंख्यं ५ पञ्चानां भेदा भवन्तीत्यर्थः । तेन नवभेदं प्रायश्चित्तं चतुर्भदो विनयः दशभेद वैयावृत्त्य पञ्चभेदः स्वाध्याय द्विभेदो व्युत्सर्ग इति । ध्यानस्य तु बहुतरं वतव्यं वर्तते तेन तत्प्रबन्धो भिन्नः करिष्यते । ܀ १० अथेदानीं प्रायश्चित्तस्य नवानां भेदानां निर्भेदनार्थं सूत्रमिदमुच्यते स्वामिना - आलोचनप्रति क्रमगतम् भयविषेकच्युत्सर्गतपश्छेद परिहारोस्थापनाः ॥ २२ ॥ आलोचनञ्च प्रतिक्रमणश्च तदुभयख विवेकश्च व्युत्सर्गश्च तपश्च छेदश्च परिहारश्च स्थापनाच तास्तथोक्ताः । एकान्तनिषण्णाय प्रसन्नचेतसे विज्ञातदोषदेशकालाय गुरवे नाह शेन शिष्येण विनयसहितं यथा भवत्येवमवानशीलन शिशुवत्सरलबुद्धिना आत्मप्रमादप्रका शनं निवेदनमाराधना भगवतीकथितदशदी पर हितमालोचनमुच्यते । के ते दश दोषा इति १५ चेत् ? उ ""आकंपिय अणुमणिय जं दिट्ठ बादरं च सुहुमं च । o साउलियं बहुजणमध्य ततस्सेवी ॥" [ भ० रा० ० ५६२ ] अस्यायमर्थः — आकम्पितम् उपकरणादिदानेन गुरोरनुकम्पामुत्पाद्य आलोचयसि । १ । अनुमानितं वचनेनानुमान्य या आलोचयति । २ यद्दष्ट थल्लोकैः दृष्ट ं तदेयालोचयति २० । ३ । बार स्थूलमेवालोचयति । ४ । सुमं च सूक्ष्ममत्यमेव दोषमालोचयति । ५ । छष्णं केनचित् पुरुषेण निजदोषः प्रकाशितः, भगवन् याशो दोषोऽनेन प्रकाशितस्तादृशो दोषो ममापि वर्तते इति प्रच्छन्नमालोचयति । ६ । सद्दाउलियं शब्दाकुलितं यथा भवत्येवं यथा गुरुरपि न शृणोति तादृशकोलाहलमध्ये आलोचयति । ७ । बहुजनं बहून् जनान् प्रत्यालोचयति । ८ । अव्यक्त-अव्यकस्याप्रबुद्धस्यामे आलोचयति । ४ । तत्सेवी यो गुरुस्तं दोघं सेवते २५ तदमे आलोचयति । १० । इदृग्विधमालोचनं यदि पुरुषमालोचयति तदा एको गुरुरेक आलोचकः पुमानिति पुरुषस्य द्वयाश्रयमालोचनम् । स्त्री यालोचयति तदा चन्द्रसूर्यदीपादिप्रकाशे एको गुरुः दे खियों अथवा द्वो गुरु एका स्त्री इत्येवं स्यालोचनं व्याश्रयं भवति । आलोचनरहितमालोचयतो वा प्रायश्चित्तमकुर्वतो महदपि तपोऽभिप्रेत फलप्रदं न भवति । निजदोषमुवाचार्य मिश्रया में दुष्कृतमस्त्विति प्रकटीकृत प्रतिक्रियं प्रतिक्रमणमुच्यते । ३० प्रतिक्रमणं गुरुणानुज्ञातेन शिष्येणैव कर्तव्यम् । आलोचनां प्रदाय प्रतिक्रमणा आचार्येव १ आकम्पितमनुमानित वद्दष्टं बादरन सूक्ष्म | उन्न शब्दाकुलितं बहुजनमव्यक्तं तत्सेवी । J Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९।२३] नबमोऽध्यायः ३०३ कर्तव्या । शुद्धस्याप्यशुद्धत्वेन यत्र सन्देहविपर्ययो भवतः, अशुद्धस्यापि शुद्धत्वेन वा यत्र निधयो भवति तत्र तनुभयमालोचनप्रतिक्रमण द्यं भवति । यद्वस्तु नियतं भवति तद्वस्तु चेन्निजभाजने पति मुखमध्ये वा समायानि यस्मिन् वस्तुनि गृहीते वा कषायादिकमुत्पश्ते तस्य सर्वस्य वस्तुनरत्यागः क्रियते तद्रि वेकनाम प्रायश्चित्तं भवति । नियतकालं कायस्य वाचो मनसश्च त्यागो व्युत्सर्ग उच्यते । उपवासादिपूर्वोक्तं पविधं वाह्यं तपस्तपोनाम प्रायश्चित्तं ५ भवति । दिवसपक्षमासादिविभागेन दीक्षाहापनं छेदो नाम प्रायश्चित्तं भवति । दिवसापक्षमासादिविभागेन दूरतः परिवर्जन परिहारो नाम प्रायश्चित्तं भवति । महानतानां मूललछेद्नं विवाय पुनरपि दीक्षाप्रापणम् उपस्थापना नाम प्रायश्चित्तं भवति । अनाचार्यमपृष्ट्या आतापनादिकरणे आलोचना भवति मार्गदुर्गकिपिच्छ्यादि की रहिविख्यास्येचनी पहम्मलि। परोक्षे प्रमादतः आचार्यादिवचनाकरणे आलोचना भवति । आचार्यममाट्या आचार्यप्रयोजनेन गत्वा १० आगमने आलोचना भवन्ति । परसङ्घमपृष्ट्वा स्त्रसंघागमने आलोचना भवति । देशकालनियमेन अवश्यकतव्यस्य व्रतविशेषस्य धर्मकथादिव्यासङ्गेन बिस्मरण सति पुनःकरणे आलोचना भवति । सर्वविवेऽन्यस्मिन् कार्यस्खलने आलोचनंच प्रायश्चित्तं भवति । पश्चिन्द्रियेषु 'वागादिदुःपरिणामे प्रतिक्रमणं भवति । आचार्यादिपु हस्तपादादिसंघट्टने प्रतिक्रमणं भवति । व्रतसमितिगुप्तिषु स्वल्पातिचारे प्रतिक्रमणं भवति । पेंशुन्यक- १५ लहादिकरणे प्रतिक्रमणं भवति । बयावृत्त्यस्वाध्यायादिप्रमादे प्रतिक्रमणं भवति । गोयरगतस्य कामलतोत्याने प्रतिक्रमणं भवति । परसंक्लेशकरणादौ च प्रतिक्रमणं भवति । दिवसराध्यन्ते भोजनगमनादौ आलोचनाप्रतिक्रमणद्वयं भवति । लोचनखच्छेदस्वप्नेन्द्रियातिचाररात्रिभोजनेषु उभयम् । पक्षमासचतुर्माससंवत्सरादिदोषादौ चोभयं भवति । मौनादिना बिना लोचविधाने व्युत्सर्गः। उदरकृमिनिर्गमे व्युत्सर्गः। हिममसकादिमहाबातादिसंह- २ पातिचारे व्युत्सर्गः । आर्द्रभूम्युपरि गमने व्युत्सर्गः । हरितवृणोपरि गमने व्युत्सर्गः । कर्दमोपरि गमने न्युत्सर्गः । जानुमानजलप्रवेशे व्युत्सर्गः। परनिमित्तयस्तुनः स्थोपयोगविधाने व्यु. सर्गः। नावादिना नदोतरण व्युत्सर्गः। पुस्तकपतने व्युत्सर्गः । प्रतिमापननेव्युत्सर्गः । पञ्चस्थावरविघा नाइष्टदेशतनुमलविसर्गादिषु व्युत्सर्गः। पक्षादिप्रतिक्रमणक्रियान्त व्याख्यानप्रवृत्त्यन्तादिषु व्युत्सर्गः, एवमुच्चारप्रश्रवणादिषु च प्रसिद्धो व्युत्सर्गः । एवमुपवा- २५ सादिकरणं छेदकरणं परिहारकरणमुपस्थापनाकरणं सर्वमेतत्परमागमाद् वेदितव्यम् । नवधिप्रायश्चित्तफलं तावत् भावप्रासा"दममनवस्थाया अभावः शल्यपरिहरणं धर्मदायोदिकश्च वेदितव्यम् । अथ विनयभेदानाह ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः ॥ २३ ॥ १ वागांदा प--30, दल, ज | 5 -सव्याख्वा- आ०, २, ० | ३ एवं प्रायश्मिसमुन्बार-ना४-सर्ग गय ता । ५-प्रसादनम् आ०, दर, ज.! Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ तत्त्वार्थवृत्तों [ ९।२४-२५ मानश्च ज्ञानविनयः दर्शनञ्च दर्शनविनयः चारित्रञ्च चारित्रविनयः उपचाररच उपचारविनयः ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः । एषमधिकृत एव विनयशब्दोऽन्न योजितव्यः । अनलसेन देशकालद्रव्यभावादिशुद्धिकरगेन बहुमानेन मोक्षार्थ ज्ञानग्रहणं ज्ञानाभ्यासो ज्ञानस्मरणादिकं यथाशक्ति ज्ञानविनयो वेदितव्यः । तत्त्वार्थश्रद्धाने शङ्कादिदोपर हितत्वं दर्शनविनय उच्यते । ज्ञानदर्शनवनः पुरुषस्य दुश्वरचरित्रे विदिते सति तस्मिन् पुरुषे भायतोऽतीवभक्तिविधानं भवति । स्वयं चारित्रानुष्ठानच चारित्रविनयो भवति । आचार्योपाध्यायादिषु अध्यक्षेषु अभ्युत्यानं वन्दनाविधानं 'करकुड्मलीकरणम,तेषु परोक्षेषु सत्सु कायवाङ्मनोभिः करयोटनं गुणसङ्कीर्तनभनुस्मरणं स्वयं ज्ञानानुष्ठायित्वञ्च उपचारविनयः। विनये सति ज्ञानलामो भवति आचारविशुद्धिश्च सञ्जायते, सम्यगाराधनादिकञ्च पुमौल्लभते । इति विनयफलं १० ज्ञातव्यम् । अथ चैयावृत्त्यभेदमाहआचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षग्लानगणकुलस वसाधुमनोज्ञानाम् ॥ २४ ॥ ____ आचार्यश्च उपाध्यायश्च तपस्वी च शैक्षश्च ग्लानश्च गणश्च कुलञ्च संघश्च साधुश्च मनोज्ञश्च ते तथोक्ताः । तेषां दशविधामा पुरुषाणां इशविध यावृत्त्यं भवति । आचरन्सि १५ प्रतान् यस्मादित्याचार्यः । मोक्षार्थमुपेत्याधीयते शास्त्रं तरमादित्युपाध्यायः । मुद्दोपवासादि मार्गदर्शक :- आचाएं श्री सुविधासागर जी महाराज तपोऽनुष्ठानं विद्यते यस्य स तपस्वी । शास्त्राभ्यासशीलः शक्षः।रोंगादिपीडि तशरीरो ग्लानः । वृद्धमुनिसमूहो गणः । दीक्षकाचार्य शिष्यसयातः कुलम। ऋषिमुनियत्यनागारलक्षणश्चातुपर्ण्यश्रमणसमूहः सधः । ऋष्यार्यिकानायकश्राविकासमूहो वा सङ्घः । चिरदीक्षितः साधुः वक्तृत्वादिगुणविराजितो लोकाभिसम्मतो विद्वान मुनिमनोज्ञ उच्यते । तादृशोऽसंयतसम्यग्र२० ष्टिी मनोज उच्यते । एतेषां दर्शायधानां व्याधी सति प्रासुकौषधभक्तपानादिपध्यवस्तुवसति कासंस्तरणादिभियावृत्त्यं कर्तव्यम् । धर्मोपकरणः परीषहविनाशमः मिथ्यात्यादिसम्भवे सम्यक्तचे प्रतिष्ठापनं बाह्यद्रव्यासम्भवे कायेन श्लेष्माद्यन्तम लाद्यपनयनादिकं तदनुकूलानुष्टानश्च वैयावृत्त्यमुच्यते । तदनुष्ठाने किं फलम् ?समाधिप्राप्तिः विचिकित्साया अभावः वचनवात्सल्यादिप्राकट्यञ्च वेदितव्यम् । अथ स्वाध्यायभेदानाह वाचनाच्छनानुप्रेक्षाम्नायधम्मोपदेशाः ।। २५॥ घाचना च पृच्छना च अनुप्रेक्षा च आम्नायश्च धर्मोपदेशश्च वाचनाच्छनानुप्रक्षाम्नायधर्मोपदेशाः । पते पश्च स्वाध्याया उच्यन्ते । पञ्चानां लक्षणम् यथा यो गुरुः पापक्रियाविरतो भवति अध्यापनक्रियाफलं नापेक्षते स गुरुः शास्त्रं पाठयति शास्त्रस्यार्थ वाच्यं कथयति मन्या३८ थेद्वयश्च व्याख्याति एवं त्रिविधमपि शास्त्रमदानं पात्राय ददाति उपदिशति सा वाचना कथ्यते । पृश्छना प्रश्नः अनुयोगः। शास्त्रार्थ जानन्नपि गुरुं पृच्छति । किमर्थम् ? सन्देहविनाशाय | निश्चितोऽप्यर्थः किमर्थ पचायते ? बलाधाननिमित्तं ग्रन्थार्थप्रबलतानिमित्तं सा पृच्छना । निजोन्नति १न्तोऽतिभक्ति-ता० । २ भन्नलिकरणम् । - ---- - - - -- - Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९।२६-२७ ] नवमोऽध्यायः ३०५ परप्रतारणोपहासादिनिमित्त यदि भवति तदा संवरार्थिका न भवति । परिझावार्थस्य एकाग्रेण मनसा यत्पुनः पुनरभ्यसममनुशीलनं सा अनुप्रेक्षा लक्ष्यते । अष्टस्थानोचारविशेषेण यच्छुद्धं घोषणं पुनः पुनः परिवर्तनं स आम्नायः कथ्यते । दृष्टादृष्टप्रयोजनमनपेक्ष्य उन्मार्गविच्छेदनार्थ सन्देहच्छेदनार्थमपूर्वार्थप्रकाशनादिकृते केवलमात्मश्रेयोऽर्थ महापुराणादिधर्मकथाशनुकथन धर्मोपदेश उच्यते । तदुक्तम् "हितं ब्रूयात् मितं ब्रूयात् ब्रूयाद्धर्म्य यशस्करम् । प्रसङ्गादपि न ब यादधर्म्यमयशस्करम् ॥"[ ] अस्य पञ्चविधस्यापि स्वाध्यायस्य च किं फलम् ? प्रज्ञातिशयो भवति प्रशस्ताध्यवसायश्च सजायते परमोत्कृष्टसंवेगश्वकास्ति । कोऽर्थः ? प्रवचनस्थितिर्जागर्ति तपोवृद्धिोभोति, अतिचारयिशोधनं वर्वति, संशयोच्छेदा जावटीति, मिथ्यावादिभयाद्यभावो भवति । अथ व्युत्सर्गस्वरूपनिरूपणं विधीयतेमार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज बाह्याभ्यन्तरापध्योः ॥ २६॥ बाह्यश्च अभ्यन्तरश्च बाह्याभ्यन्तरी, ता च तो उपधी परिग्रही बाह्याभ्यन्तरोपी तयोर्बाह्याभ्यन्तरोपध्योः । सम्बन्थे षष्ठीद्विवचनम् । तेनायमर्थः–बाह्यस्योपवेरभ्यन्तरस्य चोपघेव्युत्सर्गो म्युत्सर्जनं परित्यागो द्विविधो भवति । वास्तुधनधान्यादिरुपात्तो बाह्योपधिः । १५ कोपादिक आत्मदुष्परिणामोऽभ्यन्तरोपधिः । नियतकालो यावज्जीव वा शरीरत्यागः अभ्यन्तसेपधित्याग उच्यते । महाव्रते धर्म प्रायश्चित्ते अत्र च यद्यप्यनेकय.रान व्युत्सर्ग उक्तस्तथापि न पुनरुक्तदोषः', काचन् पुरुषस्य क्वचित् त्यागशक्तिरिति पुरुषशल्यपेक्षयाऽनेकत्र' भणनमुत्तरीत्तरोत्साहात्यागार्थ वा नेकत्र भणनं न दोषाय भवति । तस्य व्युत्सर्गस्य. कि फलम् ? निःसङ्गत्यं निर्भयत्वं जीविताशानिरासो दोषोच्छेदनं मोक्षमार्गभावनापरत्व- २० मित्यादि । अथ ध्यानं बहुवक्तव्यमिति यदुक्तं तस्य स्वरूपनिरूपणार्थ प्रबन्धो रच्यते। तत्र वायद ध्यानस्य प्रयोक्ता ध्यानस्वरूपं ध्यानकार्लानर्धारणं तत्त्रयं मनसि कृत्या सूत्रमिदमाहुराचार्या: उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधी ध्यानमान्तर्मुहुर्तात् ॥२७॥ २५ उत्तमसंहनन वर्षभवत्रनारत्ननाराचलक्षणं यस्य स उत्तमसंहननातस्योप्समसंहननस्पेत्यनेन भ्यानस्य कर्ता प्रोक्तः । एवंविधस्य पुरुषस्य ध्यानं भवति । किन्नाम ध्यानम् ? एकाग्र -.-.- . - -.-- .-. १-वक्ता दोषः भा०, ६०, ज० । २ मागे शक्तिः भा०, २०, जा। ३ -नेकशः , 4- T०, ०, ज०१४ धृत्वा भा०, व, ज | ५ ध्यानकर्ता भा०, १०, ज० । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्स्वार्थवृत्ती [९।२८-२९ चिन्तानिरोधः । एकमन मुखमबलम्बनं द्रव्यं पर्यायः तदुभयं स्थूल सूक्ष्म वा यस्य स एकामः एकामस्य चिन्तानिरोधः आत्मार्थ परित्यज्यापरचिन्तानिपेध एकाग्रचिन्तानिरोधे ध्यानमुच्यते । नानार्थायलम्बनेन चिन्ता परिस्पन्दवती भति सा चिन्ता ध्यान नोच्यते । चिन्ताया अपरसमस्तमुखेभ्यः समपावलम्बनेभ्यो व्याययं एकस्मिन्नने प्रधानयस्तुनि निधमनं निश्चली५ करणमेकाग्र चिन्तानिरोधात इत्याश्चिातहरिजिल चीनस्वस्य अतिपादितम् । मुहूर्त इति घटिकाद्वयं मुहूर्तस्यान्तमध्ये अन्तर्मुहूर्तः । आ मर्यादीकृत्यान्तर्मुहतात । एतावानेष कालो ध्यानस्य भवतीत्यनेन ध्यानकालनिर्धारणं चिहितम् । एकाग्रचिन्ताया दुधरत्वादन्तमुहूर्तात् परतः एकाग्रचिन्तानिरोधो न भवति । चपलापि चिन्ता यद्यन्तर्मुहन स्थिरा भर्थात तदा अच लत्वेन ज्वलन्ती सा 'सर्वकर्मविध्वंसं करोति । चिन्ताया निरोधः खलु ध्यानं भवद्भिरक्त १० निरोधस्तु अभाव अच्यते तेन एकाग्रचिन्तानिरोध एकाग्रचिन्ताया अभावी यदि ध्यानं भवति तहि ध्यानमसदविद्यमानं स्यात् अबालबालेयथावत् । युक्तमुक्कं भवता-अन्यचिन्तानिवृत्त्यपेक्षया असत् स्वविषयाकारप्रवृत्त्यपेक्षाया सस् , अभावस्य भावान्तरल्यान्। अथवा निरोधन निरोधः इत्ययं शब्दो भावे न भवति । किन्तर्हि भवति ? कर्मणि भवति । तत्कथम् ? निरुभ्यत इति निराधः “अकरि च कारके संज्ञायाम्" [ ] इति बचनात् कर्मणि घञ् १५ प्रत्ययः । तेनायमर्थः-चिन्ता चासो निरोधश्च चिन्तानिरोधः एकाग्रचिन्तानिश्चलत्यमित्यर्थः । अत्रायं भायः- अपरिस्पन्दमानं ज्ञानमेव ध्यानमुच्यते ! किंवत् ? अपरिस्पन्दमानाग्निज्वालावन् । यथा अपरिस्पन्दमानाग्निज्वाला शिस्वा इत्युच्यते तथा अपरिस्पन्दे नावभासमान ज्ञानमेष ध्यानमिति वात्सर्यार्थः । अत्र त्रिपूतमसंहननेषु आद्यसंहनने व मोमो भवति अपरसंहनन द्वयेन तु ध्यानं भवत्येव परं मुक्किन भवति । २० अथ ध्यानस्य भेदा उच्यन्ते आर्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि ॥ २८ ॥ दुःखम् अर्दनमति वा ऋतमुच्यते, ऋते दुःख भवमार्तम् । रुद्रा ऋराशयः प्राणी, रुद्रस्य कर्म रौद्र रुद्रे वा भवं रौद्रम् । धर्मो वस्तुस्वरूपम्, धर्मादनपेतं धर्म्यम् । मलरहित जीवपरि णामोद्भवं शुचिगुणयोगाछुलम् । आर्तश्च रौद्रश्च धर्म्य शुक्लल आर्तरौद्रधHशुक्लानि, २५ एतानि चत्वारि ध्यानानि भवन्ति । एतच्चतुर्विधमपि ध्यानं सङ्कथ्य द्विविधं भवति-प्रशस्ताऽप्र शस्तभेदात् । पापात्रबहेतुत्वादप्रशस्तमातरोद्वयम् । कर्ममलकलङ्कनिर्दहनसमर्थं धर्यशुङद्वयं प्रशम्तम् । अथ प्रशस्तस्य स्वरूपमुच्यते परे मोक्षहेतू ।। २६ ॥ परे धHशुक्ले द्वे ध्याने मोक्षहेतू मोक्षस्य परमनिर्याणस्य हेतू कारणे मोक्षहेतू १ सर्व कर्म- भा०, दा, ज. । २ स्वरूपं निरूप्यते ..ज। *श्यते द० । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९:३०-३३] नवमोऽध्यायः ३८७ भवतः । तत्र धर्म्य ध्यानं पारम्पर्येण मोक्षस्य हेतुस्तद् गौणतया मोक्षकारणमुपञ्चर्यते, शुन्यानन्तु साक्षात् तद्भवे मोक्षकारणमुपशमश्रेण्यापेक्षया तु तृतीये भरे मोक्षदायकम् । यदि परे धर्म्य शुक्लध्याने मोझहेतू वर्तेतै तर्हि आतरौद्रे द्वे ध्याने संसारस्य हेतू भवत इति अर्थापत्यैव ज्ञायते तृतीयस्य साध्यस्याभावात् । अथार्तध्यानस्वरूपमाह-- आर्तममनोज्ञस्य सम्प्रयोगे तदिप्रयोगाय स्मृतिसमन्याहारः ॥३०॥ न 'मनो जानातीति अममार्शमाप्रय वस्तुचर्यनिर्मचानिसमचतमै कुराहसतरूपदुर्गग्धशरीरदौर्भाग्यादिसहिनं कलत्रादिकं त्रासाद्युत्पादकमुद्वेगजननश्च शत्रुसोदिकच, अचेतनं परप्रयुक्तं शस्त्रादिकं विपकण्टकादिकञ्च बाधाविधानहेतुत्वात् । एतस्य सम्प्रयोगे सम्बन्ध संयोगे सति तद्विप्रयोगाय तस्यामनोजस्य विप्रयोगाय विनाशार्थ स्मृतिसमन्याहारः स्मृतेचिन्तायाः १० समन्याहारः अपराभ्यानरहितत्वेन पुनः पुनश्चिन्तने प्रवर्तन स्मृतिसमन्याहारः । कथमेतस्य मत्तो विनाशो भविष्यतीति चिन्ताप्रबन्ध इत्यर्थः । अथ द्वितीयस्यातस्य लक्षणमाङ्-- विपरीतं मनोज्ञस्य ।। ३१ ॥ मनो जानाति चित्ताय रोचते मनोझं तस्य मनोज्ञस्य "प्रियस्य वस्तुनोऽर्थकथनं विपरी- १५ तं पूर्वोक्तादर्थाद्' विपरीत-चिन्तनं विपर्यस्ताध्यानं द्वितीयमातं भवति । किन्तद् विपरीतम् ? मनोज्ञस्य ४ इष्टस्य निजपुत्रकलवस्त्रापतेयादेधिप्रयोगे वियोगे सति तत्संयोगाय स्मृतिसमन्वाहारो "विकल्पश्चिन्ताप्रबन्ध इष्टसंयोगापरनामकं द्वितीयमार्तध्यानं वेदितव्यम्। अथ तृतीयाध्यानलक्षणमाह वेदनायाच ॥३२॥ अत्र चकारः परस्परसमुच्चये वर्तते । तेनायमर्थः न केवल मनोज्ञस्य विपरीतं वेदनायाश्च विपरीतम् । वेदनायाः कस्माद् विपरीतम् ? मनोज्ञात् । तेनायमर्थ:-वेदनाया दुःखस्य सम्प्रयोगे सति तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमम्बाहारस्मृतीयमातं भवसि । वेदनया पीडितस्याऽस्थिरचित्तस्य परित्यक्तधीरत्वस्य वेदना संनिधाने सति कथमेतस्याः वेदनायाः विनाशो भविष्यतीति वेदनावियोगाय पुनः पुनश्चिन्तनमङ्गविक्षेपणमाक्रन्दनं वाष्पजलविमोचनं पापोऽयं रोगो २५ मामतीव बाधते कदाय रोगो "विनाट्यतोति स्मृतिसमन्याहारस्तृतीयमा ध्यानं भवतीत्यर्थः । अथ चतुर्थस्यातध्यानस्य लक्षणं निर्दिश्यते निदानन्य ।। ३३ ।। अत्र चकार आतेन सह समुच्चीयते । तेमायमर्थः-म केवलं पूर्वोक्तं प्रकारं तृतीयमार्त १ मा ज्ञातीति ता० । २ प्रियवस्तु- भा०, ६०, ज । ३ -तचित्तचिन्तनम् आ०, १०, ब०१४ इनिज- भा०, ३०,'ज.। ५ विकल्पचि- आम, द०, ज० । ६ संविधाने भा०, २०, १०।विना बनीति मा द०, जय । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.८ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविहिवार्यवृत्ती महाराज [ ९।३४-३५ ध्यानं भवतिं किन्तु निदानश्च चतुर्थमार्तध्यानं भवति, अनागतभोगाकाहालक्षणं निदानमुच्यते इत्यभिप्रायः । अथेतचतुर्विधमप्यातध्यानं कस्योत्पद्यते इति तस्य स्वामित्वसूचनार्थं सूत्रमिदमाहुः नदचिरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥ ३४ ॥ न विरता न व्रतं प्राप्ता अविरताः मिथ्याष्टिसासादनमिश्रासंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थामचतुष्यवर्तिनोऽत्रिरता उत्स्यन्ते । देशबिरताः संयतासंयताः, श्रारका इत्यर्थः । प्रमत्तसंयताचारित्राऽनुष्टाधिनः पञ्चदशप्रमादसहिता महामुनय उच्यन्ते । अविरताश्च देशविरताश्च प्रमत्तसंयताश्च अविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतास्तेषामविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानां तत्पूर्वोक्तमात ध्यानं भवति । तत्र आन्दगुणस्थानपञ्चकवर्तिनां चतुर्विधमप्यात सञ्जायते असंयमपरिणाम१८ सहितस्त्रात् । प्रमत्तसंयतानां तु चतुर्विधमप्यार्तध्यानं भवति अन्यत्र निदानात् । देशविरतस्यापि निदानं न स्यात् सशल्यस्य अतित्याघटनात् । अथवा स्वल्पनिदानशल्येनाणुवतित्वाविरोधाद् देशबिरतस्य चतुर्विधमन्यात सान्छत एव । प्रमत्तसंयतानां त्वातंत्रयं प्रमादस्योदयाधिक्यात् कदाचिन् सम्भवति । अथ रौद्रध्यानस्य लक्षणं स्वामित्वं चक्रेनैव सूत्रेण सूचयितुं सूत्रमिदमाहुःहिंसाऽनृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरसदेश विरतयाः ॥ ३५ । हिंसा च प्राणातिपातः अनृतश्चाऽसत्यभाषणं स्तेयश्च परद्रव्यापहरणं विषयसंरक्षणच इन्द्रियार्थभोगोपभोगसम्यकप्रतिपालनयत्न करणं हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणानि तेभ्यः हिंसानृत स्तेयविपनसंरक्षणेभ्यः । पञ्चमीबहुवचनमेतत् । एतेभ्यश्चतुभ्यो रौद्र रौद्रध्यानं समुत्पद्यते इति २० वाक्यशेषः । तद् रौद्रध्यानं हिंसामृतस्तेविषयसंरक्षणस्मृतिसमन्वाहारलक्षणमविरतदेशावर तयोर्भवति पञ्चगुणस्थानस्वामिक्रमित्यर्थः। ननु अविरतस्य रौद्रध्यानं जाघटीत्येव देशविरतस्य तत्कथं सङ्गच्छते ? साधूक्तं भवता; य एकदेशेन विरतस्तस्य कदाचित् प्राणातिपातायभिप्रायान् धनादिसंरक्षणत्वाच्च कथं न घटसे परमयन्तु विशेषः-देशसंयतस्य रौद्रमुत्पद्यते एव परं नरकादिगतिकारणं तन्न भवति सम्यक्तवरत्नमण्डितत्वात् । तदुक्तम् "सम्यग्दर्शनशुद्धाः नारकतिर्यङ्नपुंसकस्त्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुदेरिद्रताश्च व्रजन्ति नाप्यव्रतिकाः॥" [ रत्नक० श्लो० ३५] । प्रमप्तसंयतस्य तु रौद्रध्यानं न भवत्येव रौद्रध्यानारम्भे असंयमस्य सद्भावात् । 'अधाय मोक्षकारणधर्म्यध्यानप्रकारलक्षणस्वामित्वादिनिर्देष्टुकामस्तत्प्रकारनिरूपणार्थ' सूत्रमिदमाह १ तु तदातंत्रयम् ता० । २ असंयतस्य तद्भावात् आ., ६०, ज०। ३ अथाद्य मोक्षकारण धHध्यानलक्षणं स्वामित्वगिदमाहुः आ०, द., जा । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९।३६ ] नवमोऽध्यायः ३०९ आज्ञापायविपाकसंस्थान विश्वमार्यम् पार्या सुविधिसागर जी महाराज आज्ञाच अपायश्च विपाकश्च संस्थानच आज्ञा पायविपाकसंस्थानानि तेपां विचयन विचय आज्ञापायविपाक संस्थानयि चयस्तस्मै आज्ञापायविपाकसंस्थानविघयाय धर्म्यध्यानं भवति । किन्तद् धर्म्यध्यानम् ? स्मृतिसमन्वाद्दार : - चिन्ता प्रबन्धः । किमर्थं चिन्ताप्रयन्त्रः ? आज्ञाविपाकाय आज्ञाविचयाय आज्ञाविवेकाय आज्ञाविचारणायें । तथा अपायविजयाय ५ स्मृतिसमन्वाहारः धर्म्मध्यानं भवति । तथा विपाक विघयाय स्मृतिसमन्वाहारो ध्यानं भवति । तथा संस्थानविचयाय स्मृतिसमन्वाहारो धर्म्मध्यानं भवति । कोऽसौ आज्ञाविचयः ? यथावदुपदेष्टुः पुरुषस्याभावे सति आत्मनश्च कर्मोदयान्मन्दबुद्धित्वे सति पदार्थानामतिसूक्ष्मत्वे सति हेतुदृष्टान्तानाञ्च उपर मे सति य आसन्नभव्यः सर्वज्ञप्रणीतं शास्त्रं प्रमाणीकृत्य सूक्ष्मवरत्वधं मन्यते अयं वरत्वर्थ इत्थ- १० मे वर्तते । इत्थं कथम् ? यादृशमर्थ जैनागमः कथयति सोऽर्थस्तादृश एवान्यथा न भवति " नान्यथावादिनो जिना:" [ ] इति वचनात् । अतिगह नपदार्थश्रद्धानेनार्यावधारणमाज्ञाविषय 'उच्यते । अथवा स्वयमेव विज्ञातवस्तुतत्त्वो विद्वान् तद्वस्तुतत्त्वं प्रतिपादयितुमिच्छुर्निजसिद्धान्ताऽविरोधेन तत्त्वस्य समर्थनार्थ तर्कनयप्रमाणयोज नपरः सन् स्मृतिसमन्त्राहारं विदधाति चिन्ताप्रबन्धं करोति | किमर्थं स्मृतिसमन्वाहारं करोति ? १५ सर्वक्षवीतरागस्याचा प्रकाशनार्थम् । सर्वज्ञवीतरागप्रणीततत्त्वार्थ प्रकटनार्थं स पुमान् आज्ञाविचयलक्षणं धर्म्यं ध्यानं प्राप्नोति । १ । मिथ्यादृष्टयो जन्मान्धसदृशाः सर्वज्ञवीतरागप्रणीतसन्मार्गपराङ्मुखाः सन्तो मोक्षमाकाङ्क्षन्ति तस्य तु मार्ग न सम्यक् परिजानते तं मार्गमतिदूरं परिहरन्तीति सम्मागविनाशचिन्तनमपायविंचय उच्यते । अथवा मिथ्यादर्शनमिथ्याज्ञानमिथ्याचारित्राणामपायो विनाशः कथमभीषां प्राणिनां भविष्यतीति स्मृतिसमन्वाहा- २० रोऽपायविषयो भण्यते । २ । ज्ञानावरणाद्यष्टककर्मणां द्रव्यक्षेत्रकालभवभावहेतुकं फलानुभवनं यज्जीवः चिन्तयति स विपाकविधयः समुत्पद्यते । ३ । त्रिभुवन संस्थानस्वरूपविचाय स्मृतिसमन्वाहारो संस्थानविचयो निगद्यते । ननु धर्म्यादनपेतं धर्म्यमिति भद्भरुक्तं तत्कोऽसौ धर्मो यस्मादनपेतं धर्म्यमुच्यते इति चेन ? उच्यते - उत्तमक्ष मामाई बार्ज व सत्यशौचसंयम तपस्त्यागाश्विन्यब्रह्मचर्य दशलक्षणो २५ धर्मः । निजशुद्धबुद्धैकस्वभावात्मभावनालक्षणश्च धर्मः । अगार्यनगरचारित्र धर्मः । सूक्ष्मवादर दिप्राणिनां रक्षणञ्च धर्मः । तदुक्तम "धम्मो वत्सहावी खमादिभावो य दसविहो धम्मो । चारितं खलु धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥" [कत्ति० अ०गा० ४७६ ] तस्मादुक्तलक्षणाद्धर्मादनपेत्तम परियुतं ध्यानं धर्म्यमुच्यते । ईम्बिधं चतुर्विधमपि ३० १ - यमुच्यते आ०, ३० ज० | Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवृत्ती [९।३०-४० धर्म्यमप्रमत्तसंयतस्य साक्षाद् भवति अविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्तसंयतानां तु गाणवृत्त्या धर्नाभ्यानं वेदितव्यमिति । अथ शुक्लध्यानमपि चतुर्विध भति । नन्न प्रथमशुलध्यानद्रयस्य तापत् स्वामित्रमुच्यते ___शुक्ले चाधे पूर्व विदः ॥ ३७ ।। शुक्लव्यानं । खलु चतुर्विधमने वक्ष्यति । तन्मध्ये आये द्वे शुढे शुक्लध्याने पृथक्त्वविनर्कबिचारे कस्ववितर्कविचारसंक्षे पूर्याबदः सकलश्रुतज्ञानिनो भवतः श्रुतकेयलिनः सजायेते इत्यर्थः । चकारात धर्म्यध्यानमपि भवति । "व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति नहि सन्देहादलक्षणम्" [ ] इति वचनात् श्रेण्यारोहणात् पूर्व धयं ध्यानं भवति । १० श्रेण्योस्तु द्वे शुक्साभवतस्तेमासलश्रुतिहास्थिघियाजाळू महायजध्यानं योजनीयम् । अपूर्वकरणेऽनिवृत्तिकरणे सूक्ष्मसाम्पराये उपशान्तकषाये चेति गुणस्थानचतुष्टये पृथक्त्वधितर्कविचार नाम प्रश्रम शुक्लध्यानं भवति । क्षीणकधायगुणस्थानेषु एकत्ववितर्कविचारं भवति । अथापरशुक्लध्यानद्यं कस्य भवतीति प्रश्ने सूत्रमिदमाहुः पर केवलिनः ।। ३८ ।। १५ परे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्यपरतक्रियानिवतिनाम्नी ट्रे शुक्रध्याने केयलिनः प्रक्षीणसमस्त ज्ञानावृतेः सयोगकेवलिनोऽयोगबलिनश्चानुक्रमेण ज्ञातव्यम् । कोसावनुक्रमः ? सूक्रियाप्रतिपाति सयोगस्य व्युपरतक्रियानिति अयोगस्य । अथ येषां स्वामिनः प्रोक्तास्तेषां भेद रिज्ञानार्थ सूत्रमिदमाहुःपृथक्त्यैकत्ववितकमूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिथ्यपरतक्रियानियःनि ॥३६॥ चितर्कशब्दः प्रत्येकं प्रयुज्यते तेनाय विग्रहः-पृथक्त्ववितर्कश्च एकल्बवितर्कश्च पृथक्वेकत्यषितके ते च सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति च ब्युपरतक्रियानिवर्ति च पृथक्त्वकत्ववितर्कसूक्ष्मकियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिधर्तीनि । सूक्ष्मक्रियापादविहरणात्मकक्रियारहिता पद्मासनेनैव गमन तस्या अप्रतिपातोऽविनाशो वर्तते यस्मिन् शुक्लध्याने तत्सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति । ज्युपरता विनष्टा सूक्ष्मापि क्रिया व्युपरतक्रिया तस्यां सत्यामतिशयेन वर्तते इत्येवं शीलं यच्छुक्ल यानं तद्२५ व्यपरतक्रियानिवति । एतानि चत्वारि शुक्लध्यानानि भवन्ति । एतेषां चतुणी शुक्ध्यानामां प्रतिनियतयोगावलम्बनत्वपरिज्ञानार्थ सूत्रमिदमाहुः स्वामिन: व्यंकयोगकाययोगायोगानाम् ।। ४०॥ योगशब्दः प्रत्येक प्रयुज्यते । तेनायं विग्रहः-त्रयः कायवाङ्मनःकर्मलक्षणा योगा ३., यम्य स त्रियोगः । त्रिपु योगेषु मध्ये एकः कोऽपि योगो यस्य स एकयोगः । कायस्य योगो १ .. याचन- आ..द, ज० । २ विद्यते ता०।१ सत्यो त्यतिशयेन ता., ६०,० Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९।४१-४३] नवमोऽध्यायः यस्य स काययोगः । न विद्यते योगो यस्य स अयोगः । त्रियोगश्च एकयोगश्च त्र्येकयोगी तौ च काययोगश्चायोगश्च त्र्येकयोगकाययोगायोगास्तेषां त्र्येकयोगकाययोगायोगानाम् । आयायमर्थः-पृथक्त्ववितर्क त्रियोगस्य भवति । मनोवचनकायानामवष्टम्भेनात्मप्रदेशपरिस्पन्दनम् आत्मप्रदेशचलनम् । ईग्विधं पृथस्ववितर्कमाद्यं शुक्लध्यानं भवतीत्यर्थः । एकत्ववितर्क शुक्लध्यानं त्रिषु योगेषु मध्ये मनोवचनकायानां मध्येऽन्यतमावलम्बनेनात्मप्रदेशपरि- ५ सन्दनमात्मप्रदेशचलनं द्वितीयमेकत्ववितर्क शुक्लध्यानं भवति । सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति काययोगायलम्बनेनात्मप्रदेशपरिस्पन्दनमात्मप्रदेशचलनं नृतीयं शुक्ल यानं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति भवति । व्युपरतक्रियानिवर्निशुक्ल यानेनकमपि योगमवलम्ब्य आत्मप्रदेशपरिस्पन्दनमा त्मप्रदेशचलनंनभवति. मार्गदर्शक:- आचार्यश्री सुविहिसागर जी महाराज अथ चतुर्छ शैलथ्याने' मध्ये पृथक्तवचितके कत्वक्तिक योशिषपरिज्ञानार्थ सूत्रमिदमाहुः-- एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥ ४१ ।। पूर्व द्वे ध्याने प्रवक्त्वयितर्कमेकत्ववितर्कश्च । एते द्वे ध्याने कथम्भूते ? एकाश्रये । एकोऽद्वितीयः परिप्राप्तसकलश्रुतमानपरिसमाप्तिः पुमानाश्रयो ग्योरते एकाश्रये । एते द्वे ध्याने परिपूर्णश्रुतज्ञानेन पुंसा आरभ्येते इत्यर्थः । पुनरपि कथम्भूते पूर्वे द्वे ध्याने ? सवितर्कवीचा- १५ रे । वितर्कश्च वीचार विसर्कवीचारो यितकंबीचाराभ्यां सह वर्तेते सवितर्कवीचारे पृथक्तवमपि वितर्कसहितमेकत्वमपि वितर्कसहितम् । तथा पृथक्त्वमपि वीधारसहितमेकत्यमपि वीचारसहितमिति तावनेन सूत्रेण स्थापितम् । तेन पृथक्त्ववितर्कवीचारं प्रथमं शुकुमेकत्ववितर्कवीचार द्वितीयं शुक्वमित्येयं भवति । अर्थकत्यवितर्कवीचार यो सौ चीचारशन्द्र स्थापितः सन सिद्धान्ताभिमतस्तनिषेधार्थ २० सिंहावलोकनन्यायेन भगवान सूत्रमिदं ब्रवीति __अवीचारं द्वितीयम् ॥ ४२॥ न विद्यते बीचार। यस्मिन् तदवीचा द्वितीयमेकस्यक्तिर्कमित्यर्थः । तेन आy शुक्लध्यानं सचितर्क सवीचारग्न स्यात् द्वितीय शुक्लध्यानं सवितर्कमवीचारं भवेत् तेनाद्यं पृथक्त्ववितकंबीचारं द्वितीयन्तु एकत्ववितर्कावीचारमित्युभेऽपि भ्यानेऽन्यर्थसंज्ञे वेदितव्ये । अथान्यर्थसंज्ञाप्रतिपत्त्यर्थ मूत्रमिदमुच्यते-- वितर्कः श्रुतम् ॥ ४३ ॥ विशेषेण विशिष्टं या तर्कणं सम्यगृहनं वितर्कः श्रुतं श्रुतज्ञानम् । वितकं इति कोऽर्थः ? श्रुतज्ञानमित्यर्थः। प्रथमं शुक्लभ्यानं द्वितीयं शुक्नु यानं श्रुत ज्ञानबलेन ध्यायते इत्यर्थः । १ -ज्ञापनार्थम् आर. दरु, जस। २ ज्ञानेन १०. दर, जः । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ तत्वार्थवृत्तो अथ श्रीचारशब्देन किं लभ्यते इति प्रश्ने सूत्रमिदमाहुः -- [ ९।४४ बॉचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसङ्क्रान्तिः ॥ ४४ ॥ नयोगसातिः अर्थच व्यजनच योगश्च अर्थव्यञ्जनयोगास्तेषां सङ्क्रान्तिः अर्थ वीचारो भवतीति तात्पर्यम् । अर्थो ध्येयो ध्यानीयों ध्यातव्यः पदार्थः द्रव्यं पर्यायो वा । ५ व्यञ्जनं वचनं शब्द इति यावत् | योगः कायवाङ्मनः कर्मसङ्क्रान्तिः परिवर्तनम् । तेनायमर्थ:द्रव्यं ध्यायति द्रव्यं त्यक्त्वा पर्यायं ध्यायति पर्याय परिहत्य पुनर्द्रव्यं ध्यायति इत्येवं पुनः पुनः कमणमर्थ सङकान्तिरुच्यते । तथा श्रुतज्ञानशब्दमवलम्ब्य अन्यं श्रुतज्ञानशवदमवलम्बले, तमपि परिहृत्य अपरं श्रुतज्ञानच चनमाश्रयति एवं पुनः पुनस्यजन्नाश्रयमाणश्च व्यञ्जनस क्रान्ति लभते । तथा काययोगं मुक्त्वा बाग्योगं मनोयोगं वा आश्रयति तमपि विमुच्य काययोग१० भागच्छति एवं पुनः पुनः कुर्वन योगसङ्क्रान्ति प्राप्नोति । अर्थव्यञ्जनयोगानां सङ्क्रान्तिः परिवर्तन वीचारः कथ्यते । नन्वेवंविधायां सङ्क्रान्ती सत्यामन त्रस्थानहेतुत्वाद् ध्यानं कथं घटते ? साधूक्तं भवता; ध्यानसन्तानोऽपि ध्यान भवत्यैव त्वादयश्वः मन्यसन्तानः पर्यायः शब्दस्य शब्दान्तरं सन्तानः, योगस्य योगान्तरश्च सन्तानस्तद्ध्यानमेव भवतीति नास्ति दोषः । तस्मात्कारणात् सङ्क्रान्तिलक्षणवीचार दपर विशेपकथितं चतुःप्रकारं धर्म्य ध्यानं शुक्लख १५ ध्यानं संसारविच्छित्तिनिमित्तं चतुर्दशपूर्थं प्रोक्त गुप्तिसमितिदशलक्षणधर्म द्वादशानुप्रेक्षाद्वावि : जी.. शतिपरीषद् जयचारित्र लक्षण बहुविधोपायं मुनिर्ध्यातुं योग्यो भवति । गुप्यादिषु कृतपरिकर्मा बिहिताभ्यासः सन् परद्रव्यपरमाणुं द्रव्यस्य सूक्ष्मत्वं भावपरमाणु पर्यायस्य सूक्ष्मत्वं वा ध्यायन् सन् समारोपितवितर्क सामर्थ्यः सन्नर्थव्यञ्जने कायवचसी च पृथत वेन सङ्क्रमता मनसा असमर्धशिशूयमवत् प्रौढार्भकयद्व्यवस्थितेन अतीक्ष्णेन कुठारादिना शस्त्रेण चिराद् वृक्ष २० छिन्दनि मोहप्रकृती रुपशमयन् क्षपयंश्च मुनिः पृथक्तत्ववितर्कत्रीचारध्यानं भजते । स एव पृथक्चचवितर्कचीचारध्यानभाक् मुनिः समूलमूलं माहनीयं कर्म निर्दिधक्षन् मोहकारणभूतसूक्ष्मलोभेन सह निर्दग्धुमिच्छन् भस्मसात्कर्तुकामोऽनन्तगुणविशुद्धिकं योगविशेषं समाश्रित्य प्रचुरतराणां ज्ञानावरणसहकारिभूतानां प्रकृतीनां बन्धनिरोधस्थितिहासौ च विदधन् सन् श्रुतज्ञानोपयोगः सन् परितार्थव्यञ्जनसङ्क्रान्तिः सन्नप्रचलित चेताः क्षीणकपायगुणस्थाने २५ स्थितः सन् बालवायजमणिरिव निष्कलङ्कः सन् वैदूर्यरन्नमित्र निरुपलेपः सन् पुनरधस्तादनिवर्तमान एकत्ववितर्कवीचारं ध्यानं ध्यात्वा निर्दग्धघातिकर्मन्नो जाज्वल्यमान केवलज्ञानकिरणमण्डलः सन् मेघपटलविघटना बभूतो देवः सविता इव प्रकाशमानो भगवांस्तीर्थकरपरमदेवः सामान्यानगार केवली वा गणधर 'बर केबली वां त्रिभुचल पतीनामभिगम्य पूजनीयश्व सञ्जायमानः प्रकर्षेण देशोनां पूर्वकोटीं भूमण्डले बिहरति । स भगवान् यदा अन्तर्मुहूर्त शेषा १क्रममर्थ - ० | २ पुनस्त्यजनादाश्रयणाच्च १०, ६० ज० । ३ विस्मृता । ४५ भूमी वेव आर ज० । भूमों केवः १० ६ घरचरकवली ता० । घरदे वके- दुः । ७ सत्र जयमानः ताः । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ९/४५] नवमोऽध्यायः पुर्भवति अन्तमुहर्त स्थितिवेद्यनामगोत्रश्च भवति तदा विश्व वाग्योग मनायोगं बादरकाययोगश्च परिहस्य सूक्ष्मकाययोगे स्थित्या सूहमक्रियाप्रतिपातिध्यानं समाश्रयति । यदा त्यन्सर्मुहूर्तशेषायु:स्थितिः ततोऽधिकस्थिप्तिवेद्यनामगोत्रकर्मयो भवति तदात्मोपयोगातिशयव्यापारविशेषो स्थाच्या चारित्रसहायो महासंवरसहितः शीघ्रतरकर्मपरिपाचनपरः सर्वकर्मरजः समुदायनसामयस्वभावः दण्डकपाटप्रतरलोकपूरणानि निजात्मप्रदेशप्रसरणलक्षणानि चतुर्भिः समयः ५ करोति तथैव चतुर्भिः समयः समुपहति ततः समानविहितस्थित्यायुर्वेदनामगोत्रकर्मचतुष्कः पूर्वशरीरप्रमाणो भूत्वा सूक्ष्मकाययोगावलम्बनेन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानं ध्यायति । तदनन्तरं प्युपरक्रियानिवर्तिनामधेयं समुच्छिन्नक्रियानिवृश्यपरमामकं ध्यानमारभते । समुच्छिन्न: प्रामापासप्रचारः सर्वकायघाइमनोयोगसर्वप्रदेशपरिस्पन्दक्रियाव्यापारश्च यस्मिन् तत् समुच्छि. प्रक्रियानिति ध्यानमुच्यते । तस्मिन् समुच्छिन्नक्रियानिवर्तिनि ध्याने सर्वास्रबन्धनिरोधं ५० करोति, सर्वशेषकर्मचतुष्टयविध्वंसनं विदधाति, परिपूर्ण यथाख्यातचारित्रज्ञानदर्शनश्च भवति, सर्वसंसारदुःखसंश्लेपविच्छेदन जनर्यात । स भगवान अयोगिकेवली तस्मिन् काले ध्यानाग्निनिईग्धकर्मम लकलकबन्धनः सन् दूरीकृतकिट्टधातुपाषाणसातजातरूपसदृशः परिप्राप्तात्मस्वहपः परमनिर्वाणं गॅच्छति । अत्र अन्त्यशुक्लण्यामद्ये यद्यपि चिन्तामिरोधो नास्ति तथापि म्यानहरोतीत्युपचर्यते । कस्मात् ? ध्यानकृत्यस्य योगापहारस्याऽघातिघातस्योपचारनिमित्तस्य । सद्भावात् । यस्मात् साक्षात्कृतसमस्तवस्तुस्वरूपेऽई ति भगवति न फिश्विद् ध्येयं स्मृतिविषयं पसंते । तत्र यदू ध्यानं तत् असमकर्मणां समकरणनिमित्त या चेष्टा कर्मसमत्वे वर्तते तत्क्षयसोम्यसमता लौकिकी या मनीषा तदेव निर्वाणं सुखम् । तत्सुखं मोहक्षयात् , दर्शनं दर्शनायरपाहा आनंशानावरणक्षयात् , अनन्तवीर्यमन्तराग्रक्षयात् , जन्ममरणक्षय आयुःक्षयात् , अमूस्विं नामक्षयात् , नीचोचकुलक्षयो गोत्रक्षयात् , इन्द्रियजानतशुभक्षयो वेवक्षयात् । एकस्मि- २० मिष्टे यस्तुनि स्थिरा मतिर्ध्यानं कथ्यते । आर्तरौद्रधोपेक्षया या तु चनला मतिर्भवत्यशुभा शुभा वा प्तचिचं कथ्यते भावना का कथ्यते अनेकन ययुक्ता अनुप्रेक्षा वा कथ्यते चिन्तनं वा कथ्यते श्रुतज्ञानपदालोचनं बा कथ्यते ख्यापनं वा कथ्यते । इत्येवं प्रिकारं तपो नूनकर्मादीइनबा (कर्मास्त्रत्र ) निषेधकारणं यतस्तेन संवरकारणं पूर्वकर्मधूलिविधूननं यतस्तेन निर्जराभरण पञ्चविंशतिसूत्रे व्याख्यातं वेदितव्यम् ।। अप सर्षे सत्दृष्टयः किं समाननिर्जरा भवन्ति उतश्विदस्ति तेषां निर्जराविशेष इति प्रश्ने सूत्रमिदमा:सम्पदृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिना कमशोऽसंख्ये यगुणनिर्जराः ॥ ४५ ॥ १-समुदयेन साम- बा०, ९०, ज०।२-मलबन्ध- मा०,२०, ज०।३ सजात उत्पन्न रूपमशः भा०. २०, जः । ४ संगच्छति भा०, ६०, ज.। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवृत्त ९ / ४६ सम्यग्दृष्टिश्च श्रावकञ्च विरतश्चाऽनन्त वियोजक व दर्शनमोह पकश्व उपशमकश्च उपशान्तमाहत्र क्षपकच क्षणमा हय जिनञ्च सम्यष्टिश्रावकविताऽनन्तभियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशम कोपशान्तमोक्षपकक्षीणमोहजिना: । एते दशविधपुरुषा अनुक्रमेणासंख्येयगुणनिर्जरा भवन्ति । तथाहि-- एकेन्द्रियेषु त्रिकलत्रये च प्रचुरतरकालं भ्रान्त्या प ५न्द्रियत्वे सति कालादिलब्धि सञ्जनितत्रिशुद्धपरिणामक्र मेगापूर्वकरणपङ्क्तयां 'रुत्प्लवनमानोऽयं जीवः प्रचुरतरनिर्जरावान् भवति । स एव तु ऑपशमिकसम्यक्तत्वप्राप्तिकारण बैंकये सति सम्यग्दृष्टिः सन्नसस्येयगुणनिर्जरां लभते । स एव तु प्रथमसम्यक्तवचारित्रमोहकर्मभयापहाः श्राचकः सन् तस्माद्सख्यगुणनिर्जरां प्राप्नोति । स एव तु प्रत्याख्यानावरण कपायक्षयोपशम हेतुभूतपरिणाम - १० विशुद्ध विरतः सन् श्रावकादस ल्येयगुणनिजरां विन्दति । स एव त्वनन्तानुबन्धिकषायचतुयस्य या वियोजक वियोजनपरो विघटनपरी भवति तदा प्रकृष्टपरिणामविशुद्धिः सन् विरतादप्यसङ्ख्येयगुणनिर्जरामासादयति । स एव तु दर्शनमोहप्रकृतित्रयशुष्कतृणराशि यदा निर्दग्धुमिच्छन् भवति तदा प्रकृष्परिणामविशुद्धिः सन् दर्शनमोक्षपकनामा नार अनन्तषियोजकाख्येयगुणनिर्जरां प्रपद्यते । एवं स पुमान् क्षायिकसदृष्टिः सन् श्रेप्यारोहणमि४५ च्छन् चारित्रमोहोपशमे प्रवर्तमानः प्रकृष्टविशुद्धिः सन् उपशमकनामा सन् क्षपकनामका दसख्येयगुण निर्जरामभिगच्छति । स एव तु समस्तचारित्रमोहोपशमकारण नैकट्ये सति सम्प्राप्रोपशान्तकपायापरनामकः दर्शन मोक्षपका सख्येयगुनिर्जरां प्रतिपद्यते । स एव तु चारित्रमोहभपणे सम्मुख भवन् प्रवर्द्धमानपरिणामविशुद्धिः सन् क्षपकनाम दधत् उपशान्तमोहादुरशान्तकषाया परनानकादयेयगुण निर्जरामश्नुते । स पुमान् यसिन् काले समग्रचारि२० मोहपरिणामेपु सम्मुखः श्रीणकपाचाभिधानं ग्रहमाणो भवति तदा श्रपकनामका द मुख्यगुणनिर्जरामासीदति । स एवैकत्ववित कोवीचारनामशुक्लध्यानाग्निभस्मसात्कृतघातिकर्मसमूहः सन् जिननामत्रेयो भवन् क्षीणमोहाद सङ्ख्येयगुणनिर्जरामादन्ते । ५५४ अथाग्राह कश्चित् सम्यक्त्वसामध्ये चेदसङ्ख्येयगुणनिर्जरा " भवति परस्परमेयां निर्जरापेक्षया समत्वं न भवति तईि एते विरतादयः किं विरताविरत व निर्मन्थत्यसंज्ञां न २५ लभन्ते ? नेत्रम्: विरतादयों निर्जरागुणभेदेऽपि निर्ग्रन्थसंज्ञा प्राप्नुवन्त्येव । कुतः ? नैगमादिययातेः । तन्निर्ब्रन्धनामस्थापनाद्यर्थ सूत्रमिदमाद्दुः पुलाक' वकुशकुशील निर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः ॥ ४६ ॥ पुलाका कुशाश्च कुशीलाश्च निर्मन्थान स्नातकाश्च पुलाकवकुश कुशील निमथस्नातकाः । एते पश्च प्रकारा निर्मन्थाः ' इत्युच्यन्ते । तत्रोत्तरगुणभावबाधारहिताः कचित् १ 'क' इत्यधिक नर्तते। २ पुमान् । ३ सम्मुखा ता० द० ज० ४ ग्रहयमाणः सा । प्रमाणः ज० । ५ नवन्ति भ० द० ज० । ६ त्रकुश- आ । - ग्रहणः आद ७ क आह े, जं० Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९।४] नवमाऽध्यायः कदाचित् कथञ्चित् प्रतेष्वपि परिपूर्णत्वमलभमाना अविशुद्धपुलाकसदशत्वात् पुलाका सुप्यन्ते । मलिनतण्डुलसमानत्यात पुलाकाः कथ्यन्ते "भक्तसिक्थे च संक्षेपे सारधान्ये पुलाकवाक् ॥" [ ] इति वचनात् । निग्रन्याचे स्थिता अविश्वस्तव्रताः शरीरोपकरणद्धिभूपणयशःसुखविभूत्याकाक्षिणः अधिविक्त मार्गदर्शक परिच्छदशमुमोदीक्षारयुक्खायमेटक्सासजे । अविविक्तशब्देन असंयतः परिच्छदशब्देन । परिवारः अनुमोदनमनुमतिः शवलशन कवुरत्वं तयुक्ता बकुशा इत्यर्थः । शबलपर्यायवावको यकुशशब्दो वेदितव्यः । कुशीला द्विप्रकाराः-प्रतिसेवनाकपायकुशीलभेदात् । तत्र प्रतिसंवनाकुशीला अविविक्तपरिग्रहाः सम्पूर्ण मूलोत्तरगुणाः काचित्कञ्चिदुत्तरगुणानां विराधनं विदधतः प्रतिसेवनाकुशीला भवन्ति । सज्वलनापरकपायोदयरहिताः सज्वलन. कषायमात्रयशवर्तिनः करायकुशीला: प्रतिपायन्ते' । यथा जल लकुटरेना सदो सिलति १० तथा अप्रकटकमंदिया मुहूर्तादुपरि समुत्पन्यमानकेवलज्ञानदर्शन या मिश्रन्थाः कायन्ते । तीर्थंकर केवलीतर केवलीभेदाद् द्विप्रकारा अपि केवलिनः स्नातका उच्यन्ते । चारित्रपरिणामीरकर्षापकर्षभदेऽपि सति नेगमसाहादिनयाधीनतया विश्वेऽपि पञ्चतये निम्रन्थाः कायन्ते जात्याचाराध्ययनादिभेदेऽपि दिजन्मवत् ।। अथ पुलाकादीनां विशेषपरिज्ञानार्थ सूत्रमिदमुच्यतेसंयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिङ्गलेश्योपपादस्थान विकल्पनः माध्याः।। ४७ ॥ अन्तरविराधने सति पुनः रोवना प्रतिसवना, दोपविधानमित्यर्थः । ततः संयमश्च श्रुतश्च प्रतिपेवना च तीर्थश्च लिङ्गश्च लेश्याश्च उपशदश्च स्थानानि च संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिलण्यापपादस्थानानि तेपां विकल्पा भेदाः संयमश्रुतप्रतिसेवनानीर्थ लिङ्गलेश्योपपादस्थान- २० विकल्पाः तेभ्यः ततः पुलाकादयः पवतये महर्षयः संग्रमादिभिरष्टभिर्भेदरन्योन्यभेदेन साध्वा व्यवस्थापनीया व्याख्यातव्या इत्यर्थः । तथाहि-पुलाकबकुशप्रतिसेवनाकुशीला: सामयिकच्छेदापस्थापनानामसंयमद्ये वर्तन्ते । सामचिकच्छेदोपस्थापनापरिहारयिशुद्धिसूक्ष्मसाम्परायनामसंयमचतुष्टये कषायकुशोलाः भवन्ति । निर्मन्थाः स्नातकाश्च यथास्यातसंयमे सन्ति । पुलाकवकुशप्रतिसेवनाकुशीलेषु उत्कर्पणाभिन्नाक्षरदशपूर्वाणि श्रुतं भवति । कोऽर्थः ? १५ अभिन्नाभराणि एकनाप्यक्षरेण अन्यूनानि दशपूर्वाणि भवन्तीत्यर्थः । कषायकुशीला निम्रन्धाश्च चतुर्दशपूर्वाणि श्रुतं धरन्ति । जघन्यतया पुलाक; आचारबस्तुस्वरूपनिरूरक शुनं धरति । वकुशकुशीलनिईन्यास्तु प्रवचनमातृकास्वरूपनिरूपकं श्रुतं निकृष्टत्वेन धरन्ति । प्रवचनमातृका इति कोऽर्थः ? पञ्चसमितयस्तिस्रो गुप्रयश्चेत्यनौ प्रचंचनमातरः कथ्यन्ते । समितिगुप्रिप्रतिपादकमायाम जानन्तीत्यर्थः । १ इत्युच्यन्ते भा०, २०, ज।। २ लगुड- ता० । ३ तीर्थकर- आ०, द०, ज०।४ - जन्मवत् आ०,०, ज । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९४७ मार्गदर्शक :- अंधार्य श्री सुविधिसागर जी महाराजरत्रार्थवृत्ती स्नातकानां केवलज्ञानमेव भवति तेन तेषां श्रुतं न भवति । महाउतलक्षणपञ्चमूल गुणविभावरीभोजनविवजनानां मध्येऽन्यतमं बलात् परोपरोधात्प्रतिसेबमानः पुलाको विराधको भवति । रात्रिभोजनधर्जनस्य विराधकः कथमिति चेत् ? उच्यते-श्रावकार्दानामुपकारोऽनेन भविष्यतीति छात्रादिकं रात्रौ भोजयतीति विराधकः स्यात् । यकुशो द्विप्रकार:उपकरणवकुशशरीरवकुशभेदात् । तत्र नानाविधोपकरणसंस्कारप्रतीकाराकाक्षी उपकरणबकुश उकयते । बपुरभ्यङ्गमर्दनक्षालनविलेपनादिसंस्कारभागी शरीरबकुशः प्रतिपाद्यते । प्रतयारियं प्रतिसेवना । प्रतिसेवनाकुशीलक पायकुशीलयामध्ये यः प्रतिसेवनाकुशीलः स मूलगुणान् न विराधयति उत्तरगुणमन्यतमं विराधयति अस्यैषा प्रतिसेवना। यः कषायकुशीलो निम्रन्थः ‘स्नातकश्च तेषां विराधना काचिन्न वर्तते तेन ते अप्रतिमेवना । सर्येषां तीर्थकर१८ परभदेवानां तीर्थेषु पञ्चप्रकारा अपि निम्रन्था भवन्ति । लिङ्ग द्विप्रकार द्रव्यभावभेदात् । तत्र पञ्चप्रकारा अपि निर्मन्या भावालगिनो भवन्ति लिङ्गन्तु भाज्यम्-व्याख्यानेयमित्यर्थः। तत्किम् ? केचिदसमर्थी महर्पयः शीतकालादो कम्बलशब्दवाच्यं कौशेयादिकं गृहन्ति, न तत् प्रक्षालयन्ति न सीव्यन्ति न प्रवन्नादिक कुर्वन्ति, अपरकाले परिहरन्ति । केचिच्छरीरे उत्पन्नदोषा लज्जितत्यान् तथा कुर्वन्तीति व्याख्यानमाराधनाभगवतीप्रोक्ताभि१५ प्रायेणापवादरूपं ज्ञातव्यम । "उत्सर्गापवादयोरपवादो विधिर्बलवान" [ ] इति उत्सर्गेण तावद् यथोक्त माचेलच्यञ्च प्रोक्तमस्ति । आर्यासमर्थदोषयच्छरीराद पेक्षया अपवादव्याख्याने न दोषः, अमुमेवाधारं गृहीत्वा जैनाभासाः केचित्सचेलत्वं मुनीनां स्थापयन्ति तन्मिथ्या, "साक्षान्मोक्षकारणं निग्रन्थलिङ्गम्" [ ] इति बचनाम् । अपवादव्याख्यानं तूपकरणकृशीलापेक्षया कर्तव्यम् । पीतपद्मशुक्ललक्षणास्तिस्रो लेश्यः २० पुलाकस्य भवन्ति । कृष्णनीलकापातपीतपद्मशुक्ललक्षणाः पाप लेश्याः धकुशप्रतिसेवनाकुशी लयाभवन्ति । ननु कृष्णनीलकापोतलेश्यानयं यकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोः कथं भवनि ? सत्यम् ; तयोरुपकरणासक्तिसम्भवमार्तध्यानं कादाधिक सम्भवति, तत्सम्भवादादिलेश्यावयं सम्भवत्येवेति । मतान्तरम्-परिग्रहसंस्काराकाभायां खयमेवोत्तरगुणविराधनायामार्तसम्भ वादातीविनाभावि च लेश्याषटकम् । पुलाकस्यार्तकारणाभावान्न षट् लेश्याः। किन्तूत्तरास्तिस्त्र२५ एघ ! काप'ततेजःपद्मशुक्ललेश्याचतुष्टयं कषायकुशीलस्य देयं दातव्यं दानीयमिति यावत् । कपायकुशीलस्य या कापोतलेश्या दीयते सापि पूर्वोक्तन्यायेन वेदितव्या तस्याः सज्वलनमात्रान्तरङ्गकपायसद्भावात् परिमहासक्तिमात्रसद्भावात् सूक्ष्मसाम्परायस्य । निर्ग्रन्थस्नातकयोरच निकवला शुक्लब लेश्या वेदितव्या । अयोगिकेवलिनान्तु लेश्या नास्ति । पुलाकस्योत्कृष्टतया उत्कृष्ठस्थितिषु सहस्रारदेवेषु अष्टादशसागरोपमजीवितेषु उपपादो भवति । यकुशप्रतिसेघना३० अशोलयोरारणाच्युतस्वर्ग योविंशतिसागरोपमस्थितिषु देवेषूपपादो भयसि । कषायकु शीलनिन्थियोः सर्वार्थसिद्धी त्रयस्त्रिंशत्सागरोपस्थितिषु देवेषूपपादो भवति । जघन्योपपादो १ स्नातकाच सा० । २ -मचेलक्यश्च पी- आ०, द०,जः । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] नवमोऽध्यायः ३१७ विश्वेषामपि सौधकर्म कल्पे द्विसागरोपमस्थितिषु देवेषु वेदितव्यः । स्नातकस्य परमनिवृत्ती पादः । रथानान्यसङ्ख्ये यानि संयमस्थानानि तानि तु कषायकारणानि भवन्ति कषायवरतमत्वेन भिद्यन्ते इति कषायकारणानि । तत्र सर्वनिकृष्टानि लब्धिस्थानानि इति कोऽर्थः ? संगमस्थानानि पुलाककषायकुशीलयोर्भवन्ति । तौ च समकालमसख्येयानि संयमस्थाज्ञान प्रदतः ततस्तदनन्तरं कषायकुशीलेन सह गच्छन्नपि पुलाको विष्ठिछद्यते नियतं ते ५ इत्वर्थ: । ततः कषायकुशील एकाक्येव असंख्येयानि संयमस्थानानि गच्छति तदनन्तरं मायकुशलप्रति सेवनाकुशीलवकुशाः संयमस्थानानि असङ्ख्येयानि युगपत्सह गच्छन्ति प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । तदनन्तरं वक्कुशो निवर्तते व्युच्छियते इत्यर्थः । ततोऽपि प्रति सेवनाशीलाः संयमस्थान्नान्यसङ्ख्ये यानि जित्त्रा व्युच्छिद्यते निवर्तते इत्यर्थः । ततः कषाय संगमस्थानान्यसङ्ख्येयानि नजित्वा सोऽपि व्युच्छिद्यते । तदुपरि अकषायस्थानानि १० मिथः प्राप्नोति सोऽपि संगमस्थानान्यसख्येयानि गत्वा व्युच्छिद्यते । तदुपरि एक संयमस्थानं स्नातको ब्रजित्वा परमनिर्वाणं लभते स्नातकस्य संयमलब्धिरनन्तगुणा भवतीति सिद्धम् । * इति सूरि श्रीश्रुतसागर विरचितायां तात्पर्यसंज्ञायां तत्त्वार्यवृत्तौ नवमः पादः समाप्तः । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज १ ना० द० । २ 'च' नास्ति १० । ३ ध्वजिला ता० । ४ इत्यत्रविद्याविनोदनोदितप्रमोदनी धूपर सपानावनमति सभाजरत्नराजमति सागरयतिराजराजितार्थमसमर्थेन तर्कव्याकरणछन्दोऽलङ्कारसाहित्यादिशास्त्रनिचितमसिना यतिना श्रीमद्देवेन्द्रकीर्ति भट्टारकमशिष्येण शिष्येण सकलविवज्जन विहितचरणसेवस्य विद्यानन्दिदेवस्य संछर्दितमिध्यामवदुर्गरेण श्रुतसागरेण सूरिणा विरचिताया इलोकवाति' कराजचार्तिक सर्वार्थ सिद्धि न्यायकुमुदचन्द्रोदयप्रमेयकममार्तण्डप्रचण्डष्टसखी प्रमुख ग्रन्थसन्दर्भनिर्भराबलोकन बुद्धि विराजितायां वाटीका नवमोऽध्यायः 1 अ०, द०, ज, 1 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य दशमोध्याय म्हाराज मार्गदर्शक:- आचार्य राज अथेदानी मोक्षस्वरूपं प्रतिपादयितुकामो भगवानुमास्वामी पर्यालोचयनि-मोक्षस्ताश्त् केवलज्ञानप्राप्तिपूर्वको भवति । तस्य केवलझानस्योत्पत्तिकारणं कमिति ? इदमेवेति निर्धार्य सूत्रमिदमाह मोहक्षघाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच केवलम् ।। १ ।। मोहस्य भयो विध्वंसः मोहक्षयस्तस्मान्मोहश्नयात् । आवरणाशब्दः प्रत्येक प्रयुज्यते । तेन ज्ञानावरण दर्शनावरणन ज्ञानदर्शनावरण ते च अन्तरायश्च ज्ञानदर्शनावरणान्तरायास्तेषां क्षयः ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयरतस्मात ज्ञानदर्शनावरणान्तराय क्षयात् । चकारादायुस्विकनामत्रयोद शक्षयाच केवलं केवलज्ञानमु.पद्यते । त्रिपष्टिप्रकृतिक्ष्यात केवल ज्ञानं भवती त्यर्थः । अष्टाविंशतिप्रकृतयो मोहस्य । पञ्च ज्ञानावरण य । नव दर्शनावरणस्य । पञ्च अन्तराय१० स्य । मनुष्यायुर्वर्जमायुस्त्रयः साधारणातपयश्चेन्द्रियरहित चतुर्मातिन कसिनरकगत्यानुपूर्वी स्थावरसूक्ष्मतिर्यगतितिर्यमगत्यानुपूर्योद्योतलश्नणाप्रयोदशनामकर्मणः प्रकृतयश्चेति विषष्टिः । ननु मोहज्ञानदर्शनावरणान्तगयक्षत्रात् केवलमित सिद्धे सूत्रगुरुकरणं किमर्थम् ? वाक्यभेदः कर्मणां भयानुक्रमप्रतिपादनार्थः । कोऽसावनुक्रमः ? मोहक्षयः पूर्वमेव भवति । तदनन्तरं क्षोण कषायगुणस्थाने शानदर्शनावरणान्तरायक्षयो भवति तत्क्षये केवलमुत्पद्यते । मोइक्षयानुक्रम १५ उच्यते-अध्यः प्राणी सम्यग्द्रष्टिीवः परिणामविशुद्धया वर्द्धमानः असंयतसम्यम्ह निदेशसंयल प्रमत्तसंयताऽप्रमत्तसंयतगुग्गस्थानेबन्यतमगुणस्थान अनन्तानुबन्धिकपायचतुष्टयदर्शनमोइ. त्रितयक्षयो भवति । ततः क्षायिकसम्यग्दृष्टिभूत्वा अप्रमत्तगुणस्थाने अथाप्रवृत्तकरणमगीकृत्य अपूर्व करणाभिमुखो भवति । अथाऽप्रवृत्त करणं किम् ? अपूर्व चारित्रम् अथवा अथानन्तरम् अप्रवृत्तकरणं कथ्यते । तदपि किम् ? परिणामविशेषा इत्यर्थः । कीडशास्ते अथा. २० प्रवृत्त करणशब्दवाच्या विशिष्ट्रपरिणामा इति चेत् ? उच्यते-“एकस्मिन्न कस्मिन् समये एकैकजी वस्यासंख्यलोकमा नावच्छिन्नाः परिणामा भवन्ति । तत्राप्रमत्तादिगुणस्थाने पूर्वपूर्णसमये प्रवृत्ता यादृशाः परिणामाम्ताद्दशा एब, अथानन्तरगुत्तरसमयेषु आ समन्तात्प्रवृत्ता विशिष्टचारित्ररूपाः परिणामाः अथाप्रवृत्तकरणशब्दवाच्या भवन्ति । अपूर्वकरणप्रयोगेणापूर्वकरण क्षपक्रगुणस्थाननामा भूत्वा अभिनवशुभाभिसन्धिना भवन्ति । धHशुक्लध्यानाभिप्रायेण २५ कृशीकृतपापप्रकृतिस्थित्यनुभागः सन् संपतिपुण्यकर्मानुभयः सन् अनिवृसिक रणं लब्ध्या, अनिवृत्तिबादरसाम्परायक्षपकगुणस्थानमधिरोहति। सम्राऽप्रत्याख्यानकपायप्रत्याख्यानकषायाष्टक १ किमिदमिदमेवेति प्रा०, द०, ज० । २ -दशकक्ष-ता। ३ अथाऽप्रमत्तक-- भार, द., जः । ४ एकस्मिन् समये आ०, ६०, ज० ।५-मानाछिन्ना ता० । ६ -करणलब्ध्या al - -. .. -. .-.. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ to/२] दशमोऽध्यायः विधायनपुंसक वेदविनाशं कृत्वा स्त्रीवेदं समूलकाषं कषित्वा हास्यरस्यरतिशोकभयजुगुप्सालक्षणं नोकषायपट्कं पुंवेदन अपयित्वा क्रोधसज्ज्वलनं मानसज्वलने मानसज्वलनं मायासज्वलने मायासवनं लोभसम्ज्वलने लोभसज्वलनं क्रमे दरकविभागेन विनाशमानयति । बादरकिट्टिरिति कोऽर्थः ? उपायद्वारेण फलं भुक्त्या निजीर्यमाणमुद्धृतशेषमुपहतशक्तिकं कर्म किट्टिरित्युच्यते आव्यकिट्टिवत् । सा किट्टा ५ भवति-वादर किट्टिस्याको दिति चासुरीकर लोभसज्वलनं इशीकृत्य सूक्ष्मसाम्परायक्षपको भूत्वा निःशेषं मोहनीयं निर्मूल्य क्षीणकपायगुणस्थानं स्फेटियमोहनीयभारः सन्नधिरोहति । तस्य गुणस्थानस्यापान्त्य समयेऽन्त्य समयात् प्रथमसमये चिरमसमये निद्रामच द्वे प्रकृती क्षपयित्वा अन्त्यसमये पश्च ज्ञानावरणानि चत्वारि दर्शनावरणानि पश्च अन्तरायान् अपयति । तदनन्तरं केवलज्ञान केवलदर्शनस्वभावं केवलपर्याय- १० मचिन्त्यविभूतिमाहात्म्यं प्राप्नोति । tr heart कारणं कथयित्वेदानीं मोक्षकारणं मोक्षस्वरूपश्च । चक्षते भगवन्तःबन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोदो मोक्षः ॥ २ ॥ वन्धस्य हेतवो मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगास्तेषामभावो नूत्रकर्मणामप्रवेशी बन्धवभावः पूर्वोपार्जित कर्मणामेकदेशक्षयों निर्जरा । बन्धहेत्वभावश्व निर्जरा च बन्ध- १५ हेत्वभावनिर्जरेताभ्यां बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् । द्वाभ्यां कारणाभ्यां कृत्वा कृत्स्नानां विश्वेषां . कर्मणाम्, विशिष्टम् अन्य जनासाधारणं प्रकृष्टम् एकदेशकर्मक्ष यलक्षणाया निर्जराया उत्कृष्टमा स्यन्तिकं मोक्षर्ण मोक्षः कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्ष उच्यते । पूर्वपदेन मोक्षस्य हेतुरुक्तः । द्वितीयपदन मोरूपं प्रतिपादितमिति वेदितव्यम् । नन्वत्र सप्तसु तच्त्येषु षट्तत्वस्वरूप प्राकं निजरास्वरूपं न प्रोक्तम् । सत्यम् ; यदि सर्वकर्मक्षयो मोक्षः प्रोक्तस्ततः सामध्योदेव ज्ञायते यदेकदेशेन २० कर्मयोनिर्जरा तेन पृथक्सूत्रं निर्जराला णप्रतिपादकं न विहितमिति वेदितव्यम् । कर्मक्षयो द्विकारो भवति प्रयत्नाप्रयत्नसाध्यविकल्पान् । तत्र अप्रयत्नसाध्यश्चरमोत्तमशरीरस्य नारकति वायुषां भवति । प्रयत्नसाध्यस्तु कर्मक्षयः कःयते - चतुर्थं पश्चमपष्टसप्तमेषु गुणस्थानेषु मध्येऽन्यतमगुणस्थानेऽनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयस्य मिथ्यात्यमतित्रयस्य क्षयो भवति । अनिवृत्तिबादरसाम्परायसंज्ञकनयम गुणस्थानस्यान्तर्मुहूर्नस्य नव भागाः क्रियन्ते । तत्र प्रथमभागे निद्रा- २५ प्रचलाप्रचला- स्त्यानगृद्धिनरकगतितिर्यग्गत्येकेन्द्रियजातिद्धीन्द्रिय जातित्रीन्द्रियजातिचतुरिन्द्रियजाति नरकग विशयोग्यानुपूर्वीतिर्यग्गतिशयोग्याऽनुपूर्व्यातपोद्यतस्थावरसूक्ष्म साधारणाऽभिधानिकानां षोडशानां कर्मप्रकृतीनां प्रक्षयो भवति । द्वितीयभागे मध्यमकषायाष्टकं नष्टं विधीयते । तृतीयभागे नपुंसक वेदम्छेदः क्रियते । चतुर्थे भागे श्रीवेदविनाशः सृज्यते । पचमे भागे १ स्थाने ३० द० ज० २ - नोलचि क- आ०, ६० ज० | J अ०, ६०, ख० । ४ तत्वरूपम् आ०, ६० ज० ३१५ ३ -क्षयनामनिज Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्तौ [१० नोकपायषटकं प्रध्वंस्यते । षष्ठे भागे पुंवेदाभावो रच्यते । सप्तमे भागे सज्वलनक्रोधविध्वंसः कल्प्यते । अष्टमे भागे सज्वलनमानयिनाशः प्रणीयते । नवमे भागे सम्ज्वलनमायाक्षयः क्रियते। लोभसज्वलनं दशमगुणस्थाने प्रान्ते विनाशं गच्छति। निद्रामचले 'द्वादशस्य गुणस्थानस्योपान्त्यसमये विनश्यतः । पञ्चज्ञानाबरणचक्षुरचक्षुरयधिकेवलदर्शनावरणचतुष्टयपश्चान्सरायाणां ५ तदन्त्यसमय क्षयो भवति । सयोगिकेवलिनः कस्याश्चिदपि प्रकृतेः झयो नास्ति । चतुर्दशमार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर जी महाराज गुणस्थानस्य द्विचरमसमये द्वासप्ततिप्रकृतिना भयो भवति । कास्ताः १ अन्यतरवेदनीयम, देवगतिः, औदारिक क्रियकाहारकजसकामणशरीरपञ्चकम् , सद्वन्धनपश्चकम् , तत्संघातपञ्चकम् , संस्थानष्टकम, औदारिकर्वक्रियकाहारकशरीरोपाङ्गत्रयम् , संहननषटकम् , प्रशस्ताप्रशस्तवर्णपञ्चकम् , सुरभिदुरभिगन्धयम् , प्रशस्ताप्रशस्तरसपश्चकम् , स्पर्शाष्टकम् । १० देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यम् , अगुरुलघुत्वम् , उपघातः, परघातः, उच्छ्यासः, प्रशस्ता शस्तविहायोगतिद्वयम , पर्याप्तिः, प्रत्येकशरीरम् , स्थिरत्वमस्थिरत्वम्, शुभत्वमशुभत्वम् , दुर्भगत्वम्, सुम्वरत्वम, दुःस्वरत्वम्, अनादेयत्वमा , अयशस्कीसिः, निर्माणम् , नीचैर्गोत्रम् इति । अयोगिलिचरमसमये त्रयोदश प्रकृतयः भयमुपयान्ति । कास्ताः ? अन्यतरवेदनीयम, मनुध्यायुः, . मनुष्यगतिः, पञ्चेन्द्रियजातिः, मनुष्यगतिप्रायोग्या१५ नुपूरी, लत्वम्, बादरत्वम्, पर्याप्तकत्वम्, शुभगत्वम्, आदेयत्वम् , ' यश कीर्तिः । तीर्थकरत्वम उठचर्गोत्रश्चेति ।। अयंतास द्रव्यकर्मप्रकृतीनां झ्यान्मोक्षो भवति आहोस्त्रित् भावकर्मप्रकृतीनामपि श्यान्मोक्षो भवतीति प्रश्ने सूत्रमिदमाहुः औपशमिकादिभव्यत्यानाञ्च ॥ ३ ॥ २० औपशमिको भात्र आदिर्येषां मिश्रौदग्रिकभावानां ते औपशमिकादयो भाषास्ते च भव्यत्वञ्च औपशामकादिभव्यत्वानि तेषामौपशमिकादिभव्यत्यानाम् । एतेषां चतुर्णा भावकर्मणां विप्रमाशा मोक्षा भवति । पकारः परस्परसगुचये वर्तते, तेनायमर्थः-न केवलं पौद्गलिककृर नकर्मविप्रमोक्षा मोक्षः किन्तु ऑपशमिकादिभव्यत्वानां भाषकर्मणां विप्रमोक्षो मोक्षा भवति । भव्यत्वं हि पारिणामिको मावस्तेन भव्यत्वग्रहणात् पारिणामिकेषु भावेषु २५ भव्यत्यस्य व प्रक्षयो भवति नान्येषां जीवत्वसवत्रस्तुत्वामूर्तत्यादीनां पारिणो मिकानां क्षयो वतते, तत्श्रये शून्यत्वादिप्रसङ्गान् । ननु द्रव्यकर्मनाशे तनिमित्तानामौपशमिकादीनां भावानां स्वयमेवाभावः सिद्धः किमनेन सूत्रेणेति चेन ? सत्यम् । नायमेकान्तो निमित्ताभावेऽपि कार्यभात्रदर्शनात् । दण्डाद्यभावेऽपि घटाविदर्शनात् । अथवा सामर्थ्याल्लब्धस्यापि मायक मक्ष यस्य सूत्र स्पष्वार्थम् । ३० अथाह कश्चिन्-भावानामुपरमो मोझ आक्षिप्तो भवद्भिस्तथा औपशमिकादिभावपझय १ द्वादशगुण - आ०, द०. जः। २ प्रक्षयो मोक्षी भ-पा.। ३ जीवत्ववस्तुश्रा०,२०,ज। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१४-६ ] दशमोऽध्यायः ३२१ वत् सर्वक्षायकभावनिवृत्तिः प्राप्नोति ? सत्यम् क्षायिकभावप्रक्षयो भवत्येव यदि विशेष म निगद्यते । विशेषस्त्वाचार्येण सूचित एव वर्तते । कोऽसौ विशेष इति प्रश्ने अपवादसूत्रमुख्यते अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्यः ॥ ४ ॥ सम्यक्त्वञ्च ज्ञानदर्शन सिद्धत्वच सम्यक्त्वज्ञानदर्शन सिद्धत्वानि, केवलानि निःकेचलानि ५ एवानि सम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वानि तेभ्यः केवलसम्यक्त्वज्ञान दर्शनसिद्धत्वेभ्यः । एभ्यश्च - तुभ्र्भ्यः क्षायिकभावेभ्यः अन्यत्र एतानि चत्वारि वर्जयित्वा अन्येषां भावानां प्रक्षयान्मोक्षो भवति । तर्हि अनन्तवीर्यानन्तसुखादीनामपि प्रक्षयो भविष्यति, चतुभ्र्योऽवशेषत्वात् । सत्यम् ; ज्ञानवर्शनयोरन्तर्भावोऽनन्तवीर्यस्य तेन सत्य (तत्) छ्यो नास्ति, अनन्तवीर्यं विना अनन्तज्ञानप्रवृतिर्न भवति यतः । सुखं तु ज्ञानदर्शनयोः पर्यायः तत एव सुखस्यापि यो न १० भवति । ननु सिद्धानां निराकारत्वादभावो भविष्यति ? सत्यम्; चरमशरीर । कारास्ते वर्तन्ते, तेन तेपामभावोऽपि नास्ति "सायारमणायारा लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ।" [ इति वचनात् । ननु शरीरानुकारी यदि जीवः प्रतिज्ञातो भवद्भिस्तहिं शरीराभावात् arita aroraratशप्रमाणो जीव इति भवतां मले सति त्रैलोक्यप्रमाणप्रदेशप्रसरणं भविष्यति । या नोकाचा भवति । नोकर्म- १५ सम्बन्धलक्षण कारणाभावात् पुनः संहरणं विसर्पणच न भवति । ] एवं चेद् यथा कारणाभावात् संहरणं विसर्पणच न भवति तथा गमनकारणकर्माभावे सति ऊर्ध्वगमनमपि न भविष्यति, अधस्तिय्य मामनयोर भाववत् । एवञ्च सति यत्रैव जीवो मुकस्तत्रैव तिष्ठति, तन सदनन्तरमूदुवै गच्छस्थालोकान्तात् ॥ ५ ॥ २० तस्य सर्वकर्मविप्रमोक्षस्य अनन्तरं पश्चात्तदनन्तरमूर्ध्वमुपरिष्टात् गच्छति ब्रजति । कोsit ? मुक्तो जीव इति शेषः । कियत्पर्यन्तमूर्ध्वं गच्छति ? आलोकान्तात् — लोकपर्यन्तमभियातीत्यर्थः । आलोकाश्तादूर्ध्वं गच्छतीत्यत्र ऊर्ध्वगमनस्य हेतुनकः, हेतुं विना कथं पक्षसिद्धिरित्युपन्यासे सूत्र 'मिदमुच्यते— पूर्वप्रयोगा दस स्वाद्वन्धच्छंदा सथागतिपरिणामाच्च ॥ ६ ॥ पूर्व प्रयोगः पूर्वं प्रयोगस्तस्मात् पूर्व प्रयोगात् । पूर्व किल जीवेन संसारस्थितेन बहून् धारान् यन्मुक्तिप्राप्त्यर्थं प्रणिधानं कृतम् ऊर्ध्वगमनध्यानाभ्यासो विहितस्तस्य प्रणिधानस्याभावेऽपि तदावैशपूर्व कमासंस्कार क्षयादूर्ध्वं गमनं भवत्येव इत्येको हेतुरुक्तः । तथोर्ध्वगमनस्य १ - मिदमाहुः अ० ज० २ - वारान् मुक्ति - भ० ज० ॥ ४१ २५ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ तार्थवृत [ 2-19 मार्गदतीयं हेतुमाह साकर्मभिर्यस्य जीवस्य स भवत्यसङ्गः । असङ्गस्य भावोऽसङ्गत्वं तस्माइस ङ्गत्वात् । अस्यायमर्थ:- कर्मभाराकान्तो जीवस्तदावेश्वशान संसारे नियतं गच्छति । कर्मभाराक्रान्तवशीकरणाभावे सति ऊर्ध्वमेव गच्छति, इति द्वितीयो हेतुरुक्तः । तथा बन्धच्छेदात् । बन्धस्य छेडनं छेदस्तस्माद् बन्धच्छेदात् । अस्यायमर्थः-मनु५ व्यादिभवान्तरप्रापक गतिजाल्यादिनामादि समस्तकर्मबन्धछेदान्मुक्तजी वस्योर्ध्वगमनमेव भवतीति तृतीयो हेतुरुकः । तथागतिपरिणामान् । गत्यूर्ध्वगमनं परिणामः स्वभावो यस्य जोवस्य स भवति गतिपरिणामस्तस्माद् गतिपरिणामात् । अस्यायमर्थः - जीवस्ताय दूर्ध्वं गमनस्वभावः परमागमे प्रतिपादितः । तस्य तु जीवस्य यद्विविधगतिविकारो भवति तस्य कारणं कर्मैव । नष्टे च कर्मणि जीवस्य गतिपरिणाभादूर्ध्वगमनस्वभावादुर्ध्वगमनमेव भवति । चकारः १० परस्परं हेतूनां समुच्चये वर्तते । तेनायमर्थः न केवलं पूर्व प्रयोगादसङ्गतत्वाबोध्वं गच्छति, न केवलमसहत्वात् चच्छेदाचोर्ध्वं गच्छति । तथा तैरेव पूर्व प्रयोगासङ्ग बन्धच्छेदद्मकारैर्गतिपरिणामाचध्वं गच्छति । 1 अत्राह कश्चित् हेतुरूपोऽर्थः प्रधुरोऽपि दृष्टान्तसमर्थनं घिना वस्तुसाधनसमर्थो न भवति "पक्षे हेतुदृष्टान्तसाधितं वस्तु परमार्थम् ।" [ ] इति वचनात् । इत्यु १५ पन्या से पूर्वोक्तानामूर्ध्वगमनहेतुनां क्रमेण दृष्टान्तसूचनं सूत्रमाह आविद्धकुलालचक्रवद् व्यपगतलेपालावुवदेरगड - बीजवदग्निशिखावश्च ॥७॥ आषिद्धं भ्रामितं यत्कुलालचक्रं कुम्भकारभ्रमितम् आविकृलालचक्रम् । अषिद्धकु लालचक्रमिष आविद्धकुलालचक्रवत्। कुम्भकारप्रयोगेण यत्कृतं करदण्ड चक्र संयोगपूर्व के भ्रमणं २० तद्भ्रमणं कुम्भकारशय दण्डचक्रसंयोगे विरतेऽपि सन्ति पूर्व प्रयोगाद् यथा आसंस्कारक्षयाचक्रस्य भ्रमणं भवति तथा मुक्तस्याप्यूर्ध्वगमनं भवतीति पूर्व हेतोः पूर्वदृान्तः । व्यपगतलेपालाचुबन । व्यपगतो विश्लिष्टो लेपो यस्मा दलाबुफान शुष्कतुम्बकफलात् तद् व्यपगतलेपं, तश्च तदलाबु च तुम्बफलं व्यपगतलेपालाबु, व्यागतलेपानु इव व्यपगत लेपाबुवन् । यथा मृत्तिकालेपोत्पादितगुरुत्वम् अलाबु जले क्षिप्तं सत् जलस्याधो गच्छति बुडति निमज्जति । २५ जलक्लेदविश्लिष्टमृतिकाबन्धनं सन् लघुतरं सदूर्ध्वमेव गच्छति तथा जोवो. पि विश्लिष्टकर्मकर्म ऊर्ध्वमेव गच्छति । इति द्वितीयहेतोर्द्वितीयदृष्टान्तः । परण्डवीजवन एरण्डस्य बातारिवृक्षस्य यद्वीजमेरण्डबीजम् एरण्डबीजमित्र एरण्डबीजवत् । यथेरण्डबीजकोशलक्षणवन्धच्छेदात् गतिं करोति तथा जीवोऽपि कर्मबन्धच्छेदादूर्ध्वगमनं करोति । इति तृतीयस्य २ - भ्रमितम् । ३ -काराशय १ स्वगमन - आ०, ६०, अ । ० ज० । ४ ट्रालालु सा द० । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०/८-९ ] दशमोऽध्यायः ३२३ तस्तृतीयो दृष्टान्तः । तथा अग्निशिखावत् । अग्नेः शिखा प्रदीपकलिका अग्निशिखा अग्निशिखेव अग्निशिखावत् । यथा अग्निशिखा तिर्यग्गमन प्रकृतिमारुतसम्बन्धरहिता सती स्वभावादु गच्छति तथा मुक्तजीवोsपि कर्माऽभावे ऊर्ध्वगमनस्वभावा दूर्ध्वमेव गच्छति । इति चतुर्थस्य तोर्थोः । परस्परानु प्रवेशोऽविभागेनावस्थितिर्बन्ध इत्यसङ्गबन्धच्छेदयोर्भेदः । जी महाराज अथ यद्यूर्ध्वगमनस्वभावो जीवस्तर्हि मुक्तः सन्नूर्ध्वगमनं कुर्वन्नेव त्रिभुवनमस्तकात. पतोऽपि किं न गच्छतीति प्रश्ने सति सूत्रमिदमाहु:-- 4 धर्मास्तिकायाभावात् ॥ ८ ॥ धर्माकाराभाव धर्मास्तिकायाभावस्तस्माद् धर्मास्तिकायाभागात् परतो न गन्धवति वाक्यशेषः । अस्यायमर्थः - गत्युपकारकारणं धर्मास्तिकायः, स तु धर्मा- १० शिकायो लोकान्तात् परतोऽलोके न वर्तते तेन मुक्तजीवः परतोऽपि न गच्छति । यदि परतो - sa ता लोकालोकविभागो न भवति । तदुक्तम् "संते वि धम्मदव्वे अहो ण गच्छेद तहथ तिरियं वा । उड्ढग्गमणसद्दावो म्रुको जीवो हवे जम्हा ॥" [तवसा० गा० ७१] अथ मुक्तजोवा गतिजातिप्रभृतिक्रर्महेतुरहिता अमी अभेदव्यवहारा भविष्यन्तीति १५ शङ्कायां कथचिद्भेदव्यवहारस्थापनार्थमिदं सूत्रमाहुः— क्षेत्र कालगतिलिङ्गतीर्थ चारित्रप्रत्येक बुद्धषोधितज्ञान। वगाहनान्तरसङ्ख्या ल्पबहुत्वतः साध्याः ॥ ९ ॥ क्षेत्र कालका गतिश्व लिङ्गख तीर्थञ्च चारित्रञ्च प्रत्येक बुद्धबोधितश्च ज्ञान अथगाहनच अन्तरञ्च सङ्ख्या च अल्पबहुत्वञ्च क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थ चारित्रप्रत्येकबुद्ध- २० बोषितज्ञानावगाहनान्तरसहख्याल्पबहुत्वानि तेभ्यस्ततः । एभिर्द्वादशभिः क्षेत्रादिभिः प्रश्नैः सिद्धाः साध्या विकल्पनीया भवन्ति भेदव्यवहारवन्तो वर्तन्ते इत्यर्थः । कस्मात् ? प्रत्युत्पन्नभूताप्रतन्त्रनययुग्मार्पणवशात् । प्रत्युत्पन्नो नयः ऋजसूत्रः । भूताऽनुमतन्त्रो नयो व्यवहारः । तथाहि — क्षेत्रव्यवहारस्तावत् कस्मिन् क्षेत्रे सिद्धाः सिद्धयन्ति । प्रत्युत्पन्नमा हिनयात् ऋजुसूत्रतयाग्निश्चयनयादिति यावत् स्वप्रदेशलक्षणे सिद्धिक्षेत्रे सिद्धयन्ति । भूतप्राद्दिनयाद २५ व्यवहारनया। काशप्रदेशे जन्मोद्दिश्य पञ्चदशसु कर्मभूमिषु वा सिद्धयन्ति । संहरण मुद्दिश्यार्धतृतीयद्वीपलक्षणे मानुषक्षेत्रे सिद्धाः सिद्धयन्ति । तत्संहरणं द्विप्रकारं स्वकृतं परकृतश्च । धारणविद्याधराणामेव स्त्रकृतम् । देवचारणविद्याधरैः कृतं परकृतम्। अथ कस्मिन् काले सिद्धः सिद्धयति ? प्रत्युत्पन्ननयादेकस्मिन्समये सिद्धयन् सिद्धो भवति । ऋजुसूत्राद्याश्चत्वारो १ - भाव ऊ-आ०, ६० ज० १ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ वार्थवृत्त १०/१९ नयाः प्रत्युत्पन्नविषया वर्तन्ते । शेषास्त्रयो नया नैगमसम्महव्यवहाराख्या उभयविषया इति वेदितव्यम् । भूतप्रज्ञापनयाजन्मतः संहरणाचेति द्विप्रकारात् विशेषेण उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योर्जातः सिद्धयति । विशेषेण तु अवसर्पिण्या: सुषमदुः षमाया अन्ते भागे दुःषमसुषमायाश्च जातः सिद्धयति । दुःषमसुषमायां जातो दुःषमायां सिद्धयति । दुःषमायां जातो दुःषमायां न ५ सिकि अन्यमापका सुषियों जिला सुमसुम्यांजातः सुषमायां जातः दुःषमायाम् अन्त्यभागरहितायां सुषमदुः षमायाच जातो नैव सिद्धयति । संहरणापेक्षया उत्सर्पिण्यवसर्पि या सर्वस्मिन् काले च सिद्धयति । अथ कस्यां गतौ सिद्धः सिद्धचति ? सिद्धगतौ मनुष्यगतौ वा सिति । अथ केन लिङ्गेन सिद्धिर्भवति ? अवेदत्वेन त्रिभिर्वेदेव सिद्धिभवति भावतो न तु द्रव्यतः । द्रव्यतस्तु पुंवेदेनैव सिद्धिर्भवति । अथवा लिङ्गशब्देन निर्मन्थ१० लिन सिद्धिर्भवति । भूतनयापेक्षया समन्थलिङ्गेन का सिद्धिर्भवति “साहारणासाहारणे ।" [ सिद्धम० ५ ] इति वचनात् । अथ कस्मिंस्तीर्थे सिद्धिर्भवति ? तीर्थकरतीर्थे गणधरानगरकेवलणेतरतीर्थे च सिद्धिर्भवति । अथ केन चारित्रेण सिद्धिर्भवति ? इत्यनुयोगे विशेषव्यपदेशरहितेन एषोऽहं सर्वसावद्ययोगविरतोऽस्मीत्येवं रूपेण साममायिकेन ऋजु सूत्रतया यथाख्यातेनैकेन सिद्धिर्भवति । व्यवहारनयात् पञ्चभिश्चारित्रः सिद्धिर्भवति । परिहारविशुद्धि१४ संज्ञकचारित्ररहितैश्चतुर्भिश्चारित्रैर्वा सिद्धिर्भवति । स्वशक्तिनिमित्तज्ञानात् प्रत्येकबुद्धाः सिद्धयन्ति | परोपदेशनिमित्तज्ञानात् बोधितबुद्धाः सिद्धयन्ति एतद्विकष्पद्वयमपि मिलित्वा raiser | अथ केन ज्ञानेन सिद्धिर्भवतीति प्रश्ने ऋजुसूत्रनयादेकेन केवलज्ञानेन सिद्धिभंषति । व्यवहारनयात् पश्चात्कृत मतिज्ञानश्रुतज्ञानद्वयेन मतिश्रुतावधिज्ञानत्रयेण मतिश्रुतमन:पर्ययज्ञानत्रयेण वा सिद्धिर्भवति, मतिश्रुतावधिमन:पर्ययज्ञानचतुष्टयेन वा सिद्धि२० र्भवति । अध्यायमर्थः मतिश्रुतयोः पूर्व स्थित्वा पश्चात् केवलज्ञानं "समुत्पाद्य सिद्धा भवन्ति । तथा मतिश्रुतावधिषु पूर्व स्थित्वा पश्चात् केवलमुत्पाद्य सिद्धयन्ति । अथवा मतिश्रुतमन:पर्ययेषु स्थित्या केवलं लब्ध्वा सिद्धयन्ति । तथा मतिश्रुतावधिमन:पर्ययेषु पूर्व स्थित्वा पश्चात् केवलमुत्पाद्य सिद्धयन्ति । तथा चोक्तम् २५ “पच्छायडेय सिद्धे दुगतिगचदुणाणपंचचदुश्यमे । पविडिदापडिवडिदे संजमसंमणापमादीहिं ॥" [ सिद्ध भ० ४ ] अथ केनावगाहनेन निर्वृतिर्भवतीति प्रश्ने तदुच्यते - जीवप्रदेशव्यापित्वं तावदवगाहनमुच्यते । तदवगाइनं द्विमकारम् उत्कृष्टावगाइनं जघन्याय गाइनोति । तत्रोत्कृष्टमवगाइनं सपदानि पश्वधनुःशतानि । जघन्यावगाहनमर्द्धचतुर्थारत्नयः । यः किल पोडशे वर्षे सहस्त १ - यातु - ० ६० ज० ༣༠ ། ४ - सूत्रनयात् आ०, ६० ज० २ यदा आ०, ६०, ब० । ३ आवेदेन आ०, ५०, ५ - मतिश्रुत-सा । ६ उत्पाद्य ६० | Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज २०१९ ] दशमोऽध्यायः ३२५ परिणामशरीरो भविष्यति स गर्भाष्टमे वर्षे अर्ध चतुर्थारनिप्रमाणो भवति, तस्य च मुक्तिर्भवति । मध्ये नाना भेदावगाहनेन सिद्धिर्भवति । सिभ्यतां पुरुषाणां किमन्तरं भवतीति प्रश्ने निकृष्टत्वेन द्वौ समयौ भवतः उत्कर्षेण भ्रष्टसमया अन्तरं भवति । द्वावपि भेदौ जघन्यस्य । जघन्येन एकः समयः | उत्कर्षेण षण्मासा अन्तरं भवति । अथ कया सख्यया सिद्धयन्ति ? ५ जघन्येन एकसमये एकः सिद्धयति । उत्कर्षेण अष्टोत्तरशतसंख्या एकसमये सिद्धयन्ति । अथान्पबहुत्वमुध्यते— प्रत्युत्पन्ननयात् सिद्धिक्षेत्रे सिद्धयन्ति तेषामल्पबहुत्वं नास्ति । भूतपूर्व'नया विश्वायते क्षेत्रसिद्धा द्विप्रकारा: जन्मक्षेशतः संहरणक्षेत्रतश्च क्षेत्राणां विभागः कर्मभूमिरकर्मभूमिश्च । तथा क्षेत्रविभागः समुत्रद्वीपा ऊर्ध्वमवस्तिर्यक् च । तत्र ऊर्ध्वलोकसिद्धा अल्पे | अधोलोकसिद्धाः संख्येयगुणाः । तिर्यक लोकसिद्धाः संख्येयगुणाः । सर्वस्तोकाः १० समुद्रसिद्धाः । द्वीप सिद्धाः संख्येयगुणाः । पवमविशेषेण व्याख्यानम् । विशेषेण तु सर्वस्तोकाः लवणोदसिद्धाः । कालोदसिद्धाः संख्येयगुणाः । जम्बूद्वीप सिद्धाः संख्येयगुणाः । धातकीखण्डसिद्धाः संख्ये गुणाः । पुष्कर द्वीपार्थसिद्धाः संख्ये यगुणा इति । एवं कालादिविभागेपि परमागमानुसारेणाल्पबहुत्वं बोद्धव्यम् । तथाहि — कालविप्रकारः उत्सर्पिणी अवसर्पिण्यनुत्सपिण्यनवसर्पिणी चेति । तत्र सर्वतः स्तोकाः उत्सर्पिणीसिद्धाः । अवसर्पिणी सिद्धा विशेपा१५ धिकाः । अनुत्सर्पिण्यनवसर्पिणीसिद्धाः संख्येयगुणाः । ऋजुसूत्रनयापेक्षया तु एकसयये सिद्धयन्तीत्यल्पबहुत्त्वं नास्ति । गतिं प्रति विचार्यते - ऋजुसूत्रापेक्षया सिद्धगतौ सिद्धयन्तीति तत्राल्पबहुत्वं नास्ति । व्यवहारापेक्षयापि मनुष्यगतौ सिद्धयन्तीति तत्राप्यल्पबहुत्वं नास्ति । एकान्तरगतावल्पबहुत्वमस्तीति तद्विचार्यते । सर्वतः स्तोकाः तिर्यग्योन्यन्तरगतिसिद्धाः । मनुष्ययोन्यन्तरगतिसिद्धाः संख्येयगुणाः । नारक योन्यन्तरगतिसिद्धाः संख्ये यगुणाः । स्वर्ग२० योन्यन्तरगतिसिद्धाः संख्येयगुणाः । लिङ्गं प्रति अल्पबहुत्वं विचार्यते - ऋजुसूत्र व्यवहार नयात्तु सर्वतः नयापेक्षया अवेदात्सिद्धयन्तीति नास्ति अल्पत्वम् । स्थोकाः नपुंसक वेदसिद्धाः स्त्रीवेदसिद्धा: संख्येयगुणाः । पु'वेदसिद्धाः ' संख्येयगुणाः । तथा चोक्तम्— "बीस णपुंसयवेया धीषेया वह य होंति चालीसा | पुंवेया अडयाला समये गते सिद्धाय ॥" [ ] पबं तीर्थ चारित्रादिभेदैरप्यश्वबहुत्वं परमागमात्सिद्धम् । एषा तस्वार्थवृत्ति संचारयते शिष्येभ्यः उपदिश्यते च तेजिनवचनामृतस्वादिभिः पुरुषैः शृण्वद्भिः पठश्चि परम 'मुक्तिसुखामृतं निजकरे कृतं देवेन्द्रनरेन्द्रसुखं किमुच्यते । १ परमसुखा- आ०, ६० ज० । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ [ t तत्त्वार्यवृत्ती श्रीवर्धमानमफलकसमन्तभद्रः श्रीपूज्यपादसदुमापरिपूज्यपादम् । विद्यादिनम्दिगुणरममुनीन्द्रसेठयं भक्त्या नमामि परितः श्रुतसागराप्त्यै ।। इति सूरिश्रीश्रुतसागरविरचितायां तात्पर्य संशायां तत्स्वार्थवृत्ती मार्गदर्शक:- आचार्यश्री सविधिसागर जी महाराज दशमः पाद: समाप्तः। १ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यश्रीमदुमास्वामिश्रीविद्यानन्दिसूरिश्रीश्रुतसागर सूरिभ्यो नमो नमः | अन्यानम् ९००४। श्रीरस्तु' | are । इत्यनवद्यगद्यपविधाविनोदित्तप्रमोदपीयूपरसपानपावनमतिसभावरत्नरागमतिसागरयतिराजराजितार्थनसमर्थन सर्कच्याकरणछन्दोऽलङ्कारसाहित्यादिशास्त्रनिशितमतिय ना श्रीमद्देवेन्द्रकीर्तिभट्टारकपशिष्येण शिष्येण सफलविद्वजनविहितचरणसेवस्य श्रीविद्यानन्दिदेवस्य संचर्दिसमिय्यामतदुर्मरेण श्रुतसागरेण सूरिणा विरचितायां इलोकवार्तिकराजवार्तिकस्वार्थसिद्धिन्यायकुमुदचन्योदयप्रमेयकमलमार्तण्डप्रचण्दाष्टसहस्त्राप्रमुखग्रन्थसन्दर्भावलोकनबुद्धिविराजितायां तत्त्वार्थटीकायां दधमो:भ्यायः समाप्तः । इति तत्वार्थस्य श्रुतसागरी टीका समाप्सा | मा०, २०,० Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्त्वार्थवृत्ति [ हिन्दी-सार ] Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थत्ति हिन्दी-सार है इस पञ्चम कालमें गणधरदेवके समान श्रीनिर्ग्रन्थाचार्य मास्वामि भट्टारकसे रियाकने प्रश्न किया कि-भगवन् , आत्मा का हित क्या है ? उमारवामि भट्टारक भव्यके प्रश्नावसम्यग्दर्शनाचाम्यश्रीनालिसम्यकपत्रिका द्वारा प्राप्त होने मोक्ष आत्माका हित है। यह उत्तर देनेके पहिले इष्टदेवको नमस्कार कर मङ्गल "मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्यानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥" आमाके झानादि गुणोंको घातने वाले झानावरणादि कोका भेदन करके जो समस्त जाना अर्थात् मोक्षोपयोगी पदार्थों के पूर्ण ज्ञाता है. तथा जिनने मोक्षमार्गका नेतृत्व किया परमात्मा को उक्तगुणों की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूं। E द्वैयाक ने पूंछा कि मोक्षका स्वरूप क्या है ? उमास्वामि भट्टारकने कहा--समस्त कर्ममलोंसे रहित आत्माकी शुद्ध अवस्थाका मोक्ष है। इस अवस्थामै आत्मा स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकारके शरीरोंसे रहित हो गरी हो जाता है। अपने स्वाभाविक अनन्तज्ञान निर्बाध अनन्त सुख आदि गुणोंसे मिर्ष हों चिदानन्द स्वरूप हो जाता है। यह आत्माकी अन्तिम विलक्षण अवस्था है । व दशा सदा एकसी बनी रहती है। इसका कभी विनाश नहीं होता। यह दशा मानका विषय न होनेसे अत्यन्त परोक्ष है, इस लिए विभिन्न वादी मोक्षके की अनेक प्रकारसे कल्पना करते हैं। जैसे...(१) माल्यका मत है कि-पुरुषका स्वरूप चैतन्य है । भान चैतन्यसे पृथक् वस्तु महान प्रकृतिका धर्म है, यही मेय अर्थात् पदार्थोंफो जानता है । चैतन्य पदाथोंको मानता । मोक्ष अवस्थामें आत्मा चैतन्य स्वरूप रहता है ज्ञान स्वरूप नहीं। । हस मतमें ये दूषण है-मानसे भिन्न चैतन्य कोई वस्तु नहीं है। पैतन्य ज्ञान बुद्धि पर्यायवाची है इनमें अर्धभेद नहीं है । स्व तथा पर पदार्थांका जानना चैतन्यका है। यदि चैतन्य अपने स्वरूप तथा पर पदार्थोंको नहीं जानता तो वह गधेके सींगकी असत् ही हो जायगा । निराकार अर्थात् ज्ञेयको न जानने वाले पैतन्यकी कोई RAT 4.(२) वैशेषिक-बुद्धि, मुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन नव विशेष गुणों के अत्यन्त उच्छेद होनेको मोक्ष कहते हैं। ये विशेषगुण आत्मा अनके संयोगसे उत्पन्न होते है। चूंकि मोक्षमें भात्माका मनसे संयोग नहीं मतः इन गुणोंका अस्यन्त उच्छेद हो जाता है Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ३३० तत्त्वार्थवृत्ति-हिन्दी-सार इस मतमें सबसे बड़ा दुधाण यह है कि-यदि आत्माके बुद्धि श्रादि विशेष गुण नष्ट हो जाते हैं तो आत्माका स्वरूप ही क्या बचता है ? अपने विशेष लक्षणोंसे रहित वस्तु अवस्तु ही हो जायगी। (३) बौद्ध मानते हैं कि जिस प्रकार वैलके न रहनेसे दीपक बुझ जाता है उसी प्रकार राग-रह के क्षय हो जानेसे आत्मा-ज्ञानसन्तानका शान्त हो जाना मोक्ष है। इनकी यह प्रदीपनिर्वाणकी तरह आत्मनिर्वाणकी कल्पना भी उचित नहीं है। कारण आत्माका अत्यन्त अभाव नहीं हो सकता, वह सत् पदार्थ है। मोक्षके कारणों के विषयमें भी विवाद है न्यायिक आदि ज्ञानको ही मोक्ष कारण मानते हैं इनके मतमें चारित्रका उपयोग तत्वज्ञानकी पूर्णताम होता है। कोई श्रद्धान मात्रसे मोक्षकी प्राप्ति मानते हैं। मीमांसक क्रियाकाण्डरूप चारित्रसे मोक्षकी प्राप्ति स्वीकार करते हैं। किन्तु जिसप्रकार रोगी औषधिके ज्ञानमात्रसे या ज्ञानशून्य है। जिस किसी दबाके पालनेमात्रसे 'अथवा रुचि या विश्वास रहित हो मात्र दबाके ज्ञान या उपयोगमात्रसे नीरोग नहीं हो सकता उसी प्रकार अकेले श्रद्धान, ज्ञान या चारित्रसे भवरोगका विनाश नहीं हो सकता। देखो लंगड़ेको इप्ट देशका ज्ञान है पर क्रिया न होनेसे उसका ज्ञान उसी तरह व्यर्थ है जिसप्रकार अन्धेकी क्रिया ज्ञानशून्य होने से । श्रद्धानरहित व्यक्तिका ज्ञान और चारित्र दोनों ही कार्यकारी नहीं है। अतः श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र तीनों मिलकर ही कार्यकारी हैं। मोक्षमार्ग क्या है ? सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ १ ॥ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र तीनों मिलकर ही मोक्ष का मार्ग है। मोक्षोपयोगी तच्चोंके प्रति दृढ़ विश्वास करना सम्यग्दर्शन है। तत्त्वोंका संशय, विपर्यय और अनिश्चिततासे रहित यथावत् ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । संसारको बढ़ानेवाली फियाओंसे विरक्त तत्वज्ञानीका काँका आस्रव करनेवाली क्रियाओंसे विरत होना सम्यक चारित्र है। इस सूत्रमें 'सम्यक् शब्दका सम्बन्ध दर्शन, ज्ञान और चारित्रसे कर लेना चाहिए । सम्यग्दर्शनका स्वरूप तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ २ ॥ पदार्थके अपने स्वरूपको तत्व कहते हैं। तत्त्वार्थ अर्थात् पदार्थों के यथावन स्वरूपकी श्रद्धा या रुचिको सम्यग्दर्शन कहते हैं। ____अर्थ शब्दके प्रयोजन, वाच्य, धन, हेतु, विषय, प्रकार, वस्तु, द्रव्य आदि अनेक अर्थ होते हैं । इनमें पदार्थ अर्थ लेना चाहिए धन आदि नहीं। दर्शन शब्द का प्रसिद्ध अर्थ देखना है, फिर भी दर्शन शब्द जिस 'दृशिर' धातुसे बना है उसके अनेक अर्थ होते हैं, अतः मोक्षमार्गका प्रकरण होनेसे यहाँ देखना अर्थ न लेकर रुचि करना, बढ़ विश्वास करना अर्थ लेना चाहिए। यदि देखना अर्थ किया जायगा Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज तो देखना तो सभी आंखवाले प्राणियोंको होता है अतः सभीके सम्यग्दर्शन मानना होगा। देखना मात्र मोक्षका मार्ग नहीं हो सकता । सम्यग्दर्शन दो प्रकारका है-एक सराग सम्यग्दर्शन और दूसरा वीतराग सम्यग्दर्शन । प्रशम संग अनुकम्पा आर आस्तिक्यसे पहिचाना जानेवाला सम्यग्दर्शन सराग सम्यग्दर्शन है। रागादि दोषोंके उपशमको प्रशम कहते हैं। विविध दु:खमय संसारसे ढरना संवेग हैं। प्राणिमात्रके दुःख दूर करनेकी इच्छासे चित्तका दयामय होना अनुकम्पा है। देव, शास्त्र, व्रत और तत्त्वों में दृढ़प्रतीतिका आस्तिक्य कहते हैं। वीतराग सम्यग्दर्शन आत्मविशुद्धि रूप होता है। सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके प्रकार तम्निसर्गादधिगमाद्वा ॥ ३ ॥ यह सम्यग्दर्शन स्वभावसे अर्थात् परोपदेशके विना और अधिगमसे अर्थात् परोपदेशसे उत्पन्न होता है। शंका-निसर्गज सम्यग्दर्शनमें भी अर्थाधिगम तो अवश्य ही रहता है क्योंकि पदार्थों के के ज्ञान हुए बिना श्रद्धान कैसा १ तब इन दोनों सम्यग्दर्शनों में वास्तविक भेद क्या है ? समाधान-दोनों ही सम्यग्दर्शनोंमें अन्तरङ्ग कारण दर्शनमोह कर्मका उपशम या क्षयोपशम समान है। इस अन्तर कारणकी समानता रहनेपर भी जो सम्यग्दर्शन गुरूपदेशके बिना उत्पन्न हो वह निसर्गज कहा जाता है, जो गुरूपदेशसे हो वह अधिगमज । निसर्गज सम्यग्दर्शन में भी प्रायः गुरूपदेश अपेक्षित रहता है पर उसे स्वाभाविक इसलिए कहते हैं कि उसके लिए गुरुको विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता सहज ही शिष्यको सम्यग्दर्शन ज्योति प्राप्त हो जाती है। शंका-"जो पहिले कहा जाता है उसीका विधान या निषेध होता है। यह व्याकरण का प्रसिद्ध नियम है। अतः इस सूत्र में ततः पद न भी दिया जाय फिर भी पूर्वसूत्र से 'सम्यग्दर्शन' का सम्बन्ध जुद हो जाता है तब इस सूत्र में 'तत्' पद क्यों दिया गया है ? समाधान-जिस प्रकार सम्यग्दर्शन शब्द पूर्ववर्ती है उसी प्रकार मोक्षमार्ग शब भी पूर्ववर्ती है । मोक्षमार्ग प्रधान है । अतः "समीपतियों में भी प्रधान बलवान होता है। इस नियमके अनुसार इस सूत्रमें मोक्षमार्गका सम्बन्ध जुड़ सकता है। इस ६षको दूर करनेके लिए और सम्यग्दर्शनका सम्बन्ध जोड़नेके लिए इस सूत्रमें 'सत्' पद दिया गया है। तत्त्व क्या है जीवाजीवास्रक्वन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥ ४ ॥ जीव अजीष पासव बन्ध संवर निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं । जिसमें ज्ञान-दर्शनादिरूप चेतना पायी जाय वह जीव है। जिसमें चेतना न हो वह अजीव है । कर्मों के आने को आस्रव कहते हैं। आए हुए फोका प्रारमप्रदेशोंसे सम्बन्ध होना बन्ध है । कर्मों के आनेको रोकना संवर है। पूर्वसंचित कोका क्रमशः लय होना निर्जरा है। समस्त कर्मोंका पूर्णरूपसे आत्मासे पृथक होना मोक्ष है। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ तत्वार्थवृत्ति-हिन्दी-सार [२५ संसार और मोक्ष जीवके ही होते है अतः सर्वप्रथम जीय तत्व कहा है। जीव अजीवके निमित्तसे ही संसार या मोक्ष पर्यायको प्राप्त होता है अतः जीवके बाद अजीव का कथन किया है। जीव और अजीयक निमित्तसे ही आम्रव होता है अतः इसके बाद आस्रव तथा आसबके बाद बन्ध होता है अतः उसके बाद बन्ध का निर्देश किया है । बन्ध को रोकनेवाला संघर होता है अतः बन्ध के बाद संघर तथा जिसने अागामी काँका संवर कर लिया है उसीके संचित कर्मोको निर्जरा होती है इसलिए उसके अनन्तर निर्जराका कथन किया गया है ! सबफे अन्तमें मोक्ष प्राप्त होता है अतः मोक्षका निर्देश अन्तमें किया गया है. पुण्य और पापका श्रास्रव और बन्ध तत्त्वम अन्तर्भाव हो जाता है अतः उन्हें पृथक् नहीं कहा है। प्रश्न-श्रामय बन्ध संपर निर्जरा और मोक्ष ये पांच तत्त्व द्रव्य और भावरूप होते हैं। उनमें न्यरूप तत्त्वोंका अजीब में तथा भावरूप तत्त्वोंका जीवमें अन्तर्भाव किया जा सकता है, अतः दो ही तत्त्व कहना चाहिए? मार्गदर्शक :- आचावतार मारो गोक्ष तो प्रधान है अतः उसे तो अवश्य कहना ही होगा। मोक्ष संसारपूर्वक होता है। अतः संसारका कारण बन्ध और आम्रव भी कहने चाहिए, इसी तरह मोक्षके कारण संवर और निर्जरा भी। तात्पर्य यह कि प्रधान कार्य संसार और मोक्ष तथा उनके प्रधान कारण आस्रव बन्ध और संघर निर्जराका कथन किया गया है । सयर और निर्जयका फल मोक्ष है तथा आस्रव और बन्धका फल संसार । यदापि संसार और मोक्ष में आस्रवादि चारोंका अन्तर्भाव किया जा सकता है फिर भी जिस प्रकार 'क्षत्रिय पाए हैं। शूरवर्मा भी' इस वाक्यमें सामान्य क्षत्रियों में अन्तर्भूत शूरवर्माका पृथक् कधन विशेष प्रयोजनसे किया जाता है उसी प्रकार विशेष प्रयोजनके लिए ही आवादिक तत्त्वोंका भिन्न भिन्न रूपसे कथन किया है। प्रश्न-जीबादिक सात द्रव्यवाची है तथा तत्वशब्द भाववाची है अतः इनमें व्याकरणशाखके नियमानुसार एकार्थप्रतिपादकत्वरूप सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता ? उत्तर-द्रव्य और भावमें अभेद है अत: दोनों एकार्थप्रतिपादक हो सकते हैं। अथवा जीवादिकमें सत्त्वरूप भाषका अारोप करके सामानाधिकरण्य बन जाता है। सामानाधिकरण्य होने पर भी मोक्ष शब्द पुल्लिग तथा तत्त्वशब्द नपुंसफलिंग बना रह सकता है। क्योंकि बहुतसे शब्द अजहल्लिङ्ग अर्थात् अपने लिङ्गको न छोइनेवाले होते हैं। इसी तरह बचनभेद भी हो जाता है। 'सम्यग्दर्शनझानचारित्राणि भोक्षमार्गः' इस प्रथमसूत्र में भी इसी तरह सामाधिकरण्य वन जाता है। शब्दव्यवहार जिन अनेक निमित्तोंसे होता है, उन प्रकारोंका कहते हैं--- नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ।। ५ ॥ नाम स्थापना द्रव्य और भावसे सम्यग्दर्शनादि और जीवादि पदार्थीका व्यवहारके लिए विभाग या निक्षेप (दृष्टिके सामने रखना ) होता है। शब्दकी प्रवृति द्रव्य क्रिया जाति और गुणके निमित्तसे देखी जाती है। जैसे विस्थ-लकड़ीके मृगमें काष्ठद्रव्यको निमित्त लेकर मृगशब्दका प्रयोग होता है। करनेबालेको का कहना क्रियानिमित्तक है। द्विजत्व जातिके निमित्तसे होनेवाला द्विजव्यवहार जातिनिमित्तक है। फीके लालगुणके निमित्तसे होनेवाला पाटलग्यपहार गुणनिमित्तक है। शब्द के इन द्रव्य गुणादि प्रवृत्तिनिमितोंकी अपेक्षा न करके व्यवहार के Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक!- आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज प्रथम अध्याय लिए अपनी इच्छानुसार नाम रख लेना नाम निक्षेप है। जैसे किसी लड़केकी गजराज यह संझा। लकड़ीमें खोदे गए, सूतसे काढ़े गए, गोबर आदिसे लीपे गए वस्तुके आकारमें 'यह वही है। इस प्रकारकी स्थापना तदाकारस्थापना है । शतरंजके अतदाकार मुहरों में हाथी घोड़ा आदिकी कल्पना अतदाकारस्थापना है। जो गुणवाला था, है तथा रहेगा वह द्रव्य है। वर्तमान पर्यायवाला द्रव्य ही भाव कहलाता है। जैसे-जीवनगुणकी अपेक्षाके बिना जिस किसी पदार्थको जीव कहना नामजीव है। उस आकारवाले या उस आकारसे रहित पदार्थमें उस जीवकी कल्पना स्थापनाजीव है। जैसे हाथी घोड़े के आकारवाले खिलौनों को या शतरंजके मुहरोंको हाथी घोड़ा कहना । जीवशास्त्र को जाननेवाला किन्तु वर्तमानमें उसमें उपयुक्त न रहनेवाला आत्मा बागमध्यजीव है। ज्ञाताका शरीर, कर्म, नोकर्म आदि नोभागमद्रव्यजीव हैं। सामान्य रूपसे नोआमद्रन्यजीव नहीं है क्योंकि कोई अजीव जीव नहीं बनता। पर्यायकी दृष्टिस नोआगमध्यजीपकी कल्पना हो सकती है। जैसे कोई मनुष्य मरकर देव होनेवाला है उसे आज भी भाविनोआगमद्रव्यदेव कह सकते हैं। अथवा जो आज जीवशास्त्रको नहीं जानता पर आगे जानेगा वह भो भाविनोबागमद्रव्यजीव कहा जा सकता है। जीवशास्त्रको जानकर उसमें उपयुक्त आत्मा आगमभावजीव है। जीवन पर्यायसे युक्त श्रात्मा नोआगमभावजीव है। इस तरह अनेक प्रकारके जीवों से अप्रस्तुत जीवोंको छोड़कर प्रकृत जीवको पहिचाननेके लिए निक्षेपकी आवश्यकता है । तात्पर्य यह कि हमें किस समय कौनसा जीव अपेक्षित है यह समझना निक्षेपका प्रयोजन है। जैसे जब बच्चा शेरके लिए रो रहा हो तब स्थापना शेरकी आवश्यकता है । शेरसिंह पुकारनेपर शेर सिंह नामबाले व्यक्तिकी आवश्यकता है। आदि । 'नामस्थापनाद्रव्यभावतो न्यासः' इतना ही सूत्र बनानेसे प्रधानभूत सम्यग्दर्शनादिका ही प्रहण होता धतः प्रधानभूत सम्यग्दर्शनादि तथा उनके विषयभूत जीवादि सभीका संग्रह करने के लिए खासतौरसे सर्वसंग्राहक 'सत्' शब्द दे दिया है । नामादिनिक्षेपके विषयभूत जीवादि पदार्थों को जानने का उपाय बतलाते हैं प्रमाणनयैरधिगमः ॥ ६ ॥ प्रमाण और नयके द्वारा जीवादिपदार्थोंका ज्ञान होता है। प्रमाण स्वार्थ और पराधके भेदसे दो प्रकारका है. । श्रुत स्वार्थ और परार्ध दोनों प्रकार का है। अन्य प्रमाण स्वार्थ ही है। ज्ञानात्मकको स्वार्ध तथा वचनात्मक को परार्थ कहते हैं। भय वचनविकल्परूप होते हैं। सूत्रमें नय शब्दको अल्पस्वरवाला होनेसे प्रमाण शब्द के पहिले कहना चाहिए था लेकिन नयकी अपेक्षा प्रमाण पूज्य है अतः प्रमाण शब्द पहले कहा गया है। नयकी अपेक्षा प्रमाण पूज्य इसलिये है कि प्रमाणके द्वारा जाने गये पदार्थों के एक देशको ही नय जानता है । प्रमाण सम्पूर्ण पदार्थको जानता है। नय पदार्थ के एकदेश को जानता है। प्रमाण सकलादेशी होता है और नय विकलादेशी। नय दो प्रकारका है एक द्रव्याधिक Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ तत्वार्थ वृत्ति-हिन्दी-सार [ ११७ तथा दूसरा पर्यायार्थिका भावनिक्षेप पर्यायार्थिक नयका विषय है तथा शेष द्रव्यार्थिक नयके । निक्षेप प्रमाण विषय होते हैं इसीलिए प्रमाण सकलादेशी कहलाता है । जीवादि पदार्थों के अधिगम के उपायान्तरको बतलाते हैं चारों निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ॥ ७ ॥ निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान इनके द्वारा भी जीवादिपदार्थों का ज्ञान होता है। स्वरूपमात्रका कहना निर्देश है। अधिकारीका नाम बतलाना स्वामित्व है । उत्पत्ति के कारणको साधन कहते हैं। आधार अधिकरण है। कालके प्रमाणको स्थिति कहते हैं। मेद का नाम विधान है । जैसे सम्यग्दर्शन में-तस्वार्थश्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं यह निर्देश हुआ । सामान्य से सम्यग्दर्शनका स्वामी जीव है। विशेषरूप से चौदह मार्गणाओं की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के स्वामीका वर्णन इस प्रकार है आनारकियोंके दो सम्यग्दर्शन होते हैं औपशमिक sarvatra | प्रथम नरक में पर्यातक और अपर्यातक दोनों के क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होते हैं । जिस जीवने पहिले नरक आयुका बन्ध कर लिया है वह जीव बाद में क्षायिक या क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन युक्त होने पर प्रथम नरकमें ही उत्पन्न होगा द्वितीयादि नरकों में नहीं, अतः प्रथम नरक में अपर्याप्त अवस्था में भी सम्यग्दर्शन हो सकता है । प्रश्न- श्रायोपशमिक सम्यग्दर्शनयुक्त जीव तिर्यञ्च मनुष्य और नरक में उत्पन्न नहीं होता है अतः अपर्यापक नारक आदिके वैदकसम्यक्त्व कैसे बनेगा ? मार्गदर्शक : उत्तर- नरकादि आयुका बन्ध होनेके बाद जिस जीवने दर्शन मोहका क्षपण प्रारंभ किया है वह वेदकसम्यक्त्वी जोब नरक आदि में जाकर क्षपणकी समाप्ति करेगा। अतः नरक और निर्यञ्चगतिमें अपर्याप्त दशा में भी क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन हो सकता है। तिर्यगति में औपशमिक सम्यग्दर्शन पर्यातकोंके ही होता है। क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्त और अपर्यातक दोनोंके ही होते हैं। तिर्यश्विनी के क्षायिक सम्यदर्शन नहीं होता। क्योंकि कर्मभूमिज मनुष्य ही दर्शन मोहके क्षपणका प्रारंभक होता है और क्षपणके प्रारंभ काल के पहिले तिर्यश्च आयु का बन्ध हो जानेपर भी भोगभूमि में तिर्यच ही होगा तिर्यविनी नहीं । कहा भी है- “कर्मभूमि में उत्पन्न होनेवाला मनुष्य ही केवलीके पादमूलमें दर्शनमोहके क्षपणका प्रारंभक होता है, किन्तु क्षण की समाप्ति चारों गतियों में हो सकती है ।" औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्त तिर्यचिनीके ही होते हैं अपर्याप्त नहीं | मनुष्यगति में क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पर्याप्तक और अपर्याप्त दोनों प्रकार के मनुष्यों को होता है । औपशाभिक पर्यामकों के ही होता है अपर्याप्तोंके नहीं । पर्याप्त मनुष्याणी के ही तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं अपर्याप्तक के नहीं । मनुष्यणी के हायिक सम्यग्दर्शन भाववेद की अपेक्षा बतलाया है । देवगति में पर्याप्तक और अपर्याप्तक देवोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं । प्रश्न- अपर्याप्तक देवों के उपशम सम्यग्दर्शन कैसे हो सकता है क्योंकि उपशम सम्यग्दर्शन युक्त प्राणीका मरण नहीं होता ? Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७] प्रथम अध्याय ३३५ उत्तर- मिध्यात्वपूर्वक उपशमसम्यग्दर्शनयुक्त प्राणीका मरण नहीं होता किन्तु वेदकपूर्वक उपशमसम्यग्दर्शनयुक्त प्राणीका तो मरण होता है। क्योंकि बेडक पूर्वक उपशम सभ्यदर्शनयुक्त जीव श्रेणीका आरोहण करता है और श्रेण्या रोहणके समय चारित्रमोहके उपशम के साथ मरण होनेपर अपर्यापक देवों के भी उपशस सम्यग्दर्शन होता है । विशेष - भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देव तथा देवियोंके क्षायिक नहीं होता । सोधर्म और ऐशान कल्पवासी देवियोंके भी क्षायिक नहीं होता। सौधर्म और ऐशान कल्पवासी पर्याप्त देवियोंके ही उपशन और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। saint अपेक्षा संज्ञी पचेन्द्रियके तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं। एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रियपर्यन्त कोई सम्यग्दर्शनात आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज् काय की अपेक्षा कायिकों के तीनों ही सम्यदर्शन होते हैं। स्थावर कायिक के एक भी नहीं । योगकी अपेक्षादीनां वाले जीवके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं। अयोगियों के क्षायिक ही होता है । वेदकी अपेक्षा तीनों वेदोंमें तीनों ही सम्बदर्शन होते हैं। अवेद अवस्था में औपशमिक और क्षार्थिक होता है ! कषाय की अपेक्षा चारों कपायों में तीनों ही सम्बदर्शन होते हैं । अकपाय अवस्था में औपशमिक और क्षायिक होते हैं । ज्ञानकी अपेक्षा मति, भूत, अवधि और मन:पर्ययज्ञानियोंके तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं । केवली के क्षायिक ही होता है। संयमी अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापना संयम तीनों ही होते हैं। परिहारविशुद्धि संयम में वेदक और क्षायिक ही होता है । प्रश्न- परिहारविशुद्धि संयम में उपशमसम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता ? उत्तर - मन:पर्यय, परिहारविशुद्धि, औपशमिकसम्यक्त्व और आहारकऋद्धि इनमें से एकके होनेपर अन्य तीन नहीं होते । विशेष यह है कि मन:पर्ययके साथ मिध्यात्वपूर्वक avaraar निषेध है वेदपूर्वक का नहीं। कहा भी है "मन:पर्यय, परिहारविशुद्धि, उपशमसम्यक्त्व और आहारक आहारकमिश्र इनमें से एकके होनेपर शेष नहीं होते ।" सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात संयम में औपशमिक और क्षायिक होता है। संयतासंयत और असंयतों के तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं । दर्शनकी अपेक्षा चक्षुःदर्शन, अचक्षुः दर्शन और अवधिदर्शन में तीनों ही होते हैं । केवलदर्शन में क्षायिक ही होता है । लेश्या की अपेक्षा छहों लेश्याओं में तीनों ही होते हैं । अलेश्यावस्था में क्षायिक ही । भव्यत्वकी अपेक्षा गव्यों के तीनों ही होते हैं। अभव्योंक एक भी नहीं । सम्यक अपेक्षा से अपनी-अपनी अपेक्षा तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं । संज्ञाकी अपेक्षा संक्षियोंके तीनों ही होते हैं। असंज्ञियोंकि एक भी नहीं। संज्ञी और असंज्ञी दोनों अवस्थाओंसे जो रहित हैं उनके क्षायिक ही होता है । आहारकी अपेक्षा आहारकोंके भी तीनों ही होते हैं । छद्मस्थ अनाहारकों के भी तीनों ही सम्यग्दर्शन होते हैं। समुद्धातप्राप्त केवळीके क्षायिक ही होता है । साधनके दो भेद हैं- अभ्यन्तर और बाह्य । सम्यग्दर्शनका अन्तरङ्ग सावन दर्शनमोह का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम है। वाह्यसाधन प्रथम, द्वितीय और तृतीय नरक में Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ सत्त्वार्थवृत्ति-हिन्दी-सार [श जातिस्मरण, धर्मश्रवण और वेदनाका अनुभव है। चतुर्थ नरकसे सप्तम नरकपर्यन्त जातिस्मरण और वेदनाका अनुभव ये दो सम्यग्दर्शनके बाह्य साधन हैं । तिर्यञ्च और मनुष्योंके जातिस्मरण, धर्मश्रषण और वेदनाका अनुभव ये बाह्य साधन हैं। सौधर्म स्वर्ग सहस्रार स्वर्ग पर्यन्तके देवोंके जातिस्मरण, धर्मश्रवण, जिनमहिमदर्शन और देवद्धिदर्शन ये चार माधन हैं। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पवासी देवोंके देवर्द्धिदर्शनके विना तीन ही साधन हैं। नवयकवासी देवोंके जातिस्मरण और धर्मश्रवण ये दो ही साधन हैं। प्रश्न-वयकवासी देव अहमिन्द्र होते हैं अतः उनके धर्मश्रवण कैसे हो सकता है ? उत्तर-कोई सम्यन्द्रष्टि जीव तत्त्वचर्चा या शास्त्रका मनन करता है, वहाँ उपस्थित दूसरा जीव उस चर्चासे सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लेना है। अथवा प्रमाण, नय और निक्षेप की अपेक्षा वहाँ तत्त्वचर्चा नहीं होती किन्तु सामान्यरूपसे तत्वविचार तो होता ही है । अनः प्रवेयकम भी धर्मश्रवण संभव है। अनुदिश और अनुत्तरविमानवासी देव सम्यग्दर्शनसहित ही उत्पन्न होते हैं। अधिकरण दो प्रकारका है- अभ्यन्तर और बाय । सम्यग्दर्शनका अभ्यन्तर अधिकरण आत्मा ही है। बाह्य अधिकरण लोकनाड़ी (सनाली) है । जीव, पुद्रल, धर्म, अधर्म, काल और आकाशका अधिकरण निश्चयनयसे स्त्रप्रदेश ही है और व्यवहारनयसे आकाश अधिकरण हे । जीत्रका शरीर और क्षेत्र आदि आधार है। चट पटादि पुदलोंका भूमि आदि आधार है। अपने गुण और पर्यायोंका आधार द्रव्य होता है । स्थितिके दो भेद हैं:- उत्कृष्ट और जघन्य। उपशम सम्यग्दर्शनकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। शायिक सिम्यग्दर्शनकार्य संसास जिविका पन्चमस्थानमुहर्त है उस्कृष्ट स्थिति आठ वर्ष और अन्तर्मुहृत कम दो पूर्वकोटि सहित तेतीस सागर है । यह इस प्रकार है- कोई मनुष्य कर्मभूमिमें पुर्वकोटि आयुवाला उत्पन्न हुआ और गर्भमे आठ वर्ष के बाद अन्तर्मुहूर्त में दर्शन मोहका क्षपण करके सम्बष्टि होकर सर्वार्थसिद्धि में ततीय सागरकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ। पूनः पूर्वकोटि आयुवाला मनुष्य होकर कर्मक्षय करके मान प्राप्त कर लेता है। मुक्त जीवकी क्षायिक सम्यग्दर्शनकी स्थिति सादि और अनन्त है। भायोपशमिक सम्यग्दर्शनकी जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागर है। प्रश्न-६६ सागर स्थिति कैसे होती है ? उत्तर-सौधर्म स्वर्गम २ सागर शुक्रमें १६ सागर, शतारमै १८ सागर, और अष्टम वेयकमें ३. सागर इस प्रकार ६६ सागर होते हैं। अथवा सौधर्म स्वर्ग में दो बार उत्पन्न होनेसे ४ सागर, सनत्कुमार में ७ सागर, ब्रह्ममें १० सागर, लान्तबमें १४ सागर और नवम वेयकमें २५ सागर इस प्रकार ६६ सागर होते हैं। स्वोंकी आयके अन्तिम सागरमेंसे मनुष्याय कम कर लेनी चाहिए क्योंकि स्वर्गसे च्युत होकर मनुष्य होता है, पुनः स्वर्ग जाता है । अतः ६६ सागर से अधिक स्थिति नहीं होती। विधान-सामान्यसे सम्यग्दर्शन एक ही है। विशेषसे निसगंज और अधिगमजके भेदसे दो प्रकारका है । उपशम, भय और भयोपशमके भेदसे उसके तीन भेद हैं । __आझा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप,विस्तार अर्थ, श्रवगाढ और परमावगाडके भेदसे सम्यग्दर्शन के दश भेद भी होते हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ११८] प्रथम अध्याय शास्त्राभ्यासके विना वीतरागकी आज्ञासे ही जो श्रद्धान होता है वह आज्ञासम्यक्त्व है। दशनमोहके उपशम होनेसे शास्त्राभ्यासके बिना ही मोक्षमार्ग में श्रद्धान होना मार्गसम्यक्त्व है। तीर्थकर आदि श्रेष्ठ पुरुषोंके चरित्रश्रयणसे उत्पन्न हुए श्रद्धानको उपदेशसम्यक्त्व कहते हैं। आचारसूत्र को सुननेसे जो श्रद्धान होता है वह सूत्रसम्यक्त्व है। गणितमें बतलाये हुए वीजाक्षरोंके द्वारा करणानुयोगके गहन पदार्थोंका श्रद्धान हो जाना बीजसम्यक्त्व है । तत्त्वोंका संक्षिप्त जान होने पर भी तत्त्वोंमें रुचि होना संक्षेपसम्यक्त्व है। द्वादशांगको सुनकर जो श्रदान उत्पन्न होता है उसको विस्तारसम्यक्त्व कहते हैं। किसी पदार्थ के देखने या अनुभव करनेसे होनेवाले श्रद्धानका नाम अर्थसम्यक्स्य है। बारह अ और अन्न बाह्य इस प्रकार सम्पूर्ण श्रुतका पारगामी होनेपर जो श्रद्धान होता है यह अवगाढसम्यक्त्व है। केवलीके केवलज्ञानसे जाने हुए पदार्थों में श्रद्धानका नाम परमावगाढ़सम्यक्त्व है। सम्यग्दर्शनके प्ररूपक शब्द संख्यात हैं अतः संख्यात भेद भी होते हैं। श्रद्धान करनेवाले और श्रद्धेयके भेदसे असंख्यात और अनन्तभेद भी होते हैं। प्रश्न-असंख्यात और अनन्तभेद कैसे होते हैं ? उत्तर-श्रद्धान करनेवालों के असंख्यात और अनन्त भी भेद होते हैं और श्रद्धेय पदार्थके भी उतने ही भेद होते हैं क्योंकि श्रद्धेय पदार्थ श्रद्धाता के विषय होते हैं। अतः विषय और विषयी अथवा श्रद्धाता और अर्द्धय के भेदसे असंख्यात और अनन्त भेद हो सकते हैं। जीवादि पदार्थो के अधिगमके उपायान्तर को बतलाते हैं सत्सङ्ख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ।। ८ ॥ सत् शब्दके साधु, अर्चित, प्रशस्त, सत्य और अस्तित्व इस प्रकार कई अर्थ हैं। उनमें से यहाँ सत्का अर्थ अस्तित्व है । संख्या भेद को कहते हैं। निवासका नाम क्षेत्र है। वर्तमानकालचर्ती निवासको क्षेत्र कहते हैं। त्रिकालवर्ती क्षेत्रको स्पर्शन कहते है। मुख्य और व्यवहारके भेदसे काल दो प्रकारका है। विरहकालको अन्तर कहते हैं। औपशमिकादि परिणामोंको भाव कहते हैं। एक दूसरेकी अपेक्षा विशेष ज्ञानको अल्प. वहुस्त्र कहते हैं सूत्रम आया हुआ 'च' शब्द समुच्चयार्थक है, अर्थात् चशब्द का तात्पर्य है कि केवल प्रमाण, नय और निर्देश आदिके द्वारा ही जीव आदिका अधिगम नहीं होता किन्तु सत्संख्या आदिके द्वारा भी अधिगम होता है। बद्यपि पूर्वसूत्रमै कहे हुए निर्देश शब्दसे सन्का, विधानसे संख्या का, अधिकरणसे क्षेत्र और स्पर्शनका, स्थितिसे कालका ग्रहण हो जाता है। नामादि निक्षेपमें भावका भी प्रण हो चुका है, फिर भी सत् आदिका ग्रहण विस्तृत अभिप्राययाले शिष्योंकी दृष्टि से किया है। अब जीव इत्यमें सत् आदिका वर्णन करते हैं जीव चौदह गुणस्थानों में पाये जाते हैं। गुणस्थान इस प्रकार है--५ मिथ्याष्टि २-सासादनसम्यग्दृष्टि ३ सम्यग्मिध्याष्टि४ असंयतसम्यग्दृष्टि ५ देशसंयत ६. प्रमत्तसंयत Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [१५८ ७ अप्रमत्तसंयत ८ अपूर्घकरण ९ अनिवृत्तिकरण १० सूक्ष्मसाम्परान्य ११ उपशान्तकषाय १२ क्षीणकषाय १३ सयोगकेवली १४ अयोगकेवली। इन चौदह गुणस्थानों में जीवोंका वर्णन चौदह मार्गणाओंकी अपेक्षा किया गया है। मार्गणाएँ ये हैं-रगति २ इन्द्रिय ३ काय ४ योग ५ वेधशिवसका ७ बाहामंशा सुविधासाभरलेशमा महशअव्यत्व १२ सम्यक्त्व १३ संज्ञा १४ आहार। सामान्यसे जीवमै मिथ्याष्टिसे अयोगकेवलीपर्यन्त सभी गुणस्थान पाये जाते हैं। विशेषसे गतिकी अपेक्षा नरकगति में सातों ही नरकों में मिध्यादृष्टि आदि ४ गुणस्थान होते हैं। तिर्यगति में देशसंयत सहित ५ गुणस्थान है। मनुष्यगतिमें १४ ही गुणस्थान होते हैं। देवगतिमें आदिके ४ गुणस्थान होते हैं। ___ इन्द्रियकी अपेक्षा. एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रियपर्यन्त प्रथम गुणस्थान ही होता है। पञ्चेन्द्रिय के १४ ही गुणस्थान होते हैं। कायकी अपेक्षा पृथिवी आदि स्थावरकायमें प्रथम गुणस्थान होता है। त्रसकायमें १४ ही होते हैं। योगकी अपेक्षा तीनों योगों में सयोगकेयलीपर्यन्त गुणस्थान होते हैं। अयोग अवस्थामें केवल अयोगकेवली गुणस्थान होता है। वेदकी अपेक्षा तीनों वेदोंमें अनिवृत्तिवादरपर्यन्त ५ गुणस्थान होते हैं। वेदरहित जीवोंके अनिवृत्तिनादरसे अयोगकेवली पर्यन्त ६ गुणस्थान होते हैं। अनिवृत्तिबावर गुणस्थानके ६ भाग होते हैं। उनमेंसे प्रथम ३ भागों में वेदकी निवृत्ति न होनेसे चे सवेद हैं और अन्तके ३ भाग अवेद हैं। अतः अनिवृत्तिकरण सवेद और अवेद दोनों प्रकारका है। कषायकी अपेक्षा क्रोध, मान और मायामें अनिवृत्तिबादर पर्यन्त ५ गुणस्थान होते हैं । लोभ कषायमें मिथ्यादृष्टि आदि १० गुणस्थान होते हैं। अकषाय अवस्था में उपशान्त कषायसे अयोगफेवली पर्यन्त ४ गुणस्थान होते हैं। झानकी अपेक्षा कुमति, कुश्रुत और कुअवधि में प्रथम और द्वितीय गुणस्थान होते है। सम्यग्मिध्याष्टिके ज्ञान या अज्ञान नहीं होता किन्तु अज्ञान सहित ज्ञान होता है । कहा भी है-मिश्र में तीन ज्ञान तीन अज्ञानसे मिश्रित होते हैं। इसलिये यहाँपर मिश्र गुणस्थानका वर्णन नहीं किया गया है। मिश्रका वर्णन अज्ञान प्ररूपणामें ही किया गया है क्योंकि सम्यग्मिध्यादृष्टिका ज्ञान यथार्थ वस्तुको नहीं जानता है। मति, श्रत और अवधिज्ञानमें असंयतसम्यग्दृष्टि से क्षीणकषायपर्यन्त ए गुणस्थान होते हैं। मनःपर्ययज्ञानमें प्रमतसंयतसे क्षीणकषायपर्यन्त ७ गुणस्थान होते हैं। केवलज्ञानमें सयोगकेवली और अयोगकेवली ये दो गुणस्थान होते हैं। संयम की अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापना संयममें प्रमत्त आदि चार गुणास्थान होते हैं। परिहारविशुद्धिसंयम में प्रमत्त और अप्रमत्त दो गुणस्थान होते हैं । सूरमसाम्पराय संयममें सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान ही होता है । यथाख्यात संयम, उपशान्तकपायसे अयोगकेवलीपर्यन्त ४ गुणस्थान होते हैं । देशसंयममें पञ्चम गुणस्थान ही होता है। असंयत अवस्थामें आदिके ४ गुण-स्थान होते हैं। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {12] प्रथम अध्याय ३३९ दर्शनकी अपेक्षा चक्षु और अचतुदर्शन में आदिके १२ गुणस्थान होते हैं । अवधिदर्शनमें असंयतसम्यग्दृष्टि आदि ९ गुणस्थान होते हैं । केवलदर्शन में अन्तके दो गुणस्थान होते हैं । लेrयाकी अपेक्षा कृष्ण, नील और कापोत लेश्या में मिध्यादृष्टि आदि ४ गुणस्थान होते है । पीत और पद्म लेश्या में आदिके ७ गुणस्थान होते हैं। शुक्ल लेश्या में आदि १३ गुणस्थान होते है । १४ वाँ गुणस्थान लेश्यारहित हैं । भव्यत्वकी अपेक्षा भव्योंके १४ ही गुणस्थान होते हैं। अभव्यके पहिला गुणस्थान ही होता है । सम्यक्त्वकी अपेक्षा क्षायिकसम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि यदि ११ गुणस्थान होते हैं । वेदकसम्यक्त्वमें असंयतसम्यग्दृष्टि आदि ४ गुणस्थान होते हैं । औपशमिक सम्यक्ज्ञादशीकयतसज्जावधि अदखान जो हैंासादनसम्यग्दृष्टि के एक सासादन गुणस्थान ही होता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है । मिथ्यादृष्टि मिध्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है । संज्ञाकी अपेक्षा संज्ञीके आदिसे १२ गुणस्थान होते हैं। असंज्ञीके प्रथम गुणस्थान ही होता है । अन्त के दो गुणस्थानों में संक्षी और असंज्ञी व्यवहार नहीं होता । आहारकी अपेक्षा आहारकके आदिसे १३ गुणस्थान होते हैं । अनाहारकके विग्रहगति में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान होते है । समुद्रात करनेवाले सयोगकेवली और अयोगकेवली अनाहारक होते हैं । सिद्ध गुणस्थान रहित होते हैं । संख्याप्ररूपणाका वर्णन भी सामान्य और विशेषकी अपेक्षा किया गया है । सामान्य से मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और देशसंयत्त पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। यह इस प्रकार है-द्वितीय गुणस्थान में वाचन करोड़ ५२०००००००, तृतीय में एक सो चार करोड़ १०४०००००००, चतुर्थ में सात सौ करोड़ ७०००००००००, और पमगुणस्थान में तेरह करोड़ १३००००००० संख्या है। कहा भी है-- देशविरत में तेरह करोड़, सासादन में बावन करोड़, मिश्र में एक सौ चार करोड़ और असंयत में सात सौ करोड़ जीवों की संख्या है। संयत कोटिपृथक्त्व प्रमाण हैं । प्रश्न- पृथक्त्व किसे कहते हैं ? उत्तर - तोनसे अधिक और नौसे कम संख्याको पृथक्त्व कहते हैं। प्रमत्तसंयत जीवों की संख्या ५९३९८२०६ है । अप्रमत्त संयत जीव संख्यात हैं अर्थात् २९६४९१०३ हैं । पूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय और उपशान्तकपाय ये चार उपशमक हैं इनमें प्रत्येक गुणस्थानके आठ २ समय होते हैं और आठ समय में क्रमशः १६,२४,३०,३६, ४२,४८,५४,५४ सामान्यसे उत्कृष्ट संख्या है । विशेषसे प्रथम समय में १,२,३ इत्यादि १६ तक उत्कृष्ट संख्या होती है। इसी प्रकार द्वितीय आदि समयों में समझना चाहिए। कहा भी है — १६,२४,३०,३६,४२,४८,५४,५४ संख्या प्रमाण उपशमक होते हैं । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८ प्रत्येक गुणस्थान में २९९ उपशमक होते हैं । प्रश्न- १६ आदि आठ समयोंकी संख्याका जोड़ ३०४ होता है फिर २९४ कैसे बतलाया ? उत्तर - श्राठ समयों में श्रपशमिक निरन्तर होते हैं किन्तु पूर्ण संख्या में ५ कम होते दवारों भुवनकी संख्या । अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय क्षीणकषाय और अयोगकेवली इन गुणस्थानों में प्रत्येकके आठ आठ समय होते हैं। और प्रत्येक समय की संख्या उपशमकसे द्विगुणी है। कहा भी है- ३४० स्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार ३२, ४८, ६०, ७२,८४, ९६, १०८, १०८ क्रमशः प्रथम आदि समयोंकी संख्या है। प्रत्येक गुणस्थान में सम्पूर्ण संख्या ५९८ है । प्रश्न- इन गुणस्थानोंमें भी ६०८ संख्या होती है, ५६८ किस प्रकार संभव है ? उत्तर – जिस प्रकार उपशमकों की संख्या में ५ कम हो जाते हैं उसी प्रकार क्षपकों की संख्या में भी द्विगुणी हानि होने से १० कम हो जाते हैं । अतः ५९८ ही संख्या होती है । इस प्रकार ५ क्षपक गुणस्थानों की समस्त संख्या २९९० है । कहा भी हैं क्षीण कषायों की संख्या २९९० है । सयोगकेवली भी उपशमकों की अपेक्षा द्विगुणित हैं। श्रतः प्रथम समय में १, २, ३ इत्यादि ३२ पर्यन्त उत्कृष्ट संख्या है। इसी प्रकार द्वितीय आदि समय में समझना चाहिए । प्रश्न -- क्षपकों की तरह ही सयोगकेवलियोंकी संख्या है । अतः सयोगकेवलीका पृथक् वर्णन क्यों किया ? उत्तर - आठ समयवर्ती समस्त केवलियोंकी संख्या ८९८५०२ है । अतः समुदित संख्याको अपेक्षा भपकों से विशेषता होने के कारण सयोगकेवलीका वर्णन पृथक किया है। कहा भी है 'जिनों की संख्या ८ लाख ९८ हजार ५०२ है ।' प्रमत्तसंयत से अयोग केबली पर्यन्त एक समयवर्ती समस्त जीवोंकी उत्कृष्ट संख्या ८९९९९९९७ हैं । इस प्रकार सामान्य संख्याका वर्णन हुआ। क्षेत्रका वर्णन सामान्य और विशेषकी अपेक्षा किया गया है। सामान्यसे मिध्यादृष्टियों का क्षेत्र सर्वलोक है । सासादन सम्यग्दृष्टि से क्षीणकषाय पर्यन्त और अयोगकेवलीका क्षेत्र लोककें असंख्यात भाग है । सयोगकेवलीका क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग अथवा लोकके असंख्यात भाग या सर्वलोक है । प्रश्न-सयोगकेवलीका लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्र फँसे है ? उत्तर - दण्ड और कपाटकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्र होता है। इसका विवरण इस प्रकार है-यदि समुद्धात करने वाला कायोत्सर्गसे स्थित है तो दण्डसमुद्घातको बारह अङ्गुल प्रमाण समवृत्त ( गोलाकार ) करेगा अथवा मूल शरीरप्रमाण समवृत्त करेगा । और यदि बैठा हुआ है तो प्रथम समय में शरीर से त्रिगुण बाहुल्य अथवा तीन चातवलय कम लोक प्रभाण करेगा । कपाट समुद्धातको यदि पूर्वाभिमुख होकर करेगा तो दक्षिण-उत्तर की ओर एक धनुष प्रमाण विस्तार होगा । और उत्तराभिमुख होकर करेगा तो पूर्व-पश्चिम की और द्वितीय समय में आत्मसर्पण करेगा इसका विशेष व्याख्यान संस्कृत मद्दापुराणपञ्जिकामें है। प्रतरकी अपेक्षां लोककें असंख्यात भाग प्रमाण क्षेत्र होता है। प्रतर अवस्था में Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] प्रथम अध्याय -सयोगकेवली तीनों वातवलयोंके नीचे ही श्रात्मप्रदेशोंसे लोकको व्याप्त करता है । लोक पूरण अवस्थामें तीनों वातवलयोंको भी व्याप्त करता है । अतः सर्वलोक भी क्षेत्र होता है। स्पर्शन भी सामान्य और विशेषके भेदसे दो प्रकार का है । सामान्यसे मिथ्याष्टियों के द्वारा सर्वलोक स्पृष्ट है। असंख्यात करोड योजन प्रमाण आकाशके प्रश्शोंको एक राज़ कहते हैं। और तीन सौ तेतालीस राजू प्रमाण लोक होता है। लोक स्वस्थानबिहार, परस्थान विहार और मारणान्तिक उपपाद प्राणियोंके द्वारा किया जाता है। स्वस्थानविहार की अपेक्षा सासादन सम्यग्दृष्टियों के द्वारा लोकका असंख्यातयों भाग स्पर्श किया जाता है। परस्थानविहार की अपेक्षा सासादनदेयों द्वारा तृतीयनरच. पर्यन्त बिहार होनेसे दो राजू क्षेत्र स्पृष्ट है । अच्युत स्वर्गके उपरिभाग पर्यन्त विहार होनेसे ६ राजू क्षेत्र स्पष्ट है । इस प्रकार लोकके ८, १२ या कुछ कम १४ भाग स्पृष्ट हैं। प्रश्न- द्वादश भाग किस प्रकार स्पृष्ट होते हैं ? उत्तर-सप्तम नरकमें जिसने सासादन आदि गुण स्थानोंको छोड़ दिया है वही जीव मारणान्तिक समुद्धात करता है इस नियमसे पाट नरकसे मध्यलोक पर्यन्त सासादनसम्यग्दृष्टि जीय मारणान्तिकको करता है । और मध्यलोकसे लोकके अग्रभागपर्यन्त बादरपृथ्वी, अप और वनस्पति कायमें उत्पन्न होता है। अतः ७ राजू क्षेत्र ग्रह हुआ। इस प्रकार ५२ राजू क्षेत्र हो जाता है। यह नियम हैं कि सासादनसम्यम्दष्टि जीव वायुकामश्चर्यदलकाचिकामार्थ और सुर्विवूिजाकामियों मेंहासन नहीं होता है । कहा भी है। तेजकायिक, वाचुकायिक, नरक और सर्वसूक्ष्मकायिकको छोड़कर बाकीक स्थानांम सासादन जीव उत्पन्न होता है। प्रश्न देशोन क्षेत्र कैसे होता है ? उत्तर-कुछ प्रदेश सासादन सम्यग्लाष्टिक सर्शन योग्य नहीं होते हैं इसलिये देशान क्षेत्र हो जाता है। आगे भो देशोनता इसी प्रकार समझनी चाहिए। सम्यगमिथ्यानि और असंयतसम्यराष्ट्रियोंक द्वारा लोक का असंख्यातवाँ भाग, लोकके आठ भाग अथवा कुछ कम १४ भाग स्पृष्ट है। प्रश्न-किस प्रकार से? उत्तर-सम्यगमिथ्याष्टि और असंचतसम्यग्दृष्टि दचोंक द्वारा परस्थानविहारकी अपेक्षा आठ राजू स्पृष्ट है। संयतासंय”क द्वारा लोकका असंख्यातवाँ भाग, छह भाग अथवा कुछ कम चौदह भाग पृष्ट है। प्रश्न-किस प्रकार से ? ग्वयंभूर-णमें स्थित संग्रतासंयत तिर्य चोंक द्वारा मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा छह राजू स्पृष्ट है। प्रमत्तसंयतसे अयोनकवली पयन्त गुणस्थानवी जीवोंका स्पशन क्षेत्रके समान ही है। क्योंकि प्रमत्तसंयत्त आदिका क्षेत्र नियत है श्रीर भवान्तर में उत्पादस्थान भी नियत है। अतः चतुष्कोण रज्जूके प्रदेशोंम निधास न हानसे लोक असंख्यातयों भाग स्पशन है। सयोगकेवलीके भी क्षेत्र के समान ही लोकका असंख्यानौँ भाग, लोकके असंख्यात भाग अथवा सर्वलोक स्यर्शन है। काल-सामान्य और विशेषके भेदसे काल दो प्रकारका है। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [१८ सामान्य से मिथ्यादृष्टियों में नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल हैं। एक जीवकी अपेक्षा कालके तीन मंद होते हैं। किसी जीत्रका काल अनादि और अनन्त है, किसीका अनादि और सान्त है । तथा किसीका सादि और सान्त हैं। सादि और सान्तकाल जघन्य अन्तमुहूत है और उत्कृष्ठ कुछ कम अधपुद्गलपरिवर्तनकाल है। सासादन सम्यष्ट्रियोंम सब जीवोंकी अपेक्षा जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट मार्गदर्शक :- कुपचावयाभावहासामा म्हागजीवकी अपेक्षा जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल ६ अाचली.हे। असंख्यात समयकी एक आवली होती है। संख्यात आलियोंके समूहको उच्छ्वास कहते हैं। सात उच्छ्वासका एक स्तोक होता है। सात स्तोकका एक लब होता है । ३८ लवकी एक नाली होती है। दो मालीका एक मुहूर्त होता है अर्थात् ३७७३ उच्छ्वासांक समूहको मुहूर्त कहते हैं। एक समय अधिक आवलीसे अधिक और एक समय कम मुहूर्त के समयको अन्तर्मुहूर्न कहते हैं । इसके असंख्यात भेद हैं। सम्बग्मिथ्या दृष्टियों में नाना जीवों की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग हैं। एक जीलकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त ही है। असंग्रतसम्यग्दृष्टिक नाना जीरोंकी अपेक्षा सर्वकाल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ अधिक तेतीस सागर है । क्योंकि कोई 'पूर्वकादि आयुवाला मनुष्य आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त के बाद सम्यकत्वको प्राप्त कर विशेष तपके द्वारा सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न हो सकता है। वहीं जीच सर्वार्थसिद्धिसे मनुष्य भवमें आकर आठ घपके बाद संयम ग्रहण करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार कुछ अधिक तेतीस सागर काल हो जाना है। देशसंयतके नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल है। एक जीबकी अपेक्षा जघन्यकाल अन्नर्मुहूर्त और उस्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि है।। प्रमत्त और अप्रमत्त जीवोंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यकाल एक समय है । क्योंकि कोई प्रमसगुणस्थानवी जीव अपनी आयुके एक समय छाप रहनेपर अप्रमत्तगुष्यस्थानको प्राप्तकर मरण करता है। इसी प्रकार अप्रमत्तगुणस्थामवर्ती जीव अपनी आयुके एक समय शेष रहनेपर प्रमत्तगुणस्थानको प्राप्तकर मृत्युको प्राप्त होता है। इस प्रकार दोनों गुणस्थानों में एक जीवका जघन्यकाल एक समय है। और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। चारों जपशमकोंक नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। क्योंकि चारों उपशमक एक साथ ५४ तक हो सकते हैं और यह सम्भव है कि उपशमश्रेणी में प्रवेश करते ही सबका एक साथ मरण हो जाय । इसलिये जघन्यसे एक समय काल बन सकता है। प्रश्न इस प्रकारसे मिश्वादृष्टिका काल भी एक समय क्यों नहीं होता ? उत्तर-जिस जीवने मिथ्यात्वको प्राप्त कर लिया है उसका अन्तमुहूर्त के बीच नरण नहीं हो सकता । कहा भी है कि सम्यग्दर्शनसे मिथ्यात्वको प्राप्त कर लेनेपर अनन्तानुबन्धी कपायों का एक प्रावली पर्यन्त पाक नहीं होता है और अन्तर्मुहून के मध्यमें मरण भी नहीं होता है। सम्यगमिथ्याष्ट्रि जीव मरणसमयमें उस गुणस्थानको छोड़ देता है अतः उसका भी काल एक समय नहीं है। असंयत और संयतासंयत जीव भी अन्तर्मुहूर्तके भीतर मरण नहीं करता अतः इसका भी काल एक समय नहीं है। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] प्रथम अध्याय ३४३ चारों क्षपक और अयोगकेवलीका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि चारों अपक और अयोगकेवली ये नियमसे मोक्षगामी होते हैं अतः इनका बीचमें मरण नहीं हो सकता। सयोगकेवलोका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल है और एक जीचको अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि सयोगकेपली गुणस्थानवी जीव अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर प्रयोगकेवली गुणस्थानको प्राप्त करता है। उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। क्योंकि कोई जीव आठ वर्ष के बाद में तपको ग्रहण करके केवलज्ञानको प्राप्त कर सकता है। अतः आठ वर्ष कम हो जानेसे कुछ कम पूर्वकोटि काल होता है। एक गुणस्थामर्सेदर्दूसरे गुणस्यमय मीनाशिक्षिक्सकरपुती उहाकुलस्थानकी प्राप्ति नहीं होती उतने कालको अन्तर कहते हैं।। अन्तरका विचार सामान्य और विशेष दो प्रकारसे होता है। सामान्यसे मिथ्याष्ट्रिगुणस्थानमें नाना जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहत है। उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर अर्थात् १३२ सागर है। क्योंकि कोई जीव चेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करनेपर उत्कृष्ट काल ६६ सागर तक सम्यक्त्वी रह सकता है। पुनः अन्तर्मुहूर्त पर्यन्न सम्यग्मि यात्व गुणस्थानमें रहने के बाद पत्यके असंख्यात भाग बीत जानेपर औपशमिक सम्यक्त्वको ग्रहण करनेकी योग्यता होती है। इतने अन्तर के बाद पुनः वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करनेकी योग्यता होती है। इस तरह वेदकसम्यक्त्वको पुनः ग्रहण करके ६६ सागर बिताता है। इस तरह दो बार छयासठ सागर अन्तर आ जाता है। __ सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें नानाजीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अधपुद्गलपरिवर्तन है। __सम्यगमिथ्याष्टिगुणस्थानमें नाना जीवोंकी अपेक्षा सासादनगुणस्थानकी तरह ही अन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है। असंयतसम्यग्दृष्टि से अप्रमत्तसंयततक नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघग्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है। चारों उपशमकों के नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्व है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्नर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अधंपुद्गलपरिवर्तन है। चारों क्षपक और अयोगकेवीके नाना जीवोंकी अपेक्षा जयन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह माह है । एक जीवको अपेक्षा अन्तर नहीं है। सयोगकेचलीके नाना जीव अथवा एक जावकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। सामान्य और विशेषके भेदसे भाव दो प्रकारका है। सामान्यमे मिथ्याष्टिगुणस्थानमें मिध्यात्य प्रकृतिका उदय होनेसे औदायिक भाव है। सासादनगुणस्थानमें पारिणःमिक भाव होता है। प्रश्न-अनन्तानुबन्धिकषायके उद्यसे द्वितीय गुणस्थान होता है अत: इस गुणस्थानमें औयिक भाव क्यों नहीं बतलाया ? Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शतत्त्वार्थप्रेमिलाई श्रीसाविधिसागर जी महाराज [ १९ उत्तर-मिथ्याष्टि आदि चार गुणस्थानों में दशनमोहनीयक उदय आदिकी अपधाम भावोंका वर्णन किया गया है। और सासादनगुणग्थान, दानमहिनायके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम न होने पारिणामिक भावका सझाव आगममें कहा है। मिश्रगुणस्थानमें क्षायोपशमिक भाव होता है। प्रश्न-सर्वघाती प्रकृतियोंक उदय न होनेपर और देशघाती प्रकृनियों के उदय होनेपर नायोपशमिक भाव होता है। लेकिन सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति देशघाती नहीं है क्योंकि आगममें उसको सर्वघाती बतलाया है। अतः तृतीय गुप्मस्थान में क्षायोपमिक भाव कैसे संभव है ? उत्तर-उपचारसे सम्यम्मिध्यात्वप्रकृति भी देशघाती है। सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति एकदेशसे सम्यबस्वका घात करती है । वह मिथ्यात्वप्रकृतिक समान सम्यक्त्वका सर्यघात नहीं करती। सम्यग्मिथ्यान्वप्रकृति के उदय होनेपर पर्वतके द्वारा उपदिष्ट तत्वोंमें चलाचलरूप परिणाम होते हैं। अतः सम्याम्मिथ्यात्यप्रकृति उपचारसे देशघाती है और देशघाती होनेसे तीसरे गुणस्थानमें क्षायोपशमिकभायका सात्र युक्तिसंगत है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें औपमिक, क्षायिक और भायोपशमिक भाव होते हैं। असंयत औदायक मायसे होता है। मंयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में क्षायोपशमिक भाव होता है। चारों उपशमक गुणस्थानमें औपशामक भाव होता है । चारोंक्षपक, सयोगकेवली और अयोगेकेवली गुणस्थानों में क्षायिक भाव होता है । अल्पचहुबका वर्णन भी सामान्य और विशेषके भेदसे किया गया है। सामान्यसे अपूर्वकरण, अनिवृनिकरण और सूक्ष्मसापराय इन तीन उपशम गुणस्थानों में उपशमक सब से कम हैं। आठ समयों में कमसे प्रवेश करने पर इनकी जघन्य संख्या १, २, ३ इत्यादि है और उत्कृष्ट संख्या ५६, २४, ३०, ३६, १५, १८, १४, ५४ है। अपने २ गुणास्थान कालमें इनकी संख्या बराबर है। उपशान्तकपाय गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या संख्याके वर्णनमें बतलाई जा चुकी है। उपशमक जीवों की संख्या सबसे कम होने के कारण पहिले इनका वर्णन किया गया है। तीन उपशमकों को कपाय सहित हानेसे उपशान्त कपायये पृथक् निर्देश किया गया है। तीन पक गुणस्थानवती जीव उपशमकांसे संख्यातगुते हैं। सूक्ष्मसाम्परायसं यत विशेप अधिक हैं। क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायमें उपशमक और क्षपक दोनों का प्रण किया गया है। श्रीणकपाय गुणस्थानवी जीवों की संख्या संख्याक वर्णनमें बतलाई जा चुकी है। सोगकेवली और अयोगकवली जीवों की संख्या प्रवेश की अपेक्षा बराबर है। अपने कालमें सर्वसयोगकेवलियों की संख्या ८५८५०२ है । अप्रमत्तानंयत संख्यातगने है। प्रमत्तसंयत संख्यातगुने हैं। संयतासंयन संख्यातगने हैं। मंयतासंयतों में अल्पबदुत्व नहीं है, क्योंकि संयतों की तरह इनमें गुणस्थान का भेद नहीं है। सामान सम्यग्दृष्टि संग्न्यानगुने '५२०५०.६० हैं। सम्यम्मिश्यादृष्टि संख्यानगुने १८४००-१००० हैं। असंयतसम्यग्दर्भात संख्यातगुने ७.0000००० हैं । मिथ्याष्ट्रि अनन्तगुने हैं। इमाप्रकार सत् संख्या आदि का गुणस्थानाम सामान्य की अपेक्षासे वर्णन किया गया है। विशेष की अपेक्षासे वर्णन विस्तारभय से नहीं किया है । सम्यग्ज्ञान का वर्णनमतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् ।। ९ ॥ मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पांच सम्यग्ज्ञान हैं। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज १९] प्रथम अध्याय मति ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर पाँच इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है। श्रुतज्ञानावरण कर्म के भयोपशम होने पर मतिज्ञानके द्वारा जाने हुए पदार्थों को विशेषरूपसे जानना श्रुतज्ञान है । इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना रूपी पदार्थों का जो स्पष्ट ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है । नीचे अधिक और ऊपर अल विषय को जानने के कारण इसको अवधि कहते हैं। देव अवधिज्ञानर नीचे सातवें नरक पर्यन्त और ऊपर अपने विमान की ध्वजा पर्यन्त देखते हैं। अथवा विषय नियत होने के कारण इसको अवधि कहते हैं । अवधिज्ञान रूपी पदार्थ को ही जानता है। दूसरेके मन में स्थित पदार्थको ( मन की बात को) जानने वाले ज्ञानको मनःपर्यय कहते हैं। मनःपयंग ज्ञानमें मनको सहायक होने के कारण मतिज्ञानका प्रसङ्ग नहीं हो सकता क्योंकि मन निमित्तमात्र होता है जैसे आकाश में चन्द्रमा को देखा यहाँ आकाश केवल निमित्त है अतः मन मनःपर्यय ज्ञान का कारण नहीं है। जिसके लिए मुनिजन बाह्य और अभ्यान्तर तप करते हैं उसे केवल ज्ञान कहते हैं । सम्पूर्ण द्रव्यों और उनको त्रिकालवती पर्यायों को युगपत् जानने वाले असहाय (दूसरे की अपेक्षा रहिन ) ज्ञान का केवलज्ञान कहते हैं। केवल ज्ञान की प्राप्ति सबसे अन्तमें होती है अतः इसका ग्रहण अन्तमें किया है। केवलज्ञानके समीप में मनःपर्यय का ग्रहण किया है क्योंकि दोनों का अधिकरण एक ही है। दोनों यथाख्यातचारित्रवालेके होते हैं। केवलज्ञानसं अवधिज्ञान को दूर रखाइ क्योंकि घाह केवलज्ञानसे विप्रकृष्ट ( दूर) है। प्रत्यक्षज्ञामौके पहिले. परीक्षवान मति और श्रति को रखा है क्योंकि दोनों की प्राप्ति सरल है। सव प्राणी दोनों ज्ञानों का अनुभव करते हैं। मति और श्रुतज्ञान की पद्धति श्रुत परिचित और अनुभूत है। वचन से सुनकर उसके एकबार स्वरूपसंवेदन को परिचित कहते हैं, तथा बार बार भावना को अनुभूत कहते है। ज्ञान की प्रमाणता तत्प्रमाणे ॥ १० ॥ ऊपर कहे हुये मति, श्रुत, अवधि, मनःपय और केवल ये पाँचों ही ज्ञान प्रमाण है। अन्य सन्निकर्ष या इन्द्रिय अादि प्रमाण नहीं हो सकते । इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध को सन्निकर्ष कहते हैं। यदि सन्निकर्प प्रमाण हो तो सूक्ष्म ( परमाणु आदि ) व्यवहित (राम, राव आदि) और विप्रकृष्ट (मेरु आदि) अर्थों का ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि इन्द्रियों के साथ इन पदार्थोंका सन्निकर्ष संभव नहीं है। और उक्त पदार्थों का प्रत्यक्ष न होनेसे कोई सर्वज्ञ भी नहीं हो सकेगा। अतः सन्निकर्ष को प्रमाण मानने वालों ( नयायिक । क यहाँ सपन्नाभाष हो जायगा। दूसरी बात यह भी है कि चनु और मन अप्राप्यकार। (पदार्थसे सम्बन्ध किए बिना ही जानने वाले है। श्रतः सव इन्द्रियों के द्वारा सन्निकर्प न होनेसे सन्निकर्षको प्रमाण माननेमें अव्याप्ति दोष भी आता है। उक्त कारणोंसे इन्द्रिय भी प्रमाण नहीं हो सकती। चक्षु आदि इन्द्रियों का विषय अल्प है और ज्ञेय अनन्त है। प्रश्न-( नैयायिकजैन ज्ञानको प्रमाण मानते हैं अतः उनके यहाँ प्रमाणका फल नहीं बनेगा क्योंकि अर्थाधिगम ( ज्ञान ) को ही फल कहते हैं। पर जब वह ज्ञान प्रमाण हो गया तो फल क्या होगा ? प्रमाण तो फलबाला अवश्य होता है। सन्निकर्ष या इन्द्रिय को प्रमाण मानने में तो अर्थाधिगम (ज्ञान) प्रमाणका फल बन जाता है। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [१०११-१२ उत्तर-यदि सन्निकर्ष प्रमाण है और अधिगम फल है तो जिस प्रकार सन्निकर्ष दो यस्तुओं (इन्द्रिय और घदादिअर्थ ) में रहता है उसी प्रकार अर्थाधिगमको भी दोनों में रहना चाहिये। और ऐसा होने पर घटादिकको भी ज्ञान होने लगेगा। यदि नैयायिक यह कहे कि आत्माको चेतन होनेसे झान आत्मामें ही रहता है तो उसका ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि नंयायिकके मतमें सब अर्थ स्वभावसे थचेतन है और आत्मामें चेतनत्व गुण का समवाय ( सम्बन्ध ) होनेसे आत्मा चेतन होता है । यदि नेयायिक आत्मा को स्वभावसे चेतन मानते हैं, तो उनके मत का विरोध होगा। क्योंकि उनके मतमें आत्माको भी स्वभावसे अचेतन बतलाया है। जैनोंक मतमें शान को प्रमाण मानने पर भी फलका अभाव नहीं होगा, क्योंकि अर्थके जान लेनेपर आत्मामें एक प्रकारकी प्रीति उत्पन्न होती है इसीका नाम फल है। अथवा उपेक्षा या अज्ञाननाशको फल कहेंगे। किसी वस्तुमें राग और द्वेष का न होना उपेक्षा है। तृण आदि वस्तुके ज्ञान होने पर उपेक्षा होती है। किसी पदार्थको जानने से उस विषयक अज्ञान दूर हो जाता है। यही प्रमाण के फल हैं। प्रश्न-यदि प्रमेयको जानने के लिये प्रमाणकी आवश्यकता है तो प्रमाणको जानने के लिये भी अन्य प्रमाणकी आवश्यकता होगी। और इस तरह अनवस्था दोष होगा। अप्रामाणिक अनन्त अर्थों की कल्पना करने को अनवत्या कहते हैं। उत्तर-प्रमाण दीपककी तरह स्व और परका प्रकाशक होता है। अतः प्रमाणको जाननेके लिये अभ्य प्रमाणकी आवश्यकता नहीं पाजस प्रकारक्षम अपनी ममाप्रकाश करता है और घटपटादि पदार्थो को भी प्रकाशित करता है उसी प्रकार प्रमाण भी अपनेको जानता है नथा अन्य पदार्थों को भी जानता है। यदि प्रमाण अपनेको नहीं जानेगा तो स्वाधिगमका अभाव होनसे स्मृतिका भी अभाव हो जायगा। और स्मृतिका अभाव होनेसे लोकव्यवहारका भी अभाव हो जायगा। क्योंकि प्रायः लोकव्यवहार स्मृतिके आधारपर ही चलता है। प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद बतलाने के लिये सूत्र में द्वियाचनका प्रयोग किया है। अन्य वादी प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति और अभाव इन प्रमाणोंको पृथक २ प्रमाण मानते हैं। पर वस्तुतः इनका अन्तर्भाव प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणमें ही हो जाता है। परोक्ष प्रमाण आये परोक्षम् ॥ ११॥ मति और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं । श्रुतज्ञानको मतिज्ञानके समीपमें होनेके कारण श्रुतज्ञानका प्रण भी आशब्दके द्वारा हो जाता है। इन्द्रिय, मन, प्रकाश और गुरुके उपदेश आदिको पर कहते हैं। मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणके श्योपशमको भी पर कहते हैं । उक्त प्रकार' 'पर' की सहायतासे जो ज्ञान उत्पन्न होता है धड् परोक्ष है। प्रत्यक्ष प्रमाण प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२ ॥ अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। अक्ष आत्माको कहते हैं। जो ज्ञान, इन्द्रिय आदिकी सहायताके बिना केवल आमाकी सहायतासे उत्पन्न होते हैं वह प्रत्यक्ष है। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय सामाज्ञानका अधिकार असावा होने से अधिशिऔर केवलदर्शन प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हो सकते । और 'सम्यक शब्दका अधिकार होनेसे विभङ्गज्ञान (कुअवधि भी प्रमाण नहीं हो सकता है। विभज्ञान मिथ्यात्वके उदयके कारण अर्थो का विपरीत बोध करता है। ___ जो लोग इन्द्रिय जन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं उनके यहाँ सर्वज्ञ को प्रत्यक्षज्ञान नहीं हो सकेगा । सर्वनका ज्ञान इन्द्रियपूर्वक नहीं होता है। यदि सर्वज्ञका झान भी इन्द्रियपूर्वक होने लगे तो वह सर्वज्ञ ही नहीं हो सकता है, क्योंकि इन्द्रियों के द्वार। सब पदाओंका ज्ञान असंभव है । यदि सर्वशके मानस प्रत्यक्ष माना जाच तो मनका उपयोग भी क्रामक होता है अतः सबज्ञत्यका अभाव हो जायगा। आगमसे पदार्थों को जानकर भी कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता, क्योंकि आगम भी प्रत्यक्षज्ञानपूर्वक होता है । पदार्थों का प्रत्यक्ष किए बिना आगम प्रमाण नहीं हो सकता । योगप्रत्यक्षको यदि इन्द्रियजन्य स्वीकार किया जाता है तो सत्रज्ञाभावका प्रसङ्ग ज्योका त्यों बना रहता है। अतः इन्द्रियजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष मानना ठीक नहीं है। प्रत्यक्ष बही है जो केवल आत्माकी सहायतासे उत्पन्न हो। मतिज्ञानके विशेषमतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनियोध इत्यनर्थान्तरम् ।। १३ ॥ मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनित्रोध इत्यादि मतिज्ञानके नामान्तर हैं। यदापि इनमें स्वभावकी अपेक्षा भेद हैं, लेकिन रूढ़िस ये सब मतिज्ञान ही कह जाते हैं। जैसे इन्दन ( क्रीडा) आदि क्रियाको अपेक्षासे भंद होनेपर भी एक ही शचीपति ( इन्द्र) के इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि भिन्न भिन्न नाम है । मति. स्मृति आदि ज्ञान मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमसे होते हैं, इनका विषय भी एक ही है और श्रुत आदि ज्ञानों में ये भेद नहीं पाये जाते हैं, अतः ये सब मतिझानक ही नामान्तर है।। पाँच इन्द्रिय और मनसे जो अवग्रह, ईहा, अवार्य और धारणाज्ञान होता है यह मति है । स्वसंवेदन आर इन्द्रियज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यश्न भी कहे जाते हैं। तत ( वह ) इस प्रकार अतीत अर्थक स्मरण करनेको स्मृति कहते हैं। 'यह वही है, 'यह उसके सदृश है। इस प्रकार पूर्व और उत्तर अवस्थामें रहनेवाला पदार्थकी एकता, सशता आदिके ज्ञानको संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान ) कहते हैं। किन्हीं दो पदार्थों में कार्यकारण आदि सम्बन्धक ज्ञानको चिन्ता ( तर्क ) कहते हैं । जैसे अग्निके बिना धूम नहीं होता है, आत्माके बिना शारीर व्यापार, वचन आदि नहीं हो सकते हैं । इस प्रकार विचारकर उक्त पदार्थों में कायकारण सम्बन्धका ज्ञान करना तर्क है । एक प्रत्यक्ष पदार्थको देखकर उससे सम्बन्ध रखनेवाले अप्रत्यक्ष अर्थका ज्ञान करना अभिनिवांत्र ( अनुमान ) है जैसे पर्वतमं धूमको देखकर अग्निका ज्ञान करना। आदि शब्दसे प्रतिभा, बुद्धि. मेधा आदिका ग्रहण करना चाहिये । दिन या सत्रमें कारणके बिना ही जो एक प्रकारका स्वतः प्रांतभास हो जाता है वह प्रतिभा हूं। जैसे प्रातः मुझे इष्ट वस्तुकी प्राप्ति होगी या कल मेरा भाई आयगा आदि । अर्थको ग्रहण करनेकी शक्ति को बुद्धि कहते हैं। और पाठको ग्रहण करने की शक्तिका नाम मेधा है। कहा भी है-आगमाश्रित ज्ञान मति है । बुद्धि तत्कालीन पदार्थका साक्षात्कार करती है श.अतीतको तथा मेधा त्रिकालवी पदार्थों का परिज्ञान करती है । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ तत्वार्थवृत्ति-हिन्दी-सा [ १४१४-१५ मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज मतिज्ञानकी उत्पत्तिके कारण - तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ॥ १४ ॥ मतिज्ञान पाँच इन्द्रिय और मनके निमित्तसे उत्पन्न होता है । परम ऐश्वर्यको आम करनेवाले आमाको इन्द्र और इन्द्रके लिङ्ग (चिह्न) को इन्द्रिय कहते हैं । मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम होनेपर आत्माको अर्थ की उपलब्धि में जो सहायक होता है वह इन्द्रिय है । अथवा जो सूक्ष्म-अर्थ ( आत्मा ) का सद्भाव सिद्ध करे वह इन्द्रिय है। स्पर्शन आदि इन्द्रियके व्यापारको देखकर आत्माका अनुमान किया जाता है। अथवा नामकर्मकी इन्द्र संज्ञा है और जिसकी रचना नामकर्म के द्वारा हुई हो वह इन्द्रिय है। अर्थात् स्पर्श, रसना आदिको इन्द्रिय कहते हैं । मनको अनिन्द्रिय कहते हैं। अनिन्द्रिय, मन, अन्तःकरण ये सब पर्यायवाची शब्द हैं । प्रश्न- स्पर्शन आदिकी तरह मनको इन्द्रका लिङ्ग ( अर्थोपलब्धि में सहायक ) होनेपर भी अनिन्द्रिय क्यों कहा ? उत्तर - यहाँ इन्द्रिय के निषेध का नाम अनिन्द्रिय नहीं है किन्तु ईषत् इन्द्रिय का नाम अनिन्द्रिय है। जैसे 'अनुदारा कन्या' ( विना उदर की कन्या) कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि उसके 'उदर है ही नहीं' किन्तु इसका इतना ही अर्थ है कि उसका उदर छोटा है । मनको अनिन्द्रिय इसीलिये कहा है कि जिस प्रकार चक्षु आदि इन्द्रियोंका स्थान और विषय निश्चित है इस प्रकार मनका स्थान और विषय निश्चित नहीं है। तथा चक्षु आदि इन्द्रियाँ कालान्तरस्थायी है और मन क्षणस्थायी है । मनको अन्त:करण भी कहते हैं क्योंकि यह गुणदोपादि के विचार और स्मरण आदि व्यापारों में इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं रखता है और चक्षु आदि बाह्य इन्द्रियों की तरह पुरुषों को दिखाई नहीं देता । "अनन्तरस्य विधिः प्रतिषेधो वा" इस नियम के अनुसार पहिले मतिज्ञान का वर्णन होने से इस सूत्र में भी मतिज्ञानका ही वर्णन समझा जाता। फिर भी मतिज्ञानका निर्देश करनेके लिये सूत्र में दिया गया 'तत्' शब्द यह बतलाता है कि आगे सूत्र में भी मतिज्ञानका सम्बन्ध है । अर्थात् अवग्रह आदि मतिज्ञानके ही भेद हैं। 'तत्' शब्द के बिना यह अर्थ हो जाता कि मति, स्मृति आदि मतिज्ञान है और श्रुत इन्द्रिय और अनिन्द्रियके निमित्तसे होता है तथा अवग्रह आदि श्रुत के भेद हैं। मतिज्ञानके भेद अग्रहायधारणाः ।। १५ ।। मतिज्ञानके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद है । विपत्र और विपयी अर्थात् पदार्थ और इन्द्रियोंके सम्बन्ध होनेपर सबसे पहिले सामान्य दर्शन होता है और दर्शनके अनन्तर जो प्रथम ज्ञान होता है वह अवग्रह है । अर्थात् प्रत्येक ज्ञानक पहिले दर्शन होता है। दर्शनके द्वारा वस्तुकी सत्तामात्रका ग्रहण होता है. जैसे सामने कोई वस्तु है । फिर दर्शनके बाद यह शुक्ल रूप है इस प्रकार के ज्ञानका नाम मह है । वह जाने हुये अर्थको विशेषरूपसे जानने की इच्छा के बाद ऐसा होना चाहिए' इस प्रकार भवितव्यता प्रत्यय रूप ज्ञान को ईहा कहते हैं । जैसे यह Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१६] प्रथम अध्याय ३४५ शुक्ल वस्तु बलाका (बकपंक्ति ) होना चाहिए । अथवा ध्वजा होना चाहिए । इहा कानको संशय नहीं कह सकते क्योंकि यथार्थम ईहामें एक वस्तुक ही निर्णयकी इच्छा रहता है जैसे यह बलाका होना चाहिय । विशेष चिन्होंको देखकर उस बस्तुका निश्चय कर लेना अवाक जेसेजमाई श्रीखेतविमिनाया नोहारजनिश्चय करना कि यह बलाका ही है। अवायसे जाने हुये पदार्थको कालान्तरमें ही भूलना धारणा छ । धारणा लान स्मृति में कारण होता है। मतिज्ञानके उत्तरभेदबहुबहुविवक्षिप्रानिःसृताऽनुक्तध्रुवाणा मेतराणाम् ॥ १६ ॥ __ बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और ध्रुव तथा इनस उलटे एक, एकविंध, अक्षित, निःसृत, उक्त और अघुत्र इन बारह प्रकार के अर्थोका अवग्रह आदि ज्ञान होता है। एक ही प्रकारके बहुत पदार्थोंका नाम बहु है। बहु शब्द संख्या और परिमाणको बतलाता है जैसे 'बहुत आदमी' इस वाक्यमें बहुन शब्द दो से अधिक संख्याको बतलाता है। और बहुत दाल भात' यहाँ बहुशब्द परिमाणवाची है । अनेक प्रकारक पदार्थोको बहुविध कहते हैं । जिसका ज्ञान शीन हो जाय बह क्षिम है। जिस प्रदार्थ के एकदेशको देखकर गर्वदेशका ज्ञान हो जाय वह अनिःसृत है। वचनस विना कहे जिस वस्नुका ज्ञानहो जाय वह अनुक्त है। बहुत काल तक जिसका यथार्थज्ञान बना रहे वह ध्रुव है। एक पदार्थ को एक और एक प्रकार के पदार्थाको एकविध कहते हैं। जिसका ज्ञान शीघ्र न हो बाद अक्षिप्र है। प्रकट पदार्थों को निःसत कहते हैं। वचन को सुनकर अर्थ का ज्ञान होना उक्त है । जिसका नाम बहुत समय तक एकसा न रहे वह अचव है। उक्त बारह प्रकार के अर्थों के इन्द्रिय और मनके द्वारा श्रवग्रह आदि चार ज्ञान होते हैं। अतः मतिज्ञानके १२x२x६-२८८ भेद हुये। यह भेद अर्थावग्रह के हैं। व्यजावग्रहके ४८ भेद आने वनलाये जायगे। इस प्रकार मनिज्ञानके कुल २८८४४१-६३६ भेद होते हैं। ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशम के प्रकर्षस बहु आदिका ज्ञान होता है और ज्ञानावरण के क्षत्रापशमके अप्रकर्षसे एक आदि पदार्थों का ज्ञान होता है। बहु और बहुविधिमें भेद-एक प्रकारके पदार्थाको बहु और बहुत प्रकारके पदाओंको बहुविध कहते हैं। उक्त और निःसत में भेद--दूसरे के उपदेशपूर्वक जो ज्ञान होता है वह उक्त है, और परोपदेशके बिना स्वयं ही जो ज्ञान होता है वह निःसृत है। ___कोई क्षिप्रानःसृतः-एसा पाठ मानते हैं । इसका अर्थ यह है कि कोई व्यक्ति कानसे शब्दको सुनकर ही यह शब्द मोरका है अथवा मुर्गका है. यह समझ लेता है। कोई शब्दमात्रका ही ज्ञान कर पाता है। इनमें यह मयूरका ही शब्द है अथवा मुर्गका हो शब्द है इस प्रकारका निश्चय हो जाना निःसृत है। ध्रुवावग्रह र धारणा में भेद-प्रथम समय में जैसा अपग्रह हुआ है दिनीयादि समयों में उसी रूप में वह बना रहे, उससे कम या अधिक न हो इसका नाम ध्र वावग्रह है। ज्ञानाधरणकमके अचापशमकी विशुद्धि और संक्लेशक मिश्रणसे कभी अल्पका अवग्रह, कभी बहुतका त्रग्रह, इस प्रकार कम या अधिक होते रहना अभ्र वावग्रह है, किन्तु धारणा गृहीत अर्थी को कालान्तर में नहीं भूलनेका कारण होती है। धारणाले ही कालान्तर में किसी वस्तुका स्मरण हाना है । इस प्रकार इन में अन्तर है । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति - हिन्दी-सार अर्थस्य ॥ १७ ॥ ऊपर कड़े गए बहु आदि बारह भेद अर्थ के होते हैं। चक्षु आदि इन्द्रियोंके विषयभूत स्थिर और स्थूल वस्तुको अर्थ कहते द्रव्यको भी अर्थ कहते हैं । ३५० [ १।१८-१९ यद्यपि बहु आदि कहने से ही यह सिद्ध हो जाता है कि बहु आदि अर्थ ही हैं । लेकिन इस सूत्र को बनाने का प्रयोजन नैयायिकके मतका निराकरण करना है । नयायिक मानते हैं कि स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियोंके द्वारा स्पर्श आदि पाँच गुणोंका ही ज्ञान होता है का नहीं। लेकिन उनका ऐसा मानना ठीक नहीं है। क्योंकि उनके मत में गुण अमूर्त हैं। और अमूर्त वस्तु के साथ मूर्त इन्द्रियका सन्निकर्ष नहीं हो सकता है। पर हमारे (जैनकि ) मत के अनुसार इन्द्रियसे द्रव्यका सन्निकर्ष होता है और चूँकि रूप आदि गुण द्रव्य से पृथक हैं अतः द्रव्य ग्रहण होनेपर रूप आदि गुणोंका ग्रहण हो जाता है। द्रव्य के सन्निकर्म से तदभन गुणों में भी सर्षका व्यवहार होने लगता है, वस्तुतः उनसे सीधा सन्निकर्ष नहीं है। व्यञ्जनावग्रह व्यञ्जनस्य [वग्रहः ॥ १८ ॥ अव्य शब्द आदि पदार्थों का केवल अवग्रह ही होता है, ईहादि तीन ज्ञान नहीं होते । बहु आदि बारह प्रकार के अव्यक्त अर्थो का अवग्रह ज्ञान चक्षु और मनको छोड़कर शेष चार इन्द्रियोंसे होता है । अतः व्यञ्जनावग्रह मतिज्ञानके (२५८ भेद होते हैं । पण श्रीमच्हा करनेको व्यञ्जनाग्रह कहते हैं। जिस प्रकार नवीन मिट्टीका बर्तन एक, दो बूँद पानी डालनेसे गीला नहीं होता है लेकिन बार बार पानी डालनेसे वही वर्तन गीत्या हो जाता है उसी प्रकार एक, दो समय तक श्रोत्रादिके द्वारा शब्द आदिका स्पष्ट ज्ञान नहीं होता तब तक व्यञ्जनवग्रह ही रहता है और स्पष्टज्ञान होनेपर उस अर्थ में ईहा आदि ज्ञान भी होते हैं। यह सूत्र नियामक है अर्थात् यह बतलाता है कि व्यञ्जन अर्थका अवग्रह ही होता है ईहादि नहीं । न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् || १९ ॥ चक्षु और मनके द्वारा व्यञ्जनावग्रह नहीं होता है। चक्षु और मन अप्राप्यकारी है अर्थात् ये बिना स्पर्श या सम्बन्ध किये ही अर्थ का ज्ञान करते हैं। स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ आग्न को छूकर यह जानती हैं, कि यह गर्म है किन्तु चक्षु और मन पदार्थ के साथ सन्निकर्ष ( सम्बन्ध ) के बिना ही उसका ज्ञान कर लेते हैं । आगम और युक्ति के द्वारा चक्षुमें अप्राप्यकारिताका निश्चय होता है। आग में वाय है कि-श्रोत्र स्पृष्ट शब्द को जानता हूं। स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय तथा चारोन्द्रिय अपने स्पर्श रस और गन्ध चिपयों को स्पृष्ट और बद्ध अर्थात् पदार्थों के सम्बन्ध से इन्द्रियमें अकार का रासायनिक सम्बन्ध होने पर ही जानती है। लेकिन चक्षु इन्द्रिय सम्बन्ध के बिना दूर से ही रूपको अस्पृष्ट और अबद्ध रूपसे जानती है। इस विषय में युक्तिभी है-- यदि चक्षु माध्यकारी होता तो अपनी आखमें लगाये गये अंजन का प्रत्यक्ष होना चाहिये था। लेकिन ऐसा नहीं होता है। दूसरी बात यह भी है कि यदि चक्षु प्राप्यकारी हो तो उसके द्वारा दूरवर्ती पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं होना चाहिये। जय कि चक्षु पासके पदार्थ (अंजन) को नहीं जानता है और दूर पदार्थों को जानता है तो यह निर्विवाद सिद्ध है कि चक्षु अप्राप्यकारी हैं। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२० प्रथम अध्याय श्रुतज्ञान का वर्णनश्रुतं मतिपूर्व द्वथनेकद्वादशभेदम् ॥ २० ॥ श्रुतिज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है और उसके दो, अनेक तथा बारह भेद है। मतिक्षान श्रुतज्ञानका कारण है। पहिले मतिज्ञान होता है और बादमें श्रुतज्ञान । किसीका ऐसा कहना ठीक नहीं है कि मतिज्ञानको श्रुतज्ञानका कारण होनेसे श्रुतज्ञान मतिशान ही है पृथक् ज्ञान नहीं है । क्योंकि यह कोई नियम नहीं है कि कार्य कारणके समान ही होता है। घटके कारण अधिीि ने हावेशित गार झाडाहानिरूप नहीं होता है। अतः मृतझान मतिज्ञानसे भिन्न है। मतिज्ञान श्रुतज्ञानका निमित्तमात्र है। श्रुतशान मतिरूप नहीं होता । मतिज्ञानके हानेपर भी बलवान् श्रुतावरण कर्मके उदय होनेसे पूर्ण श्रुतक्षान नहीं होता। - श्रुवज्ञानको जो अनादिनिधन बतलाया है वह अपेक्षाभेदसे हो। किसी देश या काल में किसी पुरुषने श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिनहींकी है । अमुक द्रव्यादिकी अपेक्षासे झानका आदि भी होता है तथा अन्त भी | चतुर्थ श्रादि कालोंमें, पूर्वविवेह आदि क्षेत्रों में और अल्पके आदिमें शुतज्ञान सामान्य अर्थात् सन्ततिकी अपेक्षा अनादिनिधन है । जैसे अंकुर और बीजकी सन्तति अनादि होती है । लेकिन तिरोहित श्रुत-ज्ञानका वृषभसेन आदि गणधरोंने प्रवर्तन किया इसलिए यह सादि भी है। भगवान् महावीरसे जो शन्दवर्गणाएँ निकली चे नष्ट हई अतः उनकी अपेक्षा तज्ञानका अन्त माना जाता है। अतः श्रुतज्ञान सादि हे और मतिजानपूर्वक होता है। मीमांसक वेदको अपौरुषेय मानते हैं। लेकिन उनका ऐसा मानना ठीक नहीं है। क्योंकि शब्द, पद और वाक्योंक समूहका नाम ही तो चेद है और शब्द आदि अनित्य हैं तो फिर वेद नित्य कैसे हो सकता है। उनका ऐसा कहना भी ठीक नहीं है कि वेद यदि पौरुषेय होते तो वेदोंके कर्ताका स्मरण होना चाहिये। क्योंकि यह कोई नियम नहीं है कि जिसके कर्ताका स्मरण न हो वह अपौरुषेय है। ऐसा नियम होनेसे चोरीका उपदेश भी अपौरुषेय हो जायगा और अपोय होनेसे प्रमाण भी हो जायगा। अतः वेद पौरुषेय ही है। दूसरे वादी वेदके कर्ताको मानते ही हैं। नैयायिक चतुराननको, जैन कालासुरको और पौद्ध अष्टकको वेदका कर्ता मानते हैं। प्रश्न-प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय मति और श्रुत दोनों झानों की उत्पत्ति एक साथ होती है अतः श्रुतज्ञान मतिपूर्वक कैसे हुआ ? उत्तर-प्रथम सम्यकत्व की उत्पत्ति होनेसे कुमति और कुश्रुतज्ञान सम्यग्ज्ञान रूप हो जाते हैं। प्रथम सम्यक्त्वसे मति और श्रुवज्ञान में सम्यक्त्वपना आता है किन्तु श्रुतज्ञान की उत्पति तो मतिपूर्वक ही होती है। आराधनासारमें भी कहा है कि जिस प्रकार दीपक और प्रकाशमें एक साथ इत्पन्न होने पर भी कारण-कार्य भाव है उसी तरह सम्यग्दर्शन और सम्याशानमें भी । सम्यग्दर्शन पूर्वमें क्रमशः उत्पन्न ज्ञानों में सम्यक्त्व व्यपदेश का कारण होता है। यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ ही उत्पन्न होते हैं लेकिन सम्यम्वर्शन शान के सम्यक्त्वपने में हेतु होता है, जैसे एक साथ उत्पन्न होने वाले दीपक और प्रकाशमें दीपक प्रकाशका हेतु होता है। प्रश्न-अवज्ञानपूर्वक भी श्रुतज्ञान होता है। जैसे किसीको घटशब्द सुनकर घ भौर अक्षरोंका जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है, तथा घट शब्दसे घट अर्थका Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थवृत्ति-हिन्दी-सार [१२० ज्ञान श्रुतझान हैं। घट अर्थ के ज्ञानके बाद जलधारण करना घरका कार्य है. इत्यादि उत्तरवर्ती सभी ज्ञान श्रुतज्ञान है । अतः यहाँ श्रुत से श्रुतकी उत्पत्ति हुई। उसी प्रकार किसीने म देखा वह मतिज्ञान हुआ । और धूम देखकर अग्निको जाना यह न तज्ञान हआ। पनः अग्निज्ञान (श्रतमान) से अग्नि जलाती है इत्यादि उपसरकालीन झान श्रुतज्ञान है । इसलिये श्रुतज्ञान से भी श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है। उत्तर- श्रुतज्ञान पूर्वक जो श्रुप्त होता है यह भी उपचारसे मत्तिपूर्वक ही कहा जाता है। क्योंकि मतिझानसे उत्पन्न होनेवाला प्रथम श्रुत उपचारसे मति कहा जाता है। अतः से श्रुतमे उत्पन्न होनेवाला द्वितीय श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही सिद्ध होता है। अतः मतिपूर्वक अस्त होता है, ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं है । श्रुतज्ञानके दो भेद हैं- अङ्गबाह्य और अप्रविष्ट । अङ्गबाह्यके अनेक और अड़प्रविधके बारह भेद हैं। अझ्याह्य के मुख्य नौदह भेद निम्न प्रकार है५ सामायिक-इसमें विस्तारमे सामायिकका वर्णन किया गया है । २ स्तव-इसमें चौबीस तीर्थकरोंकी स्तुति है। ३ वन्दना-- इसमें एक तीर्थकर की स्तुति की जाती है। मार्गदर्शक :- आचावनिमसाविससोरिजाइयेहाशका निराकरण बतलाया है। ५ चैनयिक-इसमें चार प्रकारकी विनयका वर्णन है। ६ ऋतिकर्म--इसमें दीक्षा, शिक्षा आदि सरफर्मोंका वर्णन है। ७ दशकालिक-इसमें यत्तियोंके आचारका वर्णन है । इसके वृक्ष, कुसुम आदि नश अध्ययन है। ८ उत्तराध्ययन---इसमें भिक्षुओंके उपसर्ग सहनके फलका वर्णन है। ५ कल्पव्यवहार -इसमें यतियोंको सेवन योग्य विधिका वर्णन और अयोग्य सेधन करने पर प्रायश्चितका वर्णन है। १० कल्पाकल्प-इसमें यति और श्रावकों के किस समय क्या करना चाहिए क्या नहीं इत्यादि निरूपण है। ११ महाकल्प इसमें यत्तियोंकी दीक्षा, शिक्षा संस्कार आदिका वर्णन है। १२ पुण्डरीक—इसमें देवपदकी प्राप्ति कराने वाले पुण्यका वर्णन है। १३ महापुण्डरीक---इसमें देवानापदक देतुभूत पुण्यका वर्णन है। १४ अशीतिका-इसमें प्रायश्चित्तका वर्णन है। इन चौदह भेदोंको प्रकीर्णक कहते हैं। प्राचार्यों ने अल्प आयु, अल्पबुद्धि और हीनबलयाले शिष्यों के 'उपकार के लिये प्रकोपकों को रचना की है। वास्तव में तीर्थंकर परमदेव और सामान्य केबलियोन जो उपदेश दिया उसकी गणधर तथा अन्य आचार्याने शास्त्ररूपमें रचना की। और वर्तमान वालाती आचार्य जो रचना करते हूँ बह भी आगम के अनुसार होनेसे प्रकीर्णकरूपस प्रमाण है । प्रकोणंक शास्त्रका प्रमाण २५:३३८. श्लोक और १५ अक्षर हैं। अङ्गप्रविष्ट के बारह भेद है-- १ आचारा! -इसमें यत्तियों के आचारका वर्णन है। इसके पदों की संख्या अठारह हजार है। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] प्रथम अध्याय ३५३ २ सूत्रकृताङ्ग --- इसमें ज्ञान, विनय, छेदोपस्थापना आदि क्रियाओंका वर्णन है । इसके पदों की संख्या छत्तीस हजार है । ३ स्थानास - एक दो तीन आदि एकाधिक स्थानोंमें षद्रव्य आदिका निरूपण है। इसके पर्दों की संख्या बयालीस हजार है। ४ समवायाङ्ग -- इसमें धर्मं, अधर्म, लोकाकाश, एकजीव असंख्यात प्रदेशी हैं। सातवें नरकका मध्यबिल जम्बूद्वीप, सर्वार्थसिद्धिका विमान और नन्दीश्वर द्वीपकी वापी इन सबका एकलाख योजन प्रमाण है, इत्यादि वर्णन है। इसके पदों की संख्या चौसठ हजार है। ५ व्याख्याप्राप्ति -- इसमें जीव हैं या नहीं इत्यादि प्रकारके गणधर के द्वारा किये गये साठ हजार प्रश्नों का वर्णन है। इसके पदोंकी संख्या दो लाख अट्ठाईस हजार है । ६ शालकथा- इसमें तीर्थकरों और गणधरोंकी कथाओंका वर्णन है । इसके vaist संख्या पाँच लाख पचास हजार है । ७ उपासकाध्ययन -- इसमें श्रावकों के आचारका वर्णन है । इसके पदोंकी संख्या ग्यारह लाख सत्तर हजार है । - अन्तःकृतदश – प्रत्येक तीर्थकर के समय में दश दश मुनि होते हैं जो उपसर्गको सहकर मोक्ष पाते हैं। उन मुनियोंकी कथाओंका इसमें वर्णन है । इसके पदकी महाराज "संख्या तेइस लाख अ दर्शक ९ अनुपपादिकदश - प्रत्येक तीर्थंकर के समय दश दश मुनि होते हैं, जो उपसर्गको सहकर पांच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं । उन मुनियोंकी कथाओंका इसमें वर्णन है । इसके पर्दोंकी संख्या वानवे लाख चवालीस हजार है। १० प्रश्नव्याकरण इसमें प्रश्न के अनुसार नष्ट, मुष्टिगत आदिका उत्तर है । इसके पदों की संख्या ते नवे लाख सोलह हजार है । ११ विपाकसूत्र -- इसमें कमोंके उदय, उदीरणा और सत्ताका वर्णन है । इसके पदों की संख्या एक कराड़ चौरासी लाख है । १२ दृष्टिवाद नामक बारहव अङ्गके पाँच मे हूँ - १ परिकर्म, २ सूत्र, ३ प्रथमानुयोग, ४ पूर्वगत और ५ चूलिका । इनमें परिकर्मके पाँच भेद हैं- १ चन्द्रप्राप्ति, २ सूर्यप्रज्ञप्ति, २ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ४ द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और ५ व्याख्याप्रज्ञप्ति | ५ चन्द्र प्रज्ञप्ति इसमें चन्द्रमा के आयु. गति, चंभव आदिका वर्णन हैं । इसके पदों की संख्या छत्तीस लाख पाँच हजार है । २ सूर्यप्रज्ञप्ति - इसमें सूर्यकी आयु, गति, THE आदिका वर्णन है। इसके पदों की संख्या पाँच लाख तीन हजार है । ३ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति - इसमें जम्बूद्वीपका वर्णन है। इसके पर्दोंकी संख्या तीन लाख पच्चीस हजार है। ४ द्वीपसागरभज्ञप्ति - इसमें सभी द्वीप और सागरोंका वर्णन है । इसके पदोंकी संख्या बावन लाख छत्तीस हजार है । ५ व्याख्यानमि- इसमें छह द्रव्योंका वर्णन है । इसके पदों की संख्या चौरासी लाख छत्तीस हजार है। २ सूत्र - इसमें जीवके कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदिकी सिद्धि तथा भूत चैतन्यवादका खण्डन है । इसके पर्दोंकी संख्या अठासी लाख है । ३ प्रथमानुयोग- उसमें तिरसठ शलाका महापुरुषोंका वर्णन है। इसके पदोंकी संख्या पाँच हजार है। ४ पूर्वग के उत्पाद पूर्व आदि चौदह भेद हैं । ४५ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार १ उत्पादपूर्व-इसमें वस्तुके उत्पाद, व्यय और प्रौव्यका वर्णन है। इसके पदोंकी संख्या एक करोड चार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज २ अमायणीपूर्व-इसमें अंगोंके प्रधानभूत अर्धाका वर्णन है। इसके पदोंकी संख्या छयानवे लाख है।" ३ बीर्यानुप्रघादपूर्व-इसमें बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती, इन्द्र, तीर्थकर आदिके बल का वर्णन है। इसके पदोंकी संख्या सत्तर लाख है। ४ अस्तिनास्तिपवादपूर्व-इसमें जीव आदि वस्तुओंके अस्तित्व और नास्तित्वका वर्णन है। इसके पदों की संख्या साठ लाख है । ५ ज्ञानप्रयादपूर्व-इसमें आठ ज्ञान, उनकी उत्पत्ति के कारण और ज्ञानों के स्वामीका वर्णन है । इसके पदोंकी संख्या एक कम एक करोड़ है। ६ सत्यप्रवादपूर्व-इसमें वर्ण, स्थान, दो इन्द्रिय आदि प्राणी और पचनगुसिके संस्कारका वर्णन है । इसके पदोंकी संख्या एक करोड़ और छह है। ७ आत्मवादपूर्व-इसमें आत्माके स्वरूप का वर्णन है। इसके पदोंकी संख्या : छब्बीस करोड़ है। ८ कर्मप्रवादपूर्व-इसमें कौके बन्ध, उदय, उपशम और उदीरणाका वर्णन है। इसके पदोकी संख्या एक करोड़ अस्सी लाख है। प्रत्याख्यानपूर्व–इसमें द्रव्य और पर्यायरूप प्रत्याख्यानका वर्णन है। इसके पदोंकी संख्या चौरासी लाख है। १. विद्यानुप्रबाद- इसमें पाँच सौ महाविद्याओं, सात सौ क्षुद्रविद्याओं और अष्वंगमहानिमित्तोंका वर्णन है । इसके पदों की संख्या एक करोड़ दश लाख है। १५ कल्याणपूर्व–इसमें तीर्थकर, चक्रवती, बलभद्र, वासुदेव, इन्द्र आदिके पुण्यत्र वर्णन है। इसके पदों की संख्या छब्बीस करोड़ है। १२ प्राणावायपूर्व—इसमें अष्टांग वैद्यविद्या, गारुढविद्या और मन्त्र-तन्त्र आदिका वर्णन है । इसके पदोंकी संख्या तेरह करोड़ है। १३ क्रियाविशालपूर्व–इसमें छन्द, अलंकार और व्याकरणफी कलाका वर्णन है।। इसके पदोंकी संख्या नौ करोड़ है। १४ लोकबिन्दुसार-इसमें निर्वाणके सुखका वर्णन है। इसके पदोकी संख्या साड़े बारह करोड़ है। प्रथमपूर्वमें दश, द्वितीयमें चौदह, तृतीयमें आठ, चौथमें अठारह, पाँचर्येमें वारद, छठवें में बारह, सात में सोलह, आठवें में श्रीस, नौमें तीस, दशा में पन्द्रह, म्यारहवेमें दश, वारहवें में दश, तेरहवेंमें दश और चौदहवें पूर्वमें दश वस्तुएँ है। सन्न वस्तुओं की संख्या एक सौ पश्चानबे है। एक-एक वस्तुमें बीस-बीस प्राभूत होते हैं। सब प्राभृतोंको संख्या तीन हजार नौ सौ है। ५ चूलिकाके पाँच भेद हैं-१ जलगता चूलिका, २ स्थलगता चूलिका, ३ मायागमा चूलिका, ४ आकाशगता चूलिका और ५ रूपगता चूलिका । १ जलगता चूलिका-इसमें जलको रोकने, जलको वर्षाने आदिक मन्त्र-सन्त्रोक्छ । वर्णन है । इसके पदोंकी संख्या दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ है। २ स्थलगता चूलिका-इसमें थोड़े ही समयमें अनेक योजन गमन करनेके मन्त्र-सन्यो। का वर्णन है। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १/२१ ] प्रथम अध्याय ३५५ ३ मायागता चूलिका - इसमें इन्द्रजाल आदि मायाके उत्पादक मन्त्र-तन्त्रका वर्णन है । आकाशमें गमन के कारणभूत मन्त्र-तन्त्रों का वर्णन है । ५ रूपगता चूलिका - सिंह, व्याघ्र, गज, उरग, नर, सुर आदिके रूपों ( वेष ) को धारण करानेवाले मन्त्र-तन्त्रका घन है। इन सबके पदोंकी संख्या जलगता चूलिका के पदोंकी संख्या बराबर ही है। इस प्रकार बारहवें अनके परिकर्म आदि पाँच भेदका वन हुआ । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज इक्यावन करोड़ आठ लाख चौरासी हजार छः सौ साढ़े इक्कीस अनुष्टुप् एक पद होते हैं । एक पदके प्रन्थोंकी संख्या ५१०८८४६२१३ है । अपूर्वश्रुतके एक सौ बारह करोड़ तेरासी लाख अट्ठावन हजार पद होते हैं। भवप्रत्यय अवधिज्ञान ४ आकाशगता चूलिका — इसमें प्रत्यधिदेवनारकाणाम् ॥ २१ ॥ प्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियोंके होता है । आयु और नाम कर्मके निमित्त से होनेवाली जीवकी पर्यायको भव कहते हैं । देव और नारकियों के अवधिज्ञानका कारण भव होता है अर्थात् इनके जन्मसे ही अवधिज्ञान होता है। प्रश्न- यदि देव और नारकियों के अवधिज्ञानका कारण भव है तो कर्मका क्षयोपशम कारण नहीं होगा । उत्तर- जिस प्रकार पक्षियों के आकाशगमनका कारण भव होता है शिक्षा आदि नहीं, उसी प्रकार देव और नारकियोंके अवधिज्ञानका प्रधान कारण भव ही है। क्षयोपशम गौण कारण है । व्रत और नियमके न होने पर भी देव और नारकियों के अवधिज्ञान होता है। यदि देव और नारकियोंके अवधिज्ञानका कारण भव ही होता तो सबको समान अवधिज्ञान होना चाहिए, लेकिन देवों और नारकियों में अवधिज्ञानका प्रकर्ष और अपकर्ष देखा जाता है। यदि सामान्य से भव ही कारण हो तो एकेन्द्रिय आदि जीवोंको भी अवधिज्ञान होना चाहिए। अतः देर्यो और नारकियोंके अवधिज्ञानका कारण भव ही नहीं है किन्तु कर्मका क्षयोपशम भी कारण है। सम्यग् देष और नारकियोंके अवधि होता है और मिध्यादृष्टियोंके विभङ्गावधि । सौधर्म और ऐशान इन्द्र प्रथम नरक तक, सनत्कुमार और माहेन्द्र द्वितीय नरक तक, मा और लान्त तृतीय नरक तक, शुक्र और सहस्रार चौथे नरक तक, आनद और प्राणत पाँचवें नरक तक, आरण और अच्युत इन्द्र छठवें नरक तक और नव मैवेयकों में उत्पन्न होने वाले देव सातवें नरक तक अवधिज्ञानके द्वारा देखते हैं। अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देव सर्वलोकको देखते हैं । प्रथम नरकके नारकी एक योजन, द्वितीय नरकके नारकी आधा कोश कम एक योजन, तीसरे नरकके नारकी तीन गव्यूति, ( गव्यूतिका परिमाण दो कोस है ) चौथे नरके नारकी अढ़ाई गव्यूति, पाँचवें नरकके नारकी दो गव्यूति, छठवें नरकके नारकी डेड़ गव्यूति और सातवें नरकके नारकी एक गव्यूति तक अवधिज्ञानके द्वारा देखते हैं । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार क्षयोपशम निमित्तक अघिकानक्षयोपशमनिमित्तः पड्विकल्पः शेषाणाम् ।।२२।। क्षयोपशमके निमित्त से होनेवाला अवधिज्ञान मनुष्य और नियंत्रोके होता है। इसके छह भेद हैं-अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज अवधिज्ञानावरण कर्मके देशपाती स्पर्धकोंका उदय होनेपर उदयप्राप्त सर्वघाती पर्चकोंका उदयाभावी क्षय और अनुदयप्राप्त सर्वघाती स्पर्धकों का सदवस्थारूप उपशम होनेको क्षयोपशम कहते हैं। मनुष्य और तिर्यञ्चोंके अवधिज्ञानका कारण क्षयोपशम ही है भव नहीं। अवधिज्ञान संझी और पर्याप्तकोंके होता है। संज्ञी और पर्याप्तकों में भी सबके नहीं होता है किन्तु सम्यग्दर्शन आदि कारणोंके होनेपर उपशान्त और क्षीणकर्म वाले जीवोंके अवधिज्ञान होता है। अनुगामी-जो अवधिज्ञान सूर्य के प्रकाशकी तरह जीवके साथ दूसरे भवमें जावे यह अनुगामी है। अननुगामी-जो अवधि जीवके साथ नहीं जाता है वह अननुगामी है। वर्धमान-जिस प्रकार अग्निमें इन्धन डालनेसे अग्नि बढ़ती है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन आदि से विशुद्ध परिणाम होनेपर जो अवधिज्ञान बढ़ता रहे यह वर्धमान है। हीयमान-इन्धन समाप्त हो जानेसे अग्निकी तरह जो अवधिज्ञान सम्यग्दर्शन आदि गुणोंकी हानि और आर्स-रौद्र परिणामोंकी वृद्धि होनेसे जितना उत्पन्न हुआ था उससे अङ्गुलके असंख्यात भाग पर्यन्त घटता रहे बह हीयमान है। अवस्थित -जो अवधिज्ञान जितना उत्पन्न हुआ है केवलज्ञानकी प्राप्ति अथवा आयुकी समाप्ति तक उतना ही रहे, घटे या बड़े नहीं वह अवस्थित है। ___ अनवस्थित-सम्यग्दर्शन आदि गुणोंकी वृद्धि और हानि होनेसे जो अवधिज्ञान बढ़ता और घटता रहे वह अनवस्थित है। ये छह भेद देशावधिक ही हैं। परमावध और सर्वावधि चरमशरीरी विशिष्ट संयमीक ही होते हैं। इनमें हानि और घृद्धि नहीं होती है। गृहस्थावस्थामें तीर्थङ्करके और देव तथा नारकियोंके देशावधि ही होता है । मनापर्य यज्ञानके भेद अजुविपुलमती मनःपर्ययः ॥ २३ ॥ मनःपर्ययज्ञानके दो भेद है--ऋजुमति और विपुलमति । जो मन, वचन और कायके द्वारा किये गये दूसरेके मनोगत सरल अर्थको जाने यह ऋजुमति है। जो मन, वचन, और कायके द्वारा किये गये दूसरेके मनोगत कुटिल अर्थको जानकर वहाँ से लौटे नहीं, बदी रिधर रहे. वह विपुलमति है। वीर्यान्तराय और मनःपर्यय ज्ञानाचरणके क्षयोपशम तथा अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय होनेपर दूसरेके मनोगत अर्थको जाननेको मनापर्यय कहते हैं। ऋजुमति मनः पर्यय कालकी अपेक्षा अपने और अन्य जीवकि गमन और आगमनकी अपेक्षा जघन्यसे दो या तीन भवोंको और उत्कृष्टसे सात या आठ भवोंको जानता है। और क्षेत्रकी Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १।२४-२५ ] प्रथम अध्याय अपेक्षा जघन्य गव्यूति पृथक्त्व और उत्कृष्ट योजन पृथक्त्वके भीतर जानता हूँ । विपुलमति मन:पर्यय कालकी अपेक्षा जघन्य सात या आठ भवोको और उत्कृष्ट असंख्यात भवको जानता है। क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य योजनपृथक्त्व और उत्कृष्ट मानुषोत्तर पर्वतके भीतर जानता है. बाहर नहीं । ऋजुमति और विपुलमतिमें अन्तर -- विशुद्ध प्रतिपाताम्यां तद्विशेषः ॥ २४ ॥ विशुद्धि और अतिपातकी अपेक्षा ऋजुमति और विपुलमतिमं विशेषता है। मन:पर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशम से आत्मा के परिणामोंकी निर्मलताका नाम विशुद्धि है संयमसेदिर्सित नहीं क्षेत्रप्रतिपावसात राजगुणस्थानवर्तक चारित्रमोहका उदय आनेके कारण प्रतिशत होता है। श्रीणकषायका नहीं । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा ऋजुमतिसे विपुलमति विशुद्धतर है । सर्वाषधि कार्मणद्रव्य के अनन्तयें भागको जानता है । उस अनन्तवें भाग के भी अनन्त वें भागको ऋजुमति जानता है। और ऋजुमतिके विषयके अनन्तवें भागको त्रिपुलमति जनता है। इस प्रकार सूक्ष्म से सूक्ष्म द्रव्यको जाननेके कारण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाषकी अपेक्षा विमुलमति ऋजुमतिसे विशुद्धतर है। अतिपातकी अपेक्षा भी विपुलविशेषता है । विपुलमति मन:पर्ययज्ञानियोंके चारित्रको उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है अतः उसका प्रनिपात ( पतन ) नहीं होता है । ऋजुमति मन:पर्ययज्ञानियोंके चारित्रकी कषायके उदयसे हानि होनेसे उसका प्रतिपात हो जाता है । अवधि और मन:पर्ययज्ञान में विशेषता- विशुद्धिक्षेत्रस्वामित्रिषयेभ्योऽवधिमनः पर्यययोः ॥ २५ ॥ अवधि और मन:पर्ययज्ञान में विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषयकी अपेक्षा विशेषता है । सूक्ष्म वस्तुको जानने के कारण अवधिज्ञान से मन:पर्ययज्ञान विशुद्ध है । मनःपर्ययज्ञानसे अवधिज्ञानका क्षेत्र अधिक है। अवधिज्ञान तीन लोकमें होनेवाली पुद्गलकी पर्यायोंको और मुगलसे सम्बन्धित जीवकी पर्यायोंको जानता है । मन:पर्ययज्ञान मानुषोत्तर पर्वतके भीतर ही जानता है। मन:पर्ययज्ञान मनुष्यों में उत्पन्न होता है, देव, नारकी और तिर्यनोंके नहीं । मनुष्यों में भी गर्भजोंके ही होता है संमूर्च्छनके नहीं । गर्भजों में मी कर्मभूमिजोंके ही होता है भोगभूमिजोंके नहीं । कर्मभूमिजों में भी पर्यातकोंके ही होता है अपर्याप्तकोंके नहीं । पर्याप्तकों में भी सम्यग्दृष्टियों के ही होता है मिथ्यादृष्टि आदि नहीं। सम्यग्दृष्टियोंमें भी संयतों के होता है असंयतोंके नहीं । संयतों में भी छठवें गुणस्थानसे बारहवें गुणस्थान तक होता है तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में नहीं होता है। उनमें भी प्रवर्धमान चारित्रवालोंके ही होता है हीयमानचारित्र चालक नहीं | प्रबर्धमानचारित्रवालों में भी सात प्रकार की ऋद्धियों में से किसी एक ऋद्धि के धारोके ही होता है अनृ द्विधारी के नहीं । ऋद्विधारियों में भी किसीके ही होता है सबके नहीं । अतः मन:पर्ययज्ञानके स्वामी विशिष्टसंयमवाले ही होते हैं । अवधिज्ञान चारों ही गतियों में होता है । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति - हिन्दी-सार मति और श्रुतज्ञानका विषयमतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसपर्यायेषु ।। २६ ।। मति और श्रुतज्ञानका विषय छद्दों द्रव्योंकी कुछ पर्यायें हैं । अर्थात् मति और श्रुत द्रव्योंकी समस्त पर्यायोंको नहीं जानते हैं किन्तु थोड़ी पर्यायोंको जानते हैं। प्रश्न- धर्म, धर्म आदि अतीन्द्रिय द्रव्यों में इन्द्रियजन्य मतिज्ञानकी प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? उत्तर मानिन्द्रियं या मनानी ३५८ इन्द्रियावरण के क्षयोपशम होनेपर अनिन्द्रियके द्वारा धर्मादि द्रव्यों की पर्यायका अवमह यदि रूपसे ग्रहण होता है । और मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान भी उन विषयों में प्रवृत्त होता है। अतः मति और श्रुतके द्वारा धर्मादि द्रव्यों की पर्यायोंको जानने में कोई विरोध नहीं है। अवधिज्ञान पुल कुछ पर्यायोंको जानता है अरूपी द्रव्य नहीं । अवधिज्ञानका विषयरूपिष्वव धेः ॥ २७ ॥ [ ११२६-३१ द्रव्यकी कुछ पर्यायोंको और पुदलसे सम्बन्धित जीवकी सब पर्यायोंको नहीं । अवधिज्ञानका विषय रूपी द्रव्य ही है मन:पर्ययज्ञानका विषय- तदनन्तभागे मन:पर्ययस्य || २८ || विज्ञान की तरह मन:पर्ययज्ञान सर्वावधिज्ञानके द्वारा जाने गये द्रव्यके अनन्तर्षे भाग को जानता है। केवलज्ञानका विषय सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ।। २९ ।। केवलज्ञानका विषय समस्त द्रव्य और उनकी सम्पूर्ण पर्यायें है । केवलज्ञान सम्पूर्ण द्रज्योंकी त्रिकालवर्ती सब पर्यायोंको एक साथ जानता है । एकजीवके एक साथ ज्ञान होनेका परिमाण— एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्भ्यः ॥ ३० ॥ एकजीव में एक साथ कमसे कम एक और अधिक से अधिक चार ज्ञान हो सकते हैं । यदि एक ज्ञान होगा तो केवलज्ञान । दो होंगे तो मति और श्रुत। तीन होंगे तो मति, श्रुत, अवधि या मति, श्रुत और मन:पर्यय । चार ज्ञान हों तो मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय होंगे। केवलज्ञान क्षायिक हैं और अन्य ज्ञान क्षायोपशमिक हैं। अतः केवलज्ञानके साथ क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं हो सकते । कुमति, कुश्रुत और कुअवधि मतिश्रुतावघयो विपर्ययश्च ॥ ३१ ॥ मति श्रुत और अवधिज्ञान विपरीत भी होते हैं, अर्थात् मिध्यादर्शन के उदय होनेसे ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाते हैं। मिथ्याज्ञानके द्वारा जीव पदार्थोंको विपरीत रूपसे जानता ये Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १।३२] प्रथम अध्यायः ३५९ है। मिथ्यादर्शनके संसर्गसे इन ज्ञानों में मित्र्यापन आ जाता है जैसे कदुवी तुंबीमें दूध रखनेसे वह कड़वा हो जाता है। प्रश्न-मणि, सोना आदि द्रव्य अपवित्र स्थानमें गिर जानेपर भी दूषित नहीं होते हैं उसी प्रकार मिथ्यादर्शनके संसर्ग होनेपर भी मति श्रादि ज्ञानोंमें कोई दोष नहीं होना चाहिए ? उत्तर-परिणमन करानेवाले द्रव्यके मिलनेपर मणि, सोना आदि भी दूपित हो जाते हैं। उसी प्रकार मिथ्यादर्शनके संसर्गसे मति आदि ज्ञान भी दूषित हो जाते हैं। प्रश्न-धमें कड़वापन आधारके दोपसे आ जाता है. लेकिन कुमति आदि ज्ञानोंक विषयमें यह बात नहीं है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि मति, श्रुत और अवधिज्ञानके द्वारा रूपादि पदार्थोंको जानता है उसी प्रकार मिथ्याष्टि भी कुमति, कुश्रुत और कुश्अवधिज्ञान के द्वारा रूपादि पदार्थोंको जानता है। उक्त प्रश्न के उत्तरमें आचार्य यह, सूत्र कहते हैं-- मार्गदर्शक :- अचार्य सी सुविधिसागर जी महाराज सदसतारविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेन्मत्तवत् ।। ३२ ॥ सत् ( विद्यमान ) और असत् ( अविद्यमान ) पदार्थको विशेषताके बिना अपनी इच्छानुसार जानने के कारण मिथ्याष्ट्रिका ज्ञान भी उन्मस ( पागल ) पुरुषके ज्ञानकी तरह मिथ्या ही है। मिध्यादृष्टि जीव कभी सत् रूपादिकको असत् और असत् रूपादिकको सन् रूपसे जानता है। और कमी सत् रूपादिकको सत् और असत् रूपादिकको असत् भी जानता है । अतः सत् और असत् पदार्थका यथार्थ ज्ञान न होने के कारण उसका ज्ञान मिथ्या है। जैसे पागल कभी अपनी माताको भार्या और भार्याको माता समझता है और कभी माताको माता और भार्याको भार्या ही समझता है। लेकिन उसका ज्ञान ठीक नहीं है, क्योंकि वह माता और भार्या के भेदको नहीं जानता है। मिथ्यादर्शनके उदयसे आत्मामें पदार्थों के प्रति कारणविपर्यय, भेदाभेदविपर्यय और स्वरूपविपर्यय होता है। कारणविपर्यय--वेदान्तमतावलम्बी संसारका मूल कारण केवल एक अमूर्त ब्रह्मको ही मानते हैं। सांख्य नित्य प्रकृति ( प्रधान) को ही कारण मानते हैं। नैयायिक कहते हैं पृथ्वी, जल, तेज और वायुके पृथक-पृथक् परमाणु हैं जो अपने अपने कार्योंको उत्पन्न करते है। बौद्ध मानते हैं कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार भूस हैं और वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये चार भौतिकधर्म हैं। इन आठोंके मिलने से एक अष्टक परमाणु उत्पन्न होता है । शेपिक मानते हैं कि पृथ्वीका गुण कर्कशता, जलका गुण द्रवत्व, तेजका गुण उष्णत्व और वायुका गुण बना है। इन सबके परमाणु मी भिन्न भिन्न हैं। इस प्रकार कल्पना करना कारणविपर्यास है। . भेदाभेदविपर्यास-नयायिक मानते हैं कि कारणसे कार्य भिन्न ही होता है। कुछ लोग कार्यको कारणसे अभिन्न ही मानते हैं । यह भेदाभेदविपर्यय है। स्वरूपविपर्यय-रूपादिकको निर्विकल्पक मानना, रूपादिककी सत्ता ही नहीं मानना, रूपादिकके आकार रूपसे परिणत केवल विज्ञान ही मानना और ज्ञानकी आलम्बनभूत बाह्य वस्तुको नहीं मानना । इसी प्रकार और मा प्रत्यक्ष और अनुमानके विरुद्ध कल्पना Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- अचार्य श्री सविधिसागर जी महाशवात्त-हिन्दा सार [१।३३ करना स्वरूपविपर्यय है। अत: मिथ्यादर्शनके साथ जो ज्ञान होता है वह मिथ्याज्ञान है और सम्यग्दर्शन के साथ जो ज्ञान होता है वह सम्यग्ज्ञान है । नयों का वर्णन नैगमसंग्रहव्यवहार सूत्रशब्दसमभिरूढेवंभृता नया: ।। ३३ ।। नंगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसून, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये सात नय है । जीचादि वस्तुओं में निस्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक धर्म पाये जाते हैं। द्रव्य या पर्याय की अपेक्षासे किसी एक धर्मके कथन करनेको नय कहते हैं। अथवा ज्ञाताके अभिप्राय विशेषका नय कहते हैं । नयके दो भेद है-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । द्रव्यको प्रधानरूपसे विषय करनेवाले नयको द्रव्यार्थिक और पर्यायको प्रधानरूपसे विषय करनेवाले नयको पयोयार्थिक कहते हैं। मैंगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन नय द्रव्यार्थिक हैं। और ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये चार नय पर्यायार्थिक है। भविष्यमें उत्पन्न होनेवाली वस्तुका संकल्प करके वर्तमान में उसका व्यवहार करना नगमनब है। जैसे कोई पुरुष हाथ में कुटार ( कुल्हाड़ी) लेकर जा रहा था। किसीने उससे पूछा कि कहाँ जा रहे हो ? उसने उत्तर दिया कि प्रस्थ (अनाज नापनका काठका पान-पली) लेनेको जा रहा हूँ। वास्तवमें यह प्रस्थ लेने के लिये नहीं जा रहा है किन्तु प्रस्थक लिये लकड़ी लेनेको जा रहा है। फिर भी उसने भविष्य में बननेवाले प्रस्थका वर्तमान में संकल्प करके कह दिया कि प्राथ लेने जा रहा है। इसी प्रकार लकडी, पानी आदि सामग्रीको इकटे करनेवाले पुरुषसे किसीने पूछा कि क्या कर रहे हो ? उसने उत्तर दिया कि रोटी बना रहा हूँ। यद्यपि उस समय वह रोटी नहीं बना रहा है लेकिन नगम नयकी अपेक्षा उसका ऐसा कहना ठीक है। जो भेदकी विवक्षा न करके अपनी जातिके समस्त अोंका एक साथ ग्रहण करे वह संग्रह नय है। जैसे 'सत्' शब्दसे संसारके समस्त सत् पदार्थों का. 'द्रव्य' शब्दसे जीव, पुद्गल आदि द्रव्योका और 'घट' शब्दसे छोटे बड़े आदि समस्त घटोका ग्रहण करना संग्रह नयका काम है। संग्रह नयके द्वारा ग्रहण किये गये पदाथोंके विधिपूर्वक भेद व्यवहार करनेको व्यवहारनय कहते हैं। जैसे संग्रह नय 'सत्' के द्वारा समस्त सत् पदार्थों का ग्रहण करता है। पर व्यबहारनय कहता है कि सतके दो भेद है द्रव्य और गुण । द्रव्यके भी दो भेद हैं । जीप और अजीव । जीवके नरकादि गतियों के भेदसे चार भेद है और अजीव द्रव्यके पुदगल आदि पौंच भेद हैं। इस प्रकार व्यवहारमयके द्वारा वहाँ तक भेद किये जाते है जहाँ तक हो सकते हैं। अर्थात् परम संग्रहनयके विषय परम अभेदसे लेकर ऋजुसूत्र नयकं विषयभूत परमभदकं बीच के समस्त विकर र व्यवहारनरके ही है। भूत और भविष्यत् कालकी अपना न करके केवल वर्तमान समयवर्ती एक पर्यायको ग्रहण करनेवाले नयको ऋजुसूत्र नय कहते हैं । ऋजुनू बनयका विषय अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे इस विपमें कोई दृष्टान्त नहीं दिया जा सकता। प्रश्न--ऋजुत्र नयके द्वारा पदार्थोका कथन करनेसे लोक व्यवहारका लोप ही हो जायगा । