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तरवावृत्ति प्रस्तावना
आदिको देखकर अविकृत बने
'मार्गदर्शक' आचार्य सुग महाराज भी यदि कोई ऋद्धि सिद्धि प्राप्त न हो तो भी तपस्याके प्रति अनादर नहीं होगा चाहिए। कोई सत्कार पुरस्कार करे तो हर्ष न करे तो खेद नहीं करना चाहिए । यदि तपस्या से कोई विशेष ज्ञान प्राप्त हो गया हो तो अहंकार और प्राप्त न हुआ हो तो खेद नहीं करना चाहिए। भिक्षावृत्तिसे भोजन करते हुए भी दोगताका भाव आत्मामें नहीं आने देना चाहिए । इस तरह परीषहजयसे चरित्रमें दूध निष्ठा होती है और इससे आवथ कर संबर होता है ।
चारित्र चारित्र अनेक प्रकारका है। इसमें पूर्ण चारित्र मुनियोंका होता है तथा देश चारित्र श्रावकका । मुर्ति अहिंसा सत्य अचौर्य ब्रह्मवयं और अपरिग्रह दन व्रतोंका पूर्णरूप में पालन करता ई तथा श्रावक इनको एक अंशसे मुनियोंके महानत होते हैं तथा धावकोंकि अल इनके सिवाय सामायिक आदि पारित भी होते हैं। सामायिक समस्त पापक्रियाओंका त्याग, समताभावकी आराधना । छंदोपस्थापना - यदि व्रतोंमें दूषय आ गया हो तो फिरसे उसमें स्थिर होना परिहारविशुद्धि इस वारिवाले व्यक्ति शरीरमें इतना हलकापन आ जाता है जो सर्वत्र गमन करते हुए भी इसके शरीरसे हिंसा नहीं होती । सूक्ष्म साम्पराय अन्य सब कपायोंका उपाम या क्षय होनेपर जिसके मात्र सूक्ष्म लोभकाम रह जाती है उसके सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र होता है। यथास्यातचारिण जीवन्मुक्त व्यक्तिके समस्त कषायक क्षय होनेपर होता है जैसा आत्माका स्वरूप है वैसा ही उसका प्राप्त हो जाना यथास्यात हैं। इस तरह गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेक्षा परीषहजय और चारित्र आदिकी कि होनेपर कर्म प्रवेशका कोई अवसर नहीं रहता और पूर्णसंबर हो जाता है।
निर्णय- गुप्ति आदि सर्वतः संवृत व्यक्ति आगामी कमोंके आसवको तो रोक ही देता है साथ ही साथ पूर्वबद्ध कमकी निर्जग करके क्रमशः मोक्षको प्राप्त करना है। निर्जरा शड़ने को कहते हैं। यह दं प्रकारकी होती हूं -- (१) ओमिक या अविक निरा (२) अनीमिया विपाक निर्जरा। तप आदि साधनाओंके द्वारा कमको बलात् उदयमें लाकर बिना फल दिये ही शहा देना अधिपाक निर्जरा है। स्वाभाविक रुमसे प्रति समय कम फल देकर झड़ जाना सवियाक निर्जरा है। यह सवि पाक निर्जरा प्रतिसमय हर एक प्राणी होती ही रहती है और नूतन कर्म बंधने जाते हैं। गुप्ति समिति और खासकर तरूपी अनिके द्वारा फमको उदयकालके पहिले ही भस्म कर देना अविपाक निर्जरा या ओमिक निरा है। म्यष्टि भाव, गुभिः अनन्तादन्दीका वियोजन करनेवाला दर्शनमोहक क्षय करनेवाला उपनामहाला अपकश्रेणीवाले श्रीममोही और जीवन्मुक्त व्यक्ति क्रमशः असंख्यात गुणी बमोंको निर्जरा करते हैं। 'कर्मो की गति दल नहीं सकती' यह एकान्त नहीं है । यदि आत्मामें पुरुषार्थ हो और वह साधना करे तो समस्त कर्मोंको अन्तर्मुहूर्त ही नष्ट कर सकता है। "नाभुक्त' क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतंरपि ।" अर्थात् संकड़ों सपकाल बीत जानेपर भी बिना भोगे कर्मो का क्षय नहीं हो नका यह मत जैनोंको मान्य नहीं जन तो यह कहते हैं कि "ध्यानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते क्षणात ।" अर्थात् ध्यानरूपी अग्नि सभी कर्मोंको क्षण भरमें भस्म कर सकती हैं। ऐसे अनेक दुष्टान्त
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मौजूद हैं-- जिन्होंने अपनी प्रात्साधनाका इतना बल प्राप्त कर लिया था कि साबुदीक्षा लेते ही उन्हें लाभ हो गया। पुरानी वासनाओंको और रागद्वेष आदि कुसंस्कारोंको नष्ट करनेका एकमात्र मुख्य साधन ध्यान अर्थात् चित्तवृत्तियोंका निरोध करके उसे एकाग्र करना ।
इस प्रकार भगवान् महावीरने बम्ब ( दुःख) बन्धके कारण (आसन) मोक्ष और मोक्षके कारण-संवर निर्जस इन पांच तत्वोंके साथ ही साथ अहमतश्वके ज्ञानको भी खास अश्वदयता बनाई जिसे बन्धन
और मोटा होता है तथा उस अजीव तत्वके जानकी जिसके कारण अनादिसे यह जीव मन्मनबद्ध हो रहा है।
मोक्षके साधन वैदिक संस्कृति विचार या मानसे मोक्ष मानती है जब कि श्रमण संस्कृति आचार अर्थात् चारित्रको मोक्षका साधन स्वीकार करती है। यद्यपि वैदिक संस्कृतिय तत्वज्ञानके साथ ही साथ वैराग्य और संन्यासको भी मुक्तिका अंग माना है पर वैराग्य आदि का उपयोग तत्त्वज्ञानकी पुष्टिमें
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