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________________ सम्यग्दर्शन का सम्मरदर्शन ३५ मनका होता है अर्थात् वैराग्यसे तत्वज्ञान परिपूर्ण होता है और फिर मुक्ति । जैन तीर्थकरांचे "सम्यग्दर्शमशानपारिवागि मोक्षमार्गः" (तन्वार्थमूत्र १११) सम्यग्दर्शन सम्परज्ञान और सम्यकचारित्रको मोक्षका मार्ग कहा हूँ। ऐसा सम्यग्जान जो सम्यकचारित्रका पोषक या बर्द्धक नहीं है मोक्षका साधन नहीं हो सकता। जो जान जीवनमै उनबर यात्मशोधन करे वही मोक्षका बारण है । अन्ततः सच्ची श्रद्धा और शानका फल चारित्रशुद्धि है । ज्ञान थोड़ा भी हो पर यदि उसने जीवनशुद्धि में प्रेरणा दी है तो वह सम्यग्ज्ञान है। अहिमा मंयम और तप साधनात्मक वरता है जानात्मक नहीं । अतः जनमंस्कृतिने कोरे जानको भार ही बताया है । लत्त्वोंकी मापी घद्धा खासकर चरकी श्रद्धा मोक्ष प्रासादका प्रथम सोपान है। आत्मधर्म अर्थात् आत्मस्वभावका और आत्मा नथा शरीगदि परपदार्थो का स्वरूपन्जान होना-इनमें भेदविज्ञान होना ही सम्यग्दर्शन है। मभ्यकदर्शन अर्थात् आत्मस्वरूपका स्पष्ट दर्शन, अपने लक्ष्य और कल्याण-मार्गकी दह प्रतीनि। भय आगा स्नेह औरलोभादि बिसी भी कारण से जो श्रद्धा चल और मलिन न हो सके, कोई साथ दे या न देर भीलग्ये जिसके प्रति जीवनकी भी बाजी लगानेवाला परमात्रगाढ संकल्प हो मार्गदर्शवाह-जीसमवपापविहीरइसीज्योतिराजजगने ही माधकको अपने तन्त्रका स्पष्ट दर्शन होने लगता है। उसे स्वानुभति-अर्थात् आत्मानभव प्रतिक्षण होता है। वह समझना है कि धर्म वात्मस्व. रूपकी प्राप्निम है, राह्य पदार्थाश्रित क्रियाकाण्डम नहीं। मीलिए उसकी परिणति एक विलक्षण प्रकारको हो जाती है। उसे आत्मकल्याण, मानवजानिका कल्याण, देश और रामाजके कल्याणके मार्गका स्पष्ट भान हो जाता है। अपने प्रात्यागे भिन्न विनी भी पपदार्थकी अपेक्षा ही दृग्यका कारण है । सूख स्वाधीन वनिमें है। अहिंसा भी यन्ततः यही है कि हमारा परपदार्थ गे स्वार्थसाधनका भाव कम हो । जैसे रवयं जीबिन रहने की इच्छा है उसी तरङ्ग प्राणिमात्रा भी जीवित रहनका अधिकार स्वीकार करें । स्वरूपज्ञान और स्वादिकार भयदाकी न सम्मम्जान है। उनके प्रति दढ़ श्रद्धा सम्यग्दर्शन है और तद्प होनेके यावन प्रलला सम्यक चारित्रई। सा..- अन्यत्र आत्मा चैतन्यका धनी है । प्रनिश्क्षण कीय बदलने हा भी उगकी अविच्छिल धाग अनन्तकालतक चलनी रहेगी। उनका कभी समूल नाश न होगा। एक इन्चका मरे कपन बोर्ट अधिकार नहीं है। रागादि कथा और वागनाएँ आत्माका निजरूप नहीं दिकाग्भाव: । गरीर भी पर है। हमारा ग्रूप ना चैतन्यपात्र है। हमाग अधिकार अपनी गणपयांया पर है। अपने विचार और अपनी यियाआको हम जैसा चाहें वैसा बना सकते हैं। दूमोको बनाना बिगाड़ना हमाल म्वाभाविक अधिकार नहीं है। यह अवश्य है रि. दुराग हमारे बनन बिगड़ने में निमिन होना र निमित्त उपादालकी योग्य-राका ही विकास करता है। यदि उपादान कमजर है नो निमिनके द्वारा अत्यधिक प्रभावित हो सकता । अनः बनना बिगड़ना बहुत कुछ अपनी भीतरी 'मोग्यतापरही निर्भर है। इसतरह अपने आत्मानं स्वरूप ऑर ग्वाधिकारपर अटल थक्षा होना और प्राचार व्यवहारम इसका उल्लघन न कानकी दर प्रतीनि हाना सम्यम्बान है। सम्यग्दर्शनका सम्यग्दर्शन-- मम्यग्दर्शनका अर्थ मात्र यथार्थ देखना या वास्तविक पहिनान ही नहीं है, किंतु उस दर्शनके पीछे होनेवाली दृढ प्रनीनि, जीवन्त श्रद्धा और उसको कायम रखने के लिए प्राणों की भी बाजी लगा देनेका जदर विदनाम ही वस्तुतः सम्बग्दर्शनका स्वरूपार्थ है। सम्यग्दर्शनमें दो शब्द है सम्यक और दर्शन । सम्यक शब्द सापेक्ष है, उसमें विवाद हो सकता हैं। एक मन जिसे सम्यक् समझता है दुसरा मत उसे सम्यक नही मानकर मिथ्या मानता है। एक ही बम्तु परिस्थिति विशेषमें एक को सम्यक् और दूसरेको मिथ्या हो सकती है । दर्शनका अर्थ देखना या निश्चय करना है। इसमें भी भ्रान्तिकी मम्भावना है। सभी मत ने अपने धर्मको दर्शन अर्थात् सामक्षात्कार किया हआ बनाते है, अनः कौन मम्यक और कोन असम्यक तथा कोन दर्शन और कौन अदर्शन
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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