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ११३१ प्रथम अध्याय ३६१ उत्तर-यहाँ केवल ऋजुसूत्रनय का विषय दिखलाया गया है। लोक व्यवहार के लिये तो अन्य नय हैं ही। जेसे मत व्यक्तिको देखकर कोई कहता है कि 'संसार अनित्य है। लेकिन सारा संसार तो अनित्य नहीं है। उसी प्रकार ऋजुसूत्रनय अपने विषयको जानता है लेकिन इससे लोकव्यवहारकी निवृत्ति नहीं हो सकती। उक्त चार नय अर्थनय और आगेके तीन नय शब्दनय कहलाते हैं। जो लिङ्ग, संख्या, कारक आदिके व्यभिचार का निषेध करता है वह शब्दमय है। लिङ्गव्यभिचार-पुष्य नक्षत्रं, पुष्यः तारका-पुष्य नक्षत्र, पुष्य तारा । यहाँ पुल्लिा पुष्य शब्द के साथ नपुंसकलि ननन और स्त्रीलिंग तास शब्दका प्रयोग करना लिङ्गव्यभिचार है. संख्याव्यभिचार-आपः तोयम् . वीः ऋतुः यहाँ बहुचनान्त आपः शब्द के साथ तोयम् एकवचनान्त शब्दका और बहुवचनान्त वर्षाः शब्द के साथ एकवचनान्त ऋतु शब्दका प्रयोग करना संस्याव्यभिचार है। कारकव्यभिचार-सेना पर्वतमधिवसति-पर्वतमें सेना रहनी है। यहाँ पर्वते इस प्रकार अधिकरण ( सप्तमी) कारक होना चाहिये था लेकिन है कम (द्वितीया ) कारक | यह कारकव्यभिचार है। पुरुषभिचार-पाह मन्ये रथेन यास्यसि ? न यास्यसि, यातस्ते पिता । अाश्रो, तुम एसा मानते हो कि 'मैं रथसे जाऊँगा', लेकिन तुम रथसे नहीं जा सकते हो. तुम्हारे बाप रथसे चले गये हैं। यहाँ 'मन्ये उत्तम पुरुषके स्थान में मन्यसे' मध्यम पुरुष और 'यास्यसि' मध्यम पुरुषके स्थानमें 'यास्यामि' उत्तम पुरुष होना चाहिये था। यह पुरुप व्यभिचार है। कालव्यभिचार-विश्:श्वा अस्य पुत्रो जनिता-इसके ऐसा पुत्र होगा जिसने विश्वको देख लिया है । यही भविष्यत् कालके कार्यक्रो अतीतकालमें बतलाया गया है। यह कालयभिचार है। उपग्रहव्यभिचार-स्था धातु परस्मैपदी है । लेकिन सम आदि कुछ उपसर्गो के संयोगसे स्था धातुको यात्मनेपदी बना देना जैसे संतिष्ठते, प्रतिष्ठते । इसीप्रकार अन्य परस्मैपदी धातुओंको आत्मनेपदी और आत्मनेपदी धातुओंको परस्मैपदी बना देना उपग्रह व्यभिचार है। उक प्रकारके सभी व्यभिचार शब्दनयकी रष्टिसे ठीक नहीं है। इसकी दृष्टिसे उचित लि., संख्या आदिका ही प्रयोग होना चाहिये। प्रश्न-सा हानेसे लोकव्यवहार में जो उक्त प्रकारके प्रयोग देखे जाते हैं वह नहीं होंगे। उत्तर-यहाँ केवल तत्त्वको परीक्षाकी गई है। विरोध हानेसे तत्त्वकी उपेक्षा नहीं की जा सकती ! औपधि रोगीकी इच्छानुसार नहीं दी जाती है । विरोध भी नहीं होगा क्योंकि व्याकरण शास्त्रकी दृष्ठिसे उक्त प्रयोगोंका व्यवहार होगा ही। एक ही अर्थ को शब्दभेदसे जो भिन्न २ रूपसे जानता है, वह समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्राणीक पतिक हो इन्द्र, शक और पुरन्दर थे तीन नाम हूं, लेकिन सममिरूढनयकी दृष्टि में परमैश्वर्य पर्यायसे युक्त होने के कारण इन्द्र, शकन-शासन पर्यायसे युक्त होनेके कारण शक और पुरदारण पर्यायसे युक्त होने के कारण पुरन्दर कहा जाता है। जो पदार्थ जिस समय जिस पर्याय रूपमें परिणत हो उस समय उसको असी रूप ग्रहण करनेवाला एघंभूतनय है । जैसे इन्द्र तभी इन्द्र कहा जायगा जब वह ऐश्वर्यपर्यायसे युक्त हो, पूजन या अभिषेकके समय वह इन्द्र नहीं कहलायगा। तथा गायको गौ तभी कहेंगे जब वह गमन करती हो, सोने या बैठने के समय उसको गौ नहीं कहेंगे। उक्त नयोंका विप्रय उत्तरोत्तर सूक्ष्म है । नगमकी अपेक्षा संग्रहनयका विषय अल्प है। नैगमनय भाव और अभाव दोनों को विषय करता है लेकिन संग्रहनय ४६ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [१३१ केवल सत्ता (भाय ) को ही विषय करता है। इसी प्रकार आगे समझ लेना चाहिये । पहिले पहिले के नय आगे आगे के नयोंके हेतु होते हैं। जैसे नेगमनय संग्रहनयका हेतु है, संग्रहनय व्यवहार नयका हेतु है इत्यादि । __ उक्तनय परस्पर सापेक्ष होकर ही सम्यग्दर्शनके कारण होते हैं जैसे तन्तु परस्पर सापेक्ष होकर ( वस्त्ररूपसे परिणत होकर ) ही शीतनिवारण आदि अपने कार्यको करते हैं । जिस प्रकार तन्तु पृथक पृथक् रहकर अपना शीतनिवारण कार्य नहीं कर सकते, उसी प्रकार परस्पर निरपेक्ष नयभी अर्थकिया नहीं कर सकते हैं। प्रश्न-तन्तुका दृष्टान्त ठीक नहीं है, क्योंकि पृथक र तन्तुभी अपनी शक्तिके अनुसार अपना कार्य करते ही हैं लेकिन निरपेक्ष नय तो कुछ भी अर्थकिया नहीं कर सकते । उत्तर-आपने हमारे अभिप्रायको नहीं समझा। हमने कहा था कि निरपेक्ष तन्तु बरूस्का काम नहीं कर सकते । आपने जो प्रथक् २ तन्तुओंके द्वारा कार्य बतलाया वह तन्तुओंका ही कार्य है वखका नहीं । तन्तुभी अपना कार्य तभी करता है जब उसके अवयव परस्परसापेक्ष होते हैं। अतः तन्तुका दृष्टान्त बिलकुल ठीक है। इसलिये परस्पर सापेक्ष नयोंके द्वारा ही अक्रिया हो सकती है। जिस प्रकार तन्तुओंमें शक्तिकी अपेक्षासे घस्तुको अर्थक्रियाका सद्भाव माना जाता है उसी तरह निरपेक्ष नयोमें भी सम्यग्दर्शन की अगता शक्तिरूपमें है ही पर अभिव्यक्ति सापेक्ष दशामें ही होगी। मार्गदर्शक :-प्रधानाध्यीयसभनागर जी महाराज Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य द्वितीय अध्यायात सप्त तत्त्वोंमें से जीवके स्वतत्त्वको बतलाते हैंऔपशामिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपरिणामिकौ च ।। १ ।। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदायक और पारिणामिक जीवके ये पांच असाधारण भाब है। कर्मके अनुदय को उपशम कहते हैं । कर्मो के उपशमसे होनेवाले भावोंको औपशमिक भाव कहते हैं। कर्मों के क्षयसे होने वाले भाव क्षायिक भाव कहलाते हैं। सर्वघाति सद्भुकों का उदयाभाविक्षय, आगामी कालमें उदय आनेवाले सर्वघाति स्पर्द्धकोंका सवस्थारूप उपशम और देशथाति स्पर्द्धकों के उदयको क्षयोपशम कहते हैं और क्षयोपशम जन्य भावोंको शायोपशमिक भाव कहते हैं। काँके उदयसे होनेवाले भावोंको औदायिकभाव कहते हैं। कांके उदय, उपशम, भय और क्षयोपशमकी अपेक्षा न रखनेवाले भावों का पारिणामिकमाय कहते हैं। भव्यजीवके पाँचों ही भाव होते हैं। अभव्यक औपशमिक और क्षायिक भावोंको छोड़कर अन्य तीन भाव होते हैं। उक्त भावोंके भेदोंको बतलाते हैंद्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ॥ २ ॥ उक्त भावोंके क्रमसे दो, नत्र, अठारह, इक्कीस और तोन भेद होते हैं। औपशामक भावके भेद सम्यक्त्व चारित्रे ॥३॥ औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ये दो ऑपशमिक भाव हैं । अनन्तानुपन्धि क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्य, सम्यग मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतियों के उपशमसे औपशमिक सम्यक्त्व होता है। श्रमादि मिध्यादृष्टि जीवके काललब्धि आदि कारणों के मिलने पर उपशम होता है। कर्मयुक्त भव्य जीव संसारके काल मेंसे अद्धपुद्गल परिवर्तन काल शेष रहनेपर औपशमिक सम्यक्त्वके योग्य होता है यह एक काललब्धि है। आत्मामें कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति अथवा जघन्य स्थिति होने पर औपशमिक सम्यक्त्व नहीं हो सकता किन्तु अन्तः कोटाकोटिसागर प्रमाण कोंकी स्थिति होनेपर और निर्मल परिणामोंसे उस स्थिति में से संख्यात हजार सागर स्थिति कम होजाने पर औपशमिक सम्यकत्वके योग्य आत्मा होता है । यह दूसरी काललब्धि है। ___ भव्य, पञ्चेन्द्रिय, समनस्क, पर्यातक और सर्वविशुद्ध जीव औपशमिक सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है । यह तीसरी काल लब्धि है। आदि शब्दसे जातिस्मरण, जिनमहिमादर्शनादि कारणों से भी सम्यक्त्व होता है। सोलह कषाय ओर नव नो कषायोंके उपशमसे औपशमिक चारित्र होता है। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [२१४-५ क्षायिक भावके भेदशानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥ ४ ॥ ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य और च. शब्दसे सम्यक्त्व और चारित्र ये नव क्षायिक भाव है। केवलज्ञानावरणके भयमे केवलज्ञान क्षायिक है। केवलदर्शनावरणके भयसे केवलदर्शन क्षायिक होना है। दानाम्तर्गदर्षकक्षयरनेसनल प्राणियविधिअनग्रह काम महाराजान अभयदान होता है । लाभान्तरायके चयमे अनन्तलाभ होता है । इसीसे केवली भगवान की शरीरस्थिति के लिए परम शभ सक्ष्म अनन्त परमाणु प्रतिसमय आते हैं। इसलिए कयला हार न करने परभी उनके शरीरकी स्थिति बराबर बनी रहती है। भोगान्तरायके क्षयसे अनन्तभोग होता है । जिससे गन्धोदकवृष्टि पुष्पवृष्टि आदि होती हैं। उपभोगान्तरायके क्षयसे अनन्त उपभोग होता है, इसग्ने छत्र चमर आदि विभूतियाँ होती है। वीर्यान्तरायके क्षयसे अनन्त वार्य होता है। केवली क्षायिकवीर्यके कारण केवलज्ञान और केवलदर्शनके द्वारा सर्व द्रव्यों और उनकी पर्यायों को जानने और देखने के लिये समर्थ होते हैं। चार अनन्तानुयन्धी और तीन दर्शनमोहनीय इन सात प्रकृतियोंके क्षयसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है। सोलह कषाय और नव नोकषायों के क्षयसे क्षायिकचारित्र होता है। क्षायिक दान, भोग, उपभोगादिका प्रत्यक्ष कार्य शरीर नाम और तीर्थक्कर नामकर्मके उदयसे होता है । चूंकि सिद्धोंक उक्त कर्मोंका उदय नहीं है अतः इन भावोंकी सत्ता अनन्तवीर्य और अव्याबाध सुस्वके रूप में ही रहती है। कहा भी है-अनन्त आनन्द, अनन्त ज्ञान, अनन्त गश्वर्य, अनन्तवीर्य और परमसूक्ष्मता जहाँ पाई जाय वही मोक्ष है। __ मिश्रभावके भेदज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्थित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाच ॥शा ___ भति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान, कुमति कुश्रुत और कुअवधि ये तीन अज्ञान, चक्षुदशन अचक्षुदर्शन और अवधिदशन ये तीन दर्शन, क्षायोपर्शामक दान, लाभ भोग, उपभोग और वीयं च पांच लन्धि, भायोपमिक सम्यक्त्व, क्षायापमिक चारित्र और संयमानमय ये क्षायोपशामक भात्र हैं। अनन्तानुबन्धो क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्य और सम्यग्मिथ्यात्व इन सर्वघाति प्रकृतियोंके उदयाभावी क्षय तथा आगामी कालमें उदय आने वाले उक्त प्रकृतियों के निपेकों का सदयस्थारूप उपशम और सम्यक्त्वप्रकृतिके उदय होने पर क्षायोपमिक सम्यक्त्व हाता है। अनन्तानुबन्धी आदि बारह कपायोंका उदयाभावी क्षय तथा आगामी कालमें उद्यमे आनेवाले इन्हीं प्रकृतियोंके निपेकोंका सदवस्थारूप उपशम और संज्वलन तथा नव नांकषायका उदय हान पर क्षायोपशमिक चारित्र होता है। 'अनन्तानुबन्धी आदि आठ कपायोंका उदयाभावी क्षय तथा आगामी कालमें उदयमं आनेवाल इन्हीं प्रकृतियों के निपेकोंका सदवस्था रूप उपशम और प्रत्याख्यानावरण आदि सत्रह कपायोंका उदय होनस संग्रमासंयम होता है। सूत्रम आय हुए च शब्दसे संज्ञित्व और सम्यग्मिथ्यात्वका प्रण किया गया है। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३-७] द्वितीय अध्याय आदयिक भायके भेदपतिकपायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुःश्यकपड्भेदाः ॥ ६।। धार गति, चार कपाय, तीन वेद, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्य, आर लेश्या ये इकोस औदायिक भाव हैं। गतिनाम कर्म के उदयस उन उन गतियों के भावोंको प्राप्त हाना गति है । कपायोका उदय औदायेक है । वेदोंके उदयसे वेद औदयिक हाते हैं । मिथ्या व कमके उदयस मिथ्यात्व आदयिक है। मानावरण कर्म के उदयम पदार्थका ज्ञान नहीं होना अज्ञान है। मिश्र भावों में जो अन्जान है उसका तात्पर्य मिथ्याजानते हैं और यहां अज्ञानका अर्थ ज्ञानका अभाव है। सभी कर्मों के उदयकी अपेक्षा असिद्ध भाव है। कपायक उदय रंगी हुई मन बचन कायकी प्रवृत्ति का लेश्या कहते हैं । .इयाक दव्य श्रार भाचक पसे दो भेद हैं। यहाँ साचलेश्याकाठी ग्रहण क्रिया गया है। योगसे मिश्रित कपात्यकी प्रवृत्तिको श्या कहते हैं। कृष्ण, नील कापात, पील, मार्गदर्शार अस्वल स्वाविधिका निवास है। आमके फल खाने के लिए छह पुरुषोंकि छह प्रकारक. भात्र होते हैं। एक व्यक्ति आम खानकः लिए पेड़को जड़से उखाड़ना चाहता है। सराइका पीढस काटना चाहता है। तीसरा डालियां काटना चाहता है। चौथा फलोंके गुच्छे तोड़ लेना चाहता है । पाचवाँ केवल पके फल तोड़नेकी चान सोचता है। और छठयों नीचे गिर हुए फलोंको ही खाकर परम तृप्त हो जाता है । इसी प्रकारले मात्र कृष्ण आदि श्यायों में होते हैं। प्रश्न-आगममें उपशान्तकपाय, क्षीणकपाच और सयोगवलीक शक्लश्या बताई गई है लेकिन जन उनके कषायका उदय नहीं है तब लेश्या कैसे संभव है ? उत्तर-'उक्त गुणस्थानों में जो गधारा पहिले पायस अनुरजत थी यही इस समय बह रही है, यद्यपि उसका कपाशंश निकल गया है। इस प्रकार के भूतपूर्वप्रज्ञापन नयकी अपेक्षा वहाँ लेश्याका सद्भाव है। अयोगबलीके न प्रकारका योग भी नहीं है इसलिए ये पूर्णतः लेग्यारहित होते हैं। पारिणामिक साय जीवभव्याभव्यानि च ॥ ७ ॥ जीवस्व, भव्यत्व और अभव्यत्य ये तीन पारिणामिक भाव है । जीवत्व अर्थात् चेतनत्य । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और प्रम्यचारित्ररूप पर्याय प्रकट हानेकी बोग्यताको भव्यत्य कहते हैं तथा अयोग्यताको अभव्यत्य । सूत्र में दिए गए 'च' शब्दसं अस्तित्त्र, वस्तुत्म, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशवत्व, मूतत्व, अमूर्तस्त्र, चेतनत्व, अचेतनत्व आदि भावका ग्रहण किया गया है, अर्थात् ये भी पारिगामिक भाव है। ये भाव अन्य द्रव्यों में भी पाये जाते हैं. इसलिये जीव असाधारण भाव न होने से सूत्रमें इन भावोंका नहीं कहा है। प्रश्न पुल द्रव्यमं चतमत्व और जीय द्रव्यमें अचेतनत्य कैसे संभव है ? उत्तर-जैस दीपक्रकी शिखा रूपसे परिणत तेल दीपककी शिखा हो जाता है उसी Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्त्वार्थ वृत्ति हिन्दी-सार [२२८-१० प्रकार जीवके द्वारा शरीर रूपसे गृहीत पुद्गल भी उपचारसे जीव कहे जाते हैं । इसी प्रकार जिस जीवमें आत्मविवेक नहीं है वह उपचरित असद्भुत व्यवहारनयकी अपेक्षा अचेतन कहा जाता है । इसी प्रकार जीवके मूर्तत्व और पुल के अमूतत्व भी औपचारिक है। प्रश्न-मूतं कर्मों के साथ जब जीव एकमेक हो जाता है तब उन दोनों में परस्पर क्या विशेषना रहती है ? उत्तर-यद्यपि बन्धकी अपेक्षा दोनों एक हो जाते हैं फिर भी लक्षणभेदसे दोनों में भिन्नता भी रहती है—जीव चेतनरूप है और पुद्गल अचेतन । इसी तरह अमूर्तत्व भी जीव में ऐकान्तिक नहीं है। जीवका लक्षण उपयोगो लक्षणम् ।। ८ ।। जीवका लक्षण उपयोग है। बाह्य और अभ्यन्तर निमित्तोंके कारण आत्माके चैतन्य स्वरूपका जो ज्ञान और दर्शन रूपसे परिणमन होता है उसे उपयोग कहते हैं। सद्यपि उपयोग जीवका लक्षण होनेसे आत्माका स्वरूप ही है फिर भी जीव और उपयोगमें लक्ष्य-लक्षणकी अपेक्षा भेद है । जीव लय हैं और उपयोग लक्षण । उपयोग के भेद स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ।। ६॥ उपयोगके मुख्य दो भेद हैं-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोगके मति, श्रुत,अवधि, मनःपर्यय, केवल, कुमति, कुश्रुत और कुअवधि ये आठ भेद हैं । दर्शनोपयोगके चक्षु, अचक्षु, अवधि और केबलदर्शनके भेदसे चार भेद है। ज्ञान साकार और दर्शन निराकार हाता है । वस्तुके विशेष ज्ञानको साकार कहते हैं। और सत्तावलोकन मात्रका नाम निराकार है। छद्मस्थोंके पहिले दर्शन और बादमें ज्ञान होता है। किन्तु अन्त, सिद्ध और सयोगकेवलियों के ज्ञान और दर्शन एक साथ ही होता है। प्रश्न-ज्ञानसं पहिले दर्शनका ग्रहण करना चाहिये क्योकि दर्शन पहिले होता है ? उत्तर-दर्शनसे पहिले ज्ञानका ग्रहण ही ठीक है क्योंकि ज्ञानमें थोड़े स्वर हैं और पूज्य भी है। जीव के भेद संसारिणो मुक्ताश्च ॥ १०॥ संसारी और मुक्तके भदसे जीय दो प्रकारके हैं। यद्यपि संसारी जीवों की अपेक्षा मुक्त पूज्य हैं फिर भी मुक्त होनेके पहिले जीव संसारी होता है अतः संसारो जीवों का ग्रहण पहिले किया है। ___ । पञ्च परिवर्तन को संसार कहते हैं ।। द्रव्य, क्षेत्र, भव, और भाव ये पांच परिवर्तन हैं। द्रव्यपरिवर्तनके दो भेद है-नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन और द्रव्य कर्मपरिवर्तन । किसी जीवने एक समयमें औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर तथा षट् पर्याप्तियोंके योग्य स्निग्ध,रस, वर्ण गन्ध आदि गुणोंसे युक्त पुल परमाणुओं को तीत्र, मन्द या मध्यम भावाँसे ग्रहण किया और दूसरे समग्रमें उन्हें छोड़ा । फिर अनन्त बार अगृहीत Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय ३६७ परमाणुओं को बीच में गृहीत परमाणुओं को तथा मिश्र परमाणुओं को ग्रहण किया इसके अनन्तर यही जीव उन्हीं स्निग्ध आदि गुणोंसे युक्त उन्ही तीन आदि भावोंसे उन्हीं पुल परमाणुओं को औदारिक श्रादि शरीर और पर्याप्ति रूपसे ग्रहण करता है । इसी क्रमसे जब समस्त पुद्गलपरमाणुओं का नोकर्म रूपसे ग्रहण हो जाता है तब एक नोकर्मद्रव्य परिवर्तन होता है। एक जीवने एक समयमें अष्ट कर्म रूपसे अमुक पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण किया और एक समय अधिक अवधि प्रमाण कालके बाद उन्हें निर्जीण किया। नोकर्मद्रव्यमें बताए गए क्रमके अनुसार फिर वही, जीव उन्हीं परमाणुओं को उन्हीं कम रूपसे ग्रहण करें । इस प्रकार समस्त परमाणुओं को जब क्रमशः फर्म रूपरंग प्रण कर चुकता है तब एक कर्मद्रव्य परिवतन होता है। इन नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन और कर्मद्रव्यररिबर्तनके समूह का नाम द्रव्य परिवर्तन है। ___ सर्वजघन्य अवगाहनावाला अपर्याप्त सूक्ष्मनिगोद जीव लोकके आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीरके मध्यमै करके उत्पन्न हुश्रा और मरा । पुनः उसी अवगाहनासे अहलके असंख्यातवें भाग प्रमाण आकाशके जितने प्रदेश हैं उतनी बार वहीं उम्पन्न हो । फिर अपनी अवगाहना में एक प्रदेश क्षेत्र को बढ़ावे । और दूसा क्रमसे जब सर्वलोक उस जीवका जन्म, क्षेत्र बन जाय तब एक क्षेत्रपरिवर्तन होता है मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज कोई जीव उत्सर्पिणी कालके प्रथम समयमें उम्पन्न हो, पुनः द्वितीय उत्सर्पिणी कालके द्वितीय समयमें उत्पन्न हो । इसी क्रमसे तृतीय चतुर्ध आदि उत्सर्पिणी कालके तृतीय चतुर्थ आदि समयों में उत्पन्न होकर उत्सर्पिणी कालके सर्व समयों में जन्म ले और इसी क्रमसे मरण भी करे । अवसर्पिणी कालके समयों में भी उत्मर्षिणी काल की तरह ही वही जीव जन्म और मरण को प्राप्त हो तब एक काल परिवर्तन होता। भवपरिवर्तन चतुर्गतियोमें परिभ्रमणको भव परिवर्तन कहते हैं। नरक गतिमें जघन्य श्रायु दश हजार वर्ष है । कोई जीव प्रथम नरममें जघन्य आयु पाला उत्पन्न हो, दश हजार वर्षके जितने समय हैं उतनी बार प्रथम नरक में जघन्य आयुका वन्ध कर उत्पात्र हो। फिर वहीं जीव एक समय अधिक आयुको बढ़ाते हुये कमसे तेतीस सागर आयुको नरकम पूर्ण करे तन्न एक नरकगतिपरिवर्तन होता है। तिर्यञ्चति में कोई जीव अन्तर्मुहर्त प्रमाण जघन्य आयुबाला उत्पन्न हो पुनः द्वितीय वार उसी आयुसे उत्पन्न हो। इस प्रकार एक समय अधिक आयु का बन्ध करते हुये तीन पल्य की आयु को समाप्त करनेपर एक तिर्यगति परिवर्तन होता है। मनुष्यगति परिवर्तन तिर्यग्गति परिवर्तनके समान ही समझ लना चाहिये । देवगति परिवर्तन नरकति परिवर्तन की तरह ही है। किन्तु देवगति में आयुमें एक समयाधिक वृद्धि इकतीस सागर तक ही करनी चाहिए । कारण मिथ्याष्टि अन्तिम प्रबेयक तक ही उत्पन्न होता है। इस प्रकार चारों गतिके परिवर्तन है। पञ्चेन्द्रिय, संझी पर्याप्रक मिथ्यादृष्टी जीवके जो कि ज्ञानावरण कर्म की सर्वजघन्य अन्त: कोटाकोटि स्थिति बन्ध करता है कपायाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं । और इनमें संख्यात भाग वृद्धि, असंन्यात भाग वृद्धि, अनन्त भाग वृद्धि, संख्यात गुण बृद्धि, असंख्यात गुण वृद्धि, अनन्त गुण वृद्धि इस प्रकार की वृद्धि भी हाती रहती है। अन्तःकोटाकोटि की स्थिति में सर्वजघन्य कपायाध्यवसायस्थाननिमित्तक अनुभाग अध्यवसायके स्थान असंख्यातलोक प्रमाण होते हैं। सवजघन्य स्थिति, सर्वजघन्य कषायाध्य वसाय स्थान और सर्चजवन्य अनुभागाध्यवसायके होनेपर सर्वजघन्य योगस्थान होता है। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [२।१४-१३ पुनः वही स्थिति, कपायध्यायवसाय स्थान और अनुभागाध्यवसायस्थानके होने पर असंख्यात भागवृद्धिसहित द्वितीय योगस्थान होता है। इसप्रकार श्रेणीके असंख्यात भाग प्रमाण योगस्थान होते हैं। योगस्थानों में अनन्तमा वृद्धि और अनन्तगुणद्धि रहित केवल चार प्रकारकी हो वृद्धि होती है । पुनः उसी स्थिति और उसी कपाग्राध्यवसाय स्थानको प्राप्त करने वाले जीवक द्वितीय अनुभागाभ्यवसायस्थान होता है। इसके योगस्थान पूर्ववत्, ही होते हैं । इसप्रकार असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागाध्यबसायस्थान होते हैं। पुनः उसी स्थितिका बन्ध करने वाले जीवके द्वितीय कपायाध्यवसाय स्थान हाता है । इसके अनुभागाभ्यबसायस्थान और योगस्थान पूर्ववत् ही होते हैं । इसप्रकार असंन्यात लोक प्रमाण कपायाव्यवसाय स्थान होते है । इस तरह जवन्य आयुमें एक २ नमयकी वृद्धिक्रमस तीस कोटाकोटि सागरकी उत्कृष्ट स्थति को पूर्ण करें। उक्त क्रमसे सर्यकांकी मूलप्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियोंकी अघन्य स्थितिम लेकर उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त कपाय, अनुभाग और योगस्थानों को पूर्ण करने पर एक भावपरिवर्तन होता है। संसारो जीवक भेद समनस्काइमनस्काः ॥ ११ ॥ संसारी जीत्र समनस्क और अमनस्कक भेदने दो प्रकार के होते हैं । मनके दो भेद है द्रव्यमन आर भावमन । द्रव्य मन पुलावपाकी कम के उद्यम हाता है। वीर्यान्तराय नश्रा नोइन्द्रियावर गकमक क्षयापशमसे होने वाली आत्माकी विशुद्धि को भावमन कहते हैं । सूत्रमें समनश्क को गुणदोपविचारमदहोने के कारणचामिनहानिये पहिलका महाराज संसारिणस्वमस्थायराः ।। १२ ।। संसारी जीवकि त्रम आर स्थावरके भेदन भी दो भेद होते हैं। प्रस नाम कर्मके उदयसे ग्रस और स्थावर नामकर्मक उदयास स्थावर हात है । त्रस का मतलब यह नहीं है कि जो चले फिरे वे उस हैं श्रीर जो स्थिर रह व स्थावर हैं। क्योंकि इस लक्षण के अनुसार यात्रु आदि त्रस हा जायगे और गर्भस्थ जीव स्थावर हो जायगे। प्रश्न-इम सूत्र में संसारी शब्दका ग्रहण नहीं करना चाहिये क्योंकि संसारिणी मुक्ताश्च' इस सूत्र में संसारी शब्द आ चुका है। उत्तर-पूर्व सूत्र में कह हुये समनरक और अमनस्क भेद संसारी जीवक ही होते है इस बातको वतलाने के लिये इस सूत्र में संसारी शब्दका ग्रहण किया गया है । इस शब्दका ग्रहण न करनेस संसारी जीत्र समनस्क होते हैं और मुक्त जीव अमनस्क होते हैं ऐसा विपरीत अर्थ भी हो सकता था। तथा संसारी जीच बस और मुक्त जीव स्थावर होते हैं ऐसा अर्थ भी किया जा सकता था। अत: इस सूत्र में संसारी शब्दका होना अत्यन्त आवश्यक है। स शब्दको अल्प स्वरवाला और ज्ञान और उसमें दर्शन रूप सभी उपयोगोंकी संभावना होने के कारण सूत्र में पहिले कहा है । स्थार के भेदपृथिव्यातेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ॥ १३ ॥ पृथिवीकायिक, अपकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक और उनस्पतिकायिक ये पांच प्रकार के स्वार हैं। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] द्वितीय अध्याय मार्गमें पड़ी हुई धूलि आदि पृथिवी है। पृथियोकायिक जीवके द्वारा परित्यक्त इंद आदि पृथिवीकाय है। पृथिवी और पुथिवीकायके स्थायर नामकर्मका उदय न होनेसे वह निर्जीव है, अतः उसकी विराधना नहीं होती। जिसके पृथिवीकाय विद्यमान हैं यह पृथिवीकायिक है। जिसके पृथिवी नामकर्मका उदय है लेकिन जिसने पृथिवीकायको प्राप्त नहीं किया है ऐसे विग्रह गति में रहनेवाले जीवको पृथिवीजीव कहते हैं। पृथिवीके मिट्टी, रेत. कंकड़, पत्थर, शिला, नमक, लोहा, तांबा, रांगा, सीसा, चांदी, सोना, हीरा, हरताल, हिंगुल, मनःशिला, गेरू, तूतिया, अंजन प्रवाल, अभ्रक, गोमेद, राजवर्तमणि, पुलकमणि, स्फटिकमणि, पद्मरागमणि, वैयर्माण, चन्द्रकान्त, जलकान्त, सूर्यकान्त, गैरिकमणि, चन्दनमणि, मरकतमणि, पुष्परागमणि, नीलमणि, विद्रुममणि आदि छत्तीस भेद हैं । बिलोहा गया,इधर उधर फैलाया गया और छाना गया पानी जल कहा जाता है। जलकायदाकासे अमावाश्रीनहाकया हुआ पानी जलकाय है। जिसमें जलजीव रहता है उसे जलकायिक कहते हैं। विग्रहगतिमें रहने वाला वह जीव जलजीव कहलाता है जो आगे जलपर्यायको ग्रहण करेगा। इधर उधर फैली हुई या जिसपर जल सींच दिया गया है या जिसका बहु भाग भस्म वन सुका है ऐसी अग्नि को अग्नि कहते हैं । अग्निजीवके द्वारा छोड़ा गई भस्म आदि अग्निकाय कहलाते हैं। इनकी विराधना नहीं होती। जिसमें अग्निजीच विद्यमान हैं उसे अग्निकायिक कहते हैं। विग्रहगति में प्राप्त वह जीव अग्निजीय कहलाता है जिसके अग्निनामकर्मका उदय है और आगे जो अग्नि शरीरको ग्रहपा करेगा। जिसमें घायुकायिक जीव आ सकता है गेसी वायुको अर्थात् केवल वायुको वायु कहते हैं । वायुकायिक जीवके द्वारा छोड़ी गई, वीजना आदिसे चलाई गई हया वायुकाय कहलाती है। वायुजीव जिसमें मौजूद है ऐसी वायु यायुकायिक कही जाती है। त्रिग्रहगति प्राप्त, वायुको शरीर रूपसे ग्रहण करने वाला जीव वायुजीव है। छेदी गई, भेदी गई या मर्दित की गई गीली लता आदि वनस्पति हैं । सूखी वनस्पति जिसमें वनस्पति जीव नहीं हैं वनस्पतिकाय हैं। सजीव वृक्ष आदि वनम्पतिकायिक हैं। विग्रहगतिवर्ती यह जीव वनस्पतिजीत्र कहलाता है जिसके वनस्पतिनामकर्मका उदय है तथा जो आगे वनस्पतिको शरीर रूपग्मे ग्रहण करेगा। प्रत्येक कायके चार भेदों में से प्रथम दो भेद स्थापर नहीं कहलाते क्योंकि वे अजीब हैं तथा इनके स्थावर नामकर्मका उलय भी नहीं है। एकेन्द्रियके चार प्राण हाते हैं-स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वसोच्छ्वास । जस जीवोंके भेद द्वीन्द्रियादयस्वसाः ॥१४॥ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीव त्रस होते हैं। शंख,कोंडी, सीप, जोक, आदि दोइन्द्रिय जीव है। चींटी, विष्छू, पटार, ज, खटमल आदि तीन इन्द्रिय जीव हैं। मक्खी, पतंग, भौंरा, मधुमक्खी, मकड़ी आदि चतुरिन्द्रिय जीव है। पञ्चेन्द्रिय जीव अण्डायिक पोतायिक आदिके भेदसे अनेक प्रकार के हैं । यथा-अण्डायिक-अण्डेसे उत्पन्न होनेवाले सप, बमनी, पक्षी आदि । पोतायिक-जो प्राणी गर्भ में जरायु आदि आवरणसे रहित होकर रहते हैं उन्हें पोतायिक कहते हैं। जैसे कुत्ता, बिल्ली, सिंह, व्याघ्र, Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [२१५-१७ चीता आदि । गाय,भैंस,मनुष्य आदि जरायिक कहलाते हैं, क्योंकि गर्भ में इनके ऊपर मांस आदिका जाल लिपटा रहता है। शराब आदिमें उत्पन्न होनेवाले कीड़े रसायिक है अथवा रस नामको धातु में उत्पन्न होनेवाले रसायिक हैं। पसीनेसे उत्पन्न होनेवाले जीव संस्वेदिम कहे जाते हैं । चक्रवती आदिकी कांसमें एसे सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते हैं । समूचनसर्दी, गर्मी, वर्षा आदिके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले सर्प,चूहे आदि समूच्छिम हैं। कहाभी है-- बीर्य, खकार, कान, दाँत आदिका मैल तथा अन्य अपवित्र स्थानों में तत्काल संमूर्छन जीव उत्पन्न होते रहते हैं । पृथिवी, काठ, पत्थर आदिको भेदकर उत्पन्न होनेवाले जीप उद्वेदिम कहताते हैं । जैसे रत्न या पत्थर आदिको चीरनेसे निकलनेवाले मेंढक । देव और नारकियोंके उपपाद स्थानों में उत्पन्न होने वाले देव और नारकी जीव उपपादिम कहलाते है । इनकी अकालमृत्यु नहीं होती है। द्वीन्द्रियके स्पर्शन ओर रसनेन्द्रिय, काय और वाग्बल तथा आयु और श्वासोच्छ्वास इस प्रकार छह प्राण होते हैं। श्रीन्द्रियके घ्राणेन्द्रिय सहित सात प्राण होते हैं । चतुरिन्द्रियके चक्षुइन्द्रिय सहित आठ प्राण होते हैं । असंशी फळचेन्द्रियके श्रोत्रेन्द्रिय सहित नष प्राण होते है । और संज्ञी फचेन्द्रियके मन सहित दस प्राण होते हैं। इन्द्रियों की संख्या पञ्चेन्द्रियाणि ॥१५॥ स्पर्शन, रसना, प्राण, 'चक्षु और श्रोत्रके भेदसे इन्द्रियों पांच होती है। कर्मसहित जीव पदार्थों को जानने में असमर्थ होता है अनविनाको जानने में सहायक होती है। यहां उपयोगका प्रकरण है. अतः उपयोगके साधनभुत पांच ज्ञानेन्द्रियोंका ही यहां ग्रहण किया गया है । वाक , पाणि, पाद आदिके भेदसे कर्मेन्द्रिय के अनेक भेद है । अत: इस सूत्र में पांच संख्यासे सांख्यकं द्वारा मानी गई पांच कर्मेन्द्रियोका ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि शरीरके सभी अवयव क्रिया के साधन होनेसे कर्मेन्द्रिय हो सकते हैं इसलिए इनकी कोई संख्या निश्चित नहीं की जा सकती। इन्द्रियों के भेद-- द्विविधानि ॥ १६ ॥ द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रियके भेदसे प्रत्येक इन्द्रियके दो दो भेव होते हैं। द्रव्येन्द्रियका म्वरूप--- निवृत्त्युपकरपणे द्रव्येन्द्रियम् ।। १७ ।। निति और उपकरणको द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। इनमें से प्रत्येकके अभ्यन्तर और बाह्य के भेदसे दो दो भेद हैं। चनु आदि इन्द्रियकी पुतली आदिके भीतर तदाकार परिणत पुद्गल स्कन्धको बास निर्वृत्ति कहते हैं । और उसंधांगुलके असंख्यात भागप्रमाण आत्माके प्रदेशोंको जो चक्षु आदि इंद्रियों के आकार हैं तथा तात् ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे विशिष्ट है, आभ्यन्तर निईत्ति कहते हैं। चक्षु आदि इन्द्रियों में शुक्ल, कृष्ण आदि रूपसे परिणत पुद्गलपचयको आभ्यन्तर रुपकरण कहते हैं। और अक्षिपक्ष्म आदि बाह्य उपकरण हैं। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ३७१ २०१८-२४] द्वितीय अध्याय भावेन्द्रियका स्वरूप-- लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम् ॥१८॥ लरिध और उपयोगको भावेन्द्रिय कहते हैं । आत्मामें झानावरण कर्म के अन्योपशमसे होनेवाली अर्थग्रहण करनेकी शक्तिका नाम लब्धि है। आत्माके अर्थको जाननेके लिए जो व्यापार होता है. उसको उपयोग कहते हैं। यद्यपि उपयोग इन्द्रियका फल है फिर भी कार्य में कारणका उपचार करके उपयोगको इन्द्रिय कहा गया है। इन्द्रियोंके नामस्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि ।।१९।। स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ होती है। इनकी व्युत्पत्ति करण तथा कर्तृ दोनों साधनों में होती है। इन्द्रियोंके विपय स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः ॥२०॥ स्पर्श, रस, गन्ध, वणं और शब्द ये क्रमसे उक्त पांच इन्द्रियोंके विषय होते हैं । मनका विपय श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥२१॥ अनिन्द्रिय अर्थात् मनका विषय श्रुत होता है । अस्पष्ट ज्ञानको श्रुत कहते हैं। अथवा श्रुतज्ञानके विषयभूत अर्थको श्रुत कहते हैं। क्योंकि श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोप शम हो जाने पर श्रुतज्ञानके विषय में मनके द्वारा आत्माकी प्रवृत्ति होती है। अथवा 'श्रुतज्ञान को श्रुत कहते हैं। मनका प्रयोजन यह श्रुतझान है। इन्द्रियों के स्वामी वनस्पत्यन्तानामेकम् ॥२२॥ पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, यायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवोंके एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है। क्योंकि इनके वीर्यान्सराय और स्पर्शन इन्द्रियारणका क्षयोपशम हो जाता है और शेप इन्द्रियोंके सर्वघातिस्पद्धकोंका उदय रहता है । कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥२३॥ कृमि श्रादिके दो, पिपीलिका आदिके तीन, भ्रमर आदिके चार और मनुष्य आदिक पाँच--इस प्रकार इन जीवोंके एक एक इन्द्रिय बढ़ती हुई है। ___ पञ्चेन्द्रिय जीवके भेद संज्ञिनः समनस्काः ॥२४॥ मन सहित जीव संज्ञी होते हैं । इससे यह भी तात्पर्य निकलता है कि मनरहित जीय असंझी होते हैं। एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जीव और सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय जीव Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . -.. - . तत्त्यार्थशि हिन्दी-माचार्य श्री सुविहिासागरी जी महाराज असंज्ञी हात हैं । संज्ञियों के शिक्षा, शब्दार्थग्रहण आदि क्रिया होती है । यद्यपि असंज्ञियां के आहार, भय मैथुन और परिग्रह ये चार मंज्ञा होती हैं तथा इच्छा प्रवृत्ति आदि होती हैं। फिर भी शिक्षा, शब्दार्थग्रहण आदि किया न होने से वे संज्ञो नहीं कहलाते। विग्रहगनिमें गमन के कारणको बतलाते हैं विग्रहगती कर्मयोगः ॥२५॥ विप्रगतिमें कार्मण काययोग होता है। विग्रह शरीरको कहते हैं। नवीन दारीरको ग्रहण करने के लिये जो गति होती है वह विग्रहगान है। आत्मा एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरको ग्रहण करनेके लिचे कार्मण काययोगके निमित्त से गमन करता है। अथवा विरुद्ध ग्रहणको विग्रह कहते हैं अर्थात कर्मका ग्रहण होने पर भी नोकर्म हैं के अग्रणको विग्रह कहते हैं। और विग्रह होनस जो गति होती है वह विप्रगति कहलाती है। सर्वशरीरके कारणभूत कार्मण शरीरको कर्म कहते है। और मन, वचन, काय वर्गणा निमित्त होनेवाल आत्माकं प्रदेशोंके परिस्पन्द का नाम योग है। अर्थान विग्रह रूपसे गति होने पर कांका आदान और देशान्तरगमन दोनों होते हैं। जीत्र और पुद्गल के गमनक प्रकारको बतलाते हैं अनुश्रीण गतिः ।।२।। ___जीव और पुद्गलका गमन श्रेणीक अनुसार होता है। लोकके मध्यभागये ऊपर, नांचे तथा निर्यक दिशामें क्रमसे सन्निविष्ट आकाशक प्रदेशोंको पंक्तिको श्रेणी कहते हैं। प्रश्न-यहाँ जोर द्रव्यका प्रकरण होनेसे जीवकी गतिका वर्णन करना तो ठीक है लकिन पुद्गलकी गतिका वर्णन किस प्रकार संगत है ? उत्तर-'विग्रहगतो कर्मयोगः' इस सूत्रमें गतिका ग्रहण हो चुका है। अतः इस सूत्र में पुनः गतिका ग्रहण, और आगामी 'अविग्रहा जीवस्य' सूत्र में जीव शब्दका ग्रहण इस चातको बतलाते हैं कि यहाँ पुगलकी गतिका भी प्रकरण है। प्रश्न-ज्योतिषी देयों तथा मेरुकी प्रदक्षिणाके समय विद्याधर आदिकी गति श्रेणीके अनुसार नहीं होती है। अतः गतिको अनुश्रेणि बतलाना ठीक नहीं हैं। ___ उत्तर-नियत काल और नियत क्षेत्र में गति अनुश्रेणि बतलायी है। कालनियम-- संसारी जीवोंकी मरणकालमें भवान्तर प्राप्तिक लिये और मुक्त जीवोंकी ऊर्ध्वगमन कालमें जो गति होती है वह अनुश्णि ही होती है। देशनियम-ऊबलोकसे अधोगति, अधोलोकसे ऊर्ध्वगति, तिर्यग्लोकसे अधोगति अथवा ऊर्ध्वगति अनुश्रेणि ही होती है। पुलोंकी भी जो लोकान्त तक गति होती है वह अनुश्रेणि ही होती है । अन्य गति का कोई नियम नहीं है। मुक्त जीव की गति अविग्रहा जीवस्य ॥ २७ ।। मुक्त जीवकी गति विग्रहरहित अर्थात् सीधी होती है । माड़ा या वक्रताको विग्रह कहते हैं । यद्यपि इस सूत्र में सामान्य जीवका ग्रहण किया गया है, फिर भी आगामी "विग्रह Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २।२८-३०] द्वितीय अध्याय ३७३ वती च संसारिणः प्राक् चतुर्व्यः' सूत्र में संसारी शब्द आनेसे इस सूत्र में मुक्त जीवका ही ग्रहण करना चाहिये। ___ 'अनुश्रेणि गतिः' इसी सूत्रसे यह सिद्ध हो जाता है कि जीव और पुदलोंकी गति श्रेणीका व्यतिक्रम करके नहीं होती है अतः 'अविग्रहा जीवस्य' यह सूत्र निरर्थक होकर यह बतलाता है कि पहिले सूत्रमें बतलाई हुई गति कहीं पर विश्रेणि अर्थात् श्रेणीका उल्लंघन करके भी होती है। ___ संसारी जीवकी गतिविग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्म्यः ।। २८ ॥ संसारी जीवकी गनि मोड़ा सहित और मोड़ा रहित दोनों प्रकारकी होती है और प्रासमय वाक्यायो अहिलेषाक्षिाचीर बायहाँलाई । संसारी जीवोंकी विग्रहरहित गतिका काल एक समय है। मुरु जीवोंकी गतिका काल भी एक समय है। विग्रह रहित गतिका नाम इयु गति है। जिस प्रकार वाणकी गति सीधी होती है। उसी प्रकार यह गति भी सीधो होती है। एक मोड़ा, दो मोड़ा और तीन मादावाली गतिका काल क्रमसे दो समय, तीन समय और चार समय है। एक मोड़ाषाली गतिका नाम पाणिमुक्ता है। जिस प्रकार हाथसे तिरछे फेके हुए दृष्यं की गति एक मोड़ा युक्त होती है, उसी प्रकार इस गतिमें भी जीवको एक मोड़ा लेना पड़ता है। दो मोड़ावाली गतिका नाम लाङ्गलिका है । जिस प्रकार हल दो ओर मुड़ा रहता है उसी प्रकार यह गति भी दो माड़ा सहित होती है। तीन मोडाबाली गतिका नाम गाभूत्रिका है । जिस प्रकार गायके मूत्रमें कई मोड़े पड़ जाते हैं, उसी प्रकार इस गतिमें भी जीवको तीन मोड़ा लेने पड़ते हैं। इस प्रकार मोड़ा लेनेमें अधिकसे अधिक तीन समय लगते हैं। गोमूत्रिका गतिमें जीव चौथे समयमें कहीं न कहीं अवश्य उत्पन्न हो जाता है। यद्यपि इस सूत्र में समय शब्द नहीं आया है किन्तु आगेके सूत्रमें समय शब्द दिया गया है अतः यहाँपर भी समयका ग्रहण कर लेना चाहिये । विग्रह रहित गतिका समय-- एकसमयाऽविग्रहा ।। २३॥ मोड़ार हित गतिका काल एक समय है । गमन करनेवाले जीव और पुद्गलोंकी लोक पर्यन्त गति भी व्याधातरहित होनेसे एक समयवाली होती है। विग्रह गतिमें अनाहारक रहनेका समय एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः ॥३०॥ विग्रहगति में जीव एक, दो या तीन समय तक अनाहारक रहता है। औदारिक, क्रियिक, और आहारक शरीर तथा छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्रल परमाणुओं के ग्रहण को आहार कहते हैं। इस प्रकारका आहार जिसके न हो वह अनाहारक कहलाता है। विग्रह रहित गतिमें जीय आहारक होता है। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार [ २।३१-३२ एक मोड़ा सहित पाणिमुक्ता गति में जीव प्रथम समय में अनाहारक रहता है और द्वितीय समय में आहारक हो जाता है । दो मोड़ा युक्त लाङ्गलिका गतिमें जीव दो समय तक अनाहारक रहता है और तृतीय समय में श्राहारक हो जाता है। तीन मोदा युक्त गोमूनिका गांव में जीव तीन समय तक अनादार रहता है और चौथे समय में नियमसे आहारक हो जाता है। ऋद्धिप्राप्त यतिका आहारक शरीर श्राहार युक्त होता है। जन्म के भेद بایت सम्मूर्छन गर्भोपपादा जन्म ॥ ३१ ॥ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज संसारी जीवों के जन्म के तीन भेद है-संमुच्छन, गर्भ और उपपाद । माता-पिता के रज और वीर्य के बिना पुल परमाणुओं के मिलने मात्र से ही शरीर की रचनाको संमूर्च्छन जन्म कहते हैं । माता के गर्भ में शुक्र और शोणितक मिलने से जो जन्म होता है उसको गर्भ जन्म कहते हैं अथवा जहाँ माता के द्वारा युक्त आहारका ग्रहण हो वह गर्भ कहलाता है। जहाँ पहुँचते ही सम्पूर्ण अह्नों की रचना हो जाय वह उपपाद है । देव और नारकियों के उत्पत्तिस्थानको उपपाद कहते है | योनियों के भेद सचिराशीत संवृतः सेतरा मिश्राचैकशस्तयोनयः ||३२|| सचित्त, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत और सचित्ताचित्त, शीतोष्ण, संवृतत्रिवृतये नौ संमूर्च्छन आदि जन्मों की योनियाँ हैं । च शब्द समुच्चयार्थक है । अर्थात् उक योनियाँ परस्पर में भी मिश्र होती हैं और मिश्र योनियाँ भी दूसरी यानियों के साथ मिश्र होती हैं । योनि और जन्म में आधार और आधेय की अपेक्षासे भेद है। योनि आधार हैं और जन्म आधेय हैं। साधारण वनस्पतिकायिकों के सचित्त योनि होती है. क्योंकि ये जीव परस्पराश्रय रहते हैं । नारकियों के अचित्त योनि होती है, क्योंकि इनका उपपाद स्थान अचित्त होता है । गजों के सचित्तावित्त योनि होती है, क्योंकि शुक्र और शोणित अचित्त होते हैं और आत्मा अथवा माता का उदर सचित्त होता है। वनस्पति कायिक के अतिरिक्त पृथिव्यादि कायिक संमूच्छं नोंक अचित्त और मिश्र योनि होती है। देव और नारकियों के शीतोष्णयोनि होती है क्योंकि उनके कोई उपपादस्थान शीत होते हैं और कोई कण | तेजः कायिकों के उष्णयोनि होती है अन्य प्रथिव्यादि कायिकों के शीत, उष्ण और शीतोष्ण योनियाँ होती हैं। देव नारकी और एकेन्द्रियों के संवृत योनि होती है। विकलेन्द्रियोंके विद्युत योनि होती है । गर्भजोंक संवृतविवृत योनि होती हैं। योनियोंक उत्तरभेद चौरासी लाख होते हैं-नित्य निगोद, इतर निगोद, पृथिवी, अपू तेज और वायुकायिकों में प्रत्येक के सात सात लाख ६x४=११, बनस्पति कायिकों के दश लाख, विकलेन्द्रियों में प्रत्येकके दो लाख २४३ = ६, देव, नारकी और तिर्यञ्चमं प्रत्येकवे चार चार लाख ३४१-१२ और मनुष्यों के चौदह लाख योनियाँ होती हैं । इस प्रकार ४२+१०+६+१२+१४०८४ लाख योनियाँ होती हैं। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २।३३-३६] द्वितीय अध्याय गर्भ जन्म के स्वामी जरायुजाएडजपोतानां गर्भः ॥ ३३ ॥ जरायुज, अण्वज ओर पात इन जीवोंके गर्भ जन्म होता है। जालके समान मांस और मधिरके वस्त्राकार आवरण को जरायु कहते हैं। इस जरायुसे आच्छादित हो जो जीय पैदा होते हैं उनको जरायुज कहते हैं । जो जीव अण्डेसे पैदा होते हैं उनको अण्डज कहते हैं। जो जीय पैदा होते ही परिपूर्ण शरीर युक्त हो चलने फिरने लग जावें और जिनपर गर्भ में कोई आवरण न रहता हो उनको पोत कहते हैं। उपपाद जन्म के स्वामी-जी "आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज देवनारकाणामुपपादः ॥३४॥ देव और नारकियों के उपपाद जन्म होता है । देव उपपाद शय्यासे उत्पन्न होते हैं। नारकी उपपाद छत्तोंसे नीचेकी ओर मुंहकरके गिरते हैं। समूर्छन जन्म के स्वामी शेषाणां सम्मूच्छेनम् ॥३५॥ गर्भ और उपपाद जन्मवाले प्राणियोंसे अतिरिक्त जीवों के सम्मुर्छन जन्म होता है । उक्त तीनों सूत्र उभयतः नियमार्थक है । अर्थात् जरायुज, अण्डज और पोतोंके गर्भ जन्म ही होता हैं अथवा गभजन्म जरायुज, अण्डज और पोतोकेही हाता है। इसी प्रकार उपपाद और समूर्छन भी दुतरफा नियम घटा लना चाहिये। शरीरोंका वर्णनऔदारिकवैक्रियिकाहारकवैजसकार्मणानि शरीराणि ॥ ३६ ।। औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण ये पाँच शरीर होते हैं। औदारिक नामकर्मके उदयसे होनेवाले स्थूल शरीरको औदारिक कहते हैं। गर्भस उत्पन्न होनेवाले शरीर को औदारिक कहते हैं अथवा जिसका प्रयोजन उदार हो उसे श्रीदारिक कहते हैं। वैक्रियिक नाम कर्मके उदयसे अणिमा आदि अष्टगुणसहित और नाना प्रकार की किया करनेमें समर्थ जो शरीर होता है उसको क्रियिक शरीर कहते हैं । वक्रियिक शरीर धारी जीव मूल शरीरसे अनेक शरीरोंको बना लेता है। देवोंका मूल शरीर जिनेन्द्र देवके जन्म कल्याणक श्रादि उत्सवों में नहीं जाता है किन्तु उत्तर शरीर हो जाता है। सूक्ष्मपदार्थका ज्ञान और असंयमक परिहारके लिये छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिक मस्तकसे जा एक हाथका सफेद पुतला निकलता है उसको आहारक शरीर कहत हैं। विशेष-जब प्रमतसंयत मुनिको किसी सूक्ष्मपदार्थमें अथवा संयमके नियमों में सन्देह उत्पन्न होता है तो वह विचारता है कि तीर्थकरके दर्शन बिना यह सन्दह दूर नहीं होगा और तीर्थकर इस स्थानमें है नहीं। इस प्रकार के विचार करने परही तालु में रोमानके अष्टम भाग प्रमाण एक छिद्र हो जाता है और उस छिद्रसे एक हाथका विनाकार सफेद पुतला निकलता है। यह पुतला जहाँ पर भी तीथंकर परमदेव गृहस्थ, छद्मस्थ, दीक्षत अथवा केवली किसी भी अवस्था के हो, जाता है और तीर्थकरके शरीरको स्पर्श करके लौदकर पुनः उसी तालुछिद्रसे शरीरमें प्रविष्ट हो जाता है । तब उस मुनिका संदेश दूर होजाता है और वह सुखी एवं प्रसन्न होता है। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ २३७४२ तेजस नामकर्मके उदयसे होनेवाले तेज युक्त शरीरको तेजस शरीर कहते हैं । कार्मण नामकर्म के उदयसे होनेवाले ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के समूहको कार्मण शरीर कहते हैं । यद्यपि सभी शरीरोंका कारण कर्म होता है फिर भी प्रसिद्धिका कारण कर्म विशेषरूप से बतलाया है । ३७६ शरीरों में सूक्ष्मत्व---- परं परं सूक्ष्मम् ॥ २७ ॥ शरीर सूक्ष्म हैं । अर्थात् औद्वारिकले वैक्रिटिक सूक्ष्म है, पूर्वकी अपक्षा आगे आगे वैककिसे आहारक इत्यादि । शरीरोंके प्रदेश– प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक् तैजसात् ।। ३८ ।। तेजस शरीर से पहिले के शरीर प्रदेशकी अपेक्षा असंख्यातगुणे हैं अर्थात् औदारिकसे बेक्रियिक शरीर के प्रदेश असंख्यचतुपेश और जैकखिको सुन कसे महेशजी महाराज असंख्यातगुगे हैं । औदारिकादि शरीरों में उत्तरोत्तर प्रदेशकी अधिकता होनेपर भी उनके संगठनमें लोड पिण्डके समान घनत्व होनेसे सूक्ष्मता है और पूर्व पूर्वके शरीरों में प्रदेशोंकी न्यूनता होनेपर भी तूलपिण्डके समान शिथिल होनेसे स्थूलता है। यहाँ पल्यका असंख्यातवाँ भाग अथवा श्रेणीका असंख्यातवां भाग गुणाकार हैं । अनन्तगुणे परे ॥ ३९ ॥ अन्तके दो शरीर प्रदेशकी अपेक्षा अनन्तगुणे हैं। अर्थात् आहारकसे तेजसके प्रदेश अनन्तगुणे हैं और तैजससे कार्मण शरीरके अनन्तगुणे हैं। यहाँ गुणाकार का प्रमाण अयों का अनन्तगुणा और सिद्धों का अनन्त भाग है । अप्रतिघाते ॥ ४० ॥ तेजस और कार्मण शरीर प्रतिघात रहित हैं। अर्थात् ये न तो मूर्तीक पदार्थ से स्वयं रुकते हैं और न किसीको रोकते हैं । यद्यपि वैक्रियिक और आहारक शरीर भी प्रतिघात रहित हैं लेकिन सैंजस और कार्मण शरीरकी विशेषता यह है कि उनका लोकपर्यन्त कहीं भी प्रतिघात नहीं होता । वैक्रियिक और आहारक शरीर सर्वत्र अप्रतिघाती नहीं है। इनका क्षेत्र नियत है । अनादिसम्बन्धे च ॥ ४१ ॥ तेजस और कार्मण शरीर आत्माके साथ अनादिकाल से सम्बन्ध रखने वाले हैं। च शब्दसे इनका सादि सम्बन्ध भी सूचित होता है क्योंकि पूर्व तेजस कार्मण शरीरके नाश होनेपर उत्तर शरीर की उत्पत्ति होती है। लेकिन इनका आत्माके साथ कभी असम्बन्ध नहीं रहता । अतः सन्ततिकी अपेक्षा अनादिसम्बन्ध है और विशेषकी अपेक्षा सादि सम्बन्ध है । सर्वस्य ॥ ४२ ॥ उक्त दोनों शरीर सब संसारी जीवों के होते हैं। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय एक जीवके एक साथ कितने शरीर हो सकते हैं । तदादीन भाज्यानि युगपदेकस्याचतुर्भ्यः || ४३ || एक साथ एक जीवके कमसे कम दो और अधिक से अधिक चार शरीर हो सकते हैं। दो शरीर तेजस और कार्मण, नीन- तेजस, कार्मण और चदारिक अथवा तैजस, कार्मण और वैनयिक, चार- तैजस, कार्मण, औदारिक और आहारक । नहीं हो सकते, जिस संवतके आहारक शरीर होता है उसके और जिन देव नारकियोंके वैकियिक शरीर होता है उनके आहारक नहीं होता । कार्मण शरीरको विशेपत्ता - निरुपभोगमन्त्यम् ॥ ४४ ॥ एक साथ पाँच शरोर वैकियिक नहीं होता, २४४३-४८ ] अन्तका कार्मण शरीर उपभोग रहित है । इन्द्रियों के द्वारा शहादि विषयों के ग्रहण यही इच्छा नहाने से कार्मण शरीर उपभोग अ श्री सुविधिसागर रहित होता है। यद्यपि तेजस शरीर भी उपभोग रहित है लेकिन उनले योगनिमित्तकता न होने से स्वयं ही निरुपभोगत्व सिद्ध हो जाता है । दर्शक हूँ । औदारक शरीरका स्वरूपगर्भसम्मूर्च्छन जमाद्यम् || ४५ ॥ गर्म और संमूर्च्छन जन्मसे उत्पन्न होनेवाले सभी शरीर औदारिक होते हैं । ३७७ वैकियिक शरीरका स्वरूप औपपादिकं वैक्रियिकम् ॥ ४६ ॥ उपपाद जन्मसे उत्पन्न होने वाले शरीर वैक्रियिक होते हैं । लब्धिप्रत्ययञ्च ॥ ४७ ॥ वैकियिक शरीर लब्धिजन्य भी होता है। विशेष तपसे उत्पन्न हुई ऋद्धिका नाम लब्धि है। लब्धिजन्य क्रियिक शरीर छठवें गुणस्थानवर्ती मुनि होता है। उत्तर वैककि शरीरका अन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तीर्थंकरों के जन्म आदि कल्याणकोंके समय और नन्दीश्वर द्वीप आदिके चेत्यालयों की बन्दना के समय पुनः पुनः अन्त मुहूर्त के बाद नूतन नूनन चक्रियिक शरीरकी रचना कर लेने के कारण अधिक समय तक भी बेकिंथिकशरीरनिमित्तक कार्य होता रहता है। देवों को वैकिकि शरीरके घनाने में किसी प्रकार के दुःखका अनुभव न होकर सुखका ही अनुभव होता है । तेजसमपि ॥ ४८ ॥ तेजस शरीर भी लब्धिजन्य होता है । तेजस शरीर दो प्रकार है - निःसरणात्मक और अनिःसरणात्मक | निःसरणात्मक — किनी उम्रचारित्र्वाले यतिको किसी निमित्तसे अति कोधित हो जाने पर उनके बायें कन्धे से बारह योजन लम्बा और नो योजन चौड़ा जलती हुई अग्नि के समान और काहलके आकार वाला तेजस शरीर बाहर निकलता हूं। और दाह्य वस्तुके पास जाकर उसको भस्मसात् कर देता है । पुनः यत्तिके शरीर में प्रवेश करके यतिको भी भस्म कर देता है। यह निःसरणामक तेजस शरीरका लक्षण है । ४८. Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ २०४९-५३ अनिःसरणात्मक तेजस शरीर औदारिक, वक्रियिक और आहारक इन तीनों शरीरोंके भीतर रहकर इनकी दीप्तिमें कारण होता है। आहारक शरीरका लक्षणशभं विशद्धमव्याधाति चाहारक प्रमत्तसंयतस्यैव ।।१९।। आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध और व्याघात रहित है । इसका कारण शुभ होनेसे शुभ और कार्य विशुद्ध हमिस विशुद्ध भाच्याहार सरकारतकनीठमधातजनहीं होता और न अन्य किसी के द्वारा श्राहारक शरीरका व्याघात होता है अतः अठयाघाती है। यह शरीर प्रमचसंयतके ही होता है। एब शब्द अवधारणार्थक है। अर्थात् आहारक शरीर प्रमत्तसंयतके ही होता है। ऐसा नहीं कि प्रमत्तसंग्रतके आहारक ही होता है । क्योंकि ऐसा नियम मानने पर औदारिक आदि शरीरोंका निपेन हो जायगा। च शब्द उक्त अर्थ का समुच्चय करता है । अर्थात संयमके परिपालनके लिये, सूक्ष्म पदार्थक ज्ञानके लिये अथवा लब्धिविशेषके सद्भाव का ज्ञान करने के लिये छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिके मस्तकके तालुभागसे एक हाथ का पुतला निकलता है । भरत या ऐराषत क्षेत्रमें स्थित मुनिको फेवली के अभावमें सूक्ष्म पदार्थ में संशय होने पर वह पुतला विदह क्षेत्रमें जाकर और तीर्थकरके शरीरको स्पर्श कर लौट आता है। उसके आने पर मुनिका सन्देह दूर हो जाता है। यदि मुनि स्वयं विदेह क्षेत्रमें जाते तो असंयम का दोष लगता। वेदों के स्वामी नारकसंमृच्छिनो नपुंसकानि ॥५०॥ नारकी और संमूर्छन जीवों के नपुंसकलिङ्ग होता है। न देवाः ॥५१॥ देवोंके नपुंसकलिङ्ग नहीं होता केबल स्त्रीलिङ्ग और पुरुषलिङ्ग ही होता है । शेषास्त्रिवेदाः ॥५२॥ शेप जीवोंके तीनों ही लिङ्ग होते हैं। ____ अकाल मरण किनके नहीं होताऔषपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ॥५३॥ जापपादजन्मवाले देव और नारकियों का,चरमोत्तम शरीरयाले तद्भव मोक्षगामियों का तीर्थकर परमदेव तथा असंख्यात वर्ष की आयुषाले मनुष्य और तिर्यञ्चों का अकाल मरण नहीं होता। इससे सिद्ध होता है कि अन्य जीवों का अकाल मरण होता है। यदि अन्य जीवोंका अकाल मरण न हाता हो तो दया, धर्मोपदेश और चिकित्सा आदि बातें निरर्थक हो जायगी। विशेष चरमोत्तम-चरम का अर्थ ई अन्तिम और उत्तम का अर्थ है. उत्कृष्ट । चरम शरीरी गुरुदत्त पाण्डव आदि का मोक्ष उपसर्गके समय हुआ है तथा उत्तम देहधारी सुमोम ब्रह्मदत्त आदिकी और कृष्ण की जरत्कुमारके बाण से अपमृत्यु हुई है अतः चाम और उत्तम दोनों वियोपों को एक साथ लगाना चाहिये। जिससे चरम शरीरियों में उत्तम पुरुष तीर्थकर ही सिद्ध होते हैं। द्वितीय अध्याय समाप्त Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तृतीय अध्याय नरकोंका वर्णन रत्नझर्क वालुका मतमोमहातमः प्रभा भूमयो घनाम्बुवताकाशप्रतिष्ठाः साधोः ॥ १ ॥ रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभातमः प्रभा और महातमः प्रभा ये सात नरक क्रम मे नीचे-नीचे स्थित हैं। ये क्रमशः घनोदधिवात वलय, घनवातवलय और तनुवातवलयसे वेष्टित है। और तीनों वातवलय आकाशके आश्रित हैं। रत्नप्रभा सहित भूमि रत्नप्रभा है, इस में मन्द अन्धकार हूँ शर्कराप्रमा सहित भूमि शर्कशप्रभा है, इसमें बहुत कम तेज है । बालुकाप्रभा भूमि अन्धकारमय है। आगेकी भूमियों उत्तरोत्तर अन्धकारमय ही हैं । बालुका. प्रभा स्थान में बालिकाप्रभा भी पाठ देखा जाता है। महातमःप्रभा का तमस्तमःप्रभा यह दूसरा नाम है। ये बातवलय नरकोंड नीचे भी है। मनोदधिवातबलय गोमूत्र के रंगके समान है। धनवान मूंग के रंग का है। तमुत्रात अनेक रंगका है। तीनों वातवलय क्रमशः लोकके नीचे के भागने तथा सप्तमपृथिवीके अन्तिम भाग तक एक बाजू में बीस बीस हजार योजन मोटे हैं। सप्तमपृथिवीक अन्तनं क्रमशः सात, पाँच और धार योजन मोटे हैं। फिर क्रमशः घटते हुए मध्यलोक पांच, चार और तीन योजन मोटे रह जाते हैं। फिर क्रमशः बढ़कर ब्रह्मलोक के पास सात पांच और चार योजन मोटे हो जाते हैं । पुनः क्रमशः घटकर लांक के अन्तिम भाग में पांच चार और तीन योजन रह जाते हैं। लोक शिवरपर दो कोस, एक कोस तथा सवा चार सी धनुष कम एक कोश प्रमाण मोटे हैं । नरकों का विस्तार इस प्रकार है प्रथम पृथिवो एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है। इसके तीन भाग है- १ खरभाग २ पङ्कभाग और अबहुलभाग । खरभागका विस्तार सोलह हजार योजन, पङ्कभागका चौरासी हजार योजन और बहुलभागका अस्सी हजार योजन है । खरभागके ऊपर और नीचे एक एक हजार योजन छोड़कर शेष मागमे तथा पंकभाग भवनवासी और व्यन्तरदेव रहते हैं और अबदुलके भाग नारको रहते हैं । द्वितीय आदि पृथिवियों का विस्तार क्रमसे ३२, २८, २४, २०, १६ और - हजार योजन है । सानों नरकोंक प्रस्तारों की संख्या क्रम १३, २२,, ७, ५, ३, और ६ है । प्रथम नरक में १३ और सप्तम नरक में केवल एक प्रस्तार है । सातों नश्कों के रूदनाम इस प्रकार हैं ४ घम्मा २ वंशा ३ ला या मेघा ४ अखना ५ अरिष्टा ६ मघवी और ७ माघत्री । सातों नरको त्रिलोकी संख्या को बतलाते हैं- तासु त्रिंशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशद शत्रिपञ्चोनें कनर कशतसहस्राणि पञ्च चैव यथाक्रमम् ।। २॥ उन प्रथम आदि नरकों में क्रम से तीन लाख, पच्चीस लाख पन्द्रह लाख, दश लाख, तोन लाख, पाँच कम एक लाख और पांच बिल हैं। सम्पूर्ण बिलों की संख्या चौरासी लाख है । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० तत्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [३३-५ नारकियोंका वर्णन-- नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः ।। ३ ।। नारकी जीव सदा ही अशुभतर लश्या, परिणाम, दह, घेदना और विक्रियावाले दगदर्शकनके आपश्चिारावासातीमा पासोश्यायें होती है। प्रथम और द्वितीय नरकमें कापोत लेश्या होती है। तृतीय नरकक उपस्मिागर्म कापोत और अधोभागमें नील लेश्या है । चतुर्थ नरक में नील लश्या है । पञ्चम नरकम ऊपर नील और नीचे कृष्ण लेश्या है। छठवें और सातवें नरक कृष्ण और परम कृष्णा लेश्या है। उक्त वर्णन द्रव्यलेश्याओं का है जो प्रायुपर्यन्त रहती हैं। भावलेश्या अन्तमुहूर्त में बदलती रहती हैं, अतः उनका वर्णन नहीं किया गया। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द का परिणाम कहते हैं। शरीर को दह कहते हैं। अशुभ नामकर्मके उदयसे नारकियों के परिणाम और शरीर अशुभतर होते हैं। प्रथम नरकमें नारकियों के शरीर की ऊँचाई सात धनुष तीन हाथ और छह अगल है। आगेके नरकोंमें क्रमसे दुगुनी २ ऊँचाई होती गई है, जो सातवें नरकमें ५५० धनुप हो जाती है। शीत और उष्णतासे होनेवाले दुःखका नाम वेदना है। नारकियोंको शीत और उष्णताजन्य तीन दुःख होता है। प्रथम जर कसे चतुर्थ नरक तक उष्ण वेदना होती है । पञ्चम नरकके ऊपरके दो लाख बिलोंमें उष्ण वेदना है और नीचके एक लाख बिलोंमें शीत वेदना है। मतान्तरसे पांचवें नरकके ऊपरके दो लाख पच्चीस बिलों में उष्ण वेदना तथा २५ कम एक लाख बिलोंमें शीत वेदना है। छठे और सातवें नरक में उष्ण वेदना है। शरीरकी विकृतिको विक्रिया कहते है । अशुभ कमके उदयसे उनकी विक्रिया भी अशुभ ही होती है । शुभ करना चाहते हैं पर होतो अशुभ है। परस्परांदीरितदुःखाः ॥ ४ ॥ नारफी जीव परस्पर में एक दूसरे को दुःख उत्पन्न करते हैं। वहा सम्यग्दष्टि जीव अवधिज्ञानसे और मिथ्या दृष्टि विभगावधिज्ञानसे दुरसे ही दुःखका कारण समझ लेते हैं और दुःखी होते हैं । पासमें आनेपर एक दूसरेको देखते ही क्रोध बढ़ जाता है पुनः पूर्व भवके स्मरण और तीन वैरके कारण वे कुत्तोंकी तरह एक दूसरेको भोंकते हैं तथा अपने द्वारा बनाये हुये नाना प्रकार के शत्रों द्वारा एक दूसरेको मारनेमें प्रवृत्त हो जाते हैं। इस प्रकार नारकी जीव रातदिन कुत्तोंकी तरह लड़कर काटकर मारकर स्वयं ही दुःख पैदा करते रहते हैं। एक दूसरे को काटते हैं, छेदते हैं. सीसा गला कर पिलाते है, बैतरिणीमें ढकेलते हैं, कड़ाहीमें झोंक देते हैं आदि । संकष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ।। ५ ॥ चौथे नरकसे पहिले अर्थात् तृतीय नरक पर्यन्त अत्यन्त संक्लिष्ट परिणामोके धारक अम्बाम्बरोप आदि कुछ असुरकुमारों के द्वारा भी नार कियाँको दुःख पहुँचाया जाता है। असुरकुमार देव तृतीय नरक तक जाकर पूर्वभवका स्मरण कराके नारकियोंको परस्परमें लड़ाते हैं और लड़ाई को देखकर स्वयं प्रसन्न होते हैं। च शब्दसे ये असुरकुमार देव पूर्व सूत्र में कथित दुःख भी पहुँचाते हैं ऐसा समझना चाहिये। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय नरको आयुका वर्णन - सेकसि मदशदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सच्चानां परा स्थितिः ॥ ६ ॥ उन नरकों से नारकी जीवोंकी उत्कृष्ट आयु क्रमसे एक सागर, तीन सागर, सात सागर, दश सागर, सुबह सागर, बाईस सागर और तेतीस लागर है। प्रथम नरक के प्रथम पटल में जघन्य आयु १० हजार वर्ष है। प्रथम पदलमें जो आयु है वहीं द्वितीय पटल में जघन्य आयु है। यही क्रम सातों नरकोंमें है । पटलोंमें उत्कृष्ट स्थिति इस प्रकार है । नरक ↑ ३ ४ ६] ६ वर्ष १६६ ॥ ९ देव १ वर्ष 189 | | सागर सागर सागर सागर सागर सागर सागर यागर सागर सागर सागर २ 19 | ३ ४ ६ ५ पटल मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ९० ला ज 1 ५९ सागर सागर सागर | सागर सागर सागर सागर सागर सागर ३ | ४३४३५३ ६६ | ६६ । I सागर ११३ सागर | १८ सागर १० | २१ | १२| १३ | १ इ व सागर नागर सागर सागर सागर सागर सागर सागर सा० सागर I ३३ सागर ७८ ራ ९५ । ९३ । १० सागर सागर सागर सागर सागर सागर | १२३ १३ | १५६३ | १७ सागर सागर सागर सागर ३८१ | २० | २२ ! सागर सागर ي i इन नरकों में मद्यपायी, मांसभक्षी, यज्ञमें बलि देनेवाले, असत्यवादी, परद्रव्यका हरण करनेवाले, परस्त्री लम्पटी, ती लोभी, रात्रिमें भोजन करनेवाले, स्त्री, बालक, वृद्ध और ऋषिके साथ विश्वासघात करनेवाले, जिनधर्मनिन्दक, रौद्रध्यान करनेवाले तथा इसी प्रकारके अन्य पाप कर्म करनेवाले जीव पैदा होते हैं । उत्पत्ति के समय इन जीवोंके ऊपर की ओर पैर और मस्तक नीचेको भोर रहता है। नारकी जीवों को क्षुधा तृपा आदिकी तीव्र वेदना आयु पर्यन्त सहन करनी पड़ती है । क्षण भर के लिये भी सुख नहीं मिलता है । असंज्ञी जीव प्रथम नरक तक, सरीसृप ( रेंगने वाले ) द्वितीय नरक तक, पक्षी तृतीय नरक तक, सर्प चतुर्थनरक तक, सिंह पाँचवें नरक तक, स्त्री छठवें नरक तक और मत्स्य सातवें नरक तक जाते हैं । यदि कोई प्रथम नरकमें लगातार जावे तो आठ बार जा सकता है । अर्थात् कोई ata प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ, फिर यहाँ से निकल कर मनुष्य या विर्य हुआ, पुनः प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार वह जीव प्रथम नरक में ही जाता रहे तो आठ वार तक जा सकता है। इसी प्रकार द्वितीय नरक में सात बार, तृतीय नरक में छह चार, चौथे नरक में पाँच बार, पाँचवें नरक में चार बार, छठवें नरक में तीन बार और सातवें नरकमें दो बार तक लगातार उत्पन्न हो सकता है । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ तत्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [३।७-८ सातवें नरकये निकला हुआ जीब तिर्यञ्च ही होता है और पुनः नरकमें जाता है । छठवें नरकसे निकला हुआ जीव मनुष्य हो सकता है और सम्यग्दर्शनको भी प्राप्त कर सकता है लेकिन देशनती नहीं हो सकता। पञ्चम नरकसे निकला हुआ जीव देशव्रती हो सकता है लेकिन महाव्रती नहीं । चोथे नरकसे निकला हुआ जीव मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है । प्रथम, द्वितीय और तृतीय नरकासे निकला हुआ जाय तोर्थकर भी हो मार्गवसका है. आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज मध्यलोकका वर्णनजम्बूद्वीपलवणोदादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ।। ७ ।। मध्यलोक में उत्तम नामवाल जम्बूद्वीप आदि और लक्षणसमुद्र आद' असं यात द्वीप समुद्र हैं। १ जम्बूद्वीप, १ लवणसमुद्र, २ धातकी खण्डजीप, २ कालोद समुद्र.३ पुष्करबरद्वीप, ३ पुकरवर समुद्र, वारुणीवरद्वीप धारणीवर समुद्र, ५ क्षीरवर दीप क्षीरवर समुद्र, ६ घृतवर द्वीप, ६ धृतवर समुद्र, ७ इक्षुवर द्वीप ७ इक्षुबर समुद्र, ८ नन्दीश्वर द्वीप, ८ नन्दीश्वर ममुद्र, अरुणवर डीप, ९ अरुणवर समुद्र । इस प्रकार स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यन्त एक दूसरको धरे हुये असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं। अर्थात् पच्चीस कोटि उद्धारपल्यों के जितने रोम खण्ड हो उतनी ही द्वीप-समुद्रों की संख्या है। मेरुसे उत्तर दिशाम उत्तर कुरु नामकः उत्तम भोगभूमि है। उसके मध्य में नाना रत्नमय एक जम्यूयक्ष है। जम्यूवृक्षके चारों ओर चार परिवार वृक्ष है। प्रत्येक परिवार वृक्षक भी एक लाख व्यालीस हजार एक सौ पन्द्रह परिवार वृक्ष है। समस्त जम्बू वृक्षोंकी संख्या १४.१२० ई। मृल जम्बूवृक्ष ५०० योजन ऊँचा है। मध्यमें जम्बू वृक्षके होनेसे ही इस द्वीपका नाम जम्बूदीप पड़ा। उत्तर कुरुकी तरह देयकुरुके मध्य में शालमलि वृक्ष है। प्रत्येक वृक्षके ऊपर रत्नमय जिनालय हैं। इसी प्रकार धातकी द्वीप में धातकी वृक्ष और पुष्करवर द्वीपमें पुष्करवर वृक्ष है। द्वीप और समुद्रोंका विस्तार और रचनाद्विद्विविष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः ॥ ८ ॥ प्रत्येक डीप समुद्र दूने दूने विस्तारवाल, एक दुसरेको बरे हुचें तथा चूड़ी के आकारबाले (गोल) है। जम्बू द्वीपका विस्तार एक लाख योजन, लवण समुद्रका दो लाख योजन, धातकी द्वीपका चार लाख योजन, कालोद समुद्रका आठ लाख योजन, पुष्करवर द्वीपका सोलह लास्त्र योजन, पुष्करवर समुद्रका बत्तीस लाख योजन विस्तार है. । इसी क्रम स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यन्त द्वीप और समुद्रोंका विस्तार दूना है । जिस प्रकार घातको द्वीपका विस्तार उ.म्यूड़ीय और लवण समुद्र के विस्तारसे एक योजन अधिक है उसी प्रकार असंख्यात समुद्रोंके विस्तारसे स्वयंभूरमण समुद्रका विस्तार एक लाख योजन अधिक है । पहिले पहिल के द्रोप समुद्र आगे आगे के द्वीप समुद्रोंको घर हुये हैं । अर्थात् जम्बूद्वीपको लवण समुद्र, लषण समुद्रका धातकी द्वीप, धातकी द्वीपको कालोद समुद्र परे हुये है । यही क्रम आगे भी है । ये डीप समुद्र चूड़ोंक समान गोलाकार है । त्रिकोण, चतुष्कोण या अन्य प्राकार बाल नहीं है। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८३ ३।९-१० ] तृतीय अध्याय जम्बूद्वीपको रचना और विस्तारतन्मध्ये मेरुनाभिधृतो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः ॥९॥ उन असंख्यात द्वीप समुद्रोंके बीच में एक लाख योजन विस्तारवाला जम्बूद्वीप है। जम्बूद्वीपके मध्य में मेरु है, अतः मेरुको जम्बूद्वीपकी नाभि कहा गया है । जम्बू द्वीपका आकार गोल है। ___मेरु पर्वत एक लाख योजन ऊँचा है । वह एक हजार योजन भूमिसे नीचे और ५९ हजार योजन भूमिसे ऊपर है। भूमिपर भद्रशाल वन है। भद्रशाल वनसे पांच सौ योजन ऊपर नन्दनवन है। नन्दनवनसे वेसठ हजार योजन ऊपर सौमनसवन है । सौमनसवन से साढ़े पैतिस हजार योजन ऊपर पाण्डकवन है। मेरु पर्वतकी शिखर चालीस योजन ऊँची है। इस शिखिरकी ऊँचाईका परिमाण पाण्डुकवनके परिमाणके अन्तर्गत ही है। जम्बद्रीपका एक लाख योजन विस्तार कोटक विस्तार सहित है । जम्बू द्वीपका कोट आठ योजन ऊँचा है, मूलमें बारह योजन, मध्यमें आठ योजन और ऊपर भी पाठ योजन विस्तार हैं । उस कोटके दोनों पाश्चों में दो कोश ऊँची रत्नमयी दो वेदी हैं। प्रत्येक वेदीका विस्तार एक योजन एक कोश और एक हजार सात सौ पचास धनुष है। दोनों वेदियों के पोचमें महोक्ष देवोंके अनादिधन प्रासाद हैं जो वृश्न वापी, सरोवर, जिनमन्दिर आदिसे विभूषित हैं । उस कोटके पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर चारों दिशाओं में क्रमसे विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामके चार द्वार है। द्वारोंकी ऊँचाई आठ योजन और माविरक्तिधार जमाई द्वालिभिगोगनीप्रसिदार्यसंयुक्त जिनप्रतिमा हैं। जम्बू द्वीपकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोश एक सौ अट्ठाईस धनुप और सादे तेरह अंगुलसे कुछ अधिक है। क्षेत्रोंका वर्णन भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ॥ १० ॥ जम्बू द्वीपमें भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये अनादि निधन नामत्राले सात क्षेत्र हैं। हिमवान् पर्वत और पूर्व-दक्षिण-पश्चिम समुद्र के बीच में धनुषक आकारका भरत क्षेत्र है । इसके गङ्गा-सिन्धु नदी और विजयार्द्ध पर्वतके द्वारा यह खण्ड हो गये हैं। भरतक्षेत्रके बीच में पचीस योजन ऊँचा रजतमय विजया_ पर्वत है जिसका विस्तार पचास हजार योजन है। विजयार्द्ध पर्वत पर और पाँच म्लेच्छखण्डों में चौथे कालके आदि और अन्तके समान काल रहता है। इसलिये वहाँपर शरीरकी ऊँचाई उत्कृष्ट पाँच सा धनष और जघन्य सात हाथ है। उत्कृष्ट आय पर्वकोटि और जघन्य एक सौ बीस वर्ष है। विजया पर्वतसे दक्षिण दिशाके बीच में अयोध्या नगरी है। विजयाद्ध पर्वत उत्तरदिशामें और जुद्राहिमवान् पर्वतसे दक्षिण दिशा में गङ्गा-सिन्धु नदियों तथा म्लेच्छखण्डोंक मध्य में एक योजन ऊँचा और पचास योजन लम्बा, जिनालय सहित सुवर्णरनमय वृषभमामका पर्वत है । इस पर्वत पर चक्रवर्ती अपनी प्रशस्ति लिखते हैं। हिमवान् महाहिमवान् पर्वत और पूर्व-पश्चिम समुद्रके मध्यमें हैमवत क्षेत्र है। इसमें जघन्य भोगभूमि की रचना है। हैमवत क्षेत्रके मध्य में गोलाकार, एक हजार योजन ऊँचा, एक योजन लम्बा शब्दवान् पर्वत है। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार [ ३०१० जघन्थ भोगभूमिमें शरीर की ऊँचाई एक कोश, एकपल्यको आयु और प्रिय के समान श्यामवर्ण शरीर होता है । वहाँ के प्राणी एक दिनके बाद आँवला प्रमाण भोजन करते हैं। आयुके नवमास शेष रहने पर गर्भ से स्त्री पुरुष युगल पैदा होते हैं। नवीन युगल उत्पन्न होते ही पूर्व युगल का छींक और जँभाईसे मरण हो जाता है। उनका शरीर बिजली के समान विघटित हो जाता है। नूतन युगल अपने अँगूठे को घूँसते हुये सात दिन तक सीधे सोता रहता है। पुनः सात दिन तक पृथिवीपर सरकता है। इसके बाद सात दिनतक मधुर वाणी बोलते हुये प्रथिवीपर लड़खड़ाते हुये चलता है। चौथे सप्ताह में अच्छी तरह चलने लगता है। पाँचवें सप्ताह में कला और गुणों को धारण करने के योग्य हो जाता है। छठवें म त होकर भोगोंको भोगने लगता है। और सातवें सप्ताह में सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके योग्य हो जाता है । सब युगल दश कोश ऊँचे दश प्रकार के कल्पवृक्षों से उत्पन्न भोगों को भोगते हैं । भांगभूमिके जीव आर्य कहलाते हैं क्योंकि वहाँ पुरुष स्त्रीको आर्या और स्त्री पुरुष को श्रार्य कहकर बुलाती है। ३८४ २. मद्यांग जातिके कल्पवृक्ष मद्यको देते हैं । मचका तात्पर्य शराब या मदिरा से नहीं है किन्तु दूध, दधि घृन, आदिसे बनी हुई सुगन्धित द्रव्यको कामशक्तिजनक होनेसे मद्य कहा गया है. २ वादिना जातिके कल्पवृक्ष मृदंग, मेरी, वीणा आदि नाना प्रकार के बाजों को देते हैं । ३ भूषणाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष हार, मुकुटु कुण्डल आदि नाना प्रकारके आभूषणों को देते हैं । ४ माल्याङ्ग नामके कल्पवृक्ष अशोक, चम्पा, पारिजात आदिके सुगन्धित पुष्प, माला आदि को देते हैं । १५ ज्योतिर जातिके कल्पवृक्ष सूर्यादिकके तेज को भी तिरस्कृत कर देते हैं । ६ दीपराङ्ग जातिके कल्पवृक्ष नाना प्रकार के दीपकों को देते हैं जिनके द्वारा लोग अन्दर अन्धकार युक्त स्थानों में प्रकाश करते हैं । ६ गृहात जाति कल्पवृक्ष प्राकार और गोपुर युक्त रत्नमय प्रासादका निर्माण करते हैं । ८ भोजनाङ्ग कल्पवृक्ष छह रस युक्त और अमृतमय दिव्य आहार को देते हैं. । ९. भाजनान जातिके कल्पवृक्ष मणि और सुवर्ण थाली, घड़ा आदि बर्तनों को देते हैं । १० चत्राङ्ग जातिके कल्पवृक्ष नाना प्रकारक सुन्दर और सूक्ष्मवस्त्रों को देते हैं । वहीं पर अमृत के समान स्वादयुक्त अत्यन्त कोमल चार अङ्गुल प्रमाण घास होती है जिसकी गायें चरती है | वहां की भूमि पञ्चरत्नमय है। कहीं कहीं पर मणि और सुवर्णमय कीड़ा पर्वत हैं। वापी, सरोवर और नदियों में रत्नों की सीढ़ियों लगी हैं। वहाँ पंचेन्द्रिय तिर्यख मांस नहीं खाते और न परस्पर में विरोध ही करते हैं। वहीं विकलत्रय नहीं होते हैं। कोमल हृदयवाले, मन्दकषायी, और शीलादिसंयुक्त मनुष्य ऋषियों को आहारदान देनेसे और तिर्यग्व उस आहारकी अनुमोदना करने से भोग भूमि में उत्पन्न होते हैं । सम्बष्ट जीव वहाँ से सरकर सौधर्म- पेशान स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं । महाहिमवान् और निषेध पर्वत तथा पूर्व और पश्चिम समुद्र के बीच में हरि क्षेत्र है । इसके मध्य में वेदाला नामका पटाकार पर्वत है। हरि क्षेत्र में मध्यम भाग भूमिकी रचना है। मध्यम भोगभूमिमं शरीरकी ऊँचाई दो कोश, आयु हो पल्य और वर्ण चन्द्रमा Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] तृतीय अध्याय ३८५ समान होता है। वहाँ के प्राणी दो दिन के बाद विभीतक ( बहेरे) फलके बराबर भोजन करते हैं। कल्पवृक्ष बीस योजन ऊँचे होते हैं । अन्य वर्णन जघन्य भोग भूमिके समान ही है । निवs नील पर्वत तथा पूर्व और पश्चिम समुद्र के बीच में विदेश क्षेत्र है । विदेह क्षेत्रके चार भाग हैं---१ मेरु पर्वत से पूर्व में पूर्व विदेह, २ पश्चिम में अपरविदेह, ३ दक्षिण में देवकुरु ४ और उत्तर में उत्तरकुरु । विदेह क्षेत्रमें कभी जिनधर्मका विनाश नहीं होता है, धर्मकी प्रवृत्ति सदा रहती है और वहाँ से मरकर मनुष्य प्रायः मुक्त हो जाते हैं, अतः इस क्षेत्र का नाम विदेह पड़ा। विदेह क्षेत्र में तीर्थंकर सदा रहते है । यहाँ भरत और ऐरावत क्षेत्र के समान चौबीस तीर्थंकर होनेका नियम नहीं है। देवकुरु, उत्तरकुरु, पूर्व विदेह और अपर विदेहके कोनेमें गजदन्त नामके चार पर्वत हैं। इनकी लम्बाई तीस हजार दो सौ नव योजन, चौड़ाई पाँच सौ योजन और ऊँचाई चार सौ योजन है। ये गजदन्त मेरुसे निकले हैं। इनमें से दो गजदन्त निषधपर्वत की ओर और दो गजदन्त नील पर्वतकी ओर गये हैं। दक्षिणदिग्वर्ती गजदन्तों के बीच में देवकुरु नामक उत्तम भोगभूमि है । देवकुरुके मध्य में एक शाल्मलि वृक्ष है । उत्तरदिग्वर्ती गजदन्तों के बीच उत्तरकुरु आर्य श्री सुविधिसागर जी महाराज उत्तर भोगभूमिमें शरीर की ऊँचाई तीन कोस, आयु तीन पल्य और वर्मा उदीयमान सूर्यके समान हैं। वहां के मनुष्य तीन दिनके बाद बेर के बराबर भोजन करते हैं। कल्पवृक्षों की ऊँचाई तीस गव्यूती हैं। मेरुके चारों और भद्रशाल नामका वन है । उस वनसे पूर्व और पश्चिम में निषध और नीलपर्वतसे लगी हुई दो वेदी हैं । पूर्वचिदेह में सीता नदी के होनेसे इसके दो भाग हो गये हैं, उत्तर भाग और दक्षिण भाग । उत्तर भाग में आठ क्षेत्र हैं बेदी और वक्षार पर्वत बीचमें एक क्षेत्र है। वक्षार पर्वत और दो विभङ्ग नदियोंके बीचमें दूसरा क्षेत्र है । विभंग नहीं और बझार पर्वतके मध्य में तीसरा क्षेत्र है। वक्षार पर्वत और दो विभंग नदियोंके बीच में चौथा क्षेत्र है । विभंग नदी और यक्षार पर्यंत पांचवा क्षेत्र है । वक्षार पर्वत और दो विभंग नदियोंके अन्तराल में छठवाँ क्षेत्र है । विभंग नदी और यक्षार पर्वत के बीच में सातवाँ क्षेत्र है। वनार पर्वत और वनवेदिका के मध्य आठवाँ क्षेत्र है ! इस प्रकार चार बार पदतों तीन त्रिभंग नदियों और दो वेदियांके नौ खण्डों से विभक्त होकर आठ क्षेत्र हो जात है । इन आठ क्षेत्रोंक नाम इस प्रकार है -१ कच्छा, २ सुकच्छा, ३ महाकच्छा, ४ कच्छकावती ५ श्रावर्ता ६ लाङ्गलावर्ता ७ पुष्कला और ८ पुष्कलाबती । इन क्षेत्रोंक बीचमें आठ मूल पत्तन हैं-१ क्षेमा, २ क्षेमपुरी, ३ अरिष्टा, ४ अरिष्टपुरी ५ खङ्गा, ६ मा ७ ओषधी और पुण्डरीकिणी । प्रत्येक क्षेत्रक बीचमें गंगा और सिन्धु नामक दो दो नदियाँ हैं जो नील पर्वत से निकली हैं और सीता नदीमें मिल गई है। प्रत्येक क्षेत्र में एक एक विजयाद्ध पर्वत है। प्रत्येक क्षेत्र में विजयार्थ पर्वतसे उत्तरकी ओर और नील पर्वत से दक्षिणक ओर ग्रुपभगरि नामक पर्वत है । इस पर्वत पर चक्रवर्ती अपनी प्रसिद्धि लिखते हैं। आठों ही क्षेत्रों में छह छह खण्ड हैं-गाँच पाँच म्लेच्छ और एक एक आर्य खण्ड | आठों ही आर्यखण्डों में एक एक उपसमुद्र हैं। प्रत्येक क्षेत्र में सीतानदी के अन्तमें व्यन्तरदेव रहते हैं जो चक्रवर्तियों द्वारा वशमें किये जाते हैं। सीता नदी दक्षिण दिशा में भी आठ क्षेत्र हैं, पूर्व दिशा में बनवेदी है, बनबेदी के बाद क्षारपर्वत, विभङ्गानदी, वक्षारपर्वत, विभङ्गानदी, वक्षारपर्वत, विभङ्गानदी, वक्षारपर्वत और बनवेदी ये क्रमसे नौ स्थान हैं। इनके द्वारा विभत हो जानेसे आठ क्षेत्र हो जाते ४५ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३।११ ३८६ तत्त्वार्थ वृत्ति हिन्दी-सार हैं.-१ वत्सा, २ सुवत्सा, ३ महावस्सा, ४ वत्सकावती, ५ रम्या, ६ रम्यका, ७ रमणीया, ८ मङ्गलावती। इन आठ क्षेत्रोंके मध्यमें आठ मूलपत्तन है-१ सुसीमा, २ कुण्डला, ३ अपराजिता, ४ प्रभकरी, ५ अङ्कवती, ६ पद्मावनी, ७ शुभा, ८ रत्नसंचया । आठौं क्षेत्रों से प्रत्येकमें दो दो गङ्गा-सिन्धु नदियाँ बहती हैं जो निपध पर्वतसे निकली हैं और सीता नदीमें मिल गई है। आठौं क्षेत्रोंके मध्यमें आठ विजयार्द्ध पर्वन भी हैं। उक्त आठ नगरियोसे उत्तरमें सीतानदीके दक्षिण पाश्यों में पाठ उपसमुद्र हैं। निपधपर्वतसे उत्तरमें और विजयार्द्ध पर्वतोंमे दक्षिण में आठ वृषभगिरि हैं जिनपर चक्रवर्ती अपने अपने दिग्विजयके वर्णनको लिखते हैं । आठों क्षेत्र दो खण्डों ( ५ म्लेच्छ और '१ आर्य } से शोभायमान हैं। सीता नदोमै मागधवरतनुप्रभास नामक व्यन्तरदव रहते हैं। सीतोदा नदी अपविदेहके बीचसे निकलकर पश्चिम समुद्र में मिली है। उसके द्वारा दो विदेह हो गये हैं-दक्षिणविदेह और उत्तर विदह । उत्तर विदेहका वर्णन पूर्व विदेहके समान ही है। सीतोदा नदीके दक्षिण तटपर जो क्षेत्र हैं उनके नाम- पद्मा, २ सुपद्मा, ३ महापद्या, ४ पद्मकावती, ५ शङ्खा, ६ नलिना, ७ कुमुदा, ८. सरिता । इन क्षेत्रों के मध्यूकी आ.मल नगरियाक नाम-५ अश्वपुरी,२ सिंहपुरी, ३ महापुरी, मार्गदविजयापुराव अरजाशिवरजी शाका, ८ बीतशोका । सीतोदा नदीके उत्तर तट पर जा आठ क्षेत्र हैं उनके नाम- यमा, २ सुवा, ३ महावना, ६ वप्रकावती, गन्धा, ६ सुगन्धा, ७ गन्धिला, ८ गन्धमादिनी। इन क्षेत्रोंसम्बन्धी आठ मुलनारयोंके नाम-१ विजया, वैजयन्ती, ३ जयन्ती, ४ अपराजिता, ५ चक्रा, ६ खङ्गा, ७ अयोध्या, ८ अनध्या । क्षेत्र और पश्चिम समुद्र की वेदीक मध्यमें भूनारण्य वन है। नील और रुक्मि पर्वत तथा पूर्व और पश्रिम समुद्रक बीचमें रम्यक क्षेत्र है । रम्यक क्षेत्रमें मध्यम भांगभूमिकी रचना है। इसका वर्णन हरि क्षेत्रके समान है। रम्यक क्षेत्रके मध्यमें गन्धवान् पर्वत है। ___रुकिम और शिखरिपर्वत तथा पूर्व और पश्चिम समुद्र के बीच में हरण्यवत क्षेत्र है। इस क्षेत्रमें जघन्य भोगभूमिकी रचना है । इसका वर्णन हैमवत क्षेत्रके समान है। हरण्यवत क्षेत्रके मध्य में माल्यवान् पर्वत है। शिखरिपर्वत और पूर्व, अपर, उत्तर समुद्र के श्रीचमें एरावत क्षेत्र है । ऐरावत क्षेत्रका वर्णन भरत क्षेत्रके समान है। पाँचों मेरु सम्बन्धी ५ भरत, ५ऐरावत और विदेह इस प्रकार १५ कर्मभूमियाँ हैं। ___५ हेमवत, ५ हरि, ५ रम्यक, ५ हैरण्यवत, ५ देवकुरु और ५ उत्तरकुरु इस प्रकार ३० भोगभूमियाँ हैं। विकलत्रयजीव कर्मभूमि में ही होते हैं। हेकिन समवसरणमें नहीं होते हैं। कम भूमिसे अतिरिक्त मनुष्यलोकमें, पाताललोकमें ओर स्वों में भी चिकलत्रय नहीं होते हैं। क्षेत्रोंका विभाग करनेवाले पर्वतोंक नामतद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवननिषधनीलरुक्मिशिखरिणो ___ वर्षधरपर्वताः ।। ११ ॥ भरत आदि सात क्षेत्रांका यिभान करनेवाल, पूर्वस पश्चिम तक लम्बे हिमवान् , महाहिमवान् , निषध, नील, क्मि आर शिखरी ये अनादिनिधननामवाले छह पर्वत हैं। भरत और एरावत क्षेत्रकी सोमापर सो योजन ऊँचा और पच्चीस योजन भूमिगत Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३।१२-१७] मृतीय अध्याय हिमवान् पर्वत है । हैमवत और हरिक्षेत्रको सीमापर दो सौ योजन ऊँचा और पचास योजन भूमिगत महाहिमघान् पर्वत है। हरि और थिदेह क्षेत्रकी सीमापर चार सौ योजन ऊँचा और सी योजन भूमिगत निषध पर्वत है। विदेह और रम्यक क्षेत्रकी सीमापर 'चार सौ योजन ऊँचा और एक सौ योजन भूमिगत नील पर्वत है । रम्यक और हैरण्यवत क्षेत्रकी सीमापर दो सौ योजन ऊँचा और पचास योजन भूमिगत रुक्मि पर्वत है। हरण्यवत और ऐरावत क्षेत्रकी सीमापर सौ योजन ऊँचा और पच्चीस योजन भूमिगत शिखरी पर्वत है। पर्वतों के रंगका वर्णनहेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममयाः ॥ १२ ॥ उन पर्वतोंका रंग सोना, चाँदी, सोना, बैडूर्यमणि, चाँदी और सोनेके समान है। हिमवान् पर्वतका वर्ण सोने के समान अथवा चीनके वस्त्रके समान पीला है । महाहिमवानका रङ्ग चाँदीके समान सफेद है । निषध पर्वतका रंग तपे हुये सोने के समान लाल हैं। नील पर्वतका वर्ण रेडूर्यमणिके समान नील है । रुक्मी पर्वतका वर्ण चाँदीके समान सफेद है । शिखरी पर्वतका रंग सोने के समान पीला है। पर्वतोंका आकारमणिविचित्रपाो उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः ।। १३ ॥ धन पर्वतोंके तट नाना प्रकारफे मणियोंसे शोभायमान हैं जो देव, विशधर और चारण ऋषियों के चित्तको भी चमत्कृत कर देते हैं । पर्वतोंका विस्तार ऊपर, नीचे और मध्यमें समान है। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज पर्वतोपर स्थित सरोघरोंके नाम-- पामहापमतिगिछकेशरिमहापुण्डरीकपुण्डरीका हदास्तेषामुपरि ।। १४ ॥ हिमवान् आदि पर्वतोंके ऊपर क्रमसे पश, महापद्म, तिगिन्छ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ये छह सरोवर हैं। __प्रथम सरोवरकी लम्बाई चौड़ाईप्रथमो योजनसहलायामस्तदर्द्धविष्कम्भो हृदः ॥ १५ ॥ हिमयान् पर्वतके ऊपर स्थित प्रथम सरोवर एक हजार यो जन लम्बा और पांच सौ योजन चौड़ा है । इसका तल भाग यन्त्रमय और तद नाना रत्नमय है। प्रथम सरोवरकी महराई दशयोजनावगाहः ।। १६ ।। पद्य सरोबर दश योजन गहरा है। तन्मध्ये योजनं पुष्करम् ॥ १७ ॥ पन सरोवर के मध्य में एक योजन विस्तारवाला कमल है। एक कोस लम्चे उसके पत्तं हैं और दो कोस विस्तारयुक्त कणिका है । कर्णिकाके मध्यमें एक कोस प्रमाण विस्तृत श्री देवीका प्रासाद है । यह कमल जलसे दो कोस ऊपर है । पत्र और कर्णिकाके विस्तार सहित कमलका विस्तार एक योजन होता है। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार अन्य सरोवरों के विस्तार आदिका वर्णन ... तद्विगुणद्विगुणा ह्रदाः पुष्कराणि च ॥ १८ ॥ श्रागे के सरोवरों और कमरोंका विस्तार प्रथम सरोघर और उसके कमलके विस्तारसे दूना दूना है । अर्थात् महापद्म दो हजार योजन लम्बा, एक हजार योजन चौड़ा और बीस योजन गहरा है। इसके कालका विस्तार दो योजन है। इसी प्रकार महापद्मके विस्तारस दूना विस्तार तिगिन्छ हदका है । केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक हदोका विस्तार माजनिगियामहर्षि विविएट विस्तारमान है। इनके कमलोंका विस्तार भी तिगिल्छ आदिके कमलोंके विस्तार के समान है। कमलों में रहनेवाली देवियों के नाम-- तभिवासिन्यो देव्यः श्रीहीतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्यः पल्योपमस्थितयः ससामानिकपरिषत्काः ॥ १९॥ उन पद्म आदि सरोवरोंक कमलों पर क्रमसे श्री, हो, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये छह देवियाँ सामानिक और परिपद जातिके देवों के साथ निवास करती हैं। वियों को आयु एक पल्प है। छहों कमलोंकी कर्णिका के मध्यमें एक कोस लम्चे, अर्द्धकोस चौड़े और कुछ कम एक कोस ऊँचे इन देवियों के प्रासाद हैं जो अपनी कान्तिसे शरदऋतुके निर्मल चन्द्रमा को प्रभाको भी तिरस्कृत करते हैं । कमलोंके परिवार कमलों पर सामानिक और परिषद देव रहते हैं। श्री, ही और धृति देवियों अपने अपने परिवार सहित सौधर्म इन्द्रकी सेवा में तत्पर रहती हैं और कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी देवियाँ ऐशान इन्द्रकी सेवामें तत्पर रहती हैं। नदियोंका वर्णनगङ्गासिन्धुरोहिद्रोहितास्याद्दरिद्वारिकान्तासीतासीतोदामारीनरकान्तासुवर्णरूप्यकूलारक्तार क्तादाः सरितस्तन्मध्यगाः ॥ २० ॥ - गङ्गा, सिन्धु, रोहित, रोहितास्था, हरिन्, हरिकान्ता, सीता, सीतोदा, नारी, नरकान्ता, सुवर्णकूला, रूप्यकूला, रक्ता और रक्तोदा ये चौदह नदियाँ भरत आदि सात क्षेत्रोंमें बहती हैं। नदियों के बहनेका क्रम द्वयोर्द्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः ॥ २१ ॥ दो दो नदियों में से पहिली पहिली नदी पूर्व समुद्र में जाती है । अर्थात् गङ्गा-सिन्धुमें गहा नदी पूर्व समुद्रको जाती है, रोहित-रोहितस्यामें रोहित नदी पूर्व समुद्रको जाती है। यही क्रम आगे भी है। हिमवान् पर्वतके ऊपर जो पद्म हद है उसके पूर्व तोरणद्वारसे गङ्गा नदी निकली है जो विजयार्द्ध पर्वतको भेदकर म्लेच्छ खण्डमें यहती हुई पूर्व समुद्र में मिल जाती है । पद्धहृदके पश्चिम तोरणद्वारसे सिन्धु नदी निकली है जो विजयाई पर्वत को भेदकर म्लेच्छ खण्डमें बहती हुई पश्चिम समुद्र में मिल जाती है। ये दोनों नदियाँ भरत क्षेत्रमें बहती है। हिमवान् पर्वतके ऊपर स्थित पद्महदके उत्तर तोरणद्वारसे रोहितास्या नही निकली है जो जघन्य भोगभूमिमें बहती हुई पश्चिम समुद्र में मिल जाती है। महापग्रहदके दक्षिण तोरण Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३।२२] तृतीय अध्याय द्वारसे रोहित नदी निकली है जो जघन्य भोगभूमिमें बहती हुई पूर्व समुद्र में मिल जाती है । रोहित और रोहितास्या नदी हैमवत क्षेत्र में बहती हैं। महापद्महदके उत्तरतोरण - द्वारसे हरिकान्ता नदी निकली है जो मध्यम भोगभूमि में बहती हुई पश्चिम समुद्र में मिल जाती है। निषध पर्वतके ऊपर स्थित निगिन्छ हृदके दक्षिण तोरणद्वारसे हरित नदी निकली है जो मध्यम भोगभूमिमें बहती हुई पूर्व समुद्रमें मिलती है। हरित और हरिकान्ता नदियाँ हरिक्षेत्र में बहती हैं। तिगि हदके उत्तर तोरणद्वारसे सीतोदा नदी निकली है जो अपर विदेह और उत्तम भोगभूमिमें बहती हुई पश्चिम समुद्र में मिल जाती हैं। नील पर्वतपर स्थित केसरी हदके दक्षिण तोरणद्वारसे सीता नदी निकली हैं जो उत्तम भोगभूमि और पूर्व विदेह में बहती हुई पूर्व समुद्री मिल जाती हैं। सीना और सीतोदा नदियाँ विदेह क्षेत्रमें वाहती है। केसरी हदके उत्तर तोरणद्वारसे नरकान्ता नदी निकली है जो मध्यम भोगभूमिम बहती हुई पश्चिम समुदमें मिल जाती है। रुक्मि पर्यतपर स्थित महापुण्डरीक हदके दक्षिण तोरणद्वारसे नारी नदी निकली है जो मध्यम भोगभूमि में बहती हुई पूर्व समुद्रम मिल जाती है । नारी और नरकान्ता नही रम्यक क्षेत्रमें बहती है। महापुण्डरीक हदके उत्तर तोरणवारसे रुप्यकूला नदी निकली है जो जघन्य भोगभूमिमें बहती हुई पश्चिम समुद्र में मिलयागीदे। शिधापासीधामकाजी महाराज हद के दक्षिण तोरणद्वारसे सुवर्णकला नदी निकली है जो जघन्य भोगभूमिमें बहती हुई पूर्व समुद्र में मिलती है । सुवर्णकूला और रूप्यकूला नदी हैरण्यवत क्षेत्रमें बहती हैं। पुण्डरीक हदके पश्चिम तोरणद्वारसे रक्तोदा नदी निकली है जो विजयार्द्ध पर्वतको भेदकर म्लेच्छ खण्ड में बहती हुई पश्चिम समुद्र में मिल जाती है। पुण्डरीक हृदके पूर्व तोरणद्वारसे रक्ता नदी निकली है जो विजया पर्वतको भेदकर म्लेपछ खण्डमें बहती हुई पूर्व समुद्र में मिलती है । रक्ता और रक्तोदा नदी ऐरावत क्षेत्रमें बहती है।। दयकुरुके मध्यमें सीतोदा नदी सम्बन्धी पाँच ह्रद हैं। प्रत्येक हृदके पूर्व और पश्चिम तटोपर पाँच पाँच सिद्धकृट नामक क्षद्र पर्वत हैं। इस प्रकार पाँचों हदोंक तयॊपर पचास शुद्र पर्वत है। ये पर्वत पचास योजन लम्बो, पच्चीस योजन चौड़े और सेंतीस योजन ऊँचे हैं। प्रत्येक पर्चतके ऊपर अष्टप्रातिहार्यसंयुक्त, रत्न, सुबा और चाँदीसे निर्मित. पल्यासनारूढ़ और पूर्वाभिमुख एक एक जिनप्रतिमा है। अपर विदेहमें भी सीतोदा नदी सम्बन्धी पाँच हद है। इन हदोंके दक्षिण और बस्तर तटोपर पाँच पांच सिद्धट नामके क्षुद्र पर्वत हैं । अन्य वर्णन पूर्ववत् है । इसी प्रकार उत्तर कुरुमें सीता नदी सम्बन्धी पाँच हद हैं । इन हृदोंके पूर्व और पश्चिम तटॉपर पूर्ववत् पचास सिद्धकूट पर्वत हैं। पूर्व विदेहमें भी सीता नदी सम्बन्धी पाँच हद है । इन हदोंके दक्षिण और उत्तर तटोपर पचास सिद्धक्रूट पर्वत है। इस प्रकार जम्यूबीपके मेरु सम्बन्धी सिद्धकूट दो सौ हैं और पांचों मेरु सम्बन्धी सिद्धकूटों की संख्या एक हजार है। शेषास्त्वपरगाः ॥ २२॥ पूर्व सूत्र में कही गई नदियोंसे शेष बची हुई नदियाँ पश्चिम समुद्रको Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ ३१२३-२५ जाती है। अर्थात गङ्गा और सिन्धुम से सिन्धु पश्चिम समुद्रको जाती है । यही क्रम आगे भी है। नदियों का परिवारचतुर्दशनदीसहस्परिपृता गङ्गासिन्ध्यादयो नद्यः ॥ २३ ॥ गङ्गा सिन्धु आदि नदियाँ चौदह हजार परिवार नदियोंसे सहित है। यद्यपि बीसवे सूत्र गत 'सरितस्तन्मध्यगा: इस वाक्यमें आये हुये सरित् शब्दसे इस सत्र में भी नदीका सम्बन्ध हो जाता क्योंकि यह नदियोंका प्रकरण है फिर भी इस सूत्रमें 'नयः' शब्दका ग्रहाय यह सूचित करता है कि आगे आगेकी युगल नदियों के परिवारनदियोंकी संरया पूर्व पूर्वकी संख्यासे दूनी दूनी है। यदि 'चतुर्दशनदीसहपरिवृता नमः' इतना ही सूत्र बनाते तो 'अनन्तरस्य विधिर्वा प्रतिषेधो घा' इस नियमके अनुसार 'शेपास्त्वपरगाः' इस सूत्र में कथित पश्चिम समुद्रको जानेवाली नदियोंका ही यहां ग्रहण होता। और 'चतुर्दशनदीसहस्रपरिबृता गङ्गादयो नद्यः' सा सूत्र करनेपर पूर्व समुद्रको जानबाली नदियोंका ही ग्रहण होता । अतः सब नदियोंको प्रहण करने के लिये गङ्गासिन्ध्यादयो' वाक्य सूत्र में आवश्यक है। गगा और मिश्र नदियोंकी परिवार नदिम जौवह सौदह हजार रोहित और रोहितास्या नदियोंकी परिवार नदियों अट्ठाईस अट्ठाईस हैजार, हरित और हरिकान्ता नदियोंकी परिवार नदियाँ छप्पन छप्पन हजार, सीता और सीतोदा नदियों में प्रत्येकको परिवार नदियाँ एक लाख बारह हजार हैं । नारी और नरकान्ता, सुत्रर्ण कूला और रूप्यफूला, रक्ता और रक्तोदा नदियोंके परिवार नदियोंकी संख्या क्रमसे हरित और हरिकान्ता, रोहित और रोहितास्या, गंगा और सिन्धु नदियों के परिवार नदियों की संख्या के समान है। भोगभूमिकी नदियों में बस जीष नहीं होते हैं। जम्बूद्वीप सम्बन्धी मूल नदियाँ अठार है। इनकी परिवार नदियों की संख्या पन्द्रह लाख बारह हजार है। जम्बूद्वीपमें विभंग नदियाँ बारह हैं। इस प्रकार पश्चमेरु सम्बन्धी मूल नदियाँ तीन सौ नवे हैं और इनकी परियार नदियोंकी संख्या पचत्तर लाख साठ हजार है। विभंग नदियों की संख्या साठ है। :-आचाया सावहिासागर जी महाराज भरत क्षेत्रका विस्तार भरतः षड्विंशतिपञ्चयोजनशत विस्तारः षट्चैकोनविंशतिभागाः योजनस्य ॥२४॥ भरत क्षेत्रका विस्तार पाँच सौ सच्चीस योजन और एक योजनके उन्नीस भागों में से छह भाग है । ५२६, योजन, विस्तार है। आगेके पर्वत और क्षेत्रोंका विस्तार--- तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षी विदेहान्ताः ॥ २५ ॥ आगे आनेके पर्वत और क्षेत्रों का विस्तार भरत क्षेत्र के विस्तारसे दूना दूना है। लकिन यह क्रम विदह क्षेत्र पर्यन्त ही है। विदेह क्षेत्रसे उत्तरके पर्वतों और क्षेत्रोंका विस्तार विदह क्षेत्रके विस्तारसे आधा आधा होता गया है। भरत क्षेत्र के विस्तारसे हिमवान् पर्वतका विस्तार दूना है । हिमवान पर्वत के विस्तार Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय म हैमयत क्षेत्रका विस्तार दूना है। यही क्रम विदेह क्षेत्र पर्यन्त है। विदेह क्षेत्रके विस्तारसे नील पर्वतका विस्तार आधा है, नील पर्वत के विस्तारसे रम्यक क्षेत्रका विस्तार आधा है। यह क्रम ऐरावत क्षेत्र पर्यन्त है। उसरा दक्षिणतुल्याः ॥ २६॥ उत्तर के क्षेत्र औलामका विस्तुमानाक्षिणाओवाहासागऔंसी विस्तारके समान है । अर्थात् रम्यक, हेरण्यवत और ऐरावत क्षेत्रोंका विस्तार क्रमसे हरि, हैमवत और भरतक्षेत्रके विस्तार के समान है । नील, काम और शिखरो पर्वतोंका विस्तार क्रमसे निपध, महाहिमवान् और हिमवान् पर्वतोंक विस्तारके बराबर है । भरत और एरावत क्षेत्रमें कालका परिवर्तनभरतैरावतयोधिहासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ।। २७ ॥ भरन और रावत क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के छह समयों द्वारा जीवोंकी आयु, काय, सुख, आदिकी वृद्धि और हानि होती रहती है । क्षेत्रोंकी हानि वृद्धि नहीं होती । कोई आचार्य 'भरतरावतयोः पद में पाही विचन न मानकर सप्तमोका दियचन मानते हैं । उनके मतसे भी उत्सपिणी और अवसर्पिणी काल के द्वारा भरत और परावत क्षेत्र की वृद्धि और हानि नहीं होती किन्तु मरत और रावत क्षेत्र में रहनेवाले मनुष्योंकी आयउपभोग आदिकी वृद्धि और हानि होती है। उत्तपिणी कालमें आयु अर उपभोग आदिकी वृद्धि और अवपिणी कालमें हानि होती है। प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह छह भेद है । अवसर्पिणी कालके छह भेद१ सुषमसुषमा, २ सुषमा, ३ सुषमदुषमा, ४ दुःषमसुषमा, ५ दुःषमा, ६ अतिदुःषमा । उत्सर्पिणी कालके छह भेद--१ अतिदुःपमा, २ दुषमा, ३ दुःपमसुषमा, ४ सुषमदुःपमा, ५ सुषमा, ६ सुषमसुषमा । यद्यपि वनमानमें अवपिणी काल होनेसे सूत्रमें अवसर्पिणीका ग्रहण पहिले होना चाहिये लेकिन उत्सर्पिणी शब्दको अल्प स्वरवाला होनेसे पहिले कहा है। सुषमसुषमा चार कोड़ाकोड़ी सागर, सुषमा तीन कोड़ाकोड़ी सागर, सुषमदुःपमा यो कोडाकोड़ी सागर, दु:पमसुषमा व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोड़ी सागर, दुःषमा इसकीस हजार वर्ष और अतिदुःपमा इक्कीस हजार वर्षका है। अवसर्पिणीके प्रथम कालमें उत्तम भोगभूमिकी, द्वितीय कालमें मध्यम भोगभूमिकी और तृतीय कालमें जघन्य भागभूमिको रचना होती है। तृतीय कालमें पत्यके आठवें भाग बाकी रहनेपर सोलह कुलकर उत्पन्न होते हैं। पन्द्रह कुलकरोंकी मृत्यु तृतीय काल में ही हा जाती है लेकिन सोलहवें कुलकरकी मृत्यु चौथे कालमें होती है। प्रथम कुलकरकी आयु पल्यके दशम भाग प्रमाण है। ज्योतिरङ्ग कल्पवृक्षोंकी ज्योति के मन्द हो जाने के कारण चन्द्र और सूर्यके दर्शनसे मनुष्योंको भयभीत होनेपर प्रथम कुलकर उनके भयका निवारण करता है। द्वितीय कुलकरकी आयु पल्यके सौ भागों में से एक भाग प्रमाण है। द्वितीय कुलकरके समय में ताराओंको देखकर भी लोग डरने लगते है अतः वह उनके भयको दूर करता है। तृतीय कुलकरको आयु पल्यके हजार भागों में से एक भाग प्रमाण है । वह सिंह. व्याघ्र आदि हिंसक जीवोसे उत्पन्न भयका परिहार करता है। चतुर्थ कुलकरकी आयु पल्बके दश हजार भागों में से एक भाग प्रमाण है। यह Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी सार [३२७ सिंह, व्याघ्र आदिके भयको निवारण करने के लिये लाठी आदि रस्त्रना सिखाना है। पाँचवे कुलकरकी आयु पल्यके लाख भागोंमें से एक भाग प्रमाण है । वह कल्पवृक्षोंकी सीमाको वचन द्वारा नियत करता है क्योंकि उसके कालमें कल्पवृक्ष कम हो जाते हैं और फल भी कम लगते हैं। छठवें कुलकरकी आयु पल्यकें दश लाख भागों में से एक भाग प्रमाण है । वह गुल्म आदि चिन्होंसे कल्पवृक्षोंकी सीमाको नियत करता है क्योंकि उसके कालमें कल्पवृक्ष बहुत कम रह जाते हैं और फल भी अत्यल्प लगते हैं। सातवें कुलकरकी आयु पल्यके करोड़ भागों में से एक भाग प्रमाण है । वह शूरताके उपकरणोंका उपदेश और हाथी आदिपर सवारी करना सिखाता है। आठवें कुलकरकी आयु पल्यके दश करोड़ भागोंमें से एक भाग प्रमाण है । वह सन्तानके दर्शनसे उत्पन्न भयको दूर करता है । नचम कुलकरकी आयु पल्यके सौ करोड़ भागों में से एक भाग प्रमाण है। वह सन्तानको आशो द दना सिखाता है । दशम कुलकरकी आयु पल्याक हजार करोड़ भागों में से एक भाग प्रमाण है। वह बालकोंके रोने पर चन्द्रमा आदि के दर्शन तथा अन्य क्रीड़ाके उपाय बतलाता है । म्यारहवें कुलकरकी आयु पसाबकिदर्शमार-कटोवालामा रसुवाहासापरखापणहाराज उसके काल में युगल ( पुरुष और स्त्री) अपनी सन्तानके साथ कुछ दिन तक जीवित रहता है । बारहवें कुलकर की आयु पत्यक लाख करोड़ भागोंमें से एक भाग प्रमाण है। वह जल को पार करने के लिये नौका आदि की रचना कराना सिखाता तथा पवन आदिपर चढ़ने और उतरने के लिये सीढ़ो आदिको बनवानेका उपाय बताता है। उसके काल में युगल अपनी सन्तानके साथ बहुत काल तक जीवित रहता है। मेघोंके अल्प होने के कारण वर्षा भी अल्प होती है। इस कारणसे छोटी छोटी नदियों और छोटे छोटे पर्वत भी हो जाते हैं। तेरहवें कुलकरकी आयु पल्यके दश लाख करोड़ भार्गों में से एक भाग प्रमाण है । वह जरायु (गभजन्मसे उत्पन्न प्राणियों के जरायु होती है) आदिके मलको दूर करना सिखाता है । चौदहवें कुलकरकी आयु पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण है । वह सन्तानके नाभिनाल को काटना सिखाता है। उसके काल में प्रचुर मेघ अधिक वर्षा करते हैं । बिना वोये धान्य पैदा होता है। वह धान्यको खानका उपाय तथा अभक्ष्य औपधि और अभक्ष्य वृक्षोंका त्याग बतलाता है । पन्द्रहबा कुलकर तीर्थकर होता है । सोलहवां कुलकर उसका पुत्र चक्रवर्ती होता है । इन दोनोको आयु चौरासी लाख पूर्वकी होती है। सुपमपमा नामक चौथे कालके आदिमें मनुष्य विदह क्षेत्रक मनुष्यों के समान पाँच सौ धनुष ऊँचे होते हैं। इस कालमें तेईस तीर्थकर उत्पन्न होते हैं और मुक्त भी होते हैं । ग्यारह चक्रवर्ती, नव वलभद्र,नव वासुदेव, नव प्रति वासुदेव और ग्यारह रुद्र भी इस कालमें उत्पन्न होते हैं। वासुदेवों के कालमें नव नारद भी उत्पन्न होते हैं तथा य कलहप्रिय होने के कारण नरक जाते हैं। चौथे कालके अन्त में मनुष्योंकी आयु एक सौ बीस वर्ष और शरीरकी ऊँचाई सात हाथ रह जाती है। दुःपमा नामक पञ्चम कालके आदि में मनुष्योंकी आयु एक सौ बीस वर्ष और शरीर की ऊँचाई सात हाथ होती है। और अन्तमें आय बीस वर्ष और शरीरकी ऊँचाई साढ़े तीन हाथ रह जाती है. अतिटुःपमा नामक छठवें कालके आदिमें मनुष्यों की आयु बीस वर्ष होती है और अन्तम आयु सोलह वर्ष और शरीरकी ऊँचाई एक हाथ रह जाती है। छठवें कालके अन्नमें प्रलय काल आता है। प्रलय कालमे सरस, विरम, तीक्ष्ण, रूक्ष, उष्ण, विष और क्षारमेघ क्रमसे सात सात दिन बरसते हैं । सम्पूर्ण आर्य खण्डमें प्रलय होने पर मनुष्यांके बहत्तर युगल शेष रह जाते हैं। चित्राभूमि निकल पाती है। बराबर हो जाती है। इस Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 333 २८] तृतीय अध्याय मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज प्रकार दश कोड़ाकोड़ी सागरका अवसर्पिणी काल समान होता है। इसके बाद दश कोड़ाकोड़ो सागरका उत्सर्पिणो काल प्रारंभ होता है। उत्सपिणीके अतिदुपमा नामक प्रथम कालके श्रादिमें उनचास दिन पर्यन्त लगातार क्षीरमेघ बरसते हैं, पुनः अमृतमेघ भी उतने हो दिन पर्यन्त बरसते हैं । आदिमें मनुष्योंकी आयु सोलह वर्ष और शरीरकी ऊँचाई एक हाथ रहती है और अन्तमें आयु बीस वर्ष और शरीरको ऊँचाई साढ़े तीन हाथ हो जाती है । मेघोंके बरसनेसे पृथिवी कोमल हो जाती है । ओषधि, तरु, गुल्म, तृग आदि रससहित हो जाते हैं । पूर्वक्ति युगल बिलोसे निकलकर सरस धान्य आदिक उपभागमे सहर्ष रहते हैं। दुषमा नामक द्वितीय कालके आदिमें मनुष्योंकी आयु बीस वर्ष और शरीरकी ऊँचाई साढ़े तीन हाथ होती है। द्वितीय काल में एक हजार वर्ष शेष रहने पर चौदह कुलकर उत्पन्न हाते हैं। ये कुलकर अवसर्पिणी कालके पञ्चम कालके राजाओंकी तरह होते हैं। तेरह कुलकर द्वितीय कालमें ही उत्पन्न होते हैं और मरते भी द्वितीय - कालमें ही है। लेकिन चौदहवाँ कुलकर उत्पन्न तो द्वितीय काल में होता है लेकिन मरता तृतीय कालमें है। चौदहवे कुलकर का पुत्र तोधकर होता है और तीथंकरका पुत्र चक्रवती होता है। इन दोनोंकी उत्पत्ति तीसरे कालमें होती है। दुपमसुषमा नामक तृतीय कालके आदिमें मनुष्योंकी आयु एक सौ बीस वर्ष और शरीरकी ऊँचाई सात हाथ होती है । और अन्तम आयु कोटिपूर्व वर्ष और शरीरकी ऊँचाई सवा पाँच सौ धनुप प्रमाण होती है । इस कालमें शलाकापुरुप उत्पन्न होते हैं । सुषमटुपमा नामक चौथे काल में जघन्य भोगभूमिली रचना, सुषमा नामक पञ्चम कालमें मध्यम भोगभूमिकी रचना और सुषमसुषमा नामक छठे कालमें उत्तम भोगभूमिकी रचना हानी है। चौथे, पांच और छठवे काल में एक भी ईति नहीं होती है। ज्योतिरङ्ग कम्पवृक्षोंक प्रकाशसे रातदिनका विभाग भी नहीं होता है। मेघवृष्टि, शीतबाधा, उष्णबाधा, क्रूरमृगवाधा आदि कभी नहीं होती हैं। इस प्रकार दशकोड़ाकोट्टी सागरका उत्सपिणीकाल समान हो जाता है। पन: अवसर्पिणी काल आता है। इस प्रकार अवसर्पिणी और उत्सपिणी कालका चक्र चलता रहना है। उत्सर्पिणीके देश कोडाकोड़ी सागर और अवसविणों के दश कोडाकोडी सागर इस प्रकार बीस कोडाकाहो सागरका एक कल्प होता है। एक कल्पमं भोगभमिका काल अठारह कोड़ाकोड़ी सागर है । भोगभूमिके मनुष्य मधुरभाषी, सर्व कलाकुशल, समान भोग बार, पसीनसे रहित और ईर्ष्या, मात्सयं, कृपणता, ग्लानि, भय, विषाद, काम आदिसे रहित होते हैं। उनको इष्टवियाग मोर अनिष्टसंयोग नहीं होता। आयुके अन्तमें जभाई लेने पुरुषकी और छोफसे स्त्रीको मृत्यु हो जाती है। यह नपुंसक नहीं होते हैं । सब मृग( 'पशु) विशिष्ट घासका चरने बार और समान श्रायुवाले होते हैं। अन्य भूमियों का वर्णन ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ॥ २८ ।। भरत और एरावत क्षेत्रको छोड़कर अन्य भमियाँ सदा अवस्थित रहती हैं। उनमें कालका परिवर्तन नहीं होता । हैमवत, हरि और देवकुरुमें क्रमसे अवसर्पिणी कालके तृतीय. द्वितीय और प्रथम कालकी सत्ता रहती है। इसी प्रकार हैरण्यवत, रम्यक और उत्तर कुरुमें भी कालकी अवस्थिति समझना चाहिये । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार हैमवत श्रादि क्षेत्रोंमें आयुका वर्णनएकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतकहारिवर्पकदैवकुरयकाः ।। २९ ।। हैमवत, हरिक्षेत्र तथा देबकुरु में उत्पन्न होनेवाले प्राणियोंकी आयु क्रमशः एक पल्य, दो पल्य और तीन पल्यकी है। शरीरकी ऊंचाई क्रमशः दो हजार धनुष, चार हजार धनुष और छह हजार धनुष है । भोजन क्रमशः एक दिन बाद, दो दिन बाद तथा नीन दिन बाद करते हैं। शरीरका रंग क्रमसे नील कमल के समान, कुन्द पुष्पके समान और कांचन वर्ण होता है। उत्तरके क्षेत्रों में आयुकी व्यवस्था तथोत्तराः ॥ ३०॥ उत्तरके क्षेत्रोंक निवासियोंकी प्रायु दक्षिण क्षेत्रोंक वासयाकर समीमहादान । अर्थात् हैरण्यवत,रम्यक क्षेत्र तथा उत्तर कुरुमें उत्पन्न होनेवाले प्राणियोंकी आयु क्रमशः एक, दो और तीन पल्यकी है। विदह क्षेत्रमें श्रायुकी व्यवस्था विदेहेषु संख्येयकालाः ॥ ३१ ॥ विदेह क्षेत्र में संख्यातवर्ष की आयु होती है। प्रत्येक मेरुसम्बन्धी पाँच पूर्वविदह और पांच अपर वितह होते हैं। इन दोनों विदहोंका महाविदह कहते हैं । विदह में उत्कृष्ट आयु पूर्वकोटि घपं और जघन्य आयु अन्तमुहूर्त है। विदेहमें सदा टुपमसुपमा काल रहता है। मनुष्यों के शरीरकी ऊँचाई पाँच सो धनुप है। वहाँ के मनुष्य प्रतिदिन भोजन करते हैं। सत्तर लाख करोड़ और छप्पन हजार करोड़ वर्षोंकि ममूहका नाम एक पूर्व है । अर्थान् ७२५६००००००००० वर्षका पूर्व होता है। भरत क्षेत्रका दूसरो नरहसे विस्तारवर्णनभरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवतिशतभागः ॥ ३२॥ भरतक्षेत्रका विस्तार जम्बुद्धीपर्फे एक सौ नब्वेश भाग है। अर्थात् जम्बूद्वीपके एक सौ नव्वे भाग करने पर एक भाग भरत क्षेत्रका विस्तार है। जम्बूद्वीपके अन्त में एक वेदी है उसका विस्तार जम्बूद्वीपके विस्तार में ही सम्मिलित है। इसी प्रकार सभी द्वीपोंकी वेदियोंका विस्तार द्वीपों के विस्तार के अन्तर्गत ही है । लवण समुद्रके मध्यमें चारों दिशाओं में पाताल नाम वाले अलजलाकार चार बड़वानल हैं जो एक लाख योजन गहरे, मध्यमें एक लाख योजन विस्तारयुक्त और मुत्र तथा मूल में दश हजार योजनविस्तारवाले हैं। चारों विदिशाओंमें चार क्षद्र बड़वानल भी हैं। जिनकी गहराई दश हजार योजन, मध्यमें विस्तार दश हजार योजन और मुख तथा मूलमें विस्तार एक हजार योजन है । इन आठ बड़वानलोंके पाठ अन्तरालों में से प्रत्येक अन्तरालमें पंक्ति में स्थित एक सौ पच्चीस बास्य हैं जिनकी गहराई एक हजार योजन, मध्य में विस्तार एक हजार योजन और मुख तथा मूलमें पाँच सौ योजन विस्तार है। इस प्रकार Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९५ ३३३] तृतीय अध्याय बड़वालोंकी संख्या एक हजार आठ है। इन बड़वानलोंके अन्तराल में भी छोटे छोटे बहुत से बड़वाल हैं । प्रत्येक बड़वानलके तीन भाग हैं। नीचे के भागमें वायु मध्य भागमें बायु और जल, और ऊपर के भागमें केवल जल रहता है। जब वायु धीरे धीरे नीचे के भागसे ऊपरके भाग में चढ़ती है तो मध्यम भागका जल वायु प्रेरित होनेक कारण ऊपरको चढ़ता है। इस प्रकार बड़वानलका जल समुद्र में मिलने के कारण समुद्रका जल तट के ऊपर श्रा जाता है । पुनः जब चायु धीरे धीरे नीचेको चली जाती है तब समुद्रका जल भी बद जाता है । लवण समुद्र में ही वेला (तट) है अन्य समुद्रों में नहीं । अन्य समुद्रों में बड़वानल भी नहीं हैं क्योंकि सब समुद्र एक हजार योजन गहरे हैं। लवण समुद्रका ही जल उन्नत है अन्य समुद्रोंका जल सम ( बराबर ) है । लवणसमुद्रके जलका स्वाद नमक के समान, वारुणी समुद्रके जलका स्वाद मंदिरा के समान, श्रीरसमुद्र के जलका स्वाद दूध के समान, घृतो समुद्र जलका स्वाद घृतके समान, कालोद, पुष्कर और स्वयम्भूरमण समुद्र के जलका स्वाद जल के समान और अन्य समुद्रजलका स्वाद इक्षुरसके समान है । लवण, काळोद और स्वयं भूरमणका की जवानी आई। सत्मसमुद्र महाराज नहीं । लवण समुद्र में नदियोंके प्रवेश द्वारोंमें महस्योंका शरीर नौ योजन और समुद्र के मध्य में नदियों के प्रवेश द्वारों में मत्स्योंके शरीरका विस्तार अठारह योजन और समुद्र के मध्य में छत्तीस योजन है। स्वयंभूरमण समुद्रके तटपर रहनेवाली मछलियोंके शरीरका विस्तार पाँच सौ योजन और समुद्रके मध्य में एक हजार योजन हैं। लवण, कालोद और पुष्करवर समुद्र में ही नदियों के प्रवेशद्वार हैं, अन्य समुद्रोंमें नहीं हैं । अन्य समुद्रों की वेदियाँ भित्ति के समान हैं । धातकीखण्ड द्वीपका वर्णन --- द्विर्घातकीखण्डे || ३३ ॥ धातकीखण्ड द्वीप में क्षेत्र, पर्वत आदि की संख्या आदि समस्त बातें जम्बूद्वीप से दूनी दूती हैं। arast aus atest दक्षिण दिशा में दक्षिण से उत्तर तक लम्बा इष्वाकार नामक पर्वत है जो लवण और कालोद समुद्रकी वेदियों को स्पर्श करता है। और उत्तर दिशामें भी इसी तरह का दूसरा इष्वाकार नामक पर्वत है। प्रत्येक पर्वत चार लाख योजन लम्बे हैं । दोनों scareer पर्वतसे धातकीखण्डके दो भाग हो गये हैं, एक पूर्व घातकीखण्ड और दूसरा अपर घातकखण्ड । प्रत्येक भाग के मध्य में एक एक मेरु है । पूर्वदिशा में पूर्वमेरु और पश्चिम दिशा में अपरमेरु है । प्रत्येक मेरु सम्बन्धी भरत आदि सातक्षेत्र और हिमवान् आदि छह पर्वत हैं । इस प्रकार घातकीखण्ड में क्षेत्र और पर्वतों की संख्या जम्बूद्वीपसे दूनी है । जम् द्वीपमें हिमवान् आदि पर्वतों का जो विस्तार है उसमें दूना विस्तार भ्रातकीखण्ड के हिमवान आदि पर्वत है लेकिन ऊँचाई और गहराई जम्बूदीपके समान ही है। इसी तरह विजयार्द्ध पर्वत और वृत्तवेाव्य पर्वतोंको संख्या भी जम्बूद्वीपक समान है । धातकीखण्ड में हिमवान् आदि पर्वत चक्के आरे के समान हैं और क्षेत्र आरोंके छिद्रके आकार के हैं । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार पुष्करद्वीपका वर्णन पुष्करार्धे च ।। ३४ ।। पुष्कर दीपके अद्धभाग में भी सब रचना जम्बूद्वीपसे दूनी है। धातकीखण्ड द्वीपके समान पुष्कराधमें भी दक्षिणसे उत्तर तक लम्बे और आठ लाख योजन बिस्तृत दो इवाकार पर्वत हैं । इस कारण पुष्कराद्धके दो भाग हो गये है। दोनों भागोंमें दो मेरु पर्वत हैं एक पूर्वमेरु और दूसरा अपरमेरु । प्रत्येक मेरुसम्बम्धी भरत आदि सात क्षेत्र और हिमवान आदि छह पर्वत हैं । पुष्कराध द्वीपम सारी रचना धातकीखण्ड द्वीपके समान ही है। विशेषता यह है कि पुष्कराधके हिमवान् आदि पर्वतोंका विस्तार धातकीखण्ड के हिमवान आदि पर्वतोंके विस्तार से दूना हे । पुष्कर बीपके मश्यमें गोलाकार मानुपांतर पवंत है अतः इस पर्वतसे विभक्त होने के कारण इसका नाम पुकरा पड़ा । आत्र पुच कर द्वीपमें ही मनुष्य हैं अतः पुष्कराद्ध का ही वर्णन नहीं किया गया है।। मनुष्य क्षेत्रको सोमा--- प्रामादितिराभिचाई भी विद्यासागर जी महाराज भानुपाचर पर्वतक पहिले ही मनुष्य होते हैं, आगे नहीं । मानुपोत्तर पर्वतके बाहर विद्याधर श्रार ऋद्धिप्राप्त मुनि भी नहीं जाते हैं। भनुन्य क्षेत्रके त्रस भी बाहर नहीं जाते हैं। पुस्कराईको नदियां भी मानुपात्तर के बाहर नहीं रहती हैं। जब मनुध्य क्षेत्रके बाहर मृत काई तिर्यञ्च या दब मनुष्यक्षेत्रमें आता है तो मनुष्यगत्यानुसूचीं नाम कर्म का उदय होनेस भानुपान्तरके बाहर भी उसको उपचारसे मनुष्य कह सकते है । दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्रातके समय भी मानुषोत्तरसे बाहर मनुष्य जाता है। मनुष्यों के भेद आर्या म्लेच्छाश्च ।। ३६ ॥ मनुप्योंकि दो भेद है-आर्य और म्लेच्छ । जा गुणोंग सहित हो अथवा गुणवान लोग जिनकी सेवा करें उन्हें आर्य कहते हैं। जा निलतापूर्वक चाहे जो कुछ बोलते हैं, वे म्लेच्छ हैं। पायों के दो भेद है--ऋद्धिप्राप्त आर्य और ऋद्धिरहित आर्य । ऋद्धिप्राप्त आयकि ऋद्धयोंके भदस आठ भेद है । आठ ऋद्धियों के नाम-बुद्धि, क्रिया, बिक्रिया, तप, वल, औषध, रस और शेन्न। बुद्धि ऋद्धिप्राप्त अायों के अठारह भेद हैं । ५ अवधिज्ञानी २ मनःपर्ययज्ञानी ३ केवलमानी, ४ बीजबुद्धिवाल, ५ कोष्ट बुद्धिवाले, ६ सम्मिन्ननोत्री, ७ पदानुसारी, ८ दूरसं स्पश करने में समर्थ, ५. दूरसे रसास्वाद करने में समर्थ, १० दूरसे गंध ग्रहण करने में समथ, १५ दूर सुनने में समर्थ, १२ दूरसे देखने में समर्थ, १३ दश पूर्व के ज्ञाता, १४ चौदह खूर्व के ज्ञाता, २५ आठ महा निमित्तोंके जाननेवाले, १६ प्रत्येक बुद्ध, १७ वाद विवाद करने वाले और १८ प्रज्ञाश्रमण | एक बीजाक्षरके ज्ञानसे समस्त शास्त्रका ज्ञान हो जानेको बीजवुद्धि कहते हैं । धान्यागारम संगृहीत विविध धान्योंको तरह जिस युद्धिमें सुने हुये वर्ण आदिका बहुत कालतक धिनाश नहीं होता है वह कोष्ठबुद्धि है। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैरोकेर aum (जाना और रखना) फबना आकाशमयमग तना: ३१३६ ] तृतीय अध्याय ३९७ क्रिया ऋद्धि दो प्रकारको है-जंघाविचारणत्व और आकाशगामित्व । जंघादिचारणत्वके नौ भेद हैं १ संघाचारणत्व-भूमिसे चार अंगल ऊपर आकाश में गमम करना । २ श्रेणिचारणत्व-विद्याधरोंकी श्रेणिपर्यन्त आकाशमें गमन करना । ३ अग्निशिखाचारणत्व-अग्निकी ज्वालाके ऊपर गमन करना। ४ जलचारणत्व-जलको बिना छुए जलपर गमन करना । ५ पन्नचारणत्व-पत्तेको बिना छुए पत्तपर गमन करना । ६ फलचारणत्व-फलको बिना छुए फलपर गमन करना। ७ पुष्पचारणत्व—पुष्पको बिना छु' पुष्पपर गमन करना । ८ बीजचारणत्व-बीजको विना छुए वीजपर गमन करना । ५ तन्तुचारणत्व-तन्तुको बिना छुए तन्तुपर गमन करना । बेना आकाशमें गमन करना. सादिर्शक:- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज पर्यशासनसे आकाशम गमन करना, ऊपरेको स्थित होकर आकाशमें गमन करना, अथवा सामान्यरूपसे बैठकर आकाश में गमन करना आकारागामित्व है। अणिमा आदिक भेदसे विक्रिया ऋद्धि अनेक प्रकारकी है। अणिमा-शरीरको सूक्ष्म बना लेना अथवा ( कमलनाल) में भी प्रवेश करके चक्रवर्तीके परिवारकी विभूतिको बना लेना अणिमा है। महिमा-शरीरको बड़ा बना लेना महिमा है। लघिमा-शरीरको छोटा बना लेना लघिमा है। गारमा-शरीरको भारी बना लेना गरिमा है। प्राप्ति--भूमिपर रहते हुए भी अङ्गुलिके अग्र भागसे मेरुकी शिखर, चन्द्र, सूर्य आदिको स्पर्श करनेकी शक्तिका नाम प्राप्ति ऋद्धि है। प्राकाम्य-जल में भूमिकी तरह चलना और भूमिपर जलकी तरह गमन करना, अथवा जाति, क्रिया, गुण, द्रव्य, सैन्य आदिका बनाना प्राकाम्य है। ईशित्य-जीन लोकके प्रभुल्बको पाना ईशित्व है। बशित्व- सम्पूर्ण प्राणियोंको घशमें करनेकी शक्तिका नाम वशित्व है। अप्रतीघात-पर्वत पर भी आकाशकी तरह गमन करना, अनेक रूपोका बनाना अप्रतीधान है। कामरूपित्व-मूर्त ओर अमूर्त अनेक आकारोंका अनाना कामरूपित्य है। अन्तर्धान --रूपको अदृष्ट बना लेना । तप ऋद्धिके सात भेद हैं-१ घोरतप, २ महातप, ३ उपतप, ४ डीप्ततप, ५ तातप, ६ घोरगुणाचारिता और ७ घोरपराक्रमता । घोरतप---सिंह, व्याघ्र, चीता, स्वापद आदि दुधप्राणियोंसे युक्त गिरिकन्दरा आदि स्थानों में और भयानक श्मशानों में तीन आतप, शीत आदिकी बाधा होनेपर भी थोर उपसर्गोका सहना घोरतप है। महातप-पक्ष, मास, छह मास और एक वर्पका उपवास करना महानप है। पक वर्पके उपासके उपरान्त पारणा होती है और केवलझान भी हो जाता है। इसलिये एक वर्षसे अधिक उपवास नहीं होता है। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ तत्वार्थवृत्ति हिन्दी ससागर जी महाराज [ ३/३६ उपतप--पञ्चमीको अष्टमीको और चतुर्दशीको उपवास करना और दो या तीन बार आहार न मिलने पर तीन, चार अथवा पाँच उपवास करना उतप है । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री दीप- शरीर से बारह सूर्यों जैसी कान्तिका निकलना दीमत है । तप्प - तपे हुये लोइपिण्ड पर गिरी हुई जलकी बूँदकी तरह आहार ग्रहण करते हो आहारका पता न लगना अर्थात् श्राहारका पच जाना तप्ततप हैं । घरगुणब्रह्म चारिता सिंह, व्याघ्र आदि क्रूर प्राणियोंसे सेवित होना घोरगुणब्रह्मचारिता है। घोर पराक्रमता--मुनियोंको देखकर भृत, प्रेत, राक्षस, शाकिनी आदिका डर जाना धोरपराक्रमता है । तीन भेद हैं- मनोबल, वचनबल और कायबल । मनोबल - अन्तर्मुहूर्त में सम्पूर्ण श्रुतको चिन्तन करनेकी सामर्थ्यका नाम मनोबल है । बचनबल-1 -- अन्तर्मुहूर्त में सम्पूर्ण श्रुतको पाठ करने की शक्तिका नाम वचनबल है। कायवल—एक मास, चार मास, छह मास और एक वर्ष तक भी कायोत्सर्ग करनेकी शक्ति होना अथवा अली अग्रभागसे तीनों लोकोंको उठाकर दूसरी जगह रखनेकी सामर्थ्यका होना कायवल है । ऋद्धिप्रकारकी है। जिन मुनियोंकी निम्न आठों बातोंके द्वारा प्राणियों के रोग नष्ट हो जाते हैं वे मुनिं औषधऋद्धि के धारी होते हैं । १ बिट् (मल) लेपन, २ मलका एकदेश छूना, ३ अपक्व आहारका स्पर्श, ४ सम्पूर्ण अशोक मला स्पर्श, ५ निष्ठीवनका स्पर्श, ६ दन्त, केश, नख, मूत्र आदिका स्पर्श ७ कृपादृष्टि अवलोकन ओर ८ कृपासे दाँतों का दिखाना । रस ऋद्धिके छइ भेव हैं–१ आस्यविष- किसी दृष्टिगत प्राणीको 'मर जाओ' ऐसा कहने पर उस प्राणीका तत्क्षण ही मरण हो जाय — इस प्रकार की सामर्थ्यका नाम आस्यविप अथवा वाग्विष है | २- किसी क्रुद्ध मुनिके द्वारा किसी प्राणीके देखे जानेपर उस प्राणीका उसी समय मरण हो जाय इस प्रकारकी सामर्थ्य का नाम दृष्टिविष है। ३ ओरस्रावी -- नीरस भोजन भी जिन मुनियोंके हाथ में थानेपर क्षीरके समान स्वादयुक्त हो जाता है, अथवा जिनके वचन क्षीरके समान संतोष देनेवाले होते हैं वे क्षीरसावी कहलाते हैं । ४ मध्यास्रावी --- नीरस भोजन भी जिन मुनियोंके हाथ में आनेपर मधुके स्वादको देनेवाला हो जाता है और जिनके वचन श्रोताओंको मधुके समान लगते हैं वे मुनि मात्रायी है । ५ सर्पिशाबी -- नीरस भोजन भी जिनके हाथमें आनेपर घृतके स्वादयुक्त हो जाता है और जिनके वचन श्रोताओं को घृतके स्वाद जैसे लगते हैं वे मुनि सर्पिरास्रावी हैं। ६ अमृतास्रावो -- जिनके हस्तगत भोजन अमृत के समान हो जाता है और जिनके चचन अमृत जैसे लगते हैं वे मुनि अमृतास्रावी हैं । क्षेत्र ऋद्धि के दो भेद हैं। अक्षोणमहानसऋद्धि और अक्षीणआलयऋद्धि । किसी मुनिको किसी घर में भोजन करनेपर उस घर में चक्रवर्ती के परिवारको भोजन करनेपर भी अन्न कमी न होनेकी सामर्थ्यका नाम अक्षीण महानस ऋद्धि है। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५९ १।३६] तृतीय अध्याय किसी मुनिको किसी मन्दिरमें निवास करनेपर उस स्थानमें समस्त देव, मनुष्य और तिर्योंको परस्पर बाधा रहित निधास करनेकी शक्तिका नाम आक्षीणालय ऋद्धि है। ऋद्धिरहित आयों के पाँच भेद है-१ सम्यक्त्वार्य, , चारित्रार्य, ३ कार्य, ४ जात्यार्य और ५ क्षेत्रार्य । अतरहित सम्यग्दृष्टी सम्यक्त्वार्य है। चारित्रको पालने वाले यति चारित्रार्य हैं। मार्गदर्शकों के निवास स्थानसमर्थनाहानाबद्ध कार्य और असावकार्य । सावध कार्य के छह भेद है-असि, मसि, कृषि,विद्या, शिल्प और वाणिज्यकर्मार्य । तलवार, धनुष , बाण, छुरी, गदा, आदि नाना प्रकारके आयुधों को चलाने में चतुर असि कार्य हैं। आयव्यय आदि लिखने वाले अर्थात मुनीम या फ्लर्क मसिकार्य है। जती करने वाले कृपि कार्य है । गणित आदि बहत्तर कलाओंमें प्रवीण विद्या कार्य हैं। निणेजक नाई आदि शिल्प कार्य हैं । धान्य, कपास,चन्दन, सुवर्ण आदि पदार्थों के व्यापार को करने वाले वाणिज्यकर्माय हैं। श्रावक अल्प सावध कर्माय होते हैं और मुनि असायद्य कार्य है। इन्वाकु आदि बंशमें उत्पन्न होने वाले जात्यार्य कहलाते हैं। वृषभनाथ भगवान् के कुलमें उत्पन्न होनेवाले इक्ष्वाकुवंशी, भरतके पुत्र अर्ककीर्ति के कुलमें उत्पन्न होनेवाले सूर्यवंशी, बाहुलके पुत्र सोमयश के कुलमें उत्पन्न होनेवाले सोमवशी, सोमप्रभ श्रेयांसके कुलमें उत्पन्न होनेवाले कुरुवंशी, अकम्पन महाराजके कुलमें उत्पन्न होनेवाले नाथवंशी, हरिका-त राजाके कुल में उत्पन्न होनेवाले हरिवंशी, बलराजाक कुलमें उत्पन्न होनेवाले याझ्य, काश्यप राजाके कुल में उत्पन्न होनेवाले उप्रयंशी कहलाते हैं। ___ कौशल, गुजरात, सौराष्ट्र, मालव, काश्मीर आदि देशोंमें उत्पन्न होनेवाले क्षेत्रार्य कहलाते हैं। म्लेच्छ दो प्रकार के होते है--अन्तीपज और कर्मभूमिज । लवाण समुद्रमें श्राठों दिशाओं में आठ द्वीप हैं। इन द्वीपोंके अन्तरालमें भी पाठ श्रीप है। हिमवान् पर्वतके दानों पाश्चों में दो द्वीप है। शिखरी पर्वतके दोनों पाश्यों में दो द्वीप हैं . और दोनों विजयादर्ध पर्वतों के दोनों पायों में चार श्रीप हैं। इस प्रकार लवण समुद्र में चौबीस द्वीप हैं, इनको कुभोगभूमि कहते हैं। चारों दिशाओं में जो चार द्वीप हैं वे समुद्र को वेदीसे पाँच सौ योजनकी दूरी पर है। इनका विस्तार सो योजन है। चारों विदिशाओंक चार द्वीप और अन्तरालके आठ द्वीप समुद्रकी वेदीसे साढ़े पाँच सौ योजनकी दूरी पर हैं उनका विस्तार पचास योजन है। पर्वतोंके अन्त में जो आठ द्वीप हैं वे समुद्रकी वेदीसे छह सौ योजनकी दूरी पर हैं। इनका चिस्तार पच्चीस योजन है । पूर्वदिशाके द्वीपमें एक पैर वाले मनुष्य होते हैं । दक्षिण दिशाके द्वीपमें मनुष्य शृङ्ग (सींग ) सहित होते हैं। पश्चिम दिशाकद्वीपमें पूंछवाल मनुष्य होते हैं। उत्तर दिशाके द्वीपमें गूंगे मनुष्य होते हैं। आग्नेय दिशामें शश ( खरहा ) के समान कान बाले और नंऋत्य दिशामें शष्षुलीके समान कानवाले मनुष्य होते हैं। यायव्य दिशामें मनुष्यों के कान इतने बड़े होते हैं कि वे उनको प्रोढ़ सकते हैं । ऐशान दिशामें मनुष्योंके लम्बे कान वाले मनुष्य होते हैं। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [180 पूर्व और आग्नेयके अन्तराल में अश्व के समान मुखवाले आग्नेय और दक्षिण के अन्तराल में सिंहके समान मुखवाले, दक्षिण और नैर्ऋत्य अन्तराल में भषण- कुत्ते के समान मुखबा नैर्ऋत्य और पश्चिम अन्तराल में गर्वर ( उल्लू) के समान मुखबाट पश्चिम और बायके अन्तराल में शुकर के समान मुखबाले, वायव्य और उत्तर के अन्तराल में व्यायके समान मुखवाले. उत्तर और शान के अन्तराल काकक समान मुखबाल और ऐशान और पूर्व के अन्तराल में कपि (बन्दर) के समान मुखवाल मनुष्य होते हैं। ४०० हिमवान् पर्वतके पूर्व पार्श्व में मछली के समान मुखया और पश्चिम पार्श्व में काले मुखवाले, शिखरी पर्वत के पूर्व पार्श्व में मेघ के समान मुखबाले और पश्चिम पार्श्व में विद्युतके, दक्षिण दिशा के विजयार्द्धके पूर्व पार्श्व में गाय के समान मुखवाल और पश्चिम में पक समान मुखवाले और उत्तर दिशा में विजयाद्ध के खूब पार्श्वमें हाथी के समान मुखवाल और पश्चिम पार्श्वमें दर्पण के समान मुखबाल मनुष्य होते हैं। एक पैरवाले मनुष्य मिट्टी खाते हैं और गुहाश्रमें रहते हैं । अन्य मनुष्य वृक्षांके नीचे रहते हैं और फल खाते हैं। इनकी आयु एक पल्य और शरीर की ऊँचाई दो हजार धनुष हैं । उक्त चौबास द्वीप लवण समुद्र के भीतर हैं। इसी प्रकार लवणसमुद्र के बाहर भी चौबीस द्वीप हैं। लवण समुद्रके कालोद समुद्रसम्बन्धी भी अड़तालीस द्वीप हैं । सब मिलाकर छयानवें म्लेच्छ द्वीप होते हैं। ये सब द्वीप जलबोर्य श्रमहाराज मनुष्य अन्तद्वीपज म्लेच्छ कहलाते हैं । पुलिन्द, शबर, यघन, खस, बर्बर आदि कर्मभूमिज म्लेच्छ है । कर्मभूमियों का वर्णन - भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः ॥ ३७ ॥ पाँच भरत, पाँच ऐरावत और देवकुरु एवं उत्तर कुरुको छोड़कर पाँच विदेह- इस प्रकार पन्द्रह कर्मभूमियाँ हैं । इसके अतिरिक्त भूमियाँ भोगभूमि हो हैं किन्तु अन्तद्वीपों में कल्पवृक्ष नहीं होते । भोगभूमि के सब ममुष्य मरकर देव ही होते हैं। किसी आचार्यका ऐसा मत है कि चार अन्त हैं वे कर्मभूमिके समीप हैं अतः उनमें उत्पन्न होने वाले मनुष्य चारों गतियों में जा सकते हैं । मानुषोस र पर्वतके आगे और स्वयम्भूरमण द्वीप के मध्य में स्थित स्वयंप्रभ पर्वत पहिल जिनने द्वीप हैं उन सबमें एकेन्द्रिय और पचेन्द्रिय जीव ही होते हैं। ये द्वीप कुमभूमि कहलाते हैं। इनमें असंख्यात वर्षको श्रायुवाले और एक कोस ऊँचे पचेन्द्रिय तिर्य ही होते है, मनुष्य नहीं । इनके आदिके चार गुणस्थान ही हो सकते हैं । मानुषोत्तर पर्वत सत्रह सौ इक्कीस योजन ऊँचा है, और चार सौ तीस योजन भूमिके अन्दर है, मूलमें एक सौ बाईस योजन, मध्य में सात सौ तेतीस योजन, ऊपर चार सौ चौबीस योजन विस्तारवाला है । मानुपोत्तरके ऊपर चारों दिशाओंने चार चैत्यालय हैं । सर्वार्थसिद्धिको देनेवाला उत्कृष्ट शुभकर्म और सातवें नरक में ले जानेवाला उत्कृष्ट अशुभ कर्म यहीं पर किया जाता है। तथा असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि कर्म चहीं पर Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३।३..] तृतीय अध्याय ४०१ किया जाता है इसलिये इनको कर्मभूमि कहते हैं। यद्यपि सम्पूर्ण जगतमें ही कर्म किया जाता है किन्तु उत्कृष्ट शुभ और अशुभ कर्मका आश्रय होनेसे इनको ही कर्मभूमि कहा गया है। स्वयम्प्रभ पर्वतसे आगे लोकके अन्त तक जो तिर्यश्च हैं उनके पाँच गुणस्थान हो सकते हैं। उनकी आयु एक पूर्वकोटिकी हैं। वहाँ के मत्स्य सानवें नरकमें ले जाने वाले पापका चन्ध करते हैं। कोई कोई थलचर जीच स्वर्ग श्रादिके हेतुभूत पुण्यका भी उपार्जन करते हैं । इसलिये आधा स्वयंभूरमण द्वीप, पूरा स्वयंभूरमण समुद्र और समुद्र के बाहर चारों कोने कर्मभूमि कहलाते है। मनुष्योंकी आयुका वर्णननृस्थिती परावरे निपल्योपमान्तर्मुहूर्त ।। ३८ ।। मनुष्योंकी उत्कृष्ट आयु तीन पल्य और जघन्य आयु अन्तर्मुहून है। पल्यके तीन भेद हैं–व्यवहार पल्य, उद्धार पल्य और अद्धा पल्य । व्यवहार पल्यसे संख्याका, उद्धार पल्यसे द्वीप समुद्रोंका और श्रद्धा पन्यग्न कमां की स्थितिका वर्णन किया जाता है। व्यबहार पल्यका स्वरूप प्रमाणाझुलसे परिमित एक प्रमाण योजन होता है । अवसर्पिणी कालके प्रथम चक्रवर्ती के अङ्गलको प्रमाणाङ्गुल कहते हैं। चौबीस प्रमाणाङ्गुलका एक हाथ होता है। चार हाथका एक इण्ड होता है। दो हजार दण्डोंकी एक प्रमाणगव्यूति होती है। बार, गम्यूतिका एक प्रमाणयोजन होता है : अश्रीन पांच सौ मानव योजनाकारक प्रमाणयाने होता कृषिमानवी जमको हासच आठ परमाणुओं का एक सरेणु होता है । आठ त्रसरेणुओंका एक रथरणु होता है। आठ रथरेणुओका एक चिकुराग्र होता है। आठ चिकुरामों की एक लिक्षा होती है। पाठ लिक्षाओंका एक सिद्धार्थ होता है । आठ सिद्धार्थोंका एक यब होता है। आठ यवांका एक अङ्गुल होता है। छह अङ्गलोंका एक पाद होता है। दो पादोंकी एक त्रितस्ति होती है । दो क्तिस्तियोंकी एक रति होती है। चार रतियांका एक दण्ड होता है। दो हजार दण्डोंकी एक गम्यूति होती है। चार गव्यूतिका एक मानवयोजन होता है । और पांच सौ मानवयोजनोंका एक प्रमाणयोजन होता है। एक प्रमाणयोजन लम्या, चौड़ा और गहरा एक गोल गड़ा हो। मात दिन तकके मेषके बच्चोंके बालों को केंचीसे कतर कर इस प्रकार टुकड़े किये जाय कि फिर दूसरा टुकड़ा न हो सके। उन सूक्ष्म यालोंके टुकड़ोंसे वह गड्ढा कूट कूटकर भर दिया जाय इस गह को व्यवहारपल्य कहते हैं । पुनः सौ वर्ष के बाद उस गडू में से एक एक टुकड़ा निकाला जावे । इस क्रमसे सम्पूर्ण रोमखण्डोंके निकलने में जितना समय लगे उतने समयको व्यवहारपल्योपम कहते हैं। पुनः असंख्यात करो वर्षों के जितने समय हो उतने समयोंसे प्रत्येक रोमखण्डोंका गुणा करे और इस प्रकार के रोमखण्डों ने फिर उस गड्डू को भर दिया जाय । इस गद्दे । का नाम उद्धारपल्य है । पुनः एक एक समय के बाद एक एक रामखण्डको निकालना चाहिए इस कमसे सम्पूर्ण रोमखण्डोंके निकलने में जितना समय लगे उतने समयको उद्धार-- पल्योपम कहते हैं । दश कोडाकोड़ी उद्धारपायोंका एक उद्धारसागर होता है । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ ३३९ अढ़ाई उद्धार सागरों अथवा पच्चीस कोड़ाकोड़ी उजारपल्योंके जितने रोमखण्ड होते हैं उतने ही द्वीप समुद्र हैं । एक वर्ष के जितने समय होते हैं उनसे उद्धारपत्य के प्रत्येक रोमखण्डका गुणा करे और ऐसे रोमखण्डोंसे फिर वह गड्ढा भर दिया जाय तब इस गड्ढे का नाम श्रद्धा पत्य है । पुनः एक एक समय के बाद एक एक रोमखण्डको निकालने पर समस्त रोमखण्डोंके निकलने में जितने समय लगें उतने कालका नाम अद्धापल्योपम है । ४०२ देश कोड़ाकोड़ी अद्धापल्यों का एक अद्धासागर होता है। और दश कोड़ाकोड़ी अद्धासागरोंकी एक उत्सर्पिणी होती है। अवसर्पिणीका प्रमाण भी यही है । अापल्योपमसे नरक निर्यच्च देव और मनुष्योंकी कर्मको स्थिति, आयुकी स्थिति कायकी स्थिति और भवकी स्थिति गिनी जाती है । तिर्यच्चों की स्थिति तिर्यग्योनिजानाञ्च ।। ३९ ॥ मनुष्योंकी तरह तिर्थों की भी उत्कृष्ट और जयन्य श्रायु क्रमसे तीन पल्य और अन्तर्मुहूर्त हैं । इस अध्याय में नरक, द्वीप, समुद्र, कुलपर्वत, पद्मादिह, गंगादि नदी, मनुष्यों के भेद, मनुष्य तिर्यको आयु आदिका वर्णन है । तृतीय अध्याय समाप्त मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ***** Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय देवोंके भेददेवाश्रतुर्णिकायाः ॥ १ ॥ देवों के चार भेद हैं- भवनगसी, व्यन्तर, ज्योतिपी और कल्पवासी । देवगति नाम कर्मके उदय होनेपर और नाना प्रकार की विभूति युक्त होनेके कारण जो द्वीप, समुद्र, पर्वत आदि स्थानों में अपनी इच्छानुसार क्रीड़ा करते हैं उनको देव कहते हैं । जातिकी अपेक्षा 'देवाश्चतुर्णिकाय: ' ऐसा एकवचनान्त सूत्र होनेपर भी काम चल जाता फिर भी सूत्र बहुवचनका प्रयोग प्रत्येक निकायके अनेक भेद बतलाने के लिये किया गया है। देवोंमें लेश्यका वर्णन आदिखिए पीतान्तलेश्याः ॥ २ ॥ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज वनवासी, व्यन्तर और ज्योति देवकृष्ण, नील. कापोत और पोत ये चार देखाएँ ही होती है । निकायों के प्रभेद दशपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ॥ ३ ॥ भवनवासी देवोंके दशभेद, व्यन्तर देबोंके आठ भेद, ज्योतिपी देवोंके पाँच भेद और कल्पोपपन्न अर्थात् सोलहवें स्वर्गत देवोंके बारह भेद होते हैं। मैवेयक आदिमें सब अहमिन्द्र ही होते हैं, इसलिये वहाँ कोई भेद नहीं है। देवोंक सामान्य भेदइन्द्रसामानिकायस्त्रिंशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्ण काभियोग्य किल्विषिका कशः ॥ ४ ॥ ܀ प्रत्येक निकाय देवों में इन्द्र, सामानिक, त्रयस्त्रिंश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल अनीक, प्रकीर्णक, अभियोग्य और किल्पिक - ये दश भेद होते हैं । इन्द्र - जो ऋन्य देवोंमें नहीं रहनेवाली अणिमा आदि ऋद्धियोंको प्राप्तकर असाधारणश्वका अनुभव करते हैं उनको इन्द्र कहते हैं । सामानिक - आज्ञा और ऐश्वर्यको छोड़कर जिनकी आयु. भोग, उपभोगादि इन्द्रके ही समान हो उनको सामानिक कहते हैं । त्रयस्त्रिंश- मंत्री और पुराद्दिन के कामको करनेवाले देव त्रयत्रिश कहलाते हैं । ये संख्या में तैंतीस होते हैं । परिषद सभामे बैठने के अधिकारी देवोंको पारिषद कहते हैं । आत्मरक्ष--इन्द्रकी रक्षा करनेवाले देव आत्मरक्ष कहलाते हैं । लोकपाल - जो देव अन्य देवोंका पालन करते हैं उन्हें लोकपाल कहते हैं। ये आरक्षिक, अर्थचर और कोट्टपालके समान होते हैं। जो ग्राम वादिकी रक्षा के लिये नियुक्त Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज नत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [४१.८ होते हैं उनको आरक्षक कहते हैं । अर्थ (धन) सम्बन्धी कार्य में नियुक्त अर्थ चर कहलाते हैं। पत्तन, नगर आदि की रक्षा के लिये नियुक्त ( कोट्टपाल ) कहलाते हैं। __ अनीक--जो इस्ति, अश्त्र, रथ, पदाति, वृषभ,गन्धर्व और नर्तकी इन सात प्रकारकी सेना में रहते हैं वे अनीक है।। प्रकीर्णक-नगरवासियोंके समान जो इधर उधर फैले हुये हो उनको प्रकीर्णक कहते हैं। आभियान्य-जो नौकरका काम करते हैं वे आभियोग्य हैं। किल्विपिका-किल्यिप पापको कहते हैं । जो सघारीमें नियुक्त हो तथा नाई आदिको तरह नीचकर्म करनेवाल होते हैं उनको किल्बिपक कहते हैं।। प्रायस्त्रिंशलोकपालवज्या व्यन्तरज्योतिषकाः ॥ ५ ॥ ग्रन्तर और ज्योतिषी देवों में प्रायशि और लोकपाल नहीं होते हैं । इन्द्रोंकी व्यवस्था-- पूर्वयोन्द्राः ॥६॥ भवनवासी और व्यन्तर दवों में प्रत्येक भेदसम्बन्धी दो दो इन्द्र होते हैं। भवनवासी देवों में असुरकुमारोंक चमर और वैरोचन, नागकुमारोंके धरण और भूतानन्द, विद्युत्तुमारोंके हरिसिंह और हरिकान्त, सुवर्णकुमारोंके वेणुदेव और वेणुताली, अग्निकुमारों के अग्निशिख और अग्निमाणव,बानकुमारोंके वेलम्ब और प्रभरज न,स्तनितकुमारोंके सुघोष और महापाप, उदधिकुमारोंके जलकान्त और जलप्रभ, दीपकुमारों के पूर्ण और अवशिष्ट, दिक्कुमारों के अमितगान और अमितवाहन, नाम के इन्द्र होते हैं। दान्तर दत्रों में किन्नरोंके किन्नर और किम्पुरूप, किम्पुरुषोंके सत्पुरुष और महापुरुष, महारगोंके अतिकाय और महाकाय, गन्धों के गीतरति और गीतयश. यक्षों के पूर्णभद्र और मणिभद्र, राक्षसों के भीम और महाभीम, भूतोके प्रतिरूप और अप्रतिरूप और पिशाचोंके काल और महाकार नामक इन्द्र होते हैं। देवोंक भोगोंका वर्णन-- कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ॥ ७ ॥ रेशान स्वर्गपर्यन्त के दब अर्थात् भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और प्रथम तथा द्वितीय स्वर्गके देव मनुष्य और तिर्यक चोंके समान शरीरसे काम सेवन करते हैं। मर्यादा और अभिविधि, क्रियायोग और ईपन अर्थ में "आ" उपसर्ग आता है। वथा वाक्य और स्मरण अर्थ में 'श्रा' उपसर्ग आता है. 'आ' उपसर्ग की स्वरपरे रहते सन्धि नहीं होती। इस सूत्र में श्रा और ए ( आ + ए) इन दोनों की सन्धि हो सकती थी लेकिन पन्नेहको दूर करनेके लिये आचार्य ने सन्धि नहीं की है। यहां आ अभिविधिके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । अभिविधिमें उस वस्तुका भी ग्रहण होता है जिसका निर्देश श्राके बाद किया जाता है । जैसे इस म्यूममें ऐशान स्वर्गका भी ग्रहण है। शेषाः स्पर्शरूपशब्द मनःप्रवीचाराः ।। शेप देव ( तृतीय स्वर्गग्मे सोलहवें स्वगतक) देवियों के स्पर्शसे, रूप देखने से, शब्द सुननेसे और मनमें स्मरण मात्रसे काम सुखका अनुभव करते हैं। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४१-१२] चतुर्थ अध्याय ४५ सनत्कुमार और माहेन्द्रस्वर्ग के देव और देवियाँ परस्परमें स्पर्शमात्रसे; ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ट स्वर्गके देव और देवियों एक दूसरेके रूपको देखने से शुक्र, महाशुक्र, शतार और 'सहस्रार स्वर्ग के देव और देवियाँ परस्पर शब्दश्रवणसे और आनत, प्राणत, भारत और अच्युप्त स्वर्गके देव और देवियों मनमें एक दूसरेके स्मरणमात्रसे अधिक सुरखका अनुभव करती हैं। परेप्रवीचाराः ।।६ ॥ नव प्रैवेयक, नव अनुदिश और पश्चोत्तर विमानवासी देव कामसेवनसे रहित होते हैं। इन देवोको कामसेवनकी इच्छा ही नहीं होती है। उनके तो सदा हर्ष और आनन्द रूप सुखका अनुभव रहता है । भवनवासाभद-आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः ।। १० ॥ __ भवनवासी देवोंके असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिकुमार-ये वश भेद हैं। भवनों में रहने के कारण इन देवोंको भवनवासी कहते हैं। जो परस्परमें दूसरोंको लड़ाकर उनके प्राणोंको लेते हैं उनको असुरकुमार कहते हैं । ये तृतीय नरक तकके नारकियोंको दुःख पहुँचाते हैं । पर्वत या वृक्षोंपर रहनेवाले देव नागकुमार कहलाते हैं। जो विद्युन्के समान चमकते हैं वे विद्युत्कुमार हैं। जिनके पक्ष ( पंख ) शोभित होते हैं. वे सुपर्णकुमार हैं। जो पाताल लोकसे क्रीड़ा करनेके लिये ऊपर आते हैं वे अग्निकुमार कहलाते हैं। तीर्थकरके विहारमार्गको शुद्ध करनेवाले वातकुमार हैं। शब्द करनेवाले देवोंको स्तनितकुमार कहते हैं। समुद्रोंमें क्रीड़ा करनेवाले उदधिकुमार । और द्वीपोंमें क्रीड़ा करनेवाले द्वीपकुमार कहलाते हैं। दिशाओं में क्रीड़ा करनेवालोंको दिक्युमार कहते हैं । असुरकुमारों के प्रथम नरकके एकबहुल भागमें और शेप भवनबासी देवोंके खरबहुल भागमें भवन हैं। व्यन्तरदेवोंके भेद-- व्यन्तराः किन्नर किम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ॥ ११ ॥ व्यन्तर देवों के किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच-ये आठ भेद होते हैं। नाना देशों में निवास करने के कारण इनको व्यन्तर कहते हैं। जम्बूद्वीपके असंख्यात द्वीप-समुद्रको छोड़कर प्रथम नरक के खर भागमें राक्षसोंको छोड़कर अन्य सात प्रकारके व्यन्तर रहते है और पङ्कभागमें राक्षस रहते हैं। ___ ज्योतिषी देवोंके भेदज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ॥ १२ ॥ ज्योतिपी देवोंके सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारा ये पाँच भेद है। ज्योति (प्रकाश) युक्त होनेके कारण इनको ज्योतिषी कहते हैं। इस पृथ्वी से सात सी नदचे योजनकी ऊँचाई पर ताराओं के विमान है । ताराओंसे Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [४।१३-१५ दश योजन ऊपर सूर्य के विमान हैं। सूर्यस अस्सी योजन ऊपर चन्द्रमाका विमान है। इसके बाद चार योजन ऊपर नक्षत्र हैं। नक्षत्रोंसे चार योजन ऊपर बुध, बुधसे तीन योजन ऊपर शुक्र, शुक्रसे तीन योजन ऊपर गृहस्पति, बृहस्पतिसे तीन योजन ऊपर मङ्गल और मंगलसे तीन योजन ऊपर शनैश्चर देव रहते हैं । इस प्रकार मङ्गलसे एक सौ वश योजन प्रमाण आकाशमें ज्योतिपी देव रहते हैं। सूर्यग्ने कुछ कम एक योजन नीचे केतु और चन्द्रमासे कुछ कम एक योजन नीचे राहु रहते हैं। __सब ज्योतिषी देवों के विमान ऊपर को स्थित अर्द्धगोलकके आकार के होते हैं। चन्द्रमा, सूर्य और ग्रहोंको छोड़कर शेष ज्योतिषी देव अपने अपने एक ही मार्गमें गमन करते हैं। ज्योतिषीदयोंकी गतिमेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥ १३ ॥ मनुष्यलोकके ज्योतिपी देव मेरुकी प्रदक्षिणा देते हुये सदा गमन करते रहते हैं। मनुष्यलोकसे बाहर ज्योतिपी देव स्थिर रहते हैं। प्रश्न- ज्योतिषी देवोंके विमान अचेतन होते हैं वो सहाराज उत्तर-आभियोग्य जातिके देषों द्वारा ज्योतिषी देवके विमान खींचे जाते हैं । आभियोग्य देवोंका कर्मविपाक अन्य ज्योतिषी देवोंक विमानों को खींचने पर ही होता है। मेरु से ग्यारहसौ इक्कीस योजन दूर रहकर ज्योतिषी देव भ्रमण करते रहते हैं। ___ जम्यू द्वीपमें दो सूर्य, छप्पन नक्षत्र और एक सौ छिहत्तर ग्रह हैं। लवणसमुद्र में चार सूर्य, एक सौ यारह नक्षत्र और तीन सौ बावन्न ग्रह है। ___ धातकीखण्डद्वीपमें बारह सूर्य, तीन सी छत्तीस नक्षत्र और एक हजार छप्पन ग्रह है। कालोद समुद्र में ब्यालीस सूर्य, ग्यारह सौ छिहत्तर नक्षत्र और तीन हजार छह सौ निन्यानवे ग्रह है । और पुष्कराई द्वीपमें बहत्तर सूर्य, दो हजार सोलह नक्षत्र और छह हजार तीन सौ छत्तीस ग्रह हैं। चन्द्रमाओंकी संख्या सूर्य के बरायर है। प्रत्येक चन्द्रमा के ग्रहोंकी संख्या अठासी हैं। और नक्षत्रोंकी संख्या अहाईस है। मानुपोत्तर पर्वतसे बाहरके सूर्यादिको संख्या आगमानुसार समझ लेनी चाहिये। व्यवहारकालका हेतु तत्कृतः कालविभागः ॥ १४ ॥ दिन, रात, मास आदि व्यवहारकालफा विभाग नित्य गमन करने वाले ज्योतिषी देवों के द्वारा किया जाता है। कालके दो भेद हैं- मुख्यकाल और व्यवहार काल | मुख्यकालका वर्णन पाँचवें अध्यायमें किया जायगा। समय, श्रावली, मिनिट, घण्टा, दिन-रात आदि व्यवहारकाल है। पहिरवस्थिताः ॥१५॥ मनुष्यलोकसे बाहरके सब ज्योतिषी देव स्थिर हैं। चन्द्रमाके विमानके उपरितन भागका विस्तार प्रमाणयोजनके इकसठ भागों में से छप्पनभाग प्रमाण ( योजन) है और सूर्यके विमानके उपरितनभागका विस्तार प्रमाण Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४।१६-१९] चतुर्थ अध्याय योजनके इकसठ भागों में से अड़तालीस भाग प्रमाण (१६ योजन) है। शुक्रके विमानका विस्तार एक कोश, बृहस्पत्तिके विमानका विस्तार कुछ कम एक कोश और मङ्गल, बुध और शनिके विमानोंका विस्तार आधा कोश है। वैमानिक देवोंका वर्णन वैमानिकाः ॥१६॥ विमानों में रहनेवाले देव वैमानिक कहलाते हैं। जिनमें रहनेवाले जीव अपनेको विशेष पुण्यात्मा समझते हैं उनको विमान कहते हैं । विमान तीन प्रकारके होते हैंइन्द्रकविमान, श्रेणिविमान ओर प्रकीर्णक विमान । मध्यवर्ती विमानको इन्द्रक विमान कहते है । जो विमान चारों दिशाओं में पंक्ति में अवस्थित रहते हैं वे श्रेणिविमान हैं। इधर उधर फैले हुए अक्रमबद्ध विमान प्रकीर्णक विमान हैं। इन विमानोमें जो देवप्रासाद है तथा जो शाश्वत जिनचैत्यालय हैं, वे सब अकृत्रिम हैं। इनका परिमाण मानवयोजन कोश आदिसे जाना जाता है। अन्य शाश्वत या अकृत्रिम पदार्थों का परिमाण प्रमाणयोजन कोश आदिसे किया जाता है। यह परिभाषा है। परिभाषा नियम बनानेवाली होती है। वैमानिक देवोंके भेद कल्पोपपलदिशकरपातीलाचा श्रीसुविहिसागर जी महाराज वैमानिक देवोंके दो भेद हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत ! कल्प अर्थात् सोलह स्वाँमें उत्पन्न होनेवाले देव कल्पोपपन्न और नववेयक, नव अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानामें उत्पन्न होनेवाले देव कल्पातीत कहलाते हैं। यद्यपि भवनवासी व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में भी इन्द्र आदिका कल्प या भेद है फिर भी रूढिके कारण वैमानिक देवोंकी ही कल्पोपपन्न संज्ञा है। विमानोंका क्रम उपयुपरि ॥ १० ॥ कल्पोपपन्न और कल्पातीत देवोंके विमान क्रमशः ऊपर ऊपर है। अथवा उपरि उपरि शब्द समीपयाची भी हो सकता है। इसलिये यह भी अर्थ हो सकता है कि प्रत्येक पटलमें दो दो स्वर्ग समीपवर्ती हैं। जिस पटल में दक्षिण दिशामें सौधर्म स्वर्ग है, उसी पटल में उत्तर दिशामें उसके समीपवर्ती गेशान स्वर्ग भी है। वैमानिक देवोंके रहनेका स्थानसौधर्मशानसानत्कुमार माहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोचालान्तवकापिष्टशुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेवानतप्राणतयोरारणाच्युतयोनवसु वेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥ १६ ॥ सौधर्म ऐशान सानत्कुमार माहेन्द्र ब्रा ब्रह्मोत्तर लान्नव कापिष्ट शुक्र महाशुक्र शतार सहस्रार आनत प्राणत आरण और अच्युत इन सोलह स्वाँ में तथा नवमेवेयक नय अनुर्दिश और विजय वैजयन्त जयन्त अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पांच अनुत्तार चिमानों में धैमानिक देव रहते हैं। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्त्रार्थवृत्ति हिन्दी सार इस सूत्र में यद्यपि नव [ ४१९ अनुदिशोंका नाम नहीं आया है लेकिन 'नवसु मैवेयकेषु' मैं नव शब्दको नव अनुदिशोंको ग्रहण करने के लिये पृथक् रखा गया है। सूत्र में सर्वार्थसिद्धिको सर्वोकृष्ट होनेके कारण सर्वार्थसिद्ध" इस प्रकार पृथक् रक्खा गया है। प्रत्येक स्वर्गका नाम उस स्वर्गके इन्द्र के नामसे पड़ा है। L ४०८ सबसे नीचे सौधर्म और ऐशान कल्प हैं। और इनके ऊपर अच्युत स्वर्ग पर्यन्त क्रमशः दो दो कल्प हैं। आरण और अच्युत कल्पके ऊपर नव मैवेयक, नव मैत्रेयकों के ऊपर नव अनुदिश और नव अनुदिशों के ऊपर पांच अनुत्तर विमान हैं । एक लाख योजनांचा मेरुपर्वत है। मेरुपर्वतकी चोटी और सौधर्मस्वर्ग के इन्द्रक ऋतुविमान में एक बालमानका अन्तर है । मेरुसे ऊपर ऊर्ध्वलोक मेरुसे नीचे अधोलोक और मेरुके बराबर मध्यलोक या तिर्यक् लोक हैं । सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के इकतीस पटल हैं। उनमें प्रथम ऋतु पटल है। ऋतु पटल के बीच में ऋतु नामक पैंतालीस लाख योजन विस्तृत इन्द्रक ( मध्यवर्ती ) विमान है । ऋतु विमान से चारों दिशाओं में चार विमान श्रेणियाँ है । प्रत्येक विमानश्रेणी में बासठ विमान हैं। विदिशाओं में प्रकीरक विमान हैं । ऋतु पटलसे ऊपर प्रभा नामक अन्तिम मार्गदर्शक :- आचार्य श्री रामानोंकी संख्या कमसे एक एक कम होती गई पटल प्रत्येक हैं। इस प्रकार अन्तिम पलमें प्रत्येक दिशा में बत्तीस श्रेणी विमान हैं। प्रभा नामक - इकतीसवें पटलके मध्य में प्रभा नामक इन्द्रक विमान है। इन्द्रक विमानकी चारों दिशाओं में चार विमान श्रेणियाँ हैं। प्रत्येक विमान श्रेणी में बत्तीस विमान हैं। दक्षिण दिशा में जा विमानश्रेणी है उसके अठारहवें विमान में सौधर्म इन्द्रका निवास है । और उत्तर दिशा के अठाहरवें विमान में ऐशान इन्द्र रहता है। उक्त दोनों विमानोंके तीन तीन कोट हैं । बाहर के कोटमें अनीक और परिपत्र जातिके देव रहते हैं। मध्यके कोटमें त्रायशि देव रहते हैं और तीसरे कोटके भीतर इन्द्र रहता है। इस प्रकार सब स्त्रों में इन्द्रोंका निवास समझना चाहिये । पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशाको तीन विमान श्रेणियाँ और आग्नेय और नैर्ऋत्य दिशा से प्रकीर्णक विमान सौधर्म स्वर्गकी सीमा में हैं। उत्तर दिशाकी एक विमान श्रेणी और ईशान दिशा के प्रकीर्णक विमान ऐशान स्वर्गकी सीमा में हैं । इसके ऊपर सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग हैं | इनके सात पटल हैं। प्रथम अखन पटल के मध्य में अञ्जन नामक इन्द्रक विमान हैं। इन्द्र विमानकी चारों दिशाओं में चार विमान श्रेणियाँ हैं। प्रत्येक श्रेणी में इकतीस विमान हैं। प्रथम पटलसे अन्तिम पटल पर्यन्त प्रत्येक पटल में प्रत्येक श्रेणीमें विमानोंकी संख्या क्रमशः एक एक कम है। सातवें पटल में इन्द्रक विमानकी चारों दिशाओं में चार विमान श्रेणियाँ हैं । प्रत्येक श्रेणी में पच्चीस विमान हैं । इस पटल की दक्षिण श्रेणीके पन्द्रह विमानमें सानत्कुमार पन्द्रह विमान में माहेन्द्र इन्द्र रहते हैं । और उत्तर श्रेणीके प्रथम अरिष्ट पटलके श्रेणियों हैं । प्रत्येक इसके ऊपर ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्ग हैं। इनके चार पटल हैं। मध्य में अरिष्ट नामक इन्द्रक विमानकी चारों दिशाओं में चार विमान श्रेणी में चौबीस विमान हैं। ऊपर के पटलों में श्रेणीविमानोंकी संख्या क्रमशः एक एक कम है। चौथे पटल में प्रत्येक श्रेणी में इक्कीस विमान हैं। इस पटलकी दक्षिण श्रेणी के बारहवें विमान में ब्रह्मेद्र और उत्तर श्रेणीके बारहवें विमान में ब्रह्मोत्तर इन्द्र रहते हैं । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४।१९] चतुर्थ अध्याय इसके ऊपर लान्तब और कापिष्ट स्वर्ग हैं। इनके दो पटल है ब्रह्महृदय और लान्तबम पटलुकी लाशयेक निमाणी में बीस किमान हैं। और द्वितीय पटल प्रत्येक विमानश्रेणी में उन्नीस विमान है। इस पटेलको दक्षिण श्रेणीक नौवं विमान में लान्तव और उत्तर श्रेणी के नौवें विमानमें कापिष्ट इन्द्र रहने हैं। इसके ऊपर शुक्र और महाशुक्र स्वर्ग हैं। इनमें महाशुक्र नामक एक ही पटल हैं। इस पटलके मध्य महाशुक्र नामक इन्द्रक विमान है। चारों दिशाओं में चार विमानश्रेणियो हैं। प्रत्येक बिमानश्रेणी में अठारह विमान हैं। दक्षिण अंगीके बारहवें बिमानमें शुक्र और उत्तर श्रेणी के बारहवें विमानमें महाशुक्र इन्द्र रहते हैं। इसके ऊपर शतार और सहस्रार स्वर्ग हैं। इनमें सहस्रार नामक एक ही पटल है। चारों दिशाओंकी प्रत्येक श्रेणी में सत्रह विमान हैं। दक्षिण श्रेणी के नौ विमानम शतार और उत्तर श्रेणीके नौवें विमानमें सहस्रार इन्द्र रहते है। इसके ऊपर आनत, प्रागत, आरण और अच्युत मर्ग हैं। इनमें छह पटल हैं। अन्तिम अच्युत पटलके मध्य में अच्युत नामक इन्द्रक विमान है. । इन्द्रक विमानसे चारों दिशाओं में चार बिमानश्रेणियाँ हैं। प्रत्येक विमानश्रेणी में ग्यारह विमान हैं। इस पटलकी दक्षिण श्रेणीके छठवें विमानमें आरण और उत्तर श्रेणी के छठये विमानमें अच्युन इन्द्र रहते हैं। ___ इस प्रकार लोकानुयोग नामक ग्रन्थ में चौदह इन्द्र बतलाये हैं। श्रुतसागर आचार्यके मतसे तो बारह ही इन्द्र होते हैं। आदिके चार और अन्तके चार इन आठ स्वर्गाके आठ इन्द्र और मध्यके आठ स्वाँक चार इन्द्र अधीन ब्रह्म, लान्तन, शुक और शतार इस प्रकार सोलह स्त्रों में बारह इन्द्र होते हैं। विमानोंकी संख्या-सौधर्म स्वर्गमें बत्तीस लाख, एशान स्वर्ग में अट्ठाईस लाख, सानत्कुमार स्वर्ग में बारह लाख, माहेन्द्र में आठ लाख, ब्रह्म और ब्रह्मात्तरमें चालीस लाख, लान्तव और कापिष्टमें पचास हजार, शुक्र और नहाशुक्रमें चालीस हजार, शतार और सहस्त्रारमें छा हजार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्ग में सात सी विमान है। प्रथम तीन बेयकों में एक सौ ग्यारह, मध्यके तीन वेयकोंमें एक सौ सात और ऊपर के तीन मैवेयकों में एकानचे विमान हैं। नव अनुदिशमें नौ विमान हैं। सर्वार्थसिद्धि पटल में पाँच विमान हैं जिनमें मध्यवर्ती विमानका नाम सर्वार्थ सिद्धि है। पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशामें क्रमसे विजय, बैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमान है। विमानोंका रंग-सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के विमानोंका रङ्ग श्वेत, पीला, हरा, लाल और काला है । सानत्कुमार और महेन्द्र स्वगर्भ विमानोंका रङ्ग श्वेन, पीला, हरा और लाल है । अमा, ब्रह्मोत्तर, लान्तब और कापिष्ट स्वर्ग में विमानोंका रंग श्वेत,पीला और लाल है। शुक्रसे अच्युत स्वर्ग पर्यन्त विमानों का रंग श्वेत और पीला है । नत्र ग्रंबेयक, नव अनुदिश और अनुत्तर विमानोंका रंग श्वेत ही है। सर्वार्थसिद्धि विमान परमशुक्ल हैं और इसबार विस्तार जम्बूद्वीपके समान है । अन्य चार विमानोंका विस्तार असंख्यात करोड योजन है। उक्त वेसट पटलोंका अन्तर भी असंख्यात करोड़ याजन है। मेरुसे ऊपर डद राजू पर्यन्त क्षेत्रमें सौधर्म और एशान स्वर्ग हैं। पुन: डेड़ राज श्माण क्षेत्रमें सानरकुमार और माहेन्द्र स्वर्ग है। ब्रह्मसे अच्यूत स्वर्ग पर्यन्त दो दो स्वाँकी ऊँचाई आधा राजू है । और वेयकसे सिद्धशिला तक एक राज़ ऊंचाई है । अवलोकमें जितने विमान है सभीमें जिनमन्दिर हैं। ५२ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० तस्यार्थवृत्ति हिन्दी-सार वैमानिक देवों में उत्कर्ष स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्या विशुद्धीन्द्रियावश्विविषयतोऽधिकाः ।। २० ।। वैमानिक देवोंमें क्रमशः ऊपर ऊपर आयु, प्रभाव-शाप और अनुग्रहकी शक्ति, सुखइन्द्रियसुखदीम-शरीर कान्ति लेश्याओंकी विशुद्धि, इन्द्रियों का विषय और विज्ञानके पियकी पाई जाती है । वैमानिक देवों में अपकर्ण - गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ॥ २१ ॥ | ४।२०२२ वैमानिक देव गमन, शरीर, परिग्रह और अभिमानको अपेक्षा क्रमशः ऊपर ऊपर हीन हैं । ऊपर ऊपर के देशों में गमन, परिग्रह और अभिमान की होनता है । शरीरका परिमाण - सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में शरीर की ऊँचाई सात अरदिन, सानत्कुमार और माहेन्द्र में छह अरहिन, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लान्तव और कापिड में पाँच अरत्नि, शुक्र महाशुक्र शतार और सहस्रार में चार अरत्नि, आनत और प्राणतमें साढ़े तीन अरत्नि और आरण और अच्युतमें तीन अरत्नि शरीरकी ऊँचाई है। प्रथम तीन मैवेयकोंमें ढाई अरत्नि, मध्यमैवेयक में दो अरत्नि, ऊर्ध्वं मैवेयक और नव अनुदिशमें डेढ़ अरत्नि शरीरकी मार्गदर्शक: ऊँचार्य श्रीमनारीरकी ऊँचाई केवल एक हाथ है। मुंडे हाथको अरहिन कहते हैं । वैमानिक देषों में लेश्याका वर्णन - पीतप शुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥ २२ ॥ युग में तो लेश्या होती है । में और शेष के विमानों में क्रमशः पीत, पद्म और शुक्ल सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में पीत लेश्या होती है। विशेष यह है कि सनत्कुमार और माहेन्द्र में मिश्र-पीत और पद्म लेश्या होती है। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तय, कापिष्ट, शुक्र और महाशुक्र स्वर्ग में पद्म लेश्या होती है। लेकिन शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार स्वर्ग में मिश्र - पद्म और शुक्ल लेश्या होती है। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्ग में और नव मैवेयकों में शुक्ल लेश्या होती है। नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानों में परमशुक्ल लेश्या होती है । यद्यपि सूत्र मिश्रलेश्याका ग्रहण नहीं किया है किन्तु साहचर्य से मिश्रका भी प्रद्दण कर लेना चाहिये, जैसे 'छाते वाले जा रहे हैं' ऐसा कहने पर जिनके पास छाता नहीं है। उनका भी ग्रहण हो जाता है उसी प्रकार एक लेश्या के कहने से उसके साथ मिश्रित दूसरी लेश्या का भी ग्रहण हो जाता है । सूत्रका अर्थ इस प्रकार करना चाहिये सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में पीत लेश्या और सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में मिश्र-पीत और पद्मश्या होती है। लेकिन पद्मलेश्याकी विवक्षा न करके सानत्कुमार और माहेन्द्रस्वर्ग पीतलेश्या ही कही गई है। ब्रह्मसे लान्तष स्वर्ग पर्यन्त पद्मलेश्या और शुक्र से सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त मिश्र पद्म और शुक्ल लेश्या होती है लेकिन शुक्र और महाशुक्र में शुक्ललेश्या at for a करके पद्म लेश्या ही कही गई है। इसी प्रकार शतार और सहस्रार स्वर्ग में पद्मलेश्याको विवक्षा न करके शुक्ललेश्या ही सूत्र में कही गई है। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२३-२५] चतुर्थ अध्याय :- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः ॥ २३ ॥ प्रैवेयकोंसे पहिलेके विमानों की कल्प संज्ञा है । अर्थात् सोलह स्वर्गोको कल्प कहते हैं । नब मैंवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमान कल्यातीत कहलाते हैं। लौकान्तिक देयोंका निवास अमलोकालया लौकान्तिकाः ॥ २४ ॥ लौकान्तिक देय ब्रह्मलोक नामक पांचवें स्वर्गमें रहते हैं। प्रश्न-यदि ब्रह्मलोकमें रहनेके कारण इनको लौकान्तिक कहते हैं तो ब्रह्मलोकनिवासी सच देवोंको लौकान्तिक कहना चाहिये। उसर-लौकान्तिक यह यथार्थ नाम है और इसका प्रयोग ब्रह्मलोक निवासी सब देवों के लिये नहीं हो सकता । लोकका अर्थ है ब्रह्मलोक । प्रहालोकके अन्सको लोकान्त और लोकान्तमें रहनेवाले देवोंका नाम लौकान्तिक है। अथवा संसारको लोक कहते हैं। और जिनके संसारका अन्त समीप है उन देवोंको लौकान्तिक कहते है। लौकान्तिक देव स्वर्गसे मयुत होकर मनुष्य भव धारणकर मुक्त हो जाते हैं। अतः लौकान्तिक यह नाम सार्थक है। लौकान्तिक देवोंके भेदसारस्वतादित्पबह्वथरुणगर्दतोयतुषिताव्याचाधारिष्टाश्च ॥ २५॥ सारस्वत, आदित्य, यहि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अब्याबाध और अरिष्ट ये पाठ प्रकारके लौकान्तिक देव होते हैं। ___ जो चौदह पूर्व के शाता हों वे सारस्वत कहलाते हैं। देवमाता अदितिकी सन्तानको आदित्य कहते हैं। जो वहिके समान देदीप्यमान हों वे वहि हैं । उदीयमान सूर्य के समान जिनकी कान्ति हो वे अरुण कहलाते हैं। ___शब्दको गर्द और जलको तोय कहते हैं। जिनके मुखसे शब्द जलके प्रवाहकी तरह निकलें वे गर्दतोय है। जो संतुष्ट और विषय सुखसे परान्मुख रहते है वे तुषित हैं । जिनके कामादिजनित बाधा नहीं है वे अन्यायाध है। जो अकल्याण करने वाला कार्य नहीं करते हैं वनको अरिष्ठ कहते हैं। सारस्वत आदि देवों के विमान क्रमशः ईशान, पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैर्ऋत्य, पश्चिम, यायन और उत्तर दिशामें हैं। इनके अन्तरालमें भी दो दो देवॉक विमान हैं । सारस्वत और आदित्य के अन्तराल में अग्न्याभ और सूर्याभ, आदित्य और वहिके अन्तरालमें चन्द्राम और सस्याभ,यहि और अरुणके अन्तराल में श्रेयस्कर और क्षेमंकर,अरुण और गर्दतोयके अन्तरालमें वृषभेष्ट और कामचर,गर्दतीय और तुषितके मध्य में निर्माणरज और दिगन्तरक्षित, तुषित और अन्यावाधके मध्यमें यात्मरक्षित और सर्वरक्षित, अध्याषाध और अरिष्टके मध्यमें मरुत और बसु और अरिष्ठ और सारस्वतके मध्यमें अपूर्व और विश्व रहते हैं। सब लौकान्तिक स्वाधीन, विषय सुखसे परान्मुख, चौदह पूर्व के बाता और देवोंसे पूज्य होते हैं । ये देव तीर्थंकरोंके तपकल्याणकमें ही आते हैं। __ लौकान्तिक देवोंकी संख्या चार लाख सात हजार आठ सौ बीस है। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [४१९६-२, विजय श्रादि विमानवासी देवोंकी संसारकी अवधि विजयादिषु द्विचरमाः ॥ २६ ।। विजय, मार्गदर्शक जयन्सौर्य प्रारविवाशमानताबी हालिन्द्र मनुष्य के दो भव धारणकर नियमसे मोक्ष चले जाते हैं । यहाँ मनुष्यभवकी अपेक्षासे इनको द्विचरम कहा है। कोई भी अहमिन्द्र विजयादिसे च्युत होकर मनुष्यगति में आयगा. पुनः वह मनुष्यभव समाप्त कर विजयादिमें ही उत्पन्न होगा। फिर विजयादिसे फ्युत होकर मनुष्यभव धारणकर नियमम मोक्ष चला जायगा, इस प्रकार मनुष्यभवकी अपेक्षा दो भव और मनुष्यभवमें देव पर्यायको भी मिला देनेसे दो मनुष्यभव और एक देवभव इस प्रकार विजय आदिमें उत्पन्न होनेवाले अहमिन्द्रोंके तीन भत्र और बाकी रह जाते हैं। लेकिन सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र एकमवायतारी होते हैं। वे मनुष्यका एक भव धारण करके ही मोक्ष चले जाते हैं। तिर्यवांका वर्णनऔपयादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ॥ २७ ॥ उपपाद जन्मवाले देव और नारकी तथा मनुष्योंको छोड़कर शेष समस्त संसारी जीव तिर्यश्च हैं । तिर्यश्च सम्पूर्ण लोकमें व्याप्त है। भवनवासी देवोंकी उत्कृष्ट आयुस्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमार्द्धहीनमिताः ॥२८॥ भवनवासी देवों में असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, दीपकुमार और शेपके छह कुमारोंकी उत्कृष्ट आयु क्रमसे एक सागर,तीन पल्य,अढ़ाई पल्य,दो पल्य और डेढ़ पन्य है । चैमानिक देवोंकी उत्कृष्ट आयु सौधर्मशानयोः सागरोपमे अधिके ॥ २९ ॥ ___ सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंकी उत्कृष्ठ आयु कुछ अधिक दो सागर है । 'अधिक' इस शब्दकी अनुवृत्ति सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त होती है। इसलिये सहस्रार तकके देवोंकी आयु कथित सागरोसे कुछ अधिक होती है । सौधर्म और ऐशान स्वर्गक पदलोंमें आयुका वर्णन-प्रथम पटलमें ६६६६६६६ करोड़ पल्य और इतने ही पल्य तथा पल्यके तीन विभागों से दो भाग उत्कृष्ट आयु है। दूसरे पटल में १३३३३३३३ करोड़ पल्य तथा ३३३३३३३ पल्य और पल्यक तीन भागोंमें से एक भाग आयु है। तीसरे पटलमें दो कोडाकोड़ी पल्यकी आयु है। चौथे पटलमें २६६६६६६६ करोड़ पल्य तथा ६६६६६६६ पल्य और पल्यके तीन भागों में से दो भाग प्रमाण आयु है । पाँचवें पटलमें ३३३३३३३३ करोड़ पत्य तथा ३३३३३३३ पल्य और पत्यके तीन भागों में से एक भाग प्रमाण आयु है। छवे पटलमें चार कोडाकोड़ी पल्यकी आयु है। सातवें पटलमें ४६६६६६६६ करोड़ पल्य तथा ६६६६६६६ पल्य और पल्यके तीन भागोंमें से दो भाग प्रमाण आयु है । आठवें पटलमें ५३३३३३३३ करोद पत्य और ३३३३३३३७ पल्यकी श्रायु है । नौवें पटलमं छह कोड़ाकोड़ी पल्यकी आयु है। दसवे पटलमें ६६६६६६६६ करोड़ पल्य और ६६६६६६६३ पल्यकी आयु है । म्यारहवे पटल में ७३३३३३३३ करोड़ पल्य और ३३३३३३३३ पल्यकी आयु है । बारहवें पटलमै आठ कोडाकोड़ी पल्यकी आयु है । तेरहवें Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ ४१३०-३१ ] चतुर्थ अध्याय मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज पटलमै ८६६६६६६६ करोड़ पल्य और ६६६६६६६ पल्यकी आयु है। चौदहवें पटल में ९३३३३३३३ करोड़ पल्य और ३३३३३३३५ पल्यकी आयु है । पन्द्रहवें पटल में एक सागरकी आयु है । सोलहवें पटल में एक सागर, ६६६६६६६ करोड़ पल्य और ६६६६६६६६ पयकी आयु है। सत्रहवें पटल में एक सागर, १३३३३३३३ करोड़ पल्य और ३३३३३३३५ पल्यकी आयु है । अठारहवें पटलमें बारह कोड़ाकोड़ी पल्यकी आयु हैं । उन्नीस पटल १२६६६६६६६ करोड़ पल्य और ६६६६६६६ पल्यकी आयु है। बीसवें पटलमें १३३३३३३३३ करोड़ पल्य और ३३३३३३३३ पल्यकी आयु है । इक्कीसवें पटल चौre arrest पल्यकी आयु है । बाईसवें पटल १४६६६६६६६ करोड़ पल्य और ६६६६६६६१ पल्यकी आयु है। तेईसर्वे पटल में १५३३३३३३३ करोड़ पल्य और ३३३३३३१३ पल्यकी आयु है। चौबीसवें पटल में सोलह कोड़ाकोड़ी पल्यकी आयु है । पश्चीसवें पटल में १६६६६६६६६ करोड़ पल्य और ६६ ६६६६ पल्यकी आयु है । छब्बीसवें पटल में १७३३३३३३३ करोड़ पल्य और ३३३३३३३३ पल्यको आयु है । सत्ताईसवें पटल में अठारह कोड़ाकोड़ी पकी आयु है । अट्ठाईस पटल में १८६६६६६६६ करोड़ पल्य और६६६६६६६ पल्यकी आयु है । उनतीसवें पटल में १९३३३३३३३ करोड़ पल्य और ३३३३३३३३ पल्यकी आयु है। तोसवें पटल में बोस कोड़ाकोड़ी पल्यकी आयु है । और इकतीसवें पटल में कुछ अधिक दो सागरकी आयु है । I सानत्कुमार माहेन्द्रयोः सप्त ।। ३० । सानकुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में देवोंकी आयु कुछ अधिक सात सागर है। प्रथम पटल २ सागर, द्वितीय पटल में ३ सागर, तीसरे पटल ४३ सागर, चौथ पटल में 3 सागर, पाँचवें पटल में ५, छठवें पटल में ६ और सातवें पटल में कुछ अधिक सात सागरकी 'आयु है । त्रिसन वैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि तु ॥ ३१ ॥ ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में दश सागर से कुछ अधिक, लान्तव और कापिष्ट स्वर्ग में चौदह सागर से कुछ अधिक, शुक्र और महाशुक्र में सोलह सागरसे कुछ अधिक, शतार और सहस्रार में अठारह सागर से कुछ अधिक, आनत और प्राणत में बीस सगर और आरण और अच्युतमें बाईस सागरकी उत्कृष्ट आयु है। इस सूत्र में 'तु' शब्द यह बतलाता है कि पूर्वसूत्रके 'अधिके' शब्दकी अनुवृत्ति सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त हो होती है। अतः आगे के स्वर्गों में आयु सागरों से कुछ अधिक नहीं है । ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्गके प्रथम पटल में पड़े सागर, द्वितीय पटल में ८३ सागर, तीसरे पटल में ९ सागर और चौथे पटल में दश सागर से कुछ अधिक आयु है । लान्तव और कापिष्ट स्वर्गके प्रथम पटल में बारह सागर और दूसरे पटल में कुछ अधिक चौदह सागरकी आयु है। शुक्र और महाशुक्र में एक ही पटल है । शतार और सहस्रार में भी एक ही पटल है । आनत, प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्गमें छह पटल है। प्रथम पटल में सागरके तीसरे भागसे कुछ अधिक कम उन्नीस सागर की आयु है। दूसरे पदलमें बीस सागर, तीसरे पटल में २० सागर, चौथे पटल में इक्कीस सागर, पाँचवें पटल में २१ सागर और छटवें पटल में बाईस सागरकी आयु है । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ ४॥३२-३८ आरणाच्युतालमेकैकन नवसु प्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥ ३२ ॥ भारण और अच्युत स्वर्ग से ऊपर नव अवेयकों में, नष अनुदिशों में और विजय आदि विमानों में एक एक सागर बढ़ती हुई आयु है । सूत्र में नव शब्दका प्रण यह बतलाता है कि प्रत्येक प्रैवेयकमें एक एक सागर आयुकी वृद्धि होती है । 'विजयादिषु' में आदि शाब्द के द्वारा नव अनुदिशेका ग्रहण होता है। इस प्रकार प्रथम वेयकमें तेईस सागर और मवमें प्रैवेयकमें इकतीस सागरकी आयु है। नव अनुदिशों में बत्तीस सागर और विजय आदि पाँच विमानों में तेंतीस सागरकी उत्कृष्ट आयु है । सर्वार्थसिद्धिमें जघन्य आयु नहीं होती इस बातको बतलाने के लिये सूत्रमें मार्गदर्शर्वार्थसिन्धिामदलो सुस्वाहासागर जी महाराजेयकोंके नाम–१ सुदर्शन, २ अमोध, ३ सुप्रबुद्ध, ४ यशोधर, ५ सुभद्र, ६ सुविशाल, " सुमनस, ८ सौमनस और ९ प्रीतिकर । स्यों में जघन्य आयुका वर्णन अपरा पल्योपममधिकम् ।। ३३ ।। सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के प्रथम पटलमें कुछ अधिक एक पल्यकी आयु है। परतः परतः पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा ।। ३४ ।। पहिले पहिलेके पटल और स्वाँकी आयु आगे आगेके पटलों और स्वर्गोको जघन्य आयु है । अर्थात् सौधर्म और ऐशान स्वर्गकी उत्कृष्ट स्थिति सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में जघन्य प्रायु है। इसी क्रमसे विजयादि चार विमानों तक जघन्य आयु जान लेना चाहिये । नारकियोंकी जघन्य अायु- नारकाणाश्च द्वितीयादिषु ॥ ३५ ॥ पहिले पहिलेके नरकोंकी उत्कृष्ट आयु दूसरे आदि नरकोंमें जघन्य आयु होती है। इस प्रकार दूसरे नरकमें जघन्य आयु एक सागर और सातवें नरककी जघन्य आयु बाईस सागरकी है। दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् ॥ ३६ ॥ पहिले नरकमें जघन्य आयु दश हजार वर्षकी है। यह जघन्य आयु प्रथम पटलमें है। प्रथम पटलकी उत्कृष्ट स्थिति नब्बे हजार वर्ष द्वितीय पटलकी जघन्य आयु है। इसी प्रकार आगेके पदोंमें जघन्य आयुका क्रम समझ लेना चाहिये। भवनवासियोंकी जघन्य आयु-- भवनेषु च ॥ ३७ । भवनवासियोंकी जघन्य आयु दश हजार वर्षकी है। व्यन्तरोंकी जघन्य आयु व्यन्तराणाश्च ॥ ३८॥ व्यन्तर देवाकी भी जघन्य आयु दश हजार वर्षकी हैं । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.३९-] चतुर्थ अध्याय ४१५ न्यन्तरोंकी उत्कृष्ट स्थिति परा पल्योपममधिकम् ।। ३९ ॥ व्यन्तर देवोंकी उत्कृष्ट आयु एक पल्यसे कुछ अधिक है। ज्योतिषी देवोंकी उत्कृष्ट आयु ज्योतिष्काणाश्च ॥४०॥ ज्योतिषी देवोंकी भी उत्कृष्ट आयु कुछ अधिक एक पल्यकी है। ज्योतिषी देषोंकी जघन्य आयु– तदष्टभागोऽपरा ॥४१॥ ज्योतिषी देयोंकी जयन्य आयु एक पल्यके आठवें भाग प्रमाण है। विशेष-चन्द्रमाफी एक पल्य और एक लाख वर्ष, सूर्यको एक पल्य और एक हजार वर्ष, शुक्रकी एक पल्य और सौ वर्ष वृहस्पतिकी एक पल्य, बुधकी आधा पल्य, नक्षत्रों की आधा पल्य और प्रकीर्णक ताराओंकी , पल्प उत्कृष्ट आयु है । प्रकीर्णक ताराओंकी और नक्षत्रोंकी जघन्य स्थिति पत्यके आठवें भाग ल्याण है और सर्यादिकोंकी जघन्य श्रायु पत्यके चौथे भागावपल्यै ) प्रमाणा लौकान्तिक देवोंकी आयु लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमानि सर्वेषाम् ।। ४२ ।। समस्त लौकान्तिक देवोंको आयु आठ सागरकी है। इन देवों में जघन्य और उत्कृष्ट आयुका भेद नहीं है। सब लोकान्तिक देवोंके शुक्ल लेश्या होती है । इनके शरीरकी ऊँचाई पाँच हाथ है। इस अध्यायमें देवोंके स्थान, भेद, सुख, स्थिति आदि का वर्णन है। चतुर्थ अध्याय समाप्त Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज पञ्चम अध्याय अजीब तत्वका वर्णनअजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥१॥ धर्म,अधर्म,अाकाश और पुद्गल ये चार द्रव्य अजीवक्राय हैं। शरीरके समान प्रलय या पिण्ड रूप होनेके कारण इन द्रव्योंको अजीवकाय कहा है । यद्यपि काल द्रव्य भी अजीव है लेकिन प्रचयरूप न होने के कारण कालको इस सूत्र में नहीं कहा है। काल दुव्यके प्रदेश मोती के समान एक दूसरेसे पृथक् हैं । निश्चयनयसे एक पुद्गल परमाणु बहुप्रदेशी नहीं है किन्तु उपचारसे एक पुद्गल परमाणु भी बहुप्रदेशी कहा जाता है क्योंकि उसमें अन्य परमाणुओं के साथ मिलकर पिण्डरूप परिणत होने की शक्ति है। प्रश्न- 'असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मकजीवानाम' ऐसा आगे सूत्र है । उसीसे यह निश्चय हो जाता है कि धर्म आदि द्रव्य बहुपदेशी हैं। फिर इन द्रव्योंको बहुप्रदेशी बतलाने के लिये इस सूत्र में काय शब्दका ग्रहण क्यों किया? उत्तर-इस सूत्र में काय शब्द यह सूचित करता है कि धर्म आदि द्रव्य घहुप्रदेशी है और आगेके सूत्रोंसे उन प्रदेशोंका निर्धारण होता है कि किस द्रव्यके कितने प्रदेश हैं । काल द्रव्यके प्रदेश प्रचयरूप नहीं होते हैं, इस बातको बतलाने के लिये भी इस सूत्रमें काय शरदका ग्रहण किया है। 'अजीबकाया इस शब्द में अजीव विशेषण है और काय विशेष्य है। इसलिये यहाँ विशेषणविशेष्य समास हुआ है। किन्हीं दो पदार्थों में व्यभिचार (असम्बन्ध) होनेपर किसी एक स्थानमें उनके सम्बन्धको बतलाने के लिये विशेषणविशेष्य समास होता है। काल द्रव्य अजीव है लेकिन काय नहीं है, जीत्र द्रव्य काय है लेकिन अजीव नहीं है। अतः अजीव और कायमें व्यभिचार होने के कारण विशेषणविशेष्य समास हो गया है । द्रव्याणि ।। २॥ उक्त धर्म आदि चार द्रव्य हैं। जिसमें गुण और पर्याय पाये जॉय उनको द्रव्य कहते हैं। नयायिक कहते हैं कि जिसमें द्रव्यत्व नामक सामान्य रहे वह द्रव्य है । ऐसा कहना ठीक नहीं है। जब द्रव्यत्व और द्रव्य दोनोंकी पृथक पृथक् सिद्धि हो तब द्रव्यत्वका द्रव्यके साथ सम्बन्ध हो सकता है । लेकिन दोनोंकी पृथक पृथक् सिद्धि नहीं है। और यदि दोनों की पृथक् सिद्धि है. तो बिना द्रन्यत्यके भी द्रव्य सिद्ध हो गया तब द्रव्यत्यके सम्बन्ध माननेकी क्या आवश्यकता है ? इसी प्रकार गुणकि समुदायको द्रव्य कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि गुण और समुदायमें अभेद मानने पर एक ही पदार्थ रहेगा और भेद मानने पर गुणोंकी कल्पना व्यर्थ है क्योंकि विना गुणों के भी समुदाय सिद्ध है। ____ गुण और द्रव्यमें कथमित भेदाभेद माननेसे कोई दोष नहीं आता । गुण और द्रञ्च पृथक् धक् उपलब्ध नहीं होते इसलिये उनमें अभेद है और उनके नाम, लक्षण, प्रयोजन आदि भिन्न भिन्न है इसलिये उनमें भेद भी है। पूर्व सूत्रमें धर्म आदि बहुत पदार्थ है इसलिये इस सूत्रमें धर्म आदिका द्रव्यके साथ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ ५३-४] पञ्चम अध्याय समानाधिकरण होनेसे द्रव्य शब्दको बहुवचन कहा है लेकिन समानाधिकरणके कारण द्रव्य शब्द पुल्लिङ्ग नहीं हो सकता क्योंकि द्रव्य शब्द सदा नपुंसक लिङ्ग है। जीवाश्च ॥ ३ ॥ जीव भी द्रव्य है। आगे कालको भी द्रव्य बतलाया है। इस प्रकार धर्म, अधर्म, आकाल, पुद्गल, जीव और काल ये छह द्रव्य हैं। प्रश्न-आगे 'गुणपर्ययवद् दृष्यम्' इस सूत्रमें द्रव्यका लक्षण बतलाया है। इसीसे ग्रह सिद्ध हो आर्सनकि धर्म जार्षिीय विधिपिरहरीयोकदाजाणना करना ठीक नहीं है ? उत्तर-यहाँ द्रव्योंकी गणना इसलिये की गई है कि द्रव्य छह ही हैं । अन्य लोगोंके द्वारा मानी गग्री द्रव्यकी संख्या ठीक नहीं है। नैयायिक पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन ये नव द्रव्य मानते हैं। यह संख्या ठीक नहीं है । पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और मनका पुद्गल द्रव्यमें अन्तर्भाव हो जाता है। जिनेन्द्र देवने पुद्गल द्रव्यके छह भेद बतलाए है.- अतिस्थूल, स्थूलस्थूल, स्थूलसूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म 'और सूक्ष्मसूक्ष्म । इनके क्रमशः उदाहरण ये हैं--पृथिवी, जल, छाया, नेत्रके सिवाय शेष चार इन्द्रियोंके विषय, कर्म और परमाणु। प्रश्न ..पुद्गलद्रव्यमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पाये जाते हैं। वायु और मनमें रूप श्रादि नहीं हैं । अतः पुद्गल में इनका अन्तर्भाव कैसे होगा? उत्तर-वायुमें भी रूप आदि चारों गुण पाये जाते हैं । वायुमें नैयायिकके मतके अनुसार स्पर्श हेही और स्पर्श होनेसे रूपादि गुणोंको भी मानना पड़ेगा। जहाँ पर्श है. यहाँ शेप गुण होना ही चाहिए । ऐसा भी कहना ठीक नहीं कि वायुमें रूप है नो वायुका प्रत्यक्ष होना चाहिये; क्योंकि परमाणुमें रूप होने पर भी उसका प्रत्यक्ष नहीं होता । इसी प्रकार जल, अग्नि श्रादिमें स्पर्श आदि चारों गुण पाये जाते हैं । चारोंका परस्पर अविनाभाय है। मनके दो भेद हैं-द्रव्यमन और भायमन । द्रव्यमनका पुद्गल में और भावमनका जीवमें अन्तर्भाव होता है। द्रव्यमन रूपादियुक्त होनेसे पुद्गलद्रव्यका विकार है। द्रव्यमान ज्ञानोपयोगका कारण होनेसे रूपादि युक्त (मूर्त) है। शब्द भी पौद्गलिक होनेसे मूत ही है अतः नैयायिकका ऐसा कहना कि जिस प्रकार शब्द अमूर्त होकर ज्ञानोपयोगमें कारण होता है उसी प्रकार द्रव्यमान भी अमृत होकर ज्ञानोपयोगमें कारण हो जायगा ठीक नहीं है। प्रत्येक द्रव्यके पृथक् पृथक परमाणु मानना भी ठीक नहीं है । जलके परमाणु पृथिवीरूप भी हो सकते हैं और पृथिवीके परमाणु जलरूप भी । जिस प्रकार वायु आदिका पुद्गलमें अन्तर्भाव हो जाता है उसी प्रकार दिशाका आकाशमें अन्तर्भाव हो जाता है ; क्योंकि सूर्य के उदयादिकी अपेक्षा आकाशके प्रदशोंकी पंक्ति में पूर्व आदि दिशाका व्यवहार किया जाता है। नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥ ४ ।। जीव आदि सभी द्रव्य नित्य, अवस्थित और अरूपी हैं। ये द्रव्य कभी नष्ट नहीं होते हैं, इसलिये नित्य हैं । इनकी संख्या सदा छह ही रहती है अथवा ये कभी भी अपने अपने प्रदेशोंको नहीं छोड़ते हैं इसलिये अपस्थित हैं। द्रव्योंमें नियत्व और अवस्थित ब द्रव्यनयकी अपेक्षासे है । इन द्रव्यों में रूप, रस आदि नहीं पाये जाते इसलिये अरूपी हैं। ५३ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ तत्वार्थसि हिन्दी-सार [ ५।५८ रूपिणः पुद्गलाः ॥ ५॥ पुद्गल द्रव्य में रूप, रस, गन्ध और सर्श पाये जाते हैं इसलिये पुटुगल द्रव्य रूपी है। जिसमें पूरण और गलन हो वह पुद्गल है । पुद्गलके परमाणु,स्कन्ध आदि अनेक भेद हैं इसलिये सूत्र में पहुवचनका प्रयोग किया है। आ आकाशादेकद्रव्याणि ॥६॥ आकाश पर्यन्त अर्थात् धर्म, अधर्म और आकाश- ये तीन द्रव्य एक एक हैं । जीव या पुद्गलकी तरह अनेक नहीं है। प्रश्न-'आ आकाशादेकैकम ऐसे लघु सूत्रसे ही काम चल जाता फिर व्यर्थ ही द्रव्य शब्दका ग्रहण क्यों किया.? उत्तर-उक्त द्रव्य द्रव्यकी अपेक्षा एक एक हैं लेकिन क्षेत्र और भावकी अपेक्षा असंख्यात और अनन्त भी हैं इस बातको बतलानेके लिये सूत्र में द्रव्य शब्दका महण आवश्यक है। निष्क्रियाणि च ॥ ७॥ ___धर्म, अधर्म और आकाश ये द्रव्य निष्क्रिय भी हैं। एक स्थानसे दूसरे स्थान में जाससोशिक कहलाहौर्य मम सामालियानापमहाद्राजों में नहीं पाई जाती इसलिये ये निष्क्रिय हैं। प्रश्न--यदि धर्म आदि द्रव्य निष्क्रिय है तो इनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती क्योंकि उत्पत्ति क्रियापूर्वक होती है । उत्पत्तिके अभावमें विनाश भी संभव नहीं है। अतः धर्म आदि द्रव्योंको उत्पाद-व्यय और धौम्य युक्त कहना ठीक नहीं हैं ? उत्तर-यद्यपि धर्म आदि द्रव्यों में क्रियानिमित्तक उत्पाद नहीं है फिर भी इनमें दूसरे प्रकारका उत्पाद पाया जाता है। स्वनिमित्त और परप्रत्ययके भेदसे दो प्रकारका उत्पाद धर्म आदि द्रव्योंमें होता रहता है। इन द्रव्योंके अनन्त श्रगुरुलघु गुणों में छह प्रकारकी वृद्धि और छह प्रकारकी हानि स्वभावसे ही होती रहती है यही स्वनिमित्तक उत्पाद और व्यय है । मनुष्य आदिकी गति, स्थिति और अवकाशदानमें हेतु होने के कारण धर्म आदि द्रव्यांमें परप्रत्ययापेक्ष उत्पाद और विनाश भी होता रहता है। क्योंकि क्षण क्षणमें गति आदिके विषय भिन्न भिन्न होते हैं और विषय भिन्न होनेसे उसके कारणको भी भिन्न होना चाहिये ।। प्रश्न-क्रिया सहित जलादि ही मछली आदिकी गति आदिमें निमित्त होते हैं। धर्म आदि निष्क्रिय द्रव्य जीवादिकी गति आदिमें हेतु कैसे हो सकते हैं? उत्तर-ये द्रव्य केवल जीवादिकी गति आदिमें सहायक होते हैं, प्रेरक नहीं । जैसे चक्षु रूपके देखने में निमित्त होता है लेकिन जो नहीं देखना चाहता उसको देखने की प्रेरणा नहीं करता । इसलिये धर्म आदि द्रव्योंको निष्क्रिय होनेपर भी जीवादिकी गति आदिमें इतु होनेमें कोई विरोध नहीं है। जीव और पुद्गलको छोड़कर शेष चार द्रव्य सक्रिय हैं। द्रव्यों के प्रदेशोंकी संख्याअसंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मकजीवानाम् ॥ ८ ।। धर्म, अधर्म और एकजीवके असंख्यात प्रदेश होते हैं। जितने आकाशदेशमें एक Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५।१-१२ ] पचम अध्याय ४१९ पुदल परमाणु रह सकता है उतने आकाश देशको प्रदेश कहते हैं। असंख्यातके तीन भेद हैं- जयन्य, उत्कृष्ट और अजघन्योत्कृष्ट । उनमें से यहाँ अजयन्योत्कृष्ट लिया गया है। धर्म और अधर्म द्रव्य पूरे ढोकाकाशमें व्याप्त है। एक जीव लोकाकाश प्रमाण प्रदेशवाला होने पर भी प्रवेशों में संकोच और विस्तारकी अपेक्षा स्वकर्मानुसार प्राप्त शरीरप्रमाण ही रहता है। लोकपूरणसमुद्रातके समय जीव पूरे लोकाकाश में व्याप्त हो जाता है। जिस समय जीव लोकपूरणसमुद्धात करता है उस समय मेहके नीचे चित्रवत्र पटलके मध्य में जीवके आठ मध्य प्रदेश रहते हैं और शेष प्रदेश पूरे लोकाकाश में व्याप्त हो जाते हैं। दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणकी अपेक्षा चार समय प्रदेशों के विस्तार में और चार समय संकोच में इस प्रकार लोकपूरणसमुद्धात करने में आठ समय लगते हैं । आकाशस्यानन्ताः ॥ ९ ॥ आकाशं द्रव्य अनन्त प्रदेश है । पर लोकाकाशके असंख्यात ही प्रदेश हैं । संख्येयासंख्येयाश्च पुगलानाम् ॥ १० ॥ पुद्गल द्रव्य के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश है। सूत्र में 'च' शब्द से अनन्तका ग्रहण किया गया है। अनन्तके तीन भेद हैं- परीतान्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त । यहाँ तीनों अनन्तका ग्रहण किया है। किसो द्वयक आदि पुद्गलके संख्यात प्रदेश होते हैं। दो अणुसे अधिक और डेड़ सौ अंक प्रमाण पर्यन्त पुद्गल परमाणुओंके समूहको संख्यातप्रदेशी स्कंध कहते हैं। लोकाकाशके प्रदेश प्रमाण परमाणुओंवाला स्कन्ध श्रसंख्यात प्रदेशी होता है ! इसी प्रकार कोई संख्यात प्रदेशवाला, कोई परीतान्त संविधिसागर जी प्रदेशवाला कोई युतानन्त प्रवेशाला और कोई अनन्तानन्त प्रदेशवाला भी होता है। प्रश्न- लोकाकाशके असंख्यात प्रवेश हैं फिर वह अनन्त और अनन्तानन्त प्रदेश चाले पुद्गल द्रव्यका आधार कैसे हो सकता है ? उत्तर - पुद्गल परमाणुओं में सूक्ष्म परिणमन होनेसे और अव्याहत अवगाहन शक्ति होने से आकाश के एक प्रदेशमें भी अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु रह सकते हैं । नाथोः ॥ ११ ॥ परमाणु के दो आदि प्रदेश नहीं होते हैं। परमाणु एकप्रदेशी ही होता है। सबसे छोटे हिस्सेका नाम परमाणु है। अतः परमाणुके भेद या प्रदेश नहीं हो सकते। परमाणु छोटा और आकाशसे बड़ा कोई नहीं है। अतः परमाणुके प्रदेशों में भेद नहीं डाला जा सकता । द्रव्योंके रहनेका स्थान - लोकाकाशेऽवगाहः ॥ १२ ॥ जीव आदि द्रव्योंका अवगाह ( स्थान ) लोकाकाशमें है। लोकाकाश आधार और जीषादि द्रव्य आवेय हैं। लेकिन लोकाकाशका अन्य कोई आधार नहीं है वह अपने ही आधार है। प्रश्न -- जैसे लोकाकाशका कोई दूसरा आधार नहीं है उसी प्रकार धर्मादि द्रव्यों का भी दूसरा आधार नहीं होना चाहिये अथवा धर्मादिके आधारकी तरह आकाशका भी दूसरा आधार होना चाहिये ? Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [५.१३-१४ उत्तर-आकाशसे अधिक परिमाण घाला अर्थात् बड़ा दूसरा कोई द्रव्य नहीं है जो आकाशका आधार हो सके श्रतः आकाश किसीका आधेय नहीं हो सकता । आकाश भी व्यवहार नयकी अपेक्षा धर्मादि द्रव्योंका आधार माना गया है । निश्चय नयले तो सब द्रव्य अपने अपने आधार हैं। आकाश और अन्य द्रव्यों में आधार-आत्रेय सम्बन्धका तात्पर्य यही है कि आकाशसे बाहर अन्य द्रव्य नहीं है। एवम्भूत नयकी अपेक्षा तो सभी दृष्य स्वप्रतिष्ट ही हैं। एवम्भूत अर्थात् निश्चयनय । परमात्मप्रकाश (१५) में सिद्धोंको स्वात्मनिवासी ही बतलाया है। प्रश्न-आधार और प्राधेय पूर्वापर कालभावी होते हैं। जैसे घड़ा पहिले रखा हुआ है और उसमें बेर आदि पीछे रख दिए जाते हैं । आकाश और धर्मादि द्रव्य समकालभावी हैं इसलिये इनमें व्यवहारनयसे भी आधार-आधेयसम्बन्ध नहीं बन सकता ? उत्तर--कहीं कहीं समकालभावी पदार्थों में भी आधार-श्राधेय सम्बन्ध पाया जाता है जैसे घट और घटके रूपादिको । इसी प्रकार समकालभावी आकाश और धर्मादि द्रव्यों में उक्त सम्बन्ध है। लोक और अलोकका विभाग धर्म और अधर्म द्रव्यके सद्भायसे होता है। यदि धर्म औरार्थधर्मकद्रव्य सानेयोनीसुवगरावचीजहाजधर्म और अधर्म द्रव्य है वह लोक और उसके बाहर अलोक गति और स्थिति के अभाव होजानेसे लोकालोकका विभाग भी न होता। धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥ १३ ॥ धर्म और अधर्म द्रव्य ममस्त लोकाकाशमें तिलमें तेलकी तरह व्याप्त है। इसमें अवगाहन शक्ति होने से परस्पर में व्याघात नहीं होता है। प्रश्न-अटोकाकाशमें अधर्म द्रव्य न होने से श्राफाशकी स्थिति और काल द्रव्य न होनेसे आकाशमें परिणमन कसे होता है ? उत्तर जैसे जलके समीप स्थित उष्ण लोहेका गोला एक ओरसे जलको खींचता है लेकिन जल पूरे लोह पिण्ड में व्याप्त हो जाता है उसी प्रकार लोकके अन्तभागके निकटका अलोक्राकाश अधर्म और काल द्रव्यका स्पर्श करता है और उस स्पर्शके कारण समस्त अलोकाकाशकी स्थिति और उसमें परिवर्तन होता है । एकप्रदेशादिषु माज्यः पुद्गलानाम् ॥ १४ ॥ पुद्गल द्रव्यका अवगाह लोकाकाशके एक प्रदेशको श्रादि लेकर असंख्यात प्रदेशोंमें यथायोग्य होता है। आकाशकं एक प्रदेशमें एक परमाणुसे लेकर असंख्यात और अनन्त परमाणुओंके स्कन्धका अवगाह हो सकता है । इसी प्रकार आकाशके दो, तीन आदि प्रदेशों में भी पुद्गल द्रव्यका अवगाह होता है। प्रश्न-धर्म और अधर्म द्रव्य अमूर्त है इसलिये इनके अवगाहमें कोई विरोध नहीं है. लेकिन अनन्त प्रदेशवाले मूर्त पुद्गलस्कन्धका असंख्यात प्रदेशी लोकाकाशमें अवगाह कैसे हो सकता है ? जसर-सूक्ष्म परिणमन और अवगाहन शक्ति होनेसे अाकाशके एक प्रदेशमें भी अनन्त परमाणुबाला पुद्गलस्कन्ध रह सकता है। जैसे एक कोठेमें अनेक दीपकोंका प्रकाश Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + ५/१५-१७ ] पचम अध्याय ४२१ एक साथ रहता है । इस विषय में आगम प्रमाण भी है । प्रवचनसार में कहा है कि सूक्ष्म, बादर और नाना प्रकार के अनन्तानन्त पुल स्कन्धोंसे यह लोक ठसाठस भरा है। इस विषय में रुई की गांठ का भी उपयुक्त है। फैली हुई रुई अधिक क्षेत्रको घेरती है जब कि गांठ बाँधनेपर अल्पक्षेत्र में आ जाती है । असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ।। १५ ।। जीवोंका अवगाह लोकाकाशके असंख्यातवें भागसे लेकर समस्त लोकाकाशमें है । लोफाकाशके असंख्यात भागोंमें से एक, दो, तीन आदि भागों में एक जीव रहता है और लोकपूरणसमुद्रात के समय वही जीव समस्त लोकाकाशमें व्याप्त हो जाता है । प्रश्न- यदि लोकाकाश के एक मामें एक जीव रहता है तो एक भाग में द्रव्य प्रमाणसे माता हूँ आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज शरीरयुक्त अनन्तानन्त जीवराशि कैसे उत्तर - सूक्ष्म और बादर के भेदसे जीवोंका एक आदि भागों में अवगाह होता है । अनेक बादर जीव एक स्थान में नहीं रह सकते क्योंकि वे परस्पर में प्रतिघात ( बाधा ) करते हैं, लेकिन परम्पर में प्रतिघात न करने के कारण एक निगोद जीवके शरीर में अनन्तानन्त सूक्ष्म जीव रहते हैं। बादर जीवोंसे भी सूक्ष्म जीवोंका प्रतिघात नहीं होता है । असंख्यात प्रदेशी जीव लोकके असंख्यातवें भाग में कैसे रहता है प्रदेश संहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥ १६ ॥ दीपक प्रकाशकी तरह जीव प्रदेशोंके संकोच और विस्तारकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें आदि भागों में रहता है। दीपकको यदि खुले मैदानमें रक्खा जाय तो उसका प्रकाश दूर तक होगा। उसी दीपकको कोठे में रखने से कम प्रकाश और घड़ेमें रखने से और भी कम प्रकाश होगा | इसी प्रकार जीव भी अनादि कार्मण शरीरके कारण छोटा और बड़ा शरीर धारण करता है और जीवके प्रदेश संकोच और विस्तारके द्वारा शरीरप्रमाण हो जाते हैं। लघु शरीर में प्रदेशोंका संकोच और बड़े शरीर में प्रदेशों का विस्तार हो जाता है लेकिन जीव यही रहता है जसे हाथी और चींटीके शरीर में । एक प्रदेशमें स्थित होनेके कारण यद्यपि धर्म आदि द्रव्य परस्पर में प्रवेश करते हैं। लेकिन अपने अपने स्वभावको नहीं छोड़ते इसलिये उनमें संकर या एकत्व दोष नहीं हो सकता । पचास्तिका में कहा भी है कि- "ये द्रव्य परस्पर में प्रवेश करते हैं, एक दूसरे में मिलते हैं, परस्परको अवकाश देते हैं लेकिन अपने अपने स्वभावको नहीं छोड़ते ।" धर्म और अधर्म द्रव्यका उपकार--- गतिस्थित्युपग्रह धर्माधयोरुपकारः || १७ || एक देशले देशान्तर में जाना गति है। ठहरना स्थिति है। जीव और पुद्गलोंको गमन करने में सहायता देना धर्म द्रव्यका उपकार और जीव तथा पुद्गलोंको ठहरने में सहायता देना अधर्म द्रव्यका उपकार है । यद्यपि उपकार दो हैं लेकिन उपकार शब्दको सामान्यचाची होनेसे सूत्र में एकवचनका ही प्रयोग किया है। प्रश्न- सूत्र में उपग्रह शब्द व्यर्थ है क्योंकि उपकार शब्दसे ही प्रयोजन सिद्ध हो जाता है इसलिये 'गतिस्थिती धर्माधर्मयोरुपकारः' ऐसा सूत्र होना चाहिये | उत्तर-यदि सूत्र में उपग्रह शब्द न हो तो जिस प्रकार धर्म द्रव्यका उपकार गति और अधर्म का उपकार स्थिति है ऐसा क्रम से होता है उसी प्रकार जीवोंके गमनमें सहायता Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्रार्थवृत्ति - हिन्दी-सार [ ५१८ करना धर्म द्रव्यका उपकार और पुद्गलोंको ठहरने में सहायता देना अधर्म द्रव्यका उपकार है ऐसा विपरीत अर्थ भी हो जाता । अतः इस भ्रमको दूर करनेके लिये सूत्रमें उपग्रह शब्दका होना आवश्यक है । प्रश्न-- धर्म और अधर्मं द्रव्यका जो उपकार बतलाया है वह आकाशका ही उपकार है क्योंकि आकाशमें ही गति और स्थिति होती है । उत्तर—आकाश द्रव्यका उपकार द्रव्योंको अवकाश देना है। इसलिये गति और स्थितिको श्राकाशका उपकार मानना ठीक नहीं है। एक द्रव्यके अनेक प्रयोजन मानकर यदि धर्म और अधर्म द्रव्यका अस्तित्व स्वीकार न किया जाय तो लोक और अलोकका विभाग नही हो सकेगा। इन्हीं दो द्रव्यों के कारण ही यह विभाग बन पाता है । प्रदर्शक और चावी हारादिसे ही सिद्ध हो जाता है इसलिये इनके मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। उत्तर - पृथिवी, जल आदि गति और स्थितिके विशेष कारण हैं। लेकिन इनका कोई साधारण कारण भी होना चाहिये। इसलिये धर्म और अधर्मं द्रव्यका मानना आवश्यक है क्योंकि ये गति और स्थिति में सामान्य कारण होते हैं। धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थिति में प्रेरक नहीं होते किन्तु सहायक मात्र होते है अतः ये परस्पर में गति और स्थितिका प्रतिबन्ध नहीं कर सकते । प्रश्न- धर्म और अधर्म द्रव्यकी सत्ता नहीं है क्योंकि इनकी उपलब्ध नहीं होती है। उत्तर- ऐसा कोई नियम नहीं है कि जिस वस्तुकी प्रत्यक्ष उपलधि हो वही वस्तु सन् मानी जाय । सब मतावलम्बी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के पदार्थों को मानते हैं । धर्म अधर्म द्रव्य अतीन्द्रिय होनेसे यद्यपि हम लोगोंका प्रत्यक्ष नहीं होते हैं लेकिन सर्वज्ञ तो इनका प्रत्यक्ष करते ही हैं। श्रुतज्ञानसे भी धर्म और अधर्म द्रव्यकी उपलब्धि होती है । आकाशका उपकार - आकाशस्यावगाहः ।। १८ ।। समस्त द्रव्यों को अवकाश देना आकाशका उपकार है। प्रश्न- क्रियावाले जोव और पुद्गलोंको अवकाश देना तो ठीक है लेकिन निष्क्रिय धर्मादि द्रव्यों को अवकाश देना तो संभव नहीं है । उत्तरपद्यपि धर्म आदि में अवगाहन किया नहीं होती है लेकिन उपचारसे वे भी अवगाही कहे जाते हैं । धर्म आदि द्रव्य लोकाकाशमें सर्वत्र व्याप्त है इसलिये व्यवहारनयस इनका अवकाश मानना उचित ही है । I प्रश्न- यदि आकाश में अवकाश देनेकी शक्ति है तो दीवाल में गाय आदिका और पत्थर आदिका भी प्रवेश हो जाना चाहिये । उत्तर-स्थूल होने के कारण उक्त पदार्थ परस्परका प्रतिघात करते हैं। यह आकाश का दोष नहीं हैं किन्तु उन्हीं पदार्थोंका है। सूक्ष्म पदार्थ परस्पर में अवकाश देते हैं इसलिये प्रतिघात नहीं होता। इससे यह भी नहीं समझना चाहिये कि अवकाश देना पदार्थोंका काम है आकाशका नहीं, क्योंकि सब पदार्थों का अवकाश देनेवाला एक साधारण कारण आकाश मानना आवश्यक है । यद्यपि लोकाकाशमें अन्य द्रव्य न होने से आकाशका अवकाशदान लक्षण वहाँ नहीं बनता लेकिन अवकाश देनेका स्वभाव वहाँ भी रहता है इसलिये आलोकाकाश अवकाश न दने पर भी आकाश ही हैं । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्याय ४२३ पुद्गल द्रव्यका उपकारशरीवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥ १९॥ शरीर, बचन, मन और श्वासोच्छ्वास ये पुद्गल द्रव्यके उपकार हैं। शरीर विशीर्ण होनेवाले होते हैं । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक,तेजस और फार्मण ये पाँच शरीर पुद्गलसे बनते हैं। प्रात्माके परिणामों के निमित्त से पुद्गल परमाणु कर्मरूप परिणत हो जाते हैं. और कमोसे औदारिक आदि शरीरोंकी उत्पत्ति होती है इसलिये शरीर पौद्गलिक है। प्रश्न-कार्मण शारीर प्याक होनेसे पालक अनिशिसकताजी महाराज उत्तर-यद्यपि काण शरीर अनाहारक है लेकिन उसका विपाक गुड कांटा आदि मूर्तिमान् द्रव्य के सम्बन्ध होने पर होता है इसलिये कार्मण शरीर भी पौद्गलिक ही है।। वचन के दो भेद हैं-द्रव्यवचन और भाववचन । वीर्यान्तराय, मति और भुतलानावरणके क्षयोपशम होनेपर और अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय होनेपर भाववचन होते हैं इसलिये पुद्गलके आश्रित होने से पौद्गलिक है। भाव वचनकी सामर्थ्यसे युक्त आत्माके द्वारा प्रेरित होकर जो पुद्गल परमाणु बचनरूपसे परिणत होते हैं वे द्रव्य वचन हैं। द्रव्य वचन श्रोत्रेन्द्रियके विषय होते हैं। प्रश्न-वचन अमूर्त हैं अतः जनको पौद्ल क कहना ठीक नहीं है। उत्तर-वचन श्रमूर्त नहीं है किन्तु मूर्त हैं और इसीलिये पौद्गलिक भी है। शब्दोंका मूर्तिमान् द्रव्यकर्ण के द्वारा ग्रहण होता है, दीवाल आदि मूर्तिमान द्रव्यके द्वारा शब्दका अररोध देखा जाता है, तीन भेरी आदिके शब्दोके द्वारा मन्द मच्छर आदि के शब्दोंका व्याघात होता है, मूर्त वावुके द्वारा भी शब्दका व्याघात होता है। विपरीत वायु चलनेसे शब्द अपने अनुकूल देशमें नहीं पहुंच पाता. इन सब कारणोंसे शब्दमें मूर्तत्व सिद्ध होता है । मूर्त द्रव्यके द्वारा ग्रहण, अवरोध, अभिभव आदि अमूर्त वस्तुमें नहीं हो सकते। मनके भी दो भेद है द्रव्यमन और भावमन। ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशम होने पर और अङ्गोपाङ्ग नामकर्मके उदय होने पर गुण और दोषोंके विचार करने में समर्थ आत्माके उपकारक जो पुद्गल मन रूपसे परिणत होते हैं. वे द्रव्यमन हैं। भावमन लब्धि और उपयोगरूप होता है और द्रव्यमनके आश्रित होनेसे पौद्गालक है। प्रश्न-मन अणुमात्र और रूपादि गुणोंसे रहित एक भिन्न द्रव्य है। उसको पौद्गलिंक कहना ठीक नहीं है। ___ उत्तर – यदि मन अणुमात्र है तो इन्द्रिय और आत्मासे उसका सम्बन्ध है या नहीं ? यदि सम्बन्ध नहीं हैं ; तो वह आत्माका उपकारक नहीं हो सकता | और आत्माके साथ मनका सम्बन्ध है, तो एक देश में ही सम्बन्ध हो सकेगा, तब अन्य देशों में वह उपकारक नहीं हो सकेगा। अदृष्टके कारण अलातचक्रको तरङ् मनका श्रात्माके सत्र प्रदेशों में परिभ्रमण मानना भी ठीक नहीं है ; क्योंकि आत्मा और अदष्ट नैयायिक मतके अनुसार स्वयं क्रिया रहित है अतः वे मनकी क्रियामें भी कारण नहीं हो सकते। क्रियावान् वायु आदिके गुणही अन्यत्र क्रियाहेतु हो सकते हैं। ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशम होने पर और अङ्गोपाङ्ग नामकर्मके उदय होने पर शरीर के भीतरसे जो वायु बाहर निकलती है उसको प्राण और जो वायु बाहरसे शरीरके भीतर जाती है उसको अपान कहते है। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ ५/२०-२२ मन और प्राणापानका भी मूर्तं द्रव्यसे प्रतिघात आदि देखा जाता है इसलिये ये भी मूर्त है। बिजली गिरने से मनका प्रतिघात और मदिरा आदिसे अभिभव देखा जाता है। हाथ श्रादिसे मुखको बन्द कर देने पर प्राणापानका प्रतिघात और गले में कफ अटक जाने पर श्वासोच्छ्वासका अभिभच भी देखा जाता है। ४२४ प्राणापान क्रिया के द्वारा जीवका अस्तित्व सिद्ध होता है। शरीर में जो श्वासोच्छ्वास क्रिया होती है उसका कोई कर्त्ता अवश्य होना चाहिये क्योंकि कली के बिना क्रिया नहीं हो सकती और जो श्वासोच्छवास क्रियाका कर्ता है वही जीव है । उक्त शरीर आदि मुद्गल के उपकार जीवके प्रति हैं । सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥ २० ॥ सुख, दुःख, जीवित और मरण ये भी जीवके प्रति पुद्गलके उपकार हैं । साता वेदनीयके उदयसे सुख और असातावेदनीयके उदयसे दुःख होता है। आयु कर्म के उदयसे जीवन और आयु कर्म विनाशसे मरण होता है । सुख आदि मूर्त कारण के होने पर होते हैं इसलिये ये पौद्गलिक हैं । मार्गदर्शक :- औचार्य सूत्र सूचित करता है कि पुद्गलका पुद्गल के प्रति भी उपकार होता है । जैसे काँसेका वर्तन भस्ममे साफ हो जाता है, मैला जल फिटकरी आदिसे स्वच्छ हो जाता है और गरम लोहा जलसे ठंडा हो जाता है। सूत्रात 'व' शब्द यह सूचित करता है कि इन्द्रिय आदि अन्य भी पुद्गलके उपकार हैं । जीवका उपकार परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥ २१ ॥ जीव परस्पर उपकार करते हैं जैसे पिता पुत्र, स्वामी सेवक और गुरु-शिव्य आदि । स्वामी धनादिके द्वारा सेवकका और सेवक अनुकूल कार्यके द्वारा स्वामीका उपकार करता है। गुरु शिष्यको विद्या देता है तो शिष्य शुश्रूषा आदिसे गुरुको प्रसन्न रखता है । सूत्रगत उपग्रह शब्द सूचित करता है कि सुख, दुःख, जीवित और मरण द्वारा भी जीव परस्पर उपकार करते हैं। कालका उपकार--- वर्तन परिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ॥ २२ ॥ वर्तना, परिणाम, क्रिया, परस्य और अपरत्व ये काल द्रव्यके उपकार हैं। कहीं 'घर्तना परिणामः क्रिया' इन तीनों पदों में स्वतन्त्र विभक्तियाँ भी देखी जाती हैं। कहीं 'वर्तनापरिणामक्रिया: ' ऐसा समस्त पद उपलब्ध होता है । सब पदार्थों में स्वभाव से ही प्रतिसमय परिवर्तन होता रहता है लेकिन उस परिवर्तन में जो बाह्य कारण है वह परमाणुरूप कालद्रव्य है । कालद्रव्यके निमित्त से होनेवाले परिवर्तन का नाम वर्तना है । वर्तनासे कालद्रव्य का अस्तित्व सिद्ध होता है। चावलों को वर्तन में अग्निपर रखने के कुछ समय बाद ओवन (भात) बन कर तैयार हो जाता है। घायलोंसे जो ओदन बना वह एक समय में और एक साथ ही नहीं बना किन्तु चावलों में प्रत्येक समय सूक्ष्म परिणमन होते होते अन्त में स्थूल परिणमन दृष्टिगोचर होता है। यदि प्रति समय सूक्ष्म परिणमन न होता तो स्थूल परिणमन भी नहीं हो सकता था । अतः चावलों में जो प्रति समय परिवर्तन हुआ वह काल रूप याच कारणकी Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५।२३-२४ ] पत्रम अध्याय ४२५ मार्गदर्शक अपेक्षासह सदिसम्रकार सी पहामि परिणमन काल व्यके कारण ही होता है। कालद्रव्य निष्क्रिय होकर भी निमित्तमात्रसे सब द्रव्यों की वर्तना ( क्रिया ) में हेतु होता है। एक पर्यायकी निवृत्ति होकर दूसरे पर्यायकी उत्पत्ति होनेका नाम परिणाम है। जीवका परिणाम क्रोध, मान, माया लोभादि, है ! पुद्गलका परिणाम वर्णादि है। धर्म,अधर्म औ आकाशका परिणाम श्रगुरुलघु गुणों की वृद्धि हानिसे होता है। इलन-चलन का नाम किया है। क्रियाके दो भेद हैं--प्रायोगिकी और बैरसिकी। शकद (गाड़ी) आदिमें क्रिया दूसरों द्वारा होती है। इसको प्रायोगिकी क्रिया कहते हैं । मेघ आदिमें क्रिया स्वभाषसे ही होती है। इसको सिकी क्रिया कहते हैं. छोटे और बड़े के व्यवहारको परत्यापरत्व कहते हैं। क्षेत्र और कालकी अपेक्षासे परवापरत्व व्यवहार होता है लेकिन यहाँ कालका प्रकरण होनेसे कालकृत परत्वापरत्वका ही प्रहण किया गया है। कालकृत परवापरत्वसे समीप देशवर्ती और ब्रतादि गुणोंसे रहित वृद्ध चाण्डालको बड़ा और दूर देशवर्ती व्रतादिगुणों से सम्पन्न ब्राह्मण बालकको छोटाकहते हैं। परिणाम, क्रिया, परत्वापरत्व, आवली, घड़ी, घण्टा, दिन आदिका कारण व्यवहारकाल है। सूर्यादिकी क्रियासे जो समय, आवली श्रादिका व्यवहार होता है वह व्यवहार फालकृत है । एक पुद्गल परमाणुको प्राकाशक एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशमें जानेमें जो काल लगता है उसका नाम समय है और उस समयका कारण मुख्य काल है। व्यवहार में भूत, भविष्यत् आदि व्यवहार मुख्यतया होते हैं। यद्यपि परिणाम आदि वर्तनाके ही विशेप या भेद हैं लेकिन काल द्रश्यके मुख्य और व्यवहार ये दो भेद बतलाने के लिये सबका ग्रहण किया गया है। मुख्यकाल वर्तना रूप है। और व्यवहारकाल परिणाम, क्रिया और परत्यापरत्वरूप है। पुद्गलका स्वरूपस्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ॥ २३ ।। पुद्गल में सर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये चार गुण पाये जाते हैं। कोमल, कठोर, हलका, भारी, शीत, उष्ण, स्निग्ध और सच ये स्पर्शक आठ भेद हैं । खट्टा, मीठा, कड़आ, कषायला और चरपरा ये रसके पांच भेद हैं,लवण रसका सभी रसों में अन्तर्भाव है। सुगन्ध और दुर्गन्ध ये गन्धके दो भेद हैं। काला, नीला, पीला, लाल और सफेद ये वर्ण के पौंच भेद हैं। इनके भी संख्यात, असंख्यात और अनन्त उत्तर भेद होते हैं। जिन अग्नि आदिमें रस आदि प्रकट नहीं हैं वहीं स्पर्शकी सत्ताद्वारा शेषका अनुमान कर लेना चाहिए। यद्यपि "रूपिणः पुद्गला:" इस पूर्वोक्त सूत्रसे ही पुद्गलके रूप रसादि घाले स्वरूपका ज्ञान हो जाता है लेकिन वह सूत्र पुद्गलको रूप रहित होनेकी आशंकाके निवारणके लिये कहा गया था। 'नित्याबस्थितान्यरूपाणि' इस सूचसे पुद्गल में भी श्रपित्यकी आशंका थी। अतः यह सूत्र पुद्गलका पूर्ण स्वरूप बतलाने के लिये है, निरर्थक नहीं है। पुद्गलकी पर्यायशब्दबन्धसौदम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्तश्च ॥ २४ ॥ पुद्गल द्रव्यमें शब्द, धन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, छाया, तम, आतप और उद्योत रूपसे परिणमन होता रहता है अर्थात् ये पुद्गलकी पर्यायें हैं। शब्दके दो भेद है Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ तत्वार्थसि हिन्दी - सार [ ५|२४ भाषारूप और अभाषारूप | भाषारूप शब्द के भी दो भेद हैं-अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक अक्षरात्मक शब्द संस्कृत और असंस्कृत के भेद से आर्य और म्लेच्छोंके व्यवहारका हेतु होता है। दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय जीवों में ज्ञानातिशयको प्रतिपादन करनेवाला अनक्षरात्मक शब्द है। एकेन्द्रियादिकी अपेक्षा दो इन्द्रिय आदिमें ज्ञानातिशय है। एकेन्द्रिय में तो ज्ञानमात्र है । अतिशय ज्ञानवाले सर्व शके द्वारा एकेन्द्रियादिका स्वरूप बताया जाता है । मार्गवश कोई लोग सर्वच दो जाते है लेकिन उनका यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि अनक्षरात्मक शब्द अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता । सय भाषात्मक शब्द पुरुषकृत होनेसे प्रायोगिक होते हैं । अभापात्मक शब्द के दो भेद हैं- प्रायोगिक और वैस्रमिक | प्रायोगिकके चार भेद हैं - तत, वितत, घन और सुपिर । चमड़े के तानने से पुष्कर, भेरी, दुन्दुभि आदि बाजसे उत्पन्न होने वाले शव्दको तल कहते हैं। तन्त्रीके कारण वीणा आदिसे होनेवाला शब्द वितत है | किन्नरोंके द्वारा कहा गया शब्द भी वितत है। घण्टा, वाल आदि उत्पन्न होने वाला शब्द न है । बास, शंख आादिसे उत्पन्न होनेवाला शब्द सुषिर है। मेघ, विद्युत् आदिले उत्पन्न होनेवाला शब्द बेसिक है । बन्धके दो भेद हैं- प्रायोगिक और वैखसिक । पुरुषकृत बन्धको प्रायोगिक कहते हैं । इसके दो भेद हैं- अजीवविषयक और जीवाजीव विषयक | लाख और काष्ठ आदिका सम्बन्ध अजीवविषयक प्रायोगिक बन्ध है। जीवके साथ कर्म और नोकर्मका बन्ध जीवाजीवविषयक प्रायोगिक बन्ध है । पुरुषकी अपेक्षा के बिना स्वभावसे ही होनेवाले बन्धको वैrसिक बन्ध कहते हैं। रूक्ष और स्निग्ध गुणके निमित्तसे विद्युत्, जलधारा, अग्नि, इन्द्रधनुष आदिका बन्धक है । सौदम्य के दो भेद हैं- अन्त्य और आपेक्षिक | परमाणुओं में अन्त्य सौम्य है । वेल, आँवला, बेर आदिमें आपेक्षिक सौम्य है । बेलकी अपेक्षा आँवला सूक्ष्म है और आँवलेकी अपेक्षा र सूक्ष्म है | स्थौल्य के भी दो भेद हैं--अन्त्य और आपेक्षिक | अन्त्य स्थौल्य संसारव्यापी मास्कन्ध में है। बेर, आँवला, बेल आदि आपेक्षिक स्थौल्य है। बेरकी अपेक्षा आँवला स्थूल है और आंवले की अपेक्षा बेल स्थूल है । संस्थान के दो भेद है-इत्थंलक्षण और अनित्थंलक्षण । जिस आकारका अमुकरूपमें निरूपण किया जा सके वह इत्थंलक्षण संस्थान है जैसे गोल, त्रिकोण, चतुष्कोण आदि । और जिस आकार के विषय में कुछ कहा न जा सके वह अनित्थंलक्षण संस्थान है जैसे मेव, इन्द्रधनुष आदिका आकार अनेक प्रकारका होता है । भेद छह प्रकारका है—उत्कर, चूर्ण, खण्ड, प्रतर और अणुचटन। करोत कुल्हाड़ी दिसे लकड़ी दिके काटनेको उत्कर कहते हैं। जौ, गेहूँ आदिको पीसकर सतुआ आदि बनाना चूर्ण है । घटका फूट जाना खण्ड है। उड़द, मूँग आदिको दलकर दाल बनाना चूर्णिका है। मेघपटलका विघटन हो जाना प्रतर हैं। संतप्त लोहे के गोले को घनसे कूटने पर जो आके कण निकलते हैं वह अणुचटन है । प्रकाशका विरोधी अन्धकार पुद्गलकी पर्याय है । प्रकाश और आवरणके निमित्तसे छाया होती है। इसके दो भेव हैं--वर्णादिविकारात्मक और प्रतिविम्वात्मक | गौरवको छोड़कर श्यामवर्ण रूप हो जाना वर्णादि Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५/२५-२६] पचम अध्याय ४२७ freraत्मक छाया है। और चन्द्र आदिका जल में जो प्रतिविम्य होता है वह प्रतिबिम्बात्मक छाया है । सूर्य, वह्नि आदि में रहनेवाली उष्णता और प्रकाशका नाम आता है । चन्द्रमा, मणि, खद्योत ( जुगुनू ) आदिसे होनेवाले प्रकाशको उद्योत कहते हैं । उक्त शब्द आदि दश पुद्गल द्रव्यके विकार या पर्याय हैं। सूत्र में 'च' शब्द से अभिघात, नोवून आदि अन्य भी पुद्गल द्रव्यके विकारोंका प्रहण कर लेना चाहिये । पुद्गल के भेद अणत्रः स्कन्धाश्च ।। २५ ।। पुद्गल द्रव्यके दो भेद हैं- अणु और स्कन्ध । अणुका परिमाण आकाश के एक प्रदेश प्रमाण है । यद्यपि परमाणु प्रत्यक्ष नहीं हैं लेकिन उसका स्कन्धरूप कार्यों को देखकर अनुमान कर लिया जाता है । परमाणुओं में दो विरोधी स्पर्श, एक वर्ण, एक गन्ध और एक रस रहता है, ये स्वरूप अपेक्षा नित्य हैं लेकिन स्पर्श आदि पर्यायोंको अपेक्षासे अनित्य भी हैं। इनका परिमाण परिमण्डल ( गोल ) होता है | नियमसारमें परमाणुका स्वरूप इस प्रकार बतलाया "यादर्शक : जिसका वही आदि वही मध्य और वही अन्त हो, जो इन्द्रियोंसे नहीं जाना जा सके ऐसे अविभागी द्रव्यको परमाणु कहते हैं ।" स्थूल होने के कारण जिनका ग्रहण, निक्षेपण आदि हो सके ऐसे पुद्गल परमाणुओं के समूहको स्कन्ध कहते हैं । ग्रहण आदि व्यापारकी योग्यता न होने पर भी उपचारसे दूचपुक आदिको भी स्कन्ध कहते हैं । यद्यपि पुद्गल के अनन्त भेद हैं लेकिन अणुरूप जाति और स्कन्धरूप जातिकी अपेक्षा से दो भेद भी हो जाते हैं । प्रश्न – जाति में एकवचन होता है फिर सूत्र में बहुवचनका प्रयोग क्यों किया ? उत्तर- अणु और स्कन्धके अनेक भेद बतलाने के लिये बहुवचनका प्रयोग किया गया है। यद्यपि 'अणुस्कन्धाच' इस प्रकार एक पदवाले सूत्रसे ही काम चल जाता लेकिन पूर्व के दो सूत्रों में भेद बतलाने के लिये 'अश्वः स्कन्धा' इस प्रकार दो पदका सूत्र बनाना पड़ा । 'स्पर्शरसगन्धवर्णयन्तः पुद्गला:' इस सूत्रका सम्बन्ध केवल अणुसे है अर्थात् परमाशुओं में स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण पाये जाते है । लेकिन स्कन्धका सम्बन्ध 'स्पर्शरस' इत्यादि और 'शबन्ध' इत्यादि दोनों सूत्रों से है। स्कन्ध स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण वाले होते हैं तथा शब्द बन्ध आदि पर्यायवाले भी होते हैं । इस सूत्र में 'च' शब्द समुच्चयार्थक है। अर्थात् अणु ही पुद्गल नहीं हैं किन्तु स्कन्ध भी पुद्गल हैं । निश्चयनयसे परमाणु ही पुद्गल हैं और व्यवहारनयसे स्कन्धभी पुद्गल हैं । उत्पतिका कारण -- भेदसङ्घातेभ्य उत्पद्यन्ते ।। २६ ॥ स्कन्धकी उत्पत्ति भेद, संघात और दोनोंसे होती है। भेद अर्थात् विदारण जुदा होना, संघात अर्थात् मिलना इकट्टा होना । Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [५३२-३. दो अणुओंके मिल जानेसे दो प्रदेशवाला स्कन्ध बन जाता है । दो प्रदेशवाले स्कन्ध के साथ एक अणु के मिल जानेसे तीन प्रदेशवाला स्कन्ध हो जाता है। इस प्रकार संघातसे संख्यात, असंख्यास और अनन्त प्रदेश परिमाण स्कन्धकी उत्पत्ति होती है। भेदसे भी स्कन्धोंकी उत्पत्ति होती है । संख्यात और अनन्त प्रदेशवाले स्कन्धों के भेद ( टुकड़े) करनेसे विप्रदेशपर्यन्त अनेक स्कन्ध बन जाँयगे । इसी प्रकार भेद और संघात दोनोंसे भी स्कन्धकी उत्पत्ति होती है। कुछ परमाणुओसे भेद होनेसे और कुछ परमाणुओंके साथ. संघात होनेसे स्कन्धकी उत्पत्ति होती है। अणुकी उत्पत्तिका कारण --- भेदादणुः॥ २७॥ परमाणुकी उत्पत्ति भेदसे ही होती है--संघात और भेद-संघातसे अणुकी उत्पत्ति नहीं होती है। किसी स्कन्धके परमाणु पर्यन्त भेद करनेसे परमाणुकी उत्पत्ति होती है। श्य स्कन्धकी उत्पत्तिका कारण भेदसंघाताम्यां चाक्षुषः ॥ २८ ॥ धानुष अर्थात् चनु इन्द्रियसे देखने योग्य स्कन्धोंकी उत्पत्ति भेद और संघातसे मार्गदर्शकहोती हाकवल भनिहायानन्त अाका संघात होनेपर भी कुछ स्कन्ध चाक्षुष होते हैं और कुछ अचाक्षुष । जो अचाक्षुष स्कन्ध है इसका भेद हो जाने पर भी सूक्ष्म परिणाम यने रहने के कारण वह चाक्षुष नहीं हो सकता । लेकिन यदि उस सूक्ष्म स्कन्धका भेद होकर अर्धात् सूक्ष्मत्वका विनाश होकर अन्य किसी चानुष स्कन्धके साथ सम्बन्ध हो जाय तो वह घशक्षुष हो जायगा । इस प्रकार चाक्षुष स्कन्धकी उत्पत्ति भेद और संघात दोनों से होती है । व्यका लक्षण सद्व्य लक्षणम् ॥ २९ ॥ द्रव्यका लक्षण सत् है, अर्थात् जिसका अस्तित्व अथवा सस्ता हो वह द्रव्य है । सत्का स्वरूप उत्पादच्ययधौव्ययुक्तं सत् ॥ ३० ॥ जो उत्पाद, व्यय और धौम्य सहित हो वह सत् है । अपने मूल स्वभाव को न छोड़कर नवीन पर्यायकी उत्पत्तिको उत्पाद कहते हैं। जैसे मिट्टी के पिण्डसे घट पर्यायका होना। पूर्व पर्यायका नाश हो जाना व्यय है जैसे घटकी उत्पत्ति होने पर मिट्टीके पिण्डका विनाश व्यय है। धौव्य द्रव्यके उस स्वभावका नाम है जो व्यकी सभी पर्यायों में रहता है और जिसका कभी विनाश नहीं होता जैसे मिट्टी। पर्यायोंका उत्पाद-विनाश होने पर भी द्रव्य स्यभाषका अन्वय बना रहता है। प्रश्न-भेद होने पर युक्त शब्दका प्रयोग देखा जाता है जैसे देवदत्त दण्डसे युक्त है। इसी तरह यदि उत्पाद, व्यय, धौम्य और द्रव्यमें भेद है तो दोनोंका अभाव हो जायगा क्योंकि उत्पाद, व्यय और धौम्यके बिना इन्यकी सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती और द्रव्य के अभाव में उत्पाद, व्यय और प्रौव्य भी संभव नहीं है। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ५।३१-३३ ] पञ्चम अध्याय ४२९ उत्तर--उत्पाद आदि और द्रव्यमें अभेद होने पर भी कहिचतेद नयकी अपेक्षासे युक्त शरदका प्रयोग किया गया है। यह खंभा सारयुक्त है ऐसा व्यवहार अभेदमें भी देखा जाता है। द्रव्य लक्ष्य है और उत्पाद आदि लक्षण हैं 'अतः लक्ष्यलक्षणभायको दृष्टि में रखने पर पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे द्रव्य और उत्पाद आदि में भर है लेकिन द्रव्याधिकनयकी अपेक्षासे उनमें अभेद है | अथवा यहाँ युक्त शब्द योगार्थक युज् धातुसे नहीं बना है किन्तु युक शब्द समाधि (पकता ) वाचक है। अतः जो उत्पाद, व्यय, धौव्यात्मक हो उसका नाम द्रव्य है। तात्पर्य यह कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य एतत्त्रयात्मक ही द्रव्य है, दोनोंका पृथक् अस्तित्व नहीं है। पर एक अंश है और दूसरा अंशी, एक पर्याएँ हैं तो दूसरा अन्वयी द्रव्य, एक लक्षण हैं तो दूसरा लक्ष्य इत्यादि भेद दृष्टि से उनमें भेद है। निस्यका लक्षण तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥ ३१ ॥ उस भाव या स्वरूपके प्रत्यभिज्ञानका जो हेतु होता है वह ऋनुस्यूत अंश नित्यत्व है। यह वही है इस प्रकार के ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । यह ज्ञान बिना हेतुके नहीं हो सकता । अतः तद्भाय प्रत्यभिज्ञानका हेतु है। किसीने पहिले देवदसको बाल्यावस्थामें देखा था। जब वह उसे वृद्धावस्थामें देखता है और पूर्वका स्मरण कर सोचता है कि- यह तो वही देवदत्त है। इससे ज्ञात होता है कि देवदत्त में एक ऐसा तद्भाय ( स्वभावविशेष ) है जो बाल्य और वृद्ध दोनों अवस्थाओं में अन्त्रित रहता है। यदि द्रव्यका अत्यन्त विनाश हो जाय और सर्वथा नूतन पर्यायकी उत्पत्ति हो तो स्मरणका अभाव हो जायगा और स्मरणाभाव होनेसे लोकव्यवहारकी भी निवृत्ति हो जायगी। दृश्यमें नित्यत्व द्रव्याथिकनयकी अपेक्षासे ही है, सर्वथा नहीं। यदि द्रव्य सर्वथा नित्य हो तो आत्मामें संसारकी निवृत्ति के लिए की जाने वाले दीक्षा आदि क्रियाएँ निरर्थक हो जायगी। और आत्माकी मुक्ति भी नहीं हो सकेगी। अर्पितानर्पितसिद्धेः ॥ ३२॥ मुख्य या प्रधान और गौण या अप्रधान के विवहाभेदसे एक ही द्रव्यमें नित्यत्व, अनित्यस्व आदि अनेक धर्म रहते हैं । वस्तु अनेकधर्मात्मक है। जिस समय जिस धर्मकी विवक्षा होती है उस समय वह धर्म प्रधान हो जाता है और अन्य धर्म गौण हो जाते हैं। एक ही मनुष्य पिता, पुत्र, भ्राता, चाचा आदि अनेक धोको धारण करता है। वह अपने पुत्रकी अपेक्षा पिता है, पिताकी अपेक्षा पुत्र है, भाईकी अपेक्षा भ्राता है। अतः अपेक्षाभेदसे एक ही यस्तुमें अनेक धर्म रहने में कोई विरोध नहीं है। द्रव्य सामान्य अन्वयी अंशसे नित्य है तथा विशेष पर्यायकी अपेक्षा अनित्य है । इसी तरह भेद-अभेद,अपेक्षितत्व-अनपेक्षितस्व, देव-पुरुषार्थ, पुण्य-पाप आदि अनेकों विरोधी युगल वस्तु में स्थित हैं। वस्तु इन सभी धर्मोका अविरोधी आधार है। परमाणुओंके बन्धका कारण स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः ॥ ३३ ॥ स्निग्ध और रूक्ष गुणके कारण परमाणुगोंका परस्पर में बन्ध होता है। स्निग्ध और रूक्ष गुण वाले दो परमाणुओंके मिलनेसे दूधणुक और तीन परमाणुओंके मिलनेसे ज्यणुककी Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [५।३४ ३६ उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणु वाले स्कन्धोंकी भी उत्पत्ति होती है । स्निग्ध और रूक्ष गुणके एकसे लेकर अनन्त तक भेद होते हैं। जैसे जल, बकरीका दूध और घृत, गायका दूध और घृत भैसका दूध और घृत, और ऊँटनी का दूध और घृत इनमें स्निग्ध गुण की उत्तरोनर अधिकता है । धूलि, रेत, पत्थर, वत्र आदिमें रूक्ष गुणकी उत्तरोत्तर अधिकता है। इसी प्रकार पुद्गल परमाणुओंमें स्निग्ध और रूक्ष गुणका प्रकर्ष और अपकर्ष पाया जाता है। न जघन्य गुणानाम् ॥३४॥ जघन्य गुणवाले परमाणुओंका बन्ध नहीं होता है। प्रत्येक परमाणुमें स्निग्ध आदिके एकसे लेकर अनन्त तक गुण रहते हैं। गुण उस अविभागी प्रतिच्छेद ( शक्तिका अंश ) का नाम है. जिसका दूसरा विभाग या विवेचन म किया जा सके। जिन पर. मागुओं ने स्निग्धता और रूक्षताका एक ही गुण या अंश रहता है उनका परस्पर यन्ध नहीं हो सकता। गुण शब्द का प्रयोग गौण, अवयव, द्रव्य, उपकार, रूपादि, ज्ञानादि, विशेषण, भाग आदि अनेक अर्थों में होता है। यहाँ गुण शब्द भाग (अविभागी अंश) अर्थ में लिया गया है। एक गुणयाले स्निग्ध परमाणु का एक, दो, तीन आदि अनन्त गुणवाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणु के साथ वध नहीं होगा। इसी प्रकार एक गुणवाले रूक्ष परमाणुका एक, दो, तीन आदि अनन्त गुणवाले रूक्ष या स्निग्ध परमाणु के साथ बन्ध नहीं होगा। जघन्य गुणवाले खिग्ध और रूक्ष परमाणुओंको छोड़कर अन्य स्निग्ध और रूक्ष परमाणुओं का परस्पर में बन्ध होता है। गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥ ३५॥ गुणोंकी समानता होनेपर एक जातियाले परमाणुओंका भी बन्ध नहीं होता है। अर्थात् दो गुण वाले स्निग्ध परमाणुका दो गुण वाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणुके साथ बन्ध नहीं होता है, और दो गुणवाले रूक्ष परमाणुका दो गुणवाले रूक्ष या स्निग्ध परमाणुके साथ चन्ध नहीं होता है। यद्यपि गुणकी समानता होनेपर सजातीय या विजातीय किसी प्रकार के परमाणुओं का बन्ध नहीं होता है और इस प्रकार सूत्र में सदृश शब्द निरर्थक हो जाता है लेकिन सहश शब्द इस बातको सूचित करता है कि गुणोंकी विषमता होनेपर समान जातिवाले परमाणुओका भी अन्ध होता है केवल विसदृश जातिवाले परमाणुओंका ही नहीं । बन्ध होनेका अन्तिम निर्णय द्वयधिकादिगुणानां तु ॥ ३६ ॥ दो अधिक गुपयाले परमाणुओंका बन्ध होता है । तु शब्दका प्रयोग पादपूरण,अवधारण, विशेषण और समुच्चय इन चार अर्था में होता है उनमेंसे यहाँ तु शब्द विशेषणार्थक है। पूर्व में जो बन्धका निवेध किया गया है उसका प्रतिषेध करके इस सूत्र में बन्धका विधान किया गया है। दो गुणवाले स्निग्ध परमाणुफा एक, दो और तीन गुणवाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणु के साथ बन्ध नहीं होगा किन्तु चार गुणबाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणुके साथ वन्ध होगा। दो गुणवाले स्निग्धपरमाणुका पाँच, छह, आदि अनन्त गुणवाले स्निग्ध Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५।३७-३८ ] पचम अध्यायः ४३१ या रूक्ष परमाणु के साथ भी बन्ध नहीं होगा। तीन गुणवाले स्निग्ध परमाणुका पाँच गुणवाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणु के साथ ही बन्ध होगा अन्य गुणवाले परमाणुके साथ नहीं। इसी प्रकार दो गुणवाले रूक्ष परमाणुका चार गुणवाले रूक्ष या स्निग्ध परमाणु के साथ ही बन्ध होगा और तीन गुणवाले रूक्ष परमाणुका पाँच गुणवाले रूक्ष या स्निग्ध परमाणु के साथ ही बन्ध होगा, अन्य गुणवाले परमाणुके साथ नहीं। अतः दो गुण अधिक होनेपर समान और असमान जातिचाले परमाणुओं का परस्पर में बन्ध होता है । Fastest पारिणामिकौ च ॥ ३७ ॥ बन्ध में अधिक गुणवाले परमाणु कम गुणवाले परमाणुओं को अपने परिणत कर लेते हैं। नूतन अवस्थाको उत्पन्न कर देना परिणामिकत्व है। जैसे गीला गुड़ अपने ऊपर गिरी हुई धूलिको गुह रूप परिणत कर लेता है उसी प्रकार चार गुणवाला परमाणु दो गुण अपने पति का है अर्थात् उन दोनोंकी पूर्व अवस्थाएँ नष्ट हो मार्गदर्शक :जाततै ष्वाय एक तीसरी हो अवस्था उत्पन्न होती है। उनमें एकता हो जाती है। यही कारण है कि अधिक गुणवाले परमाणुओं का ही बन्ध होता है। समगुण वाले परमाणुओं का नहीं । यदि अधिकगुण परमाणुओं को पारिणामक न माना जाय तो बन्ध अवस्था में भी परमाणु सफेद और काले तन्तुओं से बने हुए कपड़े में तन्तुओंके समान पृथक पृथक ही रहेंगे उनमें एकत्व परिणमन न हो सकेगा। इसी प्रकार जल और सत्तू में परस्पर सम्बन्ध होने पर जल परिणामक होता है। इस प्रकार बन्ध होने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि कर्मोकी तीस कोड़ाकोड़ी सागरकी स्थिति भी बन जाती है क्योंकि जीवके साथ पूर्व सम्बद्ध कार्मणद्रव्य स्निग्ध आदि गुणसे अधिक है। द्रव्यका लक्षण -- गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ॥ ८ ॥ जो गुण और पर्यायवाला हो वह द्रव्य है । गुण अन्वयी ( नित्य ) होते हैं अर्थात् द्रव्यके साथ सदा रहते हैं, द्रव्यको कभी नहीं छोड़ते गुणों के द्वारा ही एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यसे भेद किया जाता है। यदि गुण न हों तो एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप भी हो जायगा । जीवका ज्ञानगुण जीवको अन्य द्रव्योंसे पृथक करता हूँ। इसी प्रकार पुद्गलादि द्रव्योंके रूपादि गुण भी उन द्रव्योंको अन्य द्रव्यों से पृथक करते हैं । पर्याएँ व्यतिरेकी (अनित्य ) होती है अर्थात् द्रव्यके साथ सदा नहीं रहती बदलती रहती हैं। गुणोंके विकारको ही पर्याय कहते हैं जैसे जीवके ज्ञान गुणकी घटज्ञान, पटज्ञान आदि पर्याएँ हैं । व्यवहारनयको अपेक्षा से पर्याएँ द्रव्यसे कथंचित् भिन्न हैं । यदि पर्याएँ द्रव्य से सर्वथा अभिन्न हों तो पर्यायके नाश होने पर द्रव्यका भी नाश हो जायगा । कहा भी है कि द्रव्यके विधान करनेवालेको गुण कहते हैं। और द्रव्यके विकार को पर्याय कहते है । अनादि निधन द्रव्यमें जल में तरोंके समान प्रतिक्षण पर्याएँ उत्पन्न और यिनष्ट होती रहती हैं। द्रव्यमें गुण और पर्यायें सदा रहती हैं। गुण और पर्यायों के समूहका नाम ही द्रव्य है । गुण और पर्यायको छोड़कर द्रव्य कोई पृथक् वस्तु नहीं है। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ तत्त्वार्धवृति-हिन्दी-सार [५३९-४० काल द्रव्यका वर्णन कालश्च ॥ ३१ ॥ काल भी द्रव्य है क्योंकि उसमें व्यका लक्षण माया जाता है। द्रव्यका लक्षण 'उत्पादव्ययश्रीव्ययुक्त और 'गुणपर्यययद् द्रव्यम' बतलाया है। काल में दोनों प्रकारका लक्षण पाया जाता है। स्वरूपकी अपेक्षा नित्य रहने के कारण क ल में स्वप्रत्यय धौम्य है। उत्पाद और व्यय स्वप्रत्यय और परप्रत्यय दोनों प्रकारसे होते हैं। अगुरुलघु गुणोंकी हानि और घृद्धिको अपेक्षा काल में स्वप्रयय उत्पाद और व्यय होता रहता है। काल द्रव्योंक परिवतन में कारण होता है. अतः परप्रत्यय उत्पाद और व्यय भी काल में होते हैं। काल में साधारण और असाधारण दोनों प्रकारके गुण रहते हैं। अचेतनत्व, अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व आदि कालफे साधारण गुण है। द्रव्यों के परिवर्तन में हेतु होना कालका असाधारण गुण है। इसीप्रकार कालमें पर्याएँ भी उत्पन्न और विनष्ट होती रहती है। अत: जीवादि की तरह काल भी द्रव्य है। प्रश्न--काल द्रव्यको प्रश्रा क्यों कहा । पहिले "अजीवकाया धर्माधर्माकाशकालपुद्गला"ऐसा सूत्र बनाना चाहिये था। ऐसा करनेसे काल द्रव्यका पृथक वर्णन न करना पड़ता। उत्तर-यदि "अजीवकाया" इत्यादि सूत्र में काल द्रव्यको भी सम्मिलित कर देते तो जमार्गकियोको भाकाल माविकीयाजाती महाकन कालद्रव्य मुख्य और उपचार दोनों रूपसे काय नहीं है। पहिले "निष्क्रियाणि च" इस सूत्रमें धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यको निष्क्रिय बतलाया है। इनके अतिरिक्त द्रव्य सक्रिय हैं। अतः पूर्व सूत्र में कालका वर्णन होनेसे काल भी सक्रिय द्रव्य हो जाता और "आ आकाशादेकद्रव्यम्' इसके अनुसार काल भी एक द्रव्य हो जायगा । लेकिन काल न तो सक्रिय है और न एक दूधप। इन कारणोंसे काल द्रव्यका वर्णन पृथक किया गया है। कालद्रव्य अनेक है इसका तात्पर्य यह है कि लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेश पर एक एक कालाणु रत्नराशि के समान पृथक पृथक् स्थित है । लोकाकाशके प्रदेश असंख्यात होनेसे काल द्रव्य भी असंख्यात है । कालाणु अमूर्न और निष्क्रिय हैं तथा सम्पूर्ण लोकाकाशमें व्याप्त है। व्यवहारकाल का प्रमाण सोऽनन्तसमयः ॥४॥ व्यवहारकालका प्रमाण अनन्त समय है। यद्यपि वर्तमान कालका प्रमाण एक समय ही है किन्तु भूत और भविष्यत् कालकी अपेक्षासे कालको अनन्तसमयवाला कहा गया है। अथवा यह सूत्र व्यवहार कालके प्रमाणको न घतलाकर मुख्यकालके प्रमाणको ही बसलाता है। एक भी कालागु अनन्त पर्यायोंकी वर्तनामें हेतु होने के कारण उपचारसे अनन्त समयवाला कहा जाता है। समय कालके उस छोटेसे छोटे अंशको कहते हैं जिसका बुद्धि के द्वारा विभाग न हो सके। मन्दगति से चलनेवाले पुद्गल परमाणुको आकाशके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेश तक चलने में जितना काल लगे उतने कालको समय कहते है। ___यहाँ समय शब्दसे आवली, उच्छ्वास आदिका भी प्रहण करना चाहिये । असंख्यात समयोंकी एक आवली होती है। संख्यात प्रावलियोंका एक उच्छ्वास होता है। सात Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४१-४२] पञ्चम अध्याय मार्गदर्शकछवासोंचाई भोजविसलगरसभा से एक लय होता है। साड़े अड़तीस लयोंकी एक माली होती है। वो नलियोंका एक मुहूर्त होता हैं और श्रावलीसे एक समय अधिक तथा मुहूर्वसे एक समय कम अन्तमुहूर्तका काल है । इसी तरह माह, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, पल्योपम आदिकी गणना होती है। गुणाका लक्षण द्रव्याश्रया निगुणा गुणाः ॥ ११ ॥ जो द्रव्यके आश्रित हो और स्वयं निर्गुण हो उनको गुण कहते हैं। निर्गुण विशेषण से द्वधगुक, त्र्यणुक आदि स्कन्धोंकी निवृत्ति हो जाती है। यदि 'ट्याश्रया गुणाः सा ही लक्षण कहते तो द्वथणुक आदि भी गुण हो जाते क्योंकि ये अपने कारणभूत परमाणुव्यके आश्रित हैं। लेकिन जब यह कह दिया गया कि जो गुणको निर्गुण भी होना चाहिये तो वणुक आदि गुण नहीं हो सकते क्योंकि निर्गुण नहीं हैं किन्तु गुण सहित है। ___ यद्यपि घट संस्थान आदि पर्यायें भी द्रव्याश्रित और निर्गुण है लेकिन वे गुण नहीं हो सकती क्योंकि 'द्रव्याश्रया'का तात्पर्य यह है कि गुणको सदा द्रव्यके आश्रित रहना चाहिये। और एयायें कभी कभी साथ रहती है. वे नष्ट और उत्पन्न होती रहती है अतः पर्यायोंको गुण नहीं कह सकते। नैयायिक गुणोको द्रव्यसे पृथक् मानते हैं लेकिन उनका ऐसा मानना ठीक नहीं है। यद्यपि संज्ञा, लक्षण आदिके भेदसे द्रव्य और गुणमें कथंचित् भेद है लेकिन द्रव्यात्मक और द्रव्यके परिणाम या पर्याय होनेके कारण गुण द्रव्यसे अभिन्न है। पर्यायका वर्णन तद्भावः परिणामः ॥ ४२ ॥ धर्मादि द्रव्यों के अपने अपने स्वरूपसे परिणमन करनेको पर्याय कहते हैं। धर्मादि द्रव्योंके स्वरूपको ही परिणाम कहते हैं। परिणामके दो भेद है-सादि और अनादि । सामान्यसे धर्मादि द्रव्योंका गत्युपमइ आदि अनादि परिणाम है और वही परिणाम विशेषकी अपेक्षा सादि है । तात्पर्य यह कि गुण और पर्याय दोनों ही द्रव्योफे परिणाम है। पांचवा अध्याय समाप्त Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठवाँ अध्याय योगका स्वरूप कायवाङ्मनःकर्म योगः ॥ १॥ मन, वचन और कायकी क्रियाको योग कहते हैं। अर्थात् मन, वचन और कायकी वर्गणाओं को आलंबन लेकर आस्माके प्रदेशोंमें जो हलन चलनरूप क्रिया होती हैं उसीका नाम योगगनगिके सीमवादी- कानयजयो अरमानीयोग । वीर्यान्तरायके क्षयोपशम होनेपर तथा औदारिक,औदारिकमिश्र, क्रियिक, क्रियिकर्मिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण शरीर रूपसे परिणत वर्गणाओंमसे किसी शरीरवर्गणाके निमित्त से आत्माके प्रदेशों में जो क्रिया होती है वह काययोग है। शरीर नामकर्म के उदयसे होनेवाली वचनवर्गःणाके होनेपर, वीर्यान्तरायका क्षयोपशम होनेपर, मतिज्ञानावरणका श्योपशम होनेपर, अक्षरादिश्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर और अन्तरंगमें वचनलब्धिकी समीपता होनेपर वचनरूप परिणामके अभिमुख आत्माके प्रदेशामें जो क्रिया होती है उसको वचनयोग कहते हैं । वचनांग सत्य, असत्य, उभय और अनुभयके भेदसे घार प्रकारका है। श्रन्नरंगमें योर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशमरूप मनोलब्धिके होनेपर और बहिरंगमें मनोवर्गणाके उदय होनेपर मनरूप परिणामके अभिमुख श्रात्माके प्रदेशों में जो क्रिया होती है वह मनोयोग है। ____ सयोगकवलीमें वीर्यान्तराय आदिके भय होनेपर मनोवर्गणा आदि तीन प्रकारकी वर्गणाओंके निमित्तसे ही योग होता है। सयोगकैवलीका योग अचिन्तनीय है जैसा कि स्वामी समन्तभद्रने बृहनस्वयंभू स्तोत्रमें कहा है-हे भगवन ! आपके मन, वचन और कायकी प्रवृत्तियाँ इच्छापूर्वक नहीं होती हैं और न विना विचारे ही होती हैं, आपकी चेष्टाएँ अचिन्त्य हैं। आस्रवका वर्णन स आस्रवः ॥ २॥ ऊपर कह गये योगका नाम ही आम्रव है । कर्मके आने के कारणोंको आसत्र कहते हैं। मन, वचन और कायकी क्रिया के द्वारा श्रात्मामें कर्म आते हूँ अतः योगको श्रास्त्र कहते हैं। दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपरणात्मक भी योग होता है लेकिन वह अनास्त्र रूप है अर्थात् दण्डादियोग कर्मों के आनेका कारण नहीं होता है। जिस प्रकार गोला वस्त्र धूलि को चारों ओरसे प्रण करता है अथवा तप्त लोईका गरम गोला चारों ओरसे जलको महण करता है उसी प्रकार कषायसे सन्तम जीव योगके निमित्तसे आये हुये कर्मों को सम्पूर्ण प्रदेशोंक द्वारा ग्रहण करता है। शुभः पुण्यस्थाशुभः पापस्य ॥ ३ ॥ शुभ योग पुण्य कर्मके आसवका और अशुभ योग पापकर्म के आवका कारण होता है । जो आत्माको पवित्र करे वह पुण्य है, जो आत्माको कल्याणकी ओर न जाने Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक : आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज छठवाँ अध्याय ६॥४-५॥ ४३५ दे वह पाप है । सद्र्य, शुभायु, शुभनाम और शुभ गोत्र पुण्य हैं. असातावेदनीय अशुभ आयु अशुभ नाम और अशुभ गोत्र पाप हैं। जीवरक्षा, अचौर्य, ब्रह्मचर्यादि शुभ कार्ययोग है । सत्य, हित, मित, प्रियभाषणादि शुभ वचनयोग है । अर्हन्त आदिकी भक्ति, तपमें रुचि, शास्त्री विनय आदि शुभ मनोयोग है। हिंसा, अदत्तादान, मैथुन आदि अशुभ काययोग हैं। असत्य, अप्रिय, अहिंत, कर्कश भाषण आदि अशुभ वचनयोग है । चिन्तन, ईर्ष्या, असूया आदि अशुभ मनोयोग हैं। शुभ परिणामों में उत्पन्न योगको शुभ योग और अशुभ परिणामोंसे उत्पन्न योगको अशुभ योग कहते हैं। ऐसा नहीं है कि जिसका हेतु शुभ कर्म हो वह शुभ योग और जिसका हेतु अशुभ कर्म हो वह अशुभ योग कहा जाय । यदि ऐसा माना जाय तो केवली के भी शुभाशुभ कर्मका बन्धं होना चाहिये क्योंकि केवली के अशुभ कर्म (असातावेदनीय) का उदय होनेसे अशुभ योग हो जायगा और अशुभ योग होने अशुभ कर्मका बन्ध होना चाहिये। लेकिन केवली के अशुभ कर्मका बन्ध नहीं होता है । प्रश्न – शुभ योग भी ज्ञानावरणादि कर्मके बन्धका कारण होता है। जैसे किसीने एक उपवास करने वाले व्यक्तिसे कहा कि तुम पढ़ो नहीं, पढ़ना बन्द कर दो! तो यद्यपि कहने वालेने हितकी बात कही फिर भी उसके ज्ञानावरणादिका बन्ध होता है । इसलिये एक अशुभ योग ही मानना ठीक है शुभ योग है ही नहीं । उत्तर - उक्त प्रकार से कहनेवालेको अशुभ कर्मका आस्त्रव नहीं होता है क्योंकि उसके परिणाम त्रिशुद्ध हैं । उसके कहने का अभिप्राय यह था कि यदि यह उपवास करनेवाला व्यक्ति इस समय विश्राम कर ले तो भविष्य में अधिक तप कर सकता है | अतः उसके परिणाम शुभ होने से अशुभ कर्मका आसव नहीं होता है । मांस का भी है कि स्व और परमें उत्पन्न होनेवाले सुख या दुःख यदि विशुद्धिपूर्वक हैं तो पुण्यास्त्रव होगा यदि संक्लेश पूर्वक हैं तो पापास्स्रव होगा। यही व्यवस्था पुण्य-पापास्स्रषकी सयुक्तिया है । सकषायाकषाययोः साम्परायिकेय थियोः ॥ ४ ॥ जो आत्माको कसे अर्थात् दुःख दे बहु कषाय । अथवा कपाय चेंपको कहते हैं जैसे बद्देदा या ऑक्लेका कसैली पत्रके कसैले रंगसे रंग देता है । कषाय सहित जीवों के साम्परायिक और कषाय रहित जीवोंके ईर्यापथ आस्रव होता है। संसार कारणभूत व को साम्परायिक श्रनव कहते हैं ।। स्थिति और अनुभाग रहित कर्मों के आस्त्रयको ईर्याथ आस्रव कहते हैं । कषायसहित जीवोंके अर्थात मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से दशमें गुणस्थान तक साम्परायिक आस्त्रव होता है । और ग्यारहवें गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान तक ईर्याथ आसव होता है। ईगोपथ आस्रव संसारका कारण नहीं होता है क्योंकि उपशान्त पाय आदि गुणस्थानों में कषायका अभाव होनेसे योगके द्वारा आये हुये कर्मों का स्थिति और अनुभाग बन्ध नहीं होता है और आये हुये कर्मों की सूखी दीवाल पर गिरे हुये पत्थर की तरह तुरन्त निवृत्ति हो जाती है । और कषायसहित जीवों के योगके द्वारा आये हुए कमा पायके निमित्त से स्थिति और अनुभागबन्ध भी होता है अतः वह संसारका कारण होता है। चौदहवें गुणस्थान में आस्रव नहीं होता है । I साम्परायिक आवके भेद इन्द्रियकषायावत क्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसंख्या: पूर्वस्य भेदाः ||ी पाँच इन्द्रिय, धार कषाय, पाँच अत्रत और पचीस क्रियाएँ इस प्रकार साम्परायिक Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्रार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ ६६ के उनतालीस भेद हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियोंके द्वारा क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों के द्वारा और हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह इन पाँच अतोंके द्वारा साम्परायिक आस्रव होता है । सम्यक्त्व आदि पीस क्रियाओंके द्वारा भी साम्परायिक आसव होता है। पचीस क्रियाओं का स्वरूप निम्न प्रकार है— मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज १ सम्यक्त्यको बढ़ाने वाली क्रियाको सम्यक्त्व क्रिया कहते है जैसे देवपूजन, गुरूपारित, शास्त्र प्रवचन आदि । २ मिध्यात्वको बढ़ानेवाली किया मिध्यात्य क्रिया हैं जैसे कुदेवपूजन आदि । ३ शरीरादिके द्वारा गमनागमनादिमें प्रवृत्त होना प्रयोग क्रिया है । ४ संयमीका अविरत के सम्मुख होना अथवा प्रयत्नपूर्वक उपकरणादिका ग्रहण करना समादान किया है। ५ पथ कर्मकी कारणभूत क्रियाको ईर्यापथ क्रिया कहते हैं । ६ दुष्टतापूर्वक फायसे उद्यम करना कायिकी क्रिया है। हिंसाके उपकरण तलवार आदिका ग्रहण करना अधिकरण किया है । ८ जीवको दुःख उत्पन्न करने वाली क्रियाको पारितापिकी क्रिया कहते हैं । ९ आयु, इन्द्रिय आदि दश प्राणका वियोग करना प्राणातिपातिकी क्रिया है । ११ रागके कारण रमणीयरूप देखनेकी इच्छा का होना दर्शन किया है। १२ कामके वशीभूत होकर सुन्दर कामिनीके स्पर्शनको इच्छाका होना स्पर्शन किया है। १३ नये नये हिंसादिके कारणों का जुटाना प्रात्ययिकी क्रिया है । २४ स्त्री, पुरुष और पशुओंके बैठने आदिके स्थान में मल, मूत्र आदि करना समन्तानुपात क्रिया है । १५ विना देखी और बिना शोधी हुई भूमि पर उठना, आदि अनाभोग क्रिया है । १६ नौकर आदिके करने योग्य क्रियाको स्वयं करना स्वहस्त क्रिया है । १७ पापको उत्पन्न करनेवाली प्रवृत्ति में दूसरेको अनुमति देना निसर्ग क्रिया है । १८ दूसरों द्वारा किये गये गुप्त पापको प्रगट कर देना विदारण क्रिया है । १९ चारित्रमोहके उदय से जिनोक्त आवश्यकादि क्रियाओंके पालन करने में अर्थ होनेके कारण जिनांनासे विपरीत कथन करना अशा व्यापादन क्रिया है । २० प्रमाद अथवा अज्ञानके कारण शास्त्रोक्त क्रियाओंका आदर नहीं करना अनाकांक्षाक्रिया है । २१ प्राणियों के छेदन, भेदन आदि क्रियाओं में स्वयं प्रवृत्त होना तथा अन्यको प्रवृत देखकर हर्षित होना प्रारम्भ किया है। २२ परिग्रह की रक्षाका प्रयत्न करना पारिग्रहिकी क्रिया है । २३ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपमें तथा इनके धारी पुरुषोंमें कपट रूप प्रवृत्ति करना माया क्रिया है । २४ मिध्यामठोक क्रियाओंके पालन करनेवाले की प्रशंसा करना मिथ्यादर्शन क्रिया है । २५ चारित्र मोहके उदयसे त्यागरूप प्रवृत्ति नहीं होना अप्रत्याख्यान क्रिया है । खठना ४३६ इन्द्रिय आदि कारण हैं और क्रियाएँ कार्य हैं अवः इन्द्रियोंसे क्रियाओं का भेद स्पष्ट है । आस्रवकी विशेषता में कारण तीव्रमन्दाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ॥ ६ ॥ तीभाव, मन्दभाव ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण और वीर्यकी विशेषतासे ear विशेषता होती है । ATM और अभ्यन्तर कारणोंसे जो तोत्र भाव है । कषायकी मन्दता होनेसे जो 'इस प्राणीको मारूँगा' इस प्रकार जानकर उत्कट क्रोधादिरूप परिणाम होते हैं वह सरल परिणाम होते हैं वह मन्द भाव है । प्रवृत्त होना ज्ञातभाष है। प्रमाद अथवा Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ६७८ ]] छठवाँ अध्याय ४३७ अज्ञानसे किसी प्राणीको मारने आदि में प्रवृत होना अज्ञातभाव है । आधारको अधिकरण कहते हैं। और द्रव्यकी स्वशक्ति विशेषको वीर्य कहते हैं । क्रोध, राग, द्वेष, सज्जन और दुर्जन जनका संयोग और देशकाल आदि बाह्य कारणों के यशसे किसी आत्मामें इन्द्रिय, कपाय, मन और क्रियाओं की प्रवृत्ति में तीव्र भाव और किसी मन्द भाव होते हैं । और परिणामके अनुसार ही तीव्र या मन्द आस्रव होता हैं। जानकर इन्द्रिय, अम्रत श्रादिमें प्रवृत्ति करनेपर अल्प आम्रव होता है | अधिकरण की विशेषतासे भी में विशेषता होती है जैसे वेश्या के साथ श्रालिङ्गन करनेपर अल्प और राजपत्नी या भिक्षुणीसे आलिङ्गन करनेपर महान् स्त्रव होता है। बीर्यकी विशेषता से भी में विशेषता होती है जैसे वज्रवृषभनाराच संहननवाले पुरुषको पाप कर्म में प्रवृत्त होनेपर महान् आस्त्रव होगा और होन संहननवाले पुरुषके अल्प आस्रव होगा । इसी प्रकार देश काल आदिके भेदसे भी आस्रव में भेद होता है जैसे घर में ब्रह्मचर्यं भंग करनेपर अल्प और देवालय में ब्रह्मचयं भंग करनेपर अधिक आस्रव होगा। उससे भी अधिक आस्रव तीर्थयात्राको जाते समय मार्ग में ब्रह्मचर्य भंग करनेपर, उससे भी अधिक तीर्थस्थान पर ब्रह्मचर्य भङ्ग करनेपर तीव्र आस्रव होता है। इसी तरह देववन्दना आदि के कालमं कुप्रवृत्ति करनेपर महान् घाव होता है। इसी प्रकार पुस्तकादि द्रव्यकी अपेक्षा भी आस्रव में विशेपता होती है । इस प्रकार उक्त कारणोंक भेदसे आसव में भेद समझना चाहिये । अधिकरणका स्वरूपअधिकरणं जीवाजीवाः ॥ ७ ॥ जीव और अजीव ये दो आस्रव के अधिकरण या आधार है। यद्यपि सम्पूर्ण शुभ और अशुभ व जीवके ही होता है लेकिन आस्रवका निमित्त जीव और अजीव दोनों होते हैं अतः दोनोंको आस्रवका अधिकरण कहा गया है। जीव और अजीव दो द्रव्य होने से सूत्र में "जीवाजीव" इस प्रकार द्विवचन होना चाहिये था लेकिन जीव और अजीवको पर्यायोंको भी आवका अधिकरण होनेसे पर्यायकी अपेक्षा सूत्र में बहुवचनका प्रयोग किया गया है । जीवाधिकरण के भेद- आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमत्तकपाय विशेषैस्त्रिस्त्रिविधतुःश्वैकशः ॥ = संरंभ, समारंभ ओर आरम्भ, मन, वचन और काय; कृत, कारित और अनुमोदना, क्रोध, मान, माया और लोभ इनके परस्पर में गुणा करनेपर जीवाधिकरण के एक सौ आठ भेद होते हैं। किसी कार्यको करनेका संकल्प करना संरंभ है। कार्यकी सामग्रीका एकत्रित करनेका नाम समारंभ है । और कार्यको प्रारंभ कर देना आरंभ है। स्वयं करना कृत, दूसरे से कराना कारित और किसी कार्यको करनेवाले की प्रशंसा करना अनुमत या अनुमोदना है। जीवाधिकरणके एक सौ आठ भेद इस प्रकार होते हैं । क्रोधकृतका संरंभ, मानकृतकायसंरंभ, मायाकृतकाय संरंभ, लोभकृतकायसंरंभ, कारितका संरंभ, मानका रितकायसंरंभ, मायाकारितकायसंरंभ, लोभकारितका संरंभ, क्रोधानुमतकायसंरंभ, मानानुमतकायसंरंभ, सायानुमतकाय संरंभ और लोभानुमतकाय संरंभ इस प्रकार कायसंरंभ के बारह भेद हैं । वचन संरंभ और मनः संरंभ के भी इसी प्रकार बारह बारह भेद समझना चाहिये | इस प्रकार संरंभके कुल छत्तीस भेद हुये । इसी प्रकार Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्रार्थयन्ति हिन्दी-सार [६॥९-१० समारंभ और प्रारम्भके भी छत्तीस छत्तीस भेद होते हैं । अतः सब मिलाकर जीवाधिकरणफ एक सौ आठ भेद होते हैं । सूत्रमें 'च' शब्दमे यह सूचित होता है कि कपार्योके अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान आदि प्रभेदोंके द्वार। जीवाधिकरणके और भी अन्तर्भेद होते हैं। अजीयाधिकरणके भेदनिवर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वि त्रिभेदाः परम् ॥ ६॥ दो निर्वतना, तीन निक्षेप, दो सर्वोपरि तीनभर्यिकाभिविधिसीयाधिकरणहाराज ग्यारह भेद होते हैं। रचना करनेका नाम निर्वतना है। निर्षर्तनाके दो भेद है-मूलगुण निर्वर्तना और उत्तरगुण निर्वर्तना। मूलगुण निवर्तनाके पाँच भेद है-शरीर, बचन, मन, प्राण और अपान | इनकी रचना करना मूलगुण-निर्धतेना है। काष्ठ, पाषाण, आदिसे चित्र श्रादि बनाना, जीवके खिलौने बनाना, लिखना आदि उत्तरगुण निर्वर्तना है। किसी वस्तु के. रखमको निक्षेप कहते हैं। इसके चार भेद है-अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण, दाप्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण, सहसानिक्षेपाधिकरण और अनाभोगनिक्षेधिकरण । विना दो किमी वस्तुको रख देना अप्रत्यवेक्षितनिक्षेषाधिकरण है । ठीक तरहसे न शोधी हुई भूमिमें किसी वस्तुको रखना टुःप्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण है। शीघ्रतापूर्वक किसी वस्तुको रवग सहसानिक्षेपाधिकरण है। किसी वस्तुको विना देख अयोग्य स्थान में रखना अनाभोगनिक्षेपाधिकरण है। मिलानेका नाम संयोग है । संयोगाधिकरणके दो भेद हैं-अन्नपानसंयो. गाधिकरण और उपकरणसंयोगाधिकरण। किसी अन्नपानको दूसरे अन्नपानमें मिलाना अन्नपानसंयोगाधिकरण है। और ऋमण्डलु आदि उपकरणोंको दूसरे उपकरणों के साथ मिलाना उपकरणसंग्रोगाधिकरण है। प्रवृत्ति करनेको निसर्ग कहते हैं। इसके तीन भेद हैं-कार्यानसर्गाधिकरण, वाकनिसर्गाधिकरण और मनोनिसर्गाधिकरण । काय, बचन और मनसे प्रवृत्ति करनेको क्रमसे कायादिनिसर्गाधिकरण समझना चाहिये। सूत्रमें 'पर' शब्द अजीवाधिकरणका बाचक है । यदि पर शन्द न होता तो ये भेद भी जीवाधिकरणके ही हो जाते । उक्त ग्यारह प्रकारके अजीबाधिकरणके निमिस से प्रात्मामें कर्मोंका आत्रच होता है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के प्राचवतत्प्रदोषनिहवमात्सर्यान्तरायासादनीपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥१०॥ ज्ञान और दर्शन विषयक प्रदोप, निलय, मात्मर्य, अन्तराय, प्रासादन और उपघात ये झानाधरण और दर्शनावरण के अास्रय है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन-ज्ञानयुक्त पुरुषकी प्रशंसा सुनकर स्वयं प्रशंसा न करना और मनमें दुष्ट भाओंका लाना प्रदोष है। किसी बानको जानने पर भी मैं उस बात को नहीं जानता हूँ पुस्तक श्रादिके होनेपर भी मेरे पास पुस्तक आदि नहीं है। इस प्रकार ज्ञानको छिपाना निहब है। योग्य झान योग्य पात्रको भी नहीं देना मात्सर्य है। किसीके ज्ञानमें विघ्न डालना अन्तराय है। दूसरे के द्वारा प्रकाशित ज्ञानकी काय और वचनसे विनय, गुणकीर्तन श्रादि नहीं करना आसाइन है। सम्यम्झानको भी मिथ्याज्ञान कहना उपघात है। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४११] छठवाँ अध्याय ४३५ प्रासादनमें ज्ञानकी विनय आदि नहीं की जाती है, लेकिन उपघातमें ज्ञानको नाश करनेका ही अभिप्राय रहता है अतः इनमें भेद स्पष्ट है। प्रश्न-पहिले बान और दर्शनका प्रकरण नहीं होनेसे इस सूत्रमें आए हुए तत्' शब्दके द्वारा ज्ञान और दर्शचका ग्रहण कैसे किया गया ? उत्तर -- यद्यपि पहिले ज्ञान और दर्शनका प्रकरण नहीं है फिर भी सूत्र में ज्ञानदर्शनाचरणयोः' शब्दका प्रयोग होने से 'नत् शब्दके द्वारा शान और दर्शनका ग्रहण किया गया है। अथवा ज्ञानावरण और दर्शनावरणके आस्रव कौन हैं ऐसे किसीक प्रश्नके उत्तर में यह सूत्र बनाया गया अनः तत् शब्दके द्वारा ज्ञान और दर्शनका ग्रहण किया गया है। ____ एक कारणके द्वारा अनेक कार्य भी होते हैं अतः ज्ञानके विषयमें किये गये प्रदोष आदि दर्शनावरणके भी कारण होते हैं। अथवा ज्ञानविषयक प्रदोष आदि ज्ञानावरणक और दर्शनविण्यक प्रदोष आदि दर्शनावरण के कारण होते हैं। प्राचार्य और उपाध्याय के साथ शत्रुता रखना, अकालमें अध्ययन करना, अरुचिपूर्वक पढ़ना, पढ़नेमें आलस करना, व्याख्यान को अनादरपूर्वक सुनना, जहाँ प्रथमानुयोग बाँचना चाहिये वहीं अन्य कोई अनुयोग बाँचना, तीर्थोपरोध, बहुश्रुत के सामने गर्व करना, मिथ्योपदेश. बहुश्रुतका अपमान, स्वपक्षका त्याग, परपक्षका ग्रहण, ख्याति-पृजा आदिकी इन्छासे असम्बद्ध प्रलाप, सूत्रके विरुद्ध व्याख्यान, ऋपटसे ज्ञानका ग्रहण करना, शाखा बेवना, और प्राणातिपात आदि ज्ञानावरण के आस्रव हैं। देव, गुरु आदिके दर्शन में मात्सर्य करना, दर्शन में अन्तराय करना. किसीकी चाक्षुको उखाड़ देगाझीयाभिमतिकान्यासुनिभिसामरकर्मबाडासमेत्रोंका अहङ्कार, दीर्घनिद्रा, अतिनिद्रा, आलस्य, नास्तिकता, सम्यग्दृष्टियों को दोष देना, कुशास्त्रों की प्रशंसा करना, मुनियोंसे जुगुप्सा आदि करना और प्राणातिपात आदि दर्शनावरण के आसब हैं । असातावेदनीयके पासवदुःखशोफतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्भयरोभयस्थान्य सद्धेद्यस्य ।। ११ ।। स्व, पर तथा दोनों में किए जानेवाले दुःख, शोक, ताप, याक्रन्दन, वध और परिदेवन आसातारेदनीयके आस्रव हैं। पोड़ा या वेदनारूप परिणामको दुःश्य कहते हैं। उपकार करनेवाली चेतन या अचेतन वस्तुके नष्ट हो जानेसे विकलता होना शोक है। निन्दासे, मानमगसे या कर्कश वचन आदिसे होनेवाले पश्चात्तापको ताप कहते हैं । परितापके कारण अश्रुपातपूर्वक, बहुविलाप और अङ्ग विकारसे सहित स्पष्ट रोना आक्रन्दन है। आयु, इन्द्रिय श्रादि दश प्रकारके प्राणोंका वियोग करना यध है। स्व और परोपकारकी इच्छासे संकेशपरिणामपूर्वक इस प्रकार रोना कि सुननेवाले के हृदय में दद्या उत्पन्न हो जाय परिदेवन है। यद्यपि शोक आदि दुःखसे पृथक् नहीं हैं, लेकिन दुःख सामान्य वाचक है अतः दुःखकी कुछ विशेष पर्याय बतलाने के लिये शोक प्रादिका पृथक ग्रहण किया है। प्रश्न-यदि आरम, पर और उभयस्थ दुःख, शोक आदि असाताबेदनीयके आसव हैं तो जैन साधुओं द्वारा केशोंका उखाड़ना, उपवास, आतपनयोग आदि स्वयं करना और दुसरोंको करनेका उपदेश देना श्रादि दुःखके कारणों को क्यों उचित घतलाया है ? उत्तर-अन्तर में क्रोधादिके आवेशपूर्वक जो दुःस्वादि होते है वे असातावेदनीयके Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० तत्वार्थवृप्ति हिन्दी-सार [ ६४१२-१३ कारण हैं और क्रोध अभाव होनेसे दुःखादि असातावेदनीय के आस्रव के कारण नहीं होते हैं। जिस प्रकार कोई परम करुणामय वैद्य किसी मुनिके फोड़ेको शस्त्रसे चीरता है और इससे मुनिको दुःख भी होता है लेकिन कोधादिके बिना केवल बाह्य निमित्तमात्र से वैद्यको पाका बन्ध नहीं होता है, उसी प्रकार सांसारिक दुःखोंसे भयभीत और दुःखनिवृत्तिके लिये शास्त्रोत कर्म में प्रवृत्ति करनेवाले मुनिका केशोत्पादन आदि दुःखके कारणों के उपदेश देनेपर भी संक्लेश परिणाम न होनेमे पापका बन्ध नहीं होता है । कहा भी है- 'कि चिकित्सा के कारणों में दुःख या सुख नहीं होता है किन्तु चिकित्सा में प्रवृत्ति करनेवालेको दुःख या सुख होता है। इसी प्रकार मोक्षकं साधनों में दुःख या सुख नहीं होता है किन्तु मोक्षके उपाय में प्रवृत्ति करनेवालेको दुःखं या सुख होता है । असा साधन राखी खानहीं होता है किन्तु चिकित्सा करनेवाले बैद्यको सुख या दुःख होता है। यदि वैद्य कोधपूर्वक फोडेको चीरता है तो उसको पापा बन्ध होगा और यदि करुणापूर्वक पीडाको दूर करनेके लिये फोड़े को चीरता है तो पुण्यका बन्ध होगा । इसी प्रकार माह क्षय के साधन उपवास, केशलोंच आदि स्वयं दुःख या सुखरूप नहीं है किन्तु इनके करने वालेको दुःख या सुख होता है। यदि गुरु क्रोधादिपूर्वक उपवासादिको स्वयं करता है या दूसरोंसे कराना है तो उसको पापका बन्ध होगा और यदि शान्त परिणाम से दुःखविनाशके लिये उपवास आदिको करता है तो उसको पुण्यका बन्ध होगा । अशुभ प्रयोग, परनिन्दा, पिशुनता, अदया अोपाका छेदन-भेदन, ताड़न, बास, अली आदिले तर्जन करना, बचन दिसे किसीकी भर्त्सना करना, रोधन, बन्धन, दमन, आत्मप्रशंसा, क्लेशोत्पादन, बहुत परिग्रह, मन, वचन और कायकी कुटिलता, पाप कर्मोंसे आजीविका करना, अनर्थदण्ड, विष मिश्रण, वाण जाल पिचरा आदि का बनाना आदि भी असातावेदनीय कर्मके आसव हैं । सातावेदनीयके आस --- भूतत्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः शान्तिः शौचमिति सद्वेधस्य ॥ १२ ॥ भूतानुकम्पा, अत्यनुकम्पा, दान, सरागसंयमादि, शान्ति और शौच से सातावेदनीयके आन हैं । चारों गतियोंके प्राणियों में दयाका भाव होना भूतानुकम्पा है । अणुव्रत और महाव्रत के धारी श्रावक और मुनियोंपर दया रखना अत्यनुकम्पा है । परोपकार के लिये अपने द्रव्यका त्याग करना दान है। छह कायके जीवोंकी हिंसा न करना और पाँच इन्द्रिय और मनको वशमें रखना संयम है। रागसहित संयमका नाम सरागसंयम है। क्रोध, मान, और मायाकी निवृत्ति क्षान्ति है । सब प्रकारके लोभका त्याग कर देना शौच है । सूत्र में आदि शब्द से संयमासंयम, अकामनिर्जरा, बालतप आदि और इति शब्दसे अर्हत्पूजा, तपस्योकी वैयावृत्य आदिका ग्रहण किया गया है। I यद्यपि भूत ग्रहणसे तपस्वियों का भी ग्रहण हो जाता है लेकिन व्रतियोंमें अनुकम्पाकी प्रधानता बतलाने के लिये भूतोंसे व्रतियोंका ग्रहण पृथक किया गया है। दर्शन मोहनीय के आस्रव -- केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥ १३ ॥ केली, श्रुत, संघ, धर्म और देवोंकी निन्दा करना दर्शनमोहनीय के आकाष हैं । Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६।१४] छठवाँ अध्याय जिनके त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों और पर्योको युगपत् जाननेवाला केवलज्ञान हो वे केवली हैं । सर्वज्ञके द्वारा कहे हुए और गणधर आदिके द्वारा रचे हुए शात्रोंका नाम श्रुत है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपके धारी मुनि, आग्रिका, श्रारक और श्राविकाओं के समूहका नाम संघ है। सर्वज्ञ, बीसराग और हितोपदेशीके द्वारा कहा हुआ अहिंसा, सत्य आदि लक्षणवाला धर्म है। भवनवासी आदि पूर्वोक्त चार प्रकारके देव होते हैं। __केवलीका अवर्णवाद-केवली कवलाहारी होते हैं रोगी होते हैं उपसर्ग होते हैं । नग्न रहते हैं किन्तु वस्त्रादियुक्त दिखाई देते हैं इत्यादि प्रकारसे कंवलियोंकी निन्दा करना केवली का अवर्णवाद है। श्रुतका अवर्णवाद-मांसभक्षण, मद्यपान, माता-वहिन आदि के साथ मैथुन, जलका छानना पापजनक है.-इत्यादि बातें शास्त्रोक्त हैं, इस प्रकार शाहकी निन्दा करना श्रुतका अवर्णवाद है। संघका अयर्णवाद--मुनि आदि शूद्र है, अपवित्र हैं, स्नान नहीं करते है, बेदोंके अनुगामी नहीं हैं, कलि कालमें उत्पन्न हुए है, इस प्रकार संघकी निन्दा करना संघका अवर्णवाद है। धर्मका अवर्णवाद-केवली द्वारा कहे हुए धर्ममें कोई गुण नहीं है. इसके पालन करनेवाले लोग असुर होते हैं. इस प्रकार धर्मकी निन्दा करना धर्मका अवर्णवाद है । देवोंका अवर्णवाद- देव मद्यपायी और मांसभक्षी होते हैं इत्यादि मार्गदर्शक :-प्रजालोरोकी नवसरमा शोकाहाराणवाद है। चारित्र मोहनीयका आस्रव कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्वारित्रमोहम्य ॥ १४ ।। कषायके उदयसे होने वाले तीत्र परिणाम चारित्र मोहनीयके आस्रव हैं। चारित्र मोहनीयके दो भेद हैं-कपाय मोहनीय और अकषाय मोहनीय । स्त्रयं और दूसरेको कषाय उत्पन्न करना, व्रत और शीलयुक्त यतियोंके चरित्रमें दूषण लगाना, धर्मका नाश करना, धर्ममें अन्तराय करना, देशसंयतोंसे गुण और शीलका त्याग कराना, मात्सर्य आदि से रहित जनोंमें विभ्रम उत्पन्न करना, आत और रोद्र परिणामों के जनक लिङ्ग, व्रत आदिका धारण करना कपायमोहनीयके प्रास्रव है। ____ अकषाय मोहनीयके नौ भेद हैं--हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुवेद और नपुंसकवेद । समीचीन धर्मके पालन करनेवालेका उपहास करना, दीन जनाको देखकर हँसना, कन्दपपूर्वक हँसना, बहुत प्रलाप करना,हास्यरूप स्वभाव होना आदि हास्यके आस्रव हैं। नाना प्रकारकी क्रीड़ा करना,विचित्र कीड़ा, देशादिके प्रति अनुत्सुकतापूर्वक प्रीनि करना, व्रत, शील आदिमें अरुचि होना रतिके आस्रव है। दूसरोंमें अरतिका पंदा करना और रतिका विनाश करना,पापशील जनोंका संसर्ग,पापक्रियाओंको प्रोत्साहन देना आदि अरतिके आनन्न हैं । अपने और दूसरोंमें शोक उत्पन्न करना, शोकयुक्त जनोंका अभिनन्दन करना आदि शोकके भाव है। स्व और परको भय उत्पन्न करना, निर्दयता, दूसरोंको त्रास देना आदि भवके आनध हैं । पुण्य क्रियाओंमें जुगुप्सा करना, दूसरोंकी निन्दा करना आदि जुगुप्साके आम्रब पराङ्गनागमन, स्त्रीके स्वरूपका धारण करना, असत्य वचन, परवचना, दूसरों के दोपोंके देखमा, और वृद्ध में राग होना आदि स्त्री वेदके आरव हैं। अल्पक्रोध, मायाका अभाव, वर्गका अभाव, स्त्रियों में अल्प आसक्ति, इर्ष्याका न होना, रागवस्तुओंमें अनादर. स्वदारसन्तोष, परदाराका त्याग आदि पुवेदके आसब हैं। प्रचुरकषाय, गुह्येन्द्रियका विनाश, Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी सार [ ६०१५-१९ पराङ्गनाका अपमान, स्त्री और पुरुषों में अनङ्गक्रीड़ा करना, व्रत और शीलधारी पुरुषोंको कष्ट देना और तीत्ररोग आदि नपुंसकवेदके आस्रव है । नरक आयुके आम्रव बह्नारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ।। १५ ।। बहुत आरंभ और परिग्रह नरक आयुके आस्रव हैं। ऐसे व्यापारको जिसमें प्राणियोंको पीड़ा या वब हो आरंभ कहते है। जो वस्तु अपनी ( आत्माकी ) नहीं है उसमें ममेदं (यह द्धिपदाजी महाराज मिथ्यादर्शन, तोबराग, अनृतवचन, परद्रव्यहरण, निःशीलता, तोमर, परोपकार न करना, यतियों में विरोध कराना, शास्त्रविरोध, कृष्णलेश्या, विषयों में तृष्णाकी वृद्धि, रौद्रध्यान, हिंसादि क्रूर कर्मामं प्रवृत्ति, बाल, कुछ और स्त्रीकी हिंसा आदि भी नरक आयुके आ है । तिर्यच आयुके आसव — माया तैर्यग्योनस्य ॥ १६॥ माया अर्थात् छल-कपट करना तिर्यच आयुका आस्रव हैं । मिध्यात्वसहित धर्मोपदेश, अधिक आरम्भ और परिग्रह, निःशीलता, ठगनेकी इच्छा, नीलेश्या, कापीतश्या मरणकालमें आसंध्यान, क्रूरकर्म, अप्रत्याख्यान क्रोध, भेद करना, अर्थका सुवर्ण आदिको खोटा खरा आदि रूपसे अन्यथा कथन करना, कृत्रिम - चन्दनादि करना, जाति कुल और शीलमें दूषण लगाना, सद्गुणोंका लोप और दोषोंकी उत्पत्ति आदि भी तिर्यख आयुके आस्रव हैं । मनुष्य आयु के आस अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ।। १७ ।। थोड़ा आरंभ और थोड़ा परिग्रह मनुष्य आयुके आस्रव हैं। विनीत प्रकृति, भद्र स्वभाव, कपटरहित व्यवहार, अल्पकषाय, मरणकाल में असंक्लेश, मियादर्शनसहित व्यक्ति में नम्रता, सुखबोध्यता, प्रत्याख्यान क्रोध, हिंसा से विरति दोषरहितत्व, क्रूर कर्मों से रहितता, अभ्यागतों का स्वभाव से ही स्वागत करना, मधुरवचनता, उदासीनता, अनसूया. अल्पसंकेश, गुरु आदिकी पूजा, कापोत और पीतलेश्या आदि मनुष्य आयुके आसव हैं। स्वभावादेवञ्च ॥ १८ ॥ स्वाभाविक मृदुता भी मनुष्य आयुका आस्रव है। मानके अभावको मार्दव कहते है । गुरूपदेशक चिना स्वभावसे ही सरल परिणामी होना स्वभावमाव है । इस सूत्र से पृथक इसलिये किया है कि स्वभावमाईव देवायुका भी कारण है । सब आयुओंका आस्त्रत्र — निःशीलवतित्वञ्च सर्वेषाम् ।। १९ ।। तीन गुणव्रत और शिक्षावन इन सात शीटों और अहिंसा आदि पाँच व्रतोंका अभाव और सूत्र में 'च' शब्द से अल्प आरंभ और अल्प परिग्रह ये चारों आयुओं के आस्रव हैं। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६।२५ मारविर्शक :- आचार्य श्री सुशिष्ठिकाणच्याची महाराज ४४३ शील और त्रतरहित भोगभूमिज जीव दान स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते हैं अतः उक्त जीवोंकी अपेक्षा निःशीलवतित्व देवायुका अानव है। कोई अल्पारंभी और अल्प परिग्रही व्यक्ति भी अन्य पापांके कारण नरक आदिको प्राप्त करते हैं अतः एसे जीवोंकी अपेक्षा अल्शरंभ-परिग्रह भी नरक आयुका आस्रव होता है। देवायुके आस्रवसरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जरापालतपांसि दैवस्य ॥ २० ॥ सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप ये देवायुके आस्रव हैं। सरागसंयमका दो प्रकारसे अर्थ हो सकता है-राग सहित व्यक्तिका संयम अथवा रागसहित संयम । संसारके कारणों का विनाश करने में तत्पर लेकिन अभी जिसकी सम्पूर्ण अभिलाषाएँ नष्ट नहीं हुई एसे व्यक्ति को सराग कहते हैं और सरागीका जो संयम है वह सरागसंयम है। थथवा जो संयम रागसहित हो वह सरागसंयम है, अर्थात् महाव्रतको सरागसंयम कहते हैं। कुछ संयम और कुछ असंयम अर्धात् श्रावक व्रतोंको संयमासंयम कहते हैं । विना संक्लेशके समतापूर्वक कर्मों के फलको सह लेना अकामनिर्जरा है । जैसे बुभुक्षा, तृष्णा, ब्रह्मचर्य, भूशयन, मलधारण, परिताप आदिके कष्टोंको विना संक्लेशक भी सहन करने बालि जेलमें बन्द प्राणीके जो अल्प निर्जरा होती है बह अकामनिर्जग है। मिथ्यादष्टि तापस, संन्यासी, पाशुपत, परिव्राजक, एकदण्डी, त्रिदण्डी, परमहंस आदिका जो कायक्लेश आदि तप है उसको थालतप कहते हैं । सरागसंयम आदि देवायुके आस्रव हैं। सम्यक्त्तश्च ।। २१ ॥ सम्यग्दर्शन भी देवायुका आस्रव है । इस सूत्रको पूर्व सूत्रसे पृथक् करनेका प्रयोजन वह है कि सम्यग्दर्शन वैमानिक दवोंकी आयुका ही आस्रव है । सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति के पहिल बद्धायुहक जीवोंको छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टि जीव भवनवासी आदि तीन प्रकारक देवों में उत्पन्न नहीं होते हैं। अशुभनाम कर्म के आसवयोगवक्रता विसंवादनञ्चाशुभस्य नाम्नः ॥२२॥ मन, वचन और कायकी कुटिलता और विसंवादन ये अशुभ नाम कर्मके आम्रप है। मनमें कुछ सोचना, पचनसे कुछ दूसरे प्रकारका कहना और कायसे भिन्न रूपसे ही प्रांत करना योगवक्रता है। दूसरोंकी अन्यथा प्रवृत्ति कराना अथवा अयोमार्गपर चलनेवालोंको उस मार्गफी निन्दा करके बुरे मार्गपर चलनेफा कहना विसंवादन है। जैसे सम्यकचारित्र आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करनेवाले से कहना कि तुम ऐसा मत करो और ऐसा करो। योगवक्रता आत्मगत होती है और विसंवादन परगत होता है यही योगवत्रता और विसंवादनमें भेद है। 'च' शब्दसे मिण्यादर्शन, पैशून्य, अस्थिरचित्तता, झूल बांट तराजू रखना, झूठी साक्षी देना, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, परद्रव्यग्रहण असत्यभाषण, अधिक परिग्रह, सदा उज्ज्वल वेष, रूपमद, परुयभाषण, असदस्यप्रलपन, आकोश, उपयोगपूर्वक सौभाग्योत्पादन, Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [६।२३-२४ चूर्णादिके प्रयोग से दूसरोंकोपामहिना, आचामायबोलेगोकोसवाल उत्पन्न करना, देव, गुरु आदिकी पूजाके बहानेसे गन्ध, धूप, पुष्प आदि लाना, दूसरोंकी बिडम्बना करना, उपहास करना, ईटें पकाना, दावानल प्रज्वलित करना, प्रतिमा तोड़ना, जिनालयका ध्वंस करना, बागका उजाड़ना, तीत्र क्रोध, मान, माया और लोभ, पाप कर्मोंस आजीविका करना आदि अशुभ नामकमंके आस्रव है। शुभ नामकर्म के आस्रघ--- तद्विपरीतं शुभस्य ।। २३ ।। योगोंकी सरलता और अविसंवादन ये शुभ नामकर्मके आसव हैं। धर्मात्माओंक पास आदरपूर्वक जाना, संसारसे भीरुता, प्रमादका अभाव, पिशुनताका न होना, स्थिरचित्तता, सत्यसाहो, परप्रशंसा, श्रात्मनिन्दा, सत्यवचन, परद्रव्यका हरण न करना, अल्प समारंभ और परिग्रह, अपरिग्रह, कभी कभी उज्ज्वल वेप धारण करना, रूपका मद न होना, मृदभापण,शुभयचन, सभ्यभाषण, सहज सौभाग्य,स्वभावसं वशीकरण, दूसरोंको कुतूहल उत्पन्न न करना, विना किसी बहाने के पुष्प, धूप, गन्ध आदि लाना, दूसरोंकी बिडम्बना न करना, उपहास न करना, इष्टिकापाक और दावानल न करनेका व्रत, प्रतिमा निर्माण, जिनालयका निर्माण, बागका न उजाड़ना, क्रोध, मान, माया और लोभकी मन्दता पापकौसे आजीविका न करना आदि शुभ नामकर्म के आस्रव है। नीर्थकर नाम कर्मके आस्रव - दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधियावृत्त्यकरणमईदाचार्यबहुश्रुतप्रकचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिमार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥ २४ ॥ दर्शनविशुद्धि. विनयमम्पन्नता, शील और व्रतीम अतीचार न लगाना, अभीषण ज्ञानोपयोग और संवेग, यथाशक्ति त्याग और तफ, साधुसमाधि, वैयावृत्य, अईक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाण, मार्गप्रभावना, और प्रबचनवत्सलता ये तीर्थकर प्रकृतिके आस्रव हैं। __ दर्शनविशुद्धि पश्चीम दोष रहित निर्मल सम्यग्दर्शनका नाम दर्शनविशुद्धि है। दर्शनविशुद्धिको पृथक् इसलिये कहा है कि जिनक्तिरूप या तत्त्वार्थश्रद्धारूप सम्यग्दर्शन अकेला भी तीर्थकर प्रकृतिका कारण होता है। यशस्तिलक में कहा भी है कि-"केवल जिनभक्ति भी दुर्गतिके निवारणमें, पुण्य के उपार्जनमें और मोक्ष लक्ष्मीके देने में समर्थ है।" अन्य भावनाएं सम्यग्दशनके विना तीथकर प्रकृतिका कारण नहीं हो सकती अतः दर्शनविशुद्धिकी प्रधानता बनलाने के लिये इसका पृथक् निर्देश किया है। दर्शनविशुद्धिका अर्थ-इह लाकभय,परलोकमय,अत्राणमय,अगुनिमय,मरणमय, वेदनाभय और आकस्मिकभय इन सात भयोंसे रहित होकर जैनधर्मका श्रद्धान करना निःशक्ति है । इस लोक और परलोकके भोगोंकी श्राफांक्षा नहीं करना निःकाइक्षित है। शरीरादिक पवित्र है, इस प्रकारकी मिथ्यायुद्धिका अभाव निर्वािचकित्सता है। अर्हन्तको छोड़कर अन्य कुदेवों के द्वारा उपदिष्ट मार्ग का अनुसरण नहीं करना अमूदष्टि है। उत्तम क्षमा आदिके Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६५] छठवां अध्याय द्वारा प्रात्माकं धर्मको वृद्धि करना और चार प्रकारके संघके दोषोंको प्रगट नहीं करना उपगृहन है । क्रोध, मान, माया और लोभादिक धमके विनाशक कारण रहने पर भी धर्मस मार्गदर्षया नहीं मोनाविकपमहानिमशासनहसअनुराग रखना यात्सल्य है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रके द्वारा यात्माका प्रकाशन और जिनशासनकी उन्नति करना प्रभावना है। सम्यग्दर्शनके इन आठ अंगोंका का सद्भाव तथा तीन मूढ़ता, छह अनायतन और आठ मदोंका अभाव, चमड़े के पात्र में रक्खे हुये जलको नहीं पीना और फन्दमूल, कलिङ्ग, सूरण, लशुन आदि अभक्ष्य वस्तुओं को भक्षण न करना आदिको दर्शनविशुद्धि कहते हैं। रत्रत्रय और रबत्रयके धारकोंका महान् आदर और कषायका अभाव विनयसम्पन्नता है। पाँच व्रत और सात शीलों में निर्दोष प्रवृत्ति करना शीलबतेवनतिचार है। जीवाहिपदार्थों के स्वरूपको निरूपण करनेवाले ज्ञान में निरन्तर उद्यम करना भीक्ष्ण-ज्ञानोपयोग है। संसारके दुखोंसे भयभीत रहना संवेग है। अपनी शक्तिके अनुसार आहार, भय और ज्ञानका पात्रके लिये दान देना शक्तितस्त्याग है । अपनी शक्तिपूर्वक जैन शासनके अनुसार कायक्लेश करना शक्तितस्तप है। जैसे भाण्डागारमें आग लग जाने पर किसी भी उपायसे उसका शमन किया जाता है उसी प्रकार व्रत और शीलसाहित यतिजनोंके ऊपर किसी निमिससे कोई विघ्न उपस्थित होने पर उस विघ्नको दूर करना साधुसमाधि है। निदप विधिसे गुणवान् पुरुषों के दोषोंको दूर करना बयावृत्य है । अर्हन्तका अभिषेक, पूजन, गुणस्तवन, नामको जाप आदि अईद्भक्ति है। आचार्योको नवीन उपकरणों का दान, उनके सम्मुखगमन, आदर, पादपूजन, सम्मान और मनःशुद्धियुक्त अनुरागका नाम आचार्यभक्ति है। इसी प्रकार उपाध्यायोंकी भक्ति करना बहुश्रुतभक्ति है। रत्नत्रय आदिके प्रतिपाइक आगममें मनःशुद्धि युक्त अनुराग का होना प्रवचनभक्ति है। सामायिक स्तुति,चौबीस तीर्थकरकी स्तुति-वन्दना,पर्क तीर्थंकर स्तुति,प्रतिक्रमण-कृतदोष निराकरण, प्रत्याख्यान नियतकाल और आगामी दोका परिहार और कायोत्सर्ग-शरीरसे ममत्वका छोड़नाइन छह आवश्यकों में यथाकाल प्रवृसि करना आवश्यकापरिहारिण है। ज्ञान, दान, जिनपूजन और तपके द्वारा जिन धर्मका प्रकाश करना मार्गप्रभावना है। गाय और बछड़े के समान प्रवचन और साधी जनम स्नेह रखना प्रवचनक्सलत्व है। ये सालह भावनाएँ तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका कारण होती हैं। भीच गोत्रके आसवपरामनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचंगोत्रस्य ।। २५ ॥ दूसरोंकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करना, विमान गुणोंका क्लिोप करना और अविद्यमान गुणोंको प्रकट करना ये नीच गोत्रके आरव हैं। ___ 'च' शब्दरसे जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, श्रुतमद, ज्ञानमद, एश्चमद और तपमद-ये आठमद, दूसरोका अपमान, दुग्नरोंकी है सो करना. दूसरोंका परिवादन, गुरुओंका तिरस्कार, गुरुओंसे उद्भट्टन-टकराना, गुरुओं के दोषोंको प्रगट करना, गुम्ओं का विभेदन, गुरुओंको स्थान न देना, गुरुओं का अपमान, गुरुओंकी भन्ना, गुरुत्रोसे असभ्य वचन करना । गुरुओंकी स्तुति न करना और गुरुओंको देखकर खड़े नहीं होना आदि भी नीच गोत्रके आस्रव हैं। Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार उच्च गोत्र के अानवतद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चौतरस्य ॥२६॥ परप्रशंसा, आत्मनिन्दा, सद्गुणोभावन, अमद्गुगोच्छादन, नीचैमुसि और अनुत्सक ये उन्न गोत्रके आम्रव है। उच्च गुणवालोंकी विनय करनेको नोचैर्वृत्ति या नम्रवृत्ति कहते हैं । मान,तप आदि गुणों से उत्कृष्ट होकर भी मद न करना अनुत्सक है। 'च' शब्दसे आठ मदोंका परिहार, दूसरोंका अपमान प्रहारत और परिवाद न करना, गुरुओंका तिरस्कार न करना, गुरुओंका सन्मान अभ्युत्थान और गुणवर्णन करना, और मृदुभापण आदि भी उच्च गोत्र के प्रास्त्रव है। अन्तरायके आनव विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥ २७ ।। दूसरीमदर्शकलाभ, भागचा भाग मारिधिायमान करना अन्तरायके आस्रव है। दानकी निन्दा करना, द्रव्यसंयोग, देवोंको चढ़ाई गई नवेद्यका भक्षण, परके वीर्यका अपहरण, धर्मका उच्छेद, अधर्मका श्राचरण, दूसरोंका निरोध, बन्धन, कर्णछेदन, गुह्यछेदन, नाक काटना और आँखका फोड़ना आदि भी अन्तरायके आस्रव है।। विशेष--तत्प्रदीप, निन्हर आदि ज्ञानावरण आदि कमां के जो पृथक पृथक आस्रव बतलाए हैं वे अपने अपने कर्मके स्थिति और अनुभाग वन्धके ही कारण होते हैं । उक्त आत्रब आयु कमको छोड़कर ( क्योंकि आयु कर्मका बन्ध सदा नहीं होता है। अन्य सर काँके प्रकृति और प्रदेश बन्धके कारण समान रूपसे होते हैं। छठवाँ अध्याय समाप्त । Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ अध्याय मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज व्रतका लक्षण हिंसाऽनृतस्तेयान्त्रह्मपरिग्रहेभ्यो बिरतितम् ॥ १ ॥ हिंसा, मूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापोंसे अभिप्रायपूर्वक किये गये नियमको अथवा कर्तव्य और अकर्तव्य के विरक्त होना व्रत है। संकल्पको व्रत कहते हैं । प्रश्न -- - "ध्रुवमपायेऽपादानम्" [ पा० सू० १२|४|२४ ] इस सूत्र के अनुसार अपाय ( किसी वस्तुसे किसी वस्तुका पृथक होना ) होने पर ध्रुव वस्तु पञ्चमी विभक्ति होती है और हिंसादिक परिणामोंके अध्रुव होनेसे यहाँ पञ्चमी विभक्ति नहीं हो सकती ? उत्तर- वक्ता के अभिप्राय के अनुसार शब्द के अर्थका ज्ञान किया जाता है। यहाँ भी हिंसादि पार्पोसे बुद्धिके विरक्त होने रूप अपाय के होनेपर हिंसादिक में ध्रुवत्वकी विषता होनेसे पचमी विभक्ति युक्तिसंगत है। जैसे 'कश्चित् पुमान् घर्मा द्विरमति' - कोई पुरुष धर्मसे विरत होता है यहाँ कोई विपरीत बुद्धिवाला पुरुष मनसे धर्मका विचार करता है कि यह धर्म दुष्कर है, धर्मका फल श्रद्धामा गम्य है; इस प्रकार विचार कर वह पुरुष बुद्धिसे धर्मको प्राप्तकर धर्मसे निवृत्त होता है। जिस प्रकार यहाँ धर्मको अध्रुव होनेपर भी पञ्चमी विभक्ति हो गई है उसी प्रकार विवेक बुद्धिवाला पुरुष विचार करता है कि हिंसा आदि पापके कारण हैं और जो पापकर्म में प्रवृत्त होते हैं उनको इस लोक में राजा दण्ड देते हैं और परलोकमें भी उनको नरकादि गतियों में दुःख भोगने पड़ते हैं. इस प्रकार स्वबुद्धिसे हिंसादिको प्राप्तकर उनसे विरक्त होता है। अतः हिंसादिमें घुक्त्वकी विवक्षा होने से यहाँ हिंसादिकी अपादान संज्ञा होती है. और अपादान संज्ञा होनेसे पचमी विभक्ति भी हुई। व्रतों में प्रधान होनेसे अहिंसाको पहिले कहा है । सत्य आदि व्रत अनाजकी रक्षा के लिये बारीकी तरह अहिंसा व्रत के परिपालनके लिए ही हैं। सम्पूर्ण पापकी निवृत्तिरूप केवल सामायिक ही है और छेदोपस्थापना आदिक भेदसे व्रतके पाँच भेद है । प्रश्न-वर्तीको आक्का कारा कहना ठीक नहीं है किन्तु व्रत संघर के कारण हैं । "स गुमिममितिधर्मानुप्रेक्षा परी पहजय चारित्रै:" [ २ ] इस सूत्र के अनुसार दशलक्षण धर्म और चारित्र व्रतका अन्तर्भाव होता है । उत्तर--संवर निवृत्तिरूप होता है और अहिंसा आदि व्रत प्रवृत्तिरूप हैं, अतः तो आवका कारण मानना ठीक है। दूसरी बात यह है कि गुमि समिति आदि संबर के परिकर्म हैं। जिस साधुने हतोका अनुष्ठान अच्छी तरह से कर लिया है वहीं संवरको सुखपूर्वक कर सकता है। अतः व्रतोंको पृथक कहा गया है। प्रश्न--- रात्रिभोजनत्याग भी एक छठ व्रत है उसको यहाँ क्यों नहीं कहा ? उत्तर--अहिंसा व्रतको पांच भावनाएँ हैं उनमें से एक भावना आलोकित पानभोजन है । अतः आलोकित पानभाजन के प्रणले रात्रिमं/जनत्यागका ग्रहण हो जाता है। तात्पर्य यह है कि रात्रिभोजनत्याग अहिंसा व्रत के अन्तर्गत ही है, पृथकू व्रत नहीं है । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार व्रत मंद देश सर्वतोऽथुमहती || २ ॥ [ १२-६ के दो भेद हैं- अगुवत और महाव्रत । हिंसादि पापके एकदेशत्यागको अणुव्रत और सर्वशत्यागको मात्र कहते हैं । अणुव्रत गृहस्थांके और महाव्रत मुनियों के हो है । की स्थिरता की कारणभूत भावनाओं का वर्णन तत्स्थैर्या भावनाः पञ्च पञ्च ॥ ३ ॥ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज जिस प्रकार उम्र औषधियां रसादिकी भावना देनेसे विशिष्ट गुणवाली हो जाती हैं उसी तरह अहिंसादि व्रतभी भावनाभावित होकर सत्फलदायक होते हैं । उन अहिंसा आदि की स्थिरता के लिये प्रत्येक व्रतकी पाच पांच भावनाएँ हैं । हिंसाकी पांच भावनाएँ- बाङ मनोगुतीर्यादाननिक्षेपण समित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च ॥ ४ ॥ चचनगुमि, मनोगुप्ति, इर्यासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकितपानभोजन ये अहिंसा की पाँच भावनाएँ हैं । वचनको वशमें रखना वचनगुप्ति और मनको वशमें रखना मनोगुप्ति हैं। चार हाथ जमीन देखकर चलना ईर्यासमिति है । भूमिको देख और शोधकर किसी वस्तुको रखना या उठाना आदाननक्षेपणसमिति हैं । सूर्यके प्रकाशसे देखकर खाना और पीना आलोकितपानभोजन है । सत्यत्रतकी पाँच भावनाएँ क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवचिभाषणं च पञ्च ॥ ५ ॥ क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान भीरुत्वप्रत्याख्यान, हास्यप्रत्याख्यान और अनुवीचिभाषण ये सत्यव्रतकी पांच भावनाएँ हैं । क्रोधका त्याग करना को प्रत्याख्यान है। लोभको छोड़ना लोभप्रत्याख्यान है । भय नहीं करना भयप्रत्याख्यान है। हास्यका त्याग करना हास्यप्रत्याख्यान हैं और निर्दोष वचन बोलना अनुवचिंभाषण है। अचत्रितकी भावनाएँ---- शून्यागार विमोचितावास परोपरोधाकरणभैक्षशुद्धिसधर्माऽविसंवादाः पञ्च ॥ ६ ॥ शुन्यागारावास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, वशुद्धि और समविसंवाद ये अचौर्य की पाँच भावनाएँ हैं । पर्वत, गुफा, वृक्ष कोटर, नदीवट आदि निर्जन स्थानों में निवास करना शून्यानारावास है। दूसरोंके द्वारा छोड़े हुए स्थानों में रहना विमोचितावास है । दूसरोंका उपरोध नहीं करना अर्थात् अपने स्थानमें ठहरनेसे नहीं रोकना परोपरोधाकरण है। आचारशास्त्र के च्अनुसार भिक्षा की शुद्धि रखना भैक्षशुद्धि हैं। और सहधर्मी भाइयोंसे कलह नहीं करना संवाद है । Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९] सातवाँ अध्याय शून्यागारों में और त्यक्त स्थानों में रहनेसे परिग्रह आदिमें निस्पृहता होती है। सर्मियों के साथ विसंबाद न करनेसे जिनवचनमें व्याघात नहीं होता है। इससे अचौर्यव्रत में स्थिरता आती है। इसी प्रकार परोपरोधाकरण और भैक्षशुद्धिसे भी इस व्रतमें दृढ़ता आती है। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ब्रह्मचर्य व्रतकी भावनाएँस्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीर संस्कारत्यागाः पञ्च ॥ ७ ॥ स्त्रीरागकथाश्रयणत्याग, तन्मनोहराङ्गानिरीक्षणत्याग, पूर्वरतानुस्मरणत्याग, वृध्ये टरसत्याग और स्वशरीरसंस्कारत्याग ये ब्रह्मचर्यत्रतको पाँच भावनाएं हैं। स्त्रियों में राग उत्पन्न करनेवाली कथाओं के सुननेका त्याग स्त्रीरागकथाश्रवणत्याग है। स्त्रियों के मनोहर अङ्गोंको देखनेका त्याग तन्मनाहराङ्गनिरीक्षणत्याग है । पूर्वकालमें भोगे हुप चिपयोंको स्मरण नहीं करना पूर्वरतानुस्मरणत्याग है। कामवर्धक, वाजीकर और मन तथा रसनाको अच्छे लगनेवाले रसोंको नहीं खाना वृष्येष्टरसत्याग है । अपने शरीरका किमी प्रकारका संस्कार नहीं करना स्वशरीरसंस्कारत्याग है। परिग्रहत्यागवतकी भावनाएँमनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च ।। ८ ।। स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों के इष्ट विषयों में राग नहीं करना और अनिष्ट विषयों में देष नहीं करना ये परिग्रहत्यागवतकी पांच भावनाएँ हैं। हिंसादि पापोंकी भावना हिमादिविहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ।। ९ ॥ हिंसादि पापोंके करनेसे इस लोक और परलोकमें अपाय और अवयदर्शन होता है। अभ्युदय और निःश्रेयसको देनेवाली क्रियाओं के नाशको अथवा सात भयोंको अपाय कहते है. और निन्दाका नाम अवश्य है। हिंसा करनेवाला व्यक्ति लोगों द्वारा सदा तिरस्कृत होता है और लोगोंसे बैर भी उसका रहता है । इस लोकमें वध, बन्धन आदि दुःखोंको प्राप्त करता है और मर कर नरकादि गतियों के दुःखौंको भोगता है। इसलिये हिंसाका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। __ असत्य बोलनेवाले पुरुपका कोई निश्वास नहीं करता है। ऐसे पुरुषकी जिला कान नासिका आदि छेदी जाती है। लोग उससे बैर रखते हैं और निन्दा करते हैं। इसलिये असत्य वचनका त्याग करना ही अच्छा है। चोरी करनेवाला पुरुष चाण्डालोंसे भी तिरस्कृत होता है और इस लोकमें पिटना वध. बन्धन हाथ पैर कान नाक जीभ आदिका छेदन, सर्वस्व हरण, गवेपर बैठाना आदि दण्डों को प्राप्त करता है। सब लोग उसकी निन्दा करते हैं और वह मरकर नरकादि गतियों के दुःखको प्राप्त करता है । अतः चोरी करना श्रेयस्कर नहीं है। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [७१०-११ अब्रह्मचारी पुरुप मदोन्मत्त होता हुआ कामके वश होकर वध बन्धन आदि दुःखों को प्राप्त करता है, मोह या अज्ञानके कारण कार्य और अकार्यको नहीं समझता है और स्त्रीलम्पट होनेसे दान, पूजन, उपवास आदि कुछ भो पुण्य कर्म नहीं करता है । परस्त्रीमें अनुरक्त पुरुप इस लोक में लिजछेदन, वध, अन्धन, सर्वस्वहरण आदि दुःखांको प्राप्त करता है और मरकर नरकादि गनियोंक दुःखोंको भोगता है। लोगों द्वारा निन्दित भी होता है अतः कुशीलसे विरक्त होना ही शुभ है । परिग्रहवाला पुरुष परिग्रहको चाहनेवाले घोर आदिके द्वारा अभिभूत होता है जैसे 'मांसपिण्डको लिंग्रे हुए एक पक्षी अन्य पक्षियों के द्वारा । वह परिग्रहके उपार्जन, रक्षण और नायक रा होनेवाले बहुतसे दायाँको प्राप्त करता है। इन्धनके द्वारा बहिकी तरह धनसे उसकी कभी तृप्ति नहीं होती। लोभके कारण वह कार्य और अकार्यको नहीं समझता । पात्रों को देखकर किवाड़ बन्द कर लेता है, एक कौड़ी भी उन्हें नहीं देना चाहता। पात्रोंको मार्गदर्शक कॅवलाचा हातबहामारकर पदकाई गतियोंके घोर दुखांको प्राप्त करता है और लोगों द्वारा निन्दित भी होता है। इसलिये परिग्रहके त्याग करने में ही कल्याण है। इस प्रकार हिंसादि पाँच पापोंके विषयमें विचार करना चाहिये। दुःखमेव वा ॥ १०॥ अथवा ऐसा विचार करना चाहिये कि हिंसादिक दुःखरूप ही हैं। हिंसादि पाँच गपोंको दुःखका कारण होनेसे दुःवरूप कहा गया है जैसे "अन्नं च प्राणाः"यहाँ अन्नको प्राणका कारण होनेसे प्राण कहा गया है। अथवा दुःखका कारण असातावेदनीय है। असातावेदनीयका कारण हिमादि हैं। अतः दुखके कारणका कारण होनेसे हिंसादिकको दुःखस्वरूप कहा गया है, जैसे "धनं वै प्राणाः” यहाँ प्राणके कारण भूत अन्नका कारण होनेसे धनको प्राण कहा गया है। यद्यपि विषयभोर्गोंसे सुखका भी अनुभव होता है लेकिन बास्तवमें यह सुख सुख नहीं है, केवल वेदनाका प्रतिकार है जैसे खाजको खुजलानेसे थोड़े समयके लिये सुखका अनुभव होता है। अन्य भावनाएँ-- मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्वगुणाधिकक्लिश्यमानाऽविनयेषु ॥ ११ ।। प्राणीमात्र, गुणीजन,क्लिश्यमान और अविनग्री जीवोंमें क्रमसे मंत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यम्ध्य भावनाक! विचार करे। संसारके समस्त प्राणियोंमें मन वचन काय कृत कारित और अनुमोदनासे दुःख उत्पन्न न होनेका भाव रखना मैत्री भावना है । जान तप संयम आदि गुणोंसे विशिष्ट पुरुषोंको देखकर मुखप्रसन्नता आदिके द्वारा अन्तर्भक्तिको प्रकट करना प्रमोद भावना है। असाताचेदनीय कर्मके उदयसे दु:खित जीवों को देखकर करुणामय भावोंका होना कारुण्य भावना है । जिनधर्मसे पराङ्मुख मिथ्यादृष्टि आदि अत्रिनीत प्राणियों में उदासीन रहना माध्यध्य भावना है। इन भायनाओंके भावनेसे अहिंसादि व्रत न्यून होने पर भी परिपूर्ण हो जाते है। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७॥१२-१३] सासवाँ अध्याय संसार और शरीरके स्वभावका विचार--- जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥ १२ ॥ संवेग और वैराग्यके लिये संसार और शरीरके स्वभावका विचार करना चाहिये। संसारसे भीरता अथवा धर्मानुरागको संवेग कहते हैं । शरीर, भोगादिसे विरत होना वैराग्य है। सूत्र में आया हुआ 'या' शब्द यह सूचित करता है, कि संसार और शरीरके स्वरूपचिन्तनसे अहिंसादि व्रतों में भी स्थिरता होती है। संसारके स्वरूपका विचार-लोकके तीन भेद हैं--उर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक । अधोलोक वेत्रासनके आकार है, मध्यलोक अल्लरी ( झालर) और ऊर्ध्वलोक मृदहके आकार है। तीनों लोक अनादिनिधन हैं। इस संसारमें जीव अनादि कालसे चौरासी लाख योनियों में शारीरिक मानसिक आगन्तुक आदि नाना प्रकारके दुःखोको भोगते हुए भ्रमण कर रहे हैं । इस संसारभे धन यौवन आदि कुछ भी शाश्वत नझीदर्शायु-जमशाद बासनावावेसागौर ओझासाचे विद्युत् इन्द्रधनुष आदिके समान अस्थिर है। इस संसार में इन्द्र धरणेन्द्र आदि कोई भी विपश्चिमें जीवकी रक्षा नहीं कर सकते । इस प्रकार संसार के स्वरूपका विचार करना चाहिये। कायके स्वभाव का विचार · शरीर अनित्य है, दुःखका हेतु है, निःसार है, अशुचि है, बीभत्स है, दुर्गन्धयुक्त है, मल मूत्रमय है, सन्तापका कारण है और पापोंकी उत्पत्तिका स्थान है। इस प्रकार कायके स्वरूपका विचार करना चाहिये। हिंसाका लक्षणप्रमत्तयोगात् प्राणक्यपरोपणं हिंसा ॥ १३ ॥ प्रमत्त व्यक्ति के व्यापारसे दश प्रकार के प्राणों का वियोग करना अथवा वियोग करनेका विचार करना हिंसा है। कषायसहित प्राणी को प्रमत्त कहते हैं । अथवा विना विचारे जो इन्द्रियों की प्रवृत्ति करता है वह प्रमत्त है। अथवा तीन कपायोदयके कारण अहिंसामें जो कपटपूर्वक प्रवृत्ति करता है वह प्रमत्त है। अथवा चार बिकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, निद्रा और प्रणय इन पन्द्रह प्रमादोंसे जो युक्त हो वह प्रमत्त है। प्रमत्त व्यक्तिके मन, वचन और कायके व्यापारको प्रमत्तयोग कहते हैं। और प्रमत्तयोगसे प्राणों का वियोग करना हिंसा है। प्रमत्तयोगकै अभावमें प्राणव्यपरोपण होनेपर भी हिंसाका दोष नहीं लगता है। प्रवचनसारमें कहा भी है कि-"ईर्यासमितिपूर्वक गमन करनेवाले मुनिफे परके नीचे कोई सूक्ष्म जीव आकर दब जाय या मर जाय तो उस मुनिको उस जीवके मरने आदिसे सूक्ष्म भी कर्मबन्ध नहीं होता है। जिस प्रकार मूछ का नाम परिग्रह है उसी प्रकार प्रमत्तयोगका नाम हिंसा है।" और भी कहा है कि-"जीव चाहे मरे या न मरे लेकिन अयनाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेवालेको हिंसाका दोष अवश्य लगता है और प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनेवालेको हिंसामात्रसे पापका धन्ध नहीं होता है।" अपने परिणामों के कारण प्राणियोंका घात नहीं करनेवाले पाणी भी पापका बन्ध करते हैं जैसे धीयर मछली नहीं मारते समय भी पापका बन्ध करता है क्योंकि उसके भाष सदा ही मछली मारने के रहते हैं और प्राणियोंका घात करनेवाले प्राणी भी पापका बन्ध नहीं करते जैसे कृषकको हल चलाते समय भी पापका बन्ध नहीं होता है क्योंकि उसके Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ तस्वार्थवृति हिन्दी-सार [ ७१६५ परिणाम हिंसा करने नहीं है। प्रमादयुक्त व्यक्ति पहिले स्वयं अपनी आत्मा का बात करता दूसरे प्राणियों का वध हो चाहे न हो । अतः प्रमत्तयांग से प्राणों के वियोग करने को अथवा केवल प्रमत्त योगको हिंसा करते हैं। प्रमत्त योग के बिना केवल प्राणव्यपरोपण हिंसा नहीं है । असत्यका लक्षण - असदभिधानमनृतम् ॥ १४ ॥ प्रमाद के योग से असत् (अप्रशस्त ) अर्थको कहना अमृत या असत्य है । अर्थात् प्राणियों को दुःखदायक विद्यमान अथवा अविद्यमान अर्थका वचन असत्य है। जिस प्रकार श्री हिंसा में प्रसिद्ध हैं उसी तरह वसु राजा झूठ में । कर्णकर्कश, हृदयनिष्ठुर, मनमें पीड़ा करनेवाले क्रलिक्खामियन आदिको करानेवाले, रकारी, कलह आदि करानेवाले, वास करनेवाले गुरु आदिकी अवज्ञा करनेवाले आदि वचन भी असत्य हैं। ॐठ बोलने की इच्छा और झूठ बोलनेके उपाय सोचना भी प्रमत्त योग के कारण असत्य हैं। प्रमत्तयोग के अभाव में असत्य वचन भी कर्मबन्धके कारण नहीं होते हैं । चोरीका लक्षण - अदत्तादानं स्यम् ॥ १५ ॥ प्रमत्तयोग से बिना दी हुई किसी बस्तुको ग्रहण करना चोरी है । अर्थात् जिस वस्तु पर सब लोगोंका अधिकार नहीं है उस वस्तुको ग्रहण करना, ग्रहण करने की इच्छा करना अथवा ग्रहण करने का उपाय सोचना चोरी है। प्रश्न -- यदि बिना दी हुई वस्तुके ग्रहण करनेका नाम चोरी है तो कर्म और नोकर्मका ग्रहण भी चोरी कहलायेगा क्योंकि कर्म और नोकर्म भी किसीके द्वारा दिए नहीं जाते । उत्तर - जिस वस्तुका देना और लेना संभव हो उसी वस्तुके ग्रहण करनेमें चोरीका व्यवहार होता है । सूत्रमें आए हुए 'अदत्त' शब्दका यही तात्पर्य है। यदि दाताका सा होता ग्राहक का अस्तित्व भी पाया जाता है। लेकिन कर्म और नोकर्म वर्गका कोई स्वामी न होने से उनके ग्रहण करने में अदत्तादानका प्रश्न ही नहीं होता है । अतः कर्म और नोकर्मका ग्रहण करना चोरी नहीं है । प्रश्न – प्राम, नगर आदि में भ्रमण करने के समय मुनि रध्याद्वार ( गलीका द्वार ) आदिमें प्रवेश करते हैं और रध्या आदि स्वामी सहित हैं अतः बिना आज्ञा के प्रवेश करने के कारण मुनियों को चोरीका दोष लगना चाहिये । उत्तर - ग्राम, नगर या दिमें और रथ्याद्वार आदिमें प्रवेश करनेसे मुनियों का चोरीका दोप नहीं लगता है क्योंकि सर्व साधारण के लिये यहाँ प्रवेश करनेकी स्वतन्त्रता है। मुनियों के लिये यह भी विधान है कि बन्द द्वार आदिमें प्रवेश न करें। अनः खुले हुए द्वार आदिमें प्रवेश करने से कोई दोष नहीं लगता है। अथवा प्रमत्तयोग से अदत्तादानका नाम चोरी है. और मुनियोंको प्रमत्तयोग के बिना रथ्याद्वार आदिमें प्रवेश करनेपर चोरीका दोष नहीं लग सकता है । Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवा अध्याय ३ कुशीलका लक्षण मैथुनमब्रह्म ॥ १६ ॥ मथुनको अब्रा अर्थात् कुशील कहते हैं। चारित्रमोहनीय कर्मक उदयसे रामपरिणाम सहित स्त्री और पुरुषको परस्पर स्पर्श करने की इच्छाका होना या स्पर्श करने के उपायका सोचना मैथुन है। रागपरिणाम के अभाबमें स्पर्श करने मात्रका नाम कुशील नहीं है । लोक और शास्त्र में भी यही माना गया है कि रामपरिणाम के कारण स्त्री और पुरुपकी जा चेष्टा है. वही मैथुन है । अतः प्रमत्तयोगसे स्त्री और पुरुषमें अथवा पुरूप और पुरूमें रतिसुखके लिये जो चेष्टा है वह मैथुन है। जिसकी रक्षा करने पर अहिंसा आदि गुणोंकी वृद्धि है। वह ब्रहा है और ब्रह्माका अभाव अब्रह्म है। मंथनको अनय इसलिये कहा है कि मंथनमें अहिंसादि गणों की रक्षा नहीं होती है। मथुन करनेवाला जौच हिंसा करता है। मथुन करनेसे योनि स्थित करोड़ों जीवोंका घात होता है । मैथुनके लिये झूठ भी बोलना पड़ता है, अदनादान और परिग्रहका भी ग्रहण करना पड़ता है । अप्तः मथुनमें सब पाप अन्तहिंन हैं। परिग्रहका लक्षण मूर्छा परिग्रहः ॥ १७ ॥ मार्गदर्शकडोकावरह हिलहिणायामसभाणामुक्ता आदि चतन और अचेतन रूप बाय परिग्रह और राग द्वेष आदि अन्तरङ्ग परिग्रहके "उपार्जन रक्षण और वृद्धि आदि में मनकी अभिलापा या ममत्वका नाम मूच्छी है। चात पित्त श्लेष्म आदिसे उत्पन्न हाने बाली अचेतन स्वभावरूप भू.का यहाँ ग्रहण नहीं किया गया है। प्रश्न-यदि मनकी अभिलापाका नाम ही परिग्रह है तो बाह्य पदार्थ परिग्रह नहीं होंगे। उत्तर-मनकी अभिलाषाको प्रधान होने के कारण अन्तरङ्ग परिग्रहको ही मुख्य रूप से परिग्रह कहा गया है । बाल पदार्थ भी मूछ के कारण होनेसे परिग्रह ही हैं। ममत्व या मू का नाम परिग्रह होनेस आहार भय आदि संज्ञायुक्त पुरुष भी परिग्रहसहित है. क्योंकि संज्ञाओंमें ममत्वबुद्धि रहती है। प्रश्न – सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्र आदि भी परिग्रह है या नहीं ? उत्तर-जिसके प्रमत्तयोग होता है वही परिग्रहसहित होता है और जिसके प्रमत्तयोग नहीं है वह अपरिग्रही है। सम्यम्झान दर्शन चारित्र आदिसे युक्त पुरूप प्रमादरहित और निर्माह होता है, उसके मूर्छा भी नहीं होती है अतः यह परिग्रहरहित ही दूसरी बात यह है कि ज्ञान दर्शन आदि अात्माके स्वभाव होनेसे अहेय है और राग. पादि अनात्मस्वभाव होनस हेय है। अतः रागपादि ही परिग्रह हैं न कि ज्ञान दशनादि एसा कहा भी है कि जा हेय हो वही परिणाम है । परिग्रहवाला पुरुष हिंसा आदि पांचों लापोंमें प्रवृत्त होता है और नरकादिगांतयोड दाखोंको भोगता है। अन्तर परिग्रहके चौदह भेद हैं.-मिथ्यात्य, दास्य, रति, अति. जाक, भय, जुगुप्सा क्रोध, मान, माया, लाभ, राग और टेप । बाह्य परिभह पश भेद है --क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, सवारी, शमनासन, कुष्य और भाण्ड । Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [७१८-१९ राग, द्वेषादिको ही मुख्य रूपसे परिप्रह कहते है। कहा भी है कि-अपने पापके कारण बाह्मपरिग्रहरहित दरिद्र मनुष्य तो बहुतसे होते है लेकिन अभ्यन्तर परिग्रह रहित जीव लोकमें दुर्लभ है। व्रतीकी विशेषता निःशल्यो व्रती ।। १८॥ शल्यरहित जीव ही व्रती है। शल्य वाणको कहते हैं। जिस प्रकार वाण शरीरके अन्दर प्रवेश करके दुःखका हेतु होता है उसी प्रकार प्राणियोंकी शारीरिक मानसिक आदि बाधाका कारण होनेसे कर्मोदयके विकारको भी शल्य कहते हैं । शल्यके तीन भेद है-माया मिथ्यात्व और निदान । छल कपट करनेको माया कहते हैं। तस्यार्थश्रद्धानका न होना मिथ्यात्व है और विषयभोगोंकी आकांक्षाका नाम निदान है। जो इन तीन प्रकारको शल्योंसे रहित होता है वही ती कहलाता है। प्रश्न-शल्य रहित होनेसे निःशल्य और व्रत सहित होनेसे ब्रती होता है। अतः जिस प्रकारावर्षकर देसाई समिविलापनहली कहलाता है उसी प्रकार शल्य रहित व्यक्ति भी व्रती नहीं हो सकता है। उत्तर-निःशल्यो व्रती कहनेका तात्पर्य यह है कि शल्यरहित और प्रतसहित व्यक्ति ही ती कहलाता है केवल हिंसादिसे विरक्त होने मात्रसे कोई ब्रती नहीं हो सकता । इसी तरह हिंसादिसं विरक्त होने पर भी शल्यसहित व्यक्ति व्रती नहीं है किन्तु शल्य रहित होने पर ही वह व्रती होता है। जैसे जिसके अधिक दूध घृत आदि होता है वहीं गोयाला कहलाता है, दूध घृतके अभावमें गायोंके होने पर भी बाह ग्वाला नहीं कहलाता उसो प्रकार अहिंसादि व्रतोंके होने पर भी शल्यसंयुक्त पुरुष व्रती नहीं है । तात्पर्य यह है कि अहिंसा आदि ब्रतों के विशिष्ट फलको शल्यरहित व्यक्ति ही प्राप्त करते हैं शल्यसहित नहीं। प्रतीके भेद अगायनगारश्च ॥ १९ ॥ व्रतीके दो भेद हैं--अगारी और अनगारी । जो घरमें निवास करते हैं वे अगारी (गृहस्थ ) हैं और जिन्होंने घरका त्याग कर दिया है वे अनगारी (मुनि) हैं। प्रश्न- इस प्रकार तो जिनालय शून्यागार मठ आदिमें निवास करनेवाले मुनि भी अगारी हो जायगे और जिसको विपयतृष्णा दूर नहीं हुई है लेकिन किसी कारणसे जिसने धरको छोड़ दिया है एसा बनमें रहनेवाला गृहस्थ भी अनगारी कहलाने लगेगा। उत्तर—यहाँ घर शब्दका अर्थ भायघर है। चारित्रमोहके उदय होनेपर घरके प्रति अभिलाषाका नाम भावघर है। जिस पुरुपके इस प्रकारका भावघर विद्यमान है वह वनमें नग्न होकर भी निवास करें तो भी वह अगारी है। और भावागार न होनेके कारण जिन चैत्यालय आदिमें रहनेवाले मुनि भी अनगारी है। प्रश्न-अपरिपूर्ण प्रत होने के कारण गृहस्थ प्रती नहीं हो सकता। Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०-२१] सातवाँ अध्याय ४५५ ___ उत्तर-नैगम संग्रह और व्यवहारनयकी अपेक्षा गृहस्थ भी व्रती ही है। जैसे घरमं या घरके एक कमरेमें निवास करनेवाले व्यक्तिको नगर में रहनेवाला कहा जाता है उसी प्रकार परिपूर्ण व्रतोंके पालन न करने पर भी एकदेशत्रत पालन करनेके कारण यह अतो कहलाता है। पाँच पार्शमें से किसी एक पापका स्याग करनेवाला प्रती नहीं है किन्तु पाँचो पापोंके एकदेश या सर्वदेश त्याग करनेवाले को तो कहते है। अगारीका लक्षणमार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसर्गिमहाररास२०॥ हिंसादि पापोंके एकदेश त्याग करनेवालको अगारी या गृहस्थ कहते हैं। अणुप्रतके पांच भेद हैं-अहिंसाणुवन, सत्यायुक्त, अचौर्याणुप्रत. ब्रह्मचर्यागुत्रत और परिग्रहपरिमाणाणुवन । संकल्प पूर्वक व्रस जीवोंकी हिंसाका त्याग करना अहिंसापुत्रत है। लोभ,मोह, स्नेह आदिसे अथवा घरके विनाश होनेसे या ग्राममें वास करने के कारण असत्य नहीं बोलना सत्याणुत्रत है । संक्लेशपूर्वक लिया गया अपना भी धन दूसरों को पीड़ा करने वाला होता है, और राजाके भय आदिसे जिस धनका त्याग कर दिया है ऐसे धनको अदत्त कहते हैं। इस प्रकारके धनमें अभिलाषाका न होना अचीाणुधत है। परिगृहीत या अपरिगृहीत परमी में रतिका न होना ब्रह्मचर्यपुत्रत है और क्षेत्र वास्तु धन धान्य आदि परिपका अपनी आवश्यकतानुसार परिमाण कर लेना परिग्रहपरिमाणाणुचत है। सात शोलतोंका वर्णनदिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकोषधोपचासोपभोगपरिभोग परिमाणातिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ।। २१ ॥ __ वह, व्रती दिग्नत, देशत्रत, अनर्धदण्डवत इन तीन गुणत्रतोंसे और सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाण और असिथिसंविभागवत इन चार शिक्षात्रतों से सहित होता है । 'च' शब्दसे व्रती सरू देखनादिसे भी सहित होता है। दशों दिशाओं में हिमाचल, विन्ध्याचल आदि प्रसिद्ध स्थानों की मर्यादा करके उससे बाहर जानेका मरण पर्यन्त के लिये त्याग करना दिग्पत है। दिनत की मर्यादाके बाहर स्थावर और बस जीवोंकी हिंसाका सर्वथा त्याग होनेसे गृहस्थके भी उतने क्षेत्रमें महाप्रत होता है । दिग्बतके क्षेत्रका बाहर धनादिका लाभ होने पर भी मनकी अभिलाषाका अभाव होनेसे लोभका याग भी गृहस्थ के होता है। दिन के क्षेत्र में से भी ग्राम नगर नदी वन घर आदिसे निश्चित कालके लिये बाहर जानेका त्याग करना देशव्रत है । देशत्रत दिग्बतके अन्तर्गत ही है। विशेष रूपसे पापके स्थानों में, तभङ्ग होने योग्य स्थानों में और खुरासान मूलस्थान मखस्थान हिरमजस्थान आदि स्थानों में जानेका त्याग करना देशत्रत है। देशवतक क्षेत्रसे बाहर भो दिनतकी तरह ही महावत और लोभका त्याग होता है। प्रयोजन रहित पापक्रियाओं का स्वाग करना अनर्थदण्ड त है। अनर्थदण्ड के पाँच भेद हैं-अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादाचरित. हिंसादान घोर दुःश्रुति । द्वेषके कारण दूसरोंको जय पराजयवध बन्धन द्रव्यहरण आदि और रागके कारण दूसरेकी श्री आदिका हरण कैसे हो इस प्रकार मन में विचार करना अपध्यान है। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [१२१ पापोपदेश अनर्थदण्डके चार भेद हैं-कलेशवणि ज्या, तिम्वणिज्या, बधकोपदेश और प्रारम्भोपदेश । अन्य देशोंसे कम मूल्यमें आनेवाले दासी-दासोंको लाकर गुजरात आदि देशों में बेचनेसे महान् धनलाभ होता है ऐसा कहना क्लेशयणिज्या पापोपदेश है। इम देशके गाय मैस बल ऊँट आदि पशुओंकी दूसरे देशमें बेचनेसे अधिक लाभ होता इस प्रकार उपदेश देना निर्यन्वणिज्या पापोपदेश है। पाप कम से आजीविका करने वाले धोबर शिकारी आदिमे मा कहना कि उस स्थान पर मछली मृग बराह आदि बहुत है उधकोपदेश है । नीच आदमियोंसे ऐसा कहना कि भूमि एस जोती जाती है, जल एसे निकाला जाता है. चनमें आग इस प्रकार लगाई जाती है, वनस्पति से खोदी जाती हूँ इत्यादि उपदेश प्रारम्भोपदेश है। बिना प्रयोजन पृथिचं कूटना जल सींचना अग्नि जलाना पंखा आदिसे वायु उत्पन्न करना वृक्षों के फल फूल लता आदि तोड़ना तथा इसी प्रकार के अन्य पाप कार्य करना प्रमादाचरित है। दूसरे प्राणियोंके घातक मार्जार सर्प बाज आदि हिंसक पशु-पक्षियोंका तथा मार्गदर्शक विष कुठारायलमीरस्वविधितिमा जीपमनायामा संग्रह और विक्रय करना हिंसादान है। हिंसा राग द्वेष आदिको बदनिघाल शास्त्रीका पढ़ना पढ़ाना सुनना सुनाना व्यापार करना आदि दुःश्रुति है। इन पांचों प्रकारके अनर्थदण्डोंका त्याग करना अनर्धदण्ड व्रत है। दिनत देशत्रत और अनर्थदण्डवत ये तीनों अगुव्रतोंकी वृद्धि में हेतु होने के कारण शुगवत कहलाते हैं। समयशब्दसे स्वार्थ में इक' प्रत्यय होनेपर सामायिक शब्द बना है। एफरूपसे परिणमन करनेका नाम समय है और समयको ही सामायिक कहते हैं। श्रथया प्रयोजन अर्थ में इकण् प्रत्यय करनेसे समय ( एकत्यसप परिणति) ही जिसका प्रयोजन हो वह सामायिक है। तात्पर्य यह है कि देवचन्दना आदि कालमें बिना संक्शक सब प्राणियों में ममता श्रादिका चिन्तवन करना सामायिक है। सामायिक करनेवाला जितने काल तक सामायिक में स्थित रहता है उनने काल तक सम्पूर्ण पापोंकी निवृत्ति हो जानेग वह उपचारसे महान ती भी कहलाता है। लेकिन संयमको घात करनेत्राली प्रत्याख्यानाधरण कपायके उदय होनेसे वह सामायिक काल में संयमी नहीं कहा जा सकता । सामायिक करनेवाला गृहस्थ परिषण संयमके विना भी उपचारसे महानती है जैसे राजपदके बिना भी सामान्य क्षत्री राजा कहलाता है। __ अष्टमी और चतुर्दशीको प्रोषध कहते हैं। स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों के विषयों के त्याग करनेको उपवास कहते हैं। अतः प्रोषध ( अष्टमी और चतुर्दशी में उपवास करनेको प्रोपधोपवास कहते हैं। अर्थात् अशन पान खान और लेड इन चार प्रकारके आहारका अष्टमी और चतुर्दशीको त्याग करना प्रोषधोपवास है। जो श्रापक सब प्रकारके आरंभ स्वशरीरसंस्कार स्नान गन्ध माला आदि धारण करना छोड़कर चैत्यालय आदि पवित्र स्थानमें एकाग्र मनले धर्सकथाको कहना सुनता अथवा चिन्तवन करता हुआ उपवास करता है, वह प्रोपधोपवासनती है। भाजन पान गन्ध माल्य ताम्बूल आदि जो एक बार भोगने में आने वे उपभोग है और आभूपण शव्या घर यान वाहन आदि जो अनेक बार भोगनेमें आयें वे परियोग है। ध्यमांग और.परिभागके स्थानमें भोग और उपभोका भी प्रयोग किया जाता है । उपभोग Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ अध्याय और परिभागमें आनेवाले पदाका परिमाण कर लेना उपभोगपरिभोगपरिमाण प्रत है। यापि उपभोगपरिमाणव्रतमें त्याग नियत काल के लिये ही किया जाता है. लेकिन मद्य मांस मधु फेतकी नीम के फूल अदरख मूद व अनतकार्यिकी विलिशाक मल आदि वनस्पतियोंका त्याग यावजीवन के लिये ही कर देना चाहिये क्योंकि इनके भक्षणमें फल तो थोड़ा होता है और जीवोंकी हिंसा अधिक होती है। इसी प्रकार यान वाहन आदिका त्याग भी यथाशक्ति कुछ कालके लिये या जीवन पर्यन्त करना चाहिये। संग्रमकी घिराधना किये बिना जो भोजनको जाता है वह अतिथि है। अथवा जिमके प्रतिपदा, द्वितीया आदि तिथि नहीं है, जो किसी भी तिथिमें भोजनको जाता है यह अतिथि है। इस प्रकारके अतिथिको विशिष्ट भाजन देना अतिथिसंविभागवत है। अतिथिसंविभाग के चार भेद है--- भिक्षादान, उपकरणदान, श्रीषधदान और आवासदान । मोक्षमार्गमें प्रयत्नशील, संयममें तत्पर और शुद्ध संयमीके लिये निर्मल चित्त से निर्दोष भिक्षा देनी चाहिये । इसी प्रकार पीछी,पुस्तकं, फमण्डलु आदि धर्मके उपकरण, योग्य औषधि और श्रद्धापूर्वक निवासस्थान भी देना चाहिये । 'च' 'शब्द' से यहाँ जिनेन्द्रदेवका अभिषेक, पूजन आदिका भी ग्रहण करना चाहिये । सामायिक, प्रोपोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाण और अतिथिसंविभाग ये चारों, जिस प्रकार माता-पिता के बचन सन्तानको शिक्षाप्रद होते हैं, उसी प्रकार आगुयतोंकी शिक्षा देनेवाले अर्थात् उसकी रक्षा करनेवाल होनेके कारण शिक्षावत कहलाते हैं। सल्लेखनाका वर्णन-. मारणान्तिकी सल्लेखनां जोषिता ॥ २२ ॥ मरणके अन्तमें होनेवाली सलंग्यनाको प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाला पुरुष गृहस्थ होता है। आयु. इन्द्रिय और बलका किसी कार से नाश हो जाना मरण है । इस प्रकारके मगणक समय गृहस्थको सल्लेखना करना चाहिये । समतापूर्वक कान और कषायों के कृश करनेको सल्लेखना कहते हैं। कायको कृश करना बाह्य सल्लेखना और कपायों का कृश करना अन्तरङ्ग सल टखना है। प्रश्न-अर्थकी स्पष्ताक लिये जापितांचे स्थानम सेविता' शब्द क्यों नहीं रखा ? उत्तर---अर्ध विशेषको बतलाने के लिय प्राचायन जोषिता शब्दका प्रयोग किया ट प्रीति पूर्वक सेवन करनेका नाम ही सल्लखना है। प्रीतिक बिना बलपूर्वक सल्लेखना नहीं कराई जाती है। किन्तु गृहस्थ संन्यासमें प्रीतिके होने पर स्वयं ही सल्लेखनाको करना है । अतः प्रीनिपूर्वक संबन अर्थ में जुषी धातुका प्रयोग बहुत उपयुक्त है। प्रश्न-स्वयं विचारपूर्वक प्राणों के त्याग करनेमें हिंसा होनेसे सल्लेखना करने पात्रको आत्मघातका दाप होगा? उत्तर---पहखमामें आत्मघातका दीप नहीं होता है क्योंकि प्रमत्तयोगस प्राणों के विनाश करनेको हिंसा कहते है और जो विचारपूर्वक सल्लेखनाको करता है, उसके राग दंपादिके न होनेसे प्रमत्त योग नहीं होता है। अतः सल्लेखना करने में आत्मघातका दाप संभव नहीं है। राग, द्वेष, मोह आदिसे संयुक्त जो पुरुष विष, शस्त्र, गलपाश, अग्निप्रवेश, कूपपतन आदि प्रयोगोंके द्वारा प्राणों का त्याग करता है वह आत्मघाती है। कहा भी है कि-- Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ २३.२४ "जा आत्मघाती व्यक्ति हैं वे अति अन्धकारसे आवृत असूर्यलाकमें अनेक प्रकार के दुःख भोगते हैं ?" जिनागम में कहा है, कि-"रागादिफा उत्पन्न न होना ही अहिंसा है, रागादिकी उत्पत्ति हो हिंसा है।" सल्लेखनामें आत्मघात न होनेका एक कारण यह भी है कि वणिकको अपने घर के विनाशकी तरह प्रत्येक प्राणीको मरण अनिष्ट है। वणिक बहुमूल्य द्रव्योंसे भरे हुए अपने घरका विनाश नहीं चाहता है। लेकिन किसी कारणसे विनाशके उपस्थित होने पर अणिक उस घरकी छोड़ देताई यसविसम्रयत्न करताजससे द्रव्योंका नाश न हो । उसी प्रकार व्रत और शोलका पालन करनेवाला गृहम्थ भी व्रत और शीलके आश्रय स्वरूप शरीरका विनाश नहीं चाहता है। लेकिन शरीरविनाशके कारण उपस्थित होने पर संयमका धात न करते हुए धीरे धीरे शरीरको छोड़ देता है. अथवा शरीरके छोड़नेमें असमर्थ होने पर और कायविनाश तथा आत्मगुणविनाशके युगपन् उपस्थित होने पर आस्माक गुणोंका विनाश जिस प्रकार न हो उस प्रकार प्रयत्न करता है। अतः सल्लेखना करनेवालको आत्मघातका पाप किसी भी प्रकार संभव नहीं है. । गृहस्थोंकी तरह मुनियोंको भी आयुके अन्तमें समाधि-मरण बतलाया है। सम्यग्दर्शन के अतिचारशङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः ॥ २३ ॥ शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यहष्टिसंस्तव थे सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार हैं। __ जिनेन्द्र भगवान्के वचनों में सन्देह करना-जैसे निम्रन्थों के मुक्ति बतलाई है उसी प्रकार क्या सप्रन्थों को भी मुक्ति होती है ? अथवा इसलोकभय, परलोकभय, आदि सात भय करना शंका है। इसलोक और परलोकके भोगोंकी वाञ्छा करना कांक्षा है। रत्नत्रयधारकोंके मलिन शरीरको देखकर यह कहना कि ये मुनि स्नान आदि नहीं करते इत्यादि रूपसे ग्लानि करना विचिकित्सा है। मिश्यादृष्टियोंके ज्ञान और चारित्रगुणकी मनसे प्रशंसा करना अन्यदृष्टिप्रशंसा है। और मिश्यादृष्टि के विद्यमान और अविद्यमान गुणोंको वचन से प्रकट करना अन्यदृष्टिसंस्तव है।। प्रश्न-सम्यग्दर्शन के आठ अंग है अतः अतिचार भी आठ ही होना चाहिये । उत्तर-व्रत और शीलोंके पाँच पाँच ही अप्तिचार बतलाये हैं अतः अतिचारोंक वर्णनमें सम्यग्दर्शनके पॉच ही अतीचार कहे गये हैं। अन्य तीन अतिचारोंका अन्यदृष्टिप्रशंसा और संस्तवमें अन्तर्भाव हो जाता है जो मिथ्याष्टियोंकी प्रशंसा और स्तुति करता है यह मूढदृष्टि तो है ही, वह रत्नत्रयधारोंके दोषोंका उपगूहन ( प्रगट नहीं करना ) नहीं करता है, स्थिति करण भी नहीं करता है, उससे वात्सल्य और प्रभावना भी संभव नहीं है। अतः अन्यदृष्टिप्रशंसा और संस्तवमें अनुपगृहन आदि दोषोंका अन्तर्भाव हो जाता हैं। श्रत और शीलों के अतिचार व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ।। २४ ॥ __ पांच अणुव्रत और सात शीलों के क्रमसे पाँच पाँच अतिचार होते हैं । यद्यपि प्रतों के ग्रहण करनेसे ही शोलोंका ग्रहणहो जाता है लेकिन शीलका पृथक् ग्रहण प्रतोसे शीलों में विशेषता Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।२५-२७ ] सातवों अध्याय बतलाने के लिये किया गया है। प्रतोंकी रक्षा करनेको शील कहते हैं। दिम्वत आदि सात शीलोंके द्वारा पाँच अणुव्रतोंकी रक्षा होती है यही शीलोंकी विशेषता है। अतः शीलके पृथक ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है। अहिंसागुव्रतके अतिचारबन्धक्यच्छेदातिभारारोपणानपाननिरोघाः ।। २५ ।। ___बन्ध, बध, छेद, अतिभारारोपण और अन्नपाननिरोध ये अहिंसाणुव्रतके पाँच अतिचार हैं। इच्छित स्थानमें गमन रोकने के लिये रस्सी आदिसे बाँध दना बन्ध है । लकड़ी, बैत, दण्ड आदिसे मारना वध है। यहाँ वधका अर्थ प्राणोंका विनाश नहीं है क्योंकि मार्गदर्शक :- असमानिधसहिसलापहिलाकर चुके हैं। नाक, कान आदि अवयवोंको छेद देना छेद है । शक्तिसे अधिक भार लादना अतिभारारोपण है। मनुष्य, गाय, भैंस, बैल, घोड़ा आदि प्राणियोंको समय पर भोजन और पानी नहीं देना अन्नपाननिरोध है। सत्याणुव्रतके अतिचारमिथ्योपदेशरहोऽभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः ॥ २६ ॥ मिध्योपदेश, रहोऽभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार और साकारमन्त्रभेद ये सत्यागुमतके पाँच अतिचार है। अभ्युदय और निःश्रेयसको न देनेवाली क्रियाओम भोले मनुष्यों की प्रवृत्ति कराना और धनादिके निमित्तसे दूसरोंको ठगना मिश्योपदेश है। इन्द्रपद, तीर्थकरका गर्भ और जन्म कल्याणक, साम्राज्य, चक्रवर्तिपद, तपकल्याणक, महामण्डलेश्वर आदि राज्यपद, और सर्वार्थसिद्धिपर्यन्त अहमिन्द्रपद, इन सब संसारके विशेष अथवा साधारण सुखोंका नाम अभ्युदय है। और केवल ज्ञानकल्याणक,निर्माण कल्याणक, अनन्तचतुष्टय और परमनिर्वाणपद ये सब निःश्रेयस है। स्त्री और पुरुष के द्वारा एकान्त में किये गये किसी कार्य विशेष को अथवा वचनोंको गुप्तरूपसे जानकर दूसरोंके सामने प्रकट कर देना रहो भ्याख्यान है। किसी पुरुपके द्वारा नहीं किये गये और नहीं कहे गये कार्यको द्वेषके कारण उसने ऐसा किया है और ऐसा कहा है इस प्रकार दूसरोंको ठगने और पीड़ा देनेके लिये असत्य बातको लिखना कूटलेखक्रिया है। क्रिसी पुरुपने दूसरेके यहाँ सुवर्ण आदि द्रव्यको धरोहर रख दिया, द्रव्य लेनेके समय संख्या भूल जाने के कारण कम द्रव्य मांगने पर जानते हुए भी कहना कि हाँ इतना ही तुम्हारा द्रव्य है, इस प्रकार धरोहरका अपहरण करना न्यासापहार है । अविकार, भूविक्षेप अादि के द्वारा दूसरों के अभिप्रायको जानकर ईर्षा आदिके कारण दुसरों के सामने प्रकट कर देना साकारमन्त्रभेद है। अचौर्याणुनतके अतिचारस्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मान प्रतिरूपकव्यवहाराः ॥ २७ ॥ स्तेननयोग, तदाछुतादान, विरुद्धराज्यातिक्रम. हीनाधिकमानोन्मान और प्रतिरूपकव्यवहार ये अचौर्यागुततके अतिचार है। Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोरको चोरी करनेके मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तस्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार [ ७२८-२९ लिये स्वयं मन वचन और कायसे प्रेरणा करना अथवा दूसरे से प्रेरणा कराना, इसी प्रकार चोरी करने वालेकी अनुमोदना करना स्तेनप्रयोग है । चोरके द्वारा चुराकर लाई हुई वस्तुका खरीदना तदाहृतादान है । बहुमूल्य वस्तुओंको कम मूल्य में नहीं लेना चाहिये और कम मूल्य वाली वस्तुओंको अधिक मूल्यमें नहीं देना चाहिये इस प्रकारकी राजाकी आज्ञा के अनुसार जो कार्य किया जाता है वह राज्य कहलाता है। उचित मूल्यसे विरुद्ध अनुचित मूल्य में देने और लेने को अतिक्रम कहते हैं । राजाकी आज्ञाका उल्लंघन करना अर्थात् राजाकी आज्ञा के विरुद्ध देना और लेना विरुद्धराव्यासिकम है। राजाकी आज्ञा बिना यदि व्यापार किया जाय और राजा उसे स्वीकार कर ले तो वह विरुद्धरास्यातिकम नहीं है । ४६० नापने के प्रस्थ आदि पात्रको मान और तौलने के साधनों को उन्मान कहते है । कम परिमाण वाले मान और उन्मानके द्वारा किसी वस्तुको देना और अधिक मान और उन्मान के द्वारा लेना हीनाधिकमानोन्मान है। लोगोंको ठगनेके लिये कृत्रिम खोटे सुवर्ण ध्यादिके सिक्कोंके द्वारा क्रय-विक्रय करना प्रतिरूपकव्यवहार है । ब्रह्मचर्याणुत्रतके अतिचार परविवाहकरणेत्यरिकापरिगृहीता परिगृहीतागमनानङ्गक्रीडाका मतीवाभिनिवेशाः ||२८|| पर विवाहकरण, परिगृहीतेश्वरिकागमन, अपरिगृहीतेत्वरिकागमन, अनङ्गक्रीड़ा और कामतीश्राभिनिवेश ये ब्रह्मचर्याशुत्रतके पाँच अतिचार हैं । दूसरों के पुत्र आदिका विवाह करना या कराना परविवाह करण है। विवाहित सधवा अथवा विधवा स्त्रीको जो व्यभिचारिणी हो परिगृहीतेत्यरिका कहते हैं। ऐसी स्त्रियोंसे बातचीत करना, हाथ, चक्षु, आदिके द्वारा किसी अभिप्रायको प्रकट करना, जघन स्तन मुख आदिका देखना इत्यादि रागपूर्वक की गई दुबेष्टाओं का नाम परिगृहीतेत्यरिकागमन है । स्वाभीरहित वेश्या आदि व्यभिचारिणी स्त्रियोंको अपरिगृहीतेश्वरिका कहते हैं। ऐसी स्त्रियों से संभाषण आदि व्यवहार करना अपरिगृहीतेत्यरिकागमन है । गमन-शब्द से जघन स्तन मुख आदिका निरीक्षण, संभाषण, हाथ भ्रूक्षेप आदि से गुप्त संकेत करना आदि ही विवक्षित हैं। कामसेबनके को छोड़कर अन्य स्तन आदि अङ्गसे क्रीड़ा करना अनङ्गक्रीडा है | कामसेवनमें अत्यधिक इच्छा रखना कामतीत्राभिनिवेश है। कामसेषन काल में भी यह दोष होता है तथा दीक्षिता, कन्या, तिर्यञ्चणी आदिके साथ कामसेवन करना भी कामतीनाभिनिवेश है । परिपरिमाणात अतिचार क्षेत्र वास्तु हिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः ॥ २९ ॥ क्षेत्र यास्तु हिरण्य-सुवर्णं, धन-धान्य, दासी दास और कुप्य इन वस्तुओं के प्रमाणको लोभ के कारण उल्लंघन करना ये क्रम से परिप्रह परिमाणानत के पाँच प्रतिचार हैं । अनाजकी उत्पत्ति स्थानको क्षेत्र-खेत कहते हैं। रहनेके स्थानको वास्तु कहते हैं। चाँदीको हिरण्य और सोनेको सुवर्ण कहते हैं। गाय भैंस हाथी घोड़े आदिको धन तथा गेहूँ चना ज्वार मटर वर धान आदि अनाजोंको धान्य कहते हैं। नौकरानी और नौकरको दासी दास कहते हैं। बस कपास चन्दन आदिको कुप्य कहते हैं । Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ७| ३०-३२ ] सातवाँ अध्याय दिनतके अतिचार- ऊर्ध्वाधिस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्र वृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि ॥ ३० ॥ ऊर्ध्वव्यतिक्रम अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान ये दिखत के पाँच अतिचार है । दिशा के परिमाणको उल्लघन करनेको व्यतिक्रम कहते हैं। ऊपर के परिमाणको उल्लं घन कर पर्वत आदिपर चढ़ना ऊर्ध्वव्यतिक्रम है, इसी प्रकार नीचे कुंआ श्रादिमें उतरना अधोन्यतिक्रम है और सुरत, बिल आदिमें तिरछा प्रवेश करना तिर्यग्व्यतिक्रम है । प्रमाद अथवा मोहादिके कारण लोभ में आकर परिमित क्षेत्रको बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि है, अर्थात् परिमित क्षेत्र के बाहर लाभ आदि होनेकी आशासे वहाँ जाना था जानेकी इच्छा करना क्षेत्रवृद्धि है और दिशाओं के प्रमाणको भूल जाना स्मृत्यन्तराधान है । देशव्रत के अतिचार १६१ आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपात पुगलक्षेपाः ॥ ३१ ॥ आनयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुत्ररक्षेप ये देश के पांच अतिचार हैं । मर्यादा बाहरकी वस्तुओंको अपने क्षेत्रमें मंगाकर क्रय विक्रय आदि करना आनयन है। मर्यादाके बाहर नौकर आदिको भेजकर इच्छित कार्यकी सिद्धि कराना प्रेष्यप्रयोग है। कार्यकी सिद्धिके लिये मर्यादासे बाहर वाले पुरुषोंको खांसी आदि के शब्द द्वारा अपना अभिप्राय समझा देना शब्दानुपात है। इसी प्रकार मर्यादा से बाहरवालोंको अपना शरीर दिखाकर कार्यकी सिद्धि करना रूपानुपात है तथा मर्यादासे बाहर कंकर. पत्थर आदि फेंककर काम निकालना पुलक्षेप है । अनर्थदण्डव्रत के अतिचार कन्दप कौल्कुच्य मौखर्यास मीचयाधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥ ३२ ॥ कंदर्प, कॉस्मय, भौखर्य, असमीक्ष्याधिकरण और उपभोगपरिभोगानर्थक्य ये अनर्थदण्डन के पाँच अतिचार हैं। raat area होनेके कारण हास्यमिश्रित अशिष्ट वचन बोलना कन्दर्प है । शरीर से दुष्ट चेष्टा करते हुए हास्यमिश्रित अशिष्ट पदका प्रयोग करना कौम्य है । ष्टापूर्वक बिना प्रयोजनकै आवश्यकता से अधिक बोलना मौखर्य है। बिना विधारे अधिक प्रवृत्ति करना असमीक्ष्याविकरण है। इसके तीन भेद हैं-मनोगत, बागत और कायगत समीक्ष्याधिकरण | मिध्यादृष्टियों के द्वारा रचित अनर्थक काव्य आदिका चिन्तन करना मनोगत असमीक्ष्याधिकरण है, बिना प्रयोजन दूसरोंको पीड़ा देनेवाले बन्चनको बोलना arriत असमीयाधिकरण है और विना प्रयोजन सम्चिन्त और अचिन फल, फूल आदि का छेदना तथा अग्नि, विष आदिका देना कायगत असमीयाधिकरण है। उपभोगपरिभोग पदार्थों को अत्यधिक मूल्य खरीदना तथा आवश्यकतासे अधिक भोग और उपभोग पदार्थोंको रखना उपभोगपरिभोगानर्थक्य है । I Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ तत्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार सामायिक व्रतक अतिचारयोगदुःषणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३३ ॥ काययोगदुष्प्रणिधान, चायोगदुष्प्रणिधान, मनोयोग प्रणिधान, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान ये सामायिकत्रसके पाँच अतिचार हैं। योगोंकी दुष्टप्रवृत्तिको तथा अन्यथा प्रवृत्तिको योगदुष्पणिधान कहते हैं । सामायिक समय क्रोध मान माया और लोभसहित मन वचन कायकी प्रवृत्ति दुष्ट प्रवृत्ति है। शरीरके अवयोंको आसनबद्ध या नियन्त्रित नहीं रखना कायकी अन्यथाप्रवृत्ति है। अर्थरहित शब्दोंका प्रयोग करना वचनकी अन्यधाप्रवृत्ति है और उदासीन रहना मनकी अन्यथाप्रवृत्ति है। सामायिक करने में उत्साहका न होना अनादर है । एकाग्रताके अभावसे सामायिकपाठ वगैरह भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है। प्रोपोपवासत्रत के अतिचारअप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३४ ।। अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितात्सर्ग, अप्रत्यदेक्षिताप्रमार्जितादान, अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितसंस्तरोपक्रमण, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान ये प्रोपधोपवासनतके पाँच अतिचार हैं। यहाँ जीव हैं या नहीं इस प्रकार अपनी चक्षुये देखना प्रत्यवेक्षित है, और कोमल उपकरण ( पीछी ) से झाड़नेको प्रमार्जित कहते हैं। बिना देखी और बिना शोधी हुई भूमि पर मल, मत्र श्रादि करना अप्रत्यवक्षितानमार्जिनोत्सर्ग है। देखे और शोधे बिना पूजन आदिके उपकरणोंको उठा लेना अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजिदाना बिनादख और बिनास जी महाराज हुए बिस्तर पर सो जाना अप्रत्यवेक्षिताप्रमानितसंस्तरोपक्रमण है। क्षुधा, नृपा आदिस व्याकुल होनेपर आवश्यक धार्मिक कार्यों में आदरका न होना अनादर है। करने योग्य कााँको भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है। उपभोगपरिभोगपरिमाणत्रतके अतिचार-- सचित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषयदुष्पक्काहाराः ।। ३५ ॥ मचित्ताहार, सचित्तसम्बन्धाहार, सचित्तसं मिश्राद्दार, अभियवाहार और दुःपक्काहार ये उपभोगपरिभोगपरिमाणवतके पाँच अतिचार हैं। सचित्त ( जीत्र सहित ) फल आदिका भक्षण करना सचित्ताहार है। सचित्त पदार्थसे सम्बन्धको प्राप्त हुई वस्तुको खाना सचित्तसम्बन्धाहार है । सचित्त पदार्थसे मिल हुए पदाधका खाना सचित्तसंमिश्राहार ई। सम्बन्धको प्राप्त वस्तु तो पृथक् की जा सकती है, लेकिन संमिन्न वस्तु पृथक नहीं हो सकती यही सम्बन्ध और संमिश्नमें भेद है। रात्रि में चार पहर तक गलाया या पकाया हुआ चावल आदि अन्न द्रव कहलाता है। बलवर्द्धक तथा कामोत्पादक आहारको वृष्य कहते हैं। द्रव और वृध्य दोनोंका नाम अभिषय है। अभिपत्र पदार्थका आहार करना अभिषवाहार है। कम या अधिक पके हुए पदार्थ का आहार करना दुःपक्बाहार है । वृष्य और टुःपक्य आहारके सेवन करनेसे इन्द्रियमदकी वृद्धि होती है. सचित्त पदार्थको उपयोग में लेना पड़ता है, वात आदिके प्रकोप तथा उदर में पीड़ा आदिके होनेपर अग्नि आदि जलानी पड़ती है। इन बातोस बहुन असंयम होता है। अतः इस प्रकारके आहारका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७।३६-३८] सातवाँ अध्याय प्रश्न-इती पुरुषकी सचित्ताहार आदिमें प्रवृत्ति फैसे हो सकती है ? उत्तर-मोह अथवा प्रमादके कारण बुमुक्षा और पिपासासे व्याकुल मनुष्य सचित्त आदिसे सहित अन्न, पान, लेपन, आच्छादन आदिमें प्रवृत्ति करता है। __ अतिथिसंविभागप्रतके अतिचारसचित निक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिकमाः ।। ३६ ।। सचित्तनिक्षेप, सचित्तापिधान, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिकम ये अतिथिसंविभागत्रतके पांच अतिचार हैं। सचित्त कदलीपत्र, पनपत्र आदिमें रखकर आहार देना सचित्तनिक्षेप है। सचित्त वस्तुसे ढके हुए आहारको देना सचिस्तापिधान है। अपनी असुविधाके कारण दूसरे दाताके द्वारा अपने द्रष्यका दान कराना परव्यपदेश है। अथवा यहाँ दूसरे अनेक दाता हैं मैं दाता नहीं हिसकार ओचा अन्यायालागस्यामहाहीजइस प्रकारका आहार दे सकते हैं मैं इस प्रकारसे या इस प्रकारका आहार नहीं दे सकता ऐसे विचारको परव्यपदेश कहते हैं। प्रश्न-परव्यपदेश अतिचार कैसे होता है ? उत्तर--धनादिलाभकी आकांक्षासे आहार देनेके समयमें भी व्यापारको न छोड़ सकनेके कारण योग्यता होने पर भी दूसरेसे दान दिलानेके कारण परव्यपदेश असिचार होता है। कहा भी है कि "अपने द्रव्यकं द्वारा दूसरोंसे धर्म करानेमें धनादिकी प्राप्ति तो होती है परन्तु यह अपने भोगके लिए नहीं | उसका भोक्ता दूसरा ही होता है।" "भोजन और भोजन शक्तिका होना, रतिशक्ति और स्त्रीकी प्राप्ति, विभष और दानशक्ति ये स्वय धर्म करने के फल हैं।" अनादरपूर्वक दान देना अथवा दूसरे दाताओंके गुणोंको सहन नहीं करना मात्सर्य है। आहारके समयको उल्लंघन कर अकालमें दान देना अथवा क्षुधित मुनिका अवसर टाल देना कालातिक्रम है। सल्लेखनाके अतिचारजीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि ॥ ३७॥ जीयिनाशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान ये सल्लेखना अतके पाँच अतिचार हैं। सल्लेखना धारण करने पर भी जीवित रहने की इच्छा करना जीविताशंसा है । रोगसे पीड़ित होनेपर बिना सल्लंशके मरनेकी इच्छा करना मरणाशंसा है। पूर्व में मित्रोंके साथ अनुभूत क्रीडा आदिका स्मरण करना मित्रानुराग है । पूर्वकालमें भोगे हुए भोगोंका स्मरण करना सुखानुबन्ध है । मरने के बाद पर लोकमं विषयभोगोंकी आकांक्षा करना निदान है। दानका स्वरूप-- अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गों दानम् ॥ ३८ ॥ अपने और परके उपकार के लिये धन आदिका त्याग करना दान है। दान देनसे दाताको विशेष पुण्यबन्ध होता है और अतिथिक सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदिकी वृद्धि होती है । यही स्त्र और परका उपकार है। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी सार [७३९ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज, प्रश्न-आहार डि देनेसे सम्यग्दर्शन आदिकी वृद्धि कैसे होती है ! सरस आहार देनेसे मुनिके शरीरमें शक्ति. आरोग्यता आदि होती है । और इससे मुनि ज्ञानाभ्यास उपचास तीर्थयात्रा धर्मोपदेश आदिमें सुखपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं। इसी प्रकार पुस्तक पीछी आदिके देनेसे भी परोपकार होता है। विज्ञानी योग्य दाता योग्य पात्रके लिये योग्य वत्तुका दान दे। कहा भी है कि "धर्म,स्वामि सेवा और पुत्रोत्पत्तिमें स्वयं व्यापार करना चाहिए दूसरोके द्वारा नहीं।" जो अन्न विवर्ण विरस और घुना हुआ हो, स्वरूपचलित हो, झिरा हुआ हो. रोगोत्पादक हो, जूंठा हो, नीच जनोंके लायक हो, अन्यके उद्देश्यसे बनाया गया हो. निन्य हो, दुर्जनोंके द्वारा छुआ गया हो, दवभश्य आदिके लिए संकल्पित हो, दूसरे गांवस लाया गया हो, मन्त्रसे लाया गया हो, किसीक उपहार के लिए रखा हो, बाजार बनी हुई मिठाई आदिके रूप में हो,'प्रकृतिविरुद्ध हो, ऋतुविरुद्ध हो, दही घी इंध आदिर बना हुआ होनेपर बासा हो गया हो, जिसके गन्ध रसादि चलित हो, और भी इसी प्रकारका भ्रष्ट अन्न पात्रोंको नहीं देना चाहिए । दानके फल में विशेषताविधिद्रव्यदातपात्रविशेषाद्विशेषः ।। ३९ ।। विधिविशेष, द्रव्यविशेष, दातृधिशेप और पात्रविदापसे दान के फलम विशेषता होती है। सुपात्रके लिये खड़े होकर पगगाहना, उच्च आसन देना, चरण धोना, पूजन करना, नमस्कार करना, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और भोजनशुद्धि ये नव विधि हैं। विधिमें आदर और अनादर करना विधिविज्ञप है। आदरसे पुण्य और अनादरस पाप होता है। मद्य, मास और मधुरहित शुद्ध चावल गेहूँ आदि द्रव्य कहलाते हैं। पारके तप, स्वाध्याय आदिकी वृद्धि में हेतुभूत द्रव्य पुण्यका कारण होता है। तथा जो द्रव्य तप आदिकी वृद्धि में कारण नहीं होता वह विशिष्ट पुण्यका भी कारण नहीं होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये दाता होते हैं। पात्र असूया न होना, दानमें विषाद् न होना तथा दृष्टफलकी अपेक्षा नहीं करना आदि दाताकी विशेषता है। श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति, विज्ञान, अलोभता, क्षमा और शक्ति ये दाता सात गुण हैं। पात्र तीन प्रकारके होते है-उत्तम पात्र, मध्यम पात्र और जघन्य पात्र । महाव्रतके धारी मुनि उत्तम पात्र है। श्रावक मध्यम पात्र है । सम्यग्दर्शन सहित लेकिन ऋतरहित जन जघन्य पात्र हैं। सम्यग्दर्शन आदिकी शुद्धि और अशुद्धि पात्रकी विशेषता है। योग्य पात्रके लिये विधिपूर्वक दिया हुआ दान बटबीजकी तरह प्राणियोंको अनेक जन्मों में फल ( सुख ) को देता है। पात्र गत थोड़ा भी दान भूमिमं पड़े हुए बटबीजकी तरह विशाल रूपमें फलता है । जिसके आश्रयसे अनेकोंका उपकार होता है। सप्तम अध्याय समाप्त Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्याय बन्धके कारण-- मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगा वन्धहेतवः ॥ १ ॥ मिध्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्धके कारण हैं। तत्त्वार्थों के अनदान या विपरीत श्रद्धानको मिथ्यादर्शन कहते हैं। इसके दो भेद है-नैसर्गिक ( अगृहीत ) मिथ्यात्व और परोपदेशपूर्वक (गृहीत ) मिथ्यात्व । परोपदेशके बिना मिथ्यात्य कर्म के उदद्यसे जो सत्त्वोंका अश्रवान होता है वह नैसर्गिक मिथ्यात्व है। जैसे भरतके पुत्र मरीचिका मिथ्यात्व नैसर्गिक था। गृहीत मिथ्यात्वके चार भेद हैं---क्रियावादी, 'अक्रियावादी, अज्ञानिक औमासिक अवधाकामा ममीवासविनयजी महाराज संशय और अज्ञान ये पाँच भेद भी होते हैं। यह ऐसा ही है अन्यथा नहीं, इस प्रकार अनेकधर्मात्मक वस्तुके किसी एक धर्मको ही मानना, सारा संसार ब्रह्मस्वरूप ही है, अथवा सब पदार्थ नित्य ही हैं इस प्रकार के ऐकान्तिक अभिप्राय या हठको एकान्त मिथ्यादर्शन कहते हैं। समन्थको निर्मन्थ कहना, केषलीको कवलाहारी कहना और स्त्रीको मुक्ति मानना इत्यादि विपरीत कल्पनाको विपरीत मिथ्यात्व कहते हैं। "इसमें सन्देह नहीं है कि जो समभावपूर्वक आत्माका ध्यान करता है यह अवश्य ही मोक्षको प्राप्त करता है चाहे वह श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बुद्ध हो या अन्य कोई।" इस प्रकारका श्रद्धान विपरीत मिथ्यात्व ही है । सम्यग्दर्शन,ज्ञान और चारित्र मोक्षके मार्ग है या नहीं इस प्रकार जिनेन्द्र के वचनों में सन्देह करना संशय मिथ्यात्व है। सब देवताओं और सब मतोंको समान रूपसे आदरकी दृष्टिसे देखना पैनयिक मिध्यात्य है । हित और अहितके विचार किये बिना श्रद्धान करनेको अज्ञान मिथ्यात्व कहते हैं। क्रियावादियोंके १८५, अक्रियावादियोंके ८४, अज्ञानियोंके ६७ और वैनयिकोंके ३२ भेद हैं। इस प्रकार सश मिथ्यादृष्टियोंके ३६३ भेद है। पाँच प्रकारके स्थावर और प्रस इस प्रकार छह कायके जीवोंकी हिंसाका त्याग न करना और पाँच इन्द्रिय और मनको यशमें नहीं रखना अविरति है। इस प्रकार अविरतिके बारह भेद हैं। _ पाँच समितियोंमें, तीन गुप्तियों में, विनयशुद्धि, कायशुद्धि, बचनशुद्धि, मनः शुद्धि, ईर्यापथथुखि, व्युत्सर्गशुद्धि, भैदयशुद्धि, शयनशुद्धि और आसनशुद्धि इन आठ शुद्धियों में, तथा दशलक्षणधर्ममें आदर पूछक प्रवृत्ति नहीं करना प्रमाद है। प्रमादके पन्द्रह भेद हैंपाँच इन्द्रिय, चार विकथा, चार कवाय, निछ। और प्रणय । सोलह कषाय और नव नोकषाय इस प्रकार कषायके पच्चीस भेद हैं। चार मनोयोग, चार बचनयोग और सात काययोगके भेदसे योग पन्द्रह प्रकारका है। आहारक और आहारकमिश्र काययोगका सद्भाव छठवें गुणस्थानमें ही रहता है। मिथ्यादर्शन आदिका धर्णन पहिलेके अध्यायों में हो चुका है । मिथ्या दृष्टिके पाँचों ही बन्धके हेतु होते हैं । सासादन सम्यदृष्टि,सम्यग्मिध्याष्टि, और असंयत सम्यग्दृष्टिमें मिथ्यात्वके बिना चार बन्धक हेतु होते हैं । संयता संयतकै Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ तत्त्वा साचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज विरतियुक्त प्रति तथा प्रमाद, कपाय और योग बन्धके हेतु हैं । प्रमत्त संयत के प्रमाद, aara और योग ये तीन बन्धके हेतु हैं । श्रप्रमत्त, अपूर्वकरण, बादरसाम्पराय और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानों में कषाय और योग ये दो ही बन्धके कारण हैं । उपशान्तकपाय, श्रीकपाय और सयोगकेवली गुणस्थानों में केवल योग ही बन्धका हेतु है । अयोगकेवली गुणस्थान में बन्ध नहीं होता है । बन्धका स्वरूप सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः ॥ २ ॥ कषायसहित होने के कारण जीव जो कर्मके योग्य ( कार्माणवर्गणा रूप ) पुदल परमाणुओं को ग्रहण करता है बहु बन्ध है । पायका पहिले सूत्र में हो चुका है। इस सूत्र में पुनः कषायका ग्रहण यह सूचित करता हैं कि तीव्र, मन्द और मध्यम कपायके भेदसे स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्ध भी तीन, मन्द और मध्यमरूप होता है । प्रश्न - बन्ध जीवके हो होता है अतः सूत्रमें जीव शब्दका ग्रहण व्यर्थ है । अथवा जीव अमूर्ती है, हाथ पैर रहित है, वह कर्मोंको कैसे ग्रहण करेगा ? उत्तर - जो जीता हो या प्राण सहित हो वह जीव है इस अर्थको बतलाने के लिये जीव शब्दका प्रण किया गया है। तात्पर्य यह है कि आयुप्राणसहित जीव ही कमको ग्रहण करता है । आयुसबन्धके बिना जीव अनाहारक हो जाता है अतः विग्रहगति में एक, दो या तीन समय तक जीव कर्म ( नोकर्म ? ) का महण नहीं करता है । प्रश्न - - 'कर्मयोग्यान्' इस प्रकारका लघुनिर्देश ही करना चाहिये था 'कर्मणो योग्यान्' इस प्रकार पृथक् विभक्तिनिर्देश क्यों किया ? उत्तर - 'कर्मयोग्यान इस प्रकार पृथक् विभक्तिनिर्देश दो वाक्योंको सूचित करता १ एक वाक्य है -- कर्मणां जीवः सकपायो भवति और दुसरा वाक्य है कर्मणो योग्यान् । प्रथम वाक्यका अर्थ है कि जीव कर्मके कारण ही सकषाय होता है। कर्म रहित जीव के पायका सम्बन्ध नहीं हो सकता। इससे जीव और कर्मका अनादि सम्बन्ध सिद्ध होता है । तथा इस शंकाका भी निराकरण हो जाता है कि अमूर्तक जीव मूर्त कर्मोंको कैसे ग्रहण करता है। यदि जीव और कर्मका सम्बन्ध सादि हो तो सम्बन्ध के पहिले जीवको अत्यन्त निर्मल होने के कारण सिद्धोंकी तरह बन्ध नहीं हो सकेगा । अतः कर्म सहित जीव ही कमबन्ध करता है, कर्मरहित नहीं। दूसरे वाक्यका अर्थ है कि जीव कर्मके योग्य ( कार्मार्गणारूप ) पुलोंकी हो ग्रहण करता है अन्य पुलोंको नहीं । पहिले वाक्य में 'कर्मणो' पञ्चमी विभक्ति है और दूसरे वाक्यमें पष्ठी विभक्ति । यहाँ अर्थ बशसे विभक्ति में भेद हो जाता है । सूत्र में पुद्गल शब्दका ग्रहण यह बतलाता है कि कर्मकी पुद्गल के साथ और पुद्गल की कर्मके साथ तन्मयता है। कर्म आत्मा का गुण नहीं है क्योंकि आत्माका गुण संसारका कारण नहीं हो सकता। 'आदते' यह क्रिया बचन हेतुहेतुमद्भावको बतलाता है। मिध्यादर्शन आदि बन्धके हेतु हैं और बम्बसहित आत्मा हेतुमान् है । मिध्यादर्शन आदि के द्वारा सूक्ष्म अनन्तानन्त पुद्गल परमाणुओं का आत्माके प्रदेशों साथ जल और दूधकी तरह मिल जाना बन्ध है । केवल संयोग या सम्बन्धका नाम बन्ध नहीं है। जैसे एक बर्तन में रखे हुए नाना प्रकार के Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८|३-४ ] आठवां अध्याय ४६७ रस, बीज, पुष्प, फल आदिका मदिरा रूपने परिणमन हो जाता है उसी प्रकार आत्मा में स्थित पुद्गलोंका भी योग और कपाय के कारण कर्मरूपसे परिणमन हो जाता है । आटून 'श्री' सुनिकी का इस यहाको पलाता है कि बन्ध उक्त प्रकारका ही है अन्य गुण-गुणी आदि रूपसे बन्ध नहीं होता है। जिस स्थानमें जीव रहता है केवल उसी स्थान में केवलज्ञानादिक नहीं रहते हैं किन्तु दूसरे स्थानमें भी उनका प्रसार होता है। यह नियम नहीं है कि जितने क्षेत्र में गुणी रहे उतने ही क्षेत्र में गुणको भी रहना चाहिये (?) 1 बन्धके भेद मार्गदर्शक : प्रकृतिस्थित्यनुभाव प्रदेशास्तद्विधयः ॥ ३ ॥ प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध ये बन्धके चार भेद हैं । प्रकृति स्वभावको कहते हैं। जैसे नोम की प्रकृति कड़बी और गुडकी प्रकृति मीठी है । कर्मोंका ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि स्वभावरूप होना प्रकृतिबन्ध हैं। अर्थका ज्ञान नहीं होने देना ज्ञानावरणकी प्रकृति है । अर्थका दर्शन नहीं होने देना दर्शनावरणकी प्रकृति है। सुख और दुःखका अनुभव करना वेदनीय की प्रकृति है । तत्त्वोंका अश्रद्वान दर्शनमोहनीको प्रकृति है । असंयम चारित्र मोहनीयकी प्रकृति है । भवको धारण कराना आयु कर्मकी प्रकृति है । गति, जाति आदि नामोंको देना नामकर्मकी प्रकृति है । उच्च और नीच कुल में उत्पन्न करना गोत्रकर्मकी प्रकृति है । दान लाभ आदिमें विघ्न डालना अन्तराय की प्रकृति है । आठों मोंका अपने अपने स्वभावसे च्युत नहीं होना स्थितिबन्ध है। जैसे अजाक्षीर गोक्षीर आदि अपने माधुर्य स्वभावसे च्युत नहीं होते हैं उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्म भी अर्थका अपरिज्ञान आदि स्वभावसे अपने अपने काल पर्यन्त च्युत नहीं होते हैं। ज्ञानावरणादि प्रकृतियों की तीव्र, मन्द और मध्यमरूप से फल देनेकी शक्ति (रस विशेष) को अनुभाग कहते हैं । अर्थात् कर्मपुद्गलोकी अपनी अपनी फलदान शक्तिको अनुभाग कहते हैं । कर्म रूपसे परिणत पुद्गल स्कन्धों के परमाणुओं की संख्याको प्रदेश कहते हैं। प्रकृति और प्रदेश बन्ध योग के द्वारा ओर स्थिति तथा अनुभागबन्ध कषायके द्वारा होते हैं । कहा भी है- 'योग से प्रकृति और प्रदेश बन्ध होते हैं तथा कषायसे स्थिति और अनुभाग बन्ध । अपरिणत --उपशान्त कषाय और क्षीणकषाय आदि गुणस्थानों में कषायों का सद्भाव न रहने से बंध नहीं होता अर्थात् इनमें स्थिति और अनुभाग बंध नहीं होते । प्रकृतिबन्ध के भेद आयो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुन मिगोत्रान्तरायाः ॥ ४ ॥ प्रकृतिवन्ध के ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय. आयु नाम, गोत्र और अन्तराय ये घाट भेद हैं। I आयु शब्द कहीं उकारान्त भी देखा जाता है। जैसे "वितरतु दीर्घमायु कुरुताद्गुरुतामवतादहर्निशम् ” इस वाक्य में जिस प्रकार एक बार किया हुआ भोजन रस, रुधिर, मांस आदि अनेक रूपसे परिणत हो जाता है उसी प्रकार एक साथ बन्धको प्राप्त हुए कर्म परमाणु भी ज्ञानावरणादि अनेक भेद रूप हो जाते हैं। सामान्यसे कम एक ही हैं। पुण्य और पाप की अपेक्षा कर्मके दो भेद हैं। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेद कर्मके चार Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 .. i ४६८ तत्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार [ ५७ भेद हैं। ज्ञानावरण आदिके भेदसे कर्मके आठ भेद हैं। इस प्रकार कर्म के संख्यात, असंख्यात और अनन्त भी भेद होते हैं । प्रकृतिबन्धके उत्तर भेद- मार्गदर्शक :- आच्चर्यं वतैयशात चतुद्वचत्वारिंशद्वियञ्चभेदा यथाक्रमम् ॥ ५ ॥ उक्त ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंके क्रमसे पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, व्यालीस दो और पाँच भेद हैं। यद्यपि इस सूत्र में यह नहीं कहा गया है कि प्रकृतिबन्धके ये उत्तर भेद हैं, लेकिन पूर्व में 'आद्य' शब्दके होनेसे यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि ये प्रकृतिबन्धके ही उत्तर भेद है । ज्ञानावरण के भेद मतिश्रुतावधि मनःपर्ययकेवल नाम् ॥ ६ ॥ मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण. अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ये ज्ञानावरणके पाँच भेद हैं। प्रश्न -- श्रभव्यजीवों में मन:पर्ययज्ञानशक्ति और केवलज्ञानशक्ति है या नहीं ? यदि है तो वे जीव अभव्य नहीं कहलायेंगे और यदि शक्ति नहीं है तो उन जीवों में मन:पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणका सद्भाव मानना व्यर्थ ही है । उत्तर - नयकी दृष्टिसे वक्त मतमें कोई दोष नहीं आता । द्रव्यार्थिक नयको दृष्टिसे अभव्यजीवों में मन:पर्ययज्ञानशक्ति और केवलज्ञानशक्ति है और पर्यायार्थिकनकी दृष्टिसे दानों शक्तियाँ नहीं है । प्रश्न- यदि अभव्यजीवों में भी मन:पर्ययज्ञानशक्ति और केवलज्ञानशक्ति पाई जाती है तो भव्य और अभव्यका विकल्प ही नहीं रहेगा । उत्तर - शक्तिके सद्भाव और असद्भावकी अपेक्षा भव्य और अभव्य भेद नहीं होते हैं किन्तु शक्तिकी व्यक्ति ( प्रकट होना) की अपेक्षा उक्त भेद होते हैं। บ सम्यग्दर्शन आदि के द्वारा जिस जीवकी और जिसकी शक्तिकी व्यक्ति नहीं हो सकती वह है जिससे स्वर्ण निकलता है और एक अन्धपाषाण शक्तिकी व्यक्ति हो सकती है वह भव्य है भव्य है । जैसे एक कनकपाषाण होता होता है जिससे सोना नहीं निकलता ( यद्यपि उसमें शक्ति रहती है ) । यही बात भव्य और अभव्यके विषयमें जाननी चाहिये । दर्शनावरण के भेद चक्षुरचक्षुरधिकेवलानां निद्रानिद्रा निद्राप्रचलाप्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धयश्च ॥ ७ ॥ चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और त्यानगृद्धि ये दर्शनावरण के नौ भेद हैं। जो चक्षु द्वारा होने वाले सामान्य अवलोकनको न होने दे वह चक्षुः दर्शनावरण है। जो चक्षू को छोड़कर अन्य इंद्रियों से होनेवाले सामान्य अवलोकनको न होने दे व अचक्षुःदर्शनावरण है । जो अवधिज्ञान से पहिले होनेवाले सामान्य अवलोकनको न होने दे वह अबधिदर्शनावरण और जो केवलज्ञानके साथ होनेवाले सामान्य दर्शनको रोके वह केवलदर्शना Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मादिन्कि:-चायना सावादासागरा पाराज ८८-२] आठवाँ अध्याय ४६९ वरण है । मद, खेद, परिश्रम आदिको दूर करनेके लिये सोना निद्रा है। निद्राका बार बार लगातार आना निद्रानिद्रा है । निद्रावाला पुरुष जल्दी जम जावाहासागनिहा महाराज निद्रावाला पुरुष बहुत मुश्किलसे जगता जी शरीरको चलायमान करे वह प्रचला है । प्रचला शोक, श्रम, खद् आदिसे उत्पन्न होती है और नेत्रविकार, शरीर विकार आदिके द्वारा सूचित होती है। प्रचलावाला पुरुष बेठे बैठे भी सोने लगता है । प्रचलाका पुनः पुनः होना प्रचलाप्रचला है। जिसके उदयसे सोनेकी अवस्थामें विशेष बलकी उत्पत्ति हो जावे यह स्यानगृद्धि है। त्यानमृद्धि वाला पुरुष दिन में करने योग्य अनेक रौद्र कार्योंको रात्रि में कर डालता हैं और जागने पर उसको यह भी मालूम नहीं होता कि उसने रात्रिमें क्या किया । गोम्मदसार कर्मकाण्ड में निद्रा आदि के लक्षण निम्न प्रकार बतलाए है स्त्यानगृद्धिके उदयसे सोता हुआ जीव उठ बैठता है, काम करने लगता है और बोलने भी लगता है। निद्रानिद्राके उदयसे जीव आँखोंको खोलनेमें भी असमर्थ हो जाता है। प्रचलाप्रचलाके उदयसे सोते हुये जीवकी लार बहने लगती है और हाथ पर श्रादि चलने लगते हैं। प्रचलाके उदयसे जीय कुछ कुछ सो जाता है, सोता हुआ भी कुछ जागता रहता और बार बार मन्द शयन करता है। और निद्राके उदयसे जीव चलते चलते रुक जाता है, बैठ जाता है। गिर पड़ता है और सो जाता है। वेदनीयके भेद सदसद्वद्ये ॥ ८॥ साता वेदनीय और असाता वेदनीय ये वेदनीयके दो भेद हैं। जिसके उदयसे देव,मनुष्य और तिर्यग्गतिमें शारीरिक और मानसिक सुखोका अनुभव हो उसको साप्ता वेदनीय कहते हैं। और जिसके उदयसे नरकादि गतियों में शारीरिक, मानसिक श्रादि नाना प्रकारके दुःखोंका अनुभव हो उसको असातावेदनीय कहते है। मोहनीयक भेददर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्याखिद्विनवषोडशमेदाः सम्यक्त्वमिध्यात्वतदुभयान्यकषायकषायौ हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदा अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्यावेकशः क्राधमानमायालोमाः ॥ ९ ।। मोहनीय कर्म के मुख्य दो भेद हैं-दशनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । दर्शन मोहनीयके तीन भेद हैं-१ सम्यक्त्व, २ मिथ्यात्व और ३ सम्यस्मिथ्यात्व । चारित्र मोहनीयके दो भेद हैं-कषायवेदनीय और अकषायवेदनीय। कषाय वेदनोयके सोलह भेद है-अनन्तानुवन्धी क्रोध,मान,माया और लोभ । अप्रत्याख्यान क्रोध,मान, माया और लोभ । प्रत्याख्यान क्राध, मान, माया और लोभ । संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ । अकपाय वेदनीयके नव भेद है-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्लीवेद, पुंवेद और नपुंसक वेद। ___यद्यपि बन्धकी अपेक्षा दर्शनमोहनीय एक भेदरूप ही है लेकिन सत्ताकी अपेक्षा उसके तीन भेद हो जाते हैं। शुभपरिणामों के द्वारा मिथ्यात्वकी फलदानशक्ति रोक दी जाने Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८१२ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार पर मिथ्यात्व आत्मामें उदासीनरूपसे अस्थित रहता है और आत्माके श्रद्धान परिणाममें बाश नहीं डाल सकता। लेकिन इसके उदयसे श्रद्धानमं चल आदि दोष उत्पन्न होते हैं। दर्शनमोहनीयकी इस अवस्थाका नाम सम्यक्त्व दर्शनमोहनीय है। जिसके उदयसे जीय सर्वस द्वारा प्रतिपादित मोक्षमार्गसे पराजमुल होकर तत्त्वोंका श्रद्धान न करे तथा हित और अहितका भी ज्ञान जिसके कारण न हो सके वह मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व और सम्यक्त्व दोनोंकी मिली हुई अवस्थाका नाम सम्यग्मिध्यात्व। इस प्रकृतिके उदयसे आत्मामें मिश्ररूप परिणाम होते है। जिस प्रकार कोदो ( एक प्रकारका अन्न ) को धो डालनेसे उसकी कुछ मदशक्ति नष्ट हो जाती है और कुछ मदशक्ति बनी ही रहती है, उसी प्रकार शुभपरिणामोसे मिथ्यात्वकी कुछ फलदानशक्तिके नष्ट होजानेसे वही मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्वरूप हो जाता है। जिसके उदयसे हँसी आवे वह हास्य है। जिसके उदयसे किसी ग्राम आदिमें रहने वाला जीव परदेश आदिमें जानेकी इच्छा नहीं करता है वह रति है। रतिके विपरीत इच्छा होना अरति है। जिसके उदयसे शोक या चिन्ता हो वह शोक है। जिसके उदयसे त्रास या भय उत्पन्न हो वह भय है। जिसके उदयमे जीव अपने दोषोंको छिपाता है और दूसरोंके दोपोंको प्रगट करता है वह जुगुप्सा है। जिसके उदयसे स्त्रीरूप परिणाम हो वह स्त्रीवेद है। जिसके उदयसे पुरुषरूप परिणाम हो बह वेद और जिसके उदयसे नपुंसक रूप भाव हों यह नपुंसकवेद हार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधीसागराव्हारसक अन्य ग्रन्थोमें वेदोंका लक्षण इस प्रकार बतलाया है-योनि, कोमलता, भयशील होना, मुग्धपना, पुरुषार्थशून्यता, स्तन और पुरुषभोगेच्छा ये सात मात्र स्वीवेदके सूचक हैं। लिम, कठोरता, स्तब्धता, शौण्डीरता, दादी-मूछ, जबर्दस्तपना और खीभोगेच्छा ये सात पुंवेदक सूचक हैं। ऊपर जो वेद और पुरुषवेदक सूचक १४ चिह घताप हैं वे ही मिश्रित रूपमें नपुंसकवेदके परिचायक होते है। अनन्त संसारका कारण होनेसे मिथ्यादर्शनको अनन्त कहते हैं। जो क्रोध, मान माया और लोभ मिथ्यात्वके बंधके कारण होते हैं वे अनन्तानुबन्धी हैं। अनन्तानुबन्धी कषायके उदयसे जीत्र सम्यग्दर्शनको प्राप्त नहीं कर सकता। जिसके उदयसे जीव संयम अर्थात् श्रावकके व्रतोको पालन करने में असमर्थ हो वह अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ है। जिसके उदयसे जीव महात्रतोंको धारण न कर सके वह प्रत्यास्यानावरण क्रोध, मान. माया और लोभ है। जो कपाय संयम के साथ भी रहती हैं लेकिन जिसके उदयसे अत्मामें यथाख्यातचारित्र नहीं हो सकता वह संज्वलन क्रोध,मान,माया और लोभ है। सोलह कषायोंके स्वभावके दृष्टान्त इस प्रकार हूँ। क्रोध चार प्रकारका होता है-१ पत्थरकी रेखाके समान, २ पृथिवीकी रेखाके समान, ३ धुलिरेखाके समान, और ४ जलरेखाके समान । उक्त क्रोध क्रममे नरक, तिर्यकच, मनुष्य और देवगतिके कारण होते हैं। मान चार प्रकारका होता है-१ पत्थरके समान, २ हड्डीके समान ३ काठके समान और ४ ३तके समान । चार प्रकारका मान भी कम से नरकादि गतियोंका कारण होता है । माया भी चार प्रकारको होती है-१ बाँसकी जड़के समान, २ मेड़ के सींग के समान, ३ गोमूत्र के समान ऑर ५ खुरपाके समान । चार प्रकारकी माया क्रममे नरकादि गतियों कारण होती है । लोभ भी चार प्रकारका होता है- किरमिचके रंगके समान, २ रथके मल अर्थात ऑगतकं समान, ६ शरीरके मलके समान और हल्दोके रंगक समान । चार प्रकारका लोभ भी क्रमसे नरकादि गतियोंका कारण होता है। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८1१०-११] आठवौं अध्याय आयुकर्मके भेद--- नारकतैग्योनमानु पदैवानि ॥ १० ॥ नरकायु, तिर्यकचायु, मनुष्यायु और देवायु ये आयुकर्मफे चार भेद हूँ । जिसके उदयसे जीप नरकके दुःखोंको भोगता हुआ दीर्थ काल तक जीवित रहता है वह नरकायु है। इसी प्रकार जिसके उदयसे जीव तियकच मनुष्य देव गतियों में जीवित रहता है उसको तिर्यञ्च मनुष्य देव अायुकर्म समझन्ध चाहिये । नामकर्मके भेद-- गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबन्धनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगन्धवर्णानुपूागुरुलघूपपातपस्पघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येक शरीरत्रससुभगसुस्वरशुभन्मपर्याप्तिस्थिगदेग्रयशः कीर्तिसेतराणि तीर्थकरत्वञ्च ॥ ११ ॥ मार्गदर्शक :- उविनायमिाशीसजिलोपालजनिर्वाजबन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, आनुपूर्व्य, अगुरुलघु, उपघात,परघात,आतप,उद्योत,उच्छ्वास, विहायोगति, प्रत्येकशरीर, साधारण, प्रस, स्थावर, सुभग, दुभंग, सुस्वर, दुःस्वर, शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, स्थूल, पर्याप्ति, अपर्याप्ति, स्थिर, अस्थिर, आदय, अनादेय, यशःकीति, अयशःकीर्ति और तीर्थकर प्रकृति ये नामकर्म के व्यालीस भेद हैं। जिसके उदयसे जीव इसरे भवको प्राप्त करता है उसको गति नामकर्म कहते है। गति के चार भेद हैं-१ नरकगति, २ तियश्चगति, ३ मनुष्यगति और ४ देवगति ! जिसके उदयसे जीवमें नरकभाव अर्थात् नारक शरीर उत्पन्न हो, वह नरक गति है । इसी प्रकार तियेव आदि गतियों का स्वरूप समझ लेना चाहिये। जिसके उदयसे नरकादि गतियों में जीवों में समानता पाई जाच वह जाति नामक्रम है। जातिके पाँच भेद हैं-१ एकेन्द्रियजाति, २ द्वीन्द्रिय जाति, ३ त्रीन्द्रियजाति, ४ चतुशिन्द्रयजाति और ५ पञ्चेन्द्रिय जाति । जिसके उदयसे जीव एकेन्द्रिय कहा जाता है वह ऐकेन्द्रियजाति है। इसी प्रकार अन्य जातियोंका स्वरूप समझ लेना चाहिये। जिसके उदयसे जीवके शरीरकी रचना हो वह शरीर नामकर्म है। इसके पाँच भन्द है. औदारिक, २ वैफियिक, ३ आहारक, ४ तेजस और ५ कामेण शरीर । ... जिसके उदयसे अङ्ग और उपाकी रचना हो उसको अङ्गोपाङ्ग नामकर्म कहते हैं । इसके तीन भेद है--औदारिक शरीराङ्गोपाङ्ग, २ बैंक्रियिकशरीरासोपाङ्ग और ३ आहारक शरीराङ्गोपाङ्ग । तैजस और कार्मण शरीर के अङ्गोपाङ्ग नहीं होते अत; अङ्गोपाङ्ग नामकर्मके तीन ही भेद हैं। दो हाथ, दो पैर, मस्तक. वक्षस्थल, पीठ और नितम्ब ये आठ अङ्ग हूँ तथा ललाट, कान, नाक, नेत्र आदि उपास हैं। __जिसके उदयसे अझोपाङ्गोंकी यथास्थान और यधाप्रमाण रचना होती हैं उसको निर्माण नामकर्म कहते है। इसके दो भेद हैं स्थान निर्माण और प्रमाण निर्माण । जिसके उदयसे नाक, कान आदिकी रचना निश्चित स्थान में ही होती है वह स्थान निर्माण है। और जिसके उदयसे नाक, कान आदिकी रचना निश्चित संख्याके अनुसार होती है वह प्रमाण निर्माण है। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ ८११ शरीर नाम कर्मके उदयसे ग्रहण किये गये पुद्गलस्कन्धोंका पूरपरमें सम्बन्ध जिस के उदयसे होता है वह बन्धन नाम कमहिशइसके पश्चिम को सबिधारगर महाराज नाम, २ क्रियिकशरीरबन्धननाम, ३ आहारकशरीरबन्धननाम, ४ तेजसशरीरबन्धननाम और ५ कार्मणशरीरबन्धननाम । जिसके उदयसे शरीरके प्रदेशोंका ऐसा बन्धन हो कि उसमें एक भी छिद्र न रहे और वे प्रदेश एकरूप हो जॉय उसको संघात नामकर्म कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं-१ औदारिकशरीरसंघातनाम, २ क्रियिकशरीरसंघातनाम, ३ श्राहारकशरीरसंघातनाम, ४ तेजसशरीरसंघातनाम और ५ कार्मणशरीरसंघातनाम । जिसके उदयसे शरीरके आकारकी रचना होती है वह संस्थान नामकर्म है। इसके छह भेद हैं-- समचतुरस्रसंस्थान, २ न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान, स्वातिसंस्थान, ४ कुब्जक संस्थान, ५ वामनसंस्थान और ६ हुंडकसंस्थान । जिसके उदयसे शरीरकी रचना ऊपर, नीचे और मध्यमें समान रूपसे हो अर्थात् मध्यसे ऊपर और नीचेके भाग बराबर हों, छोटे या बड़े न हो वह समचतुरस्रसंस्थान है। जिसके उदयसे नाभिसे ऊपर मोटा और नीचे पतला शरीर हो वह न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान है। जिसके उदयसे नाभिसे ऊपर पतला और नीचे मोटा शरीर हो वह स्वातिसंस्थान है । इसका दूसरा नाम वल्मीक संस्थान है। जिसके उदयसे पीठमें पुद्गल स्कन्धोंका समूह ( कूबड़ ) हो जाय वह कुब्जकसंस्थान है। जिसके उदयसे बौना ( छोटा ) शरीर हो वह वामनसंस्थान है । जिसके उदयसे शरीरके अंगोपालों की रचना ठीक रूपसे न हो वह हुडकसंस्थान है। जिसके उदयसे हड्डियों में बन्धनविशेष होता है उसको संहनन कहते है । संहननके छह भेद है-वनवृषभनाराचसंहनन, २ अनाराचसंहनन, ३ नाराचसंहनन, ४ अर्द्धनारासंहनन, ५ कीलकसंहनन और ६ असंप्रामानुपाटिकासंहनन । जिसके उदयसे धनकी हड्डियां हो तथा वे सनाराच ( हड्डियोंके दोनों छोर आपसमें आँकड़ेकी तरह फंसे हों। और वृषभ अर्थात् यलयसे जकड़ी हों यह वनवृषभनाराचसंहनन है। जिसके उदयसे वनकी हड़ियाँ आपसमें ऑककी तरह फंसी तो हों पर उनपर बलय न हो। उसे बसनाराचसंहनन कहते हैं। जिसके उदयसे साधारण हड्डियों दोनों ओरसे एक दूसरे में फंसी हों उसको नाराचसंहनन कहते है। जिसके उदयसे हड्डियाँ एक ओर दसरी हट्टीम फंसी हों पर एक ओर साधारण हों उसको अर्धनाराचसंहनन कहते हैं जिसके उदयसे हडिडयों परस्पर फंसी तो न हों पर परस्पर, कीलित हो यह कीलकसंहनन है। जिसके उदयसे हडिडयाँ परस्परमें कोलित न होकर पृथक पृथक् नसोंसे लिपटी हो उम्मको असंप्रामासपाटिकासंहनन कहते हैं। असंप्राप्तासुपाटिकासंहननका धारी जीव आठवें स्वर्ग तक जा सकता है। कीलक और अर्द्धनाराचसंहननका धारी जीव सोलहवें स्वर्ग तक जाता है। नाराचसंहननका धारी जीव नवबेयक तक जाता है। बननाराचसंहननका धारी जीय अनुदिश तक जाता है। और चवृषभनाराचसंहननवाला जीव पाँच अनुत्तर विमान और मोक्षको प्राप्त करता है। बनवृपभनाराचसंहननवाला जीव सातवें नरक तक जाता है । वननाराच, नाराच और अर्द्धनाराचसंहननवाले जीव छठवें नरक तक जाते हैं। कीलक संहननवाले जीव पांच नरक तक जाते हैं । असंप्राप्तामपाटिकासंहामानवाला संशी जीव तीसरे नरक तक जाता है। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८1११] आठवाँ अध्याय કડવું एक इन्द्रिय ( ? ) से चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जीवोंके केवल असंप्राप्तामृपादिकासंहनन होता है । असंख्यातवर्षकी आधुबालोंक ही वनवृषभनाराच संहनन होता है । चौथे कालमें छहों संहनन होते हैं । पाँचवें कालमें अन्तके तीन संहनन होते हैं । छटवें कालमें केवल असंप्राप्तास्पाटिका संहनन होता है। विदेह क्षेत्रमें, विद्याधरों के स्थानों में और म्लेच्छखंडों में मनुष्यों और तिर्य के छहों संहनन होते हैं। नगेन्द्र पर्वतसे बाहर तिर्यकचोंके छहों संहनन होते हैं। कर्मभूमिमें उत्पन्न होने वाली स्त्रियों के आदिके तीन संहनन नहीं होते हैं, केवल अन्तके तीन संहनन होते हैं। आदिके सात गुणस्थानों में छहों संहनन होते हैं। उपशमश्रेणीके चार गुणस्थानों ( आठवेसे ग्यारहवें तक ) में आदिके तीन संहनन होते हैं । क्षपक श्रेणीके चार गुणस्थानों मार्गदर्शक जियश्री सोवाहासागर में राजयोगकेवली गुणस्थानमें श्रादिका एक ही संहनन होता जिसके उदय से स्पर्श 'उत्पन्न हो वह स्पर्श नामकर्म है । स्पर्शके आठ भेद हैकोमल, कठोर, गुरु, लघु, शीत, उरण, स्निग्ध और रूक्ष । ___ जिसके उदयसे रस उत्पन्न हो वह रस नामकर्म है। रसके पाँच भेद है-तिक, कडु, कषाय, आम्ल और मधुर। जिसके उदयसे गन्ध हो वह गन्ध नामकर्म है । गन्धके दो है--सुगन्ध और दुर्गन्ध । _जिसके उदयसे वर्ण हो वह वर्ण नामकर्म है। वर्ण के पाँच भेद हैं-शुक्ल, कृष्ण, नील, रक्त और पीत । जिसके उदयसे विप्रहगतिमें पूर्व शरीरके श्राकारका नाश नहीं होता है उसको आनुपूर्य नामकर्म कहते हैं। इसके चार भेद हैं-नरकगत्यानुपूर्व्य, तिर्थमात्यानुपूयं, मनुष्यगत्यानुपूर्व्य और देवगत्यानुपूर्दा । कोई मनुष्य मरकर नरकमें उत्पन्न होनेवाला है. लेकिन जब तक, बह नरकमें उत्पन्न नहीं हो जाता तब तक आत्माके प्रदेश पूर्व शरीरके श्राकार ही रहते हैं इसका नाम नरकगत्यानुपूर्ण्य है। इसी प्रकार अन्य आनुपूल्यों के लक्षण जानना चाहिये। जिसके उदयसे जीवका शरीर न तो लोहेके गोले की तरह भारी होता है और न रुई के समान हलका ही होता है वह अगुरुलघु नाम है। जिसके उदयसे जीव स्वयं ही गले में पाश बाँधकर, वृक्ष आदि पर दंगकर मर जाता है वह अपघात नाम है। शस्त्रघात, विषभक्षण, अग्निपात, जलनिमज्जन आदिके द्वारा आत्मघात करना भी उपधात है। जिसके उदयसे दूसरोंके शस्त्र आदिसे जीवका घात होता है यह परघात नाम है। जिसके उदयसे शरीरमें आताप हो वह आतप नाम हैं। जिसके उदयसे शरीर में उद्योत हो वह उद्योत नाम है जैसे चन्द्रमा,जुगनू आदिका शरीर जिसके उदयसे उच्छवास हो वह उच्छवास नाम है। जिसके उदयसे आकाशमें गमन हो यह विहायोगति नाम है । इसके दो भेद है-प्रशस्त विहायोगति और अप्रशस्तविहायोगति । गज, वृषभ, हंस आदिके गमन की तरह सुन्दर गतिको प्रशस्त बिहायोगति और ऊँट, गधा, सर्प आदिके समान कुटिल गतिको 'अप्रशस्त बिहायोति कहते हैं। जिसके उदयसे एक शरीरका स्वामी एक ही जीव हो वह प्रत्येक शरोर नाम है। जिसके उदयसे एक शरीरके स्वामी अनेक जीव हों वह साधारण शरीर नाम है। वनस्पति कायके दो भेद है-साधारण और प्रत्येक । जिन जीवोंका श्राहार और स्वासोन्छ्वास एक साथ हो उनको साधारण कहते हैं। प्रत्येक वनस्पतिके भी दो भेद है Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [८।१२-१३ सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक जिस शरीरका मुख्य स्वामी एक ही जीव हो लेकिन उसके आश्रित अनेक साधारण जीव रहते हों वह सप्रतिष्ठित प्रत्येक है। और जिस शरीरके आश्रित अनेक जीव न हों वह अप्रतिष्ठित प्रत्येक है। गाम्मटसार जीवकाण्ड में सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येककी पहिचान इस प्रकार बतलाई है। जिनकी शिरा और सन्धिपर्व (गांठ ) अप्रकट हों, जिनका भंग करने पर समान भंग हो जॉय, और दोनों टुकड़ों में परस्पर में तन्तु (रेसा) न लगा रहे तथा जो तोड़ने पर भी बढ़ने लगे और जिनके मूल, कन्द, छिलका, कोपल, टहनी, पत्ता, फूल, फल और बीजोको तोड़ने पर समान भंग हो उनको सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहते हैं। इसके अतिरिक्त वनस्पतियों को अप्रति ष्ठित प्रत्येक कहते हैं। जिम उदय का इन्द्रिय आदि जीवों में जन्म हो उसको त्रस नाम कहते हैं। जिमके उदयसे पृथिवोकाय आदि एफेन्द्रिय जाबों में जन्म हो उसको स्थावर नाम कहते हैं। जिसके उदयस किसी जीवको देखने या सुननेपर उसके विषयमें प्रीति हो वह सुभगनाम है। जिमके उदयसे रूप और लाचण्यसे सहित होनेपर भी जीव दूसरोंको अच्छा न लगे वह दुर्भगनाम है। जिसके उदयसे मनोहर स्वर हा वह सुस्वर नाम है। जिसके उदयसे गधे आदिके स्वरकी तरह कर्कश स्वर हो वह दुर्भगनाम है। जिसके उदयसे शरीर सुन्दर होता है वह शुभनाम है। जिसके उदयसे शरीर असुन्दर होता है वह अशुभ नाम है । जिसके उदयसे सूक्ष्म शरीर हाता है वह सूक्ष्म नाम है। जिसके उदयसे स्थूल शरीर होता है वह बादर नाम है। जिसके उदयसे आहार आदि पर्याप्तियोंकी पूर्णता हो उसको पर्याप्ति नाम कहते हैं। जिसके उदय से पर्याप्ति पूर्ण हुप बिना ही जीव मर जाता है वह अपर्याप्ति नाम है। जिसके उदयसे शरीरकी धातु और उपघातु स्थिर रहें वह स्थिर नाम है। जिसके त्यसे धातु और उपधातु स्थिर न रह वह अस्थिर नाम है। जिसके उदयसे कान्ति सहित शरीर हो यह आय नाम है । जिसके उदयसे कान्तिर हित शरीर हो वह अनादेय नाम है। जिसके उदयसे जीवकी संसारमें प्रशंसा हो वह यशःकीर्ति नाम है। जिसके उदयसे जीवकी संसारमें निन्दा हो वह अयशःकीति नाम है और जिसके उदयसे जीव अहन्त अवस्थाको . प्राप्त करता हे वह तोथंकर नाम है। इस प्रकार नामकर्मके मूल भेद व्यालीस और उत्तर भेद तेरानबे होते हैं। गोत्रकर्मके भेद-- उच्चैींचैश्च ॥ १२ ॥ गोत्र कर्म के दो भेद हैं-लफचगोत्र और नीचगोत्र । जिसके उदयसे लोकमान्य इस्त्राकुवंश, सूर्यवंश, हरिवंश आदि कुलमें जन्म हो उसको उच्चगोत्र कहते हैं। जिसके उदयसे लोकांनन्दा दरिद्र, भ्रष्ट आदि कुल में जन्म हो उसको नीधगोत्र कहते हैं। अन्तरायके भेद-- दानलाभभोगोषभोगवीर्याणाम् ॥ १३ ॥ दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ये अन्तरायके पाँच भेद हैं। जिसके उदयमे दानकी इच्छा होने पर भी जीय दान न दे सके वह दानान्तराय है। जिसके उदयसे लाभ न हो सके वह लाभान्तराय है। जिसके उदयसे इच्छा होने पर भी Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ अध्याय ४७५ ८१४-१६ ] जीव भोग और उपभोग न कर सके वह भोगान्तराय और उपभोगान्तराय है । और जिसके उदयसे जीव उद्यम या उत्साह न कर सके उसको वीर्यान्तराय कहते हैं । स्थितिबन्धका वर्णन - आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोव्यः परा स्थितिः ॥ १४ ॥ ज्ञानाचरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोढ़ी सागर है । यह स्थिति संज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्तक मिध्यादृष्टि जीवकी है । एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके उक्त कर्माको उत्कृष्ट स्थिति सागर है । दो इन्द्रियकी स्थिति पच्चीस सागरके सात भागों में से तीन भाग, तीन इन्द्रियकी स्थिति पचास सागर के सात भागों में से तीन भाग और चार इन्द्रियकी उत्कृष्ट स्थिति सौ सागर के सात भागों में से तीन भाग है। असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकके उक्त कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति एक हजार सागर के सात भागों में से तीन भाग है । असंशी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवके ज्ञानावरणादि चार कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति तीस अन्तः कोड़ाकोबी सागर है। अपर्या शक एकेन्द्रिय, हीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिंद्रिय और असंक्षी पञ्चेन्द्रिय जीवोंके उक्त कर्मोंकी कष्ट स्थिति पर्याप्त जीवोंकी उत्कृष्ट स्थिति में से पश्य के असंख्यातवें भाग कम है। मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति मार्गदर्शक :- अ) असतात महिनासम६ी महाराज मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति ससर कोड़ाकोड़ी सागर है। यह स्थिति संक्षी पञ्चेन्द्रिय मिध्यादृष्टि जीवक मोहनीय कर्म की है। उक्त स्थिति चारित्र मोहनीयकी है। दानमोहनीयको उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोदा. कोड़ी सागर है। पर्याप्तक एक इन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इन्द्रिय जीवोंके मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति क्रम से एक सागर, पच्चीस सागर, पचास सागर और सौ सागर है । पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट स्थिति में से पत्यके असंख्यातवें भाग कम एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रियपर्यन्त अर्याक जीवोंके मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति । असंज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति एक हजार सागर है। और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त जीवके मोहनीयको उत्कृष्ट स्थिति त्यके असंख्यातवें भाग कम एक हजार सागर है। यहाँ ज्ञानावरणादि कर्मोकी स्थितिके समान सागरोंके सात भाग करके तीन भागका ग्रहण नहीं किया गया है किन्तु पूरे पूरे सागर प्रमाण स्थिति बतलाई गई है। नाम और गोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति विंशतिर्नामगोत्रयोः ॥ १६ ॥ नाम और गोत्रकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर है । यह स्थिति संज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्तक मिध्यादृष्टि जीवकी है। पर्याप्तक एकेन्द्रिय जीवोंके नाम और गोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागर के सात भागों में से दो भाग है। पर्याप्तक दो इन्द्रिय जीवके नाम और गोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति पचीस सागरके सात भागों में से दो भाग है। पर्याप्तक तीन इन्द्रिय जीवके नाम और गोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति पचास सागरके सात भागों में से दो Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ तस्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ ८।१०-२१ भाग है। पर्याप्तक चार इन्द्रिय जीवके नाम और गोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति सौ सागरके सात भागों में से दो भाग है । असंझी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीयके नाम और गोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति मार्गदर्शकार साधारवासालानालामेरे आगमहाराजापर्याप्तक एकेन्द्रियम असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवोंके नाम और गोत्रको उत्कृष्ट स्थिति पर्याप्तक जीवोंकी उस्कृष्ट स्थिति में से पल्यके असंख्यातवें भाग कम है। आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः ।। १७ ॥ आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर है। यह स्थिति संज्ञा पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके आयु कर्मकी है। असंझी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति पल्यके असंख्यातवें भाग है क्योंकि असंझी पञ्चेन्द्रिय तिर्यच पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण देवायु या नरकायुका बन्ध करता है । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव पूर्षकोटी आयुक्का बन्ध करके विदेह आदिमें उत्पन्न होते हैं। __ वेदनीयको जघन्य स्थिति अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य ॥ १८ ।। वेदनीय कर्मकी जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त अर्थात् चौबीस घड़ी है। इस स्थिति का बन्ध सूक्ष्मसापराय गुणस्थानमें होता है। पहिले ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिको बतलाना चाहिये था लेकिन क्रमका उल्लंघन सूत्रोंको संक्षेपमें कहने के लिये किया गया है। नाम और गोत्रकी जवन्य स्थिति नामगोत्रयोरष्टौ ॥ १९॥ ___ नाम और गोत्र कर्मकी जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त है। इस स्थितिका बन्ध भी दसव गुणस्थान में होता है। शेष कर्मोकी जघन्य स्थिति-- शेषाणामन्तर्मुहुर्ता ॥ २० ॥ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय और आयु कमंकी जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध दशमें गुणस्थानमें होता है। मोहनीयको जघन्य स्थितिका बन्ध नवमें गुणस्थानमें होता है । आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध संख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य और तियश्चोंके होता है। अनुभव बन्धका स्वरूप विपाकोऽनुभवः ।। २१ ॥ विशेष और नाना प्रकारसे कमों के उदयमें आनेको अनुभव या अनुभाग बन्ध कहते हैं। वि अर्थात् विशेष और विविध, पाक अर्थान् कमों के उदय या फल देनेको Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।२२-२४] आठवाँ अध्याय अनुभव कहते हैं पागदशककी विशेषता आवासमा बहाराचम भावोसे कर्मोके विपाकमै विशेषता होती है । और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके निमित्तसे विपाक नाना प्रकारका होता है। शुभ परिणामों के प्रकर्ष होनेपर शुभ प्रकृत्तियोंका अधिक और अशुभ प्रकृतियोंका कम अनुभाग होता है । और अशुभ परिणामोंके प्रकर्ष होनेपर अशुभ प्रकृतियोंका अधिक और शुभ प्रकृतियोंका कम अनुभाग होता है । कर्मोंका अनुभाग दो प्रकार से होता है--स्वमुख अनुभाग और परमुख अनुभाग। सब मूल प्रकृत्तियोंका अनुभाग स्वमुख ही होता है जैसे मतिज्ञानावरणका अनुभाग मतिज्ञानावरणरूपसे ही होगा। किन्तु आयुकर्म, दर्शनमोहनीय ओर चारित्र मोहनीयको छोड़कर अन्य कर्मोंकी सजातीय उत्तर प्रकृतियोंका अनुभाग पर मुख भी होता है। जिस समय जीव नरकायुको भोग रहा है उस समय तिर्यन्चायु, मनुष्यायु और देवायुको नहीं भोग सकता है। और दर्शन मोहनीयको भोगनेवाला पुरुष चारित्र मोहनीयको नहीं भोग सकता तथा चारित्र मोहनीय को भोगनेवाला दर्शनमोहनीयको नहीं भोग सकता है। अतः इन प्रकृतियोंका स्वमुख अनुभाग ही होता है। स यथानाम ।। २२॥ वह अनुभागबन्ध कर्मों के नामके अनुसार होता है। अर्थात् ज्ञानाचरणका फल ज्ञानका अभाव, दर्शनावरणका फल दर्शनका अभाव, वेदनीयका फल सुख और दुःख देना, मोहनीयका फल मोहको उत्पन्न करना, आयुका फल भवधारण कराना, नामका फल नाना प्रकारसे शरीर रचना. गोत्रका फल उच और नीयत्वका अनुभव और अन्तरायका फल विनों का अनुभव करना है। ततश्च निर्जरा ॥२३ ।। फल दे चुकने पर कर्मोकी निर्जरा हो जाती है । निर्जरा दो प्रकार से होती है- सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा । अपनी अपनी स्थिति के अनुसार कर्मोको फल देनेके बाद आत्मासे निवृत्त हो जाने को सविपाक निर्जरा कहते हैं। और कोंकी स्थितिको पूर्ण होनेके पहिले ही तप आदिके द्वारा कोको उदयमें लाकर आत्मासे पृथक् कर देना अधिपाक निर्जरा है। जैसे किसी आमके फल उसमें लगे लगे ही पककर नीचे गिर जाँय तो यह सविपाक निर्जरा है। और उन फलोंको पहिले ही तोड़कर पालमें पकानेके समान अविपाक निर्जरा है। सूत्र में आए हुए 'च' शब्दका तात्पर्य है कि 'तपसा निर्जरा च' इस सूत्रके अनुसार निर्जरा तपसे भी होती है। यद्यपि निर्जराका वर्णन संबर के बाद होना चाहिये था लेकिन यहाँ संक्षेपके कारण निर्जराका वर्णन किया गया है। संघर के बादमें वर्णन करने पर 'विपाकोऽनुभवः' यह सूत्र पुनः लिखना पड़ता । प्रदेशबन्धका स्वरूपनामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेश्व नन्तानन्तप्रदेशाः ॥२४॥ योगोंकी विशेषतासे त्रिकाल में आत्माके समस्त प्रदेशों के साथ बन्धको प्राप्त होनेवाले, झानावरणादि प्रकृतियों के कारणभूत, सूक्ष्म और एक क्षेत्रमें रहनेवाले अनन्तानन्त पुद्गल परमाणुओंको प्रदेशबन्ध कहते हैं। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर जी महाराज तस्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार । ८२५-२६ कर्मरूपसे परिणत पुद्गल परमाणु ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि प्रकृतियों के कारण होते हैं अतः 'नामप्रत्ययाः' कहा है । एसे पुद्गल परमाणु संख्यात या असंख्यात नहीं होते है किन्तु अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्त भाग प्रमाण होते हैं अतः 'अनन्तानन्ताः' कहा। ये कमपरमाणु आस्माके समस्त प्रदेशों में व्याप्त रहते हैं। आत्माके एक एक प्रदेशमें अनन्तानन्त पुद्गल स्कन्ध रहते हैं अतः 'सर्वात्मप्रदेशेषु' कहा। ऐसे प्रदेशोंका बन्ध सब कालों में होता है। सब प्राणियोंके अतीत भव अनन्तानन्त होते हैं और भविष्यत् भव किसी के संख्यात, किसीके असंख्यात और किसीके अनन्त भी होते हैं। इन सब भवों में जीव अनन्तानन्त कर्म परमाणुओका बन्ध करता है अतः 'सर्वतः' कहा। यहाँ सर्व शब्दका अर्थ काल है। इस प्रकारके कर्म परमाणुओंका बन्ध योगकी विशेषताके अनुसार होता है अतः 'योगविशेषान्' पद दिया । ये कर्म परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं. आत्माके एक प्रदेशमें अनन्तानन्त कर्म परमाणु स्थिर होकर रहते है अत: 'सूदमैकक्षेत्रावगाहस्थिताः' पद दिया । एक क्षेत्रका अर्थ आत्माका एक प्रदेश है। ये कर्म परमाणु घनाङ्गलके असंख्यात भाग प्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं, एक समय, दो समय, तीन समय आदि संख्यात समय और असंख्यात समयकी स्थिति बाले होते हैं । पाँच वर्ण, पाँच रस ( लवण रसका मधुर रसमें अन्तर्भाव हो जाता है. ), दो गन्ध और आठ स्पर्शयाले होते है। पुण्य प्रकृतियाँसद्वघशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥ २५ ॥ साता वेदनीय, शुभ आयु,शुभ नाम और शुभ गोत्र ये पुण्य प्रकृतियाँ है। तिर्यश्चायु, मनुष्यायु और देवायु ये तीन शुभायु है। मनुष्यति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, पाँच शरीर, तीन अङ्गोपाङ्ग, समचतुरस्रसंस्थान, वनवृषभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्ण, प्रशस्त रस, प्रशस्त गन्ध, प्रशस्त स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्य, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, अगुरुलधु, परघात, उच्छवास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, स, बादर, पर्याप्ति, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, निर्माण और तीर्थकर प्रकृति ये सतीस नाम कर्मकी प्रकृतियाँ शुभ है। पाप प्रकृत्तियाँ अतोऽन्यत् पापम् ॥ २६ ।। पुण्य प्रकृतियोंसे अतिरिक्त प्रकृतियाँ पाप प्रकृतियाँ हैं। पांच लानावरण,भव दर्शनावरण, छब्बीस मोहनीय,पांच अन्तराय,नरकगति,तिर्यश्वगति, एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रिय पर्यन्त चार जाति, प्रथम संस्थानको छोड़कर पांच संस्थान, प्रथम संहननको छोड़कर पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्ण, अप्रशस्त गन्ध, अप्रशस्त रस, अप्रशस्त स्पर्श, तिर्यमातिप्रायोग्यानुपूर्य, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, उपघात, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्ति, साधारण शरीर,अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशःकीर्ति ये चौंतीस नामकर्मकी प्रकृतियाँ, असातावेदनीय, मरकायु और नीच गोत्र ये पापप्रकृतियां हैं। पुण्य और पाप दोनों पदार्थ अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानके द्वारा जाने जाते हैं। अष्टम अध्याय समाप्त Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय संघरका लक्षण आस्रवनिरोधः संवरः ।। १ ।। आम्रवके निरोधको संघर कहते हैं। आत्मामें जिन कारणोंसे कर्म पाते हैं उन कारणोंको दूर कर देनेसे कर्मों का आगमन बन्द हो जाता है, यही संबर है । संवरके दो भेद -भावसंबर और व्यसंवर । अात्माक जिन परिमाणोंके द्वारा कर्माका श्रास्रव रुक जाता है उनको भावसंवर कहते है। और द्रव्य कर्मोका आस्रव नहीं होना द्रव्यसंवर है। मिश्यात्व गुणस्थानमें मिथ्यादर्शनके द्वारा जिन सोलह प्रकृतिर्याका बन्ध होता है सासाद्न आदि गुणस्थानों में उन प्रकृतियोंका संघर होता है। वे सोलह प्रकृतियां निम्न प्रकार हैं। १ मिथ्यात्व २ नपुंसकवेद, ३ नरकायु ४ नरकगति ५-८ एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रिय पर्यन्त चार जाप्ति ५ हुण्डकसंस्थान १० असंग्रामासृगाटिकासंहनन १५ नरकगतिप्रायोग्यानु पूर्व्य १२ आतप १३ स्थावर १४ सूक्ष्म १५ अपर्याप्तक और १६ साधारण शरीर। मार्गदर्शक :- आचनिन्मीनुसनधीसायके जाबहारजिन पच्चीस प्रकृतियोंका आस्रव दूसरे गुण स्थान तक होता है तीसरे श्रादि गुणस्थानों में उन प्रकृतियों का संबर होता है वे पच्चीस प्रकृतियाँ निम्न प्रकार हैं-१ निद्रानिद्रा २ प्रचलाप्रचला ३ स्त्यानगृद्धि ४-७ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ ८ खीवेद ९ तिर्यञ्चायु १० तिर्यञ्चगति ११-१४ प्रथम और अन्तिम संस्थानको छोड़कर चार संस्थान १५-१८ प्रथम और अन्तिम संहननको छोड़कर चार संहनन १९ तियंगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य २० उद्यात २१ अप्रशस्तविहायोगति १२ दुभंग २३ दुास्थर २४ अनोदय आर २५ नीचगोत्र। अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे निम्न दश प्रकृतियोंका आस्रव चौथे गुणस्थान तक होता है और आगेके गुणस्थानों में उन प्रकृतियोंका संघर होता है। १४ अप्रत्याख्यानावरण क्रोध. भान, माया, लोभ ५ मनुष्यायु ६ मनुष्यगति , औदारिक शरीराझोपाय ९ ववृषभनाराचसंहनन और १० मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूष्य । सम्मिथ्यात्व (मिश्र ) गुणस्थान में आयुका बन्ध नहीं होता है । प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयमे पाँच गुणस्थान तक प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभका आम्रव होता है। आगेके गुणस्थानों में इन प्रकृतियों का संबर होता है। प्रमादके निमित्तसे छठवें गुणस्थान तक निम्न छह प्रकृतियोंका आस्रव होता है और आगेके गुणस्थानों में उनका संवर होता है। १ असातावेदनीय २ अरति ३ शोक ४ अस्थिर ५ अशुभ और ६ अयशाकानि । देवायुके आस्रवका प्रारंभ छठवें गुणस्थानमें होता है लेकिन देवायुका आस्रव सातवें गुणस्थानमें भी होता है। आगेके गुणस्थानों में देवायुका संवर है। आठवे गुणस्थानमें तीन संचलन कषायके उदयसे निम्न छत्तीस प्रकृतियोंका आस्रव होता है और आगेके गुणस्थानों में उनका संवर होता है । आठवें गुणस्थानके प्रथम संख्यात भागों में निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंका बन्ध होता है । पुनः संस्थान भागोंमें तीस प्रकृतियोंका बन्ध होता है। देवति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वंनिरिक, आहारक, तंजस, और कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, बैंक्रियिकशरीरापान, आहारकशरीरानो Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० तत्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ It पार, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपृळ, अगुमलघु, उपघात, परपात, उच्छ्यास, प्रशस्तविहायोगति. नस, बादर, पर्याप्तक, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, निर्माण और तीर्थंकर प्रकृति | आठवें गुणस्थानके अन्त समयसे हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार प्रकृतियोंका बन्ध होता है। इन प्रकृतियोंका आगेके भागों में और गुणस्थानों में संबर होता है। दर्शकं:- आचार्य श्री सविधिसापरज सज्वलन कपायउदयसे पाचप्रधांतका प्रथम संख्यात भागों में पुवेद और क्रोध संज्वलनका बन्ध होता है। पुनः संख्यात भागोंमें मान और माया संचलनका बन्ध होता है और अन्त समयमें लोभ संज्वलनका बन्ध होता है। इन प्रकृतियोंका अागेके भागों और गुणस्थानों में संबर होता है। दश में गुणस्थानमें मन्द संचलन कषायके उदयसे निम्न सोलह प्रकृतियोंका बन्ध होता है और आगेके गुणस्थानों में उनका संघर होता है। पांच ज्ञानाधरण, चार दर्शनावरण, पांच अन्तराय, यश कीर्ति और उच्चगोत्र ये सोलह प्रकृतियां हैं। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानमें योग के निमित्त से एक ही सातावेदनीयका बन्ध होता है और चौदहवें गुणस्थानमें उसका संपर होता है। गुणस्थानों का स्वरूप-- १ मिथ्यात्व-तत्त्वार्थका यथार्थ श्रद्धान न होकर विपरीत श्रद्धान होनेको मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान कहते हैं। दर्शनमोइनीयके तीन भेद हैं-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्न | इन तीनों के तथा अनन्तानुबन्धी चार कपार्योंके उदय न होनेपर औपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । औपशमिक सम्यक्त्वका काल अन्तर्मुहूर्त है। सासादन उपशम सम्यक्त्व के कालमें उत्कृष्ट छह आवली और जघन्य एक समय शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभमें से किसी एकके उदय हानेपर तथा और दूसरे मिथ्यादर्शनके कारणोंका उदयाभाव होनेपर सासादन गुणस्थान होता है। यद्यपि सासादनसम्यग्दृष्टि जीवक मिथ्यादर्शनका उदय नहीं होता है लेकिन अनन्तानुबन्धी कषायक उदयसे उसके मति आदि तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान ही हैं। क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय मिथ्यादशनको ही उत्पन्न करती हैं। जीव सासादन गुणस्थानको छोड़कर मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही आता है। ३ मिश्रगुणस्थान--इस गुणस्थानमें सम्यग्मिध्यान कर्म के उदय होनेसे उभयरूप ( सम्यक्त्व और मिथ्यात्व) परिणाम होते हैं जिनके कारण तत्त्वार्थों में जीव श्रद्धाम और अश्रद्धान दोनों करता है । सम्यग्मियाष्टिक तीन अज्ञान सत्यासत्यरूप होते हैं। ४ अविरत सम्यग्दृष्टि- इस गुणस्थानमें चारित्र मोहनीयके उदयसे सम्यष्टि जीव संयमका पालन करने में नितान्त असमर्थ होता है। अतः चौथे गुणस्थानका नाम अविरति सम्यग्दृष्टि है। ५ देशविरत-इस गुणस्थानमें जीव श्रावकके व्रतोंका पालन करता है लेकिन प्रत्याख्यानावरण कपायके उदयसे मुनिके ब्रोका पालन नहीं कर सकता अतः इस गुणस्थानमें अप्रमत्त जीव भी अन्तर्मुहूर्त के लिये प्रमत्त ( प्रमादी) हो जाता है अतः छठवें गुणस्थानका नाम प्रमत्तसंयत है । प्रमत्तसंयत—इस गुणस्थानमें अप्रमत्त जीवभी अन्तर्मुहूर्त के लिए प्रमत्त (प्रमादी) हो जाता है अतः छठ गुणस्थानका नाम प्रमत्तसंयत है। ७ अप्रमत्तसंयत -इस गुणस्थानमें निद्रा आदि प्रमादका अभाव होनेसे सातर्षे गुणस्थानका नाम अप्रमत्त संयत है । Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९।१] नवम अध्याय ८.६, १.--अपूर्णकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय इन तीन गुणस्थानोंमें दो दो श्रेणियाँ होती है एक उपशम श्रेणी और दूसरी सपकश्रेणी । जिस श्रेणीमें आत्मा मोहनीय कर्मका उपशम करता है वह उपशम श्रेणी है श्रीर जिसमें मोहनीय कर्मका क्षय करता है वह क्षपक श्रेणी है। उपशम श्रेणी चढ़नेवाला पुरुष आठवें गुणस्थानसे नवमें, दशमें और ग्यारहवें गुणस्थानमें जाकर पुनः वहाँसे च्युत होकर नीचेके गुणस्थानमें आ जाता है। क्षपक श्रेणी चढ़नेवाला पुरुष आठवें गुणस्थानसे नवमें शम गुणादक जाताओचार शिविहासामहामाशाखको छोड़कर बारहवें गुणस्थानमें जाता है। यहाँ से यह पतित नहीं होता है। ८ अपूर्षकरण-इस गुणस्थानमें उपशमक और क्षपक जीव नूतन परिमाणोंको प्राप्त करते हैं अतः इसका नाम अपूर्वकरण है। इस गुणस्थान में कर्मका उपशम या भय नहीं होता है किन्तु यह गुणस्थान सातवें और नवमें गुणस्थानके मध्य में है और उन गुणस्थानों में कर्मका उपशम और क्षय होता है अतः इस गुणस्थानमें भी उपचारसे उपशम और क्षय कहा जाता है। जैसे उपचारसे मिट्टीके घटको भोघीका घट कहते है। इस गुणस्थानमें एक ही समय में नाना जीवों की अपेक्षा विषम परिणाम होते हैं। और द्वितीय आदि क्षणों में अपूर्व अपूर्व ही परिणाम होते हैं अतः इस गुण स्थानका अपूर्वकरण नाम सार्थक है। ९ अनिवृत्तिबादरसाम्भराय-इस गुणस्थानमें कषायका स्थूलरूपसे उपशम और क्षय होता है तथा एक समयवर्ती उपशमक और क्षपक नाना जीवोंके परिणाम सदश ही होते हैं अतः इस गुणस्थानका नाम अनिवृत्ति बादरसाम्पराय है। १. सूक्ष्मसाम्पराय-साम्पराय कषायको कहते हैं। इस गुणस्थानमें कपायका सूक्ष्म रूपसे उपशम या क्षय हो जाता है अतः इसका नाम सूक्ष्मसाम्पराय है । ११ उपशान्तमोह-इस गुणस्थानमें मोहका उपशम हो जाता है अत: इसका नाम उपशान्त मोह है। १२ क्षीणमोह-इस गुणस्थानमें मोहका पूर्ण क्षय हो जाता है अतः इसका नाम क्षीणमोह है। १३ सयोगकेवली-इस गुणस्थानमें जीव केवलज्ञान और केवलदर्शनको प्राप्त कर लेता है अतः इसका नाम सयोगकेवली है। १४ अयोगकेवलो अ, ४, उ, ऋ, ल इन पांच लघु अक्षरों के उच्चारण करनेमें जितना काल लगता है उतना ही काल अयोगकेवली नामक चौदहवें गुणस्थानका है। __ अपूर्वकरण गुणस्थानसे क्षीणकषाय गुणस्थानपर्यन्त गुणस्थानोंमें जीवोंके परिणाम उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हैं। मिथ्यात्व गुणस्थानका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है। अभव्य जीवकी अपेक्षा मिध्यात्य गुणस्थानका उत्कृष्ट काल अनादि और अनन्त है। तथा भव्य जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल अनादि और सान्त है। सासादन गुणस्थानका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवली है । मिश्र गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानका जघन्यकाल अन्समुहूर्त और उत्कृष्ट काल छयासठ सागर है। देशसंयत गुणस्थानका जघन्य काल एक मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम एकपूर्व कोटि है । प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे भीण कषाय पर्यन्त गुणस्थानों का उत्कृष्ट काल अन्समुहूर्त है। सयोगफेवली गुणस्थानका उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्व काटि है। Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार संवर के कारण सगुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रः ॥ २ ॥ गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र इसके द्वारा संवर होता है । संसार के कारणस्वरूप मन, वचन और कायके व्यापारोंसे आत्माकी रक्षा करनेको अर्थात् मन, वचन और कायके निग्रह करनेको गुप्ति कहते हैं। जीवहिंसारहित यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेको समिति कहते हैं। जाति संसारपाखसि छुट्टतिम स्थानवराज पहुंचा दे वह धर्म है। शरीर आदि के स्वरूपका विचार अनुप्रेक्षा है। क्षुधा, तृषा आदिकी वेदना उत्पन्न होनेपर कर्मोकी निर्जराके लिये उसे शान्तिपूर्वक सहन कर लेना परोषहजय है । कर्मों के आस्रव कारणभूत बाह्य और आभ्यन्तर क्रियाओंके त्याग करनेको चारित्र कहते हैं । ४८२ [ ९५४२-४ सूत्रमें आया हुआ 'स' शब्द यह बतलाता है किं गुप्ति आदिके द्वारा ही संबर होता है । और जल में डूबना, शिरमुण्डन, शिखाधारण, मस्तकछेदन, कुंदन आदिकी पूजा आदिके द्वारा संबर नहीं हो सकता है, क्योंकि जो कर्म राग, द्वेष आदि उपार्जित होते हैं उनकी निवृति विपरीत कारणों से हो सकती है । संबर और निर्जराका कारणतपसा निर्जरा च ॥ ३ ॥ तपके द्वारा निर्जरा और संबर दोनों होते हैं । 'ब' शब्द संवरको सूचित करता है । यद्यपि दश प्रकारके धर्मो में तपका ग्रहण किया है और उसीसे तप संबर और निर्जराकारण सिद्ध हो जाता, लेकिन यहाँ पृथक रूप से तपका ग्रहण इस बात को बतलाता है कि तप नवीन कर्मों के संघरपूर्वक कर्मक्षयका कारण होता है तथा तप संबरका प्रधान कारण है। प्रश्न ----आगम में तपको अभ्युदय देनेवाला बतलाता है। वह संबर और निर्जराका साधक कैसे हो सकता है ? कहा भी है- "दानसे भोग प्राप्त होता है, तपसे परम इन्द्र तथा ज्ञानसे जन्म जरा मरणसे रहित मोक्षपद प्राप्त होता है । उत्तर--एक हो त इन्द्रादि पदको भी देता है और संबर और निर्जराका कारण भी होता है इसमें कोई विरोध नहीं हैं। एक पदार्थ भी अनेक कार्य करता है जैसे एक ही छत्र छायाको करता है तथा धूप और पानीसे बचाता है । इसी प्रकार तप भी अभ्युदय और कर्म क्षयका कारण होता है। गुप्तिका स्वरूपसम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥ ४ ॥ विषयाभिलापाको छोड़कर और ख्याति, पूजा, लाभ आदिकी आकांक्षा से रहित होकर मन, वचन और कार्यके व्यापारके निग्रह या निरोधका गुप्ति कहते हैं। योगोंक निग्रह होनेपर संक्लेश परिणाम नहीं होते हैं और ऐसा होनेसे कर्मोंका श्रास्त्र भी नहीं होता है । अतः गुप्ति संवरका कारण होती है। गुमिके तीन भेद हैं- कायगुमि, वाग्गुति और मनोगुप्ति । Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयम अध्याय समितिका वर्णन - ईर्याभाषैणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ||५|| ममिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेपसमिति और उत्सर्गसमिति ये पाँच समितियाँ हैं । इनमें प्रत्येकके पहिले सम्यक शब्द जोड़ना चाहिये जैसे सम्यगीयमार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज समिति आदि । ईर्यासमिति - जिसने जीवोंके स्थानको अच्छी तरह जान लिया है और जिसका चित्त एकाग्र है ऐसे मुनिके तीर्थयात्रा, धर्मकार्य श्रादिके लिये श्रागे चार हाथ पृथिवी देखकर चलने को ईर्यासमिति कहते हैं । ९।५-६ ४८३ एकेन्द्रिय बादर और सूक्ष्म, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी और प्रसंज्ञी पञ्चेन्द्रिय इन सातों के पर्यातक और अपर्याप्तकके भेदसे चौदह जीवस्थान होते हैं। भाषा समिति हित, मिस्र और प्रिय वचन बालना अर्थात् असंदिग्ध, सत्य, कानोंको प्रिय लगनेवाले, कषायक अनुत्पादक सभास्थानके यांग्य, मृदु, धर्म के अविरोधी, देशकाल आदिके योग्य और हास्य आदिसे रहित वचनोंको बोलना भाषासमिति है । एषणासमिति निर्दोष आहार करना अर्थात् विना याचना किये शरीरक दिखाने मात्र से प्राप्त, उद्रम, उत्पादन आदि आहारके दोषों से रहित, घमड़ा आदि अस्पृश्य वस्तुकं संसर्गमे रहित दूसरे के लिये बनाये गये भाजनका योग्य कालमें ग्रहण करना एषणासमिति है । श्रादाननिक्षेप समिति - धर्मक उपकरणोंको मारकी पीछीसे, पीछीके अभाव में कोमल वस्त्र आदि अच्छी तरह झाडू पोंछ कर उठान और रखना आदान निक्षेपसमिति है। मुनि गायकी पूँछ मेचके रोम दिसे नहीं झाड़ सकता है । उत्सर्ग समिति--जीव रहित स्थानमें मल मूत्रका त्याग करना उत्सर्गममिति है । इन पाँच समितियों से प्राणिपीड़ाका परिहार होता है अतः समिति संवरका कारण है । धर्मका वर्णन - उत्तम क्षमा मार्दवार्जव सत्यशौचसंयमतपस्त्यागा किंश्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ॥ ६ ॥ क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म हैं । इनमें प्रत्येकके पहिले उत्तम शब्द लगाना चाहिये जैसे- उत्तम क्षमा आदि । उत्तमक्षमा शरीरकी स्थिति के कारणभूत आहारको लेनेके लिये दूसरोंके घर जाने बाले मुनिको दुष्ट जनोंके द्वारा असा गाली दिये जाने या काय विनाश आदि उपस्थित होनेपर भी मनमें किसी प्रकारका कांध नहीं करना उत्तम क्षमा है । उत्तम मार्दवविज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और वपु इन आठ पदार्थों के anusको छोड़कर दूसरों के द्वारा तिरस्कार होनेपर अभिमान नहीं करना उत्तम मार्दव है। मन, वचन और कायसे माया ( छल-कपट ) का त्याग कर देना उत्तम आर्जव है । लोभ या गुद्धताका त्याग कर देना उत्तम शौच है। मनोगुप्ति और शौचमें यह भेद है कि मनोगुप्ति में सम्पूर्ण मानसिक व्यापारका निरोध किया जाता है किन्तु जो ऐसा करने में असमर्थ है उसको दूसरों के पदार्थों में लोभके त्यागके लिये शौध बतलाया गया है। भगवती आराधना में शौचका 'लाघव' नाम भी मिलता है । दिगम्बर मुनियों और उनके उपासकोंके लिये सत्य वचन कहना उत्तम सत्य है । Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार [ ९/७ भाषा समिति और सत्यमें भेद-भाषा समिति वाला मुनि साधु और असाधु दोनों प्रकार के पुरुषों में हित और परिमित योग करे असाधु पुरुषों में श्री महाराज अहित और अमित भाषण करेगा तो राग के कारण उसको भाषासमिति नहीं बनेगी । लेकिन सत्य बोलनेवाला साधुओं में और उनके भक्तों में सत्य वचनका प्रयोग करेगा और ज्ञान, चारित्र आदिकी शिक्षा हेतु अमित (अधिक) वचनका भी प्रयोग करेगा अर्थात् भाषा समितिमें प्रवृत्ति करने वाला असाधु पुरुषों में भी वचनका प्रयोग करेगा लेकिन उसके बचन मित ही होंगे और सत्य बोलने वाला पुरुष साधु पुरुषों में ही वचनका प्रयोग करेगा लेकिन उसके वचन अमित भी हो सकते हैं। छह कायके जी की हिंसाका त्याग करना और छह इन्द्रियोंके विषयोंको छोड़ देना उत्तम संयम है । संयमके दो भेद है एक अपहृतसंज्ञक और दूसरा उपेक्षा संज्ञक । अपहृत संक्षक संयम के तीन भेद हैं— उत्तम मध्यम और जघन्य । जो मुनि प्राणियोंके समागम पर उस स्थान से दूर हट कर जीवोंकी रक्षा करता है उसके उत्कृष्ट संयम है। जो कोमल मारकी पीढ़ी से जीवों को दूर कर अपना काम करता है उसके मध्यम संयम है। और जो दूसरे साधनों से जीवोंका दूर करता है उसके जघन्य सेयम होता है। रागद्व ेष के त्यागका नाम उपेक्षा संज्ञक संयम है । उपार्जित कम के क्षय के लिये बारह प्रकारके तपोंका करना उत्तम तप है । ४८४ ज्ञान, श्राहार आदि चार प्रकार का दान देना उत्तम त्याग है । पर पदार्थों में यहाँ तक कि अपने शरीर में भी ममेदं या मोहका त्याग कर देना उत्तम आकिञ्चन्य है | इसके चार भेद हैं । १ अपने ओर परके जीवन के लोभका त्याग करना | २ अपने और परके आरोग्यके लोभका त्याग करना । ३ अपने और परके इन्द्रियोंके लोभ का त्याग करना । ४ अपने और परके उपभोग के लाभका त्याग करना । मन, वचन और कायसे स्त्री सेवनका त्याग कर देना ब्रह्मचर्य हैं। स्वेच्छाचार पूर्वक प्रवृत्ति को रोकने के लिये गुरुकुलमें निवास करनेकों भी ब्रह्मचर्य कहते हैं । विषय प्रवृत्तिको रोकने के लिये गुप्ति बतलाई है। जो गुमिमें असमर्थ है उसका प्रवृत्ति के उपाय बताने के लिये समिति बतलाई गई है। और समिति में प्रवृत्ति करने वाले मुनिको प्रमादके परिहारके लिये दश प्रकारका धर्म बतलाया गया है । अनुप्रेक्षाका वर्णन --- अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वा शुच्या सदसंबर निर्जरालोकबोधिदुर्लमधर्मस्वाख्यातत्वा चिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥ ७ ॥ नित्य, अशरण, संसार, एकस्य, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बलभ और धर्म इनके स्वरूपका चिन्तन करता सो बारह अनुप्रेक्षायें हैं । अनित्यभावना - शरीर और इन्द्रियोंके विषय आदि सब पदार्थ इन्द्रधनुष और दुष्टजनकी मित्रता यादिकी भांति अनित्य हैं। लेकिन जीव अज्ञानता के कारण उनको नित्य समझ रहा है। संसार में जीवके निजी स्वरूप ज्ञान और दर्शनको छोड़कर और कोई वस्तु नित्य नहीं है इस प्रकार विचार करना अनित्यानुप्रेक्षा है। ऐसा विचार करने से जीव शरीर, पुत्र, कलन आदि में राग नहीं करता है, और वियोगका अवसर उपस्थित होनेपर भी दुःख नहीं करता है। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ४८५ ९७ ] नवम अध्याय शरणभाव -- जिस प्रकार निर्जन वनमें मांसभक्षी और भूखे सिंहके द्वारा मृगक को पकड़े जानेपर उसका कोई सहायक नहीं होता है उसी प्रकार जन्म, जरा, मरण, रोगादि दुख बीचमें पड़े हुए जीवका भी कोई शरण नहीं है। संचित धन दूसरे भवमें नहीं जाता है। बान्धव भी मरण कालमें जीवकी रक्षा नहीं कर सकते । इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवती आदि भी उस समय शरण नहीं होते हैं। केवल एक जैनधर्म ही शरण होता है। इस प्रकार विचार करने से संसार के पदार्थों में ममत्व नहीं होता है और रत्नत्रय मार्गचि होती है। ३ संसारभावना - इस संसार में भ्रमण करनेवाला जीव जिस जीवका पिता होता है बड़ी जी कभी उसका भाई, पुत्र और पौत्र भी होता है और जो माता होती है, बड़ो बहिन, भार्या पुत्री और पौत्री भी होती है। स्वामी दास होता है और दास स्वामी होता है। अधिक क्या जीव स्वयं अपना भी पुत्र होता है। इस प्रकार जीव नटकी तरह नाना देषको धारण करता है। ऐसा संसार के स्वरूपका विचार करना संसारानुप्रेक्षा है । विचार करनेसे जीवको संसारके दुःखोंसे भय होता है और वैराग्य भी होता है । ४ एकत्वभावना - आत्मा अकेला जन्म लेना है और अकेला ही मरण करता है तथा अकेला ही दुःखको भोगता है। जीवका वास्तवमें न कोई बन्धु है और न कोई शत्रु । व्याधि, जरा, मरण आदिके दुखों को स्वजन या परजन काई भी सहन नहीं करते हैं । बन्धु और मित्र र शान तक ही साथ जाते हैं। अविनाशी जिनधर्म ही जीवका सदा सहायक है । इस प्रकार विचार करना एकत्वानुप्रेक्षा है। ऐसा विचार करनेसे जीवकी स्वजनों और परजनोंमें प्रीति और अप्रीति नहीं होती है और जीव उनसे विरक्त हो जाता है । अन्य भावना - जीवको शरीर आदिसे पृथक् चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है । यद्यपि बन्धकी अपेक्षा जीव और शरीर एक ही है लेकिन लक्षण के भेदसे इनमें भेद पाया जाता है। काय इन्द्रियमय है और जीव इन्द्रिय रहित हूं। काय अझ है और जीव ज्ञानवान् है । काय अनित्य है और आत्मा नित्य हैं। जब कि जीव शरीर से भिन्न है तो कलत्र, पुत्र, गृह आदिसे भिन्न क्यों नहीं होगा ? अर्थात् इनसे भी भिन्न है ही। इस प्रकार आत्माको शरीर आदि से भिन्न चिन्तवन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने से शरीर आदि में वैराग्य उत्पन्न होता है । ६ अशुचिभावना -- यह शरीर अत्यन्त अपवित्र है । कविर, मांस, मब्जा आदि अशुचि पदार्थोंका घर है; इस शरीरकी अशुचिता जलमें नहाने से और चंदन, कर्पूर, कुकुम ' आदिके लेप करने से भी दूर नहीं की जा सकती है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही जtant विशुद्धिका करते हैं इस प्रकार विचार करना अशुच्यनुप्रेक्षा है। ऐसा विचार करनेसे शरीर में वैराग्य उत्पन्न होता है + ७ आस्त्र भावना-कर्मो का आस्रव सदा दुःखका देने वाला है । इंद्रिय, कषाय, aa और क्रियाएँ नदीके प्रवाह के समान तीत्र होती हैं। स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और ये इंद्रियाँ गज, मत्स्य, भ्रमर, शलभ और मृग आदिका संसारसमुद्र में गिरा देती हैं। क्राध, मान, माया और लोभ, वय, बन्धन आदि दुःखोंकी देते हैं। इस प्रकार अनव के स्वरूपका विचार करना सो आस्तवानुप्रेक्षा है। ऐसा विचार करनेसे उत्तम क्षमा आदिके पालन करने में मन लगता है। Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तार्थवृत्ति हिन्दी-सार [9,115 ८ र भावना - कर्मका संवर हो जानेसे जीवको दुःख नहीं होता है। जैसे नाव छेद हो जाने पर उसमें जल भरने लगता है और नाव डूब जाती है। लेकिन छेत्रको बन्द कर देने पर नाव अपने स्थान पर पहुँच जाती है। उसी प्रकार कमका श्यागमन रोक देने पर कल्याण मार्गमं कोई बाधा नहीं आ सकती है इस प्रकार विचार करना नवरानुप्रेक्षा है । १८६ ९. निर्जरा भावना-निर्जरा दो प्रकार से होती है एक बुद्धिपूर्वक और दूसरी कुशलमूलक | नरकादि गतियों में फळ हे चुकने पर कर्मोकी जा निर्जरा होती हैं वह अबुद्धिपूर्वक या अकुशलमूलक निर्जर है। जोत या परीपहजयके द्वारा कमकी निर्जरा होती है वह अबुद्धिपूर्वक या कुशलमूलक निर्जरा है। इस प्रकार निजशक गुण और दापका विचार करना निजरानुप्रेक्षा है। ऐसा विचार करनेसे जीवको कर्मकी निर्जराके लिये प्रवृत्ति होती है। १० लोकभावना- अनन्त लोकाकाश के ठीक मध्य में चौदह राजू प्रमाण लोक है। इस लोकके स्वभाव, आकार आदिका चिंतंत्रन करना लाकानुप्रेक्षा है। लोकका विचार करने तक्षा में विशुद्धि होती है । १४ बोधिदुर्लभ भावना एकदिन के सीओ सुधाचे समर महाराज समस्त लोक स्वायर आमित्रों ठसाठस भरा हुआ है। इस लोकनेत्रस पर्याय पाना अस प्रकार दुर्लभ है जिन अफर समुद्र में गिरी हुई वका कणिकाकी पाना। बस भी पच न्द्रिय होना उसी प्रकार टुलभ है जिस प्रकार गुणों में कृतज्ञनाका होना । न्द्रियों में भी मनुष्य पर्यावको पाना उसीप्रकार दर्लभ है जिसप्रकार भार्गम रत्नांका दूर पाना। एक वार मनुष्य पर्याय समान हो जाने पर पुनः मनुष्य को पाना अत्यन्त दुर्लभ है जिस प्रकार वृक्ष के जल जाने पर उस का वृक्ष हो जाना अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्य जन्म मिल जाने पर भी सुदृशका पाना दुर्लभ है। इसी प्रकार उत्तम कुल इन्द्रियोंकी पूर्णता, सम्पि आरोग्यता ये सब बातें उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इन सवर्क मिल जाने पर भी बाद जन धमकी प्राप्ति नहीं हुई तो मनुष्य जन्मका पाना उसी प्रकार निरर्थक है जैसे विना नेत्रोंके मुका होना। जो जैन धर्मको प्राप्त करके भी विषय सुखों में लीन रहता है ब्रह्म पुरुष राख के लिए चन्दन वृक्षको जलाता है। विपय-सुखसे विरक्त हो जाने पर भी समाधिका होना अत्यन्त दुर्लभ है। साहाने पर ही विषय सुखमे विरक्त स्वरूप बाधियम सफेद होता है. इस प्रकार अधि (ज्ञान) की दुलेमता का विचार करना यधि मुलभानुमेया है। ऐसा विचार करने से जीवको प्रभाव नहीं माना। ㄓ 1 १२. धर्मभावना - धर्म वह है जो सर्वज्ञ करने वाला हो, सत्ययुक्त हो. विनयसम्पन्न हो. हो जिसके सेवन से विषयोंसे व्यावृत्ति हो और पाने के कारण जीव अनादिकाल तक संसारमें भ्रमण करते हैं और धर्मकी प्राप्ति हो जाने परी आदि का भोगकर समाप्त करते हैं। इस प्रकार धर्मके स्वरूपका विचार करना धर्मानुपेक्षा है ! इस प्रकार विचार करनेले जीवका धर्म में गाढ़ नेह होता है। इस प्रकार बारह भावनाओं के होने पर जीव उत्तम क्षमा यदि धर्मका धारण करता है और परोपों का सहन करता है अतः धर्म और परोपहीक बीचमं अनुप्रेक्षाओंका घन किया है। वीतराग द्वारा प्रणीत हो, सर्व जीवों पर दया उत्तम क्षमा, ब्रह्मचर्य, उपशम आदि साहित निरिहता हो। इस प्रकार के धर्मको न Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416-3] नवम अध्याय परीषद्दका वन मार्गाच्यवन निर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः ॥ ८ ॥ मार्ग अर्थात संवरसे च्युत न होनेके लिये और कर्मोकी निर्जरा के लिये बाईस परी हों को सहन करना चाहिये । मार्गका अर्थ सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र भी होता है। परीषहों के सर्भादर्शराने से काकार्यसंत्री सुविधिसागर री महक संबर. निर्जरा और मोक्षका साधन है। क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशक नाग्न्यारतिखी चयनिषद्या शय्याक्रोशवधयाचनाऽलाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाञ्ज्ञानादर्शनानि ।। ९ ।। ४८० क्षुधा तृपा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार - पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ये बाईस परोप है । १ क्षुधा परी पह-- जो मुनि निर्दोष आहारको ग्रहण करता है और निर्दोष आहार के न मिलने पर या अल्प आहार मिलनेपर अकाल और अयोग्य देशमें आहारको ग्रहण नहीं करता है, जो छह आवश्यकों को हानिको नहीं चाहता, अनेक बार अनशन, अवसौदर्य आदि करने से तथा नीरस भोजन करनेसे जिसका शरीर सूख गया है तुधाकी वेदना होने पर भी जो वाकी चिन्ता नहीं करता है और भिक्षाके लाभकी अपेक्षा अलाभमं लाभ मानता है. उस मुनिके क्षुधापरीपहजय होता है । २ नृपापरीपह - जो मुनि नदी, बापो, तड़ाग आदिके जलमें नहाने आदिका त्यागी होता है और जिसका स्थान नियत नहीं होता है, जो अत्यन्त क्षार (खारा) आदि भोजन द्वारा और गर्मी तथा उपवास आदिके द्वारा सात्र व्यासके लगने पर उसका प्रतिकार नहीं करना और कृपाको संतोषरूपी जलसे शान्त करता है उसके नृपापरीषहजय होता है । - के ३ शीतपरीग्रह - जिस मुनिने बस्त्रोंका त्याग कर दिया है, जिसका कोई नियत स्थान नहीं है. जो वृक्षांक नीचे पर्वतों पर और चतुष्पथ आदि में सदा निवास करता है, जो वायु और हिमकी ठंडकको शान्तिपूर्वकं सहन करता है, शीतका प्रतिकार करनेवाली अग्नि आदिका स्मरण भी नहीं करता है, इस गुनिके शीत परीषहजय होता हूँ । * उष्णपरी - जो मुनि वायु और जल रहित प्रदेशमें, पत्तों से रहित सूरं वृक्ष के नीचे या पर्वतों पर ग्रीष्म ऋतु ध्यान करता है, दावान के समान गर्म बायुसे जिसका कण्ठ सूख गया है और पित्तके द्वारा जिसके अन्तरङ्गमें भी दाइ उत्पन्न हो रहा है फिर भी उता प्रतिकार करनेका विचार न करके उष्णताकी वेदनाको शान्तिपूर्वक सहन करता है. उसके उष्णजय होता है । १९. दंशमशकपरीपत्– जो डांस, मच्छर, चींटी, मक्खी, बिच्छू आदिके काटने से उत्पन्न हुई वेदनाको शान्तिपूर्वक सहन करता है उसके दंशमशकपरीषहजय होता है । यहाँ शब्द महण ही काम चल जाता फिर भी जो मशक शरदका ग्रहण किया गया है वह उपलक्षण के लिये है । जहाँ किसी एक पदार्थ के कहने से तत्सदृश अन्य पदार्थों का भी मह वहाँ उपलक्षण होता है। जैसे किसीने कहा कि "काकेभ्यो वृतं रक्षणीयम्" फांसे घृतकी रक्षा करनी चाहिये तो इसका यह अर्थ नहीं है कि बिल्ली आदिसे घृतकी रक्षा नहीं करनी चाहिये । Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार [ ९९ जैसे यहाँ काक शब्द उपलक्षण होनेसे चिल्ली आदिका भी बोध कराता है इसी प्रकार मशक शब्द भी उपलक्षण होनेसे बिच्छू, चींटी आदि प्राणियोंका बोधक है । ६ नाग्भ्यपरीग्रह – नग्नता एक विशिष्ट गुण है जिसको कामासक्त पुरुष कारण नहीं कर सकते हैं । नग्नता मोक्षका कारण है और सब प्रकार के दोष रहित है। परमस्वातन्त्र्य का कारण है। पराधीनता लेशमात्र नहीं रहती। जो मुनि इस प्रकारकी नग्नताको धारण करते हुए मनमें किसी प्रकार के विकारको उत्पन्न नहीं होने देता उसके नान्यपरीषड्जय होता है। ७ अतिपरी - जो मुनि इन्द्रियोंके विषयोंसे विरत रहता है, सङ्गीत आदि रहित शून्य गृह आदिमें निवास करता है, स्वाध्याय आदिमें हो रति करता है उनके अरतिपरीपहजय होता है । ८ स्त्रीपरीषह - जो मुनि त्रियोंके भ्रूविलास, नेत्रविकार, शृङ्गार आदिको देखकर मनमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न नहीं होने देता, कछयेक समान इन्द्रिय और मनका संयमन करना है उसके स्त्रीपरीषद जय होता है। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ९ चर्यापरीषद् - गुरुजनकी आज्ञासे और देशकाल के अनुसार गमन करने में कंकण, कांटे आदिके द्वारा उत्पन्न हुई बाधाको जो मुनि शान्तिपूर्वक सहन करता है और पूर्व अवस्थामें भोगे हुए वाहन आदिका स्मरण नहीं करता है उसके चर्यापरीवह जय होता है । १० निषधापरीषद्द जो मुनि श्मशान, वन, पर्वतों की गुफा यादिमें निवास करता है और नियतकालपर्यन्त ध्यानके लिये निपय ( आसन को स्वीकार करता है, लेकिन देव, तिर्यय, मनुष्य और अचेतन पदार्थों के उपसर्गों के कारण जो वीरासन श्रादिसे च्युत नहीं होता है और न मन्त्र आदिके द्वारा किसी प्रकारका प्रतीकार ही करता है उसके निषद्यापरीपहजय होता है। 1 ११ शय्यापरीष - जो मुनि ऊँची-नीची, कठोर कंकड़ बालू आदिसे युक्त भूमि पर एक करवट से लकड़ी पत्थर की तरह निश्चल सोता है, भूत प्रेत आदि के द्वारा अनेक उपसर्ग किये जाने पर भी शरीरको चलायमान नहीं करता कभी ऐसा विचार नहीं करता किं 'इस स्थान में सिंह आदि दुष्ट प्राणी रहते हैं अतः इस स्थानसे शीघ्र चले जाना चाहिये, रात्रिका अन्त कथं होगा इत्यादि उस मुनि के शय्यापरीषड्जय होता है । १२ आक्रोशपरी पह-- जो मुनिं दुष्ट और श्रद्धानी जनके द्वारा कहे गये कठोर और असत्य वचनोंको सुनकर हृदय में किचिन्मात्र भी कषायको नहीं करता है और प्रतिकार करने की सामर्थ्य होनेपर भी प्रतिकार करनेका विचार भी नहीं करता है उस मुनिके आक्रोशपरीषजय होता है। १३ वधपरीप- जो मुनि नानाप्रकार के तलवार आदि तीक्ष्ण शस्त्रोंके द्वारा शरीरपर प्रहार किये जाने पर भी प्रहार करनेवालों से ट्रेप नहीं करता है किन्तु यह विचार करता है कि यह मेरे पूर्व कर्मका ही फल है और शस्त्रोंके द्वारा दुःखोंके कारण शरीरका ही विचात हो सकता है आत्माका विधात त्रिकालमें भी संभव नहीं है, उस मुनि वधपरीषदजय होता हूँ ! १४ याचनापरीषद् — तपके द्वारा शरीरके सूख जानेपर अस्थिपञ्जरमात्र शरीर शेष रहने पर भी जो मुनिं दीनवचन मुखवैवर्ण्य आदि आदि संज्ञाओंके द्वारा भोजन आदि पदार्थोंकी याचना नहीं करता है उसके याचनापरीषहजय होता है । Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९)१] नवम अध्याय ४८९ १५ अलाभपरीषह - अनेक दिनोंतक आहार न मिलनेपर जो मुनि मनमें किसी प्रकारका खेद नहीं करता है और भिक्षा के छाभसे अलाभको ही तपका हेतु मानता है उस मुनिके अलाभ परीषद्जय होती है । १६ रोगपरीषह – जो मुनि शरीरको अपवित्र, अनित्य और परित्राण रहित समझ कर धर्मकी वृद्धि के लिये भोजनको स्वीकार करना है, लेकिन अपथ्य आदि आहारके लेनेसे शरीर में हजारों रोग उत्पन्न होजाने पर भी व्याकुल नहीं होता है और सर्वोपधि आदि ऋद्धियों के होनेपर भी रोगका प्रतिकार नहीं करता है उस मुनिके रोगपरीवजय होती है । १७ तृण स्पर्श परी वह — जो मुनि चलते समय पैर में तृण, कांटे आदिके चुभ जाने मे उत्पन्न हुई बेदनाको शान्तिपूर्वक सहन कर लेता है उस मुनिके तृणस्पर्शपरी पहजय होती है । १८ मलपरीषह - जिस मुनिने जलकायिक जीवों की रक्षा के लिये मरग्रर्यन्त स्नानका त्याग कर दिया और शरीर में पसीना आनेसे धूलिके जम जानेपर तथा खुजली आदि रोगोंक अपन्न हो जानेपर भी शरीरको जो खुजलाता नहीं इ तथा जो ऐसा विचार नहीं करता है कि मेरा शरीर मलसहित है, और इस भिक्षुका शरीर कितना निर्मल है उस मुनिके मलपरीजय होती है। १९ सत्कारपुरस्कार परीषद्द - प्रशंसा करनेको सरकार और किसी कार्य में किसीको प्रधान बना देने को तर कहते अचार्य श्री मधुसकीहुरस्कार न किये जानेपर जो मुनि ऐसा विचार नहीं करता है कि में चिरतपस्वी हूँ मैंने अनेक चार बादियों को शास्त्रार्थ में हराया है फिर भी मेरी कोई भक्ति नहीं करता है, आसन आदि नहीं देता है. प्रणाम नहीं करता है। मुझसे अच्छे तो मिध्यातपस्वी हैं जिनको मिध्यादृष्टि लोग सर्व मानकर पूजते हैं। जो ऐसा कहा जाता है कि अधिक तपस्या वालोंकी व्यन्तर आदि पूजा करते हैं वह सब झूठ है। ऐसा विचार न करनेवाले मुनिके सत्कार पुरस्कारपरी पहजय होती है। २० प्रज्ञापरीषह - जो मुनि तर्क, व्याकरण, साहित्य, छन्द, अलङ्कार, अध्यात्मशास्त्र आदि विद्याओंमें निपुण होनेपर भी ज्ञानका मद नहीं करता है तथा जो इस बातका घमण्ड नहीं करता है कि वादी मेरे सामनेसे उसी प्रकार भाग जाते हैं जिस प्रकार सिंह के शब्दको सुनकर हाथी भाग जाते हैं उस मुनिके प्रज्ञापरो जय होती है । २१ अज्ञान परीषद – जो मुनि सकल शास्त्रों में निपुण होनेवर भी दूसरे पुरुषोंके द्वारा किये गये 'यह मूर्ख है' इत्यादि आक्षेपको शान्त मनसे सहन कर लेता है उस मुनिके अज्ञान- परीषहजय होती है । २२ अदर्शनपरीषड्- चिरकाल तक तपश्चर्या करनेपर भी अवविज्ञान या ऋद्धि दिकी प्राप्ति न होनेपर जो मुनि विचार नहीं करता है कि यह दीक्षा निष्फल है, तोंका धारण करना व्यर्थ है इत्यादि, उस मुनिके अदर्शनपर पहजय होती है । इस प्रकार इन बाईस परीषहोंको जो मुनि शान्त चित्तसे सहन करता है उस मुनिक राग द्वेष आदि परिणामों से उत्पन्न होनेवाले आसवका निरोध होकर संवर होता है । किस गुणस्थान में कितने परीपद होते हैं सूक्ष्मसाम्परायछद्मस्थवीतरागयोश्वतुर्दश ॥ १० ॥ सूक्ष्मसाम्पराय अर्थात् दशवें और छमस्थवीतराग अर्थात् बारहवें गुणस्थानमें निम्न चौदह परी होते हैं | क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्चा, शय्या, बध, घलाय, रोग, ६२ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-सार [ ९१११ मार्गदर्शक आचार्य श्री सुजी महाराज तृणस्पर्श, मल, प्रज्ञा श्रर अज्ञान । छद्मका अर्थ है ज्ञानावरण और दर्शनावरण | ज्ञानावरण और दर्शनावरणका उदय होने पर भी जिसको अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान होनेवाला हो उसको छस् वीतराग (बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि) कहते हैं । प्रश्न- छद्मस्थवीतराग गुणस्थान में मोहनीय कर्मका अभाव है इसलिये मोहनीय कर्मक निमित्तसे होनेवाले आठ परीषाद वहाँ नहीं होते हैं यह तो ठीक है लेकिन सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें तो मोहनीयका सद्भाव रहता है अतः यहाँ मोहनीयके निमित्तसे होनेवाले नाग्न्य आदि आठ परोषहाँका सद्भाव और बतलाना चाहिये । उत्तर - सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें मोहनीयकी सब प्रकृतियोंका उदय नहीं होता किन्तु संज्वलन लोभकषायका ही उदय रहता है और वह उदय भी सूक्ष्म होता है न कि चादर। अतः यह गुणस्थान भी छद्मस्थवीतराग गुणस्थानके समान ही है । इसलिये इस गुणस्थान में भी चौदह ही परीपद होते हैं । प्रश्न- छद्मश्ववीतराग गुणस्थान में मोहनीयके उदयका अभाव है और सूक्ष्मसाम्पराय में मोहनीयके उदयकी मन्दता है इसलिए दोनों गुणस्थानों में क्षुधा आदि चौदह परीषद्दों का प्रभाव ही होगा, वहाँ उनका सहना कैसे संभव है ? - उत्तर - यद्यपि उक्त दोनों गुणस्थानों में चौदह परीपह नहीं होते हैं किन्तु उन पपके सहन करने की शक्ति होनेके कारण यहाँ चौदह परीषहोंका सद्भाव बतलाया गया है । जैसे सर्वार्थसिद्धिके देव सातवें नरक तक गमन नहीं करते हैं फिर भी वहाँ तक गमन करने की शक्ति होने के कारण उनमें सातवें नरक पर्यन्त गमन बतलाया है । एकादश जिने ॥ ११ ॥ सयोगकेवली नामक तेरहवें गुणस्थानमें ग्यारह परीषद होते हैं। पूर्वोक्त चौदह परीषों में से अनाभ, प्रज्ञा और भज्ञानको छोड़कर शेष ग्यारह परीषद्दोंका सद्भाव वेदनीय कर्मके सद्भावक कारण बतलाया गया है । प्रश्न - तेरहवें गुणस्थान में मोहनीयके उदय के अभावमें क्षुधा आदिकी वेदना नहीं हो सकती है फिर ये परीषह कैसे उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - - तेरहवें गुणस्थानमें क्षुधा आदिकी वेदनाका अभाव होने पर भी वेदनीय द्रव्य कर्म सद्भाव के कारण यहाँ ग्यारह परीबों का सद्भाव उपचार से समझना चाहिये। जैसे ज्ञानावरण कर्मके नष्ट हो जानेसे जिनेन्द्र भगवान्‌ में चिंताका निरोध करने स्वरूप ध्यान नहीं होता है फिर भी चिताको करने वाले कर्मक. अभाव ( निरोध ) हो जानेसे उपचारसे वहाँ ध्यानका सद्भाव माना गया है। यही बात वहीं परोपछोंके सद्भाव के विषय में है । यदि केवली भगवान क्षुधा आदि वेदनाका सद्भाव माना जाय तो कालाहारका भी प्रसङ्ग उनके होगा। लेकिन ऐसा मामना ठीक नहीं है। क्योंकि अनन्त सुख के उदय होने से जिनेन्द्र भगवान् कथलाहार नहीं होता है । कवयाहार वही करता है जो क्षुधा के क्लेश से पीड़ित होता है । यद्यपि जिनेन्द्र के वेदनीयके उदयका सद्भाव रहता है लेकिन वह मोहनीय के अभाव में अपना कार्य नहीं कर सकता जैसे सेनापति अभाव में सेना कुछ काम नहीं कर सकती। I अथवा उक्त सूत्र में न शब्द का अध्याहार करना चाहिये। न शब्दका अध्याहार करने से "एकादश जिने न" ऐसा सूत्र होगा जिसका अर्थ होगा कि जिनेन्द्र भगवान के ग्यारह परीषद नहीं होते हैं । Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२११२-१७ ] नवम अध्याय ४९१ प्रकममार्तण्ड में एकादश शब्दका यह अर्थ किया गया है- एकेन अधिका न दश इति एकादश अर्थात् एक+अ+दश एक और दश ( ग्यारह ) परीषह जिनेन्द्रके नहीं होते हैं । बादरसाम्पराये सर्वे ।। १२ ॥ यादरसाम्य अर्थात् स्थूल कपायवाले छठवें, सातवें, आठवें और नवमें इन चार सम्पूर्ण परीवह होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि इन तीन चारित्रों में शनि होने गये श्री सुविधिसागर जी महाराज कौन पह किस कर्मके उदयसे होता है ? ज्ञानावरणे प्रज्ञाऽज्ञाने || १३ || शामावरण कर्मके से प्रज्ञा और अज्ञान ये दो परीषद होते हैं । प्रश्न - ज्ञानावरण कर्मके उदयसे अज्ञानपरिप होता है यह तो ठीक है किन्तु प्रज्ञापरीपद भी ज्ञानावरण के उदयसे होता है यह ठीक नहीं है। क्योंकि प्रज्ञापरीषह अर्थात ज्ञानका मद ज्ञानावरण के विनाश होनेपर होता है अतः यह ज्ञानावरण के उदयसे कैसे हो सकता है ? उत्तर- प्रज्ञा क्षायोपशमिकी है अर्थात् मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम होनेपर और अवधिज्ञानावरण आदिकें सद्भाव होनेपर प्रज्ञाका मह होता है। सम्पूर्ण ज्ञानावरण के तय हो जानेपर ज्ञानका मद नहीं होता है। अतः प्रज्ञा परीषद ज्ञानावरण के उदयसे ही होता है। दर्शन मोहान्तराययेोरदर्शनालाभौ ॥ १४ ॥ दर्शनीय उदयसे अदर्शनपरीषह और अन्तराय कर्म के उदयसे अलाभ परीषह होता है । चारित्रमोहे नाग्न्या रतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचना सत्कारपुरस्काराः ।। १५ ।। चारित्र मोहनीयके उदयसे नाग्म्य अरति, स्त्री, निपया, आक्रोश, याचना और सत्कार पुरस्कार ये सात परीषद होते हैं। ये परीषद बेद आदिके उदयके कारण होते हैं। माइके उदयसे प्राणिपीड़ा होती है और प्राणिपीड़ा के परिहार के लिये निषेधा परीपह होता है अतः यह भी मोहके उदयसे होता है । वेदन शेषः ।। १६ ।। वेदनीय कर्मके उदय क्षुधा तृपा, शीत, उष्ण, दशमशक, चर्या, शय्या, बध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये ग्यारह परीषद होते हैं । एक साथ एक जीवके होनेवाले परीपट्टोंकी संख्या एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नेकोनविंशतिः ॥ १७ ॥ एक साथ एक जीवके एकको आदि लेकर उन्नीस परोह तक हो सकते हैं । एक जीवके एक कालमें अधिक से अधिक उन्नीस परीपह हो सकते है। क्योंकि शीत Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ तार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ ११८ और इन दोषों में से एक कालमें एक ही परीषह होगा तथा चर्या, शय्या और निषणा इन तीन परीपहोंमें से एक कालमें एक ही परीषद्द होगा। इस प्रकार बाईस परीषदों में से तीन परीपह घट जाने पर एक साथ उन्नीस परीपद ही हो सकते हैं, अधिक नहीं । प्रश्न- प्रज्ञा और अज्ञान परीषहमें परस्पर में विरोध है अतः ये दोनों परोषह एक साथ कैसे होंगे ? उत्तर- श्रतज्ञानके होनेपर प्रज्ञापरीषह होता और अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञानके अभाव में अज्ञान परिषद होता है अतः ये दोनों परीषद एक साथ हो सकते हैं। चारित्रका वन सामायिक छेदोपस्थापना परिहारविासिमसा म्परा यथाख्यातमिति मांगदेशक आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज चारित्रम् ॥ १८ ॥ सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथास्यात ये पाँच चरित्र हैं। सूत्र में 'इति' शब्द समाप्तिवाचक है जिसका अर्थ है कि यथाख्यात चारित्रसे कम का पूर्ण क्षय होता है । दश प्रकारके धर्म में जो संयमधर्म बतलाया गया है वह चारित्र हो है लेकिन पुनः यहाँ चारित्रका वर्णन इस बात को बतलाता है कि चारित्र निर्वाणका साक्षात् कारण है । सम्पूर्ण पापों के त्याग करनेको सामायिक चारित्र कहते हैं। इसके दो भेद हैं- परिमित काल सामायिक और अपरिमितकाल सामायिक | स्वाध्याय आदि करनेमें परिमितकाल सामायिक होता है और ईर्यापथ आदि में अपरिमितकाल सामायिक होता है । प्रमादके वसे अहिंसा आदि व्रतों में दूपण लग जाने पर आगमोक्त विधिसे उस दोषका प्रायश्चित्त करके पुनः व्रतोंका ग्रहण करना छेदोपस्थापना चारित्र है | व्रतोंमें दोष लग जाने पर पक्ष, मास आदिकी वीक्षाका छेद (नाश) करके पुनः घतों में स्थापना करना अथवा सङ्कल्प और विकरूपोंका त्याग करना भी छेदोपस्थापना चारित्र है । जिस चारित्र में जीवोंकी हिंसाका त्याग होनेसे विशेष शुद्धि (कर्ममलका नाश हो उसको परिहारविशुद्धि चारित्र कहते हैं। जिस मुनिकी आयु बत्तीस बर्षकी हो, जो बहुत काल तक सीर्थकर के चरणों में रह चुका हो, प्रत्याख्यान नामक नवम पूर्व में कहे गये सम्यकू आचारका जानने वाला हो, प्रसाद रहित हो और तीनों सन्ध्याओं को छोड़कर केवल दो गति (चार मील) गमन करने वाला हो उस मुनिके परिहारविशुद्धि चारित्र होता है। तीर्थकरके पादमूलमें रहनेका काल वर्षथक्त्व ( तीन वर्ष से अधिक और नौ वर्ष से कम ) है । जिस चारित्र में अति सूक्ष्म लोभ कषायका उदय रहता है उसको सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र कहते हैं । सम्पूर्ण मोहनीयके उपशम या क्षय होने पर आत्मा के अपने स्वरूपमें स्थिर होनेको याख्यात चारित्र कहते हैं । यथाख्यातका अर्थ है कि आत्मा के स्वरूपको जैसा का तैसा कहना । यथास्यातका दूसरा नाम अथाख्यात भी है जिसका अर्थ है कि इस प्रकार के उत्कृष्ट चारित्रको जीवने पहिले प्राप्त नहीं किया था और मोहके क्षय या उपशम हो जाने पर प्राप्त किया है। सामायिक आदि चारित्रों में उत्तरोत्तर गुणोंकी उत्कृष्टता होनेसे इनका क्रम से वर्णन किया गया है । i Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय बाह्य तप अनशनावमौदर्यवृत्ति परिसंख्या नरसपरित्यागविवि शय्यासनकाय क्लेशा वा तपः ॥ १९ ॥ ९।१९-२० ] ४९३ अनशन अषमौदर्य वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विचितशय्यासन और कायक्लेश ये छ वा तप हैं । फलकी अपेक्षा न करके संयमकी वृद्धिके लिये, रागके नाशके लिये, कमांके क्षयके लिये, ध्यानप्राप्ति और शास्त्राभ्यास आदिके लिये जो उपवास किया जाता है वह अनशन है । संगम में सावधान रहने के लिये, पित्त, श्लेष्म आदि दोषोंके उपशमनके लिये, ज्ञान, ध्यान आदिकी सिद्धि के लिये क्रम भोजन करना अवमौदर्य है । वृत्तिअर्थात् भोजनकी प्रवृत्ति में परिसंख्यान अर्थान सब प्रकार से मर्यादा करना वृत्तिपरिसंस्थान है । तात्पर्य यह है कि भोजन को जाते समय एक घर एक गली आदिमें भोजन करनेका नियम करना वृत्तिपरिसंख्यान है । इन्द्रियोंके निमहके लिये, निद्राको जीतने के लिये और स्वाध्याय आदिकी सिद्धिके लिये घृत आदि रसोंका त्याग कर देना रसपरित्याग है। ब्रह्मचर्यकी सिद्धि और स्वाध्याय, ध्यान आदिकी प्राप्तिके लिये प्रारणीपीदासे रहित एकान्त और शुन्य घर गुफा आदिमें सोना और बैठना विविक्त शय्यासन है। गर्मी में, घाममें शीत ऋतुमें खुले स्थानमें और वर्षा में वृक्षों के नीचे बैठकर ध्यान आदिके द्वारा शरीरको कष्ट देना कायक्लेश है । कायक्लेश मानले छारीरिक की हड़ती है। रीरिक दुःखोंके सहन करनेकी शक्ति आती है और जैनधर्मकी प्रभावना आदि होती है। कायक्लेश स्वयं इच्छानुसार किया जाता है और परीषद विना इच्छा होता है यह कायक्लेश और परीपहमें भेद है । यह छह प्रकारका तप बाह्य वस्तुओं की अपेक्षा से होता है और दूसरे लोगोंको प्रत्यक्ष होता है अतः इसको बाह्य तप कहते हैं । आभ्यन्तर तप प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्याय व्युत्सगंध्यानान्युत्तरम् ॥ २० ॥ प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान में छह आभ्यन्तर तप हैं । प्रमाद अथवा अज्ञान से लगे हुए दोषोंकी शुद्धि करना प्रायश्चित्त है। उत्कृष्ट चारित्र के धारक मुनिको 'प्राय' और मनको चित कहते हैं । अतः मनकी शुद्धि करनेवाले कमको प्रायश्चित्त कहते हैं । ज्येष्ठ मुनियोंका आदर करना विनय है। बीमार मुनियोंकी शरीरके द्वारा अथवा र दयाकर या अन्य किसी प्रकार से सेवा करना वैयावृत्य है। ज्ञानकी भावना में आलस्य नहीं करना स्वाभ्याय है। घाय और आभ्यन्तर परिब्रहका त्याग कर देना व्युत्सर्ग है। मनकी चलताको रोककर एक अर्थ में मनको लगाना ध्यान है । इन तपमें आभ्यन्तर अर्थात् मनका नियमन ( वशीकरण) होनेसे और दूसरे लोगों को प्रत्यक्ष न होने से इनको आभ्यन्तर तप कहते हैं । Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार 1 ९४२१-२२ आभ्यन्तर तपोंके उत्तर भेद-- नवचतुर्दशपञ्चद्वि मेदा यथाक्रमम् ॥ २१ ॥ क्रमसे प्राथमिक नष, विधायक मामला सामायके पाँच और व्युत्सोके दो भेद होते हैं। प्रायश्चित्तके नव भेद-- आलोचनप्रतिक्रमणतदुमयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनाः ॥२२॥ आलोपन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्था. पना-ये प्रायश्चित्त के नव भेद है। एकान्त में बैठे हुए, प्रसन्न; योष, देश और कालको जाननेवाले गुरुके सामने निष्कपट भावसे विनयसहित और भगवती आराधनामें बतलाये हुए दश प्रकार के दोषोंसे रहिस विधिसे अपने दोषों को प्रगट कर देना आलोचना है। आलोचनाके पश दोष इस प्रकार है-. गुरुमें अनुकम्पा उत्पन्न करके आलोचना करना आकम्पित दोष है । २ वचनोंसे अनुमान करके आलोचना करना अनुमानित दोष है। ३ लोगोंने जिस दोषको देख लिया हो उसीकी आलोचना करना इष्टदोष है। ४ मोटे या स्थूल दोषोंकी ही आलोचना करना बादरदोष है। ५ अस्प या सूक्ष्म दोष की ही आलोचना करना सूक्ष्म दोष है। ६ किसीके द्वारा उसके दोषको प्रकाशित किये जानेपर कहना कि जिस प्रकारका दोष इसने प्रकाशित किया है उसी प्रकारका दोष मेरा भी है। इस प्रकार गुप्त दोष की आलोचना करना प्रच्छन्न दोष है । ७ कोलाहलके बीचमें आलोचना करना जिससे गुरु ठीक तरह से न सुन सके सो शब्दाकुलिस दोष है। ८ बहुत लोगों के सामने आलोचना करना बहुजन दोष है। ५ दोषों को नहीं समझनेवाले गुरुके पास आलोचना करना अव्यक्तदोष है। १. ऐसे गुरुके पास उस दोषकी आलोचना करना जो दोष उस गुरुमें भी हो, यह तत्सेवी दोष है। __ यदि पुरुष आलोचना करे तो एक गुरु और एक शिष्य इस प्रकार दोके आश्रयसे आलोचना होती है। और यदि स्त्री आलोचना करे तो धन्द्र, सूर्य, दीपक आदिके प्रकाशमें एक गुरु और दो खियाँ अथवा दो गुरु और एक स्त्री इस प्रकार तीनके होनेपर मालोचना होती है । आलोचना नहीं करनेवालेको दुर्धरतप भी इच्छित फलदायक नहीं होता है। अपने दोषों को उच्चारण करके कहना कि मेरे वोष मिथ्या हो प्रतिक्रमण है । गुरुकी आज्ञासे प्रतिक्रमण शिष्य को ही करना चाहिये और बालोचनाको दकर आचायको प्रतिक्रमण करना चाहिये। शुद्ध होनेपर भी अशुद्ध होनेका संदेह या विपर्यय हो अथवा अशुद्ध होनेपर भी जहाँ शुद्धता का निश्चय हो वहाँ आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना चाहिये इसको तदुमय कहते हैं। जिस वस्तु के न खानेका नियम हो उस वस्तु के बर्तन या मुखमें आ जाने पर अथवा जिन वस्तुओंसे कषाय आदि उत्पन्न हो उन सब वस्तुओं का त्याग कर देना विवेक है । नियतकाल पर्यन्त शरीर, वचन और मनका त्याग कर देना व्युत्सर्ग है । उपवास आदि छह प्रकारका बाह्यतप तप प्रायश्चित है। विन, पक्ष, मास आदि दीक्षाका छेद कर देना छेद प्रायश्चित है । दिन. पक्ष, मास भादि नियत काल तक संघसे पृथक्कर देना परिहार है । महावतोंका मूलच्छेद करके पुनः दीक्षा देना उपस्थापना प्रायश्चित है। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९।२३-२४] नवम अध्याय ४५५ आलोचना आदि किन फिन दोषोंके करने पर फिये आते हैं श्राचार्यसे बिना पूछे आतापन आदि योग करने पर, पुस्तक पीछी आदि दूसरों के सपकरण लेने पर, परोक्षमें प्रमादसे आचार्यकी आज्ञाका पालन नहीं करने पर, आचार्यसे बिना पूछे आचार्यके कामको चले जाकर आनेपर, दूसरे संघसे बिना पूछे अपने संघमें आ जाने पर, नियत देश कालमें करने योग्य कार्यको धर्मकथा आदिमें व्यस्त रहने के कारण भूल जाने पर कालान्तरमें करने पर आलोचना की जाती है। छह इन्द्रियों में से बचन आदि की दुष्प्रवृत्ति होनेपर, आचार्य आदिसे हाथ, पैर आदिका संघट्ट (रगढ़ ) होजाने पर, प्रत, समिति और गुप्तियों में स्वल्प अतिचार लगनेपर, पैशुन्य, कलह, आदि करने पर, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय आदिमें प्रमाद करने पर, कामविकार होने पर और दूसरोंको संकेश आदि देनेपर प्रतिक्रमण किया जाता है। दिन और रात्रिके अन्तमें भोजन गमन प्रादि करने पर, केशलोंच करने पर, नखोंका छेद करने पर, स्वप्नदोष होने पर, रात्रिभोजन करने पर और पक्ष, मास, चार मास, वर्ष पर्यन्त दोष फरने पर आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों होते हैं। मौनके बिना केशलोच करनेमें, पेटसे कीड़े निकलनेपर, हिमपात मफलर या प्रचण्ड मार्गदर्शकवायुसेसंचाई होमो पाविशिलामूमि पर प्लान पर, हरे घास पर चलने पर, कीचड़में चलने पर, जङ्घातक जलमें घुसने पर, दूसरेकी वस्तुको अपने काममें लेने पर, नाव श्रादिसे नदी पार करने पर, पुस्तकके गिर जानेपर, प्रतिमाकं गिर जाने पर, स्थावर जीवोंके विघाप्त होने पर, बिना देखे स्थानमें शौच आदि करने पर, पाक्षिक प्रतिक्रमण व्याख्यान आदि क्रियाओं के अन्त में, अनज्ञान में मल निकल जाने पर व्युत्सर्ग किया जाता है। इसी प्रकार वप, छेद आदि करनेके विषयमें आगमसे शान कर लेना चाहिये । नव प्रकारके प्रायश्चित्त करनेसे भावशुद्धि, चश्चलताका अभाव, शल्यका परिहार और धर्म में दृढ़ता आदि होती है। बिनयके भेद ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः ॥ २३ ॥ मानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय ये चार विनय हैं। आलस्य रहित होकर, देश काल भाव आदि की शुद्धिपूर्वक, विनय सहित मोक्षके लिये यथाशक्ति ज्ञानका प्राण, स्मरण आदि करना ज्ञानविनय है। तत्त्वोंके श्रद्धानमें शंका, कांक्षा आदि दोषोंका न होना दर्शनविनय है। निर्दोष चारित्रका स्वयं पालन करना और चारित्र धारक पुरुषोंकी भक्ति श्रादि करना चारित्रविनय है। आचार्य, उपाध्याय, आदिको देखकर खड़े होना, नमस्कार करना तथा उनके परोक्षमें परोक्ष विनय करना, उनके गणोका स्मरण करना आदि उपचार विनय है। विनयके होने पर मानलाभ, आहारविशुद्धि सम्यगाराधना आदि होती है। वयावृत्त्यके भेद-- आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्ष्यग्लानगणकुलसङ्यसाधुमनोज्ञानाम् ॥ २४ ॥ आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इन दश प्रकार के मुनियोंकी सेवा करना सो दश प्रकारका बयावृत्त्य है। जो स्वयं व्रतोंका आचरण करते हैं और दूसरोंको कराते हैं उनको आचार्य कहते हैं । जिनके पास शाखाका अध्ययन किया जाता है वे उपाध्याय हैं। जो महोपयास आदि Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्त्रार्थवृति हिन्दी-सार मार्गदर्शक : ४९६ आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज वर्पोको करते हैं वे तपस्वी हैं। शास्त्रों के अध्ययन करने में तत्पर मुनियोंको शैक्ष्य कहते हैं । रोग आदिसे जिसका शरीर पीड़ित हो उस मुनिको ग्लान कहते हैं। वृद्ध मुनियोंके समूहको गण कहते हैं। दीक्षा देनेवाले आचार्यके शिष्यों के समूहको कुल कहते हैं। ऋषि, मुनि यति और अनगार इन चार प्रकार के मुनियों के समूहको संघ कहते हैं अथवा मुनि, आर्यिका श्रावक और श्राविकाओं के समूहको संघ कहते हैं । जो चिरकालसे दीक्षित हों उसको साधु कहते हैं | वक्तृत्व आदि गुणसे शोभित और लोगों द्वारा प्रशंसित मुनिको मनोन कहते हैं। इस प्रकार के असंयत सम्यग्द्रष्टिको भी मनोज्ञ कहते हैं । इन दश प्रकार के मुनियोंको व्याधि होनेपर प्रासुक, औषधि, भक्तपान आदि पध्यवस्तु, स्थान और संस्तरण आदिके द्वारा उनकी वैयावृत्ति करना चाहिये। इसी प्रकार धर्मोपकरणों को देकर, परोपका नाश कर, मिध्यात्व आदिके होनेपर सम्यक्त्वमें स्थापना करके तथा बाह्य वस्तुके न होनेपर अपने शरीर से ही श्लेम्म आदि शरीरमलको पोंछ करके वैयावृत्ति करनी चाहिये। वैयावृत्य करनेसे समाधिकी प्राप्ति, ग्लानिका अभाव और प्रवचन वास्सल्य आदि की प्रकटता होती है। स्वाध्यायके भेद वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः || २५ || वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ये स्वाध्यायके पाँच भेद हैं। फलकी अपेक्षा न करके शास्त्र पढ़ना शास्त्रका अर्थ कहना और अन्य जीवोंके लिये शा और अर्थ दोनोंका व्याख्यान करना वाचना है। संशयको दूर करनेके लिये अथवा निश्चयको दृढ़ करनेके लिये ज्ञात अर्थको गुरुसे पूछना पृच्छना है। अपनी उन्नति दिखाने पर प्रतारण, उपहास आदिके लिये की गई पूछना संवरका कारण नहीं होती है। एका मनसे जाने हुए अर्थका बार बार अभ्यास या विचार करना अनुप्रेक्षा है। शुद्ध उच्चारण करते हुए पाठ करनेको आम्नाय कहते हैं। दृष्ट और अष्ट फलकी अपेक्षा न करके असंयमको दूर करनेके लिये, मिध्यामार्गका नाश करनेके लिये और आत्माके कल्याण के लिये धर्मकथा आदिका उपदेश करना धर्मोपदेश है । स्वाध्याय करनेसे बुद्धि बढ़ती है, अध्यवसाय प्रशस्त होता है, तपमें वृद्धि होती है। प्रवचनकी स्थिति होती है, अतीधारों की शुद्धि होती है । संशयका नाश होता है, मिथ्यायादियोंका भय नहीं रहता है और संवेग होता है ! व्युत्सर्गके भेद माथाभ्यन्तरोषध्योः ॥ २६ ॥ बाह्योपधि व्युत्सर्ग और आभ्यन्तरोपथि व्युत्सर्ग ये दो व्युत्सर्ग हैं। धन, धान्य आदि बाह्य परिमका त्याग करना बाह्योपधि व्युत्सर्ग है और काम, क्रोध, आदि आत्मा के दुष्टभावका त्याग करना आभ्यन्तरोपथिव्युत्सर्ग है। नियत काल तक अथवा याबकजीवन के लिये शरीरका त्याग कर देना सो भी आभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग है । न्युत्सर्गसे निर्ममत्य, निर्भयता, दोषका नाश, जीनेकी आशाका नाश और मोक्षमार्ग में तत्परता आदि होती हैं। : 1 Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय ध्यानका स्वरूप उत्तमसंहननस्यैकाप्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ॥२७॥ चित्तको अन्य विकल्पोंसे हटाकर एक ही अर्थमें लगानेको ध्यान कहते हैं। ध्यान उत्तमसंहनन वालों के अन्तर्मुहूर्त तक हो सकता है। ववृषभनाराच वनाराच और नाराच ये तीन उसम संहनन कहलाते हैं । ध्यानके आलम्बन भूत द्रव्य या पर्याय को 'अन' और एक 'अप' प्रधान वस्तुको एकाम' कहते हैं। एकाप में चिन्ताका निरोध करना अर्थात् अन्य अर्थोकी चिन्ता या विचार छोड़कर एक ही अर्थका विचार करना ध्यान कहलाता है। ध्यानका विषय एक ही अर्थ होता है । जबतक चित्त में नाना प्रकार के पदार्थों के विचार आते रहेंगे तब तक वह ध्यान नहीं कहला सकता। अतः एकाग्रचिन्तानिरोधका ही मानना है यायाक्सा स री एक अर्थमें बहुतकाल तक चित्त को लगाना अधिक कठिन है अतः अन्तर्मुहूर्त के बाद एकाग्रचिन्तानिरोध नहीं हो सकता । यदि अन्तर्मुहूर्त के लिये निश्चल रूपसे एकाग्रचिन्तानिरोध हो जाय तो सर्व कर्मोंका क्षय शीन हो जाता है। प्रश्न-चिन्ताके निरोध करनेको ध्यान कहा गया है और निरोध अभावका कहते हैं। यदि एक अर्थ में चिन्ताका अभाव (एकाग्र चिन्ता निरोध) ध्यान है तो ध्यान गगनकुसुमकी तरह असत् हो जायगा। ___ उत्तर -ध्यान सत् भी है और असत् भी है । ध्यानमें केवल एक ही अर्थकी पिता रहती है अतः ध्यान सत् है तथा अन्य अर्थोकी चिन्ता नहीं रहती है अतः ध्यान असत् भी है। अथवा निरोध शब्दका अर्थ अभाव नहीं करेंगे। जब निरोध शब्द भाववाचक होता है तब उसका अर्थ अभान होता है और जब कर्मवाचक होता है तब उसका अर्थ होता है वह वस्तु जो निरुद्धकी गई (रोकी गई) हो । अतः इस अर्थमें एक अर्थमें अविचल शानका नाम ही ध्यान होगा। निश्चल दीपशिखाकी तरह निस्तरा ज्ञानको ही ध्यान कहते हैं। तीन उत्तम संहननोंमें से प्रथम संहननसे ही मुक्ति होती है। अन्य दो संहननोंसे ध्यान तो होता है किन्तु मुक्ति नहीं होती है । ध्यानके भेद आरौद्रधनूँशुक्लानि ॥ २८ ॥ आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धHध्यान और शुक्लध्यान ये ध्यानके चार भेद हैं । दुःखावस्थाको प्राप्त जीवका जो ध्यान (चिन्ता) है उसको आर्तध्यान कहते हैं। रुद्र (कर) प्राणी द्वारा किया गया कार्य अथवा विचार रौद्रध्यान है। वस्तुके स्वरूपमें चित्तको लगाना धर्म्यध्यान है । जीवोंके शुद्ध परिणामोंसे जो ध्यान किया जाता है यह शुक्लध्यान है। प्रथम दो ध्यान पापासबके कारण होनेसे अप्रशस्त ध्यान कहलाते है और कर्ममलको नष्ट करने में समर्थ होने के कारण धर्म्य और शुक्ल ध्यान प्रशस्त ध्यान कहलाते हैं। परे मोक्ष हेत् ॥ २९॥ इनमें धर्म्य और शुक्ल ध्यान मोक्षके कारण हैं। धर्म्यध्यान परम्परासे मोक्षका २३ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ तस्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [९/३०-३४ कारण होता है और शुक्ल ध्यान साक्षात् मोक्षका कारण होता है, लेकिन उपशम श्रेणीकी अपेक्षासे तीसरे भचमें मोक्षका दायक होता है। जब धर्म्य और शुक्लध्यान मोक्षके कारण हैं तो यह स्वयं सिद्ध है कि आत और रौद्र ध्यान संसारके कारण हैं। आसंध्यानका स्वरूप और भेदआर्तममनोज्ञस्य सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्याहारः ॥ ३० ॥ अनिष्ट पदार्थके संयोग हो जाने पर उस अर्थको दूर करने के लिये बार बार विचार करना सो अनिष्टसंयोगज नामक प्रथम आर्तध्यान है। अनिष्ट अर्थ चेतन और अचेतन दोनों प्रकारका होता है । कुरुप दुर्गन्धयुक्त शरीर सहित स्त्री आदि तथा भयको उत्पन्न करने वाले शत्रु, सर्प आदि अमनोज्ञ चेतन पदार्थ है। और शस्त्र, विष, कण्टक आदि अमनोज्ञ अचेतन पदार्थ हैं। विपरीत मनोजस्य ॥ ३१ ॥ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज त्री, पुत्र, धान्य आदि इष्ट पदार्थ के वियोग होजाने पर उसकी प्राप्तिके लिये बार बार विचार करना सो इष्टसंयोगज नामक प्रितीय आतध्यान है। वेदनायाश्च ।। ३२ ।। वेदना (रोगादि) के होनेपर उसको दूर करने के लिये बार बार विचार करना सो वेदनाजन्य तृतीय आध्यान है। रोगके होनेपर अधीर हो जाना, यह रोग मुझे बहुत कष्ट दे रहा है, इस रोगका नाश कब होगा इस प्रकार सदा रोगजन्य दुःखका ही विचार करते रहनेका नाम नृतीय आर्तध्यान है। ।॥ ३३ ॥ ___ भविष्य कालमें भोगोंकी प्राप्तिको आकांक्षा में चित्तको बार बार लगाना सो निदानजे नामक चतुर्थ आर्तध्यान है। प्रासंध्यानके स्वामीतदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥ ३४ ॥ ऊपर कहा हुआ चार प्रकारका आर्तध्यान अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयतों के होता है। ब्रतोंका पालन न करनेवाले प्रथम चार गुणस्थानों के जीव अविरत कहलाते हैं। पश्चम गुणस्थानयर्ती श्रावक देशविरत है। और पन्द्रह प्रमादसहित छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिको प्रमत्तसंयत कहते हैं । प्रथम पाँच गुणस्थानवी जीवोंके चारों प्रकारका आतभ्यान होता है. लेकिन छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिके निदानको छोड़कर अन्य तीन आर्तध्यान होते हैं। प्रश्न-देशघिरतके निदान वार्तध्यान नहीं हो सकता है क्योंकि निदान एक शल्य है और शल्य सहित जीवके व्रत नहीं हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि देशघिरतके निदान शल्य नहीं हो सकती है। उत्तर-देशविरत अणुव्रतोंका धारी होता है और अणुव्रतों के साथ स्वल्प निदान Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने के कारण कभी कभी हिस ९।३५-३६ । नषम अध्याय रह भी सकता है। अतः देशविरतमें चारों आतभ्यान होते हैं। प्रमत्तसंयतके प्रभादके उदयकी अधिकता होनेसे तीन आतध्यान कभी कभी होते हैं। रौद्रध्यानका स्वरूप व स्वामीहिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेम्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥ ३५ ॥ हिसा, मूठ, चोरी और विषयसंरक्षण विषयों में इन्द्रियों की प्रवृत्ति ) इन चार वृत्तियोंसे रौद्रध्यान होता है । इन चार कार्यों के विषय में सदा विचार करते रहना और इन कायों में प्रवृत्ति करना सो रोद्रध्यान है। रौद्रध्यान अविरत और देशविरत गुणस्थानवर्ती मानदेशक होवाडाचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज प्रश्न—अविरत जीवके रौद्रभ्यानका होना तो ठीक है लेकिन देशविरत के रौद्रध्यान कसे हो सकता है ? उचर-देशविरतके भी रौद्र ध्यान कभी कभी होता है। क्योंकि एकदेशसे विरत छा होनेसे देश विरतके रौद्रध्यान होता है । लेकिन सम्यग्दर्शन सहित होनेके कारण इसका रौद्र ध्यान नरकादि गतियोंका कारण नहीं होता है। सम्यग्दर्शन सहित जीव नारकी, तिर्यश्च, नपुंसक और स्त्री पर्याय में उत्पन्न नहीं होता है तथा दुष्कुल, अल्पायु और दरिद्रताको प्राप्त नहीं करता है | प्रमरासंयतके रौद्रध्यान नहीं होता है क्योंकि रौद्रध्यानके होने पर असंयम हो जाता है। धर्मध्यानका स्वरूप व भेद-- आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धम्र्यम् ॥ ३६ ।। आशाविचय अपायचिचय विपाकविचय और संस्थानविचय, ये धर्म्यध्यानके चार भंद हैं। आशा, अपाय,विपाक और संस्थान इनके विषयमें चिन्तवन करनेको धर्म्य ध्यान कहते हैं। - आज्ञायिचय-आप्तवताके न होनेपर, स्वयं मन्दबुद्धि होनेपर, पदार्थों के अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण, हेतु, दृष्टान्त आदिका अभाव होने पर जो आसन्न भन्य जीव सर्वज्ञप्रणीत शालको प्रमाण मानकर यह स्वीकार करता है कि जैनागममें वस्तुका जो स्वरूप बतलाया वह वैसा ही है, जिनेन्द्र भगवानका उपदेश मिथ्या नहीं होता है। इस प्रकार अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ के विषयमं जिनेन्द्रकी आज्ञाकी प्रमाण मानकर अर्थ के स्वरूपका निश्चय करना आझाविचय है । अथवा वस्तुके तत्त्वको यथावत् जाननेपर भी उस वस्तुको प्रतिपादन करनेकी इच्छासे तक, प्रमाण और नयके द्वारा उस वस्तु के स्वरूपका चिन्तवन या प्रतिपादन करना आझाविचय है। अपायविचय--मिथ्यारष्टि जीव जन्मान्धके समान है वे सर्वज्ञ वीतराग प्रणीत मार्गसे पराकमुख रहते हुए भी मोक्षकी इच्छा करते हैं लेकिन उसके मार्गको नहीं जानते हैं। इस प्रकार सन्मार्गके विनाशका विचार करना अपायविचय है । अथवा इन प्राणियों के मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारिम्रका विनाश कैसे होगा इस पर विचार करना अपार्यावचय है। विपाकविचय-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके अनुसार होनेवाले ज्ञानावरण आदि पाठ कर्मों के फलका विचार करना विपाकविचय है। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ ९३७०४१ संस्थानविय तीन लोकके आकारका विचार करना आश्चार्य विधियाधिसागर जी महाराज उक्त चार प्रकारके ध्यानको धर्म्यध्यान कहते हैं क्योंकि इनमें उत्तम क्षमा आदि ब्रश धर्मोका सद्भाव पाया जाता है। धर्मके अनेक अर्थ होते हैं। वस्तुके स्वभावको धर्म कहते हैं । उत्तम क्षमा आदिको धर्म कहते हैं । चारित्रको धर्म कहते हैं। जीवोंकी रक्षाको धर्म कहते हैं । ५०० अप्रमत संयत मुनिके साक्षात् धर्म्यध्यान होता है और अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत जीके गौण धर्म्य ध्यान होता है । शुक्लध्यानके स्वामीशुक्लेचा पूर्वविदः || ३७ ॥ पृथक्त्ववितर्क और एकत्व वितर्क ये दो शुक्लध्यान पूर्वज्ञानधारी श्रुतकेवीके होते हैं। 'च' शब्द से श्रुतकेवली के धर्म्य ध्यान भी होता है। श्रुतकेबलीके श्रेणी चढ़नेके पहिले धर्म्य ध्यान होता है। दोनों श्रेणियोंमें पृथक्त्ववितर्क और एकत्वधितर्क ये दो शुक्ल ध्यान होते हैं। श्रुतकेबलीके आठवें गुणस्थानसे पहिले धर्म्यध्यान होता है और आठवें नवें, दश और ग्यारहवे गुणस्थानों में पृथक्त्व वितर्क शुक्लध्यान होता है और बारहवें गुणस्थान में एकत्व वितर्क शुक्लध्यान होता है। परे केवलिनः ॥ ३८ ॥ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान सयोग केबलीके और व्युपरत क्रियानिवर्ति शुक्लध्यान प्रयोग केबलीके होता है। शुक्लध्यानके भेदपृथक्त्वकत्ववितर्कचमक्रिया प्रतिपातिष्युपरतक्रिया निवर्तीनि ॥ ३२ ॥ पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरत किया निवर्ति - ये चार शुक्लध्यानके भेद हैं। पैरों से मन न करके पद्मासनसे ही गमन करनेको सुक्ष्मक्रिया कहते हैं । इस प्रकार की सूक्ष्म किया जिसमें पाई जाय वह सूक्ष्मकियाप्रतिपाति शुक्लध्यान है और जिसमें सूक्ष्मक्रियाका भी विनाश हो गया हो वह व्युपरतक्रिया निवर्ति शुक्लध्यान है । शुक्लध्यानके आलम्बन येक योग काययोगायोगानाम् ॥ ४० ॥ उक्त धार शुक्लध्यान क्रमसे तीन योग, एक योग, काययोग और योगरहित जीवों के होते हैं । अर्थात् मन, वचन और काययोगवाले जीवोंके पृथक्त्ववितर्क, तीन योगों में से एक योगवाले जीवोंके एकक्स्यवितर्क, काययोगवालोंके सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति और योगरहित जीषोंके व्युपरत क्रियानिवर्ति शुक्ल ध्यान होता है । आदिके दो ध्यानोंकी विशेषता -- काश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥ ४१ ॥ पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क ये दो शुक्लध्यान परिपूर्ण श्रुतज्ञान धारी जीवके ८५ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९।४२-४४ ] नवम अध्याय ५०१ होते हैं तथा वितर्क और वीचार सहित होते हैं। सम्पूर्ण श्रुतज्ञानका धारी जीव ही इन ध्यानोंका प्रारम्भ करता है । अवीचारं द्वितीयम् ॥ ४२ ॥ लेकिन दूसरा शुक्लध्यान बीचाररहित है। अतः पहिले शुक्ल ध्यानका नाम पृथक्त्ववितर्कवीचार है और द्वितीय ध्यानका नाम कविता महाराज श्रीचार वितर्कका लक्षण - वितर्कः श्रुतम् ॥ ४३ ॥ श्रुतज्ञानको वितर्क कहते हैं । वितर्कका अर्थ है विशेषरूप से तर्क या विचार करना | प्रथम और द्वितीय शुक्लध्यान श्रुतज्ञानके बलसे होते हैं अतः दोनों ध्यान सवितर्क हैं श्रीधारका लक्षण— I वीचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसङ्क्रान्तिः ॥ ४४ ॥ अर्थं व्यञ्जन और योगको संक्रान्ति ( परिवर्तन ) को बीचार कहते हैं । ध्यान करने योग्य पदार्थ ( द्रव्य या पर्याय ) को अर्थ कहते हैं । वचन या शब्द को व्यञ्जन कहते हैं । और मन, वचन और कायके व्यापारको योग कहते हैं। संक्रान्तिका अर्थ है परिवर्तन | अर्थसंक्रान्ति द्रव्यको छोड़कर पर्यायका ध्यान करना और पर्यायकों छोड़कर द्रव्यका ध्यान करना इस प्रकार बार बार ध्येय अर्थ में परिवर्तन होना अर्थसंक्रान्ति है । व्यञ्जनसंक्रान्ति - श्रुतज्ञान के किसी एक शब्दको छोड़कर अन्य शब्दका आलम्बन लेना और उसको छोड़कर पुनः अन्य शब्दको ग्रहण करना व्यञ्जनसंक्रान्ति है । योगसंक्रान्ति- - काय योग को छोड़कर मनोयोग या वचनयोगको ग्रहण करना और इनको छोड़कर पुनः काययोगको ग्रहण करना यागसंक्रान्ति है । प्रश्न - इस प्रकारकी संक्रान्ति होने से ध्यानमें स्थिरता नहीं रह सकती है और स्थिरता न होनेसे यह ध्यान नहीं हो सकता क्योंकि एकाप्रचिन्तानिरोधका नाम ध्यान है । उत्तर- ध्यानकी सन्तानको भी ध्यान कहते हैं। द्रव्यकी सन्तान पर्याय हैं। एक शब्द की सन्तान दूसरा शब्द है। एक योगकी सन्तान दूसरा योग है । अतः एक सन्तानको छोड़कर दूसरी सन्तानका ध्यान करनेसे वह ध्यान एक ही रहेगा। एक सन्तान के ध्यान से दूसरी सन्तानका ध्यान भिन्न नहीं है। अतः सक्रान्ति होनेपर भी ध्यान में स्थिरता मानी जायगी। गुप्ति आदि में अभ्यस्त द्रव्य और पर्याय की सूक्ष्मताका ध्यान करनेवाले, वितर्क की सामर्थ्यको प्राप्तकर अर्थ और व्यञ्जन तथा काययोग और वचनयोगको पृथक पृथक रूपसे संक्रमण करनेवाले मन द्वारा जैसे कोई असमर्थ वालक अतीक्ष्ण कुठारसे वृक्षको काटता है उसी प्रकार मोहनीय कर्मकी प्रकृतियोंका उपशम या क्षय करनेवाले मुनिके पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान होता है । मोहनीय कर्मका समूळ नाश करनेकी इच्छा करनेवाले, अनन्तगुणविशुद्धि सहित योगविशेषके द्वारा ज्ञानावरणको सहायक प्रकृतियोंके बन्धका निरोध और स्थितिका हास Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक वा वाता- साविधिसागर जी महाराज, ९४० करनेवाले, श्रुतज्ञानोपयोगवाले, अर्थ व्यजन और योगकी संक्रान्ति रहित, क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती मुनिके एकत्यवितर्क शुक्लध्यान होता है। एकत्यवितर्कभ्यानवाला मुनि उस अवस्थासे नीचेकी अवस्था में नहीं आता है। एकत्ववितक ध्यानके द्वारा जिसने धातिया कर्मों का नाश कर दिया है, जिसके केवल ज्ञानरूपी सूर्यका उदय हो गया है एसे तीन लोकमें पूज्य तीर्थकर, सामान्यकेवली अथवा गणधर केवली उत्कृष्ठ कुछ कम एक पूर्वकोटी भूमण्डलमें बिहार करते हैं। जब अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रह जाती है और वेदनीय. नाम और गोत्र कर्मों की स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त रहती है तब वे सम्पूर्ण मन और वचन योग तथा बादर काययोगको छोड़कर सूक्ष्म काययोगमें स्थित होकर सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानको करते हैं। और जब वेदनीय नाम और गोत्र कर्मकी स्थिति आयु कर्मसे अधिक होती है तब वे चार समयों में दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्रात के द्वारा आत्माके प्रदेशों को बाहर फैलाते हैं और पुनः चार समयों में आत्मा के प्रदेशोंको समेट कर अपने शरीरप्रमाण करते हैं। ऐसा करनेसे वेदनीय नाम और गोत्रकी स्थिति आयु कर्मके बराबर हो जाती है। इस प्रकार तीर्थकर आदि दण्ड कपाट आदि समुद्रात करके सूक्ष्मकाथ्योगके पालम्बनसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानको करते हैं। इसके अनन्तर ज्युपरतक्रियानिवर्ति ध्यान होता है । इसका दूसरा नाम समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति भी हैं। इस ध्यान में प्राणापानक्रियाका तथा मन,वचन और काययोगके निमित्तसे होने वाले श्रात्मा के प्रदेश परिस्पंदनका सम्पूर्ण विनाश हो जानेसे इसको समुच्छन्नक्रियानिवर्ति कहते हैं। इस ध्यानको करनेवाला मुनि सम्पूर्ण आस्रव और बन्धका निरोध करता है। सम्पूर्ण ज्ञान, दशन और यथाख्यातचारित्र की प्राम करता है और ध्यान रूपी अग्निके द्वारा सर्व कम मलका नाश कर के निर्माणको प्रान करता है। सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति और बुपरतक्रियानिवति ध्यानमें यद्यपि चिन्ताका निरोध नहीं है फिर भी उपचारसे उनको ध्यान कहते हैं। क्योंकि वहाँ भी अधातिया कर्मकि नाश करने के लिये योगनिरोध करना पड़ता है । यद्यपि केवलीके ध्यान करने योग्य कुछ भी नहीं है फिर भी उनका ध्यान अधिक स्थितिवाले फर्मोकी सम स्थिति करने के लिये होता है। ध्यानसे प्राप्त होने वाला निर्वाण सुख है । मोहनीय कर्म के क्षयसे सुख,दर्शनावरण के क्षयसे अनन्त दर्शन,शानावरण के क्षयसे अनन्तज्ञान, अन्तरायके सबसे अनन्तवीर्य, श्रायुके क्ष्यसे जन्म-मरणका नाश, नामके क्षयसे अमूर्तत्व, गोत्रके क्षयसे नीच ऊँच कुलका क्षय और वेदनीयके क्षयसे इन्द्रियजन्य अशुभका नाश होता है। पक इष्ट वस्तुमे जो स्थिर बुद्धि होती है उसको भ्यान कहते हैं। पारी, रौद्र और धर्म्य ध्यानोंकी अपेक्षा जो चन्चल मप्ति होती है उसको चित्त, भावना, अनुप्रेक्षा, चिन्तन, ख्यापन आदि कहते हैं। निर्जरामें न्यूनाधिकताका वर्णनसम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोरक्षपकोपशमकोपशान्तमोह क्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ।। ४५ ॥ सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धीका विसंयोजक, दर्शनमोहका क्षय करने बाला, चारित्रमोहका उपशम करने वाला, उपशान्तमोहवाला, क्षपक-झीपमोह और जिनेन्द्र भगवान् इन सबके क्रमसे असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९।४६] नवम अध्याय ५०३ कोई जीव बहुत काल तक एकेन्द्रिय और विकलत्रय पर्यायों में जन्म लेनेके बाद पश्चान्द्रय हाकर काल लब्धि आदिकी महायतासे अपूबकरण आदि विशुद्ध परिणामांको प्राप्त कर पहिलेकी अपेक्षा कर्मोको अधिक निर्जरा करता है। वहीं जीव सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर पहिलेसे असंख्यातगुणा निर्जराको करता है। वहीं जीव अप्रत्याख्यानावरण कपायका क्षयोपशम करके श्रावक होकर पहिलेने असंख्यातगुणी निर्जरा करता है। वही जीव प्रत्याख्यानावरण कषायका क्षयोपशम करके बिरत होकर पहिलसे असंख्यालगुणी निजरा करता है । वही जीव अनन्तानुबन्धी चार कपायोंका विसंयोजन (अनन्तानुवन्धी कषायको अप्रत्याख्यान आदि कषाय परिणत करना) करके पहिलसे असंख्याप्तगुणी निर्जरा करता हैं। वही जीव दर्शनमोहकी प्रकृतियोंको क्षय करनेकी इच्छा करता हुआ परिणामोंकी विशुद्धिको प्राप्त कर पहिलेसे अस्थातगुणो निर्जरा करता है। वही जीव जायिक सम्य दृष्टि होकर श्रेणी चढ़नेके अभिमुख होता हुआ चारित्र मोहका उपशम करके .पहिलम असंख्यातगुणी निर्जरा करता है । वही जोव सम्पूर्ण चारित्रमोहक, उपशम करनेक निमित्त मिलने पर उपशान्तकषाय नामको प्राप्त कर पहिल्स असंख्यातगणी निर्जरा करता है। वही जीव चारित्रमोहके क्षय करनेमें तत्पर होकर क्षयक नामको प्राप्त कर पहिल्स असल्यानगुणी मिर्जरा करता है । वही जीव सम्पूर्ण चारित्रमादको क्ष्य करनेवाले परिणामीको प्राप्तकर मार्गदर्शक :- अक्वाय अमीरोगाधिकार आरमशासारणी निर्जराको करता है। और वही जीव यातिथा काँका नाश करके जिन संज्ञाको प्राप्त कर पहिलने असंख्यातगुणी निर्जराका करता है । निग्रन्थोंक भेद--- पुलाकबकुशकुशीलानन्धम्नातका निर्ग्रन्थाः ।। ४६ ।। पुलाक, बकुश, कुशील, निग्रन्थ और स्नातक थे साधुओंके पाँच भेद है। जो उत्तर गुणांकी भावनासे रहित हों तथा जिनके मल गणों में भी कभी कभी दोप लग जाता हो उनका पुलाक कहते हैं। पुलाकका अर्थ है मल साहिन तण्डुल। पुलाफके समान कुछ दोषसहित होनेसे मुनियोंको भी पुलाक कहने हैं। जो मूलगुणोंका निर्दोष पालन करते हैं लेकिन शरीर और उपकरणों की शोभा बहानेको इच्छा रखते हैं, और परिवार में माह रखते हैं, उनको वकुश कहत हैं। बकुशका अथ है शवल । चितकबरा ।। कुशील के दो भेद हैं--प्रतिसेवनाकुशोल और कषायकुशील । जो उपकरण तथा शरीर आदिले पूर्ण विरक्त न हों तथा जो मूल और उत्तर गुणोंका निदोष पालन करते हों लेकिन जिनके उत्तर गुणोंकी कभी कभी विराधना हो जाती हो उनको प्रतिसेवनाकुशील कहते हैं। अन्य कषायों का जीत लनेके कारण जिनके केवल संज्वलन कपायका ही उदय हो उनको कषायकुशील कहते हैं। जिस प्रकार जलमें लकड़ीकी रेखा प्रकट रहती है उसी प्रकार जिनके कर्मों का उदय अप्रकद हो और जिनको अन्तमुहूत में कयल ज्ञान उत्पन्न होने वाला हो उनको निग्रन्थ कहते हैं। घातिया काँका नाश करने वाल कवली भगवानको स्नातक कहते हैं । याप चारित्रके तारतम्यक कारण इनमें भेद पाया जाता है लेकिन नंगम आदि नय की अपेक्षासे इन पांचो प्रकारकं साधुओंको निर्घन्ध कहते है। Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज [ २१४७ ५०४ तार्थवृत्ति हिन्दी-सार लाक आदि मुनियोंमें विशेषता संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थं लिङ्ग लेश्योपपादस्थानविकल्पतः साध्याः ॥ ४७ ॥ संयम, श्रुत, प्रतिसेवन, तीर्थं, लिङ्ग, लेश्या, उपपाद और स्थान इन आठ अनुयोगक द्वारा पुलाक आदि मुनियों में परस्पर विशेषता पाई जाती है। मुलाक, चकुश और प्रतिसेवनाकुशील इन मुनियोंके सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्र होते हैं। कषायकुशील के यथाख्यात चारित्रको छोड़कर अन्य चार चारित्र होते हैं। निर्मन्थ और स्नातकके यथाख्यात चारित्र होता है । उत्कृष्टसे पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील मुनि अभिन्नाक्षर शपूर्वके शता होते हैं। अभित्राक्षरका अर्थ है - जो एक भी अक्षर से न्यून न हो। अर्थात् उक्त मुनि दश पूर्व के पूर्ण ज्ञाता होते हैं । कषायकुशील और निर्मन्थ चौदह पूर्व के ज्ञाता होते हैं। जघन्यसे पुलाक याचार शाखका निरूपण करते हैं। वकुश, कुशील और निर्मन्थ आठ प्रवचन ओंका निरूपण कहते हैं। पाँच समिति और तीन गुतियों को आठ प्रवचन मातृका कहते हैं। स्नातकों के केवलज्ञान होता है, श्रुस नहीं होता । व्रतों में दोष लगनेको प्रतिसेवना कहते हैं। पुलाकके पाँच महाव्रतों और रात्रि भोजन त्याग में विराधना होती है। दूसरे के उपरोधसे किसी एक व्रत की प्रतिसेवना होती है। अर्थात् वह एक व्रतका त्याग कर देता है। प्रश्न - रात्रिभोजन त्याग में विराधना कैसे होती है ? उत्तर – इसके द्वारा श्रावक आदिका उपकार होगा ऐसा विचारकर पुलाक मुनि विद्यार्थी आदिको रात्रिमें भोजन कराकर रात्रिभोजनत्याग व्रतका विराधक होता है। के दो भेद हैं--उपकरण बकुश और शरीरवकुश । उपकरणवकुश नाना प्रकार के संस्कारयुक्त उपकरणोंको चाहता है और शरीरबकुश अपने शरीर में तेलमर्दन आदि संस्कारोंको करता है, यही दोनोंकी प्रतिसेवना हैं । प्रतिसेवनाकुशील मूलगुणोंकी विराधना नहीं करता है किन्तु उत्तर गुणकी विराधना कभी करता है इसकी यही प्रतिसेवना है । यशील, निर्मन्थ और स्नातकके प्रतिसेवना नहीं होती है। ये पाँचों प्रकार के मुनि सब तीर्थंकरों के समयमें होते हैं । लिङ्गके दो भेद हैं- द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग । पाँचों प्रकारके मुनियों में भावलिङ्ग समान रूप से पाया जाता हैं । द्रव्यलिङ्गकी अपेक्षा उनमें निम्न प्रकार से भेद पाया जाता है। 'कोई असमर्थ मुनि शीतकाल आदिमें कम्बल आदि वस्त्रों को ग्रहण कर लेते हैं लेकिन उस वस्त्रको न धोते हैं और न फट जाने पर सीते हैं तथा कुछ समय बाद उसको छोड़ देते हैं । कोई मुनि शरीर में विकार उत्पन्न होने से छज्जाके कारण वस्त्रोंको ग्रहण कर लेते हैं।' इस प्रकारका व्याख्यान भगवती आराधना में अपवाद रूपसे बतलाया है। इसी आधारको मानकर कुछ लोग मुनियों में सचेलता ( वस्त्र पहिरना ) मानते हैं। लेकिन ऐसा मानना ठीक नहीं है। कभी किसी मुनिका वा धारण कर लेना तो केवल अपवाद है उत्सर्ग मार्ग तो अचेलकता ही है और वही साक्षात् मोक्षका कारण होती हैं। उपकरणकुशील मुनिकी अपेक्षा अपवाद मार्गका व्याख्यान किया गया है अर्थात् उपकरणकुशील मुनि कदाचित् अपवाद मार्ग पर चलते हैं । पुलके पीस, प और शुक्ल ये तीन लेश्याएँ होती हैं । अकुश और प्रतिसेवनाकुशी के छह लेश्यायें होती हैं । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] नश्रम अध्याय प्रश्न – बकुश और प्रतिसेवनाकुशीलके कृष्ण,नील और जापान ये तीन लेश्याएँ केस होती हैं? उत्तर--पुलाकक उपकरणों में आसक्ति होनस और प्रतिसंचनाकुशीलके उत्तरगुणी मं त्रिराधना होने के कारण कभी आध्यान हो सकता है । अतः आर्तभ्यान होनेसे आदिकी नोन लेश्याओंका होना भी संभव है। पुलाकक आतध्यानका कोई कारण न होनेसे अन्नकी तीन लेश्याएँ ही होती हैं। कषायकुशीलके अन्तको चार लेश्याएँ ही होती हैं। कपायकशीलके संचलन कषायका उदय हानेस कापोत लेश्या होती है। निमंन्ध और स्नातकके केवल शुक्ल लश्या ही होती हैं । अयोगबली के लेश्या नहीं होती है। उत्कृष्ट ले, पुलाकका अठारह सागर की स्थितिवशले. सहस्रार स्वर्गके देवीमें उत्पाद होता है । वकुश और प्रतिसेवनाकशीलका बाईस सागर की स्थितिवाल आर और अच्युत स्वर्ग के देवों में उत्पाद होता है। कषायकुशील और निग्रन्थोंका तेंतीस सागरकी स्थितिवाल, सर्वार्थसिद्धिके देवों में उत्पाद. हाता है। सबका जघन्य उपपाद दा सागरका स्थितिवाले सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के देवों में होता है। स्नातकका उपपाद मोक्षमें होता है। ___ कपायके निमिससे होने वाले संयम स्थान असंख्यात है। पुलाक और कषायकुशीलके सर्वजघन्य असंख्यात संथम स्थान होते हैं। वे दोनों एक साथ असंख्यात स्थानों तक जाते हैं, बादमें पुलाक साथ छोड़ देता है, इसके बाद कषायकुशील अकेला ही असंख्यात स्थानों तक जाता है। पुनः । शोल, प्रतिसेवनाक र बकुश श्री सुविधासागर ज एक साथ असंख्यात स्थानों तक जाते है। बाद में बकुश साथ छोड़ देता है। और असंघात स्थान जाने के बाद प्रति सबनाकुशोल भी साथ छोड़ देता है । पुनः असंख्यात स्थान जानेके बाद कषायकुदाल को भी निवृत्ति हो जाती है। इसके बाद निर्यन्य असंख्यात अकषायनिमित्तक संयम स्थानों तक जाता है और बाद में उसकी भी निवृत्ति हो जाती है । इसके अनन्तर एक संयम स्थान तक जानेक बाद स्नातकको निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है । स्नातक की संयमलनिध अनन्तगुण होती है। "मागदर्शक:-. अपाय महाराज नवम अध्याय समाप्त Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ अध्याय आचार्य श्री सुविधितानको कारण मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाञ्च केवलम् ।। १ ।। मोहनीय कर्मक्षय होनेसे, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायके क्षय होन तथा 'च' शब्द से तीन आयु और नामकर्मकी तेरह प्रकृतियोंके क्षय होने से केवल जान उत्पन्न होता है । मार्गदर्शक -- मोहनीयकी अठाईस, ज्ञानावरणकी पांच दर्शनावरणकी नौ और अन्तरायकी पाँच प्रकृतियों के क्षय होनेसे देवायु, तिर्यगायु और नरकायुकं क्षय होनेसे तथा साधारण, आतप, पञ्चेन्द्रियके बिना चार जाति, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, स्थावर, सूक्ष्म. तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी और उद्योत इन तेरह नामकर्मको प्रकृतियोंक क्षय होनेसे ( एकत्र सक प्रकृतियोंके क्षय से ) केवलज्ञान उत्पन्न होता है । प्रश्न- 'मोहज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयात् केवलम् ऐसा लघु सूत्र क्यों नहीं बनाया? उत्तर – कर्मके क्षयका क्रम बतलाने के लिये सूत्र में 'मोहक्षयात्' शब्दको पृथक रक्खा है । पहिले मोहनीय कर्मका क्षय होता है और अन्तर्मुहूर्त बाद ज्ञानावरणादिका क्षय होता है । कर्मों के क्षयका क्रम इस प्रकार है I भव्य सम्यग्दृष्टि जीव अपने परिणामोंकी विशुद्धि से असंयत सम्यग्दृष्टि, देशसंयत. प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संयत गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धी चार पाया और दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियोंका क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है । पुनः अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में अधःकरण परिणामको प्राकर क्षपकश्रेणी चढ़ने के अभिमुख होता हुआ अपूर्वकरण परिणामोंसे अपूर्वकरण गुणस्थानको प्राप्त करके शुभपरिणामों से पापकमाँकी स्थिति और अनुभागको कम करता है और शुभ कर्मों के अनुभागको बढ़ाता है पुनः अनिवृत्तिकरण परिणामों से अतिवृत्तित्रादरसाम्पराय गुणस्थानको प्राप्त कर प्रत्याक्यान कषाय धार, अप्रत्याख्यान कषाय चार, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य, रति, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुंवेद, क्रोध, मान और मायासंध्यनका वादरकृष्टि (उपायके द्वारा जिन कमी निर्जरा की जाती है उन कमको किट्टि या कृष्टि कहते हैं । किट्टि के दो हैं - बादरकृष्टि और सूक्ष्मदृष्टि) द्वारा क्षय करके लोभसंज्वलनको कृश करके सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक गुणस्थानको प्राप्त करता है । पुनः मोहनीयका पूर्ण क्षय करके क्षीणकषाय गुणस्थानको प्राप्तकर इस गुग्णस्थानके उपान्त्य समय में निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंकाय करके और अन्त्य समय में पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायों का क्षय करके जो केवलज्ञान और केवलदर्शनको प्राप्त करता है । मोक्षका स्वरूप और कारण - बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः || २ || बन्धके कारणों का अभाव (संबर) और निर्जराके द्वारा सम्पूर्ण कमौके नाश हो जाने को मोक्ष कहते हैं। Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-१३ ] दसवाँ अध्याय あな बन्धके कारण मिध्यादर्शन आदिके न रहनेसे नवीन कर्मोंका आस्रव नहीं होता है और निर्जराके द्वारा संचित कमका क्षय हो जाता है इस प्रकार संचर और निर्जराक द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है । कमका क्षय दो प्रकारसे होता है- प्रयत्नसाध्य और अप्रयत्नसाध्य जिस कर्मक्षय के लिये प्रयत्न करना पड़े वह प्रयत्नसाध्य है और जिसका क्षय स्वयं विना किसी प्रयत्न के हो जाय वह अयन साध्य कर्मक्षय है। 1 चश्मोतमदेहधारी जीव के नरकायु, तिर्यञ्चायु और देवायुका भय अप्रयत्नसाध्य है । प्रयत्नसाध्य कर्मक्षय निम्न प्रकार से होता है 1 अय हरता चौथे, पाँचवे छठवें और सातवें गुणस्थानों से किसी एक गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी चार कषाय और दशन मोहकी तीन प्रकृतियों का क्षय होता है। अनिवृत्तिबादर साम्पाय गुणस्थानके नव भाग होते हैं। उनमें से प्रथम भाग में निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्यानगृद्धि, नरकगति, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रियपर्यन्त चार जाति, नरकगत्यानुपूर्वी नियंगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियोंका क्षय होता है। द्वितीय भाग में प्रत्याख्यान चार और अप्रत्याख्यान चार इन आठ कपायोंका क्षय होता है। तीसरे भाग में नपुंसक वेदका और चौथे भागमें जीवेदका क्षय होता है। पाँचवें भाग में भागमें बंदका क्षय होता है। "नवने भागने क्रम क्रोध मान और माया संज्वलनका तय होता है। सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें लाभसंज्वलनका नाश होता है। बारहवें गुणस्थानके उपान्त्य समय में निद्रा और प्रचलाका नाश होता है और अन्त्य समय में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायोंका क्षय होता है । सयोगकेवली के किसी भी प्रकृतिका क्षय नहीं होता है। अयोगकेवली गुणस्थानके उपान्त्य समय में एक वेदनीय. देवगति, पाँच शरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघात, छह संस्थान, तीन अङ्गोपाङ्ग, छह सहन्न. पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात उच्छ्वास, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्ति. प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर शुभ अशुभ, दुभंग, सुस्वर, दुःश्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति, निर्माण और नीचगांव इन बहत्तर प्रकृतियों का क्षय होता है और अन्त्य समयमें एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगानुपूर्वी, पञ्चेन्द्रिय जाति, स वावर, पर्याप्त, सुभग, आदेय यशः कीर्ति, तीर्थंकर और उच्चगोत्र इन तेरह प्रकृतियों का क्षय होता है । 'क्या द्रव्य कमों के क्षयसे ही मोक्ष होता है अथवा अन्यका क्षय भी होता है : स प्रश्न के उत्तर में आचार्य निम्न सूत्रको कहते हैं औपशमिकादिमव्यत्वानाश्च ॥ ३ ॥ औपशमिक, श्रदयिक, क्षयोपशमिक और भव्यत्व इन चार भावोंक क्षयमे मोक्ष होता है । 'च' शब्दका अर्थ है कि केवल द्रव्यकमों के क्षयसे ही मोक्ष नहीं होता है किन्तु द्रव्यकमों के क्षय के साथ भावकर्मों के क्षयसे मात्र होता है। पारिणामिक भावोंमेंसे भव्य काही क्षय होता है; जीवत्व, वस्तुत्व, अमूर्तत्व आदिका नहीं। यदि मोक्ष में इन भाका भी क्षय हो जाय तो मोक्ष शून्य हो जायगा । मोक्ष में अभव्यत्व के क्षयका तो प्रश्न ही नहीं हो सकता है क्यों कि भव्य जीवको ही मोक्ष होता है । Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार १०१४-६ प्रश्न- द्रव्यकर्म के नाश हो जाने पर द्रव्यकर्मके निमित्तसे होनेवाले भावोंका नाश भी स्वयं सिद्ध हो जाता है। अतः इस सूत्रको बनानेकी क्या आवश्यकता है ? उत्तर - यह कोई नियम नहीं है कि निमित्त के न होने पर कार्य नहीं होता है । किन्तु निमित्त के अभाव में भी कार्य देखा जाता है जैसे दण्ड, चक्र आदिके न होने पर भी घट देखा जाता है | अतः द्रव्यकर्मक नाश हो जाने पर भावकर्मीका नाश भी हो जाता है। इस बात की स्पष्ट करने के लिये उक्त सूत्र बनाया है । मोक्षमें क्षायिक भावका क्षय नहीं होता है-अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्यः ॥ २०८ ४ ॥ इन चार भावका मोक्ष में केवलसम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्ध क्षय नहीं होता है । प्रश्न- तो फिर मोक्ष अनन्तवीर्य, अनन्तसुख आदिका क्षय हो जायगा । उत्तर - अनन्तषीर्य, अनन्तसुख आदिका अन्तर्भाष ज्ञान और दर्शनमें ही हो जाता हैं । अनन्तवीर्य आदि रहित जीवके केवलज्ञान आदि नहीं हो सकते हैं। अतः केवलate आदि सहायसे अनन्तवीर्य आदिका भी सद्भाव सिद्ध है । मार्गदर्शन -- शिरोवर क्यों नहीं हो जायगा ? उत्तर- सिद्धों की आत्मा के प्रदेश चरमशरीर के आकार होते हैं अतः उनका प्रभाव कहना ठीक नहीं है। प्रश्न – कर्मसहित जीवके । प्रदेश शरीरके आकार होते हैं । श्रतः शरीरका नाश हो जाने पर जोके असंख्यात प्रदेशोंको लोक भर में फैल जाना चाहिये । उत्तर - नोकर्मका सम्बन्ध होने पर जीवके प्रदेशों में संहरण और विसर्पण होता है और नोर्मका नाश हो जाने पर उनका संहरण-विसर्पण नहीं होता है । प्रश्न- तो जिस प्रकार कारणकै न रहने पर प्रदेशों में संहरण और विसर्पण नहीं होता है उसी प्रकार ऊर्ध्वगमनका कारण न रहने पर मुक्त जीवका ऊर्ध्वगमन भी नहीं होगा। अतः जीव जहां मुक्त हुआ है वहीं रहेगा । उत्तर---मुक्त होनेके बाद जीवका ऊर्ध्वगमन होता है। ऊर्ध्वगमनके कारण आगे बतलाये जायगे । तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्या लोकान्तात् ॥ ५ ॥ कर्मों के क्षय हो जाने के बाद जीष लोकके अन्तिम भाग तक ऊपरको जाता है और वहाँ जाकर सिद्ध शिलापर ठहर जाता है । ऊर्ध्वगमनके कारण — पूर्व प्रयोगादसङ्गत्वाद् बन्धच्छेदातथागतिपरिणामाच्च ||६॥ पूर्वके संस्कारसे, कर्मके सङ्गरहित हो जानेसे, अन्धका नाश हो जानेसे और ऊर्ध्वमनका स्वभाव होनेसे मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन करता है । संसारी जीवने मुक्त होने से पहिले कई बार मोक्ष की प्राप्ति के लिये प्रयत्न किया है । अतः पूर्वका संस्कार रहने से जीव ऊर्ध्वगमन करता है। जीव जब तक कर्मभारसहित रहता है तब तक संसार में बिना किसी नियमके गमन करता है और कर्मभारसे रहित हो Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०।७-९] इसवाँ अध्याय ५०१ जाने पर ऊपरको ही गमन करता है। अन्य जन्मके कारण गति, जाति आदि समस्त फर्मबन्धके नाश हो जामेसिखीय समारती अविहिवागमम जीयका स्वभाव अर्ध्वगमन करनेका बतलाया है अतः कर्मा के नष्ट हो जाने पर अपने स्वभावके अनुसार जीवका ऊर्मगमन होता है। ये ऊर्ध्वगमनके चार कारण हैं। उक्त चारों कारणों के चार दृष्टान्तश्राविकुलालचक्रवचपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजबदग्निशिखाबच्च ॥ ७॥ घुमाये गये कुम्हार के चक्केको तरह, लपरहित तूंबीकी तरह, एरण्ड के बीजकी तरह ओर अग्निको शिखाकी तरह जीव ऊर्धगमन करता है। जिस प्रकार कुम्हारके हाथ और दण्डेसे चाकको एक बार घुमा देने पर वह चाक पूर्वसंस्कारसे बराबर घूमता रहता है उसी प्रकार मुक्त जीव पूर्व संस्कारसे ऊर्ध्वगमन करता है। जिस प्रकार मिट्टोके लेपसहित तू बी जलमें डूब जाती है और लेपके दूर होने पर ऊपर आ जाती है उसी प्रकार कमलेपरहित जीव ऊर्ध्वगमन करता है। जिस प्रकार परण्ड (अण्ड) वृक्षका सूखा योज फलीके फटने पर ऊपरको जाता है उसी प्रकार मुक्त जीव कर्मबन्ध रहित होनेसे ऊर्ध्वगमन करता है । और जिस प्रकार बायु रहित स्थानमें अग्निकी शिखा स्वभावसे ऊपरको जाती है उसी प्रकार मुक्त जीय भी स्वभावसे ही अर्ध्वगमन करता है ! प्रश्न-सङ्ग और बन्ध में क्या भेद है ? उत्तर-परस्पर संयोग या संसर्ग हो जाना सा है और एक दूसरे में मिल जाना-एक रूपमें स्थिति बन्ध है। प्रश्न-यदि जीवका स्वभाव ऊर्ध्वगमन करनेका है तो लोकके बाहर अलोकाकाश में क्यों नहीं चला जाता ? उत्तर-धमास्तिकायका अभाव होनेसे जीय अलोकाकाशमें नहीं जाता है। धर्मास्तिकायाभावात् ॥ ८ ॥ गमनका कारण धर्म द्रव्य है । और अलोकाकाशमें धर्म द्रव्यका अभाव है। अतः आगे धर्म द्रव्य न होनेसे जीव लोकके बाहर गमन नहीं करता है । जीवका स्वभाव ऊर्यगमन करनेका है अतः लोक में धर्मध्वके होने पर भी जीव अधोगमन या नियमामन नहीं करता है किन्तु ऊर्ध्वगमन ही करता है। मुक्त जीवोंमें भेदकं कारण-- क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचारित्र प्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तर संख्याल्पयहुत्वतः साध्याः ।।९।। क्षेत्र, काल, गति, लिङ्ग,नीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्ध,बोधितयुद्ध, झान,अवगाहन, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व इन बारह अनुयोगोंसे सिद्धों में भेद पाया जाता है। क्षेत्र आदिका भेद निश्चयनय और व्यवहारनयको अपेक्षासे किया जाना है। क्षेत्रकी अपेक्षा निश्चयमयी जीष आत्माके प्रदेशरूप क्षेत्रमें ही सिद्ध होता है और व्यवहारनयसे आकाशके प्रदेश में सिद्ध होता है। जन्मकी अपेक्षा पन्द्रह कर्म भूमियों में सिद्ध होता है और संहरणकी अपेक्षा मनुष्य लोकमें सिद्ध होता है । संहरण दो प्रकारसे होता है-विकृत और परकृत । चारण विद्याधरोंके स्वकृत साहरण होता है । तथा Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० नत्रांत हिन्दी-सार [ १६ आदि पूर्व देव आदि द्वारा किया गया अन्य मुनियोंका संहरण परकृत संहरण है। देव के कारण किसी मुनिको उठाकर समुद्र आदि में डाल देते हैं। इसीको संहरण या हरण करना कहते हैं। जिस क्षेत्र में जन्म लिया हो उसी क्षेत्र से सिद्ध होनेको जन्मसिद्ध कहते हैं । किसी दूसरे क्षेत्र में जन्म लेकर संहरण से अन्य क्षेत्र में सिद्ध होतेको संहरण सिद्ध कहते हैं । कालकी अपेक्षा नियनयसे जीव एक समय में सिद्ध होता है। व्यवहारजय से जन्मकी अपेक्षा सामान्य रूप से उत्सर्पिणी और अवसर्पिणो कालमें उत्पन्न हुआ जीव सिद्ध होता है और विशेषरूप से अवसर्पिणी कालके तृतीय कालके अन्त में और चौथे कालमें उत्पन्न हुआ जीव सिद्ध होता है, और चौथे कालमें उत्पन्न हुआ जीव पांचवें कालमें सिद्ध होता है। लेकिन पाँचवें कालमें उत्पन्न हुआ जीव पाँचवें कालमें सिद्ध नहीं होता है। तथा अन्य कालों में उत्पन्न हुआ जीव भी सिख नहीं होता है। संहरणकी अपेक्षा सर्व उत्सर्पिणी और सर्पिणी कालमें सिद्धि होती है । गतिकी अपेक्षा सिद्धगति या मनुष्यगति में सिद्धि होती है। लिङ्गकी अपेक्षा निश्चयनयसे वेद के अभाव से सिद्धि होती हूँ। व्यवहारनयसे तीनों भाववेदोंसे सिद्धि होती है लेकिन द्रव्यवेदकी अपेक्षा पुंवेषसे ही सिद्धि होती है। अथवा निर्मन्थलिङ्ग या समन्थलिसे सिद्धि होती है ( भूतपूर्वनयको अपेक्षा ) । तीर्थकी अपेक्षा कोई तीर्थंकर होकर सिद्ध होते हैं और कोई सामान्य केवली शंकर सिद्ध होते हैं। सामान्य केवली भो या तो किसी तीर्थंकर के रहने पर सिद्ध होते हैं अथवा मार्गदर्शक के आधायते राज चारित्रको अपेक्षा यत्राख्यातचारित्र अथवा पांचों चारित्र सिद्धि होती है । कोई स्वयं संसार से विरक्त होकर ( प्रत्येकबुद्ध होकर ) सिद्ध होते हैं और कोई दूसरे के उपदेश विरक्त होकर (बोधितबुद्ध होकर सिद्ध होते हैं । ज्ञानकी अपेक्षा निश्चय नयसे केवलज्ञान से सिद्धि होती है और व्यवहारयसे मति श्रुत आदि दो. तीन या चार ज्ञानों में भी सिद्धि होती है। इसका तात्पर्य यह है कि केवलज्ञान होने से पहिले व्यक्ति दो तीन या चार ज्ञान हो सकते हैं ; शरीरको ऊँचाईको अवगाहना कहते हैं। अवगाहना के दो भेद है-- उत्कृष्ट और जन्य | सिद्ध होने वाले जीवोंकी उत्कृष्ट अवगाहना सवा पांच सौ धनुष है और जघन्य अवगाहना साढ़े तीन हाथ है। जो जी सोलहवें वर्ष में सात हाथ शरीर वाला होता है वह आठवें वर्ष में साढ़े तीन हाथ शरीर वाला होता है और उस जीवकी मुक्ति होती है। मध्यम अवगाहना अनन्त भेद हैं। यदि जीव लगातार सिद्ध होते रहें तो जघन्य दो समय और उत्कृष्ट आठ सययका अनन्तर होगा अर्थात् इतने समय तक सिद्ध होते रहेंगे । और यदि सिद्ध होने में व्यवधान पड़ेगा तो जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मासका अन्तर होगा । संख्याको अपेक्षा जघन्यसे एक समय में एक जीव सिद्ध होसा है और उत्कृष्टमे एक समय में एक सौ आठ जीव सिद्ध होने हैं। क्षेत्र आदि में सिद्ध होनेवाले जीवोंकी परस्पर में कम और अधिक संख्याको अल्पagro neते हैं। क्षेत्र अपेक्षा अल्पबहुत्व - निश्चय नयकी अपेक्षा सब जीव सिद्ध क्षेत्र में सिद्ध होते हैं अतः उनमें अल्पबहुत्य नहीं है व्यवहार नयकी अपेक्षा उनमें अस्प F इस प्रकार है । Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ अध्याय क्षेत्र में सिद्ध दो प्रकार से होते हैं-जन्मसे और संहरणसे। सहरणसिद्ध अल्प है और जन्मसिद्ध उनसे संख्यातगुणे है । क्षेत्र के कई भेद है- कर्मभूमि, अकर्मभूमि, समुद्र, द्वीप, अलोक, अधोलोक और तिर्यग लोक । उनमें से ऊर्ध्वलोकसिद्ध अल्प हैं, अधोलोकसिद्ध उनसे संस्थातगुणे हैं और तिर्यक्लोकसिद्ध उनसे संख्यातगुणे है । समुद्रसिद्ध सबसे कम हैं और द्वीपसिद्ध उनसे संख्यातगुणे हैं। विशेषरूपसे लवणोदसिद्ध सबसे अल्प हैं, कालोद सिद्ध उनसे संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार जम्बूद्वीपसिद्ध, धातवीखजद्वीपसिद्ध और पुष्कराचंद्वीपसिद्ध क्रमस मंख्यातगुणे संख्यासगुणे अधिक है । कालकी अपेक्षा अल्पबहुत्व-निश्चय नयसे जीव एक समयमें सिद्ध होते हैं अतः अन्यबहुत्व नहीं है । व्यवहारनयसे उत्सर्पिणी कालमें सिद्ध होनेवाले अलर हैं और अवसर्पिणी काल में सिद्ध होनेवाले उनमें कुछ अधिक है। अनुत्सर्पिणी काल में सिद्ध होनेवाले उनसे कुछ अधिक है । और अनुत्सर्पिणी तथा अनयामशीकाल में सिनहोनेवावेशितााणे राज गतिकी अपेक्षा अल्पबहुत्व-निश्चयनयसे सिय सिद्धगतिमें सिद्ध होते हैं अतः अल्पबहुत्व नहीं है। व्यवहारनयसे भी अल्पाहुन्य नहीं है क्योंकि सब मनुष्यगति से सिद्ध होते हैं। कान्तरगति (जिसगतिसे मनुष्यगतिमें श्राकर मोक्ष प्राप्त किया हो) की अपेक्षा अल्पबहुत्व इस प्रकार है--तिरगतिसिद्ध अत्यल्प है। मनुष्यगतिसिद्ध उनसे संख्यातगुणे हैं। नरकगतिसिद्ध उनसे संख्यातगुणे है। और देवगतिसिद्ध उनसे संख्यातगुणे हैं। वेदकी अपेक्षा अल्पबहुत्य-निश्चय नयसे सब अवेरसे सिद्ध होते हैं अतः अल्पघहुस्व नहीं है । व्यवहार नयसे नपुंसकवेद सिद्ध सबसे कम है। स्त्रोवेदसिद्ध उनसे संख्यातगुणे हैं और पुंवेमसिद्ध उनसे सस्यासगुणे हैं। कहा भी है "नपुंसकवेवाले बीस, स्त्रीचाले चालीस और पुरुषवेदयाले अड़तालीस जीय सिस होते हैं। इसी प्रकार आगम के अनुसार वीर्थ चारित्र, आदिकी अपेक्षा अल्पबहुत्व जान रना चाहिये। दमयाँ अध्याय समाप्त Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्त्वार्थसूत्राणामकारादिकोशः पृष् ९।३० ९।२८ ६८ ४/२ ८.१४ ८४ ३१३६ ४१३२ ९२२ १०७ । ४४ ६१५ पृष्ट २४३ अगार्य नगारश्न १७८ अजीवकाया धमाचौकाश१६८ अगवः स्कन्धाश्च २४३ अणुनतोऽगार्ग २७८ अतोऽन्यत्पापम २४० अदत्तादानं स्तेयम २१५ अधिकरणं जीवाजीवा: ३०३ अनशनावमोद१०५ अनन्तगुणे परे ३२१ अन्यत्र केवलसम्यस्त्व१०६ अनादिसम्बन्धेच २८२ अमित्याशरण१. अनुश्रेणि गतिः २५५ अनुमहार्थ स्वस्यातिसगों दानम् २७४ अपरा द्वादशमुहूर्ता १७५ अपरा पल्योपममधिकम् १०६ अप्रतिपाते २५३ अप्रत्यवेक्षितानमार्जित:६३ अर्थस्य २.२ अर्पितानर्मितसिद्धेः २२६ अपारम्परिग्रहत्व ६२ अवग्रहहावावधारणा ० अविगहा डीवस्य ३११ अविचार द्वितीयम् २३९ सदभिधानमन्तम १८३ असयेयाः प्रदेशा १८६ असनस्ययभागादिषु १८१ श्रा अाकाशादेकद्रन्यागि १८३ आकाशस्यानन्ताः १८९त्राकाशस्वावगाह: ३०४ आचायोपाध्यागतपस्वि३०१ श्राशायायविपाकर्मस्थान-- ७१६, ३०७ मार्गममनोज्ञस्य | ३.६ श्रातरौद्रधबंशुक्लानि ५२५ । २१६ श्राद्य संरम्भसमारम्भ७२. १५४ श्रादितस्त्रिषु पीतान्तलेश्याः २७२ श्रादितस्तिषणामन्तरायस्य च १५ । ५९ श्राये परीक्षम २६२ श्रायो ज्ञानदर्शनावरण २५२ श्रानयनप्रेष्यप्रयोग३९ | १४६ श्रार्या म्लेच्छाश्च १०१४ । १७५ श्रारणाच्युतादूवमेकैकन २४१ | ३०२ श्रालोचनप्रतिक्रमण ३२२ श्राविद्धकुलाल चक्रवत् २७९ पासवनिरोधः संवरः ७१३८ । १५५ इन्द्रसामानिकत्रायलिंश८।१८ । २१४ इन्द्रियकरायावतक्रिया ४१३३ २८३ ईर्याभाषेषणादान२४० । २७२ उच्चैनीचैश्च ७।३४ | २८४ उत्तमक्षमामार्ददार्जय१५१७ | ३०५ उत्तमसंहननस्पैकाग्र५।३२ ! १३७ उत्तरा दक्षिणतुल्या: ६।१७ । २०२ उत्पादव्ययधोव्ययुक्तं सत् १।१५ ८५ उपयोगो लक्षणम् २।२७ १६२ उपर्यपरि ९४२ | २५१ ऊ धम्तिर्यग्व्यतिक्रम७/१४ | ७२ ऋविपुलमती मनःपर्ययः ५८ १४२ एकद्वित्रिपन्योपमस्थितयो ५।१५ | १८५ एकप्रदेशादिषु भाज्यः ५/६ | १०१ एकसमयाऽविग्रहा ५१९ । १०१ एकं द्वौ त्रीम्बानाहारका ५।१८ | २९६ एकादश जिने ९।२४ | २१९ एकादयो भाज्या१.३६ ७५ एकादीनि भाज्यानि દ્વા૨૨ ९।६ ९/२७ ३।२६ ૨૮ ४११८ ७.३० श२३ ३।२६ श२९ २०३० ९।११ ३९७ १।३० Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ पृष्ठ ३११ एकाश्रये सवितर्कविचारे १०४ श्रदारिकवैयिकाहारक१७० श्रपपादिकमनुष्येभ्यः १०७ श्रपपादिक वैक्रियिकम् ११० श्रपपादिकचरमोत्तम८१ श्रपशमिकक्षायिका भावी ३२० श्रपशमिकादिभव्यत्वानां च २५२ कन्दर्प कौत्कुच्य मौखर्यासमीक्ष्या१६२ कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च २२३ पायोदयात्ती परिणाम २११ कायमानः कर्म योगः १५६ कायमचीवारा श्री ऐशानात् २०८ कालव ९८ कृमिपिपीलिका भ्रमर २३३ कोलोन भीरुत्व ७१ क्षयोपशमनिमित्तः २९१ क्षुत्पिपासाशीतोष्ण३२३ क्षेत्रका लग तिलिङ्गतीर्थ २५१ क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्ण ८४ गतिकपायलिङ्ग२६८ गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्ग१६७ गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो १८८ गतिस्पिग्र १०७ गर्भसम्मूर्च्छ नजमाद्यम् २०७ गुणपर्ययवद्द्रव्यम् २०४ गुणसाम्ये सदशानाम् २६४ चक्षुरचक्षुवधिकेवलानी ३६ चतुर्दशनदीसह परिवृता २९८ चारित्रमोहे नान्यारति२३७ जगत्का स्वभाव वा १२२ जम्बूद्वीपलवणोदादयः १०३ जराकाण्ड पोतानां गर्भः ८५ जीवभव्या भव्यत्वानि च १७९ जीवाव ६ जीवाजी वास्तववन्धसंबर२५५ जीवितमरणाशंसा३०३ ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः ८२ ज्ञानदर्शनदानलाभ ८३ शानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुः तत्वार्थवृत्ति पृथ् ५११३ ९/४१ २९८ ज्ञानावर प्रजाऽज्ञाने २०३६ १७७ ज्याङ्गार्मुकच आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ४/२७ १५९ ज्योतिकाः सूर्याचन्द्रम ४।१२ २४६ २/५३ २/१ १०१३ ७१३२ ४/१७ ६/१४ १४३ तयन्तराः ६/१ ५/३९ २/२३ ५/१७ २/४५ ५/३८ ५/३५ २७५ ततश्च निर्जरा १६१ तत्कृतः कालविभागः ५८ तत्प्रमाणे ܥܪܐ २१८ तदोपनिब- ४७ ३२१ तदनन्तरमू ३।२३ ६/६५ ७/१२ ३/७ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ९११३ २४ २/५ २३२ तत्स्थैर्यायें भावनाः ७५ तदनन्तभागे मनः पर्यवस्य ७/५ १/२२ 41 १०/९ ७/२९ २१६ २२७ तद्विपरीतं शुभस्य ८/११ अर ३०८ तदविरतदेश विरत१७७ तदभागीऽपरा १०६ तदादीनि भाज्यानि ६१ तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् १३२ तद्विगुणद्विगुणा हृदाः १३५ तद्वि गुणगुणविस्ता-२६ तद्विपर्ययो नोचैत्र चिनुत्सेको १३० विभाजनः पूर्वापरायताः २०१ तदुभावाव्ययं नित्यन २१० तद्भावः परिणामः १३३ तनिवासिन्यो देव्यः श्रीही ५ निसर्गादधिगमात्रा ६२४ तम्मध्ये मेनाभिषु लो १३२ तन्मध्ये योजनं पुष्करम् २८३ तपसा निर्जरा च १४२ ताभ्यामपरा भूमयो ११४ तामु त्रिंशत्चविंशति १५३ तिर्यग्योनिजाना च २१३३ २१५ ती मन्दशताऽज्ञातभावाधिकरण२/७ ११७ वेकसि मदशसप्तदश५३. १०८ तेजसमर्पि १/४ २७४ त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमध्यापुनः ७३७ १५५ शिल्लो कपालयज १७४ त्रिसनचैकादशधयोदश ३१०व्यांगकाययोगायोगानाम २९८ दर्शनमहान्तरात्रयां ८२३ *** १११० ६१५० १/२ ७/३ ३।३० ११२८ १०१५ ९ / ३४ ४१८१ २।४३ १११४ ३|१८ ३१२५ ६/२६ ६।२३ ३।११ ५/३१ ५/४२ ३११९ १.३ ३० ३१५७ ९/३ રા २१३२ ६/३ RIE २ ।४८ ८११७ ४५ ४/३१ ९८० ९।१४ i I Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तत्वार्थसृत्राणागकारादिकोशः - - - - - - - - २६५शनचारित्रमोहनाया-- २२७ दर्शनविशुद्धिविनयमपन्नता१३२ देशयोजनावमाहः १७६ दशवर्षमहस्राणि प्रथमायाम् १५४ दशावपञ्चदादशविकल्पा: २७२ दानलाभभोगोपभोग-- ४३ दिग्देशानदाविरनि२३६ दुःखमेय वा २१९ दुग्यशोकतापाकन्दन१०४ देवनारकाणामुफ्यायः ५४ देवाश्चतुर्णिकायाः २३२ देशसर्वतोऽशुमहतो १७९ दृश्याणि २१. द्रव्याश्रया निगुन्या गुणाः १३८ दूयोर्द्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः ८. विनवाष्टादशैकविंशति१२ द्विििवकन्भाः पूर्वपूर्व१४. विर्धातकीखान १६ द्विविधानि १४ द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः २०५ दूधिकादिगुणानां तु १८. धर्माधर्मयोः कृल्ने ३२२ धर्मास्तिकायाभावात् ६४ न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् २.३ न जघन्यगुणानाम् १०१ न देवाः ३०२ नवचतुर्दशपत्रादि१८४ नाणीः २७ नामगोत्रबार २७६ मामप्रत्यवाः सर्वती ७ नामस्थापनाद्रव्यभाव२६८ नारकतर्यम्यानमानुपदैवानि १०९ नारकस मूछिनो नपुंसकानि १७६ नाराणां च द्वितीया दिए ११५ नारका नित्याशुभतरलेश्या१८१ नियात्रस्थिताम्वरूपाणि ३०७ निदानं च १०७ निरुपभोगमन्त्वम् ९ निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरण-- ८९ २१.७ निवर्तनानिक्षेयस योगनिसा-- घा४ । २७ निवृत्युपकरण द्रव्येन्द्रियम ३।१६ । २४२ निःशुल्यो वती ७/१८ ४।३६ २२५ निश्शीलवतत्वं च मर्वेपाम ४/३ । १८२ मिश्रियाणि च ८३.१५१ नृस्थितीपरावर मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज २।७५ नेगमसंग्रह व्यवहार सूत्र१० । २६३ पञ्चनवदयाथाविशति ८1५ ६/११ १६ पञ्चेन्द्रियाणि २४ १३२ पत्रमहारअतिगिग्छ ३।१४ ४ा? | १७५ परतः परतः पूर्वा ४।३. ७२, २५ । घरविवारगरिका५।२ | १९३ परस्परोयग्रही जवानाम् ५।२१ ५/४१ । ११६ परस्परोदीरितदम्बाः ३१४ ३।२१ । १०: परं पर सूक्ष्मम् २२ । १७६ परा पल्याचमनधिका ३८ । १२२ परात्मनिन्दाप्रशंस ३।३३ । ३५० परे कलिन: २।१६ । १५८ परेऽप्रवीचाराः २।१४ | ३०६ परे मोक्षत २२९ ५।३६ | १६७ पीतपद्मशुक्ललेश्या ४।२२ ५।१३ । ३१४ पुलाकवकुशकुशील १/४६ १०१८ | १४५ पुष्कराई च ३१३४ १२१९ ! ३२१ पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद्५/३४ | १५६ पूर्वयोन्द्राः २।५१ । ३१० पृथक्त्वैकत्ववितर्क ९:३१ २।२१ । ९२ पृथिव्यप्तेजोवायु श१३ ५१११ । २६१ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशा ८३ ८१३९ ५९ प्रत्यक्षमम्बत् १०१२ ८२४ १३२ प्रथमा योजनसहस्रावाम ११५ ! १८५ प्रदेशमंदारविसपाभ्यां ८.१ । १०५ प्रदेशती संख्ययगुग्गं प्राक२५० : २३८ प्रमत्तवोगात् प्राणवापरापमा ४१३५ ८ प्रमाणनयरधिगमः ३३ । १६८ प्राग मवेयय-यः कल्याः ५४ १४६ प्राङ्मामुपोत्तरान्मनुध्याः ११३३ . ३०१ प्रायश्चित्त विनययावृत्य२४४ । २४८ अन्धवधच्छेदातिभारारोपण११७ [ ३१९ बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ पृष्ठ २०६ बन्धेऽधिकारिणामिको १६१ वरिवस्थिताः १३७ भरतः षड्विंशतिपचयोजनशत१३८ भरतैरावतयो 'बिहानी १५० भरतैरावतविदेश १५८ भवनवासिनोऽसुरनाग७० भवमत्ययोऽवधिर्देव१७६ भवनेषु च २२१ भूतवत्यनुकम्पादान२०० मेदसा ताभ्यां चाक्षुषः १९९ भेदसवा तेभ्य उत्पद्यन्ते १९९ भेदादः १३१ मणिविचिपा उपरि मूले ७४ मतिश्रुतयोर्निचरवो ६ योगा विश्वविश्व विद्या श्री सुविधिसागर जी २२४ बारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुत्रैः २९७ बादरसाम्पराये सर्वे ६।१५ ९ | १२ ३०५ बाह्याभ्यन्तरोपध्योः १६८ ब्रह्मलोकालया लौकालिकाः १४४ भरतस्य विष्कम्भो जम्बूवीपस्य १२५ भरतहैमवतरि विदेह ७५ मतिधुतावधयो विपर्ययश्च ५७ मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलानि २६३ मतिश्रुतावधिमनः पर्य केवलानो ६० मतिः स्तुतिः संशा चिन्ता २३४ मनोशामनोशेन्द्रियविषय २२४ माया तैर्यग्योनस्य तत्वार्थवृत्ति पृष्ठ १८१ रूपिणः पुद्गलाः ७४ रूपिष्यवधेः २९१ मार्गाच्यवननिर्जराय २४६ मारणान्तिकी सल्लेखना २५८ मिथ्यादर्शनाविरतिममाद२४९ मियोपदेश रहो भ्याख्यान२४१ मूर्छा परिनः १६० मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो २३६ मैत्री प्रमोदकारुण्य-२४० मैथुनम ३१८ मोहक्षषाज्ज्ञानर्शनावरण२२६ योगयता विसंवादनं २५३ योगप्रणिधानानावर१११ रत्नशर्करावा लुकाकुधूम h?v ४/१५ ९।२६ ४|२४ ३/३२ ३|१३ ९।२६ १/३१ महाराज . १०७ लब्धिप्रत्ययं च ९७ लब्ध्युपयोमौ भाषेन्द्रियम् १/९ 다두 १११३ ३|१० ३।२७ ३|२४ । ३०४ वाचनापृच्छनानुमेदा९९ विग्रहगतौ कर्मयोगः ३१३७ १०१ विग्रहवती च संसारिणः ४|१० २३० विघ्नकरणमन्तरायस्य ११२१ १६९ विजयादिषु द्विचरमाः ४१३७ ३११ वितर्कः श्रुतम् ६ | १२ ५२८ ५१२६ ५२७ | १८४ लोकाकाशेऽवगाहः १७७ लौकान्तिकानाम ९८ वनस्पत्यन्तानामेकम् १९३ वर्तनापरिणाम क्रियाः परत्वापरत्वे २३३ वाङ्मनोगुतीर्याशन निक्षेपण - १४५ विदेहेषु संख्यकालाः २५६ विधिद्रव्यदातृपात्र विशेषात् ३०७ विपरीतं मनोशस्थ २७५ विपाकोऽनुभवः २०३ विंशतिर्नामगोत्रयोः ७३ विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्यो ऽवधि ७३ विशुद्धधमतिपाताभ्यां ३१२ वीचारोऽर्थव्यञ्जन यान्तिः ३०७ वेदनायाश्च २९९ बेदनीये शेषाः ७१८ १६२ वैमानिकाः ६।१६ ९/८ ६४ व्यञ्जनस्यावग्रहः ७/२२ । १५९ व्यन्तराः किन्नरकिंपुरुषमहोरग-८११ १७६ व्यन्तराणां च १२६ : २४७ शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सा७|१७ १९६ शब्दवन्धसौम्यस्थौल्य१९० शरोरवाङ्मनःपाणা७।११ ३१० शुक्ले चाये पूर्वविदः ४|१३ I ७|१६ १०८ शुभं विशुद्धमध्यावाति १०११ २१२ शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ६१२२ २३३ शून्यागारविमोचितावास१०४ शेषाणां सम्मूर्च्छनम ३।१ २७४ शेषाणामन्तमुहूर्ता ७३३ २४८ व्रतशीलेषु पञ्च पन यथाक्रमम ५.१५. ११२७ २/४७ २१८ ५/१२ ४ |४२ २२२ ५/२२ ७८ ९/२५ २/२५. २।२८ ६१२७ ४१२६ १९१४३ ३।३१ ७/३९ ९/३१ २१ ८१६ ११२५. १/२४ ९ / ४४ ९/३२ ६ १६ ४|१६ ७१२४ १।१८ ४|११ ४४३८ ७/२३ ५/२४ ५११९ ९८३७ २४९ ६/३ ७६ २३५ ८/२० I I Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११८ ४१६ rar तत्याधस्त्राणामकारादिकोशः पृक्ष १५७ शेषाः स्पर्शरूपशब्द४८७५ सवैद्रवपयिषु कवलस्य १२५ १३५ शेरास्वपरगाः का२२ १०६ सर्वस्य १०९ शेषात्रिवेदाः २०५२ । १७३ सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सम १८ श्रुतमनिन्द्रियस्य २१ । २९९ सामायिकछेदोपस्थापना १५ श्रुतं मतिपूर्व दूधनेक १२ १६९ सारस्वतादिल्यबघरुणगर्दतीय२११ स प्राप्तकः शर १९२ सुखदुग्नजीवितमरणोपग्रहाश्च २६. सकावत्वानीवः कर्मणो दा२ २९६ सूक्ष्मसाम्परायमस्थवीतरागयों- १. २१ सपायाकपाययोः साम्परायित्रे.. २०९ सोऽनन्तसमयः ५४० २८२ स गुमिसमितिधर्मानुप्रेक्षा- २२ १७१ सौधर्मशानाः सागरोपमेऽधिक १६६ सौधर्मशानसानत्कुमारमाहेन्द्र.. २५४ सचित्तनिक्षेपापिधानपरत्र्यपदेश १६७ संक्लिटासुरी दीरितदुःखाश्च ३५ १०२ सचित्तशीतसंवृताः सेतराः १८३ संख्येयासंख्ययाश्च पुद्गलानाम् 41१० २५४ सचित्त सम्बन्धसम्मिश्राभिषव- ७।३५ ९९ संशिनः समनस्काः २।२४ २४ सत्संख्याक्षेत्र स्पर्शन । ३१५ संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थ७६ सदसतोरविशेषाच्छोपलधे- ११३२ ! ५२ संसारिणखसस्थावरा રાર २६५ सदमवेद्ये मार्गदर्शका आचाममासूनिहिासागर जी महाराज२।१० २०५ सद्रव्यलक्षणम् ५।२९ २४२ मतेनप्रयोगतदातादानविरुद्ध- ७२७ ८६ स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः । २३४ स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहग:२७७ सदबंधशुभायुनामगोत्राणि पुण्यम् ॥२५ २०३ स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः ५/३३ २७३ सततिमहिनीयस्य ८1९५ । १७० शितिरमुरनागमपर्णद्रोप '૮/૨૮ २१ समनस्काऽमनस्काः २०५१ १६६ स्थितिप्रभावानुवाति ४१२८ १०२ सम्मुईनगभोपपादा जन्म २।३१ । सर्शनरसनमारणचाधिोत्राणि २।१६ २२६ सम्यक्त्वं च ६।२१ १९५ स्पर्शरसगन्धवरणवन्तः युद्गलाः ८२ सम्यक्त्वचारित्र २।३ २८ स्पर्शरसगन्धवर्ण शब्दाम्तदाः २८३ सम्यग्यागनिग्रहो गुप्तिः ९।४ २२५ स्वभावमार्दवच ४ सम्यग्दर्शनजानचारित्राणि १।१ । २३५ हिसादिविहामत्रापायाचदर्शनम् ३१३ मम्बा प्रिश्रावकविरतानन्त- १/४५ : ३०८ विसानृतस्तेयविषयमंरक्षणग्यो२७५ स यथानाम ८।२२ २३१ हिसानृतस्तेयावन्मपरिग्रहेन्यो डा २२५ सरागसंयममयमामधमाकाम- ६।२० | १३१ हेमानितपनीयवैडूर्य रजतममयाः ३१२ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- अतत्वार्थपूनावादावामानाबग्रनुक्रमः ४॥३४ ८१९ ५]४८।२४ ८६ ७२१ १।१२ ५।३२ ७]३३% ७/३४ २१३० ११६ | अनन्त अनन्तगुण काय ६४:८1९ अनन्तर अकषाय ( वेदनीय) नवभेद अनन्तवियोजक कामनिर्भग अनन्तसमय श्रगारिन् ७/१६६७२० अनन्तानन्तप्रदेश अगुरुलधु ८.११ अनन्तानुबन्धी अग्निकुमार ४६० अनपा अग्निशिखायन् अनर्थदण्डविदि अपाङ्ग ८।११ अनर्थान्तर अनक्षप. ८७ अनार्विन म्युत ४।१९:४।३६ श्रीध ११४:५/१:६/७ अनशन अजारानाथ अनादर २१५२।६।९:९।१३ अनादिस मान्य श्रज्ञान अयु ५११५:५२५:५।२७७२ अनाहारक अशुव्रत १२० अनिासत अनित्य अण्डज २३३ अतिथिसंविभाग अनिन्द्रिय अनिभारारोपया १२५ अनीक अनक अनीचार ७२३ अदत्तादान प्रदर्शन ९।१११४ शनुचिन्तन अधोऽधः अनुल्सेक ५/१:१/८:१६५१ अनुप्रक्षा अधिवः ४/२०.४।२: ३१:४।३६:४।३९:३७ अनुभव अधिकरण अनुभाग अत्रिकरण विशेष अनुमत अनुवीचिभागमा অশ্বিন। अनुणि अवीव्यतिक्रम अनुत अनगर १९ अन्तविपनि अनङ्गकोड़ा ७/२८ अन्तर २७ १।१९:२२१ ७/२१ ७१३८ ७/१५ ! अनुग्रहार्य अधर्म बा२६ ९/२:९/०१/२५ ना२१ ८॥३ ६८ २।२६ ७।१४; ९/३५ १८१०/९ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तराय अन्तगवास अन्तम हु अन्नपाननिरोध अन्यश्य (अनुप्रेक्षा ) अहसा अम्पट दिग् अश्व अर् रगतले पाला बन् अपरगा परराष श्रारा अपराजित गृहीतागमन अपान दर्शन अपायविचन प्रतिधान प्रतिपात श्रमत्यवेक्षिताप्रमार्जितादान वेदिताप्रमार्जितात्सर्ग अप्रोचार अप्रत्याख्यान अन नाति अभिनयशेष अभिमान अभियोग्य श्रभिपव अनजानोपयोग श्रननरक यमनोज अनन श्रनून ख प्रयोग नस्वार्थसूत्रस्थशब्दानामका रायनुक्रमः ६१२६६२७८४ अरनि ८१४९।१४ श्ररिष्ट १०।१ : अरुण ३१८१० श्ररूप ७२५ अर्जुनम अर्थ ९:७ ७१२३. अर्थमङ्कान्ति श्रर्पित ७?३ २०४४ २|१३ tela ३।२२ २३२२८४१३४०१ ८/१८ ده | १९६४ वाट ०२३४ अक्ट ७२४ अपस्थित ४/१ अनाय ८९ अविग्रह ११६ विनय तू अलानत् अलाभ अल्पयनिग्रह ५२२ श्रल्पारम्भ श्रवगाह ४११९ अवगाहन मार्गदर्शक :प्राचार्य श्री सुविधिसागर जी ५।१५ श्रवद्यदर्शन अभि ११९:१।२१ १२५: ११२०:१३१:८६८७ ९. ३६ अवधिfक्पव १९ । i श्रवभौदर्य अविश् २७ अविरति २।१२ अमीर (भक्ति) २१ अध्यय ४|४ ܪ अ ऋव्यायान अवत २।११ अशरण १९३० अशुचि ७/५ अशुभ 312. 312 ४. " पापाति अशुभतरवा यत ५१९ 4 ८१९:११२:९/१५ १२५ ४/२५ ५/४ ३११२ १११७ ९८४ ५/३२ SIRY १०१७ ९९९/१४ १८६११७१०१९ ૬. ५।१२:५।१८ १०१९ ७१२ ४/२० ९/१९ ६/१३ ३।२० ३।२८:४|१५:५४ १/१५ २१२७:२।२९ २७११ ६/१४९/३५ EIVE ५/३१ २/४९ नर५ ६/५ ९७ ९/७ ६/३६१२२ ३३ २/६ ५८५१० Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० गुण गुणनिर्जरा भागादि वर्षाप् असङ्गत्व सदभिधान सद्भावन असद्र्ध समाधिकरण सर्वप श्रसिद्धत्व ऋसुर -कुमार श्री ऐशान श्राकाश -प्रतिष्ठ आश्विन्य आमन्दन श्राक्रोश श्राचार्य -भक्ति आशा (विजय) प्रतिप श्रात्मप्रशंसा आत्मरक्ष श्रात्मस्थ आदाननिक्षेप श्रादाननिक्षेपणसमिति श्रादिश्य आदेय श्राय आनत श्रानयन नुपूर्वी श्रान्तमुहूर्त आभ्यन्तरोपाधि मार्गदर्शक : आना ष आ तार्थवृत्ति २१.३८ श्रावणु ९४५ श्रारम्भ ५/१५ आर्जव २५३ आ १०/६ आर्य ७११४ श्रालोकान्त ६।२५ आली कितपानभोजन ६१११८/८ आलोचना ७३२ श्रावश्यकारिवाि १/२६ । प्राविद्धकुलालचक्रवत् आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज श्रसादन श्राव ४२८ ४११० : ४७ ५/१३५१६५१९:५११८ ६/११ ९३९;९/१५ ९।२४ ६१२४ ३।१ इन्द्र ९५६ आहारक इत्यरिकागमन १।११:२१४५; ६८८ ४:९/३७ -निरोध इन्द्रिय ( पञ्च ) -विषय इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्त ईर्या पथ र्यासमिति ५/३६ ५१२४८ | ११ ६।२५ ૪]¥ ६/११ | उच्चैस् ९१५ उषास ईदा ७ ४ उत्तमचमा ४२५ उत्तमसंहनन ८|११ उत्तर उत्तरकुरु ४।१९ उत्पद्यन्ते ७१३१ उत्पाद ८/११ | उत्स ९/२७ उत्सर्पिणी ९।२६ | उदधिकुमार ९/२५ उद्योत ८११७१८१२४ । उन्मत्तवत् उ ४११९,४१३२ ૬]¢ ९१६ ९१२८; ९/३० ६/३६ १०/५ ७/४ ९१२२ ६।२४ १०/७ ६।१० ११४:६|२९|७ ९/१ २/३६२/४९. ७/२८ ४|४ ६।५ ४/२० १।१४ ९/५ ६४ ७४ १।१५ १२ ८११ ९/६ ९/२७ २/२६६१२६९/२० ३/३७. ५/२६ ५/३० ९/५. ३।२७ ४|१०० ५/२४८/११ १/३२. Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकरण उपकार उपचाई उपचात उपचार उपधि उपपाद थान उपभोग उपभोगपरिभोगानर्थक्य उपभोग (परिमाण) उपयोग उपशमक उपशान्तमोह उपस्थापन उपाध्याय उभयस्थ ऊर्ध्व - व्यतिक्रम श्रृणुमति जसूत्र एक क्षेत्रावगाहस्थित एकजीव एकल्प ( श्रनुप्रेक्षा ) एकत्वषितर्फ एकलव्य एकपल्योपस्थिति एक प्रदेशादि एक योग एकाप्रचिन्तानिरोध एकाभय डीज १४५ कन्दर्प १९/४५ कर्मभूमि कर्मयोग ९४२२ कर्मयोग्य २१२४ ६ । ११ कल्प मार्गदर्शक- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज रुपातीत कल्पोपपन्न एषया ६६ ऊ तत्त्वार्थसूत्रस्थशब्दानामकारानुक्रमः ᅲ २११७ ५/१७ ऐरावत ५/२० ऐशान ६ | १०८/११ ९४२३ ९१२९ श्रदयिक २२२१:२१२४ श्रदारिक : ९२४७ श्रपपादिक २१४५८।१३ औपशमिक ७/१२ ७/२१ रा८:११८ ४१३२; १०/५ 9120 श्रपशमिकादि काङ्क्षा कापिठ १।२३ कामतीवाभिनिवेश ११३३ कपाय पाय ( वेदनीय ) ( पोडश ) कषायोदय काय -क्लेश -प्रवीचार योग स्वभाव ८२४ माद ९७ कारिन 2138 कारुण्य ५४६ | कार्मण ३१२९ काल -विभाग ५/१४ ९ | ४० १४२७ | किम्पुरुष ९/४१ किन्नर कालातिक्रम किल्विषेक आँ १०/७ ९/५ कीर्ति 用 ५२१ ३ | १०:३ | २७३ | ३७ ४/१९:४१२९ २११ २/३६ ०२१४६९ १५३६४१२७ २४१ १०१३० ८/३२ ६/३७ २।२५ दार ४१२३ ४|१७ ४१३:४/१७ २/६३६२५६६८८ १९८९ ८१९ ६०१४ शर३ ४११९ ७१२८ ५११६६१ ९/१९ ¥{$ ९४० ७११२ ६८ बार ३६ ११८/५/२२५/२९३१०/९ ४|१४ ७/३६ ४|११ ४१११ ४४ ३/१९ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज नत्यायवृत्ती १/४६ : साम्य २६ -यत् ८ । गुणाधिक ५/१३ ' गुमि १०२ गोत्र वेयक १०४ ग्लान केवलिन् ७.११ । चक्षुष आर१ | गर्भ २३१:२।३३ ९।२४ ' गर्भसम्भूर्छनज ६४५ कुलालचक्र कुशील ५३५ कुटलेखक्रिया ५।३८ कृत कृत्स्न ६४ कृत्स्नकर्मविप्रमोक्ष ८४८१६८1१२८२५ कृमि २२३ ४।१२ केबल १।१२:१५२९८।६८१०१ ४११५:४॥२३४।३२ ज्ञान ९।२४ . -दर्शन १०४ ६।१३, ९।३८ | फेशरिन् ३।१४ | धन कोटिकोटी ८।१४ | মায়া २।१६ काकुच्य मिया ५/२२, ६५ क्लिश्यमान ११५:/१९८७ क्रोध चतुर्णिकाय ४१ ८/९: चतुर्दशनदीसहसपरिस्सा -अन्याल्बान ३१२३ ९.४५ ९/९ क्षयोपशमनिमित्त ५२८ चारित्र रा३:१५ :६।१८:९।२३:१०१६ दायिक -मोह । मोहनीय ८९ क्षीणमोह El १११६ क्षुत् क्षेत्र १८६१२५३११०२७२६: १९ छमस्थ ९।१० ७।३० . छाया पा२४ ७/२५,९।२२ छेदोपस्थापना ९।१८ ३/२० । सिन्ध्यादि २३ ९।२४ जगत्स्वभाव ७/१२ गति २।६।२६,४/२१८/११:१०१९ बपन्यगुण गत्युपग्रह गन्ध २।२८।११ जम्बूदोप शशश१२ गन्धर्ष ४/११ । जयन्त गन्धवत ५/२३ . जरायुज २१३३ गर्दतीय ४/२५ जाति. चर्या १/२३ । चाक्षुष क्षान्ति १४१६ । चिन्ता छेद ज गण Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्रस्थशब्दानामकाराधनुक्रमः ५२३ जीव ७.३० ६/४७:१०१२ ६।२४।८।११ ६।१४ ६१६ ४।२५ ३१३ २।३६: २१६८ २१४८ ६ :८।१० जिन २।११:५/४५ ताप ४२। २७५/३:५/१५:५२१: | तिगिन्छ ६.७८१२ | तिर्यग्योनिज जीवत्व २। | तिर्यग्व्यतिक्रम जीवित ५/२० तीर्थ जीविताशंसा ३७ । तीर्थकरत्व जुगुप्सा ८।२ | तीव्रपरिणाम जोषिता १२२ ' तीन (भाव) ज्ञान (भाव। ज्ञान मार्गदर्शक आचार्य श्रीरसविधिसागर जानबहाराज ज्ञानावरण १.८१1१३ ! दुषित क्षय १०१, नुणस्पर्श ज्योतिष्य ४/५४।१२,४१४० ! तजम् | तैजस । तैर्यग्यान तत्त्व १४ । त्याग तत्त्वार्थश्रद्धान २ | त्रयन्त्रिशन्तत्स्थार्थ ३ बस লধা ।३० त्रास्त्रिश तथागतिपरिणाम १०१६ | त्रिपल्यापम तदनन्तर १०५ स्थिति तदनन्तभाग श०८ घि(योग) रा२५ . त्रिवेद तविष्कम्भ ३।१५ - त्रिशत तदष्टभाग ४१ । सागरापम तदादि तदाहतादान ७/२७ तदुभय तभाव तद्विप्रयोग तद्विभाजिन् तदि गुणदिगुगग तन्निवासिनी -मोहक्षपक तन्मध्यग तन्मनोहराङ्गनिम्नगाभ्याग ७ दर्शनावरण तपनीयमय ३।१२ क्षम तपस् १६।६:१२२ | दशमोजमाबगाह तपस्विन् दशवर्षसहस्त्र तमाममा ३।१ दशविकल्प तमस ५।२४ | दाढविशेष २।१२:२।१४८1१६ ४] ४:८५ ३१३८: ४।२८ तदर्थ ५.४० २०५२ ३२ ८१५८१७ २१९ २८२३ हा९:११२२ दंशमशक ५/३१:४२ : दक्षिणा ६ . नर्शन ३।११। मोह २०१८ -मोहनांव ३११९ ३।२०। -विशुद्धि ६।१८८४ १०१ ३।१६ ७॥३६ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ दान दास दासी दिक्कुमार दिमत दुःख दुःपक्काहार देव देवकुरवक देवकुरु देवी देश देशविरत देशत्रत देह here ar देव श्रुति द्रव्य द्रव्याश्रय द्रव्येन्द्रिय द्रव्यलक्षण द्रव्यविशेष धन धर्म द्विचरम द्वितीय द्वितीयादि द्विपस्योपमस्थिति चीन्द्र श्रीन्द्रियादि द्वीप मार्गदर्शक : कुमार -समुद्र द्वेष .धिकादिगुण धर्मास्तिकाया भाव धर्मोपदेश धर्मवाख्यातत्व वृत्त २९४१ ६ | १२:७११८: ८:१३ | धर्म्य १२९ ७१२९ ४|१० ७।२१ ११२०; ६.११; ७ १० ध ७१३५ १।२१ २३४ २/५१, ४|१: ६ |१३ ३।२९ ३/३७ ३.१९ T आचार्य श्री सुविधिसाग महाराज ६ / ३४; ६३५ ७१२१ ગર ६ २०; ८ १० ४/२० १५ १ २६५२५३८ ५१४१ । २।१७ ५।२६ ७३९ धातकीखण्ड २११४ Ylis ४।१० धान्य धारणा धूमप्रभा धृति ध्यान घट श्रीव्य ३/७ 1914 ५३७ नदी | नपुंसक -वेद नय नरक नरकान्ता नव नवभेद नवतिशतभाग ! नाग ४/२६ ९।४२ : नारम्य नाम ४१३५ | नाम (प्रत्यय) શર× नारक ४/६ -कुमार नारकायुष् नारी निःशल्य निःशील तत्व निक्षेप (चतुर्भेद ) नित्य नित्यगति निदान ७१२९ निद्रा ५|१:५|८;५।१३;५|१७६ १३ ६ २९१६ निद्रानिद्रा १०१८ | निबन्ध ६/२५ नियपभोग ९/७ | निर्गुण न ६/२८६३६ ३/२३ अरह १।१५ ३/४ ३।१६ ६/२०१६/२१६/२७ ५११६ ५/३० ४।१२ ३।२३ २५० दा५ ११६,६१३३ ३२ ३१२० १११६,४/३१,४/३२:८४५ १|५६६।२२:८१४६८|१६८/१९८१२५ १९१२१६२३८४२१५०६३/६४/१५८/१० २२ ३३२ ४२८ ४|१० ६६९११५ દ્વારક ६।१५ $120 09122 ६।१६ ६/९ ३३ ५४ ५/३१ ४|१३ ७१३७ ९१३३ ८७ ८७ ११२६ २४४ ५/४१ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 निर्मन्थ निर्जरा निर्जरार्थ निर्देश निर्माणा निषृति निवर्तना- (त्रिद ) निषद्या निषध निष्क्रिय निसर्ग निसर्ग (प्रिभेद ) निहव नग नीचे ति नीचैस नील नृलो+ नृस्थिति नैगम न्यास न्यासावधान प्रभा प्रिंस पद्म पद्मलेश्या पर परघात परतश्वरतः परत्व परनिन्दा परविवाह करणा परव्यपदेश परस्थ परस्परोपग्रह परस्परोदोस्तिदुःख पररा परावर तत्त्वार्थ सूत्रस्थशब्दानामकारायनुक्रमः ९/४६ परिगृहीतारामन ११४४३६३ ९७ १०१२ परिग्रह ९१८ १३७ परिणाम ८|११| परिदेवन २।१७ परिभोग (परिभाग ) ६६ | परिसोदव्य परिहार -विरति ९९९/१५ ३/११ ५११९ परीषह ११३२ - विशुद्धि -जय मार्गदर्शक :- आचायात्रा सुविधिसागर जी महाराज ६११० परोपरीधाकरण ६।२५ पर्यन्त ६ २६ | पर्ययवत् ८१२ पर्या ३।१२ पल्योपम ४|१३ | पल्योपमस्थिति पात्रविशेष ३१३८ : १/३३ पाप १५ पारिणामिक ७ | २६ ३१ २११५ : पीतलेश्या ३।१४ पीतान्त ! ४१२२ पुवेद २३७:२११९:१९६६/१६/२९/६/३८ पुण्डरीक परिषद पिपासा पिपीलिका पिशाच ८१११ पुण्य ४ | ३४ मुद्गल ५/२२ पुद्गल ६/२५ १७।२८ | पुलाक ७/३६ पुष्कर ६/११ पुष्करार्द्ध ५०२१२ पूर्व पुरस्कार ३१४ पूर्वगा २६४३९८२१४ पूर्वप्रयोग ३३८ पूर्वरतानुस्मरण ( स्वाग ) ५२५ ७१२८ ४|२१७११७ 회복 ३।३०५/२२५१४२ ६।११ ७/२१ १/८ ९/२२ ९।१८ ६८ EIR ११ ७६ 비록 ५/३८ ८/११ ४|३३४/१९ ३१९ ७/३९ ६१३८/२६ ६१९;५/३७ ४१४ १९११ २२३ ४/११ ४/१२ ४२ C10. ३।१४ ६१३५/२५ १४५१९५२३८/२ ७३१ ६/४६ ३ | १७:३/१८ ३/३४ ४/६६/५९/४१ ३१२१ १-६ ७/ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्छना पोत ८७ ८ अंधहेतु मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ५२६ तत्त्वार्थवृसी पूर्वविद ११३७ प्राण ५११ पूर्वपूर्वपरिचेपिन् ३१८ प्राणत पूर्वापरायत ३२११ प्राणश्यपरीपण ७१३ ९/२५ प्रायश्चित्त (नव) ९४२० पृथक्त्व (वितर्क) ९३७ प्रेन्यप्रयोग ७/३१ प्रथिषी १३ प्रौषधीपवास ७।२१ २१३३ प्रकीर्णक ४४. ६।४६ प्रकृति बन्च १८:५/२४:५।३३, ५/३७२५८२ प्रचला बन्धच्छद प्रचलाचला बन्धन ८।११ प्रज्ञा ९।१९१३ ८.१ प्रतिक्रमण २॥२२ अंधत्वभाव प्रतिपकम्यवहार ७/२७ बहिर ४१५ पतिसेवना ९/४७ प्रत्यक्ष प्रत्यय १४१६ प्रत्याख्यान प्रत्येकजुद्ध प्रत्येक शरीर प्रथम ब्रह्मोत्तर ४०१९ प्रथमा ४१३६ ब्रह्मलोकालय ४॥२४ प्रदीपबत् बहारम्भ ६/१५ रा-८५1८८३ बादरसाम्पराय ९।१२ -विसर्प ५।१६ । बालसपस ६।२० संहार सा१६ बालुकाप्रभा प्रदोष बाख( उपधि ) ५।२६ प्रभाव ४२० बाखतपस् ११६ प्रमत्तयोग ७।१३ ३.१६ पमत्तसंयोग २२४९ बोधिदुर्लभ ९७ प्रमत्तसंयत रा४९ ९/३४ १० प्रमाण १।६: ११ । प्रमाणातिक्रम प्रमाद ८६ प्रमोद ७/११ , भरत ३२४:३२:18२,२१३७ प्रवचनक्ति ६।२४ ! भरतवर्ष ११. प्रवचनवस्सलत्व १२४ भवन प्रवीचार ४१७ भवनवासिन २।३८: ३।५:३१३५:४।२३६२१ । भवप्रत्यय श२१ ११२ । बहुपरिग्रह ८२४ | बहुविध ८९, बहुश्रुतमक्ति १०१९ | आम दा११ । ब्रह्मचर्य बुद्धि बोधितबुद्ध ८१ भय प्राक् Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७११ दा. ६।१७:८1१0 ७/२२ ९८ १६ १३७ ८९ ७/२६ २१६; ८१ रा१:२१३२ ११० ७।१७ त्रस्थशनानामकारागनुक्रमः मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज २१७:१०।३ | माध्यस्थ्य भाव २१५:१८२।१ | मान भावना मानुष भावेन्द्रिय २११८ मानुषोत्तर भाषा ९/५ माया भीरत्वप्रत्याख्यान ७/५ | मारणान्तिको ४१११ मार्गाच्यवन भूतानुकम्पा ६।१२ मार्गप्रभावना भूमि ३११:३।२८ माघ भेद ५२४, ५।२४,५२६५२७:५२८६/५८५ महेन्द्र " s भैक्ष्यशुद्धि मिवानराग भोग २२४;८.१३ मिथ्यात्व १२३ मिथ्योपदेश मिध्यादर्शन मणिविचित्रपार्श्व ३११३ मिश्र मति १।९,१११२,११२६,११११८।६. मुक्त १२. मूच्चों मध्व ३१९,३१९७ मूल मनपर्यध १०९:१२३:१२५:१।२८८६ मेरुनाभि मनाप्रबीचार ४५८ मेरुप्रदक्षिणा मनस् मनस (कर्म) ६.१ मोक्ष ३।२५:४।२७ मनुष्यादि -मार्ग मनोगुमि ७४ मनोश ६।१४।९।३१ मोहक्षय मनोश इन्द्रियविषय मोहनीय मौर्य मन्द (भाव) मरगा ५।२० मरणाशंसा ७३७ मल हा यक्ष महत् पार यथाख्यात महातम प्रभा यथानाम महापन ३।१४ यच्छोपलब्धि महापुण्डरीक ३११४ यशःकीर्ति महाशुक्र याचना महाहिमषत् ३।११ | योग महोरग ४|११ । योगदुष्पणिधान मात्सर्य ६।१०।३६ | योगसान्ति ४|१३ मैत्री मैथुन کافه मनुष्य रा; १०२ २।२३ ७/८ ८|४२११५ ४|११ •|१८ दा२२ १॥३२ ३।१ ९१९:६१५ ६।१६८,६१२८१ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ योगकता योगविशेष योजन योजनशतसहस्रविष्कम्भ योजनसहलायाम योनि रक्ता रक्कीदा रजतमय रति रत्नप्रभा रम्यस्वर्ग रस रखन रसपरित्याग रखवत् रहोऽभ्याययान राक्षस रागवर्जन रुक्मि महत्व रूपवीवार रूपानुपात रूपिन् रून्यकूला रोग रोहित रोहितास्पा रोह लक्षण लक्ष्मी लब्धि लब्धिप्रत्यय लबोटाि लान्तव लाभ र ल तार्थवृत्त ६/२२ | लिङ्ग मार्गदर्शक २४ लेश्या ३।१७:३१२४ -विशुद्धि ३६ | लोक २०१५ लोकपाल ३३२ | लोकाकाश लोभ लोभप्रत्याख्यान ३२० : लौकान्तिक ३२० २।१२ ६०६ वध ३१ वनस्पति : ३|१० वनस्पत्यन्त ब २२०८/११ २१९ ९/२५ ५१२३ ७/२६ ४११ ७८ २।११ ५.३३ YIC ७/३१ १।२७५१५ ३/२० EJE ३१२० ३/२० | वर्णवत् वर्तना | व ५१२८६३५ भर वर्षभर पर्यंत वलयाकृति यहि बाह् वाक् (कर्म) वाग्गुमि याचना बात वायु बास्तु विकल्प विक्रिया २८ विशकरण कुमार ३२१९ विषगति २०१८ चिकित्सा २/४७ विजय 1 ३७ विजयादि [ वितर्क ४/१६ २४८११ | विदेह : आचार्य श्री सुधिर जी महाराज २६:४१९४० व *** १९७ ४१४:४१५ ५/१२ ८९ ७५ ४/२४;४१४६ ६/११ ७२५९/९ રાક २।२२ ४५ २/२०१८ ११ ५।२३ ५/२२ ३१२५ ३/२५ ३।११ ३८ ४/२५ ५।१६ ६।१ afr ६२५ ३।१ ४/१० ३।१३ ** ८६९४७ 312 ६।२७ १२१२५ २२८ ७/२३ ४/१९ ४२६६४३२ १९११४३ ३।३१: ३।३० Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदेहवर्ष विदेहान्त विद्युत्कुमार विधान विधिविशेष विनय (चतुर्भेद) विनयसम्पन्नता विपरीत विपर्यय विपाक -विचय विपुलमति विधमोक्ष विप्रयोग विमोचितावास चिरत विरुद्धराज्यातिकम विविक्त शय्यासम विवेक विशुद्ध विशुद्धि विषय -संरक्षण विष्कम्भ विसंवादन विहायोगति बोचार वोतराग पीर्य -विशेष मृत्त वृत्तिपरिसलथान तस्वार्थसूत्रस्थशब्दानामकाराद्यनुक्रमः ३।१० । वैयावृत्त्यकरण ६।२४ ३३२५ । वैशकृत्य (दश) ९/२० ४१. वैराग्याथ ७/१२ १७ व्यञ्जन व्यसनकान्ति २२० न्यन्तर ४|४|११४॥३८ ६।२४ व्यय ५/३० ६.२३, ९/३१ व्यवहार ११३३ २३१ ६.२६ | व्युत्सर्ग ९२२ ८।२१ व्युत्सर्ग (द्विभेद) २० ९/३६ व्युपरतक्रियानिवर्ति ६।३६ श२३ । व्रत ७।१७।२४ १०१२ | व्रतसम्पन्न ७२१ ६।३० ' प्रतिन् ७१८ ७५ प्रत्यनुकम्पा ६.१२ ९।४५ मार्गदर्शक :सखचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज ६२४ ९.१६ शक्तिः तपस ९२२ शक्तिः स्याग २०४९ । शङ्का शर४५ : शतार ७/२३ शब्द ९/१० शर५ ११३३,२।२०५।२४ ९३५ शब्दानुपात ७.३१ ३१३२ शब्दप्रवीचार ४८ शय्या १/२२ दा११ शरीर २२३६:४/२१/१९८१ शर्कराप्रभा शिखरिन् २।४।८।१३ | शीत २३२२।९ ६/६ | शील शीलवतानतिचार ६।२४ ४१२६ ३१२७ शुक्न (ध्यान) ९१२८; १/३७ ७७ ! शुक्रलेश्या ४/२२ ३१३,१३२ २।४९ ६।३, ६:२३८९ ८1८1१८९।१६ | शुभनामा श६६,२४६ शुभायु ८।२५ ४|१९ शून्यागारवास ३।१२ शेष १२२:२।३५:२।५२,३।२२:४/८४/२२, ४/२०४।२८८/२०१६ वृष्यष्टरस (त्याग) वेदना वेदनीय वैनियिक वैजयन्त वैडूर्यमय वैमानिक Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३० शैक्य शोक शौच भावक श्री भुत श्रीन मार्गदर्शक : संक्लिष्टासुरो दीरितदुःख संयम संवर संवृत संवेग संवेगार्थं संसार संसारिन् संस्थान समय षड् विंशतिपञ्चयोजनशतविस्तार संयमासंयम संयोग (द्विभेद ) संरम्भ संस्थानविचय संइनन सङ्ख्या संख्येय -फाल संमह सङ्घ सङ्घात सजवलन सज्ञा सञ्ज्ञिन् संकाय सकषायत्य सचित्त आचार्य श्री विगत १|९:१|२०;१।२६; १०३१; २ | २१,६११६; ८/६९१४३९/४७ प तार्थ ९/२४ सचिन्तापिधान ६ / ११८ १९ सचित निक्षेप स ९ |४५ | सचित्तसम्मिश्र ३|१९ सत् २/१९ ३१२७ ३ / २४ सत्कार सत्कारपुरस्कार ९२६ : ९/४७ २१५,६/२० सत्य सत्य सदस्ती र विशेष सद्दश सद्गुणाच्छादन सद्य धर्माविवाद ३३५ | समनश्क समभिरुद्ध समारम्भ ६९ समिति ६८ सम्प्रयोग ११४६९१११, ११३ सम्मूर्च्छन २/६२ सम्मूर्किन् १६१२४ सम्यक्त्व ७/१२ | सम्यक्चारित्र ९/७ सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन २| १०:२ | १२:२३२८ ५/२४८/११ सम्यग्दृष्टि १९१३६, सम्यग्योगनिग्रह ८/११ सरागसंयम १८ सरागसंयमादि ५११० રા १३३३ | सर्वात्मप्रदेश ६/१३९|२४ सर्वार्थसिद्धि ५/२६५/२८ ८ ११ सल्लेखना ८/९ सवितर्क १/१९ | सवीचार २२४ सरित् सर्वद्रव्य पर्याय सामानिकपरिषत्क ६ |४ सहस्रार दार साकारमन्त्रभेद २३२ | सागरोपम ७/३६ ७१३६ ७/३५ ७१३५ १८:५२९,५/३० ९ / ९ ९१६५ ९/६ ३३६ ७/११ १३२ ५/३५ ६/२५ ६।१२;८|८:८/२५ ७६ २|११:२/२४ ११३३ ६८ १९१२६५ ६/३० २।३१ २०३५ २५० २१५; ६/२१८|९:१०/४ १ । १ १।१ १।१५११२ ७/२३९/०५ ९/४ ६।२० ६।१२ ३।१० १/२९ टा२४ ४१९, ४/३२ ७२२ ९/४१ ९/४१ ३/१९ ४|१६ ७।२६ ३|६;४|२८;४/२९;४।४२ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दानामकाराद्यनुक्रमः - - - सिद्धि सिन्धु - - सीतीदा सुभग माधन शा स्थित्युपग्रह साधु ९/२४ | स्थिर साधुसमाधि ६.२४ ' स्थौल्य ५/२४ साथ 1४०१०१९ । स्नातक ९/४६ सानत्कुमार ४|१९;॥३० | स्पर्श २।२०८११ सामायिक ४१४,७१२१,६।१८ | स्पर्शन १०८,२।१९ साम्परायिक ६४ स्पर्शप्रवीचार ४८ सारस्वत ४।२५ | स्पर्शवत् ५/२३ सिद्धत्व १०।४ । स्तृति १।१२ ५/३२ | स्मृतिसमन्वाहार ३२२० स्मृत्यनुपस्थान स्निग्धव ७/३३७१३४ ५।३३ | स्मृत्यन्तराधान सीता ७.३० मार्गदर्शक:आर्चायश्री सविधिसागर जी महाराज ३।२० स्वभावमादध ६.१८ सुरत ४१२०:५१२० स्वशरीरसंस्कार ( त्याग) सुखानुबन्ध स्वाध्याय (पञ्च) रा२० सुपर्णकुमार ४।१०४।२८ | स्वामित्व स्वामिन् सुवर्ण १२२५ ७/२६ | स्वातिसर्ग ७/३८ कूला ३१२० ८/११ सूक्ष्म २।३७८/११८२४ हरिकान्ता ३१२० -क्रियाप्रतिपाति ९/३९ ३/२० -साम्पराय ६।१०:१/१८ हरिवर्ष ३१. सूर्याचन्द्रमसौ ४।१२ हारिवर्षक ३२९ १।१६,२।३२,८११ | हास्य ८९ मौक्ष्म्य ५.२४ -प्रत्यास्थान सौधर्म ४११९४/२९ । हिंसा ७९,७१३,६३५ ५/२५ | विरति ७१ स्तनितकुमार १० | हिमवत् स्तेनप्रयोग ७/२७ | हिरण्य ७/२९ स्तेय ७१५,९४३५ । दीना -विरगि ७.१ हीनाधिकमानोन्मान ७२० स्त्यानगृद्धि ८७ वेममय ३।१२ स्त्री ९।९:९।१५ हैमवत ३।२६ हैमवतवर्ष -रागकथाश्रवण (त्याग) ७७ / ईरण्यवतवर्ष शा. ३११४:३।१५:३।१८ स्थावर १५:२०१२ | हास ३२७ स्थिति १/७३।६४/२०४१२८,८३,८।१४ । ही मुस्वर हरित सेतर -वेद ८९ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्त्वार्थवृत्ती समागतानां समुद्धतवाक्यानामकाराद्यनुक्रमः अ १८० धूलथूलथूलं भूलं [ बसु० सा० १६] अकर्तरि च कारके संज्ञायाम् [फा० सू० ४१५/४ ] ८६, १९४,१९५, ३०६ श्रपि भवेत्पापी [ यश० ॐ० पृ० १३५] २३९ मीलण मितात्थि [तिलोयसा गा० २०७ J अशानभाषावशुभाशयादा [ ] तीला [ जम्बू० ० १३६ ] ३३,२०९ न सयहस्सा [ २० १९८ ] भवः कार्यलिङ्गाः स्युः [ ] अध्ययमहया [ गो० कर्म० गा० ३३४ ] ३१ अणोपविता [ पंचास्ति गा० ७ ] अयादि अत्तमज्भ [ नियमसा० ग्रा० २६ ] १९८ अत्रास्ति जीवन व किश्विदमुक्त १८७ [ यश० पू० पृ० २७१ ] अथ कथयामि मुनीना अथ बीचिमालिनः स्युः [ अधिक समी ] [ का० सू० २२४|११ दौर्ग० पृ० ] अभिशी थासा कर्म [ पा० सू० ११४/४६ ] अनन्तरस्य विधिः प्रतिषेधो षा [ पा० महा० १२२४७ ] अनाद्यनिने द्रव्ये [ 3 अनेकन यसका [नीतिसार लो०१६] अन्तःक्रियाधिकरणं [ रत्नक० ५१२ ] अधिनमाष्टभागा [ अम्बाम्ब रोषश्मुखा [ अम्बुधिविंशतिरंशो [ अरिष्टाविशर्ति तानि [ श्रर्तिहुसुचिष्णोषदभायातुभ्यो मः [ का० उ० १३५३ ] अर्थशाद्विभत्तिः परिणामः [ ] ] ] ] ] ] १२१ २९४ R ७९ ५,६२,१३६ २०७ ૮ २४७ | श्रल्पफलत्रविधाता [ रत्नक० ३।३६] २४६ अल्पस्वरतरं तत्र पूर्वम् [ का० २५/१२] | ८, ८६, १३९ ११३ २४० १२० १२९ अद्वेधविषं धाति [ श्रादिपु० २५/४१] २९७ सद्योदयाद्भुक्तिं । श्रादिपु० २५/४० ] २९७ श्रसद्वेश्रोदयो पाति [ श्रादिपु० २५/४२] २९७ श्रसिदिसदं किरियाणं [ गो० ० ८७६ ] सूर्या नाम ते लोका [ ईशावा० ] २५९ २४७ आ २२२ श्रशीतितत्सहस्राणि [ वृषभयो मैथुनेच्छा [ तृतीयेऽम्बुधयी [ सण-सरिसव पक्खी [ ९० १२० १३ [ आत्मानु• श्लो० १३] १२० श्रकृष्टोऽह तो नैव [ ] २९४ श्राशा मार्ग समुद्र- [ आत्मानु० श्लो० ११] १३ आशासम्यक्त्वमुक्तं यदुत [आत्मानु०ली० १२] १३ श्रात्मज्ञानादेकदेशादा- [ } १५७ आत्म वितपरित्यागात् [ यश० उ०प्र०४०५ ] २९५ आनन्दीशानमैश्वर्य [ यश० उ० १० २७३ ] ८३ श्रले श्रुते ते तप्त्वे [ यश० उ० पृ० २३ ] बलि समया [ जम्बू०१३।५ ] ३३,२०९ ५ इ ] श्राकस्पिय श्रमाणिय [ भ० रा० ग्रा० ५६२ ] श्रर्थ्याचारसूत्रं मुनिचरण १२० ११७ | इगवी सेक्कारस्यं १२१ १९३ 1 ३०२ .[ त्रिलोक्सा० २४४, जम्बू-५०१२/१०१] १६० इनत्र यत्नादेरुभयम् [ ] २६२ उ उचालिम्मि पादे [ पवयसा० ० ३३१६ ] २३८ ७४, २५४, २६० | उच्छिष्टं नीचलोकाई [ यश ० ०५०४०४ ] २५६ C उ ક นี Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिधसागर जी महाराज 133 उद्धृतवाक्यानामकाराचनुक्रमः उत्ताणष्ट्रियगोलगदल- [तिलोय. ७४३७ ] १६० | कारणकजविहाणं | अारा० सा• गा० १३ ] ५६ उत्सर्मापवादयोरप-[ ] ३१६' कालु अणाइ प्रणाइ लिउ उधय एकादशके [ ] १२० । [परमात्मप्र - १.४] उपारसकर्मकात् [ ] किमिराय चरक्तणुगोल जी० गा० २८६] २६७ उम्मूलखंधसाहा [पञ्चसं० १११९२] ८५ कृल्ययुटोऽन्यत्रापि च [ का. सू. ४।५।९२, ५८,९७,२६२ कृष्णा षष्ठ महाकृष्णा [ ११६ वर्णव्यञ्जनान्ताद् ध्यण [ का.सू०४।२।३५ ] । कंदे मूले बल्लो पबाल-गो जीगा.१८७] २:५१ २१२,२३१ | क्षायिक मेकमनन्तं [ स · श्रुतमः श्लो० २९] २.२ क्षितिगतमिव ब:यीनं | रनम्०४६] २५७ एइंदियविलिदिय- [पंचसं० १११८६] २७३ क्षेत्र वास्तु धनं धान्यं । । २४२ एकापि समर्थेयं जिनभक्ति [ यश० उ० पृ. २८१] रकन अधिका न दश । वरत्वं मोहन तारध्यं] ] २६६ [प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० ३०७ ] २९७ ! खीसकसायाण पुणो तिगिरण | एक्कं पणवीसंपि। २७३ . एवमादित्वात् [ ] गुगाप्रधानार्थमिदं हि वाक्यम् | [बृहत्व. श्लोक ४५ ] २०३ श्रोगाढगाद णिचिदो [ पवयणसा. १७६१४६ | गृहसिरसंधिपच्छ । गो० जी० गा० १८६] २७१ श्रीसप्पिणि-अवसप्पिणि-[ पारस श्रपु. २९८९ । गोधूमशालियतसर्थप- २५१ सामान्तरात्समानीतं | वश० उ. पृ० ४०४] २५६ २२८ OM ११२ कच्छा सुकच्छा महाकच्छा [हरि० ५।२४५ ] । धमोदधिजगत्माए कण्डरादिकजन्तूनां [ ] ११३ घनोदधिमहत्तम्ब [ सत्यवि बलियो जीवो ] ] कम्मई दिवाण चिक्कण [परमात्मप्र० १७८] ९१ चतुश्चापशतश्चापि [ करणाधिकरणयोश्च युद्ध चत्वारिंशत्सहसाण [ [कात० ४१५१९५] ५८.२५५ चेस्तु हस्तादाने । का० सू० ४१५/३४] १५; कर्तृकर्मणोः कृति नित्यम् [का सू० २१४४१] कलइपिया कगाचिय छम्सुण्ण-वेणि-ग्रह य [ ] १८ [ तिलोयसा• गा० ८३५] १४० कसिपिसिभासीशस्थाप्रमदान [कात ४/४/४७] ९२ | जीवकृत परिणाम ' पुरुषार्यसि० श्लोक १२] १९० काऊ काऊ य तहगो०जी० गा० ५२८ ] २९ । जोगा पयडिपदेशा कापोती तु द्वयोलेश्या [ ] ११६ | [गो० का गा. २५७] २६२,२७७ कायवाक्यमनसा प्रवृत्तयो जीयममेगट्टिका छापा [बृहत्स्व० श्लो०७४ ] २११ . [त्रिलोकमा गा. | Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वाथवृत्ती १ शानं पड़ी क्रिया चान्धे [ यश• उ. पृ. २७१] थीशुदयेपुढविदो गो० का गा० ३३] २६५ शाने पूजा कुलं जाति [ रत्नक० श्लो० २५] २३०,२८४ दधिमर्पिःपयोभक्ष्य[ यश० उ. पृ० ४०४] २५६ झोरोलकाम्रक चैव [ ] दन्बपरियहरूको जो सो [द्रव्यसं० गा. २१] १९५ दंदजुगे ओराल | पञ्चसं० ११९९] ३२ जया बाहू य तदा [ कम्मप०७४ ] देसयामोहखषण- 1गी. जी. गा. ६४७१० गावगावदो एक्कठाम [ ] दाणे सम्भा भोउ [परमात्मप्र० २२७२] २८३ ण हि तस्स तष्णिमित्ते विहिलिपिश्लिषिश्वसि- [का० सू० ४।२।५८] २०७ [ पश्यणसा० क्षे० ३।१७] २३८ देवकृतो ध्वनिरित्यसदेतत् । ] १९६ पिच्चिदरधातुसत्तय दो दोवर्ग बारस बादाल-[ ] १६१ [बारस अणु० गा० ३५] दोरिसह अजियकाले । ] द्युतिगमोर्दै च [का.सू. ४४४५८] २३७ शिखरूप णिद्वेण दुराहियेण मार्गदर्शक । ७.१२३ अलार्मी साविधिसागर जी महायजयाजातिगुगामभद- । णिरयादिबहण्णादिसु जावादि द्रव्यविधानं हि गुणाः [ ] २०७ [ वारस असु० २८] द्वात्रिंशत्सहस्रामिण [ ] ११३ द्वावन्धी अष्टमके ] द्विद्धि स्ततश्चतुर्वस्ति । ] ११६ द्विवचनमनौ [ का सू० ३।२।२] सस्वार्थसूत्रन्याख्याता [नीतिसार श्लो० १९] तत्वोडशसहसारिण ] ११३ । धम्मो बधुसहावी तनुर्गन्धवहो नाना [ ] । कत्ति० अणु० गा० ४७६ ] २०९ तनुवातमुपर्यस्य [ ] ११२ धर्मादनिच (र) केवलात् तस्योपरितने भाये | ] ११२ पा० सू० ५।४।१२४ ] २३६ तिम्णि सया छत्तीसा [ ३६ भर्मेषु स्वामिसेषायां [ यश उ.पृ००५] २५६ तिणि सहस्सा सत्त य [ ३२ । ध्रुवमगयेऽपादानम् । पा० सू० १।४।२] २३१ तिण्डं दोह टुण्डं | गो जी गा० ५३३ । ३१ तिहय सत्तविहत्तं [पंचसं. १८६] तुर्यभूप्रथमपाले [ ] १२० न दुःखं न मुखं तद्वत् [ ] २२० तुयें पञ्चदशांशा [ ] १२१ । न दुःख न सुत्रं यत् [ ] तुबर्यश्चणका मात्रा [ ] २५१ : मभस्वतो कमाडीय ११२ तेऊ तेऊ यतहा गो० जी० गा५३४] ३० न मुक्तिक्षीयमोहस्य [आदिपु० २५/३९ ] २९७ ते पुणु बंद सिद्ध गण [ परमात्मप्र० ३५] १८४ - नवदुत्तरसत्तसया दससीदि. तेरसकोटी देसे । ] २. खिम्यू०प० १२१९.] १५९ तेरह फोडी देसे [ J १७ मवमे दशभागानो [ ] १२० तेविंशतेरपि [ का० सू० २।६४३] १३७ नष्टो यात्मको ध्वनिः [ ] १९६ त्रिंशन्यैव तु पञ्चविशतिरप्तः । ११४ । न सम्यक्त्वसमं किश्चित् [ रनक० श्लो३४] ९१ १७१ घ २२० Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नान्यथावादिनी जिना | J नाम्न्यजाती गिनि [ कान० २१७६ ] नैवे ! - ० २२८२ ] प पचेतुदृष्टान्तसाधितं मार्गदर्शक पञ्चमद्वयं शत्रुता | पच्छायडेय सिद्ध ! सिद्धभ० ४] पञ्चमब्धिर्दशके । उद्घृतवाक्यानामकारानुक्रमः प्रथमेऽस्मिन् । 1 १५ पत्राचारतो नित्यं | नीतिसार श्लो पटले द्वितीयकेऽधि | I पद्मा पद्मा महापद्मा [ दरि० ५ २४९ ] पर्यादिभाग | गोक० गा० २४ । [ मूलाचा० गा० १९२१ ] पलापयदये पयलुदयेण य जीवो [ गो० क० गा० २५ | परमाणौ: परं नापं J 1 का० सू० २५/१८ ] पूर्व वाच्य भवेद्यस्य [ बात० २५११४] खलु कोटी [ ! प्रकृतिः परिणामः स्यात् [ प्रत्यक्षं चानुमानश्च चसीसवासजन्मी [ बता दाल सही [ ਸਾਥੀ ਦੀ ਕੀ ਵਾ १२० २२४ भ १२० । भक्त संक्षेपे । J १२१ | भरते ग्लेच्छ्रखण्डेषु [ ८७ ब ३०९ १३१ १८१ पन् गहनं गणितशास्त्रम् | सुणोदिस पंच वि इंदियाणा [ बोधपा ५३ ] २१९,२३८ 1 पुढवी जलं च छाया [ वसु० सा० १८ || gae g परिमाणं [ जम्बू० ५० १३३१२] पुवद्भाषितपुंस्कादन् [ षड्द० समु० श्लो० ७० ] प्रत्याख्यानतनुत्वान्मन्द- [ रत्नक० ३।२५] प्रत्यासतेः प्रधानं बलीयः ! Į ९०,२६१ २६५ १२० १२९ २६५ १८४ १२४ ६५ १८० १४३ ७२, १५४ १०० १२० ९०,२६२ प्रथमभूप्रथमपले [ 1 हासे मन्यापदे मन्यते [पा०सू० १०४/१०६१७९ प्राय इत्युच्यते लोक- [ [ ३०१ २४५ ५ धिक गुण यस्माद [ ० स्लो ५३७ ] बन्ध प्रत्येकवं लक्ष्णती | ! बादरहमे गिंदिय | गी० जी० गा० ७२ ] मान्यविहीनाः [ जिलाना वेदनांव सवमा ११९ ३०० ११ भोज्यं भोजनशक्तिश्च [ यश० ० ० ४०५ ] भावे [ पा०सू० ३३१८ | ८६.१९५ क्तता मुहान [ इोप श्लो० ३० | ८८ नृतपूर्वकस्तदुपचारः [] न्यायसं न्या० ८ ५० ९ ] भूमिनिन्दाप्रशंसास [ परमात्मप्रमा० १२५] मारिवि श्रीवहँ लक्सवा ५३५ २०६ [ का सू० २२६११. द वृ० १ ] १८१ मिध्यात्वं दर्शनात् प्राप्ते [ मिश्र क्षीणकषाये च [ ८५ भिस्ले वाणत्तयं मिस्स | मूर्च्छा मोहममुच्छाययोः २४२ (१६ ३२५ ३१५ १२६ [ परमात्मागा १२६ १९३ मिन् खलु दय [ गो० ज० गा० ११] ५२ ५९ | मिध्यात्ववेदास्यादि- [ २४२ 1 ३४ २३ १६ 1 १३२ ] म मपरिहारा । गो० जी० गा० ७२८ ] ११ मतिरागमिका शेया [ ६१ २३९ J मरदु व जियदु व [ वयसा०३।१७ ] मर्यादायामभिविधौ | भारिवि रवि जोधडा १५.७ २०८ २५५ १०३ ] [० धातुपा० वा० २१९ ] २४१ ९३ ० प्राणत्यागे |पा धातुपा ० १४९६] ९३ शुचिका बालिका चैत्र [ मैथुनाचरणे मूढ [ शाना मोचो मसारगल्पश्च [ २४० ९३ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ य विशुद्धिसंक्लेशाज्ज्ञ चेत् २१२ यच्चार्चितं द्वयो: मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसाग महाराज" । विशेषणं विशेष्येण | पा० सू० २।१।५७ ] १७८ ater पदस्य [ शा७ व्या०२२३८ ] मूली रनवसिंग ९८ [ कात० २१५/१३ | यत्स्त्रीनपुसकाख्या | यदुगवादितः [ का० सू० २ / ६ / ११ यद्रागादिषु दोषेषु [ यश० उ० पृ० ३२३ | ९,६३,८६,९२ २३६ २०३ [ गाँ० जी० गा० २८५ ] २६७ ५ बेदणपरिमाणां जो [ द्रव्यसं० गा० ३४ ] २७९ यस्तु शक्यते स [ वेदे हेतु तु कारणादा [ ६६ ये चन्द्रकान्तश्च [ ९३ यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गी कृति [ श्रात्मानु० श्लो० १४ | यानि स्त्रीपु खलिङ्गानि [ र रागादयमगुणा [ रूभ्यं सुवर्ण वयं च | 學 F तार्थवृत्त रक्षोऽसुरा द्वितीये | ११३ रसग्मांसमेदोऽस्थि- [ अष्टाङ्गहृ० १ १३ ] ९५ २४७ ] ९३ 1 लक्षमेकमशीतिश्च [ लोकमूले च पार्थेषु [ लोमागावेसे [ गी० बी० गा० ५८८ ] ध विचिनपूर्विका शब्दार्थ- [ 1 २४९ १३ २६७ व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति- [ ] व्याङ्यरिभ्यो रमः वचि ठाणचउक्कं [ वरसा सुधत्सा महावत्सा [ हरि० ५ | २४७ ] प्रा सुवमा महावमा [ इरि० ५।२५१ ] वर्तमाने शतृ [ का० सू० ४।४।२ । वर्धन्ते मातरिश्वान [ बषहारकापल्ला [ त्रिलोक० मा० ९३] विका तह य कसाया [ पंचमं० १११५ ] २३८ विषहा तहा कसाया [ गो० जी० गा० ३४ ] २५९ विजया वैजयन्ती च [ इरि० ५२६३ ] १३० विद्यावृत्तस्य सम्भूति- [ग्लक० श्लो० ३२ | २२८ यिलिसिसोदि । J वियोजयति चासुभिर्न च ३६ [ द्वात्रिंद्वा०३/१६] विव विरसं विद्ध- [ यश० उ० पु० ४०४ ] २५६ २३९ ११२ १५२ | ३.१० पा०सू० १|३|८३ ] ७९ श शरीरनिवासयोः कश्चादेः [ का० सू० ४/५ ३५. ] शारीरमानसागन्तु ११३ श्रौतानुमितयोः श्रौतसम्बन्धो [ १९२ २०९ १५४ | यश० उ० पृ० ३२३ | ५ ९५ शुक सिंघाण करलेष्म । श्रद्धा भक्ति [ यश० उ० प्र०४०४ श्रोशिमाईभीतत्व - | ष दुहु गतौ [ समवप्रविभ्यः 1 म ] २३१ ] संविधम्मद [ तत्त्वसा० ० ७१ ] सङ्ख्यया ब्रजहीरन्त्यस्वरादि - [ २६ स चानन्तर्ये [ का० सू० ४/५/३६ ] सत्ताइं श्रताण [ ] १२९ । सत्तालोचनमात्रमित्यपि । प्रतिष्ठा ०२२६० ] ८६ १३० सच्चे सर्वत्र चित्तस्य [ यश० ॐ० पू० ३२३ ] ५ सदागतित्रयं तस्माद् 1 ] सप्तीतानशया सिन्ति दिवसान् ११२ [ सागार २६८ ] २५७ २६६ २१९ [ का० सू० ३१२/४२ दौ० ० १४ ] | समुदायेषु निवृत्ताः शब्दाः [ २१२ ३२३ १३७ १५४ २० १२६ ७६ १६८ सम्म सत्तदिणा विरद [ पञ्चसं०] ११२०५] ५० सम्यग्दर्शनशुद्धाः | रत्नक० श्लो १५] सरसं विरसं तीक्ष्णं । ] २३८ | सरूपाणामेकशेषः [ पा० सू० १|२|६४ ] ७२,१९९ द्वन्द्वविनिर्मुक्तो नीतिसारश्लो १७] ३०८ १४१ دے Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक : कलाभिज्ञो [नीतिसार श्लो १८] ८७ आचार्य श्रीमान ረረ पर्याट्टदि [ बारस० गा० ३८ ] ९१ विपुला खजु [चारस० २५] ८८ सहस्राणि तु तैव [ J साक्षान्मक्षिकारणं निर्म-चलिङ्गम् [ सागरदशभागानां [ ११२ [] २१६ १५० साध्याहाराणि वाक्यानि भवन्ति [ ] २९७ साचिनमस्तेषु [ १४ सायामायारा [ सार्वविभक्तिकस्तस् दत्येकं । साधारणमाहारो साहारण [ पश्चसं १८२ ] सिद्धे सत्यारम्भी नियमाय [ सिलवे [ गो० बी० गा० सिल पुढ विभेदधूली [गो० नी० ० सेयंवरांय आसंबरो[ 1 तत्वार्थ सूत्राणामकारादिकोशः દ ] ३२१ २७६ २७१ ] ६४,१९९ २८४ ] २६७ ८३] २६७ २५८ ] सोत्थि को एसो [ परमात्म० ११६५ ] सोलसगं चवीमंती [ स्तेनान्तलोपश्च [ स्थितिजनननिरोधलक्षणं २०१ ११२ [ बृहत्स्व० श्लो० ११४ ] स्वर्शनी लोकशिखरे [ ] स्वयमेवात्मनात्मानं [ ] ९६२३९ स्वरवृदगमिग्रद्दाम [ का० सू० ४/५/४१] २०७ स्वरायः [ का० सू० ४।२।१० ] स्वरूपमेतत्पवमानगोचरम् [ स्वर्भोगवर्गप्रसिताक्षवर्गो ] [प्रति० स० २।१२१] ६ हितं यात् मितं यात् [ देती प्रयोजने वाच्ये [ ] ] ५३७ } 65 १८ २३१ २०७ ११३ १०८ ३०५ ४ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्त्वार्थवृत्तिगताः केचिद् विशिष्टाः शब्दाः २४४ * " L.." " C २७१ २१ पृव पंक्ति। अइथूलथूलथूल अतिदुःखमा १३२ २ अपथ्यानलक्षण अक्किरिमाणं अत्राणमय २२८ १० अपरविदेह १२७ २९ अक्रियावादि २५८ १८ ' अरूपता १४८१ अपरधातकीखण्ड १४५ ११ अक्ष ५६ २४ | अद्धा १५२ अपराजिता १३० ७ अक्षीणमहानस १४९ ३ 'अधिगमज ५ २३ । अपयामि अधीणमहानसर्टि १४९१ | अनक्षर १९६ १८ अपरिमितकाल ३०० २ अधीमालय ५ अनगारकेवली ३१२ २८ अपहृतसंज्ञक २८५ ११ अक्षीणालयाई अननुगामी ७२ ५ अपूर्वकरण २८१ १८ अगुप्तिभय २२८ 'अनन्तचतुष्टय २४९ अप्रतिष्ठान अगुरुलघुगुण १८२ १२ १२ । अनन्तानन्त अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण २१८४ अगुरुलधुत्व २०८ १३ ' अनवस्थित अप्रत्याख्यानक्रिया २१४ अग्निशिखाचारणल १४७ ११ । अनाकामा क्रिया २६ २१४ २४ । अप्रमत्तसंयत २८१ १८ अमायणीपूर्व ६६ ३ | अनादेय २७१ २२ | अप्रशस्तविहायोगति २७१४ अङ्गप्रविष्ट ६५ ११ । अनाभोगक्रिया २१४ २० प्रति २८८ १० अनवाख ६७ १० | अनाभोगनिपाधिकरण२१८ ५ अभायात्मक अकुल १५२ २० । अनिवृत्तिबादर | अभिन्नाक्षरदशर्ष अचक्षुदर्शनावरण ३१५ २५ २६४ १५ साम्पराय २८१ १८ ' अभ्यन्तर उपकरण ९७ अचित्त ११ १०२ २८ अनित्य लक्षण १९७ १८ । अभ्यन्तर निवृत्ति अचित्तोष्णावत ७ ८ १०२ २८ | अनिःसरणात्मक १०८ १२ । अमनक अचेतनत्व २०८ १३ अनुकम्पा ५ १ ! अमूहहरिता २२८ १३ अजघन्योस्कृष्ट १८३ ६ । अनुगामी ७२ ५। अमूर्तत्व अशान ५८ १९ अनुभय २११ १४ | अमृतासावी १४८ २७ अजानना ५८ २१ । अनुभवस्थान ९० २२ अम्बरीष २९२ १ अशानिक २५८ २८ अनुभाग अम्बाम्बरीष १६४ २५ | अनुभागस्थान अम्बुबहुल अञ्जना ११३ १३, ११४१७ । अनुभूतत्व ५७ २२ | अम्ल २७० २३ अणुचंदन १६७ २१ | अनुमानित ३०२ १६ । अयश-कीर्ति २७१ २३ २३२ १८ अन्तकृद्दश ६८ १३ । अयोगिजिन २८२ १० अणिमा १४७ १९/२० । श्रन्तर ४१ १४ अयोध्या १२६ | ५, १६० ८ अण्ड १.३ २७ | अन्तरद्वीपोद्धय १४९ २६, अरिष्ट अण्डायिक ६५ १४ अन्तर्मुहूर्त ३२ १७ | अरिष्टा ११३ । १४, ११४ ७ अतद्गुण अन्ध ११४ ४ अरुणवर १२२ २० अतिथि २४६ ५ ! अन्नपानसंरोगाधिकरण २१८ ७ | अर्थ xxAFTAARES5ER2E: असन अणुव्रत #. ." Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थचर अर्थनय अर्धनाराचसंहनन अल्लोका काश अल्पबद्दल अल्पसावकर्मा अवात अवधिदर्शनावरण अवध्या अवर्णवाद अवस्थित अविपाक अव्यक्त अशीतिका अशुभ अष्टक असङ्घाट असत्य असम्प्राप्ता स्पाटिका हनन असम्भ्रान्त अमो afe मो असूवा पूर्व पति ११५ १४ आतापनादि ६ आधिकारिणिकी क्रिया २७० २ १८५ ८ ५३ २५ १७ (YE आवाराज आचार्य आज्ञामद आशा मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तार्थवृत्तिगताः केचिद् विशिष्टाः शब्दाः १९३ २१ २६४ १५ १३० ८ आवलिका २२२ २४ ११३ २९१ ६६ € 2202 आम्ल आर आरक्षिक आरम्भपदेशनामा द २३ | ९३ २७० ११३ २० १४९ १७ I'VE PR २४७ ६ भावती आबलि आवासप्रदान ७२ ५ आस्तिक्य ૨૬ ५ आस्यपिप ३०२ २४ आसवरो B २१ आहार २७१ १८ आहारक २११ ९. | आहारकमिश्र आहारकशरीरयस्वन २६९ १९ I | आहारशरीरसंघात २६६ २१ ९ १२२ १८ | उपभोग अस्तिनास्तिमादपूर्व 底 ५ अस्थिर २७१ २१ असयतसम्यग्दृष्टि २८१ अहमिन्द्र अंतमहुतं आकम्पित ४ आहारकशरीरा२६२ इंद्रिय इन्द्रियसंयम इरावान् इपुगति पृ पंक्ति ३०३ उज्जयिनी २१४ उज्ज्वलित १९५ उत्कर ११४ २. उत्कृष्ट १५५ ८ उत्तरकुरु दष्वाकार इहलोकभय ३/४ का २४४ २७ २७ १२८ २५ ३३ १ ३२ २४ २४६ १२ ५. २ किया ८ १५ T १५ २६ उत्तरगुणनिव ६८ ८७ ८ ईि ૪૮ उपतयः २२९ २६ पापादनक्रिया २२४ २३ उपभ १४९ । २२. २७२ | I'VE २० उद्धार २५८ २३ उदिम १०५ १ उद्भ्रान्त २११६,२६९॥७ इक्षुवर इक्ष्वाकुवंश १४९।१९; २७२/३ उपशमकश्रेणि दक्षण १९७ १८ उपशान्तमाह छन्द्र उपासकाध्ययन २३७ २३ उपाध्याय इन्द्रक १६४ १० १५ इन्द्र विमान १६२६ १६४/२५ १६२ १७ । १६५ २४ २.८ २५९ १० ४ 6 ३०२ १६ २२८ १. १० १२५ २३ 130 १०१ आकस्मिक भय आकाशगता चूलिका आगामिल १४७ १८ आगमद्रव्यजीव ७ २१ २१ आगमभाषजीव 7rk ऋतुविमान २२८ ९ ऋद्धिप्राप्त २१४ १६ विप्राप्ति | २१४ १४ विरहित १४७ २४ एकान्त ८. एकेन्द्रियजाति ४ एवम्भूतनय उत्तर गुणभाव उत्पाद उत्पाद उत्सर्पिणीकाल उपकरणचकुश उपगूहन उपचयशरीर उपपादिम उपेक्षा उपेक्षासं शक करण २१८ उभय उपकरण वितरण उपकरणसंयोगाधिकरण २१८ उष्ण ६ उमासो २५० ११४ P १९७ २१ १८३ ६ १२२/२४. १२७/२६ ५३९ पिं ३० ३१४ २६ २६ ६९ t २४ ६ १ ११३ २० ११६ ५ १५२ ९६ २४६ १२ २२८ १३ १६० १४ ६६ ३ १०७ १० २८१ २० २८२ ८७ १० ६८ ११ A ५८ २० २८.५ ११ २११ १३ १०२२५ १९५/२६ २७० २२ ३३ १ १६४ १० १४६ २७ २७ २८ २५८ १९ २६६ २ १८४ २६ १०७ १४६ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति खड १२८ २४ तत्त्वार्थवृत्तिंगताः केचिद् विशिष्टा शब्दाः पृष् पंक्ति | पंक्ति । ऐश्वर्यभद २२९ २९ | कायनिसर्गाधिकरण २१८ ८, क्षीरवर १२२ १७ औदारिक २५८२६९/७ कापबली १४८ १४ | क्षीरसागर औदारिकमिश्र ११ मदिखायम आचार्य श्री. विधिसांगाजी महाराज १४८ २४ औदारिक दारीरबंधन २६९ .... कायिकी किमा २१४ १५ , क्षुद्रभव २११।६, २६६१७ ' क्षुद्रहिमवत् औदारिकशारीरसंघात २६९ औदारिक शरीरातोपान २६९ ८ | कामणशरीरबन्धन २६९ १९ । क्षेत्र कार्मणशरीरसंघात क्षेत्र परिवर्तन औपपादिकदश ६ ८ १५ . कालपरिवर्तन क्षेत्रप्ररूपणा औषय काललब्धि २७ यात्राय १४६ २५ १४८ १८ कालस्वरूप खडखड कालासुर खना १३०८ कच्छकावती कालोद १२२ १५ खण्ड किरियाणं कच्छा १२८ २४ खरक्ष्माभाग ११३ कीलिकासंहनन २७० १९५ ३ | श्रा कुब्जसंस्थान २६९ २६ । गजदन्त २७० २३ गणधरवर केवली कुमुदा ३१२ २८ कपाटसमुद्रात गन्धमादिनी कुरुवंश १४९/२०, २७२।३ कर्कश १६५१२५, २७०।२२ गन्धा कुलमद २२६ २८ : गन्धिला कुशलमूला कर्मद्रव्यपरिवर्तन ८७ १९:२९ . १७ कर्मधारयसमास १५८ ७ . गव्यूति ७१११८, १५५/१५ कर्मप्रवादपूर्व गुस्थानेषु सत्यरूपमा १५ २० कृष्ण ११०८, १९५/२७ कर्मभूममुद्रव १५० २२ गुरु १९५/२५, २७७१२२ कृष्णलेल्या ८४ ८ कल्पविमान गुरुदत्तपाण्डवादि कृष्णवर्ण १७० २५ कल्ययवहार गृहात १५९ २६ गोत्रभिद समाकल्प केवलज्ञानकल्याण गोमूत्रिका कानपूर केवलदर्शनावरण २६४ १६ | धन काय १६५।२६, २६०।३ । कोट्टपाल १५५ १४ | घनवात २३८४८,२७०/२३, ३१५/७ | कोमल २७० २२ घनोदधिवात १११ १८ कपाशाम्यवसाद ६० ११ कोष्ठत्रुद्धि - घा कागद ६६ ८ क्रिया १४७११, १८२३ घाट ११३ २३ कापोतलेश्या ८४ २८ | क्रियाविशालपूर्य ६९ १५ घृतवर १२२ १८ कामरूपित्व १४८ १ क्लेशवाणिज्या २४४ २० | घोरगुणब्रह्मचारी १४८ ११ कायनुप्ति २८३ २३ | क्षपकोणि २८१ २० घोरताप १४८६ कायदुःप्रणिधान २५३ १० । क्षीणमोह २८२ ८ । घोरपराक्रम १४८ १३ . mar 6.८० २८८ १० गरिमा कृतिकर्म कृषिकर्मा केतु २४९ १ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ५४१ प्रपंति.। तेजस तत चित्त १४८ १० तत्याश्रवृत्तिगतः केचिद् विशिष्टाः शब्दाः पृष्ठ पंक्ति पृष्ठ पंक्ति चरिदिपविसयचलचारणस्व १४७ १२ । तेजोलेश्या ८४ २८ कम्मपाउम्ग १८० ५ | जलगतालिका २६६ . चक्रवर्ति५/१४. १२६६ ' जल्लमलसौषधर्द्धि २९४ ३३ | तेजसशरीरबन्धन २६६ १९ १४०/२१, २३७/२३ जात्याय १४६ १८ | तेजसशरीरसङ्घात । २६९ २२ चक्रा १३० ८ जिन ३०६ १२ वसरेणु १५२ १७ चक्षुर्दानावरण २६४ १५ । जिल ११३ २३ | त्रसित ११३ २१ चतुरानन ६६८ ! जिक ११३ २३ | त्रस्त चतुरिन्द्रियजाति ९६६ ३ जैनागम श्रीन्द्रियाति चतुर्थकाल गतुकथा चतुर्दशमार्गणानुवाद १६ ज्ञायकदारीर ७ २३ थीओ चन्द्रप्रशाप्ति ६८ २० ज्योतिरङ्ग १२७ ६ दक्षिणापथागत २५२ १ चारण झाप ११४ ३ दण्ड १५२।१४, १५२१२१ चारणविद्याधर ३२३ २८ दण्डकपाटपतरपूरण १८३६ चारित्रार्य १४६६ ४ १३ ! दण्डसमुद्रात चिकुराम्र १५२ १८ तत्सेवी ३०२ २४ दान क्रिया ३०१ २३ : तद्व्यवहारनय १८४ २६ दशवकालिक चित्रवनपटल १८३ १० तनुप्रभास १२६६ दीपात चित्राभूमि १४१ १२ तनुवात १११ १८ | दीप्ततपः २६७ २१ तन्तुचारमन्व १४७ दीप्ति १६६ २६ १६७ २१ | तपद्धि २६.४ २४ दुरभि १९५ २७ चूलिका तपन ११३ २५ | दुरभिगन्ध चेष्टोपदेश १४७ २७१ १६ छण्ण ११३ २५ दुःप्रतिलेखित२६६ तपामद २२६ २६ निक्षेपाधिकरण २१८ ५ छाया तुप्त ११३ २४ । दुःश्रुति १८३ ताततपः १४८ ११ | दुःपममुपमा जवाचारणस्व ५४७ तम ११४ ३ | दुषमा जङ्गादिचारणत्व १४७१ तमक ११४ २ दुःस्वर २७१ १७ तमिन्स ११४४ जम्बालबहुल নান दृष्टिविष ११३ २५ | जम्बूद्वीप ११४ २ देव ३२३ २८ अम्बुदीपप्रज्ञप्ति तिक्त ५२६, २७०२३ देवर १२७ २९ जम्बूवृक्ष लियंगलि २६८ २२ | देवगति २१८ २६ जयन्ती १३०७ तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व २७० २३ | देवगतिपरिवर्तन जरत्कुमार तिर्यग्भय म २५ | देवगत्तिप्रायोग्यानुपूर्य ३७० २६ जरायिक ६५ १७ | तिर्यग्वणिज्या २४४ २९ | देवचारणविद्याधर ३२३ २८ जरायु १०३ २५ तीर्थकर १०९।७, १२८११ | देवारण्य १८ २१ १४० २० 'देशविरत ८१६ जल चूर्णिका दुसंग ३०२ २० तपित १८० तार Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ देशावधि द्रव द्रव्यजीव द्रव्यपरिवर्तन द्रव्यमनः द्रव्यनय उत्पलेश्वा द्रव्यचाक द्रव्यसंवर द्रव्यार्थिक द्वन्द्रजाति द्वीप सागरप्रज्ञप्ति द्वैयाक धनश्री बरपेन्द्र धराइय चातकीखण्ड पातकीवृक्ष धारापुरीलहून नन्दनवन नन्दीश्वर नरक यति नरकगतिपरिवर्तन नरकगतिमा नकनामा नलिना नाथवंश नामकर्म नामजीव नारद नाराचसंहनन नाली निवाच निदानशल्य निर्वाणकल्पाण पृष्ठ पंक्ति । ७२ १७ । निर्विचिकित्सता २५४ १२ निश्रयनय | 13 २० निष्कुटक्षेत्र निसर्यक्रिया ८७ १९ २१. १८०११४ सिज I १९१ 151 मार्गदर्शक ८४ १८ २३९ २६ । न कर्म २३७ २३ नं कर्मद्रव्यपरिवर्तन १८० न्यग्रोपरिमण्डलसंस्थान त १२२ १५ योग्यानुपूण्ये RA २६ ११३ १९ १९० २७ नील २७९ १० नीललेा ६. १७८/४ नीलवर्ण २६६ २ नेपा T ६८ २० नैसर्गिक १ ३ ६ २५१ ३० १२४ २३ १२२ २६८ ८९ 19 ७ १२९ २९ १४६२१. २७२/३ ६ १७ २५ ૨૧ | २ ८ " १६ २२ २२ १४ सार्थवृत्तिताः केचित् विशिष्टाः शब्दाः ya vifes. २४२ १३ २४९ ९ ५ अविधेयश्री सुविधिसागर जी महायाविग्रादिकी क्रिया 用 निःखरणात्मक 1 I पद्मा | परकृत पणओ पत्रचारणत्व पद्मावती पद्मलेश्या परनिमित्त परमावभि १४० ૨૦ ३३ ३ परिमितकाल परमुख परलोकभय परस्थानविहार परार्थं परिकर्म परिचितत्व ११३ २५ | परीतानन्त मानव १३ | परोपदेशपूर्वक पार्थिक - २२८ १२ १९२ १ १०१ २१४ २२ ५. २२८ १०८ १९५ ८८ २०० 59 १२५ ६८ ५७ पीन पीतवर्ण २५ पुडी १० पुण्डरीफ २५८१६ | पुण्यपापपदार्थद्रय ३७ १२९ ८: १५ 1 पातालसज्ञक पद २२ । पापबन्ध १२ | पापप्रदेश २६९ २३८ १४०१२ १२ पारितारिको ८ २ १९ २६९ २० 2 3 1 2 2 ar २० 15 15 35 ९१. ७२४ I I ***-* पुरुपाद्यरक्षण पुष्करवर पुष्करवृक्ष I ८ । पुष्पचारणस्व । २७५ ९ पोत २२८ पुष्फला पुष्कलावती पुष्पप्रकीर्णक पूर्वीप्रमाण पूर्वगत ३२३ २७ १८२ १४ पूर्वविदेह ७२ १७ भक्त्व ! पूर्वप्रातकीखण्ड ९. पोताधिक २६ ४ प्रकृति ८ १२ प्रकृतिपुरुष १८प्रज्वलित २१ | प्रतर २ प्रतिक्रमण २०० te २० प्रतिभा २५ २६ प्रतिबासुदेव | :| प्रतिसेवना クラ 28 पंक्ति १०१ 5 १२४ २४ १४४ 5 १५२ २० २७७ १७ २४४ १८ २१४ २६ २१४ १६ १९५ २०० १८० २७ २५ ५ २० ५४ th १२०० २२८ ९ १२२ १६ १२२ ६ १२८ २५. ܝܐ ६७ ६ १९८ २५ १४७ १३ દર્ २.७४ १२ * १५. १४५ २१ ६५/२६, १२७/२८ ? २८ ६५ १५ १० १९ १७९ ६ ११३ २५ २३/२३, २२७/२१ ܝ ६७ ૪ ६१ ५. १४० १९ २१५. 15 Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यवेक्षित प्रत्याख्यानपूर्व दुत्यन्न प्रथमसम्यक्त्व प्रथमानुयोग प्रवेश प्रभावना प्रभासंश प्रमत्त प्रमतसंयत प्राणगति प्रमाणनिर्माण प्रमाणयोजन प्रमाणाकुल प्रमादचरित प्रमार्जित प्रयोगक्रिया प्रवचनमानुषा प्रथम प्रशस्तयिोगत भवनव्याकरण पृष्ठ पंक्ति २५.३ १९ ६६. १० ३२३ २३ ६६१२२८४ प्राण्यसंयम प्राध्यामिकी किया प्रादोषिकी क्रिया प्राप्ति प्रामृत प्राय: प्रायोगिक मायोगिकी प्रारम्भ किया प्रीति तस्यार्थवृत्तिगताः केचिद् विशिष्टाः शब्दाः पृष्ठ पंकि २२६ २६ 'भ्रान्त १३ १४८१३ मचवी ३०२ १३ २७११६, ३०२ २० ३१३ १ फल चारणत्व बल बलभद्र ६८ १९ २० ९० २२८ १६ १६४ १४ २१८ ३ २८१ १६ १५२ १५ RE ૪ १५२ १५. १५२१२ २४४ २८ २५३ २० अलमद ब जन २१४ १२ ३१५ २८ ४ २७ ४ २७१ ६८ १६ प्राकाम्य १४७ २३ प्राणातिपातिकी क्रिया २१४ १६ RE चावायपूर्व १४ भावमनः २६६/२६, २६७/१ बादर बाह्य उपकरण बाह्या निवृत्ति २१ बादर श्रादरकाययोग मधुर दर्शक: अवधि श्री सुवासखागर जी महाराज कि ′′ £ बीजकारणत्व बीजबुद्धि बुद्धि बुद्धो बुध बृहस्पति बौद्ध ब्रह्महृदय भट्टारक भरतपुत्र भवपरिवर्तन २५९ २१४ १९ भावलेच्या २१४ १४ भाववाफ् भावसंवर भावस्वरूप भाजना भावजीव भावपरिवर्तन १४७ ६६ २२ ३०१ २३ भाषिनोश्रागमद्रव्यजीव भाषात्मक भिक्षादान १६.४ २३ २१४ २५ भूतानुमतन्त्र पूट १६ भूतारण्य १४७ १३ भूषणाल २४७ १ भोजना १४० अस १४७ Fro ३ १४० १ ६१ ५ २५८ २३ १५६ १५९ ६६ ६. १६५ ७ 53 २५८ ८९ ४ मनुष्यगति 1 १४ मनुष्यगति २३ २४ मंङ्गल मङ्गलावती १२२. १८०१४ १९१ १६ ८४ २६ १९० २७ 5) सनक ५ ५.२ ' २७ १९६ १७ ५४३ पृष्ठ पंकि ११३ १६ ११३/१४, ११४/७ १५६ २५ १२६ १३ १६५/२६, २७०/२६ Ye 12 प्रायोग्यानुपूर्व्य २७० मनुष्य जीव मनुष्यमषपरिवर्तन १४ १७ मरीि १२ मधिकर्मा १२७ ११ महाकच्छा २ महाकल्प ६० १० महातपः महापद्मा महापुण्डरीक महायोजन महावत्सा महावना महाव्रत महिमा मनागुप्ति मनोदुःप्रणिधान मनोनिसर्गाधिकरण मनोबली मनोयोग मन्याखेटावस्थित माधवर २४६ १२ १२३ २३ | माघवी ११० ६ मानवयोजन १२७ ช मानुषक्षेत्र १२० १० मानुषोत्तर ११४ ३ मायाकिया ११३ २२ २६८ २७ 6. LE २५. २८३ २३ २५३ ११ २७ १७ २१८ ८ २११ १४८ १३ २५८ १४६ NOW ON y u UN N २५१ २६ १७ १३ ११८२४ ६७ RE १४८ 13 १२६ २८ ६७ २० १५२ २३ १२६.. १३० २३२ १८ १४७ २० १२९ ६ ११३/१४, ११४/७ १५२ २२ २७ ३२३ ०४/४१५१०१० २१४ २७ १२ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त्वार्थपूत्तिगताः केचिद् विशिष्टाः शब्दाः मुहूर्त ३२ १८ | लेश्या मेधा मायागता चूलिका ७० १० रूक्ष १९५/२६, २७०।२२ वर्दल मायाशल्य २४२ १२ रूपगता जूलिका ५० १० वर्धमान १४७ २४ मार ११४ रूपमद २२९ २९ । शिव मारणान्तिक २६ ११३ १९ | वसुनृप ४ | रोक्क १४७ २१ । वत्लान माल्यवान् १२० १५ लघिमा १९५।२६, २७०१२२ | वाग्गुप्ति २८३ २३ माल्यास मिथ्यात्यक्रिया २१४ १२ लल्लक २५३ १० ११४ ५ वाग्दुःप्रधिणान मिथ्यादर्शन क्रिया लचो ३३ २११ २१४ २८ २ | वाग्यांग ७ मियादर्शनशल्प लवणोद १२२ १. याग्विष १४८ २. मिथ्या दृष्टि २८१ २ लाङ्गलावती १२८ २५ बानिसर्गाधिकरण २१८ १०१ लानलिका ९ वात्सल्य मिश्चगुणस्यान २२८ १६ २८१ ११ ७७ १२ কাৰ १६ मीमांसकमत ८ | वादित्राम लिक्षा १५२ १९ | वामन संस्थान २६९ २७ १६६ ३० | वारुणीवर लोक २६३, १६९/२, १८४।१६ । वासुदेव १४० २१ मूलगुणनिवर्तनाधिकरण २१८ ! लोकनाडी मार्गदर्शक १२ आंचाई विकिहाविधिसागर जी महारजि ६. ८ लोकपूरण २३/२४, १८३।९ । विक्रान्त १२।२५, १२।२१ | लोबिन्दुसारपूर्व ६९ १६ | विक्रिया १८५ १८३ १० लोकाकाश १२५ २३ ८ | विकृतवान् १।१७, २।९, ८३९ लोकानुयोग १३० ७ मोह विजयाई लाल विजयाईपर्वत म्लेच्छ लोलुक म्लेच्छखण्ड वितत लोदित १९५ यव वितस्ति १५२ २१ यादव १४९ २२ वक्रान्त विदारण क्रिया २१४ २२ युक्तानन्त १८. २० पक्षारनामा १२८ १६ विद्याकार्य रक्तवर्ण यचोबली विद्याधर रज्जु वज्रनाराचसंहनन २७० १५२ २१ विद्यानुप्रवादपूर्व बनवृषभभाराचसहनन २६९ २५८ १६ स्थाणु वणिस्कमार्य २५८ १६ रमणीया वत्सकावती १२९ १३ वत्सा रम्या १२९ १३ वधकोपदेवा २४४ २४ । विषाकरन वन्दना ६७ १३ | विभङ्गनदी १२८ १७ रसायिक ९५ २० वप्रकावती १३. ४ | विभङ्गा राहु १५९ २७ वत्रा १३० ४। विभ्रान्त १४० २२ । वर्चस्क वि ११४ २ वृत १०२ २७ मोक्ष १६५ २६ | विजया १३४ १६ १२५ २६ २७० २५ १४८ १४ २४ रनि १४९ १६ विनय १२९ १२ / विपरीत १२६ १२ / विपर्यय Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! विशेष संख्या वीतराग ! बङ्गजान्त बोनुवादपूर्व वृधगिरि नृपमनामा नृपमसेन मृध्य श्रेचिय श्रतमद मार्गदर्शक:- अध्याय आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज २२८ श्राण श्रेणिचारगत्त्र २११८, २६६ ७ वैकिमिक वैक्रियिकमिश्र श्रेणिविमान वैक्रियिकशरीरबन्धन २११ २६६ शरीरात २६९ वैं क्रिमिशरीरापान २६९ वैजयन्ती वैनयिक वैभाषिकमत चैव सिक सकी वंश वंशा व्यवहार व्यवहारपल्यस्वरूप व्याख्याप्रज्ञाति शवा झानि शब्दनव शब्दवान् शब्दाकुलित शरीरवकुश शलाकापुरु शाल्मलि शिला शिल्पकर्मा शीत " शुक्र वस्त्वार्थवृत्तिगताः केचिद् विशिष्टाः शब्दाः ८] शुक्लवर्ण २० ५ ६५ २२ ६६. ४ १३० १८ १२६ ७ ६५ २८ २५४ १३ श्रुतशानिन् २५९ 扫材 १२ शुद्धि शैला श्रीदेवी श्री भद्रशालवन श्रीवर्द्धमान भुत के वली १६ार्थ ! २१ १३० अ ६०७/१४२५८१६ 19:5 ६ ८ सचित घडावश्यकपरिहाणि सल्य समक १९७ १ समवायान १६४ २३ समादानक्रिया ११३ १२ सम्प्रज्वलित ११४ सम्बन्धाहार १५२ ६ सम्भ्रान्त १५२ ११ सम्मूमि ११२/१३, १२४/७ मत १३२ १६ | साधारणशरीर १२४ २२ साधु ३२६ १ ६०१२४, ११०/७ समन्तानुपातनकिया १८५९ १० २२९ २१ २०११० १००१३ ६८/६, ६८/२० १६९ २० १५६. २६ ७. ६ १२६ १० ३०२ २२ २१६ ५. k १२३ ५ सांगिजिन ११४ ७ सराग १४६ १५ सरिता १०२/२७. १६५६ सर्वाची २०० २२ सीतराय | १५.९ २४ | द्यावधि २ | १६.५ २७ । सविपकि सम्मका सम्पा सम्यगादान "निपाति सम्यगीयसमिति सम्यगुत्सर्गं समिति २७० २५ सहसा निपाधिकरण २१८ ५ २५९ ११ साक्षर १६.६ १८ ७७ १२ ६ ८७ १२ सभ्यपणासमिति सम्यग्भाषासमति ૪ १० १६२ ७ १५२ १६. २९१ २६ १०१ २६ २११ १६ ५८ २१४ ६६ ६८ ट्र A २८४ ર २६४ १ २८४ १ २८४ १ २८४ २७ २०६ ܘܢ । ३ सुभीमब्रह्मदापत्यः ११०] १ ९ | २१४ १३ मुवत्ता ११४ १ सुत्रधा २५४ ८ १२३ ९५ २५. २१४ ११ VE फ सामायिक सावचकमोर्य सासादनसम्यग्टडि सिद्धकूट सिन्धु सीतानदी सीमन्तक सुकच्छा सुगन्धा सुदर्शन सुपद्मा 1 सुरभि सुरभिगन्ध मुखमदुःखमा सुपमसुत्रमा सुरमा सुषिर सहुम ور गुहुमधूल सुमसुम सूक्ष्म काययोग सूक्ष्म किष्टि सूक्ष्मत्व सूक्ष्मसाम्पराय सूत्र १२९ २९ सूत्रकृताङ्ग १४२७ सूत्र १८९ ९ सूर्या ७२ १० शेयंवरो २७६ ५. सोमवंश २७१ чук ६७ १२ Pre १० २०१ १३५ १२६ १२८ १४ ११२ ११ १२८ २४ १३० ५. १२४ २१ १२६ २८ С १६५ २७ २७० 6 १८ १२ ५. १२६ १२ १३० १३६. १३६ १ १३५ १६७ ३ १८०७ १८०८ ३०२ २० १८० 15 २ ३१६. ६ १३ २०८ २८१ te ६८ १८ ६८ ४ ६८ २० १४६।१९ २७२२३ २५० २३ १४९/२० २०२३ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्वार्थवृत्ती संसार सीमनसवन स्थान निर्माण स्वयम्भृरमण संख्यानरूपणा स्थानाङ्ग ६८ ५ स्वस्थानविहार संजयन्त ११. १६ ' स्थापना जीव ७ १८ स्वातिसंस्थान २६६ २५ संज्वलित १४४ १ स्थावर २७१ १४ स्वामी संवत १०२ २७ स्थिति ९० १९ स्वार्थ संशय ४७, २५८/१६ स्थितिकरण २२८ २० हरिवंश १४६।२१, २७२।। ८७ १ स्निग्ध १६५र६. २७०/२२ हरिहरादिक १६६२३ संहरण ३२३ २७ स्पर्धक ७१ २२ सांव्यवहारिक ६. २८ । स्पानक्रिया २१४ १८ हिम स्तनक स्वकरक्रिया २१४ २१ हिंसाप्रदान स्तनलोटुक ११३ २४ स्वकृत ३२३ २७ : हीयमान स्तवक ११३ ३ वनिमित्त १८२ १२ । हुण्डसंस्थान २४७ स्थलगताचूलिका ७. ६ | स्वमुख २७५ ६ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्त्वार्थवृत्तिगता ग्रन्था ग्रन्थकाराश्च अकलकः ११३, ३२६।१। प्रमाचन्द्र श२, ११०१७ ' विद्यानन्दिभू अष्टसहली प्रमेयकमलमार्तणन ८. ३० विधानन्दी १३, २७६२ उमास्वाति पूज्यपाद १२. २७ ॥१, ३२६।१ । विद्यानन्दि देव ८५ २६ उमास्वामी १११, १२१४, १७८३ . भगवती आराधना ८५६ र श्रुतसागर श्रुतसागर ११३ २ २७६२। मतिसागर उमास्वामिभधारक १ ५ | ८. २४ । श्रुतीदवद् तत्त्वार्थवृत्ति १ ४ | महापुराण १४० १७ । श्लोकवार्तिक ८० २९ तस्वार्यश्लोकवार्तिक २०६ २४ | योगीन्द्र २६३ १३ समन्तभद्र देवेन्द्रकीर्ति भहारक ८० २५ राजवार्तिक समन्तभद्र स्वामी६१।१५,२११०२० नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव २०१४ राजवार्तिकालवार ११० १० संस्कृतमहापुराणपञ्जिका २३ ३२ न्यायकुमुदचन्द्र ११०७, ८०।२९ , विग्रादिनन्दि ३२६ २ सार्थसिद्धि Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थसङ्केतविवरणम् अकल टि-अकल ग्रन्याय टिप्पण ८ जैने या०-जैनेन्द्र व्याकरण वार्तिक १८१ अमर-अमरकोश ४.१४ ज्ञानार्णः-शानार्णव अष्टश-अष्टशती ६६ तरवसा गा-तत्त्वार्थसार अपस-अपसहस्री ६६ तत्त्वार्थसा० -तत्वार्थसार ६३ अष्टाङ्गह-अष्टाङ्गाहदय ६५ त. भास्कर-तस्वार्थस्त्र भास्करनन्दिवृत्ति ३ अभिधर्म टी-अभिधर्मकोशटीका ७७ तरा-राजा-तत्वार्थराजवार्तिक ६६,११,१३८ आचा०नि०-आचाराष्ट्रनियुक्ति १३ । १० श्लो-तस्वार्थश्लोकवार्तिक आत्मानु-आत्मानुशासन | तिलोय-तिलीवपत्ति ११४, ११५.१६० आदिपुराण तिलोयसार त्रिलोक तिलायसार १२१, १४५, आसमी-आप्तमीमांसा २१३ त्रिला कसा १५२, १६०, १६१, १६५ आरा सार-माराधनासार ६६ त्रिलोक प्रज्ञ. वैमा नका-त्रिलोकप्रति आव०नि०-आवश्यकनियुक्ति २४७ वैमानिक लोकाधिकार इष्टोप-इष्टोपदेश दशनि हरि०-दशवकालि कनियुक्ति ईशावा०-ईशावास्योपनिषत् __ हरिभद्र टीका कत्मिाकिस्यामिबिधानमा सुविधिसांगर्स आदमहादशभक्ति ६६.७१ कम्मप० कम्मपयडी २६७ द्रव्यसं० -द्रव्यसंग्रह ११५, २६१,२७६ कल्याणा-कल्याणालोचना ३६ द्वात्रिशदवा-द्वात्रिंशद्वात्रिंशतिका २३८ कात० उ०, का० उ० ध०टी० अ०-धवलासीका अत्यबहुत्त्व ४१,४२, कातन्त्र उत्सरार्ध ४,८,५८,६३,८६,६.२,१३१, ४२, ४५, ४६,४७, ४८, ४६, ५० २२३ टी० का -धवला टीका काल ३३, ३४, ३५, का०, कात, का० सू०-कातन्त्रसूत्र ७२,६७,१३७, ३३, ३८, ३६, ४० १५१,१४५,१३१,१८६,१६.४,१६५,२०३, २०७, ०टी०द्र -धवला टीका द्रव्य १७,१८, १२.५० २१३,२३२, २३७,२३६ प. टी. भा-धवला टीका भाव का सू• दी. वृत-कातन्त्रसूत्रदोमवृत्ति ७६.१११, ध० टी० सं० --धवला टीका संख्या ६८, ६६, ७० १५५,१८१, नाममाला गो० फा-गाम्मटसार कर्मकाण्ड- २६, ३१,२५६, नियमसार १६८ २६२, २६५, २७७ गीतिसार गो० जी-गोम्मटसार जीवकागड १०, ११, १७. न्यायगर-न्यायम् करी १५, १९, २०, २६, ३०, ३१, ३२, ३६,५२, न्यायसं० -यायसंग्रह ९९६. २९६ 30,७१, २०५, १०६, २५६, २६७, २०१, पञ्च मे० -पावसंग्रह १२.३२,५०।६५,८५, २८४, ३०० २१८२७१।२७३ जम्बू० प०-जंबूदीवपाणप्ति ३२, १४३, १५६, | परमात्म-परमात्मप्रकाश ८८,८६,९१,१८४,५९३, १६०, २०६ जयभ-जयधवला ६,६६, ६८, | परिभाषन्तु०-परिभाषेन्दुशेखर जपध० प्र०-जयधवला प्रथमवंड ६८ पत्रयणसा. -प्रवचनसार १८६,२३२ . . . .. Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 548 ग्रन्थसतविवरण पवयणसाझे-प्रवचनसार, एक 238 | विश्वलो०-विश्वलांचनकोश पं नास्ति-पञ्चास्तिकाय 187 | वैशे०-वैशेषिकसूत्र पा० धातुपा-याणिनिधातुपाठ 241, शा. व्या:-शाकटायम व्याकरण 98.123,131 पाम भा०-पातसलमहाभाष्य 199 / पटग्वं 0 अ०- पटखंडागम अल्पबहुल्य 41,42, पा महा०-पात अलमहाभाष्य 43,44,41, 46,47,48,49,5.51. पात-पात खल महाभाग्य 53,54,55,56 पात. महा.- पातञ्जलमहाभाष्य 176 | षटर्ख० का - पटखंडागम काल 32,34.35,36 पा० सू०- पाणिनिसूत्र 72,79,86,178, 37,38,39.40 188,198,119,231,233 पटखं० खु०-पटवागम खुदक बंध 41 पुरुषार्थसि० -पुरुषार्थसिद्धथुपाय 190 / पखं० खे० -घटखंडागम खेत्ताणुगम 23,14,25 এবিছা 0 –সনিষ্ঠা 86 | पटवाटा - पटखंडागम 14,15,16.17,35 मार्गदर्शक आचनिधााविधिसागर जी महाराजपर्ख० द्र- पनडागम द्रव्य 17,18,19,21, प्रमाणवा० -प्रमाणवार्तिक 22.13 प्रचार्तिकाल-प्रमाण वार्तिकालवार 3 पटव० घरटी खे-पटरवंडागम प्रा न्या०-प्रशस्तपाद व्योमवती | धनलाटीका खेत्ताणुगम बारस अण. बारस अणुवस्या 88,89,60, 'पटुम्ब 7 को -पटम्बंडागम फोसणागम 26,28,29,30,31. बृहत्स्व इलोक० -वृहस्वयम्भू पटक मा-पट्वंदागम भावाणुगम 52,53 201.2.2.211 / पद् समु०- पदर्शनसमुच्चय बोधया-बोधपाहुइ 219,238 / सम्भति- सम्मतितर्क 0 आरा---गवती आराधना सवार्थः, स० मि.-साथ सिद्धि 8,9,17.3... महावंध 37,54,66, मूलाचा-मलाचार 8.,96,138,206,209, 220,239 यश. क-यशस्तिलक कल्य 3,5,83,22,239, सं श्रुतभा-संस्कृत अतभक्ति 223 255,256.257 सागारध०-सागारधामृत यश० पू० मस्तिलक पूर्वाध सांस्पका-सांस्यकारिका योगमा०- योगभाष्य सिद्धभः-सिद्धभक्ति यांगसू०- योगसूत्र सिद्धिवि. -सिद्धिविनिश्चय रनक-रत्नकरराइभावकाचार 91,228,230, 245, 246,247,255.308 स हिता वराङ्गन- बराङ्गचरित्र 124 | सौन्दर०-सोन्दरनन्द काध्य वसु. सा- बतुनन्दिारका चार 160 बरि० - हरिवंश पुराण 71 . 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