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त्यावृति
अनेक प्रकारकं ब्रह्मचयंनास ध्यान आदिये साध्य होने के कारण दुर्या होगा अतः मांझ अवस्थामें शुद्ध चित्त सन्ततिक सत्ता मानना ही उचित है। तयसंग्रह पंजिका (५० १०४ ) आचार्य कमलशीने संसार और निर्वाका प्रतिपादक यह प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है-
"चितमेव हि संसारी रागादिक्केशवासितम्। सैविनिर्मुक्त' भवान्त इति कथ्यते ॥"
अर्थात रागादिवा-वासनागम चितको संसार कहते हैं और जब वही भित रामादि क्लेश वासनाममुक्त हो जाता है तब उसे भवान्त अर्थात् निर्माण कहते हैं। यह जीवन्मुक्तिका वर्णन नहीं है किन्तु निर्वाणका । इस श्लोक में प्रतिपादित संसार और मोक्षका स्वरूप ही मुक्तिसिद्ध और अनुभवगम्य है। वित्ती रागादि अवस्था संसार है और उसकी यनादिरहिता मोक्ष अतः सर्वकर्मक्षयसे प्राप्त होनेवाला स्वात्मलाभ ही मोक्ष है। आत्माका अभाव या चैतन्यके अभाबको मोक्ष नहीं कह सकते । रोगकी निवृत्तिका नाम आरोग्य है न कि रोगी की ही निवृत्ति या समाप्ति स्वास्थ्यलाभ ही आरोग्य है न कि मृत्यु ।
मोक्षके कारण – १ संदर — मंबर रोकनको कहते हैं। सुरक्षाका नाम संबर है। जिन द्वारोंसे कमौका आम़व होता था उन द्वारांका निरोध कर देना संवर कहलाता है । आवका मूल कारण योग है । अतः योगनिवृत्ति ही मूलतः संवरके पद पर प्रतिष्ठित हो सकती हैं। पर मन दन कामको प्रवृतिको सबंधा रोकना संभव नहीं हैं। शारीरिक आवश्यकताओं की पूतिके लिए आहार करना मलमुत्रका विसर्जन करना चलना फिरना बोलना रखना उठाना आदि क्रियाएं करनी ही पड़ती है। अतः जितने अंशोंमें मन वचन काय की किसानोंका निशेष है उतने बंधको गुप्ति कहते हैं। गुप्ति अर्थात् रक्षा मन वचन और कायकी अकुमार्गदशत्तियों विजी महाराज राप्ति ही संकरका प्रमुख कारण है। गुप्तिके अतिरिक्त समिति धर्म अनुप्रेक्षा परीषहजय और पारिदै आदि सबर होता है। समिति आदिमें जितना निवृत्तिका भाग है उतना संबरका कारण होता है और प्रवृतिका अंश शुभबन्धका हेतु होता है।
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समिति सम्यक प्रवृत्ति सावधानी से कार्य करना। ईस समिति देखकर चलना । भाषा समितिहित मित प्रिय वचन बोलना । एषणा समिति विधिपूर्वक निर्दोष आहार लेना आदान-निक्षेपण समिति-देखोपकर किसी भी वस्तुवा रखना उठाना उत्सर्ग गमिनि-निर्जन्तु स्थानपर मल मुत्रका विसर्जन करना |
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धर्म-आत्मस्वरूपमें धारण करानेवाले विचार और प्रवृत्तियों धर्म है। उत्तम क्षमाका लाग करना । क्रोधके कारण उपस्थित होनेपर भी विवेकवारिसे उन्हें शान्त करना। कायरता दोष है और क्षमा गुण जो क्षमा आत्मामें दीनता उत्पन्न करे वह धर्म नहीं। उत्तम माय-मदुता, कोमलता, विनयभाव मानका स्याग । ज्ञान पूजा कुल जाति बल ऋद्धि तमं और शरीर आदिकी किंचित् विशिष्टताके कारण आत्मस्वरूप को न भूलना, इनका अहंकार न करना। अहंकार दोष है स्वमान गुण है। उत्तम आजंद-ऋजुता, सरलता, मन वचन काय कुटिलता न होकर सरलगाव होगा जो मनमें हो, तदनुसारी ही वचन और जीवन व्यवहारका होना। माया का राग सरलता गुण है मपन दोष है। उत्तम शौचा पवित्रता, निर्लोभ वृत्ति, प्रलोभन में नहीं फंसना | लोभ कषायका त्यागकर मनमें पवित्रता लाना झीच गुण है पर बाह्य बोला और चौकापथ आदि कारण छू करके दूसरों से घृणा करना दोष है। उत्तम पमाणिकता, विश्वास परिपालन, तथ्य स्पष्ट भाषण | सच बोला धर्म है परन्तु वरनिन्दा के लिए दूसरेके दोषोंका विढोरा पीटना दोष है। पर बाधाकारी सत्य भी दोष हो सकता है। उत्तम संयम - इन्द्रिय विजय, प्राणि रक्षण। पांचो इन्द्रियोंकी विषय प्रवृत्ति पर अंकुश रखना कि प्रवृत्तिको रोकना, रुपये होना प्रणियोंकी रक्षाका ध्यान रख हुए खान-पान जीवन व्यवहारको अहिंसाकी भूमिका पर चलाना । क्रियाकाण्डमें' का अत्यधिक आग्रह दोष है। उत्तम लंग -- इच्छानिरोध ।
संयम गुण हैं पर भावशून्य बाह्यमनकी आशा तृष्णाओंको रोककर