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________________ सतरतरवनिरूपण २३ प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य ( सेवाभाव ) स्वाध्या और व्त्सर्ग (परित्याग ) में वित्तवृत्ति लगाना। ध्यान चित्तकी एकाग्रता । उपवास, एकाशन रसत्याग, एकान्तरोवन, मौन, शरीरको सुकुमार न होने देना आदि बाह्यत है। इच्छानिवृत्ति रूप तप गुरु है और मात्र बाह्य कायदेश, पंचाग्नि तपनाहट योग की कटिन कियाएँ बालता है | उत्तमत्यागदान देता, त्यागकी भूमिका पर आना । शक्त्यनुसार भूखीको भोजन, रोगी को औषधि, अशाननिवृत्तिके लिए ज्ञानके साधन जुटाना और प्राणिमात्रकी अभय देना समाज और दे निर्माण के लिए तन धन आदि गाधनीका त्याग। लान पूजा नाम आदि के लिए दिया जानेवाला दान उसग दान नहीं हूँ । उत्तम आकिञ्चन्य-अनिमात्र बाह्यदि ममैत्य भावकीया पर्ने धान्य द मार्गदर्शक, आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज हि तथा शरीरमें यह मेरा नहीं है, आत्माचा बनतो उसका शुद्ध चैतन्यरूप हूँ' 'नाति में किञ्चन'मेरा कुछ नहीं है आदि भावनाएं आविन्य है कर्तव्यनिष्ठ रहकर भौनिकतामे दृष्टि हटाकर विशुद्ध त्मिक दृष्टि प्राप्त करना उत्तम ब्रह्मत्रयं ब्रह्म अर्थात् आत्मस्वरूपमं विवरण करना । स्त्रीमुखमे विरक्त होकर समस्त शारीरिक मानसिक आत्मक्तियोंको आत्मविकासोन्मुख करना । मनःशुद्धिके बिना ब्रह्मचर्य न तो शरीरको हो लाभ पहुँचाता है और न मन और आत्मामें ही पवित्रता लाता है । अनुप्रेक्षा- सद्भावनाएँ आत्मविवार । जगत्‌ में प्रत्येक पदार्थ क्षणभंगुर है। स्त्री आदि पर द भावनः अनित्य है अतः इनके बिछुड़ने पर क्लेश नहीं होना चाहिए । संसारमे गृत्युमुख बचाने वाला कोई नहीं । बड़े बड़े सम्पाद् और साधनसम्पन व्यक्तियोंको आयुकी परम होते ही इस मरवारीको छोड़ देना होता है। अतः इस मृत्यु पाना नहीं माहिए। जगत् कोई किग्रीको गर नहीं है। हम ससारमें यह जीवनानापानियां परिभ्रमण करते हुए भी आपकी प्राप्ति नहीं करने के कारण अनेक दुर्वासना थागित रहकर रागद्वेष आदि में उनका रहा शारीरिक हूँ।एतंत्ररी पुत्र मकान यहां तक कि शरीर भी मेरा नहीं है, हमारे स्वरूप से जूदा है। यह शरीर मन रुधिर आदि चान धातुभहना हुआ है। इस बहता रहता है । उनकी सेवा करने करने जीवन जीन गया। यह जब तक है अपना ओर जगत्का जो उड़कर ही एकता हो, करना चाहिये । ि रागादिभाव और वासनाएं है उनने फिर दुर्भाबाट होती है कर्मोका आप होता है, और उससे को पड़ना पड़ता है। अतः इन आदि कपयों छोड़ देनः राहिए। परिवार गमताभाव आदि आध्यात्मिक आगे होना रोके जा सकते हैं सुष्टि की जानेर खोटी आदत स धीरे धीरे द्वार हो सकता है यह अनो अनन्त भित्रन है। इसमें लिखेदा सुनाई। व्यक्तिका उबार ही मुख्य है। लोक के राकृतिक रूपका सदस्य भाव मे चिन्तन करनेसे रागादि बुनियां अपने आप संकुचित होने लगती है। गाजी वनमें जो आनन्द यह नहीं पदार्थ है जवान बनने के साधन भी विज्ञान उपस्थित कर दिये पर अत सम्यग्ज्ञानतत्वनिर्णय होना है। जिससे आगरा और निराकुलताका हाम कठिन करे यह बोध अत्यंत दुर्लभ है । यह अहसाको भावना, भानत्रमात्र के ही नहीं प्राणिमात्र मुलक आकांक्षा जगत्के हितकी पृष्पभावना ही धर्म है प्राणिमात्र मे मंत्रीभाव, गुलियों गुण प्रमोद दुःखी जीवों दुःखमें सहानुभूति और वंदना विचार तथा जिनसे हमारी निवृतिका मे नही साता उन विग पुरुषद्वेष न होकर हमारी आत्मकथा मानवसमाजको अहिमा तथा उच्च भूमिकापर ले जा सकते है । ऐसी भावनाओंको रादा दिन भान रहना चाहिये । इन विचारोग सुरात्त समय आनेपर विच नहीं हो सकता सभी में समताभा सकता है और कमों के आसनको शेककर गंवरकी ओर ले जा सकता है। " परीष जय-मापकको भूमारा उंद नरमी मतांतर चलने फिरने गोनेमें आनेवाली करु आदि बाधाएँ व आक्रोश मल रोग आदिको वाधाको शान्ति महना चाहिए। नग्न रहते हुए भी स्त्री
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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